रसगुल्ले का पेड़ और पत्नी का परामर्श

राधाकृष्ण

कहा है कि मानव शरीर का संचालन उसका मस्तिष्क करता है, मगर मनुष्य के मस्तिष्क का संचालन कौन करता है? मनोविज्ञान के इस रहस्य को कोई नहीं जान पाया, लेकिन मुझे मालूम हो गया है कि पत्नियों के द्वारा ही मानव-मस्तिष्क का संचालन हुआ करता है। कम से कम मंटू बाबू के विषय में तो यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि उनके मस्तिष्क का संचालन उनकी पत्नी ही किया करती हैं, वह भी किसी व्यक्तिगत लाभ लोभ से नहीं, बल्कि सार्वजनिक हित के विचार से ही मंटू बाबू के मस्तिष्क को नियंत्रित एवं कल्पना शक्ति से परिपूर्ण रखती हैं।

फल है कि मंटू बाबू को देखते ही मेरा खून सूख जाता है। मेरे घर की ओर आते हुए दिखाई देते हैं तो मुझे अपना घर छोड़कर भागने की इच्छा होने लगती है। जी चाहता है कि थोड़ी देर के लिए (अर्थात घंटे दो घंटे के लिए) जंगल में जाकर तपस्या करता रहूं। सो चाहे जो भी हो, मंटू बाबू के आने से मनोविज्ञान का एक तथ्य पूरी तरह उजागर हो जाता है। मनोविज्ञान का कहना है कि मनुष्य जब से जन्म लेता है, उसी समय से उसका मस्तिष्क काम करने लगता है और तब तक काम करता रहता है, जब तक उसकी मृत्यु नहीं हो जाती। मस्तिष्क की उस क्रियाशीलता में व्यधान नहीं पड़ता, कभी कोई अपवाद नहीं होता, मगर मैं जानता हूं कि जैसे ही मंटू बाबू मेरे पास आकर अपना कोई प्रस्ताव रखते हैं कि तत्काल मेरा मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है। मैं हक्का-बक्का होकर उनकी ओर बकर-बकर देखने लगता हूं।

उस दिन भी ऐसा ही हुआ। मंटू बाबू बड़े उत्साह से मेरे पास आये और सहानुभूति सूचक स्वर में बोले-यह तो अजीब बात हो गयी। सरकार ने शरणार्थियों के लिए लिफाफे पर पांच पैसे का टिकट टैक्स बांध दिया है। मैं पूछता हूं कि लिफाफे का दाम क्या पहले कम था।
उस ललकार को सुन कर मैं स्पष्टीकरण देने के लिए चौकन्ना हो गया और प्रश्नसूचक मुद्रा में उनकी ओर देखने लगा।
मंटू बाबू को मैं भलीभांति जानता हूं। उनका यह वक्तव्य या तो प्रस्तावना है या भूमिका।


समस्या अब पैदा होनेवाली है। आनेवाले वाक्य में ही उनका वास्तविक मंतव्य होगा। सो उन्होंने अपना मंतव्य दिया, लालबाबू अगर आप डाक घर खोल दें तो कितना अच्छा होगा। वहां किफायत में लिफाफा-पोस्ट कार्ड मिलेंगे। मनीआर्डर और रजिस्ट्री भी कम रेट में हो जाया करेगी।
मैंने उन्हें बतलाया कि यह मेरे लायक काम नहीं। यह काम तो उन नेताओं का है जो भारत सरकार से कंपीटीशन करते हैं और अपना राज चलाना चाहते हैं। मुझे डेढ़ सौ रुपये माहवार की नौकरी लग गयी है। अब डाकखाना खोलकर क्या करूंगा।

मंटू बाबू मुझे समझाने लगे कि डाकघर खोलने से ज्यादा फायदा है। हर मास दो-तीन हजार से अधिक ही काम हो जायेगा। इसमें कोई झंझट भी नहीं है। एक किराये का मकान लीजिए और कुर्सी लगाकर डट जाइए। पोस्टकार्ड और लिफाफों की बिक्री से कम लाभ नहीं होगा। रोज चार-पांच हजार तक बेच सकते हैं। इसके अलावा रजिस्ट्री है, मनीआर्डर है, बीमा है, सेविंग्स है। बहुत फायदा है लाल बाबू, बेतरह लाभ है, आप जा एक डाकपर खोल दीजिए।

वे तरह-तरह के प्रलोभन देने लगे और डाकघर खोलने के लिए उकसाने में यथाशक्ति यथावृद्धि इस बात से कन्नी काटता रहा। उनसे कहता रहा कि नौकरी के कारण मुझे फुरसत नहीं मिलेगी कि डाकघर खोल पाऊं। अंत में जैसा होना था वैसा ही हुआ। वे झुझलाने लगे। नाराज हो गये और नाक से फुफकारते हुए चले गये।

डाकखाना नहीं खुल सका।

मगर मंटू बाबू फिर एक दिन आये। वे बांगला देश की मुक्ति से बहुत प्रसन्न थे और भारत सरकार की सराहना कर रहे थे। कहने कि- इस बार तो संयुक्त राष्ट्रसंघ ने गजब कर दिया। उसके 104 राष्ट्रों ने इस बात की सिफारिश की कि भारत युद्ध रोक दे। आक्रमणकारियों से उन लोगों ने कुछ नहीं कहा। क्यों नहीं कहा? लालबाबू, मैंं आपसे कहता हूं कि आप एक संयुक्त राष्ट्रसंघ खोल दें।

संयुक्त राष्ट्रसंघ! में आसमान से गिरा।

मंटू बाबू कहने लगे, इसमें कुछ नहीं है, इसी मुहल्ले में एक संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना कर दीजिए। उसके कई भाग होंगे, मगर इस बार पाकिस्तान से युद्ध करने के कारण मुझे यह शिक्षा मिली है कि हम लोगों को अपना हेल्थ ठीक रखना चाहिए। हेल्थ ठीक रखने से सब कुछ ठीक हो जाता है। अतएव हम लोगों को डबल एच. ओ. 'हूंÓ ठीक से स्थापित करने की जरूरत है।
'हूÓ?  मैंने पूछा, यह क्या होता है?

मंटू बाबू ने कहा, यह, यानी वल्र्ड आर्गेनाइजेशन! बस, ह खोलकर अपना हेल्थ बना लीजिए फिर कोई भी माई का लाल आपको नहीं रोक सकेगा।
मैंने देखा मंट बाबू काफी नाराज हैं। वे सबसे अधिक इस बात से कि आक्रमणकारी पाकिस्तानियों से कोई कुछ कहता नहीं था। बस 104 राष्ट्रों ने प्रस्ताव पारित कर लिया कि भारत युद्ध रोक दें। यह हिमाकत नहीं तो और क्या है? पाकिस्तान से कहने की किसी की हिम्मत नहीं हुई! सभी भारत को ही आक्रमणकारी मानने लगे। यह स्थिति अब बर्दाश्त से बाहर है, आप फौरन अपना एक संयुक्त राष्ट्रसंघ खोल दें।

मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की। कहने लगा कि जाने दीजिए मंटू बाबू, राष्ट्रसंघ से इस तरह आप नाराज न हों। यहां देखनेवालों की जरूरत ही नहीं, सन 1954 में पेरिस में संयुक्त राष्ट्रसंघ के यूनेस्को की ओर से अंधों का एक संगीत-सम्मेलन हुआ था। उस संगीत सम्मेलन में एक से एक गीत गाये जा रहे थे, मगर कोई भी देख नहीं पाता था। संयुक्त राष्ट्रसंघ उसी प्रकार अधों का संगीत-सम्मेलन है, जहां देखने का कोई भी स्वीकार नहीं करता। बस, विश्व शांति के कोरस अलापे जाते हैं। उन लोगों को क्षमा कर देना चाहिए।
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मगर आज मंटू बाबू का मन उग्र है। वे 104 राष्ट्रों से नाराज है, संयुक्त राष्ट्रसंघ से नाराज हैं। वे किसी को क्षमा करना नहीं चाहते। मुझसे कह रहे हैं, आप संयुक्त राष्ट्रसंघ खोलेंगे तो आपको शिक्षा विज्ञान और संस्कृति की उन्नति के लिए एक यूनेस्को भी खोलना हो होगा। फिर एक विश्व बैंक की स्थापना करनी होगी कि किसी को रुपयों को कमी नहीं होने पाय। इसके अलावा मानवता के अधिकारों के लिए आपको पूरी तरह उद्योग करना होगा। एक यूनाइटेड नेशंस इसजेंसी फोर्स भी रखना होगा कि अगर कहीं लडऩे की जरूरत पड़ जाये तो दम साध कर युद्ध किया जाय। एक यूनीसेफ यानी यूनाइटेड ने इंटरनेशनल चिल्ड्रेंस इसजेंसी फंड की भी स्थापना करनी होगी। इस तरह आपको बहुत-सा काम करना होगा। आखिर संसार में शांति और न्याय की स्थापना करनी है या नहीं?


मैंने कहा, जो दीजिए मंटू बाबू, यूनाइटेड नेशंस को माफ कर दीजिए। मैं अभी एक मामूली नौकरी में लगा हूं। इतनी जल्दी संयुक्त राष्ट्रसंघ नहीं खोल सकता।
मंटू बाबू कहने लगे, पहले आप एक संयुक्त राष्ट्रसंघ खोल तो दीजिए, फिर देखिए उसका मजा। मैं उसका मजा आपको बताता हूं। जैसे आपने कहा कि चीन और ताइवान दोनों को राष्ट्रसंघ की सदस्यता दे दो। अब आप के सदस्य मान लिया। आपसे बिदक गये और केवल चीन को मान्यता दे दी। और आपने उसका टेलीविजन से देखा तो आपको पूरा अधिकार होगा कि आप संयुक्त राष्ट्रसंघ को अपनी ओर से दिया जानेवाला अनुदान बंद कर दें. या कह दें कि मैं नाराज हो  गया है। इसलिए अपने अनुदान में कमी कर देता हूं।


मैंने कहा, यह तो एक प्रकार से जमींदारी हो गयी जिस तरह जमींदार लोग मनमाना किया करते थे, उसी प्रकार मैं भी मनमाना करना शुरू कर दूं तो फिर संयुक्त राष्ट्र की वास्तविकता क्या रह जायेगी?
मंटू बाबू में कहा, वही बात तो मैं भी कहता हूं लाल बाबू। भारत सरकार और आप जमींदारी प्रथा के विरुद्ध हैं। इसलिए संयुक्त राष्ट्रसंघ नामक जमींदारी प्रथा अब नहीं चलनी चाहिए।

मैने कहा, इसके लिए इतना बड़ा राष्ट्रसंघ खोलने की क्या जरूरत है वहां के लोगों को असली मीरे का सुरमा लगा देने पर उन्हें वास्तविकता दिखलाई देने लगेगी और वे देखकर ही कोई प्रस्ताव पास करेंगे।

मटू बाबू को मेरा प्रस्ताव मान्य नहीं हुआ। वे कह रहे थे कि एक संयुक्त राष्ट्रसंघ खोलना ही है। दूसरा कोई उपाय नहीं।


बड़ी देर तक बातें होती रहीं, लेकिन मंटू बाबू संयुक्त राष्ट्रसंघ से कम पर मानने के लिए तैयार ही नहीं थे। उनका कहना था कि उनकी पत्नी का विचार है कि राष्ट्रसंघ की स्थापना से कम में कुछ नहीं होगा।


मेरा धीरज समाप्त हो गया। मंैने उनसे पांच मिनट का समय मांगा और जाकर अपनी पत्नी से सलाह ली। पत्नी ने कहा, घबराने की क्या बात है। उन्हें कोई कहानी गढ़ कर सुना दो। फिर वेे आप ही चले जायेंगे।


तब मैंने एक कहानी शुरू को कहने लगा- अमरीका के न्यूयार्क नगर में रसगुल्ले का एक बहुत ही बड़ा पेड़ है। उस पेड़ की एक डाल पर रसगुल्ले फलते हैं, दूसरी डाल पर कलाकंद लगते हैं, तीसरी डाल पर गुलाबजामुन के बड़े-बड़े फल होते हैं, उस पे
ड़ की महिमा में आपस क्या  बतलाऊं। उसमें इमरती और जलेबियों के फल लगते हैं। मगर वह पेड़ न्यूयार्क में है। अब आप मुझे बताइए कि उस पेड़ के फलों पर अधिकार किसका होगा? क्या उसका फल भारत को मिलेगा या न्यूयार्क का राजा उस फल पर अपना अधिकार रखेगा?

मेरा प्रश्न सुनकर मंटू बाबू कुछ सोचने लगे। बड़ी देर तक सोचते रहे, फिर बोले, मैं इस विषय पर अपनी पत्नी से सलाह करना चाहता हूं कि न्यूयार्क में जो रसगुल्ले फलते हैं वे किसके होंगे। मैंने आश्वस्त होकर कहा, जाइए, पूछ आइए।
फिर वे अपनी पत्नी से पूछने चले गये और लौटकर नहीं आये।
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धर्मयुग से साभार

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