सुधा ओम ढींगरा की कहानी ‘काट दो...’ पढ़ते-पढ़ते जब अंत तक पहुंचते हैं कि तब अनायास ही शिवमूर्ति की कहानी ‘अकाल दंड’ की याद ताजा हो जाती है। ‘काट दो’ में रेपिस्ट खुद अपने लिए सजा मुकर्रर करता है कि उसका अंग काट दिया जाए। वह इस समस्या के निदान का उपाय यह बताता है कि दुष्कर्म करने वालांे के अंग को काट देना चाहिए, इससे इस पर अंकुश लगाया जा सकता है और दशक भर से पहले लिखी गई कहानी ‘अकाल दंड’ में यह अनायास ही घट जाता है। अकाल दंड कहानी की पात्रा सूरजी सिकेटरी बाबू का हंसुए से देह का नाजुक हिस्सा अलग कर देती है। यह अलग कर देने की घटना, वह भी उस समाज की एक औरत द्वारा, जो सदियों से उत्पीड़ित होने के लिए अभिशप्त रही है और आज भी उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, मध्यप्रदेश और राजस्थान से उसके अभिशप्त होने की खबरें आती रहती हैं, तब के लिए इसे एक क्रांतिकारी कदम ही कहा जा सकता है। 21 वीं सदी का समाज, और वह पुरातन, प्राचीन श्रेष्ठ संस्कृति, जिसकी दुहाई देने में हम तनिक नहीं थकते, जो ब्रांड में है, वही पिंड में है का दर्शन...जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं...उसी समाज में जाति के विषैले विष ने दलितों के साथ अन्याय करने का जन्मजात हक हासिल कर लिया। एक ओर नारी के प्रति पूजा का भाव और उसी परंपरा में इंद्र जैसा कामुक देवता भी! तब के और अब के साहित्य में क्या अंतर है? राजेंद्र यादव घराने की लेखिकाओं ने तो खूब कलम तोड़ा और देह की मुक्ति में नारी की मुक्ति का घालमेल कर खूब पोर्नोग्राफी साहित्य रचा। तो स्त्राी को देखने का नजरिया वही सामंती यहां भी बना रहा। अलबत्ता नारे बदल गए। बुद्धिजीवी और वामपंथी होने का तमगा अलग से। वैसे, अब तो ये दोनों पर्याय हो गए हैं।
हालांकि ‘काट दो’ कहानी न दलित-सवर्ण विमर्श को खड़ा करती है न इस तरह के नारे और खेमे में विश्वास करती है। इस नजरिए से यह लिखी भी नहीं गई है। कहानी के स्वाभाविक प्रवाह द्वारा यह सृजित है। इसका कोई राजनीतिक उद्देश्य भी नहीं। यहां एक अलग समाज जरूर हमारे सामने उपस्थित होता है लेकिन समाज का आदमी, उसका मन, मस्तिष्क और सोच की बनावट में कोई अंतर नजर नहीं आता। भले शिक्षा का स्तर वहां ज्यादा हो, आदमी ज्यादा प्रैक्टिकल हो, विकसित भी ज्यादा हो, पर देह के स्तर पर सोच वही पुरातन और पोंगापंथी। यहां हम उस समाज से बावस्ता होते हैं, जहां सात जन्मों वाली रुढ़िवादी सोच नहीं हैं। यहां तो बस आज है, आज। न भूत की चिंता न भविय की परवाह। अपने को आधुनिक कहने वाले समाज ने रिश्तों को बहुत दूर छोड़ दिया है। सभ्य-सुसंस्कृत जैसे शब्द यहां बेमानी हो गए हैं-यहां भी वहां भी। इसलिए, यूएसए हो या दिल्ली-मुंबई, अचानक बलात्कार की घटनाएं बढ़ गईं हैं। हम जैसे-जैसे शिक्षित होते जा रहे हैं, लगता है हमारा विवेक पीछे छूटता चला जा रहा है। शिक्षा हमें रोजगारी तो बना रही है, संस्कारी नहीं। हम सब जानते हैं कि गांव में बलात्कार की घटनाएं कई कारणों से समाज और गांव समाज की दहलीज लांघ नहीं पाती हैं। कहीं समाज का डर, कहीं पंचायत का। किसी ने कभी मुंह खोला या रिपोर्ट लिखाने का साहस किया तो उसे दुश्चरित्रा और फिर नंगा घुमाने का फरमान। या फिर हम उस जिंदगी के ताप को महसूस नहीं कर पाते, जहां दलित स्त्रिायों की इज्जत सरेराह उछाली जाती है। शहर का चरित्रा दूसरा है। बलात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है। 16 दिसंबर के बाद तो जैसे पूरा देश ही बलात्कार की घटनाओं से चीत्कार करने लगा है। गांव-शहर का भेद भी मिट गया है। यह अलग बात है कि हमारे समाजशास्त्रिायों और चिंतकों ने इसका कोई अब तक समाजशास्त्राीय और मार्क्सवादी ढंग से अध्ययन नहीं किया है कि आखिर, बलात्कारियों का वर्ग चरित्रा क्या है?
मृदुला गर्ग अपने एक लेख में कहती हैं कि ‘बलात्कार, स्त्राी के स्त्राी होने की अस्मिता का ही हनन नहीं करता, समाज में उसके स्तर, हैसियत व छवि पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। साथ ही उसके मन में अपने भावात्मक व मानवीय संबंधों के बारे में संशय पैदा करता है। उसे उन पर दुबारा सोच विचार करने को बाध्य करता है।’ वह आगे कहती हैं, ‘तमाम जागरूकता के बावजूद उन सामाजिक स्थितियों में बदलाव आता दिखाई नहीं देता जो स्त्राी को बलात्कार का शिकार बनाती हैं। बल्कि त्रासद सच्चाई यह है कि उसकी घटनाएं बढ़ रही हैं।’ आखिर, ऐसी घटनाएं अचानक क्यों बढ़ गईं?
‘काट दो’ ऐसी ही मानसिकता से उपजी कहानी है। एक त्रासद सच्चाई। पर कहा गया है, यहां रेपिस्ट खुद अपनी सजा मुकर्रर कर रहा है कि उसके अंग को काट दिया जाए। आप सोच सकते हैं कि क्या वह पागल है, सिरफिरा है या उसे अपने किए की आत्मग्लानि हो गई है, जो इस तरह की सजा अपने लिए मांग रहा है! आखिर वह पूरे होशोहवास में क्यों कह रहा है कि इस समाधान से ही बलात्कार जैसी घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सकता है। क्या यह उस पागल का बयान है? क्या ऐसा संभव है? इसी तरह की घटनाएं क्या प्रकाश में आईं हैं? हालांकि यह कहानी दिमाग की उपज भर नहीं है। इसका एक सूत्रा है, जो यथार्थ की डोर से बंधा है। वहीं से यह कथा निकली है और आगे बढ़ती है। फिर थोड़ी कल्पना के साथ कहानी की शक्ल ग्रहण कर लेती है।
यूएसए में रहने वाली सुधा की इस कहानी में एक अलग आस्वाद मिलता है। पर एक बात पूरब-पश्चिम के बारे में समान बात कही जा सकती है कि मर्द का चरित्रा एक होता है। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई देश कितना आधुनिक और विकास के तल पर कितना आगे बढ़ गया है। औरत के मामले में सारी आधुनिकता बहुत पीछे छूट जाती है और मानसिकता वहीं अटकी है, जहां हजारों साल से अटकी है, जब आदि ग्रंथ आकार ले रहे थे। इसलिए, मानसिकता वहां भी वही थी कि ‘मुझे बस उसे नोचना होता है। उसके अस्तित्व पर चोट पहुंचानी होती है, जिसे वह अस्मिता कहती है, उसे लूटना होता है।’ यह हर मर्द की मानसिकता होती है। ‘पीली छतरी वाली लड़की’ का नायक भी अपनी सवर्ण नायिका के साथ सहवास ही नहीं करता, हजारों साल के अपने पुरखों के साथ हुए अन्याय का बदला भी लेता है। उस क्षण उसकी अस्मिता वहां जाग जाती है। अस्मिता पद बड़ा लुभावना है। अभी हिंदी में भी खूब प्रचलित है। नारी अस्मिता, दलित अस्मिता, आदिवासी अस्मिता, पिछड़ी जाति की अस्मिता, अगड़ी जाति की अस्मिता आदि-आदि। अस्मिता को अभी यहीं स्थगित करते हैं। क्योंकि यह कहानी कोई अस्मितावादी ढांचे में ढली नहीं है।
कहानी के मूल पर आने से पहले यह जरूरी है कि हम कहानीकार के बारे में थोड़ा जान लें। इससे कहानी को समझने में आसानी होगी। सुधा एक साइकालॉजिस्ट हैं। फेमिली काउन्सलर हैं। रेप विक्टिम्ज के परिवारों की काउंसलिंग भी करती हैं। दरअसल इस कहानी के जन्म की भी एक कथा है। वह रेप विक्टिम्ज पर होने वाले एक कॉन्फ्रेंस में शामिल थीं कि एक रेपिस्ट ने यह सुझाया कि काट देने से रेप को काफी हद तक रोका जा सकता है।’ उसके इस सुझाव को साहस कह सकते हैं। कहानी का सूत्रा यही है। पंच लाइन यही है। आधार यही है। यहीं से यह कहानी जन्म लेती है। पर, कहानी में इतना भर नहीं है न कहानी इतनी सपाट है। कई दार्शनिक सी लगने वाली बातें हैं, ‘मेरे अलावा मेरे बारे में कोई नहीं जानता। यह भी अच्छी बात है कि मैंने स्वयं को पहचान लिया अन्यथा लोग उम्र भर स्वयं को खोज नहीं पाते। मरणासन्न पड़े हैं और सोच रहे हैं कि मैं कौन हूं।’ अक्सर हम दूसरों को जानने का दावा करते है...हां, हां, हम तो उसे जानते हैं। पर क्या कभी खुद से पूछा है कि मैं कौन हूं? जैसे ही सवाल उठता है, हम इसे छोटे से सवाल का सामना नहीं कर पाते। आंखें नहीं मिला पाते खुद से। अरे, यह तो ऋषि-मुनियों का काम है। अथवा, कोई यह दावा कर भी दे कि खुद को जान गया हंू तो उसे पागल करार देने में हमें तनिक भी वक्त नहीं लगेगा।
इस महिला को होश क्यों नहीं आया? अब तक तो इसकी आंखें खुल जानी चाहिए थी।...चिंता है कि इसे देखकर मुझे क्या हो रहा है। मेरी उोजना मर क्यों गई। मेरा उत्साह खत्म क्यों हो गया। मेरी र्जा कहां चली गई। ऐसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ।...शायद यह गिड़़गिड़ा नहीं रही। महिला को गिड़गिड़ाते देखकर मैं आक्रामक हो जाता हूं फिर चाहे वह बूढ़ी हो, जवान हो, अधेड़ हो या बच्ची, किसी की मां हो, बेटी हो या पत्नी। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।’ पर यहां फर्क पड़ा। नायक स्त्राी जात से नफरत करता है। इसके पीछे एक वाजिब कारण भी है। कार्य-कारण। कई औरतों ने बचपन में जख्म दिए जो अब घाव बन गए थे।... ‘तब सत्ता उनके हाथ में थी। उन्होंने मेरा शोषण होने दिया। अब सत्ता मेरे हाथ में है। स्त्राी वर्ग से नफरत है।’ यह नफरत उसके अंदर इतना मजबूत हो जाता है कि उसके अंदर छुपे जानवर को और ताकतवर बना देता है। शिकार देखते ही झपट पड़ता है। पर आज जिस महिला को उठकार पार्क से ले आया, उसके साथ वह कुछ कर नहीं पा रहा? अचानक उसकी ताकत जैसे क्षीण हो गई हो? ‘मेरे हाथ कांप रहे हैं? मैं इस नारी को निर्वस्त्र नहीं कर पा रहा। यह तो मेरा शिकार थी। जागिंग करते हुए इसकी पिंडलियां ही तो मुझे उत्तेजित कर गई थीं।’
वह स्त्री के दूसरे हिस्से को देख उत्तेजित नहीं होता है। वह पैर देखता है। पैर या पिंडलियां देखने का एक वाजिब कारण भी है, जो कहानी में आगे खुलती है। सुधा ने आखिर, उस अनजान स्त्री की पिंडलियां ही क्यों दिखाई? जबकि औरत के पास दिखाने को बहुत कुछ है। क्या कोई रासायनिक क्रिया हो सकती है? या फिर वह इस स्त्राी के साथ ऐसा कुछ नहीं कर पा रहा, जो अक्सर स्त्रिायों के साथ करता था? ‘यह भी सोचने का समय नहीं मिला कि उसने मुझे ‘हाय सन’ कहा था। इसका मतलब है कि यह अधेड़ उम्र की महिला है, इसके बच्चे मेरी उम्र के या मुझे से छोटे-बड़े होंगे।’ यह सब वह मन में बुदबुदाता है। अजीब रेपिस्ट है। शिकार सामने है पर, हाथ-पैर जैसे सुन्न हो गए हैं। ‘सुना है, हर इंसान के पास विवेक होता है, अंतर्मन नाम की शै भी है, पर मेरे पास ऐसा कुछ नहीं। अंधेरे में गुम हुई मेरी सोच इन सबको निगल चुकी है।’ पर यहां आकर उसकी सोच वापस जिंदा हो जाती है। पिंडलियां पर अटक जाना, हाय सन का दिमाग में घूमना बहुत अर्थपूर्ण है। अनायास नहीं। पर, कहानी में जिस तरह ये शब्द और संवाद आते हैं, वह बहुत ही स्वाभाविक ढंग से। इसलिए, पढ़ने वाले को कुछ पता नहीं चलता। वह कहानीकार के प्रवाह में बहता चला जाता है। प्रवाह, पाठक को सोचने के लिए समय नहीं देता।
आप सोच ही नहीं सकते कि इस रेपिस्ट को स्त्री जात से नफरत क्यों है? इसलिए रेपिस्ट खुद खुलासा करता है। एक स्त्राी ने इसकी जिंदगी को नरक बना दिया था। वह स्त्री कोई और नहीं, उसकी सौतेली मां थी, जिसे उसके पिता ने इसके प्यार में अंधा होकर पहली पत्नी, यानी उसकी मां को छोड़ दिया था। हरजाना न देना पड़े, इसलिए वकील पिता ने ऐसी तरकीब निकाली कि वह अदालत में केस जीत गया। सौतेली मां ने प्रताड़ित करना शुरू किया तो 911 पर डायल कर दिया। घर से पोषक गृह भेज दिया गया। अब बच्चे से भी छुटकारा मिल गया। ‘मां की सहेली ने ही मुझे बताया कि सौतेली मां की वजह से ही मेरे मम्मी-डैडी का तलाक हुआ था और डैड ने मम्मी को बहुत तंग किया था। वकील थे और चालाकी से कोर्ट केस जीत गए थे। अब उसे भी पता नहीं मेरी मां कहां है? उसी ने मुझे बताया था कि मुझे छोड़ते समय मेरी मां बहुत रोई थी।’ बच्चे का बचपन 18 साल की उम्र तक एक पोषक गृह में बीता। यहां भी उसे भयानक डरावने अनुभव हुए। पोषक गृह में जो हुआ, उसे पुलिस को बताया तो यहां से दूसरे पोषक गृह में भेज दिया गया। इस तरह 18 साल तक अलग-अलग पोषक गृहों में उसे रहना पड़ा। इसके बाद सेना में। एक दिन अपनी प्रेमिका के घर बिना फोन किए गया तो वह दूसरे की बाहों में थीं। एक युवक, जो लगातार यातना सह रहा था, उसे एक अदद प्रेम भी नसीब नहीं हुआ। न मां का न प्रेमिका का। अफगानिस्तान मंे तैनाती की यादें घाव में बदल गईं और घाव पागलपन की ओर ले गया। वहां की एक घटना ने भी उसे झिंझोड़कर रख दिया...‘स्त्राी गोश्त के भूखे भेड़िये उन पर झपट पड़े थे। उनकी चीख, पुकार चहुं दिशाओं में गूंज उठी थी पर सुनने वाला कोई नहीं था? आधी रात को अल्लाह, जीसस, ईश्वर सब सो रहे थे। किसी ने उनकी फरियाद नहीं सुनी और वे लुटती रहीं।’
अब इस शब्द पर ध्यान दीजिए, आधी रात को अल्लाह, जीसस, ईश्वर सब सो रहे थे। ये भगवान किसके लिए हैं? गरीबों के लिए, मजलूमों के लिए, बेसहारों के लिए...या उन अमीरों के लिए, जो करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाते हैं कि उनकी मनौती पूरी हुई; पर किसी गरीब की कोई मनौती पूरी होते देखा है? द्वापर में तो कृष्ण ने द्रोपदी की लाज बचा दी थी, लेकिन इस कलयुग में औरतों के कातर स्वर को भगवान क्यों नहीं सुन रहा? क्या दिल्ली की सड़कांे पर निर्भया ने भगवान को नहीं पुकारा होगा?
अफगानिस्तान में यह सब देख वह पागल हो गया। वहां से जब उसकी वापसी हुई और उसे पागलखाने में भर्ती कर दिया गया। दरअसल, लगता है कि यह कहानी उस रेपिस्ट की है। पर, जब वह पागलखाने में भर्ती होता है तो लगता है कि यह कहानी तो पूरे समाज की है। समाज ही रुग्ण हो गया है। मनोचिकित्सकों के साथ होती उसकी बातों में वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कुछ मनोवृत्तियां बच्चा साथ लेकर पैदा होता है। एक परिवार में चार बच्चे, अलग-अलग प्रवृत्ति के कैसे हो जाते हैं, जबकि उनकी परवरिश एक जैसी हुई होती है? इस जैसे समाज में अनेक लोग मिल जाएंगे, पर क्या वे सभी बलात्कारी हो गए? लेकिन यह तो बलात्कारी हो गया और एक दिन वह खुद अपनी मां को ही अगवा कर लेता है। बलात्कार एक ऐसा शस्त्रा है, जिसके भय से समस्त नारी जगत को दबा कर रखा जा सकता है। पर, उस महिला को देखकर कमजोर पड़ गया, ‘ नहीं सर, यह मुझे हर्ट नहीं कर सका। दीवारों पर इसके बनाए चित्रा देखें। इसकी मां के साथ मेरी शक्ल मिलती है।’ वह महिला पुलिस को बताती है। वह समझ गया कि वह मेरी मां थी।...वह महिला उसके पास आई और उसकी ओर देखकर बोली, आर यू डेविड कूपरज सन? वह एकटक उसे देखता है। गरिमामय चेहरा-‘तो यह मेरी मां है।’
कहते हैं कि कहानी अपना शिल्प खुद ढूंढ लेती है। इस कहानी का शिल्प भी कुछ ऐसा ही है। आत्मकथात्मक शैली में यह कहानी लिखी गई है। अतीत-वर्तमान में आवाजाही करते हुए कहानी आगे बढ़ती चलती है। भाषा आडंबर से मुक्त है और कहानी अमूर्तता की शिकार नहीं है। अक्सर, आज की कहानियों के साथ ऐसी दुर्घटनाएं आम हो चली हैं। कहानी पढ़ते-पढ़ते पता नहीं चल पाता कि लिखा क्या है, कहना क्या चाहता है। तब कोई आलोचक प्रकट होता है और फिर कहानी की बारीकियों, शिल्प, उद्देश्य, भाषा पर अपना कीमती समय और दुर्लभ शब्दों से व्याख्या करते हुए उसे सदी, दशक, साल की महान कहानी घोषित कर देता है। दूसरी भाषाओं मंे ऐसा होता है या नहीं, हिंदी में खूब प्रचलित है। सुधा की कहानी आलोचकों के लिए नहीं लिखी गई है, इसलिए समझ में आ जाती है। जैसे हिंदी की किताबों के दाम देखकर आप अनुमान लगा सकते हैं कि यह पाठकों के लिए है या पुस्तकालय के लिए। बंगला में पुस्तकालय संस्करण की किताबें भी कम दामों में बेहतर छपाई के साथ मिल जाती हैं, क्योंकि किताबें पाठकों के लिए छपती हैं, पुस्तकालयों के लिए नहीं। यह कहानी भी पाठकों के लिए लिखी गई है और एक ज्वलंत और धधकते विषय पर। नारी विमर्शों के नाम पर जो कहानियां अपने यहां परोसी जा रही हैं, उससे इतर। हमारे यहां इन दिनों स्त्राी विमर्श के नाम पर मस्तराम टाइप कहानियां हैं, जो स्त्रिायों द्वारा लिखी जा रही हैं, जिसका सच से कोई ताल्लुक नहीं, पर चर्चा और पुरस्कार खूब बटोर रही हैं। और, चर्चा और पुरस्कार देने वाले वही मर्द। जो कहानी पहले मस्तराम टाइप लेखक लिखते थे, वही अब आज स्त्राी लिख रही है, बोल्ड होने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा न। नहीं तो आलोचक भला कैसे कहेगा, जबदरस्त, मील का पत्थर, घेरे से बाहर, उत्तर आधुनिक। हां, इतना तो कह सकते हैं 21 वीं सदी में कुछ तो बदला? क्या आप बदले हैं?
-संजय कृष्ण
हालांकि ‘काट दो’ कहानी न दलित-सवर्ण विमर्श को खड़ा करती है न इस तरह के नारे और खेमे में विश्वास करती है। इस नजरिए से यह लिखी भी नहीं गई है। कहानी के स्वाभाविक प्रवाह द्वारा यह सृजित है। इसका कोई राजनीतिक उद्देश्य भी नहीं। यहां एक अलग समाज जरूर हमारे सामने उपस्थित होता है लेकिन समाज का आदमी, उसका मन, मस्तिष्क और सोच की बनावट में कोई अंतर नजर नहीं आता। भले शिक्षा का स्तर वहां ज्यादा हो, आदमी ज्यादा प्रैक्टिकल हो, विकसित भी ज्यादा हो, पर देह के स्तर पर सोच वही पुरातन और पोंगापंथी। यहां हम उस समाज से बावस्ता होते हैं, जहां सात जन्मों वाली रुढ़िवादी सोच नहीं हैं। यहां तो बस आज है, आज। न भूत की चिंता न भविय की परवाह। अपने को आधुनिक कहने वाले समाज ने रिश्तों को बहुत दूर छोड़ दिया है। सभ्य-सुसंस्कृत जैसे शब्द यहां बेमानी हो गए हैं-यहां भी वहां भी। इसलिए, यूएसए हो या दिल्ली-मुंबई, अचानक बलात्कार की घटनाएं बढ़ गईं हैं। हम जैसे-जैसे शिक्षित होते जा रहे हैं, लगता है हमारा विवेक पीछे छूटता चला जा रहा है। शिक्षा हमें रोजगारी तो बना रही है, संस्कारी नहीं। हम सब जानते हैं कि गांव में बलात्कार की घटनाएं कई कारणों से समाज और गांव समाज की दहलीज लांघ नहीं पाती हैं। कहीं समाज का डर, कहीं पंचायत का। किसी ने कभी मुंह खोला या रिपोर्ट लिखाने का साहस किया तो उसे दुश्चरित्रा और फिर नंगा घुमाने का फरमान। या फिर हम उस जिंदगी के ताप को महसूस नहीं कर पाते, जहां दलित स्त्रिायों की इज्जत सरेराह उछाली जाती है। शहर का चरित्रा दूसरा है। बलात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है। 16 दिसंबर के बाद तो जैसे पूरा देश ही बलात्कार की घटनाओं से चीत्कार करने लगा है। गांव-शहर का भेद भी मिट गया है। यह अलग बात है कि हमारे समाजशास्त्रिायों और चिंतकों ने इसका कोई अब तक समाजशास्त्राीय और मार्क्सवादी ढंग से अध्ययन नहीं किया है कि आखिर, बलात्कारियों का वर्ग चरित्रा क्या है?
मृदुला गर्ग अपने एक लेख में कहती हैं कि ‘बलात्कार, स्त्राी के स्त्राी होने की अस्मिता का ही हनन नहीं करता, समाज में उसके स्तर, हैसियत व छवि पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। साथ ही उसके मन में अपने भावात्मक व मानवीय संबंधों के बारे में संशय पैदा करता है। उसे उन पर दुबारा सोच विचार करने को बाध्य करता है।’ वह आगे कहती हैं, ‘तमाम जागरूकता के बावजूद उन सामाजिक स्थितियों में बदलाव आता दिखाई नहीं देता जो स्त्राी को बलात्कार का शिकार बनाती हैं। बल्कि त्रासद सच्चाई यह है कि उसकी घटनाएं बढ़ रही हैं।’ आखिर, ऐसी घटनाएं अचानक क्यों बढ़ गईं?
‘काट दो’ ऐसी ही मानसिकता से उपजी कहानी है। एक त्रासद सच्चाई। पर कहा गया है, यहां रेपिस्ट खुद अपनी सजा मुकर्रर कर रहा है कि उसके अंग को काट दिया जाए। आप सोच सकते हैं कि क्या वह पागल है, सिरफिरा है या उसे अपने किए की आत्मग्लानि हो गई है, जो इस तरह की सजा अपने लिए मांग रहा है! आखिर वह पूरे होशोहवास में क्यों कह रहा है कि इस समाधान से ही बलात्कार जैसी घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सकता है। क्या यह उस पागल का बयान है? क्या ऐसा संभव है? इसी तरह की घटनाएं क्या प्रकाश में आईं हैं? हालांकि यह कहानी दिमाग की उपज भर नहीं है। इसका एक सूत्रा है, जो यथार्थ की डोर से बंधा है। वहीं से यह कथा निकली है और आगे बढ़ती है। फिर थोड़ी कल्पना के साथ कहानी की शक्ल ग्रहण कर लेती है।
यूएसए में रहने वाली सुधा की इस कहानी में एक अलग आस्वाद मिलता है। पर एक बात पूरब-पश्चिम के बारे में समान बात कही जा सकती है कि मर्द का चरित्रा एक होता है। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई देश कितना आधुनिक और विकास के तल पर कितना आगे बढ़ गया है। औरत के मामले में सारी आधुनिकता बहुत पीछे छूट जाती है और मानसिकता वहीं अटकी है, जहां हजारों साल से अटकी है, जब आदि ग्रंथ आकार ले रहे थे। इसलिए, मानसिकता वहां भी वही थी कि ‘मुझे बस उसे नोचना होता है। उसके अस्तित्व पर चोट पहुंचानी होती है, जिसे वह अस्मिता कहती है, उसे लूटना होता है।’ यह हर मर्द की मानसिकता होती है। ‘पीली छतरी वाली लड़की’ का नायक भी अपनी सवर्ण नायिका के साथ सहवास ही नहीं करता, हजारों साल के अपने पुरखों के साथ हुए अन्याय का बदला भी लेता है। उस क्षण उसकी अस्मिता वहां जाग जाती है। अस्मिता पद बड़ा लुभावना है। अभी हिंदी में भी खूब प्रचलित है। नारी अस्मिता, दलित अस्मिता, आदिवासी अस्मिता, पिछड़ी जाति की अस्मिता, अगड़ी जाति की अस्मिता आदि-आदि। अस्मिता को अभी यहीं स्थगित करते हैं। क्योंकि यह कहानी कोई अस्मितावादी ढांचे में ढली नहीं है।
कहानी के मूल पर आने से पहले यह जरूरी है कि हम कहानीकार के बारे में थोड़ा जान लें। इससे कहानी को समझने में आसानी होगी। सुधा एक साइकालॉजिस्ट हैं। फेमिली काउन्सलर हैं। रेप विक्टिम्ज के परिवारों की काउंसलिंग भी करती हैं। दरअसल इस कहानी के जन्म की भी एक कथा है। वह रेप विक्टिम्ज पर होने वाले एक कॉन्फ्रेंस में शामिल थीं कि एक रेपिस्ट ने यह सुझाया कि काट देने से रेप को काफी हद तक रोका जा सकता है।’ उसके इस सुझाव को साहस कह सकते हैं। कहानी का सूत्रा यही है। पंच लाइन यही है। आधार यही है। यहीं से यह कहानी जन्म लेती है। पर, कहानी में इतना भर नहीं है न कहानी इतनी सपाट है। कई दार्शनिक सी लगने वाली बातें हैं, ‘मेरे अलावा मेरे बारे में कोई नहीं जानता। यह भी अच्छी बात है कि मैंने स्वयं को पहचान लिया अन्यथा लोग उम्र भर स्वयं को खोज नहीं पाते। मरणासन्न पड़े हैं और सोच रहे हैं कि मैं कौन हूं।’ अक्सर हम दूसरों को जानने का दावा करते है...हां, हां, हम तो उसे जानते हैं। पर क्या कभी खुद से पूछा है कि मैं कौन हूं? जैसे ही सवाल उठता है, हम इसे छोटे से सवाल का सामना नहीं कर पाते। आंखें नहीं मिला पाते खुद से। अरे, यह तो ऋषि-मुनियों का काम है। अथवा, कोई यह दावा कर भी दे कि खुद को जान गया हंू तो उसे पागल करार देने में हमें तनिक भी वक्त नहीं लगेगा।
इस महिला को होश क्यों नहीं आया? अब तक तो इसकी आंखें खुल जानी चाहिए थी।...चिंता है कि इसे देखकर मुझे क्या हो रहा है। मेरी उोजना मर क्यों गई। मेरा उत्साह खत्म क्यों हो गया। मेरी र्जा कहां चली गई। ऐसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ।...शायद यह गिड़़गिड़ा नहीं रही। महिला को गिड़गिड़ाते देखकर मैं आक्रामक हो जाता हूं फिर चाहे वह बूढ़ी हो, जवान हो, अधेड़ हो या बच्ची, किसी की मां हो, बेटी हो या पत्नी। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।’ पर यहां फर्क पड़ा। नायक स्त्राी जात से नफरत करता है। इसके पीछे एक वाजिब कारण भी है। कार्य-कारण। कई औरतों ने बचपन में जख्म दिए जो अब घाव बन गए थे।... ‘तब सत्ता उनके हाथ में थी। उन्होंने मेरा शोषण होने दिया। अब सत्ता मेरे हाथ में है। स्त्राी वर्ग से नफरत है।’ यह नफरत उसके अंदर इतना मजबूत हो जाता है कि उसके अंदर छुपे जानवर को और ताकतवर बना देता है। शिकार देखते ही झपट पड़ता है। पर आज जिस महिला को उठकार पार्क से ले आया, उसके साथ वह कुछ कर नहीं पा रहा? अचानक उसकी ताकत जैसे क्षीण हो गई हो? ‘मेरे हाथ कांप रहे हैं? मैं इस नारी को निर्वस्त्र नहीं कर पा रहा। यह तो मेरा शिकार थी। जागिंग करते हुए इसकी पिंडलियां ही तो मुझे उत्तेजित कर गई थीं।’
वह स्त्री के दूसरे हिस्से को देख उत्तेजित नहीं होता है। वह पैर देखता है। पैर या पिंडलियां देखने का एक वाजिब कारण भी है, जो कहानी में आगे खुलती है। सुधा ने आखिर, उस अनजान स्त्री की पिंडलियां ही क्यों दिखाई? जबकि औरत के पास दिखाने को बहुत कुछ है। क्या कोई रासायनिक क्रिया हो सकती है? या फिर वह इस स्त्राी के साथ ऐसा कुछ नहीं कर पा रहा, जो अक्सर स्त्रिायों के साथ करता था? ‘यह भी सोचने का समय नहीं मिला कि उसने मुझे ‘हाय सन’ कहा था। इसका मतलब है कि यह अधेड़ उम्र की महिला है, इसके बच्चे मेरी उम्र के या मुझे से छोटे-बड़े होंगे।’ यह सब वह मन में बुदबुदाता है। अजीब रेपिस्ट है। शिकार सामने है पर, हाथ-पैर जैसे सुन्न हो गए हैं। ‘सुना है, हर इंसान के पास विवेक होता है, अंतर्मन नाम की शै भी है, पर मेरे पास ऐसा कुछ नहीं। अंधेरे में गुम हुई मेरी सोच इन सबको निगल चुकी है।’ पर यहां आकर उसकी सोच वापस जिंदा हो जाती है। पिंडलियां पर अटक जाना, हाय सन का दिमाग में घूमना बहुत अर्थपूर्ण है। अनायास नहीं। पर, कहानी में जिस तरह ये शब्द और संवाद आते हैं, वह बहुत ही स्वाभाविक ढंग से। इसलिए, पढ़ने वाले को कुछ पता नहीं चलता। वह कहानीकार के प्रवाह में बहता चला जाता है। प्रवाह, पाठक को सोचने के लिए समय नहीं देता।
आप सोच ही नहीं सकते कि इस रेपिस्ट को स्त्री जात से नफरत क्यों है? इसलिए रेपिस्ट खुद खुलासा करता है। एक स्त्राी ने इसकी जिंदगी को नरक बना दिया था। वह स्त्री कोई और नहीं, उसकी सौतेली मां थी, जिसे उसके पिता ने इसके प्यार में अंधा होकर पहली पत्नी, यानी उसकी मां को छोड़ दिया था। हरजाना न देना पड़े, इसलिए वकील पिता ने ऐसी तरकीब निकाली कि वह अदालत में केस जीत गया। सौतेली मां ने प्रताड़ित करना शुरू किया तो 911 पर डायल कर दिया। घर से पोषक गृह भेज दिया गया। अब बच्चे से भी छुटकारा मिल गया। ‘मां की सहेली ने ही मुझे बताया कि सौतेली मां की वजह से ही मेरे मम्मी-डैडी का तलाक हुआ था और डैड ने मम्मी को बहुत तंग किया था। वकील थे और चालाकी से कोर्ट केस जीत गए थे। अब उसे भी पता नहीं मेरी मां कहां है? उसी ने मुझे बताया था कि मुझे छोड़ते समय मेरी मां बहुत रोई थी।’ बच्चे का बचपन 18 साल की उम्र तक एक पोषक गृह में बीता। यहां भी उसे भयानक डरावने अनुभव हुए। पोषक गृह में जो हुआ, उसे पुलिस को बताया तो यहां से दूसरे पोषक गृह में भेज दिया गया। इस तरह 18 साल तक अलग-अलग पोषक गृहों में उसे रहना पड़ा। इसके बाद सेना में। एक दिन अपनी प्रेमिका के घर बिना फोन किए गया तो वह दूसरे की बाहों में थीं। एक युवक, जो लगातार यातना सह रहा था, उसे एक अदद प्रेम भी नसीब नहीं हुआ। न मां का न प्रेमिका का। अफगानिस्तान मंे तैनाती की यादें घाव में बदल गईं और घाव पागलपन की ओर ले गया। वहां की एक घटना ने भी उसे झिंझोड़कर रख दिया...‘स्त्राी गोश्त के भूखे भेड़िये उन पर झपट पड़े थे। उनकी चीख, पुकार चहुं दिशाओं में गूंज उठी थी पर सुनने वाला कोई नहीं था? आधी रात को अल्लाह, जीसस, ईश्वर सब सो रहे थे। किसी ने उनकी फरियाद नहीं सुनी और वे लुटती रहीं।’
अब इस शब्द पर ध्यान दीजिए, आधी रात को अल्लाह, जीसस, ईश्वर सब सो रहे थे। ये भगवान किसके लिए हैं? गरीबों के लिए, मजलूमों के लिए, बेसहारों के लिए...या उन अमीरों के लिए, जो करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाते हैं कि उनकी मनौती पूरी हुई; पर किसी गरीब की कोई मनौती पूरी होते देखा है? द्वापर में तो कृष्ण ने द्रोपदी की लाज बचा दी थी, लेकिन इस कलयुग में औरतों के कातर स्वर को भगवान क्यों नहीं सुन रहा? क्या दिल्ली की सड़कांे पर निर्भया ने भगवान को नहीं पुकारा होगा?
अफगानिस्तान में यह सब देख वह पागल हो गया। वहां से जब उसकी वापसी हुई और उसे पागलखाने में भर्ती कर दिया गया। दरअसल, लगता है कि यह कहानी उस रेपिस्ट की है। पर, जब वह पागलखाने में भर्ती होता है तो लगता है कि यह कहानी तो पूरे समाज की है। समाज ही रुग्ण हो गया है। मनोचिकित्सकों के साथ होती उसकी बातों में वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कुछ मनोवृत्तियां बच्चा साथ लेकर पैदा होता है। एक परिवार में चार बच्चे, अलग-अलग प्रवृत्ति के कैसे हो जाते हैं, जबकि उनकी परवरिश एक जैसी हुई होती है? इस जैसे समाज में अनेक लोग मिल जाएंगे, पर क्या वे सभी बलात्कारी हो गए? लेकिन यह तो बलात्कारी हो गया और एक दिन वह खुद अपनी मां को ही अगवा कर लेता है। बलात्कार एक ऐसा शस्त्रा है, जिसके भय से समस्त नारी जगत को दबा कर रखा जा सकता है। पर, उस महिला को देखकर कमजोर पड़ गया, ‘ नहीं सर, यह मुझे हर्ट नहीं कर सका। दीवारों पर इसके बनाए चित्रा देखें। इसकी मां के साथ मेरी शक्ल मिलती है।’ वह महिला पुलिस को बताती है। वह समझ गया कि वह मेरी मां थी।...वह महिला उसके पास आई और उसकी ओर देखकर बोली, आर यू डेविड कूपरज सन? वह एकटक उसे देखता है। गरिमामय चेहरा-‘तो यह मेरी मां है।’
कहते हैं कि कहानी अपना शिल्प खुद ढूंढ लेती है। इस कहानी का शिल्प भी कुछ ऐसा ही है। आत्मकथात्मक शैली में यह कहानी लिखी गई है। अतीत-वर्तमान में आवाजाही करते हुए कहानी आगे बढ़ती चलती है। भाषा आडंबर से मुक्त है और कहानी अमूर्तता की शिकार नहीं है। अक्सर, आज की कहानियों के साथ ऐसी दुर्घटनाएं आम हो चली हैं। कहानी पढ़ते-पढ़ते पता नहीं चल पाता कि लिखा क्या है, कहना क्या चाहता है। तब कोई आलोचक प्रकट होता है और फिर कहानी की बारीकियों, शिल्प, उद्देश्य, भाषा पर अपना कीमती समय और दुर्लभ शब्दों से व्याख्या करते हुए उसे सदी, दशक, साल की महान कहानी घोषित कर देता है। दूसरी भाषाओं मंे ऐसा होता है या नहीं, हिंदी में खूब प्रचलित है। सुधा की कहानी आलोचकों के लिए नहीं लिखी गई है, इसलिए समझ में आ जाती है। जैसे हिंदी की किताबों के दाम देखकर आप अनुमान लगा सकते हैं कि यह पाठकों के लिए है या पुस्तकालय के लिए। बंगला में पुस्तकालय संस्करण की किताबें भी कम दामों में बेहतर छपाई के साथ मिल जाती हैं, क्योंकि किताबें पाठकों के लिए छपती हैं, पुस्तकालयों के लिए नहीं। यह कहानी भी पाठकों के लिए लिखी गई है और एक ज्वलंत और धधकते विषय पर। नारी विमर्शों के नाम पर जो कहानियां अपने यहां परोसी जा रही हैं, उससे इतर। हमारे यहां इन दिनों स्त्राी विमर्श के नाम पर मस्तराम टाइप कहानियां हैं, जो स्त्रिायों द्वारा लिखी जा रही हैं, जिसका सच से कोई ताल्लुक नहीं, पर चर्चा और पुरस्कार खूब बटोर रही हैं। और, चर्चा और पुरस्कार देने वाले वही मर्द। जो कहानी पहले मस्तराम टाइप लेखक लिखते थे, वही अब आज स्त्राी लिख रही है, बोल्ड होने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा न। नहीं तो आलोचक भला कैसे कहेगा, जबदरस्त, मील का पत्थर, घेरे से बाहर, उत्तर आधुनिक। हां, इतना तो कह सकते हैं 21 वीं सदी में कुछ तो बदला? क्या आप बदले हैं?
-संजय कृष्ण
-धु्रब तिवारी का मकान, कोकर, नीचे मोहल्ला, रांची
834001
मो 09835710937
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