और जिंदगी चलती रही
राधाकृष्ण
सिंगबोंगा है, वह मरंगबुरु पर रहता है। बिरबोंगा जंगल में रहता है। हातुबोंगा गांव की रक्षा करता है। देसाउली, गांवादेउती, दरहा कितना गिनाएं, बहुत बोंगा हैं। सारा जगत बोंगाओं से भरा हुआ है। धरती और आसमान और हवा, सब जगह उनकी गति है। अंधकार और प्रकाश, दोनों में वे समान रूप से देखते हैं। हवा और पानी, दोनों में समान रूप से विचरण करते हैं। पहाड़ से फूट निकलने वाले सोतों में वे पानी लाते हैं, खेतों को वे अच्छी फसल देते हैं। सिरगुजिया के फूलों में जो पीलापन है उसे भी सिगबोंगा ने दिया है। उसी की कृपा से चिड़ियां पेड़ों की टहनी पर रात बिताती हैं और जंगली जानवर पहाड़ की गुफाओं में रहते हैं।
मगर अब ऐसा जमाना आया है कि अच्छे बोंगाओं की कम चलती है। बरेंदा बोंगा ही आजकल प्रमुख हो रहे हैं। वे न जाने कहां से रोग लिए चले बाते हैं! शरीर की गांठ-गांठ में घुसकर दर्द उत्पन्न कर देते हैं और आदमी को गठिया हो जाती है। वे बूड़े और बूढ़ियों की छाती के भीतर चले जाते हैं और खांसी और दमा उत्पन्न कर देते हैं। बुरे बोंगाओं की अदृश्य हंसी के हिलकोरों से शरीर दलदलाने लगता है और मलेरिया बुखार उत्पन्न हो जाता है। बरेंदा बोंगा बुरे-बुरे सपने भेजते हैं और उन्हीं सपनों के पीछे-पीछे छिपकर आते हैं। वे खेतों में अच्छी उपज नहीं होने देते। बादलों को बरसने से रोक लेते हैं। धान की खेती में पसरा फूट जाता है। अगहन के महीने में घास भी पुआल की तरह सूख जाती है। जानवरों को चारा नहीं मिलता। गर्मी में चुआं-डाडी सब सूख जाती है। तब प्यास के मारे जानवर मरने लगते हैं और भूख के मारे आदमी का बुरा हाल हो जाता है।
बोंगाओं को प्रसन्न करने के लिए बकरा और मुर्गे-मुर्गियों की बलि दी जाती है, सुअर का रक्त चढ़ाया जाता है। उन्हें इतनी बलि दी गयी कि बकरे तो मिलते ही नहीं, सुअर मंहगे हो गये और गांव में मुर्गे-मुर्गी भी कम पड़ गये हैं।
लीटा गांव का भगत है। वह मांस नहीं खाता, मदिरा नहीं पीता, हंडियां से भी अलग रहता है। वह दिन और रात अपनी भक्ति में मस्त रहता है। उसकी लाल-लाल आंखें सोये हुए मंत्रों को जगाती हैं। वे मंत्र जागते हैं और दुनिया को देखते हैं। लीटा भगत की जटाएं झूलती हैं। वह अपनी झूलती हुई जटाओं को झटकारा देकर कांपने लगता है। वह थर-थर कांपता है और उन्मत्त होकर नाचता है और सिर हिलाता है। सिर हिलाता है और कहता है- 'अरे नागपुरवालो, कहां गया हमारा कंचन और हीरे का नागपुर! कंचन माटी हो गया और हीरे ओस की तरह बिला गये। नागापुर देश के अंग मैले पड़ गये। इस नागपुर की आंखों से रत-रत आंसू बहते हैं। धरती में सत नहीं रहा, आसमान में मेघ नहीं रहे, जंगल में बूटियां नहीं रहीं। भंडारकोने की हवा चलती है तब भी पानी नहीं बरसाता, तब भी धरती की तृप्ति नहीं होती, नागपुर में जान रही हो नहीं। आदिवासियों के मन में खटाई पड़ गयी है। उनका दिल फट गया है। जो उन्हे जैसा चाहता है वैसा समझता है और भेड़ की तरह हांकता है। भागो रे भैया, यहां से भागो! रे भैया, यहां से भागो! अब यहां नागपुर में जीना मुश्किल है।'
और लोग परिस्थितियों से विवश, आत्मविश्वास से हीन होकर जहां-तहां कमाने के लिए चले जाते हैं। असम, भूटान, बंगाल, जहां जिसका जो आया, जहां जिसे सुविधा मिली, भाग निकलता है। लगातार वर्षों से ऐसा चला आ रहा है। खेतों में उपज घटती जाती है और गांव के आदमी भी घटते जाते हैं। सारा गांव सूना-सूना लगता है।
जो लोग गांव में हैं वे भी आपस में मिलते नहीं। मिलते हैं तो बोलते नहीं। बोलते हैं तो कम बोलते हैं और अपने अभाग्य के बारे में ही बोलते हैं। सबके चेहरों पर बरेंदा बोंगा का आतंक दिखलायी देता है। लगता है जैसे वे थकावट, भूख और परेशानी से चूर हैं। आंखें थकीं, चिन्ता से चूर। ऐसा मालूम होता है जैसे वे वास्तविकता को नहीं देखते, सपना देख रहे हैं।
इस गांव में सन्नाटा नहीं हो तो क्या हो? रात के समय जंगल से पिशाच के रोने की साफ आवाज आती है। एक ओर वह रोता है, दूसरी ओर सियारों की भीड़ रोती है। सुनने वाले भय से सिहर उठते हैं और उनके शरीर से पसीना छूटने लगता है। अजीब हालत है। अजीब दुनिया हो गयी है। कभी-कभी रात को तारे आंसू की तरह टपक जाते हैं।
रेंपा उरांव की स्त्री बीमार है। वह करवट बदलती है और पानी मांगती है। रेंपा चुपचाप पानी दे देता है। उसकी छाती में बात अटकी हुई है। वह बात बाहर नहीं निकल पाती। वह कहने लगता है-'कुछ नहीं है। सब ठीक हो जायेगा। रात मुझे सपना आया था। फिर परसों काली रात में भी मुझे कुछ दिखलायी दे गया था। रोशनी की एक चमक थी। आयी और चली गयी।'
रेंपा की स्त्री कराहती हुई अपना सिर उठाती है, पानी पीती है और फिर लेट जाती है। वह अपनी क्षीण आवाज में बोलती है- 'सपना तो मुझे भी आया था। कोई मुझसे कहता है, चरका मुर्गा दो, तपावन दो। फिर मैंने फिटफिट उजली साड़ी पहने एक औरत को देखा। उसके सिर में टेटन था। वह कहती थी कि मुर्गा तो देना ही पड़ेगा, चरका मुर्गा देना पड़ेगा।.... तुम नहीं रहते तो मैं किसी की आवाज भी सुनती है। वह झींगुर की तरह बोलता है और एक ही सुर में अपनी बात कहता जाता है। रे-रे कहता वह न जाने क्या कहता है।
नदी किनारे से कोई उसे बगुले की आवाज में टोकता है; मगर वह सुनता नहीं । अपनी बात कहता चला जाता है। न जाने क्या बात है ।'
और उसके मन का आतंक उसकी आंखों में उभर आता है। उसकी आंखें पथरा जाती हैं। वह ज्यादा कुछ कहना चाहती है। चाहती है कि अपने मन की गांठ खोल दे; मगर बोल नहीं पाती। वह चुप रह जाती है और लेटी-लेटी ऊपर छप्पर की ओर देखने लगती है वहां काले काले झोल झूल रहे हैं और लौकी के तीन पुराने तूंबे लटके हुए हैं।
और रेंपा सोच में पड़ जाता है। वह जानता है कि रांगी ने कम कहा है। बात इससे बहुत ज्यादा है। मगर क्या हो? न चरका मुर्गा है और न होने की उम्मीद है। धान इस साल कम हुआ। चने के खेत को पाला मार गया। सोंस या इटकी में, या नरकोपी के बाजार में उजला मुर्गा मिल भी जाय; शायद जरूर ही मिल जाय। मगर पैसे कहां? इन मुर्गे-मुर्गियों का दाम भी बहुत चढ़ गया है। पहले पांच आने में एक मुर्गा मिलता था। अब पांच रुपयों में भी एक जोड़ा नहीं हो पाता। एक बार मिलीटरी वाले आकर सारे राज्य का मुर्गा खा गये थे, अब हटिया में कारखाना खुल रहा है।
रेंपा सोच में पड़ा डूबता उतराता है। आंखों के सामने जो दुनिया है वह शायद उसके लिए नहीं है। उसकी दुनिया भयानक पिशाचों से भरी है जहां सफेद मुर्गे दिखलायी नहीं पड़ते।
रेंपा की स्त्री रांगी सिर उठाकर पानी मांगती है, रेंपा फिर उसे पानी दे देता है। रांगी पानी पीने लगती है और रेंपा गंभीरता के साथ कहता है-'बबराने की बात नहीं। उस दिन मैंने सपना देखा था। सपने में तुम अपने जुड़े में सफेद पंख खोंसकर बाजार जा रही थी।'
रांगी एक लम्बी सांस लेती है। कहती है-'मगर सफेद मुर्गा कहां मिलेगा?'
और रेंपा फिर सोच में पड़ जाता है। सफेद मुर्गा कहां मिलेगा? क्या सारे संसार में कहीं भी सफेद मुर्गा नहीं है? उसकी कल्पना की आंखों के सामने एक सफेद मुर्गा दिखलायी देता है जो पंख फड़फड़ा रहा है। रेंपा उसे पकड़ लेना चाहता है। मगर कैसे पकड़े? फिर भी रांगी के लिए उसे पकड़ना ही होगा, सफेद मुर्गा लाना ही होगा।
लीटा को आप जानते हैं। लीटा गांव का भगत है। बीती हुई बातें उससे होने वाली बातें बतला देती है। वह सब जानता है। कोई भी बात ऐसी नहीं जो वह न जानता हो। उसके ऊपर बोंगाओं की कृपा है। न जाने कितने बोंगा उसने वश में करके रखे हैं। उसके अच्छे बोंगा बुरे बोंगाओं के उत्पात को दबाते हैं। जब वह बोंगा को बुलाता है तो कभी-कभी उसका बोंगा बवंडर पर चढ़कर उसके पास तक आता है। उस बोंगा को दूसरे देख नहीं पाते, सिर्फ लीटा देखता है। वे लीटा की बात सुनते हैं और चुपके से उसके कान में बहुत-सी बातें कह जाते हैं। जब बोंगा उसके तन-मन पर छा आता है तो उसके मुंह से 'फेचकुर' निकलने लगता है। वह कांपता है और चिल्लाता है और ऊपर-नीचे सिर हिला हिलाकर अपनी जटाओं को पटकता है। उस समय लीटा की जीभ सो जाती है और उसके मुंह से बोंगा बोलने लगता है। बोंगा बहुत-सी बातें बोलता है। होनेवाली बातें, न होनेवाली बातें। कुछ बात समझ में आती है, बहुत कुछ समझ में नहीं आतीं। बहुत देर तक बोंगा उसके शरीर से खेलता रहता है, फिर वहां से चला जाता है। लीटा भगत जब जमीन पर औंधे-मुंह गिरकर बेहोश हो जाता है। वह देर तक बेहोश पड़ा रहता है और जमीन पर अपनी एड़ियां रगड़ता है। जब उसे होश होता है तब वह बहुत ही शिथिल, खिन्न और मलीन मालूम होता है। वह यह भी नहीं जानता कि वैसी हालत में उसने क्या-क्या बातें कहीं।
जिस समय रेंपा उसके पास गया वह अपने घर के सामने वाले महुए के पेड़ के नीचे फटी हुई खजूर की चटाई पर फटा कंबल ओड़े बैठा-बैठा यों ही झूम रहा था। आंखें उसकी बंद थीं। उसके सामने तीन शिष्य सूप लेकर चावल बीनते हुए मंत्र गुनगुना रहे थे। रेंपा दूरी पर बैठा हुआा हाथ जोड़े इस बात की राह देख रहा था कि लीटा आंख खोले तो उससे कुछ कहूं।
लीटा ने आंखें खोलीं। उसकी आंखें लाल थीं। वह रेंपा को अपने सामने हाथ जोड़े देखकर मुस्कराया। जैसे वह सब जानता है, सब समझता है। उसकी मुस्कराहट भयानक थी। रेंपा सिहर उठा ।
'भगत बाबा !'- रेंपा ने दीनता से गिड़गिड़ा कर सम्बोधन किया ।
'कहो !' लीटा ने इस तरह कहा मानों वह सब जानता है, फिर भी तुम कह दो। कह दो कि जो कुछ वह जानता है वह ठीक है या नहीं।
रेंपा ने कहा- 'भगत बाबा, रांगी दस दिन से बीमार है। रांगी को अच्छा कर दो। वह तुम्हारा आंगन लीप देगी, तुम्हारे खेत में गोबर ढो देगी। रांगी बहुत बीमार है।
लीटा भगत एकबारगी चिल्ला उठा-'बीमार नहीं होगी तो क्या होगी। वह सिदुनार की झाड़ी के पास से निकली होगी और भूत ने उसे छू लिया होगा। उसने सपना देखा था?'
'देखा था।'
'तुमने भी सपना देखा?'
'देखा बाबा! तुम सच कहते हो।'
'सपना क्या कहता है?'
'चरका मुर्गा!'
लीटा भगत चिल्लाया-'तो दे-दे उसे चरका मुर्गा। तेरे लिए और उपाय की क्या है। जाकर उसके नाम पर चरका मुर्गा दे दे।....नहीं-नहीं, सुन। मुर्गा मेरे पास लेते आना। हम अपने सामने मुर्गा दिलावेंगे। फिर वह रक्त के साथ बेईमानी नहीं कर सकेगा। पाजी ने रांगी को छू दिया। कितनी अच्छी लड़की है रांगी! मेरे सामने मुर्गा देगा, तो वह बेईमानी नहीं कर सकेगा। तू फिकर न कर। सब ठीक हो जायेगा।'
रेंपा कुछ कहना चाहता है, लेकिन उसके मुंह से बात निकल नहीं पाती। ज्यादा झंझट अब नहीं रही। सिर्फ मुर्गा देना है। मुर्गा लेकर वह भूत चला जायगा। लीटा भगत की बात सदा सच्ची उतरती है। यह बात भी सच्ची निकलेगी। रांगी अच्छी हो जायेगी। मंगर... रेंपा के मुंह से बात नहीं निकल पाती।
लीटा आप ही आप बड़बड़ाने लगा और शिष्यों के सूप से चावल उठा-उठा कर फेंकने लगा। वह बोलता जा रहा था-'जा रे रेंपा, उसे चरका मुर्गा वे देना, वह फिर नहीं आयेगा। रांगी बिचारी अच्छी हो जायेगी। रांगी को अब कुछ नहीं हो सकता। इन पाजी भूतों को मैं क्या कहूं। हजार बार समझाया कि हमारे गांव में किसी को तंग मत करो। मगर... अच्छा, अब जरा फागुन बीत जाय तो उन हरामजादों से समझूंगा। सबको सेमर के पेड़ में पत्तों से बांध दूंगा। जरा पूरब की धूप तीखी हो जाय और दक्खिन से हवा आने लगे। फिर तो एक-एक की नाक पकड़कर नाथ दूंगा।'
रेंपा अभी तक चुपचाप खड़ा था।
लीटा भगत ने कहा- 'जा यहां से। तू जाता क्यों नहीं?'
रेंपा ने कहा- 'भगत बाबा, इस साल धान की फसल अच्छी नहीं हुई। जहां पचास काठ होता था, वहां पंद्रह काठ मिला। फिर चने के खेत को पाला मार गया। न पास में पैसे हैं और न गांव में मजूरी। चरका मुर्गा कहां से लाऊं, कैसे दूं। मेरे पास कोई उपाय नहीं है।'
लीटा का चेहरा कठोर हो गया। उसने अपनी चुभने वाली नजर डालकर कहा, 'तेरे पास उपाय नहीं तो मेरे पास भी उपाय नहीं है। जो मुर्गा मांगता है उससे कह।'
'वह जानता है मगर समझता नहीं मैंने रो-रोकर कहा।'
'तो मैं क्या करू? वह तो पाजी है। बिना मुर्गा नहीं मानेगा।'
'अगले साल तक मना लो।'
'वह मेरी बात मानता तो रांगी को छूता ही नहीं। वह दुष्ट है, दुष्ट। वह नहीं समझेगा। मुर्गे के लिए तुम्हें कोई उपाय करना ही होगा।' रेंपा उदास वहां से चल पड़ा। उसने समझा था कि लीटा मंत्र पढ़कर पानी छींट देगा और सब ठीक हो जायगा। हो सकता है वह बहेरा का पल्लव लेकर उसे मंत्र से सिंचित कर दे और उसे दे दे। मगर उसने यह सब कुछ भी नहीं किया। उसने भी कह दिया चरका मुर्गा !... मगर मुर्गा कहां से आये। पास पैसे नहीं; घर में अनाज नहीं।....
तीन दिन बीत गये। रेंपा की स्त्री बीमारी से कातर है। अब तो उसकी आवाज भी क्षीण हो गयी है। मांड़ या भात कुछ भी तो नहीं मिलता। शरीर में ताकत कहां से हो। अगर एक बार के लिए भी बुखार उतर जाता तो भात के साथ बथुआ का साग दे दिया जरा। फिर रोग भी ठीक हो जाता और ताकत भो आ जाती। मगर बुखार ऐसा था जो जाने का नाम ही नहीं लेता था।
आज रेंपा सफेद मुर्गे की खोज में निकला है। चाहे जहां से हो, एक सफेद मुर्गा लाना ही होगा। गांववालों ने उधार नहीं दिया तो इससे क्या। दूसरे गांव में मिल जायगा। दूसरे में न मिला तो तीसरे गांव में मिलेगा। चाहे जहां से हो, आज एक मुर्गा खोजना ही है। दोपहर हो चुकी है। आसमान में उजले बादल उड़ते आये और एक जगह स्थिर हो गये। रेंपा ने पतरा पार किया, खेतों को पार किया और ढ़ोंढ़ा लांघता हुआ दूसरे गांव में पहुंच गया।
खोजने पर भी सफेद मुर्गा मिलता नहीं। यह भी भाग्य की बात है। भाग्य ही खोटे हैं तब तो रांगी बीमार पड़ी। सो बीमार भी पड़ी तो ऐसे समय जब घर में कुछ भी नहीं। सब किस्मत का खेल है। जिसकी किस्मत खराब होती है उसी को भूत सताता है, उसी को बीमारी होती है। सफेद मुर्गा दिये बिना कोई चारा नहीं।
सामने गांव था। छोटे-छोटे मिट्टी के दस-पांच घर। उधर सूअर की टोली दौड़ती हुई चली जा रही है। रेंपा ने देखा कि गोबर के ढेर पर एक सफेद मुर्गा चुग रहा है। ऐसा उजला जैसे बगुला। रेंपा का मन ललक उठा। वह जैसा बौर जितना बड़ा मुर्गा चाहता था यह वैसा ही था। वह अपने आप को रोक नहीं सका।
लो, मुर्गा आखिर मिल ही गया। वह मुर्गा अब उसकी गोद में था। रेंपा सोच ही रहा था कि इसके मालिक की तलाश करू कि पीछे से किसी ने कहा- 'अरे रेंपा, मुझे यह पता नहीं था कि तुम परले सिरे के चोर भी हो।'
रेंपा के तन-बदन में आग लग गयी। वह चिल्ला उठा-'जबान सम्हाल लो। मेरे सात पुरखों में आज तक किसी ने चोरी नहीं की। चोर कहोगे तो सिर उतार लूंगा।'
'मगर यह सरासर चोरी है। तुम चोर हो ।'
रेंपा ने फिर चिल्लाया-'तुम साबित करो कि मैं चोर हूं। कोई नहीं कह सकता कि मैंने कभी चोरी की है।'
उस आदमी ने कहा- 'मगर मुर्गा मेरा है। तुम इसे चुराकर भागना चाहते थे।'
रेंपा ने कहा- 'नहीं, मैं इसे लेकर तुम्हारे पास आना चाहता था। मेरी रांगी बीमार है और भूत सपने देता है। चरका मुर्गा उसी के लिए है।'
उस आदमी ने कहा-'तब इसका दाम? इसके दाम का क्या होगा?'
रेंपा ने कहा- 'इस साल मेरी खेती खराब हो गयी है। अगले साल फसल अच्छी होगी तो ले लेना।'
उस आदमी ने कहा- 'तुम चोर ही नहीं, जालसाज भी हो मुर्गा चुराकर भाग रहे थे। पकड़ लिए गये तो बात बनाते हो।'
'मैं कसम खाता हूं।'
'चोर की कसम का कोई विश्वास नहीं !'
'मैं चोर हूं? - रेंपा की आंखें लाल अंगार हो गयीं। सारी धरती उसे घूमती हुई-सी मालूम हो रही थी। यह आदमी मुझे चोर कह रहा है! वह क्रोध से थर-थर कांप रहा था। उसने चिल्लाकर कहा-'मैं चोर हूं?'
उस आदमी ने कहा- 'जरूर कहूंगा। एक बार नहीं, हजार बार-तुम चोर हो। चोर! चोर!! चोर!!!'
इतना सुनना था कि रेंपा ने जमीन पर रखा अपना फरसा उठा लिया और उसकी गर्दन को ताककर इतने जोर से चलाया कि उसका सिर कटकर जमीन पर गिर पड़ा। कब उसकी गोद से मुर्गा उड़कर चिल्लाता हुआ भाग गया इसकी उसे याद भी नहीं रही। कटे हुए गले से खून की धारा उबल पड़ी और रेंपा का सारा चेहरा खून से भर गया। बिना सिर का शरीर एक बार लड़खड़ाया, फिर धरती पर कटे पेड़ की तरह गिर पड़ा। रेंपा अपने चेहरे का खून पोंछता जा रहा था और पागल की तरह चिल्ला रहा था- 'चोर कहेगा! मुझे चोर कहेगा?'
मुकदमा साफ था। नीचे की अदालत में, सेशन में, हर जगह रेंपा ने स्वीकार किया था कि मुझे चोर कहेगा तो मैं उसे क्यों नहीं मारूंगा! महीनों मुकदमा चलता रहा। बयान लिये गये, जिरह की गयी, फिर जज ने फांसी की सजा सुना दी। रेंपा ने सजा का हुक्म इस तरह सुना जैसे बाजार में कोई खरीदार सामान का दाम सुनता है। उसकी आंखें निर्विकार थी, जैसे वह इन सारी बातों से अलग है।
कल रेंपा को फांसी दी जायगी। वह चुपचाप निर्विकार बैठा हुआ है। उसके चेहरे पर शांति झलक रही है। वह जानता है कि कल उसे फांसी होगी, मगर फिर भी वह शांत है।
वार्डन हरिलाल उससे कभी-कभी दयावश बात कर लेता था। उसे फांसी हो जायगी। कल वह इस दुनिया में जीता नहीं रहेगा। यह दुनिया रहेगी मगर वह नहीं रहेगा। उसने धीरे से पुकारा-'रेंपा!'
रेंपा ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा ।
हरिलाल ने कहा- 'तुम्हारे लिए बहुत अफसोस है।'
रेंपा ने कहा- 'अदालतवाले बात समझते नहीं, सचाई पर भरोसा नहीं करते, सिर्फ गवाही-साखी सुनते हैं। अफसोस करने से क्या होगा।'
फिर रेंपा चुप हो गया। हरिलाल के मुंह से भी कोई बात नहीं निकली।
रेंपा क्या सोच रहा है?
हरिलाल ने कहा- 'खबर तो भेज दी गयी थी; लेकिन तुम्हारी औरत आयी नहीं। कोई नहीं आया।'
रेंपा ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। फिर कहने लगा-'आदमियों की अदालत और जेल-घर में वह क्यों आवेगी। वह नहीं आवेगी। जब भगवान के यहां इंसाफ होगा तो वह मेरी गवाही देगी। लीटा भगत भी मेरी साखी देगा। यह आदमी क्या सोचता है? किस तरह सोचता है? हरिलाल चुप हो गया ।
रेंपा उसकी ओर घूरकर देखता हुआ कहने लगा-'जरूरत होने पर कोई की चीज लेना चोरी नहीं होती। हम उरांव आदिवासी जगह-जमीन और चीज को जुदा करके नहीं देखते। मगर आज का जमाना खराब है। सच बात कोई सुनता नहीं।'
हरिलाल ने कहा- 'तुम्हारी औरत आ जाती तो एक बार उससे मुलाकात तो हो जाती।'
रेंपा ने कहा-'मैं कल ही उसके पास जाऊंगा। तुम नहीं जानते। मैं बवंडर बनकर उसके पास जाऊंगा। यह शरीर है और तुम लोग हो जो मुझे उसके पास जाने से रोकते हो।'
हरिलाल कहने लगा-'मैंने पता लिया है। तुम्हारी औरत मजे में है। मौका मिला तो किसी एतवार को तुम्हारे गांव जाऊंगा। वहां तुम्हारी औरत से सारी बातें बतलाऊंगा। टांगरबंसुली स्टेशन पर उतरकर तुम्हारे गांव में जाना पड़ता है न?'
रेंपा ने कहा- 'हां, टांगरबंसुली उतरकर पश्चिम की ओर जाना। आगे बिरगोड़ा नदी है। उस नदी को पार करने के बाद ही मेरा गांव मिल जायगा। वहां रांगी को पूछ लेना।'
हरिलाल ने कहा- 'तुम अपनी औरत से कुछ कहना चाहते हो तो कह दो। मैं उसे सुना दूंगा।'
रेंपा ने उसकी ओर इस तरह देखा जैसे कोई ज्ञानी किसी अबोध को देखता है। बोला- 'मैं तुमसे क्या कहूं। मेरी बात तुम नहीं समझोगे। मैं सपने में उससे मिलूंगा। उसी समय जो कहने की बात होगी, कहूंगा।
और आज हरिलाल रेंपा के गांव जा रहा है। वह टांगरबंसुली स्टेशन पर उतरा और पश्चिम की ओर की पगडंडी पकड़कर चला। बिरगोड़ा नदी पार करके वह रेंपा के गांव में पहुंचा।
रांगी का पता मिलने में देर नहीं हुई। वह सिर झुकाकर उसकी झोपड़ी में घुसा जिसके दरवाजे पर एक बकरी बंधी हुई थी। पास ही एक हल रखा हुआ था। उसने रांगी को देखा। उसकी गोद में एक तीन साल का बच्चा था। पास ही दस और आठ साल के दो लड़के पालथी लगाकर मांड़-भात खा रहे थे। रेंपा ने तो कहा था कि उसके बाल-बच्चे नहीं हैं।
हरिलाल रांगी से बातें करने लगा। उसने रेंपा का हाल सुनाया। रांगी सुनती रही और उसकी आंखों से आंसू बहते रहे। अंत में हरिलाल ने कहा-'मगर तुम कभी रेंपा से मिलने नहीं गयी। आ जाती तो कम से कम भेंट हो जाती।'
रांगी ने कहा- 'ये बच्चे ! इन्हें छोड़कर कैसे जा पाती? जब जाने का नाम लेती कि ये पैर पकड़कर लटक जाते, रोने लगते। इन्हीं लड़कों के मारे मैं नहीं जा पायी।'
उसकी आंखों के आंसू गाल पर फिसल रहे थे। उसने स्नेह के साथ उन तीन बच्चों को देखा। गोदवाले बच्चे को उसने कलेजे से लगाकर चूम लिया, फिर आंखों के आंसू पोंछने लगी।
हरिलाल ने पूछा- 'ये बच्चे?'
'ये बच्चे जवरा के हैं।'
'जवरा कौन है?'
'जवरा कौन?- रांगी अचम्भे के साथ बोली- 'जवरा को तुम नहीं जानते? रेंपा ने उसी जवरा को जान से मार दिया था। उसी के ये तीन बच्चे है। इनकी मां पहले ही मर चुकी थी। इन्हें मैं नहीं देखती तो कौन देखता? अब मेरा है ही कौन। ये ही तीन बच्चे हैं।'
उसके चेहरे पर मातृत्व का गौरव झलक आया।
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यह कहानी 1960 में छपी थी। इसके बाद राधाकृष्ण की प्रतिनिधि कहानियां में संकलित है। जयभारती प्रकाशन, प्रयागराज यह संकलन 1993 में आया था। इसी से साभार प्रकाशित।
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