मदन काशी

 : डॉ शिवप्रसाद सिंह


कहते हैं कि एक बार जब श्रवणकुमार अपने माँ-बाप की बहेंगी उठाए सकल तीर्थ-यात्रा पर जा रहे थे, तब वह जमानियाँ पहुँचे। उन्होंने कस्वे के पास एक घनी अमराई देखकर बहँगी उतार दी। बेचारे गर्मी से परेशान थके-थकाए बहाँ पहुँचे थे। आम्रकुंज की शीतल छाया में उन्होंने राहत की साँस ली। गंगाजल पीकर स्वस्थ हुए। माँ-बाप की बेटे से पूरी सहानुभूति थी। उन्होंने उन्हें अच्छी तरह सुस्ता लेने का मौका दिया ।


'ऐ बुड्ढे, ऐ बुड्ढी !!"


श्रवणकुमार ने कहा- "मैं तुम लोगों का ताबूत ढोते रहने के लिए नहीं जन्मा हूँ।"


सम्बोधन मात्र से ही अन्धा-अन्धी भौंचक थे। आगे की बात सुनकर तो उन्हें लकवा ही मार गया हो जैसे। दोनों साँस रोके लड़के की बात पर कान अड़ाए बैठे रहे ।


"मारा कि जीवन चौपट करके रख दिया। कांवड़ ढोते ढोते कन्धों पर घट्टे पड़ गए। जो होना था हो चुका। बड़ी भक्ति निबाही। अब यह भार मुझसे चलने का नहीं। बाज आया ऐसे सुपूत के खिताब से !" वह गुस्से में पैर पटकते अमराई से बाहर की ओर चले। जाते हुए लड़के के पैरों की धमक सुनकर अन्धे ने कहा - "बेटा! तुमने जो कुछ कहा वह बिलकुल ठीक है। बस जाते-जाते एक विनती सुनता जा ।"


श्रवणकुमार ने पास आकर पूछा- "क्या है ?"


"बात यह है बेटे कि अमराई घनी है। इसमें से निकलने का हम रास्ता भी


नहीं ढूंढ़ पाएंगे। वस काँवड़ उठाकर थोड़ी दूर आगे ठीक सड़क पर रख देना। हम वहीं किसी राहगीर से पूछ-पाछकर रास्ता पा लेंगे। आगे जैसी प्रभु की मर्जी ।"


श्रवणकुमार को यह विनती कतई पसन्द नहीं आई; पर 'स्वभावो हि अति- रिच्यते' - सो उन्होंने पुराने घट्ठ पर फिर बहेंगी रख ली और कस्बे को पार


करके कुछ दूर सड़क पर आ गए । "बस बेटे, बस, यहीं रख दे हमें।" बुड्ढा बोला। उसकी आवाज में न दहशत थी, न निराशा ।


श्रवणकुमार ने बहेंगी उतार दी और फूट-फूटकर रोने लगे। उनकी हिचकियों का ताँता टूटता ही न था। अन्धे की आँखों से भी आंसू गिर रहे थे।


"पिताजी," श्रवणकुमार बोले- "मैं कितना अधम हूँ। पता नहीं कैसे मेरे मुँह से वैसी बातें निकल गईं। आप मुझे क्षमा कर दें पिताजी ।" बुड्ढे ने मुस- कराते हुए कहा - "बेटे, इसमें तेरी कोई गलती नहीं है। दोष जमीन का है।"


"जमीन का ?"


"हाँ बेटे, तूने जिस अमराई में कांवड़ उतारी थी, वह मातृहन्ता परशुराम का स्थल है। वहीं उन्होंने परशु से अपनी माँ की गर्दन उतार दी थी।"


श्रवणकुमार आत्मग्लानि से मुक्त हो गए ।


मगर हजार-हजार श्रवणकुमार जो इस अंचल में बसते हैं, चाहकर भी जमीन के दोष से मुक्ति नहीं पा सकते। वे कांवड़ उतार दें तो भी, चढ़ाए घूमते रहें तो भी, जमीन अपनी अन्तनिहित विशेषता से उन्हें लांछित करने में कभी नहीं चूकती ।


आपको शायद मालूम नहीं, जमनियाँ को मदन काशी भी कहते हैं। तेरहवीं शती के एक जैन काव्य में काशी से पूर्व में बीस कोस की दूरी पर अवस्थित मदन काशी की चर्चा की गई है। यहाँ भी गंगा की धारा उत्तरवाहिनी है। कहते हैं कि बटेश्वर के चक्रवन में पड़कर कोई बच नहीं पाता। मुझे मालूम नहीं कि वर्तुल लहरों का ऐसा जाल गंगा या किसी भी नदी में कहीं फैला है, पर मैंने अक्सर बरसात के दिनों में बटेसर के खोंचे में सड़ी हुई लाशों को चक्र की तरह गोलाई में घूमते देखा है। वह वही स्थान है जहाँ से गंगा उत्तरवाहिनी होती है, वह वही स्थान है जहाँ की थाह लेने के लिए गाजीपुर के कलक्टर ने बहुत कोशिश की; पर असफल हुए। हमारे ग्राम के पुरोहित चक्रवन या चक्कावन की कोई और भी व्युत्पत्ति बताते थे। भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे गंगा चल रही थीं। अचानक रथ यहीं आकर रुक गया था। सारथी ने घोड़ों पर चाबुकों की बौछार की; पर घोड़े अड़ गए। घोड़े आदमी से ज्यादा विकसित स्वयंप्रकाश ज्ञान रखते हैं। वे जानते थे कि आगे मर्दोष जमदग्नि का आश्रम है। जमदग्नि यानी जमनिया । गंगा आश्रम डुबाकर बची रह जाएँगी क्या ? सो घोड़ों ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। राजा ने खुद बागडोर संभाली और घोड़ों को बढ़ाया। घोड़े आगे बढ़ने की बजाय चक्र में घूम गए। एक बार नहीं, दो बार नहीं, पाँच बार यानी वाण - 5 और वे मोड़ लेकर उत्तर की ओर बरजोरी रथ लेकर भागे । सो पाँच यानी वाण और चक्र माने गोलाई में घूमना । सो बन गया चक्कावान । पर मुझे तो यहाँ अथाह जल के भीतर पड़े अदृश्य परशुराम के इष्टदेव बटेश्वर शिव के ज्योतिलिंग पर घूमती मुण्डमाला ही दिखाई पड़ती है।


जाने दीजिए वे पुरानी बातें। न वह 'पर्वतो इव दुर्धयः कालाग्नीव दुःसहः' व्यक्तित्व रहा, कुण्ठित कुठार इसी खोंचे में धँस गया, जमदग्नि का आश्रम उजड़ गया। जिन गायों को छीनने में सहस्रबाहु की भुजाएँ टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गई थीं, उसी इलाके में मरियल अस्थि-पंजरावशेष ढोर यह भी क्या दृश्य है। संसद में विश्वनार्थासह गहमरी ने कहा था कि पूर्वांचल कितना उपे- क्षित है। वहाँ प्रतिवर्ष अकाल की जयन्ती मनाई जाती है। मरियल ढोरों के गोबर से काढ़े हुए अन्न पर हजारों लोग पेट पालते हैं, सुना तो पण्डित नेहरू की आँखें भर आई थीं। इस दास्तान को अलाव के आसपास बैठे बुड्ढे दुहरा- दुहराकर नेहरू जी की सहानुभूति के प्रति आँसू ढुलकाते थे—हाय-हाय, हमारी दुर्दशा सुनकर बेचारे की आँखें भर आईं । बुड्ढे नेहरू जी के दुःख से रो पड़ते थे। पर जब मैंने अपने ही ग्रामवासी एक श्रवणकुमार को गद्गद होते गलदश्रु भावुकता के साथ नेहरू के प्रति आभार व्यक्त करते पाया, तब मुझे अचानक बटेश्वर के चक्रवन में डूबे परशु का ध्यान हो भाया। कहाँ गया वह तेवर, कहाँ गया वह अन्याय को न सहने वाला वर्चस्व । इसीलिए कहा कि इस सूअर-बाड़े में आकर प्राचीन अतीत को सोचना गोबर के सड़े ढेर पर बुक्के की परत बिछाना है। मुझे तब बड़ी खुशी होती है जब देखता हूँ कि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने भगवान् परशुराम को जमानियाँ से हटाकर भंड़ोच में खींच लिया है। मैं तो खुश होता यदि वह बटेश्वर के शिर्वालंग को, मदन काशी के पूरे इतिहास को व्याघ्रसर (बक्सर) और भृगुक्षेत्र (बलिया) को भी हमसे छीनकर किसी समृद्ध स्थान में प्रतिष्ठित कर देते। हमें नहीं चाहिए पुरखों का वह इतिहास, जिसकी मादकता और प्रकाश दोनों की यादें केवल रिसते घावों से छेड़छाड़ करती


हैं। अब न तो मादन रहा, न प्रकाश, फिर काहे को रहे यह मदन काशी । "कहिए सभापति जी, अब कितने छोकरे जाते हैं अपने गाँव से जमानियाँ डिग्री कालेज में पढ़ने ?"


सभापति बाबू केदारसिंह गर्व से कहते हैं- "चौबीस-पच्चीस । इससे कम नहीं।"


"पर इसमें से कहीं बाहर जाकर नौकरी-चाकरी करके बूढ़े-बूढ़ियों की सहायता के लिए अकाल की जयन्ती पर कलदार भेजने वाले एक भी नहीं।"


सभापति निराश हो चले। उन्हें लगता है कि जमीन बंझा हो रही है। न तो ये छोकरे काँवड़ पटक पा रहे हैं, न ढो हो पा रहे हैं।


मेरी कपसिया चाची सारे गाँव में 'चकचालन' यानी चक्र या चक्कर लगाने वाली के शाश्वत खिताब से विभूषित है। जाने कितनी इन्साइक्लोपीडिया उनके दिमाग में परत-दर-परत गड़ी पड़ी है। कुछ आँखों देखी, ढेर सारी कानों सुनी । "चाची, ठीक-ठाक है न ?"


"ठीक का है बचवा, 'मुआ सुराज' क्या हुआ खाने के लाले पड़ गए।" मैं चाची को इन्दिरा-समाजवाद पर भाषण दूँ या डाँगे, नम्बुद्रीपाद पर, कोई असर नहीं होने का । क्योंकि उनके चेहरे पर कुछ इस तरह की अनजानी झुरियों का ताना-बाना खिचा है जो दुःखों की इन्तहा से उत्पन्न उदासीनता के तागे से बना है, इसे भेदकर सातवें फाटक की लड़ाई लड़ने का साहस मुझ जैसे बौद्धिक में नहीं आ सकता जो सुविधापसन्द जिन्दगी से समझौता करके जबानी जगा- खर्च की मुद्रा में इनका हाल-चाल जानना चाहता है। आप गलियों में घुसिए- घुस नहीं पाएंगे क्योंकि वे गैरकानूनी ढंग से मकानों के भीतर या दीवालों के बगल के पुश्ते में ले ली गई हैं। आप घरों में घुसने की कोशिश कीजिए, असफल होंगे क्योंकि हर दरवाजे और निकसार पर ढेर सारी मक्खियों से छूल-ठुलैया खेलते अपरम्पार मरियल छोरों की भीड़ चोकठ पर ही बैठी मिलेगी, इन्हें दूसरी जगह कोई सूखी जमीन खेलने-बैठने के लिए नसीब ही नहीं होती। आप नई पीढ़ी के दिल में घुसने की कोशिश कीजिए, असफल होंगे क्योंकि वहाँ केवल दिशाहीन थक्के-थक्के कुहासे के अलावा कुछ है ही नहीं। आप बुजुर्गों के दिमाग में घुसने की कोशिश कीजिए, असफल होंगे, क्योंकि उनका दिमाग इस तरह उस है कि उसमें सिर्फ एक चीज कशमकश भरी है- "हुँह, ई पढ़वैया लोग खाली गप्प मारते हैं।" मैं सोचता हूँ कि क्या ये गलियाँ, ये घर, ये दिल, दिमाग कभी खुलेंगे भी ? कभी इनमें मादन या प्राण सचमुच उतरेगा।

 सुना; पटेल-आयोग ने पूर्वांचल के विकास के लिए एक लम्बी-चौड़ी रपट तैयार की। बड़ी कसरत, उठक-बैठक, ऊटक-नाटक के बाद रपट सरकार के हवाले की गई कि यह नितान्त व्यावहारिक और कम खर्च वाली योजना है, पर कुतुबमीनार हो या मेरुस्तम्भ, उसमें इतनी मंजिलें हैं कि रिपोर्ट का बुर्जी तक चढ़ पाना और वहाँ से उतरकर कपसिया चाची की झुर्रियों के सामने खुल पाना कतई सम्भव नहीं लगता। त्रिभुवननारायण सिंह और कमलापति त्रिपाठी या इसी तरह के दूसरे लोगों का इसमें क्या दोष । उन्हें सिर्फ जनता की गरीबी और हायतोबा में फंसकर जिन्दगी खराब करनी तो है नहीं। बड़े-बड़े काम हैं, कितनी उलझी हुई समस्याएँ हैं। फिर कुर्सी की हरकत से भी वे अच्छी तरह वाकिफ हैं, इसलिए वे उस कुर्सी को स्थिर खड़ी रखने में ज्यादा ध्यान दें तो इसे मामूली बढ़ई भी कमअक्ली कभी न कह पाएगा। हमारी आपकी तो विसात ही क्या !


उस दिन जमानियाँ के लाटफरेम पर दिहात के एक नामी-गरामी आदमी मिल गए । बोले- "बेटा, यह इलाका तो अब आने-जाने लायक भी नहीं रहा । बाल-बच्चों को लेकर कभी आना हो तो रात में गाँव के लिए न चल पड़ना।"


हमने मासूमियत से पूछा- "काहे काका !"


"अरे भइया, कल रात डेढ़गाँवा के दो जने कहीं रिश्तेदारी में नेवता लेकर जा रहे थे। वह तलासपुर की आढ़त है न ?"


मेरे सामने तलासपुर की आढ़त खड़ी हो गई। मेरा अंचल कश्मीर नहीं है, केरल नहीं है, और तो और मिर्जापुर और चुनार भी नहीं है, पर तलासपुर की आढ़त पता नहीं क्यों मुझे बेतरह खींचती है। किसी जमाने में यह गल्ले का विशाल गोदाम थी। जमानियाँ की गल्लामण्डी का 'पलैग पोस्ट' कह लीजिए । उन दिनों गल्ला व्यापारियों को इतना भी सन नहीं था कि वे देहात से खरीदा गल्ला एक मील दूर स्टेशन की मण्डी में रख आएँ । रखेंगे, ले जाएँगे वहाँ; पर पहले गल्ला उठा तो लें। अनाज के बोरों से लदी बैलगाड़ियाँ, बर- साती पानी से बचने के लिए तिरपाल या सरपत की छाजनों से डॅकी, लद्द टटुओं की कतारें, घंटी टुनटुनाते लद्दू बैल- सभी इस आढ़त के सामने आकर इकट्ठे हो जाते । गोदाम के कमरे व्यापारियों को अनाज रखने के लिए किराये पर उठा दिए जाते । सुबह से दूसरी सुबह तक सिर्फ एक कार्य-अनाज उता- रना और गोदाम में पहुंचाना। रात के धुंधलके में गाड़ीवानों के जलते हुए चूल्हे या अहरे, सिकती हुई बाटियों की महक, व्यापारी, मुनीम और गाड़ी- वानों की तकझक-क्या रौनक थी ! उस वक्त आढ़त के आँगन में पारिजात के दो पेड़ थे। वे फूलते तब थे, जब अनाज-गाड़ियों की भीड़ शुरू न होती थी। हम लोग पकते धानों के बीच से सुगापंखी खेतों की मेड़ों से गुजरते हुए इस आढ़त से पारिजात फूल बटोरने के लिए वहाँ पहुँच जाते ।


अब वहाँ सिर्फ खण्डहर हैं। आसपास के किसी गाँव के छोटे-से बनिये ने राहगीरों के लिए गुड़ पट्टी, रेवड़ी-लकठे की छोटी-सी दूकान खोल ली है, एक खण्डहर की दीवार पर फूस की मड़ई डालकर ।


"तो बेटा, उस रात हल्की बारिश होने लगी। वे दोनों जन उसी मड़ई में घुस आए। तुम जानते ही हो रात को बनिया वहाँ रहता नहीं। सारा सामान बटोरकर गाँव चला जाता है।"


"हाँ काका !" मैं कहता हूँ; पर स्मृति में पारिजात के ललछौहे अण्ठल बाले नाजुक फूल बहते-उतराते चले जा रहे हैं।


"बस एक आदमी ने सड़क से उन पर टाचं से रोशनी फेंकी। उसका चेहरा गमछे से ढंका था। बगल से वैसे ही दो और नकाबपोश निकले । सभी के हाथों में भाले थे। उन लोगों ने सामान छीनने की कोशिश की। एक से हाथापाई शुरू हुई, तब तक दूसरे ने पीठ में भाला मारा। और सामान लेकर चलते बने। मुश्किल से आठ-आठ रुपयों की दो साड़ियाँ, पचिक के मिठाई- खाजे-यही न ? इत्तेभर के लिए यह सब हो गया। राह चलना मुश्किल है, बेटा। अब जमनियाँ वह जमनियाँ नहीं रहा। जिस किसी को देखो कि थोड़ा नटवर है, बदन पर बुशटं और पतलून है, बिना कहे जान लो कि उसके पास पिस्तौल है, या बिजली का हण्टर है या और कुछ नहीं तो रामपुरी चाकू है। सारा इलाके का इलाका गुण्डों की जमींदारी हो गया।"


गाड़ी आ गई थी। वे चले गए। में सोचता रहा कि क्या सचमुच इधरती में ही दोष है ? पर नक्सलबाड़ी में तो परशुराम नहीं हुए। मुशहरी में कोई ऐतिहासिक अमराई नहीं है। श्रीकाकुलम बहुत दूर है भूगुक्षेत्र से-फिर; फिर, इसे क्या कहा जाए ? आखिर दोष किसमें है ?


कोई मेरे कानों में भुनभुनाता है- "तुम भी अन्धों की तरह धरती को दोषी कहकर मौन हो जाओ। इसी में लाभ है। इसी में खैरियत है। क्योंकि भ्रष्ट व्यवस्था में कभी भी आदमी दोषी नहीं होता, निर्जीव पदार्थों के सिर दोष मढ़कर अपना सिर बचाना ही बुद्धिमानी है, राजनीति है, सफलता की कुंजी है।"


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