चम्बलघाटी की भावना, भारत की देन

डॉ. एसएन सुब्बाराव फोटो िवकिीडपीिडया से

 आदिवासी साप्ताहिक पत्र में यह 26 अप्रैल के अंक में प्रकाशित हुआ था। आदिवासी रांची से प्रकाशित होती थी और इसके संपादक थे मशहूर कथाकार राधाकृष्ण। यह लेख बागियों के समर्पण के एक साल होने पर लिखा गया था। इसमें जो विचार हैं, वह आज भी प्रासंगिक हैं। डाकुओं के आत्मसमर्पण नीति के बाद कई राज्यों ने नक्सलियों के आत्मसमर्पण की नीति बनाई है और सैकड़ों की संख्या में उग्रवादी-नक्सली और माआवोदियों ने आत्मसमर्पण किया है। एस. एन. सुब्बाराव के प्रयास ही चंबल के बागियों ने आत्मसमर्पण किया था। डॉ. एसएन सुब्बाराव प्रखर गांधीवादी विचारक थे। 27 अक्टूबर को 92 वर्ष की उम्र में जयपुर के एसएमएस अस्पताल में अंतिम सांस ली। 26 को उन्हें हार्ट अटैक आया था। 27 की सुबह उनका निधन हो गया। उनका जन्म सात फरवरी 1929 को बेंगलुरु में हुआ था। वे बचपन से ही महात्मा गांधी से प्रभावित थे। 13 साल की उम्र में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। जीवन भर गांधीवादी मूल्यों के प्रचार में लगे रहे। वे देश-विदेश भर में कैंप लगाकर युवाओं को गांधीवाद और अहिंसा के बारे में बताते थे। 18 भाषाओं का उन्हें ज्ञान था। डॉ.  सुब्बाराव ने 14 अप्रैल 1972 को जौरा के गांधी सेवा आश्रम में छह सौ से अधिक डकैतों का आत्मसमर्पण कराया था। उस समय समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण एवं उनकी पत्नी प्रभादेवी भी मौजूद थीं। 450 डकैतों ने जौरा के आश्रम में जबकि 100 डकैतों ने राजस्थान के धौलपुर में गांधीजी की तस्वीर के सामने हथियार सहित आत्मसमर्पण किया था। चंबल के डकैतों से सामूहिक आत्मसमर्पण करवाने के बाद वे देश-विदेश में चर्चा में आए थे। विदेश से कई पत्रकार भी चंबल को समझने के लिए आए थे।

 

 

श्री एस. एन. सुब्बाराव

आत्मसमर्पण के बाद ग्वालियर जेल के अंदर बने हुए कोर्ट में कई समर्पणकारी  अपने अपराधों को स्वेच्छा से स्वीकार कर रहे हैं। समर्पण कार्यक्रम के बाद उस दिशा में उल्लेख करने के योग्य सबसे अधिक महत्व का विषय अपराधों का स्वीकार है जो कि समर्पण की भावना को पुष्ट कर करता है। यद्यपि सैकड़ों प्रसिद्ध खंूखार बागियों द्वारा अपने कीमती अस्त्रों को गांधीजी के चरणों में समर्पण करने की घटना को, जो ऐतिहासिक महत्व मिला, शायद वह महत्व अपराधों को स्वीकार करने की घटना को मिलेगा न ही 'समर्पणÓ की रोचकता 'स्वीकारÓ हो सकेगी, फिर भी समूचे प्रयोग की की दृष्टि से देखा जाय, तो स्वीकार का स्थान सर्वोपरि रहेगा। जंगलों में स्वेच्छा से घूमते हुए बागी जिनका भय या अन्य किन्हीं कारणों से ग्रामों में आदर होता था था, आत्मसमर्पण करने का निर्णय लेते हैं तो निश्चय ही वह उनके लिए एक बड़ा साहसिक कदम होता है। पर उस कदम में उनके हित की कुछ बातें भी निहित रहती हैं-जैसे कि कैद काटकर लौटने के बाद अपने परिवार के लोगों के  रह सकेंगे, आदि। किन्तु, जेल के एकांतवास के बाद जब मन ऊब गया होता है तब यह जानते हुए भी कि अपने अपराध को स्वीकार करने से कड़ी सजा मिल सकेगी, उसे स्वीकार करना तो एक बड़ा पराक्रम ही कहा जा सकता है।  

इस सम्बन्ध में अनेक प्रेरक प्रसंग आए। उनमें से कुछ यहां स्मरण किए गए हैं-
सबसे कड़ी सजा-मृत्युदण्ड मोहर सिंह को सुनाई गई थी। पत्रिकाओं में इसे पढऩे के दिन से ही स्वभावत: मैं मोहर सिंह से मिलने व आगे की चर्चा करने को बेचैन हो रहा था। संयोग ऐसा हुआ कि उसके बाद बहुत दिन मैं ग्वालियर नहीं जा सका। उतने दिन बाद जेल में गया, तो अच्छा हुआ अंदर घुसने से पूर्व सबसे पहले खिड़की में खड़े मोहर सिंह मिल गए। मोहर सिंह के स्वभाव में सबसे आकर्षक बात यह है कि जब मिलते हैं, उनके चेहरे पर एक बड़ी हंसी नाचती रहती है। मैंने तो कई दिन से सोच रखा था कि जैसे ही मैं उनसे मिलूंगा तो सजा के बारे में बातें करूंगा। पर मोहर सिंह की हंसी ने उस बात को भुला दिया। मिलते ही मेरा हाथ पकड़कर और मजबूर किया कि मैं भोजन करूं। उस दिन भोजन था खीर और पूरी। कहीं से मिरची का अचार और मंगवा लिया। खुली जगह में भोजन करने बैठा, तो और लोग भी सब आकर सामने बैठक गए। बातें दुनिया-भर की चलीं पर मोहर सिंह की सजा की बात तो रह गई। मैं भूल गया और लगता है कि वे भी भूल गए थे। मानों उनको सजा की याद थी ही नहीं।
बाद में सब मिले- माखन सिंह, कल्याण सिंह, भरत सिंह, सरनाम सिंह, सरू सिंह, हरविलास काची प्रताप सिंह आदि जिनमें कुछ को आजीवन कारावास की सजा हुई थी और कुछ के मुकदमें चल रहे थे। पर सब उसी मनोउल्लास की दशा में थे। उल्लेखनीय है कि उनमें से अनेकों ने औरों को कड़ी सजाएं होने के बाद अपने अपराधों को स्वीकार किया था।

एक प्रसंग प्रताप सिंह के सम्बन्ध में है। गरम बातों के कारण दो साथियों में हुए झगड़े को देखकर प्रताप ने सोचा कि बातों से झगड़ा होता ही है तो बात करें नहीं। कई सप्ताह से मौन धारण किए थे। जैसे मैं सबसे पूछता था उनसे भी सहज उसके मुकदमों के बारे में पूछा। मौन रखा था तो उन्होंने मेरे हाथ से अखबार लेकर उस पर लिखा दादाजी, कृपया मेरी चिंता छोडि़ए। आप दूसरे बागी भाइयों के केस में मदद करिए। मेरे दो केस आ गए और भी आते रहेंगे। मेरे केस के लिए वकीलों की जरूरत नहीं। मेरे लिए तो निर्णय ईश्वर देगा।

1972 समर्पण के अग्रदूत माधो सिंह ने जब जब अपने अपराध को स्वीकार किया जिसके फलस्वरूप उनको आजन्म कारावास की सजा हुई तब मैं दक्षिण भारत में था, तो वहीं से उनको पत्र लिखकर उनके व अन्य सभी बागियों का, जिन्होंने अपराध स्वीकार किया, इस कदम की मैंने सराहना की, तब उनका तुरन्त जवाब इस प्रकार आया:
'इसमें नई बात क्या। मैंने व मेरे साथियों ने तो जंगल में ही मय किया था कि हमारी आगे की जिन्दगी सर्वोदय मार्ग पर चलेगी। जयप्रकाश जी जो भी आदेश हमें मंजूर है। वे कहेंगे तो आज भी जान देने को तैयार हूं तो या भी जान देने को तैयार हैं।
जहां तक अपराध स्वीकार का प्रश्न है समर्पणकारियों में 25 परसेंट का हृदय परिवर्तन तो जंगल में ही हो गया था और तभी निर्णय लेचुके थे कि स्वीकार करेंगे। उनमें पचास परसेंट के खिलाफ तो केस नहीं है और वे छूट जाएंगे। पच्चीस परसेंट का न तब हृदय परिवर्तन हुआ न अब हुआ है। Ó

इन उदाहरणों से बागियों के विचार समर्पण से पूर्व व बाद में कैसे रहे उसकी एक झलक मिलती है। कई विदेशी लोगों व पत्रिकाओं में चर्चा होती है कि भारत में हुई समर्पण की घटना अद्भुत तथा विस्मयकारी थी जिसने सिद्ध किया कि मनुष्य अपने अंदर के पशुवत को अध्यात्म शक्ति से जीत सकता है तथा सत्य व प्रेम के अस्त्र बन्दूक से अधिक प्रभावकारी हो सकते हैं। अभी भी कुछ भारतीय पत्रिकाएं ऐसे विचार प्रकट करने में आनन्द लेती हैं कि हृदय परिवर्तन असाध्य है और जो शक्ति ने कार्य किया वह भय व स्वार्थ की भी हो तो उनको इस आनन्द का अधिकार है।

पर हम भारतवासियों के लिए कभी-कभी यह स्मरण करना उचित होगा कि विश्व के विज्ञान व तकनीकी क्षेत्रों में प्रगति प्राप्त देशों में आज कई बार जब दिशा-शून्यता का अनुभव होता है और वे मानसिक समाधान के लिए भारत की ओर देखते हैं, तो वे अपेक्षा करते हैं कि हम उनको कुछ आध्यात्मिक तत्व दे सकेंगे। हाल में आस्ट्रेलिया की एक महिला ने चम्बल के चमत्कार की चर्चा करते हुए मुझसे कहा-'मैं इसीलिए इस विषय का गहरा अध्ययन करना चाहती हूं कि मैं पाश्चात्य देशों को बता सकूं कि आज भी कर्म, सत्य प्रेम का मनुष्य जीवन में स्थान है और हमारे देश भारत की इस घटना से लाभ उठा सकते हैं।Ó
समर्पण के बाद चम्बलघाटी के जनसाधारण के क्या अनुभव हैं? आकांक्षाएं हैं? इन महीनों में चम्बल घाटी के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को आमतौर पर यह कहते सुनाई पड़ता है- 'बरसों बाद इस गर्मी में पहली बार हम बाहर खुले में चारपाई लगाकर सोए, तो खूब आनन्द आया। दूसरी पोर जहां पहले देखरेख के अभाव में खेत में बहुत क्षति होती यी सब रात 10-12 बजे तक भी बत्ती लगाकर काम करते हैं। चारों ओर राहत के आसार मालूम पड़ते हैं।Ó
लेकिन साथ ही छूट-पुट घटनाएं भी होने लगीं। कहीं एक खून, कहीं एक-एक झगड़ा, कहीं आतंक। कभी-कभी  सुनाई पड़ता है, 'आखिर डाकू समर्पण से कुछ निहित स्वार्थ लोगों को नुकसान अवश्य पहुंचा है, तो वे कहां चैन से बैठेेंगे? उनका प्रयास रहेगा कि और डाकू पैदा हो जाएं।

हाल में एक पुलिस उच्चाधिकारी ने कहा- 'हमारे सिपाही भी सब दूध के धुले नहीं। कभी किसी से गलत काम भी हो सकते हैं। एक दूसरी परेशानी यह है कि लोग पुलिस से बिना कारण ही भयभीत होते हैं। कहीं-कहीं गांव में जाकर पुलिस द्वारा किसी का नाम भर लेने से ही व्यक्ति निर्दोष होते हुए भी फरार हो जाते हैं। ऐसे लोगों का शोषण करने के लिए एक दो गिरोह बैठे हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि हम और आप पुलिस व सामाजिक कार्यकर्ता एक होकर काम करें और इस अनिष्ट को हमेशा के लिए मिटा दें।Ó
इस अधिकारी के स्पष्ट विचार से मुझे खुशी हुई और चम्बल घाटी में हमेशा शान्ति स्थापना की आशा और बढ़ी।

चम्बलघाटी का समर्पण प्रयोग भारत की आजादी की 25वीं रजत जयन्ती पर देश के लिए एक कीमती भेंट मानी जा सकती है। प्रजातंत्र प्रबल हो इसके लिए आवश्यक है कि शासन व स्वयंसेवी संस्थाएं मिलकर काम करें। चम्बल घाटी का प्रयोग सिद्ध करता है कि एक ऐसे प्रयास से एक लम्बे अर्से की समस्या हल हो सकती है पर इस यज्ञ को पूर्ण सफल बनाने का प्रयास अभी चालू है।

इस संदर्भ में यह प्रसन्नता की बात है कि पुलिस व शासन के अन्य विभागों में अनेक अधिकारी इस प्रयोग को पूर्ण सफल बनाना चाहते हैं। वे और स्वयंसेवी कार्यकर्ता मिलकर एक महान प्रयोग को पूर्ण सफल बना सकेंगे।

एक बात अवश्य ध्यान देने के योग्य हैं। पुलिस कितनी हो सक्रिय क्यों न हो, जनसाधारण भी जब तक इस कार्य में सक्रिय सहयोग नहीं देंगे तब तक काम पूर्ण होना कठिन रहेगा। इस यज्ञ में प्रत्येक नागरिक बुद्धिजीवी, श्रमिक, छात्र आदि सब को सहयोग देना होगा। पुलिस के जब हजारों सिपाही कार्यरत है तब जनसाधारण को कुछ संस्था को आगे माना उचित ही होगा ।

जनसाधारण की शक्ति को संगठित करना एक प्रमुख कार्य है। उसके लिए कई पूरा समय देने वाले कार्यकर्ता लगेंगे पर अभी उनकी संख्या कुछ के बराबर है। ऐसे कार्यकर्ताओं के प्रबंध के लिए धन की आवश्यकता होती है, जिसका अभाव हमारे देश के हर अच्छे काम के रास्ते खड़ा रहता है।




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