विवेकानंद ने सात बार की थी बाबा धाम की यात्रा

स्वामी विवेकानंद देवघर करीब सात बार आए। पहली बार 1887 की गर्मियों में, जब वे बीमार हो गए थे। गुरु भाइयों के अनुरोध पर जलवायु परिवर्तन के लिए वे वैद्यनाथ और सिमुलतला आए। गुरु भाइयों ने भिक्षा मांगकर स्वामी विवेकानंद को यहां भेजा था, लेकिन वे बहुत दिन रह नहीं पाए। दो साल बाद फिर वे यहां आए। यहां से तब कई पत्र लिखे। एक पत्र 24 दिसंबर, 1889 को स्वामीजी ने बलराम बसु को लिखा था...'मैं वैद्यनाथ में कुछ दिनों से पूर्ण बाबू के निवास-स्थान में ठहरा हंू। यहां उतनी ठंड नहीं है, और मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं है, शायद यहां के पानी में लोहा अधिक होने के कारण मुझे अपच की शिकायत हो रही है। मुझे तो अपने अनुकूल यहां कुछ भी नहीं मिला-न स्थान, न मौसम और न साथी ही।Ó यहां की जलवायु उनके स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं थी। इसलिए वे बहुत दिन तक यहां रह नहीं पाए। यह पत्र लंबा है। उन्होंने यहां गोविंद चौधरी का जिक्र करते हैं। उनके बारे में तरह-तरह की उड़ रही बातों का उल्लेख भी इस पत्र में किया है। दो दिन बाद उन्होंने 26 दिसंबर को यहां से प्रमदादास मित्र को पत्र लिखा। यह अपेक्षाकृत छोटा है। करीब दस पंक्तियों का। यहां एक सूचना दर्ज है-'मैं यहां कलकत्तानिवासी एक सज्जन के मकान पर दो चार दिन से हूं-किंतु वाराणसी के लिए चित्त अत्यंत व्याकुल है।Ó यहां से वे वाराणसी नहीं, सीधे इलाहाबाद जाते हैं।
एक साल बाद 1890 के अगस्त में वे भागलपुर आए थे। यहां से वे अखंडानंद जी के साथ लखीसराय और वहां से देवघर आए। अखंडानंदजी लिखते हैं, 'इसके पूर्व मेरा वैद्यनाथ दर्शन नहीं हुआ था। बाबा का दर्शन करने के लिए मैंने स्वामीजी से बड़ा आग्रह किया और हठपूर्वक उन्हें वैद्यनाथ ले आया। भागलपुर से देवघर की दूरी 126 किमी है। वहां पहुंचकर उन्होंने शिव का दर्शन-पूजन आदि किया और उसके बाद बंगाल के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता राजनारायण बोस से मिलने गए।Ó राजनारायण बोस समाज सुधारक व ब्रह्मसमाज के नेता थे। वे उन दिनों देवघर के ही 'पुराना दहÓ इलाके में रहते थे। यह मुलाकात काफी रोचक थी...। महेंद्रनाथ दत्त ने लिखा है कि, बोस महाशय के साथ नरेंद्रनाथ की पुरानी तथा आधुनिक काल की घटनाओं, ब्रह्मसमाज आदि विषयों पर कई तरह की चर्चा होने लगी। बातचीत के दौरान नरेंद्रनाथ ने पूछा-आपका स्वास्थ्य इतना बिगड़ कैसे गया? बसु महाशय ने सरल तथा निष्कपट भाव से बताया, मद्य, मद्य, मद्य। नया-नया अंग्रेजी भाव देश में प्रविष्ट होने पर, उसके साथ-साथ यह धारणा भी प्रविष्ट हुई कि मद्यपान किए बिना न पढ़ाई-लिखाई होगी और न ही देश का काम हो सकेगा। इसलिए हम लोगों ने मद्यपान शुरू किया।....इसी से स्वास्थ्य चौपट हो गया। कुछ समय बाद जब स्वामीजी का नाम विश्व में प्रसिद्ध हो गया तब राजनारायण बाबू को समझ में आया कि ये ही संन्यासी तो कई साल पूर्व उनसे मिलने आए थे, तब उस भेंट की घटना उनकी स्मृति पटल पर उभर आई। हालांकि यह भी कहा जाता है कि 1898 में भी वे देवघर आए थे और वृद्ध राजनारायण बाबू से मिलने गए थे। उन्होंने स्वामीजी से दोपहर को वहीं भोजन करने का अनुरोध किया और उस दिन स्वामीजी ने स्वयं ही भोजन पकाया था। हालांकि इस बार वे वैद्यनाथ धाम में राजनारायाण बाबू के यहां रात बिताने के बाद अगले दिन वाराणसी के लिए चल पड़े। हालांकि वे वाराणसी सीधे नहीं गए। 30 दिसंबर, 1889 को उन्होंने इलाहाबाद से पूज्य पाद बलराम बसु को पत्र लिखा था। इसके बाद वे 21, जनवरी 1890 को गाजीपुर पहुंचे। यहां वे अप्रैल के प्रथम सप्ताह तक रहे और प्रसिद्ध संत पवहारी बाबा का दर्शन किया। यहां भी वे अपने कमर दर्द व बुखार को लेकर परेशान थे। गाजीपुर में वे अपने बाल्यबंधु सतीशचंद्र मुखर्जी के आवास पर ठहरे थे। बाद में उन्होंने पवहारी बाबा नाम से एक छोटी सी पुस्तिका लिखी और इस तरह गाजीपुर के इस संत को उन्होंने विश्व में पहुंचाया। एक लंबे अंतराल के बाद विवेकानंद फिर देवघर आए। तीन जनवरी, 1898 को उन्होंने देवघर से एक बंगाली शिष्या को पत्र लिखा। 23 दिसंबर 1900 को भी उन्होंने देवघर से ही मृणालिनी बसु को पत्र लिखा था। यानी, उनकी देवघर आना-जाना लगा रहा। भले ही उनको यहां की जलवायु पसंद नहीं थी। विवेकानंद निरंतर यात्रा करते रहे और संतों से मिलते रहे। यह यात्रा अंदर की भी थी और बाहर की भी।