आदिम जनजाति कोरवा की जंगल से होती है भूख शांत


कोरवा आदिम जनजाति है। माना जाता है कि यह झारखंड में मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ से आई है। कोरवा भी मुंडा जनजाति की उपशाखा है। इनका संबंध महान कोलेरियन प्रजाति से है। गढ़वा के 12-13 गांवों में इनकी प्रमुख आबादी है। वैसे, लातेहार, पलामू, चतरा, कोडरमा, दुमका व जामताड़ा में भी कोरवा रहते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार इनकी आबादी महज 35606 है। आजादी के सात दशक बाद भी गढ़वा जिला मुख्यालय से 80 किमी दूर बडग़ड़ प्रखंड में कई पीढिय़ों से रह रहे आदिम जनजाति कोरवा की स्थिति में जस की तस है। दर्जनों योजनाएं यहां तक पहुंच ही नहीं पाती। सरकार भी सोचती है, इतनी दूर क्यों जाना? सो, योजनाओं का लाभ भी ठीक से नहीं मिल पाता। अधिकारियों की मजबूरी या फिर कोटा पूरा करने की गरज से कोई अधिकारी इधर पहुंच गया तो कुछ लाभ इन्हें मिल पाता है। वही काम करते हुए, जो उनके पुरखे करते आ रहे थे, उसी से दो जून की रोटी का जुगाड़ होता है और पेट की भूख शांत। 
जंगल व पहाड़ों में वे सदियों से जीते आ रहे हैं। जंगल ही इनका पेट पालता आ रहा है। रहन-सहन में भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। तन ढंकने के लिए अभी भी वही फटे पुराने कपड़े व गंजी, लुंगी। अभी यह जनजाति 15 साल पहले बने बिरसा आवास में रहती है। इसकी हालत भी अब खस्ता हो चुकी है। आर्थिक उपार्जन का मुख्य स्रोत वनोत्पाद महुआ, डोरी, सत्तावर, लासा, तेंदु पत्ता, महुलाम पत्ता, पलाश फूल, सूखी लकडिय़ां ही हैं, जिन्हें बेचकर अपनी दैनिक व आवश्यक जरूरतों को पूरा करते हैं। आज भी कंदा गेठी उनका मुख्य आहार बना हुआ है।

पहाड़ी की तलहटी में आवास
कोरवा प्रखंड क्षेत्र में अधिकांशत: पहाड़ी की तलहटी में बसी है। बडग़ड़ प्रखंड क्षेत्र में आदिम जनजाति परिवार की कुल आबादी लगभग 350 है। वे वर्तमान में कोरहट्टी, कोचली, कोरवाडीह, बहेराखांड़, टोटकी, मदगडी़, संगाली, सरुअत, हेसातु आदि गांव में रह रहे हैं। सरकार द्वारा प्रदत्त सुविधाए इनके गांवों में नगण्य ही हैं। गांवों में पहुंच पथ का घोर अभाव है। आज भी लोग कच्चे रास्ते के सहारे आवागमन करते हैं। सरकारी योजनाओं में अभी तक इन्हें बिरसा आवास व खाद्यान्न योजना का ही लाभ मिल सका है।
 

महादेव-पार्वती की आराधना
 कोचली निवासी सुकन कोरवा, रामलाल कोरवा, सिकुन कोरवा, रुबी कोरईन, पार्वती देवी आदि कहती हैं कि जनवरी माह में सोहो का त्योहार मनाते हैं। इसमें वे सभी महादेव तथा पार्वती की आराधना करते हैं। पर्व के दिन गांव में सामूहिक भोज की व्यवस्था की जाती है, जिसमें आसपास के गांवों में बसे कोरवा समुदाय के लोग एकत्रित होते हैं। साथ ही सामूहिक रूप से ढोल, नगाड़ा व मांदर की थाप के बीच नृत्य-संगीत भी होता है। सरहुल व करमा भी धूमधाम से मनाते हैं। बोलचाल की भाषा कोरवा, नागपुरी या सादरी व हिंदी है। बीमार हो गए तो झोलाछाप चिकित्सकों की शरण लेनी पड़ती है। समुदाय अभी भी झाडफ़ूंक में भरोसा रखता है। कृषि के साथ मजदूरी भी करते हैं। कोरवा में शिक्षा का स्तर बहुत कम है। कोचली गांव में एक भी व्यक्ति स्नातक नहीं है और न ही सरकारी  नौकरी में। गांवों में शुद्ध पेयजल की भी व्यवस्था नहीं है। अभी भी लोग नदी-नालों के चुआंड़ी व कुआं का जल पीने को विवश हैं।

देवता का घर
कोरवा चाहे जंगल में रहे, पहाड़ की तलहटी में या मैदानी इलाकों में। उनका एक प्रमुख घर होता है, जिसे वे देवता का घर कहते हैं। वह इसलिए भी कहते हैं कि एक दीवार पर देवी-देवता का वास होता है। इसे भसार घर भी कहा जाता है, क्योंकि यहां भोजन बनाने के बाद रखा जाता है तथा यहीं से परोस कर खिलाया जाता है। इस घर को भंडार भी कहते हैं।

पर्व-त्योहार में बलि
कोरवा पर्व-त्योहार पर पाठा, बकरा, मुर्गा, सूअर, बत्तख की बलि दी जाती है। बरसात के दिनों में नदी, झरना, तालाब या खेत में मछली, केकड़ा, कछुआ तथा घोंघा पकड़कर उसे बनाकर खाते हैं। पर्व पर पीठा भी बनता है। कोरवा सामान रखने के लिए सूप, सुपली, दौरा, झापी, पैती, चटाई आदि रखते हैं। कोरवा के घरों में शिकार उपकरण के रूप में जाल, फंदा, चिलउन, बंसी, भाला, बरछा, तीर-धनुष व गुलेल रखते हैं। इनकी सहायता से ये शिकार करते हैं। 

घटती बढ़ती रही है आबादी
1872 में कोरवा जनजाति की आबादी 5,214 थी। 1911 में 13,920, 1931 में 13,021 1961 में 21,162, 1971 में 18,717, 1981 में 21,940 रही। इस तरह इनकी आबादी घटती-बढ़ती रही।

जेवर-गहना के प्रति लगाव
इस क्षेत्र में अन्य जातियों तथा जनजातियों के साथ रहने वाले कोरवाओं की स्त्रियों का भी जेवर-गहनों के प्रति लगाव है। निर्धनता के कारण ये चांदी के गहने पाने में असमर्थ हैं। इनके स्त्रियों के शरीर पर अधिकतर गिलट तथा तांबे के गहने होते हैं जो इन्हें आस-पास के साप्ताहिक बाजारों से उपलब्ध हो जाते हैं।
गोदना की परंपरा
अपना शारीरिक सौंदर्य बढ़ाने के ख्याल से अधिकांश कोरवा स्त्रियों गोदना गुदवाती है। गोदना सामान्यत: हाथ, सीने तथा घुटने से लेकर एड़ी तक गोदा जाता है। गोदने में अधिकतर हाथी, फूल तथा तारों के चित्र बनाये जाते हैं।
धार्मिक विश्वास
कोरवा विश्वास करते हैं कि उनके आवासों के आस-पास की पहाडिय़ों और वृक्षों पर देवता और आत्माएं निवास करती हैं। यदि समय पर उन्हें उचित तरीके से प्रसन्न नहीं किया गया तो पूरे गांव या परिवार पर प्राकृतिक आपदा और दैवी प्रकोप होगा। ये लोग विभिन्न धार्मिक क्रियाकलापों के माध्यम से अलौकिक शक्तियों के संपर्क में रहते हैं। सभी कोरवा अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं। सिंगबोंगा (सूरज) इनका सर्वप्रथम देवता है। अन्य देवता जिनकी ये पूजा करते हैं उनमें चांद, धरती, दिहव, गोनहल, रखसाल, सावी, सतबह्नी, करमा और सरहुल आदि शामिल है।
जोहार से साभार



झारखंड का बेदिया आदिवासी हर 12 साल पर करता है सूर्याही पूजा

सूर्य पूजा की उपासना पूरी दुनिया में लोग करते हैं। दुनिया के आदिवासी भी अलग-अलग नामों से सूर्य की उपासना करते हैं। गायत्री मंत्र वस्तुत : सविता देवता की ही उपासना का मंत्र है। झारखंड के आदिवासी समुदाय भी सिंगबोंगा नाम से भगवान सूर्य की ही उपासना करते हैं। बिहार और यूपी में छठ की उपासना में सूर्य की ही पूजा की जाती है। इस पर्व की खासियत यह है कि यहां कोई पंडित नहीं होता। पहले डूबते सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है और अगले दिन उगते सूर्य का। यह उपासना चार दिनों का होता है और पवित्रता का पूरा ख्याल रखा जाता है। लेकिन झारखंड के बेदिया आदिवासी भी सूर्य की पूजा करते हैं, लेकिन 12 साल पर। कहीं-कहीं तीन या पांच साल पर भी किया जाता है। इसे ये सूर्याही या सूरजाही पूजा कहते हैं। कहीं इसे पूर्णिमा के साथ मनाया जाता है तो कहीं कुल के पुजारी से बात करके दिन तय कर मनाया जाता है। हालांकि इसके लिए निर्धारित महीना माघ व वैशाख है। यद्यपि कभी-कभी इसका भी पालन नहीं किया जाता है। संकल्प के लिए सूर्याही स्थान पर लोग बकरा ले जाते हैं। यह स्थान गांव के बाहर होता है और यह उनकी जाति या कुल का स्थान होता है। इस स्थान पर कुल का बड़ा पुरुष, जो उपवास किए हुए होता है और पवित्रता का पालन करता है, बकरे का अभिषेक करता है। पहले पूजा के बाद बकरे को जंगलों में छोड़ दिया जाता था, लेकिन अब ऐसा देखा जाता है कि पूजा के बाद भी बकरे को बांध कर ही रख जाता है। पूजा की निर्धारित तिथि के आठ-दस दिन पहले ही जाति-बिरादरी वालों की शादी-विवाह की तरह ही न्योता देने का प्रावधान या परंपरा है। सभी लोग सूर्याही के लिए एकत्र होते हैं। बेदिया आदिवासियों द्वारा पारंपरिक रूप से सूर्याही पूजा में में बेदिया समाज के सगोत्र ही शामिल होते हैं। इसमें सगोत्र के रिश्तेदारों को भी निमंत्रण दिया जाता है। इसमें पुरोहित या पहान नहीं गोतिया के प्रमुख व परिवार की अगुवायी में ही पूजा करने की परंपरा है।
तीस घंटे का किया जाता है उपवास
छठ पूजा की तरह सूर्याही पूजा में भी लंबी उपासना व सूर्यदेव की पूजा की जाती है। सभी घरों से एक महिला व पुरुष (पति-पत्नी) 30 घंटे का उपवास रख पूजा करते हैं। उपवास से पूर्व संयोत भी करना होता है। उपासक अरवा चावल के आटा से पुआ बनाते हैं। शुरू के तीन से पांच पुआ बनाने में झंझरा का इस्तेमाल न कर हांथ से ही बनाते हैं। उसी पुआ को प्रसाद के रूप में ग्रहण कर संयोत कर उपवास करते हैं।
उगते र्सूय की होती है पूजा
पूजा के एक दिन पूर्व रात में उपासक पुजारी गांव के पूजा स्थल पर पहुंचते हैं। अरवा चावल (अक्षत) छींट कर सूर्यदेव को जगाते हैं। दीप जलाकर सुबह में पूजा करने व बलि चढ़ाने की आज्ञा लेते हैं। दूसरे दिन भोर में भगवान सूर्यदेव की पूजा व अराधना की जाती है।
बलि देने की परंपरा
सुबह भोर में पूजा करने के लिए पूजा स्थल पर जाने से पूर्व बलि देने वाले पशु को स्नान करा कर फूलमाला से संवारा जाता है। वहीं एक बच्चे को राजकुमार के रूप में तैयार कर उसे उसी पशु पर सवारी कर कर ढोल-ढाक बजाते हुए, सूर्यदेव का जय जयकारा करते पूजा स्थल ले जाया जाता है। कहीं-कहीं भगवान सूर्य को प्रसन्न करने के लिए सफेद बकरे की बलि दी जाती है, जबकि सूर्य को वैष्णव माना जाता है। जो परिवार बलि देता है, वह घर से दूर नदी किनारे चावल, सब्जी और खाना बनाने का सभी सामान, बर्तन भी ले जाता है। इसके बाद खाना वनाते औरा खाते हैं। बचे हुए मांस और खाना को जमीन में गड्ढा कर डाल देते हैं, ताकि कुत्ता भी न खा पाए।
सुख-समृद्धि की कामना
सिंदूर, धूप-धुअन, अगरबत्ती, आम पत्ता, वेलपत्र, दूध, चुका-ढकन, कसैली, अरवा चावल, सूप, टोकरी आदि जरूरी सामान से पूजा कर व पूजा स्थल में ही बलि दी गई पशु का प्रसाद सामूहिक रूप से सेवन करते हैं। आरा केरम के ग्राम प्रधान  गोपालराम बेदिया बताते हैं कि सूर्याही पूजा में सूर्यदेव की पूजा कर अपने कुटुंब व आने वाली पीढिय़ों के स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि और खुशहाली की कामना की जाती है। अमृत बेदिया कहते हैं कि अकाल मृत्यु व विपदा से बचने के लिए सूर्याही पूजा की जा रही है। यह एक अद्भुत परंपरा है, जिसे बेदिया आदिवासी करते हैं।