कुछ खोजते हुए यह जानकारी मिली तो खुद को साझा करने से रोक नहीं पाए। यह मेरे लिए भी एकदम नई जानकारी थी। आजादी के आंदोलन में न जाने कितनी महिलाओं ने अपना योगदान दिया, लेकिन बहुत कुछ अज्ञात ही रह सकीं। कुछ संवदेनशील लोगों ने किताबें लिखीं, उनका नाम दर्ज किया, लेकिन बाद में वे भुला दी गईं। आजादी के इस अमृत महोत्सव में हमें फिर से याद करना चाहिए। उनके योगदानों को भूलना कृतघ्नता ही होगी।
एक थीं शरनन बहन
इनका जन्म सन् 1897 ई में भभुआ (शाहाबाद, बिहार) में हुआ था। इनका विवाह सन् 1912 ई में जमानियां (गाजीपुर, उत्तर प्रदेश) में हुआ। सन् 1615 ई में ससुराल गईं और सन् 1622 ई. तक वहीं रहीं। विधवा होने पर अपने मायके में चली गईं। सत्रह-अठारह साल तक वहां पर्दे में रहीं। इनके पति बड़े खादीप्रेमी थे। उनके आग्रह से इनके मन में खद्दर और चरखा बस गया था। बयालीस वर्ष की उम्र (सन् 1936 ई) में इनके परिवार के लोग तीर्थयात्रा पर निकले। ये भी उनलोगों के साथ गईं। अयोध्या में इनकी खादी और चरखा के प्रचार में ही जीवन बिताने की अन्त:प्रेरणा हुई और ऐसी लगन लगी कि चुपचाप वे ं दरभंगा के लिए चल पड़ीं। वहां से टमटन (एक्का) पर श्रीलक्ष्मीनारायणजी के पास 'सिमरीÓ गईं। वहां खादी चरखा का महिला शिक्षण शिविर चल रहा था। उसमें ये शामिल हो गईं। सन् 1940 ई में जयप्रकाशजी की धर्मपत्नी श्रीमती प्रभावती देवी चरखा और खादी के माध्यम से बिहार की महिलाओं में नवजीवन संचार का काम करने लगीं। उन्हीं के संपर्क में आने से इनकी बहुत दिनों की अभिलाषा पूरी हुई। सन् 1949 ई0 से ये महिला चरखा समिति (पटना) के सहारे बड़े मनोयोग से खादी चरखा का प्रचार प्रसार करने में तत्पर हो गईं। महात्मा गांधी के इस रचनात्मक कार्यक्रम में इनकी श्रद्धा ऐसी जमी कि इस क्षेत्र में इनकी सच्ची सेवा का आादर बढऩे लगा।
सन् 1936 ई में अपने परिवार से अलग होने पर ये तीन साल तक अज्ञातवास में रहीं। जब श्रीमती प्रभावती देवी के तत्वावधान में इनकी खादी-सेवा का काम स्थिर हो गया, तब इन्होंने अपने परिवार को सूचना दी और सन् 1942 ई में बिछड़े कुटुम्बी से फिर मिलीं। अब ये अपने घर में हो रहकर चरखा खद्दर की धुन में लगी हुई हैं। इनके आसपास के गांवों में सात सौ चरखे इन्हीं की देखरेख में चल रहे हैं। इसके सिवा 'महिला शिल्प-संघ और 'चरखा उद्योग संघÓ का संचालन भी इन्हीं के हाथ में है। जिस समय इनके पति ने खादी की दो साडिय़ां इन्हें दी थी, उस समय इन्होंने संदूक में बंद करके रख छोड़ा था, क्योंकि उस समय इनको बारीक रंगीन कपड़े ही पसंद थे, किन्तु पति के श्राद्ध के दिन इन्होंने सादा कपड़ा को पहनने के बदले उसी पति-प्रदत्त साड़ी को पहनने का हठ किया। आखिर साड़ी का छपा किनारा फाड़कर उसी को पहना। इस तरह इनके पति ने इनके हृदय में खादी प्रेम की जो आग सुलगायी थी, वह उनसे मरने पर वियोग की ज्वाला बनकर धधक उठी। उसी में तपकर इनका जीवन कंचन निखर दीतिमन्त हो उठा। अब नारी-समाज की सेवा ही इनकी तपस्या है।
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जिसमें यह अंश छपा था, उसका प्रकाशन 1962 में हुआ था। उनका निधन कब, कहां हुआ, इसकी जानकारी नहीं है।
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