मौन हो गई मुखर आवाज

संजय कृष्ण : संस्कृति पुरुष डा. रामदयाल मुंडा पिछले महीने की तीस तारीख को अलविदा कह गए। पिछले कई महीनों से वे कैंसर से ग्रस्त थे। अमेरिका में भी इलाज कराया गया, पर उन्हें बचाया नहीं जा सका। पद्मश्री डा. मुंडा के निधन पर मुख्यधारा का मीडिया बहुत मुखर नहीं हुआ। दिल्ली के किसी बड़े अखबार में भी कुछ बड़ी चीज देखने को नहीं मिली। संगीत नाटक अकादमी सम्मान से नवाजे गए डा. रामदयाल मुंडा जितना अच्छा बांसुरी बजाते थे, उतना ही अच्छा मांदर और नगाड़ा भी। मांदर की थाप जब उनके कानों में घुलने लगती, उनके पैर खुद ब खुद थिरकने लगते। नृत्य और गीत भी उनके जीवन का हिस्सा थे। जहां चलना ही नृत्य और बोलना ही गीत हो वहां मुंडा जी कैसे इनसे बचे रह सकते थे। दर्जनों छोटी-बड़ी बांसुरियां व दस-बारह किस्म के नगाड़े व मांदर उनके बैठके की शान थे।
आज भी उनका मुस्कराता चेहरा बार-बार आंखों में घूम जाता है। जब भी मिलते, मुस्कराते मिलते। आधी बांह का खादी का कुर्ता, गर्दन तक अनुशासित घुंघराले खिचड़ी बाल और आंखों पर चश्मा यही उनकी पहचान थी। सादगी में लिपटा उनका व्यक्तित्व था। अगर आप उनके व्यक्त्वि से पूर्व परिचित नहीं हैं तो भ्रम होना स्वाभाविक है जो आदमी इतना सरल दिखाई दिखाई दे रहा है, उसने अमेरिका में पढ़ा-पढ़ाया होगा, भाषा का बेजोड़ विद्वान होगा और उतना ही अपनी माटी से भी जुड़ा होगा...।
आधुनिकता और विद्वता के भारी-भरकम आभा मंडल में लोग अपनी संस्कृति भूल जाते हैं। मुंडाजी इस माने में अपवाद थे। राज्यसभा में चुने जाने व राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य होने के बावजूद न बांसुरी में फूंक मारना छोड़ा न मांदर पर थाप देना। मुंडा जी भाषा के जितने बड़े विद्वान थे, उतना ही बड़ा वे कवि भी थे। मुंडारी-हिंदी में उनका एक संग्रह 2005 में आया था सेलेद यानी विविधा। जी तोनोल (मन बंधन), जी रानाड़ा (मन बिछुडऩा), एनेओन(जागरण)। राग जदुर में उनका एक गीत है...मैंने तुम्हें बचपन में देखा था/तुम सुकान पहाड़ की तरह ऊंची हो गई/ मैंने तुम्हें छुटपन में देखा था/ तुम बुंडू बांध की तरह गहरी हो गई...। राग काराम का एक गीत सुनिए...काश, यह संभव होता...काश, यह संभव होता! मैं प्रेत बन जाता, प्रिय, मैं प्रेत बन जाता! दिन-रात तुम्हारे पीछे पड़ता। ...तुम्हारी छाया का पीछा करता।...गीत के अंतिम बोल हैं...प्रिय, तुम्हारे साथ भागकर खो जाता, मैं हटिया कारखाने में मजदूरी करता। हटिया कारखाने में मजदूरी करता...। प्रेम से भीगी कविताओं में मुंडाजी हृदय खुलता है। गीत-संगीत के जरिए आदमी अपनी मूल प्रकृति को अभिव्यक्त करता है। यहां कोई बनावटीपन नहीं होता। समय का कोई बंधन नहीं। इन क्षणों में सत्य और शाश्वत में जीता है। मुख्यधारा का समाज नहीं जानता कि डा. रामदयाल मुंंडा न सिर्फ एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषाविद, समाजशास्त्री और आदिवासी बुद्धिजीवी थे, बल्कि वे एक अप्रतिम कलाकार भी थे। वे झारखंड नहीं, दस करोड़ आदिवासियों की आवाज थे। बोड़ो-संताल संघर्ष विराम में महती भूमिका निभाई। उनके चाहने वाले देश ही नहीं विदेश में भी हैं, लेकिन अपने देश का गैरआदिवासी समाज उन्हें आज भी नहीं समझ पा रहा है।

जन की मुक्ति के योद्धा डॉ विनयन

संजय कृष्ण : भ्रष्टाचार के खिलाफ एक लड़ाई अन्ना हजारे भी लड़ रहे हैं और एक लड़ाई जेपी ने भी लड़ा था। तब जेपी ने इसे दूसरी आजादी का नारा दिया था। जेपी के इस आंदोलन में कई प्रतिभावान अपने कॅरियर को दांव पर लगाकर आंदोलन में कूद पड़े थे, उनमें एक नाम डॉ विनयन का भी है। विनयन अब हमारे बीच नहीं हैं। 18 अगस्त, 2006 को पटना मेडिकल कालेज में मलेरिया और टाइफाइड से जूझते हुए उन्होंने अंतिम सांसें ली। आजादी मिलने के एक महीने बाद 11 सितंबर, 1947 को झांसी में उनका जन्म हुआ था, लेकिन पैतृक स्थान आगरा था। आरभिंक पढ़ाई-लिखाई आगरा व लखनऊ में हुई। एमबीबीएस की फाइनल परीक्षा छोड़ यायावरी को ओर प्रवृत्त हो गए। हिमालय की ओर कूच किया और 40 दिन का उपवास किया। साधु-संतों का जीवन निकट से देखा तो इनके प्रति भी विरक्ति पैदा हो गई। पर सत्य की खोज के लिए अनवरत यात्रा जारी रही। स्वामी अग्निवेश के साथ राजनीति में पहला कदम रखा। लेकिन यह साथ ज्यादा दिनों तक नहीं रहा। इसी बीच अगस्त 1974 में दिल्ली में जेपी से भेंट हुई और जेपी के कहने पर बिहार आंदोलन से जुड़ गए। अगले महीने पटना पहुंचे और जेपी के निर्देश पर गांव स्तरीय सरकार गठन के लिए जहानाबाद आ गए। इसके बाद तो मृत्युपर्यंत जहानाबाद ही इनका हाल-मुकाम रहा। जहानाबाद इनकी कर्मभूमि रही। इसी धरती पर उन्होंने विचारों की सान को तेज किया और लगातार प्रयोग करते रहे।
विनयन का कुल जमा परिचय यही नहीं हैं। विनयन ने बिहार के पिछड़े जिले जहानाबाद से जो लड़ाई शुरू की, आगे चलकर उसने देश का भी ध्यान खींचा। विनयन ने गरीब-गुरबों की लड़ाई के लिए समय-समय पर कई संगठनों को खड़ा किया। इनमें 1980 में मजदूर किसान संग्राम समिति और 1988 में जनमुक्ति आंदोलन प्रमुख हैं। विनयन जंगल बचाने और जंगल पर आदिवासियों के अधिकार को लेकर नेशनल फ्रंट आफ फारेस्ट पीपल एंड फारेस्ट वर्कर्स का आरंभ किया। इस संगठन ने बिहार-झारखंड-उत्तर प्रदेश के कई सीमावर्ती जिलों में काफी काम किया। आगे चलकर, 2006 में वन अधिकार अधिनियम जो बना, उसमें इस आंदोलन की ही देन प्रमुख है। विनयन कई संस्थाओं से भी जुड़े रहे इनमें लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी, मसूरी  योजना आयोग प्रमुख है। योजना आयोग की बैठकों में वे जाते रहे।  जहानाबाद विनयन का केंद्र था, लेकिन कैमूर की पहाडिय़ों से लेकर रांची की पहाडिय़ों तक उनका कार्यक्षेत्र फैला हुआ था। दलित-आदिवासी, असंगठित मजदूरों, भूमिहीनों के साथ-साथ महिलाओं और पिछड़ों की लड़ाई को भी विनयन ने एक धार दी। उसे एक तार्किक जामा पहनाया। हिंसा में विश्वास नहीं करने वाले विनयन ने एक समय मजदूरों और दलितों की लड़ाई के लिए नक्सली संगठनों से भी हाथ मिलाया। जिसके कारण उन्हें नक्सली करार देकर एक लाख का इनाम भी घोषित कर दिया गया। पर, हिंसा को कभी मन से स्वीकारा नहीं। 
विनयन की प्रतिभा एक क्षेत्र तक सीमित नहीं रही। पढऩा, सोचना, नई बातों पर बहस करना उनका प्रिय शगल था। पटना के एएन सिन्हा संस्थान से लेकर जेएनयू और दिल्ली विवि के बौद्धिक केंद्रों में बैठकी करते। मीडिया से लेकर पुलिस और गुप्तचर विभाग तक उनको जानने-मानने वाले लोग थे। कभी-कभी गुप्तचर विभाग वाले ही उन्हें आगाह भी करते थे।
विनयन धार्मिक नहीं थे लेकिन चर्च का रैडिकल तबका, प्रगतिशील मुस्लिम व सिक्खों के संगठन के बीच भी लगातार आवाजाही करते रहे। जब बिहार सरकार ने एक लाख का इनाम रखा था तो चर्च ने ही उन्हें संरक्षण दिया था। जहानाबाद का अरवल कांड काफी चर्चित हुआ था, जिसमें पुलिस ने 23 लोगों की नृशंस हत्या कर दी। यह अप्रैल, 1986 का साल था। अरवल में मजदूर किसान संग्राम समिति की शांतिपूर्ण सभा हो रही थी, जिस पर पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चलाई। पुलिस के इस नरसंहार ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। 
विनयन संपूर्ण क्रांति से लेकर नक्सल आंदोलन और सुधारवाद से लेकर गांधीवाद तक का सफर तय करते रहे। गांधी की तरह लगातार प्रयोग करते रहे। किसी खास विचारधारा के कायल कभी नहीं रहे। प्रयोग के तौर सबको आजमाया जरूर। लेकिन किया वहीं, जो विवेक ने कहा।
जब 1992 में देश में सांप्रदायिकता का उभार हो रहा था, मंदिर-मस्जिद का विवाद गहरा रहा था, तब विनयन ने पटना से अयोध्या तक पदयात्रा की। एक मार्च से लेकर 15 मार्च तक। इस पदयात्रा में सौ लोग शामिल हुए जिनमें छह महिलाएं, 20 आदिवासी एवं अधिकांश हरिजन, पिछड़े व कुछ ऊपरी जातियों के थे। यही नहीं, इसमें तीन ईसाई, एक मुस्लिम और बाकी हिंदू थे। इस तरह वह एक ओर सामंतों से लड़ रहे थे तो दूसरी ओर सांप्रदायिकता से। इन लड़ाइयों के अलावा आगे जो खतरा देख रहे थे, वह था बहुराष्ट्रीय कंपनियों को। तब अपने एक इंटरव्यू में कहा था, 27-28 सालों तक हमने खेत मजदूरों की लड़ाई लड़ी जो भू-स्वामियों, सामंती सोच वालों अैर राजसत्ता के खिलाफ थी। मगर आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों का खतरा सामने खड़ा है। इस खतरे के सामने तो खेत मजदूर क्या और किसान क्या? बड़े किसान भी इस खतरे से बच नहीं पाएंगे, तो छोटे किसानों की औकात क्या?
विनयन का यह दूरदर्शितापूर्ण विचार क्या आज का हकीकत नहीं है? झारखंड, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्यप्रदेश तक.....क्या देश की खनिज संपदा को लीलने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां आतुर नहीं हैं?
आज विनयन नहीं हैं। उनके विचार जिंदा है। हर साल उनकी बरसी पर जहानाबाद जिले के नवादा आश्रम में उनके चाहने वाले एकत्रित होते हैं, उन्हें याद करते हैं। क्या आपको विनयन की याद नहीं?

नागार्जुन की पाषाणी

संजय कृष्ण : आजादी के दो महीने पहले जून, 1947 में नागार्जुन की लंबी मिथकीय रचना पाषाणी छपी थी। यह कविता युगधारा, रत्नगर्भ, भूमिजा में इसे संकलित किया गया था। हालांकि पहली बार यह रचना इलाहाबाद से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका प्रतीक में 1947 में प्रकाशित हुई थी। यह लंबी कविता नागार्जुन ने बरवै छंद में रची। यह छंद, बकौल नागार्जुन कवि गुरुओं का मनचीता (प्यारा) है। इस छंद को रहीम ने भी पसंद किया है और बाबा तुलसी ने भी। तुलसीदास ने तो इस छंद में बरवै रामायण की रचना ही की है। कहते हैं, प्रतीक में जब यह रचना प्रकाशित हुई थी तो इसे काफी लोगों ने पसंद किया था। इसी छंद में आगे चलकर नागार्जुन ने भस्माकुंर खंड काव्य की रचना की। पाषाणी, अहिल्या पर केंद्रित लंबी कविता है। करीब 220 पंक्तियां। रचना पुरुष सत्ता के क्रूर, क्षणमति, दुर्विग्ध संशय को रेखांकित करती है। विष्णुचंद्र शर्मा नागार्जुन की पक्षधरता को देख वे महाकवि से विभूषित करते हैं। उनके शब्द हैं, ...भिक्षुणी, चंदना, पाषाणी, जया जैसी कविताओं में नागार्जुन, किसान और नारी को मुक्ति की प्रगतिशील भूमिका पर जोर देने वाले आज हिंदी जगत के महाकवि हैं। नागार्जुन ने अपनी बात कहने के लिए, आरंभिक समय में मिथकों का सहारा लिया था। जब हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श उपस्थित नहीं हुआ था, नागार्जुन स्त्री पक्षधरता पर कविता लिख रहे थे। उनके लिए अहिल्या से बड़ा चरित्र कोई दूसरा नहीं दिखाई दिया। अहिल्या छल की मारी थी। पति ऋषि गौतम ने शाप दे दिया। वह पाषाणी हो गई। अहिल्या नाम भी शायद इसलिए पड़ा कि वह हिल-डुल नहीं सकती। अहिल्या का एक अर्थ नागार्जुन ने  उद्बोधन नामक कविता में भी खोला है। पाषाणी के साथ उद्बोधन को भी पढ़ा जाना चाहिए।
नागार्जुन जब अपनी कविता की शुरुआत करते हैं, इन आरंभिक पंक्तियों में पूरा वातावरण उपस्थित हो जाता है। वह बताता कि बिना स्त्री के घर, परिवार ही नहीं, आश्रम भी संस्कारविहीन हो जाते हैं। यह नारी की प्रतिष्ठा है। राम जब आश्रम में पहुंचते हैं, उन्हें आश्रम शून्यप्राय दिखाई देता है। यत्र-तत्र तृण उग आए हैं। सारा प्रांगण था संस्कारविहीन दिखाई पड़ता है।
राम देखते हैं
आंगन से हटकर कुछ थोड़ी दूर
एक झोंपड़ी थी उत्तर की ओर
वहां पहुंचकर देखा अद्भुत दृश्य:
भू-लुंठित थी नारी-प्रतिमा, ओह!
ग्लानि-क्षोभ का वैसा करुण प्रतीक
देख सामने राम रह गए दंग
वहीं धम्म से बैठ गए तत्काल...
लक्ष्मण पूछते हैं
साधारण-सी इस प्रतिमा में, आर्य!
क्या है जिससे हुआ आपको खेद?
राम लक्ष्मण से चुपचाप बैठने को कहते हैं और पाषाणी के मुखमंडल को निर्निमेष निहारते हैं। थोड़ी देर बार पाषाणी के पास आते हैं, मूर्ति को स्पर्श करते हैं। शिर से लेकर तलवे तक अंग-प्रत्यंग। पूरे मनोयोग से राम हाथ फेरते हैं। हाड़ों का वह शिलाभूत संसार हिलता है डोलता है तो दाशरथी रोमांच से भर जाते हैं। वे लक्ष्मण की ओर देखते हैं और लक्ष्मण नि:शब्द उत्तर देते हैं। और, इस तरह राम पाषाणी में प्राण संचार करते हैं।
नागार्जुन पाषाणी के मुंह से कहलवाते हैं-
'कौन देव, तुम मेरे हृदयाधार ?
असुर क्रूर, तो सुर होते हैं धूत्र्त;
क्षणमति होते किन्नर औÓ गंधर्व,
दुर्विग्ध संशयी, हृदय से हीन
होता मानव, तुम हो उससे भिन्न!
धन्वंतरि का कर-पल्लव-संस्पर्श
सुनती हूं, करता अमरत्व प्रदान
धनश्याम, बतालाओ, तुम हो कौन?
पाषाणी में डाल दिए हैं प्राण।Ó
राम ने विनीत होकर अपना परिचय दिया। राम ने पाषाणी से परिचय
अहोभाग्य ! मैं किंतु, पूछ लूं नाम,
गोत्र और कुल...कैसा यह अभिशाप?
'गौतमदार अहिल्या मेरा नाम
यहीं कहीं होंगे मुनि भी हे राम!
दिया उन्होंने मुझको यह अभिशाप: पर नर दूषित, पुंश्चलि, तेरी देह, हो जाए निस्पंद कुलिश-पाषाण।Ó
अहिल्या अपनी पूरी कथा बताती है। कि उसने अपने पति को छोड़ किसी का ध्यान नहीं धरा। वह पूछती है, यदि कोई पति का रूप धरकर आ जाए तो उसका क्या दोष?
पति के इस अन्याय से ही पाषाण हो गई। अहिल्य अपनी व्यथा सुनाते-सुनाते उसकी आंखों से अश्रु की धारा बहने लगी। राम उसके उत्तरीय से आंसू पोछते हैं। राम आश्वासन देते हैं, रोवे मत, देवि!
अब न होगा आपको कोई कष्ट!
गदगद होकर मुनिपत्नी ने कहा धन्य!
पाकर तेरे करकमलों का स्पर्श
प्राणवंत हो उठा आज का पाषाण
अहिल्या राम से कहती है, क्या भूल तो नहीं जाओगे। राम कहते हैं, क्या तुम रघुकुल की रीति नहीं जानती। राम अहिल्या के दोनों पैर छूकर प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं कि जीवन भर वह तुम्हे रखेगा दया, नारी के प्रति कभी न होगा क्रूर, नही करेगा वह दूसरा विवाह। अहिल्या आशीष देती है-'पाया जिसने तुम सा राजकुमार
युग-युग जियो दयालु, दीन जन बंधु, होगी तुमसे प्रजा यथार्थ सनाथ...Ó आशीर्वाद ले दोनों भाई जनकपुर की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। और, कविता समाप्त हो जाती है।
यही कविता का विषय है। अहिल्या के उद्धार की। इस उद्धार में नारी की पीड़ा है। पुरुष सत्ता समाज में नारी कुचली जाती रही है। इस आधुनिक युग में भी स्त्री उपेक्षिता ही है। कविता जब रची गई थी, विमर्श के केंद्र में स्त्री नहीं थी। आजादी का आंदोलन चरम पर था। इस आंदोलन में स्त्रियां किसी से पीछे नहीं थी। नागार्जुन याद कर रहे थे। आजादी के बाद स्त्रियां अहिल्या की तरह शापित न हो। इसलिए इस प्रतीक का इस्तेमाल किया अपनी कविता में। इस कविता पर आलोचकों का ध्यान कम गया। शायद, इस मिथक से उन्हें परेशानी होती हो...। राम की प्रतिष्ठा इस कविता में की गई है। और, आलोचकों को राम का कंकड़ की तरह चुभ रहा है। हमने अपने प्रतीकों, मिथकों को संघ के हवाले कर दिया है। इन बात नहीं की जा सकती। बात करना पुराणपंथी करार दिया जा सकता है। पर, नागार्जुन हैं कि मानते ही नहीं। बार-बार पुरौणिक जंगलों में घूमने लगते हैं। क्या यह संस्कृत का प्रभाव था, पाली को या...।
नागार्जुन की इस कविता के साथ एक और कविता पढ़ा जाना चाहिए उद्बोधन।
जाने किस गौतम का पाकर शाप
सारी धरती बनी अहल्या हाय
यहां कवि ने इसका अर्थ दिया है,  हल से कृषि करने के अयोग्य धरती। वह आह्वान करते हैं कि
भील, गोंड, हो, मुंडा, औÓ संथाल
अब भी तो विकसित हों तेरे बाल
देखो तुमसे मांग रहे द्युति दान
निर्विकल्प निश्चल सौ-सौ दिनमान
उठो, उठो, उठ जाओ विंध्य महान! यह रचना सितंबर, 1947 में रची गई थी। यह भी युगधारा में संकलित है। नागार्जुन इस कविता में अगस्तय की धूर्तता का वर्णन करते हैं कि जिसमें उन्होंने विंध्य की पहाड़ी को अपने दक्षिण प्रवास से लौटने तक विनयावनत रहने की आज्ञा दे जाते हैं। नागार्जुन अगस्त्य की धुतर्ता को लक्ष्य करते हुए विंध्य को उद्बोधन देते हैं, उठो, उठो।
झारखंड सतपुड़ा सदृश तव स्कंध !
रत्नाकर हो अगर तुम्हारा नाम
सागर को क्या कुछ होगी आपत्ति?
अबरख और कोयला और पेट्रोल
...
अंदर दबी पड़ी हैं सौ-सौ खान
उठो, उठो, उठ जाओ विंन्ध्य महान! मांग रहा युग तुमसे जीवन दान।
क्या इन कविताओं का पुनर्पाठ नहीं होना चाहिए।

छत्तीसगढ़ की राह पर झारखंड

संजय कृष्ण : झारखंड भी अब छत्तीसगढ़ की राह चल पड़ा है। यहां भी एसपीओ भर्ती अभियान तेज हो गया है। इसका दूसरा पहलू यह है कि पुलिस-माओवादियों के बीच अब एसपीओ (स्पेशल पुलिस आफिसर) भी पिसने लगे हैं। पुलिस इन्हें भर्ती करती है। मारे जाने पर इनसे अपना पल्ला झाड़ लेती है। माओवादीे इन्हें अपने निशाने पर ले रहे हैं क्योंकि ये उनकी गतिविधियों की जानकारी पुलिस तक पहुंचाते हैं।
गत 25 जुलाई को खूंटी-चाइबासा मुख्य पथ पर 40 वर्षीय विक्रांत लोहरा की गोली मारकर हत्या कर दी गई। पुलिस अब इस बात से पल्ला झाड़ रही है कि वह एसपीओ था। उसकी पत्नी सुमी देवी कहती है कि 2006 से वह एसपीओ था। इसके अलावा वह ठेकेदारी भी करता था। उसके छह बच्चे अब अनाथ हो गए। कुछ लोग कहते हैं कि वह पहले माओवादी था। पुलिस एसपीओ में या तो पूर्व माओवादियों को शामिल कर रही है या फिर आदिवासी युवकों को। यह पहली घटना नहीं है। पिछले साल 18 नवंबर को बुंडू प्रखंड के बारूहातू गांव में प्रदीप मुंडा सहित तीन लोग मारे गए। दो उसके मित्र थे और एक बच्ची भी माओवादियों की फायरिंग में मारी गई। माओवादियों ने उसपर पुलिस मुखबिरी का आरोप लगाया था। प्रदीप भी एसपीओ था। प्रदीप और उसके दो बड़े भाई कुलजीवन सिंह मुंडा (40)कुलदीप सिंह मुंडा (35) कभी माओवादी दस्ते में सक्रिय थे। वे विचारधारा से प्रभावित होकर नहीं, आर्थिक मजबूरियों के कारण दस्ते की ओर आकर्षित हुए थे। बाद में मोहभंग हो गया और एसपीओ में शामिल हो गए। प्रदीप के मारे जाने के बाद पुलिस ने हाथ खड़े कर दिए। कहा, वह एसपीओ नहीं था। प्रदीप की पत्नी लखीमनी ने बताया कि वह (प्रदीप)पुलिस कैंप में सोने जाता था। कभी-कभी घर पर डबल बायरल बंदूक भी लेकर आता था। वह स्पष्ट कहती है कि पुलिस के साथ काम करने से पहले वह पार्टी के लिए काम करता था। प्रदीप के बड़े भाई कुलजीवन सिंह मुंडा भी बताते हैं कि वह पहले माओवादी थे। पिछले छह महीने से पुलिस के लिए काम कर रहे हैं। इन्हें तीन हजार महीने की भुगतान पर रखा गया, लेकिन आज तक इन्हें एक रुपया भी नहीं मिला। इस बाबत जब तत्कालीन एसएसपी प्रवीण कुमार से पूछा गया तो उनका जवाब था, झारखंड में एसपीओ नहीं हैं। एसपी अपने स्तर से माओवादियों की गतिविधियों व अन्य सूचना प्राप्त करने के लिए कुछ लोगों को रखता है। उन्हें इसके लिए पेमेंट भी किया जाता है। पुलिस को स्वीकार करने में आठ महीने लग गए। आठ जून को आईजी सह पुलिस प्रवक्ता एसएन प्रधान ने कहा कि तीन हजार एसपीओ पहले से काम कर रहे हैं। 34 सौ और भर्ती करना है। एसपीओ के लिए अस्सी प्रतिशत राशि केंद्र सरकार देती है और 20 प्रतिशत राज्य सरकार। अभी इसी महीने की पांच जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने एसपीओ की भर्ती को असंवैधानिक करार दिया है। केंद्र सरकार को भी आड़े हाथों लेते हुए कहा कि 'केंद्र सरकार सुनिश्चित करे कि कोई भी धन एसपीओ भर्ती के लिए न जाए।Ó मानवाधिकार कार्यकर्ता व एसेसमेंट एंड मानिटरिंग आथारिटी (योजना आयोग) के सदस्य ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं कि 'पुलिस अब माओवादियों से सीधे लड़ाई न लड़कर अप्रत्यक्ष लड़ाई लडऩा चाहती है। एसपीओ की भर्ती व उन्हें हथियार देना संविधान का उल्लंघन है। पुलिस की इस स्ट्रेटजी से गांव-गांव में विभाजन होने लगा है। यदि पुलिस को एसपीओ भर्ती करना ही है तो नियमबद्ध करे। क्योंकि इनके मारे जाने के बाद वह इनसे पल्ला झाड़ लेती है। स्टेट के लिए लडऩे के बावजूद उन्हें शहीद का दर्जा भी नसीब नहीं होता।Ó प्रदेश के डीजीपी गौरी शंकर रथ कहते हैं कि प्रदेश में तीन हजार एसपीओ हैं। तीन हजार और बहाली करनी थी। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से तत्काल इस पर ब्रेक लग गया है। हालांकि नौ स्टेट के 81 जिलों में एसपीओ हैं। इनकी संख्या 13566 है जबकि 12000 और भर्ती करना है। इनमें छत्तीसगढ़ और झारखंड पर विशेष जोर है।

हिंदी पत्रकारिता के उन्नायक गोपाल राम गहमरी

संजय कृष्ण:  हिंदी की लेखक बिरादरी की कृतघ्नता रह-रह कर उजागर होती ही रहती है। यहां लेखक जीते जी हाशिए पर डाल दिए जाते हैं और हिंदी समाज को पता ही नहीं चलता कि अमुक लेखक जिंदा भी है। स्वर्गीय लेखकों की तो बात ही छोड़ दीजिए। हिंदी की लेखक बिरादरी जाति, कथित विचारधारा, गुटबाजी, आदि जैसे गैर साहित्यिक कामों में ही व्यस्त रहती है। उसे वही पूर्वज याद आते हैं जो उसकी विचारधारा के होते हैं या उसके विचारों को संबल प्रदान करते हों।
 हिंदी के अनन्य सेवी गोपाल राम गहमरी एक ऐसे ही लेखक हैं, जिन्हें विस्मृत कर दिया गया है। ऐसे लेखक को जिसने 38 वर्षों तक बिना किसी सहयोग के जासूस नामक पत्रिका निकालता रहा, जिसने सौ से ऊपर उपन्यास लिखे, सैकड़ों कहानियों के अनुवाद किए, यहां तक कि रवींद्रनाथ टैगोर की 'चित्रागंदाÓ काव्य का भी (पहली बार हिंदी अनुवाद गहमरीजी द्वारा किया गया) अनुवाद किए, ऐसे लेखक-पत्रकार को हम भूल गए हैं। वह ऐसे लेखक थे, जिन्होंने हिंदी की अहर्निश सेवा की, लोगों को हिंदी पढऩे को उत्साहित किया, ऐसी रचनाओं का सृजन करते रहे कि लोगों ने हिंदी सीखी। यदि देवकीनंदन खत्री के बाद किसी दूसरे लेखक की कृतियों को पढऩे के लिए गैरहिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी तो वे गोपालराम गहमरी ही थे। ऐसे रचनाकार को हम भूल गए हैं।
गोपाल राम गहमरी के कृतित्व पर आने से पूर्व आज की पीढ़ी के लिए उनके व्यक्तित्व की जानकारी भी जरूरी है। गोपाल राम गहमरी का जन्म पौष कृष्ण 8 गुरुवार संवत् 1923 (सन् 1966 ई) में बारा गाजीपुर जिले में हुआ था। इनके प्रपितामह श्री जगन्नाथ साहू फ्रांसीसी छींट के व्यापारी थे। उनके दो पुत्र थे-रघुनंदन और बृजमोहन। रघुनंदनजी के तीन पुत्र हुए राम नारायण, कालीचरण और रामदास। गोपालराम गहमरी, रामनारायणजी के पुत्र थे। कालीचरण नि:संतान थे और रामदास के एक ही पुत्र थे महावीर प्रसाद गहमरी। गोपालराम गहमरी को भी एक ही पुत्र थे इकबाल नारायण। महावीर प्रसाद गहमरी के दो पुत्र थे देवता प्रसाद गहमरी एवं दुर्गा प्रसाद गहमरी। देवता प्रसाद गहमरी बहुत दिनों तक काशी से प्रकाशित होने वाले दैनिक 'आजÓ और 'सन्मार्गÓ से जुड़े रहे।
गोपाल राम गहमरी जब छह मास के थे तभी पिता का देहांत हो गया और इनकी मां इन्हें लेकर अपने मैके गहमर चली आईं। गहमर में ही गोपाल राम का लालन-पालन हुआ। प्रारंभिक शिक्षा-संस्कार यहीं संपन्न हुए। गहमर से अतिरिक्त लगाव के कारण उन्होंने अपने नाम के साथ अपने इस ननिहाल को जोड़ लिया और गोपालराम गहमरी कहलाने लगे।
गहमरी जी की प्रारंभिक शिक्षा गहमर में हुई थी। वहीं से वर्नाक्यूलर मिडिल की शिक्षा ग्रहण की। 1879 में मिडिल पास किया। फिर वहीं गहमर स्कूल में चार वर्ष तक छात्रों को पढ़ाते रहे और खुद भी उर्दू और अंगरेजी का अभ्यास करते रहे। इसके बाद पटना नार्मल स्कूल में भर्ती हुए, जहां इस शर्त पर प्रवेश हुआ कि उत्तीर्ण होने पर मिडिल पास छात्रों को तीन वर्ष पढ़ाना पड़ेगा। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण इस शर्त को स्वीकार कर लिया। लेकिन बीच में ही पढ़ाई छोड़कर गहमरी जी बेतिया महाराजा स्कूल में हेड पंडित की जगह पर कार्य करने चले गए। सन 1888 ई में सब कामों से छुट्टी कर हाईफस्र्टग्रेड में नार्मल की परीक्षा पास की। इसके तुरंत बाद 1889 में रोहतासगढ़ में हेडमास्टर नियुक्त हो गए। मगर, यहां भी वे टिक नहीं पाए और बंबई के प्रसिद्ध प्रकाशक सेठ गंगाविष्णु खेमराज के आमंत्रण पर 1891 में बंबई चले गए।
गहमरी जी जब रोहतासगढ़ में थे तो वहीं से पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएं भेजा करते थे। बंबई में जब रहने लगे तो वहां भी उनकी कलम गतिशील रही। यह अलग बात है कि वे वहां भी अधिक दिनों तक नहीं टिक सके। चूंकि खेमराज का व्यवसाय पुस्तकों के प्रकाशन का था, इसलिए वहां उनके लिए रचनात्मकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन वहां से होता नहीं था। इसलिए, यहां अपने अनुकूल अवसरों को न देखकर वहां से त्यागपत्र देकर कालाकांकर चले आए। कालांकाकर (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश)से निकलने वाले दैनिक 'हिन्दोस्थानÓ के गहमरी जी नियमित लेखक थे। इसके साथ ही उस समय की श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाएं 'बिहार बंधुÓ, 'भारत जीवनÓ, 'सार सुधानिधिÓ में भी नियमित लिखते थे।
जब 1892 में गहमरी जी राजा रामपाल सिंह के निमंत्रण पर कालाकांकर चले आए तो यहां वे संपादकीय विभाग से संबंद्ध हो गए और एक वर्ष तक रहे। यहीं पर काम करते हुए बांग्ला सीखी और अनुवाद के जरिए साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास भी किया। कहा जाता है कि कालांकार में उन दिनों एक नवरत्न सभा थी, जिसमें पं प्रतापनारायण मिश्र, बाबू बालमुकुंद गुप्त, पं राधारमण चौबे, पं गुलाब चौबे, पं रामलाल मिश्र, बाबू शशिभूषण चटर्जी, पं गुरुदत्त शुक्ल एवं स्वयं राजा साहब थे। गहमरी जी अपने संस्मरण में लिखते हैं, 'हिन्दोस्थानÓ दैनिक आज का आधा केवल चार पेज निकलता था। बाबू बालमुकुंद गुप्त अग्रलेख के सिवा टिप्पणियां भी लिखते थे। बाकी समाचार, कुछ साहित्य और स्तंभ के लिए मेरे ऊपर भार था। पं प्रताप नारायण मिश्र हिन्दोस्थान पत्र के काव्य भाग के संपादक थे। वे फसली लेखक थे। जब कोई फसल जैसे जन्माष्टमी, पितृपक्ष, दशहरा, होली-दीवाली आती, तब इन अवसरों पर हम लोग उनसे कविता लिया करते थे। पं राधारमण चौबे और चौबे गुलाब चंद जी अंगरेजी अखबारोंं का सार संकलन करते थे। इंगलिश मैन, पायनियर, मार्निंग पोस्ट और सिविल मिलिटरी गजट उन दिनों एंग्लों इंडियन अखबारों में मुख्य थे। उनका मुहतोड़ जवाब राजा रामपाल सिंह हिन्दोस्थान में दिया करते थे।Ó इस तरह यह पत्र अपने समय से संवाद स्थापित करते हुए लोगों की आकांक्षाओं और उनके स्वर का साझा मंच था।
गहमरी जी एक जगह बहुत दिनों तक नहीं टिकते थे। इसे आप उनका दुर्गुण कहिए या उनकी विशेषता। वैसे भी किसी पत्रकार को एक जगह बहुत दिनों रहना भी नहीं चाहिए। पत्रकार को तो विभन्नि जगहों पर रहते हुए अपने अनुभवों का विस्तार करना ही चाहिए। उसकी गतिशीलती ही उसे व्यापक और व्यावहारिक बनाती है। ठहरना, केवल सड़ांध पैदा कर सकता है और संभावनाओं के अनंत द्वार को बंद कर सकता है। शायद इस तथ्य से बखूबी परिचित थे गहमरी जी। इसीलिए एक बार फिर सन् 1893 में वे बंबई की ओर उन्मुख हुए और यहां से निकलने वाले पत्र 'बंबई व्यापार सिंधुÓ का संपादन करने लगे। इस पत्र को वहां के एक निर्भीक और असीम साहसी पोस्टमैन निकालते थे। लेकिन इस पत्र का दुर्भाग्य कहें या गहमरी जी का कि यह पत्र छह महीने के बाद बंद हो गया, लेकिन गहमरी जी बेकार नहीं हुए। वहीं के एक हिंदी प्रेमी एसएस मिश्र ने गहमरी जी को बुलाकर उन्हें 'भाषा भूषणÓ के संपादन का भार सौंपा। यह पत्र मासिक था। लेकिन यह पत्र भी बंद हो गया। लेकिन इसके बंद होने के पीछे न आर्थिक कारण थे न अन्य दूसरी तरह की प्रकाशकीय समस्याएं। बल्कि इस पत्र को एक दंगे के कारण बंद कर देना पड़ा। गहमरी जी लिखते हैं, 'इसमें स्वतंत्र भाव से मैंने लिखा और उस समय तक उसको लोग बड़े चाव से पढ़ते थे। इसी साल अर्थात् 1893 में वहां सांप्रदायिक दंगा हो गया। चार दिनों तक मार काट होती रही। पूना की पलटनें जब बंबई आकर बड़े रोब से सड़कों पर गश्त लगाने लगी, तब हजारों नर-नारियों की बलि लेकर बलवाराम शांत हुए। उसी चपेट में भाषा भूषण को बंद कर देना पड़ा।Ó
समय-परिस्थिति-काल का आदमी दास होता है। चाहे-अनचाहे हर आदमी इस चक्र में वर्तुल घूमता है। गहमरी जी भी इससे मुक्त नहीं थे। 'भाषा भूषणÓ के बंद होने के बाद नए ठौर की तलाश में चल पड़े। इनके चाहने वालों और इन पर स्नेह रखने वालों की कमी नहीं थी। उन्हीं में थे पं बालमुंकुद पुरोहित। इन्हीं की कृपा से गहमरी जी मंडला की ओर रुख किए। लेकिन यहां भी बहुत दिनों तक नहीं रह सके। यहां से मासिक 'ïगुप्तकथाÓ का प्रकाशन तो शुरू हुआ, लेकिन अर्थाभाव के कारण इस पत्र को असमय बंद कर देना पड़ा। एक बार फिर चौराहे पर आ गए गहमरीजी। लेकिन इस चौराहे से एक रास्ता फूटा जो बंबई की ओर जाता था। खेमराज जी ने 'श्री वेंकटेश्वर समाचारÓ नाम से पत्र का प्रकाशन शुरू कर दिया था। यह पत्र गहमरी जी के कुशल संपादन में थोड़े समय में ही लोकप्रिय हो गया। इसी दौरान प्रयाग से निकलने वाले 'प्रदीपÓ (बंगीय भाषा) में ट्रिब्यून के संपादक नगेंद्रनाथ गुप्त की एक जासूसी कहानी 'हीरार मूल्यÓ प्रकाशित हुई थी। गहमरीजी ने इस कहानी का हिंदी में अनुवाद कर श्री वेंकटेश्वर समाचार में कई किश्तों में प्रकाशित किया। यह जासूसी कहानी पाठकों को इतनी रुचिकर लगी कि कई पाठकों ने इस पत्र की ग्र्र्र्राहकता ले ली। गहमरी जी लिखते हैं, 'उस समय वेंकटेश्वर समाचार के सैकड़ों नए ग्राहक हुए और सबने यही कहा था कि जिस अंक से 'हीरे का मोलÓ शुरू हुआ है, उस अंक से हम ग्राहक होते हैं।Ó पत्र की लोकप्रियता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है और उस दौर की चित्तवृत्ति का भी। 
उस दौर में जासूसी ढंग की कहानियों में पाठकों की गहरी रुचि जग रही थी। इसमें रोचकता और रहस्य की ऐसी कथा गुंफित होती कि पाठकों के भीतर एक तरह की जुगुप्सा जगाती और पढऩे को विवश। गहमरी जी पाठकों के मन-मस्तिष्क को समझ चुके थे। 'हीरे का मोलÓ के अनुवाद की लोकप्रियता और 'जोड़ा जासूसÓ लिखकर पाठकों की प्रतिक्रियाओं से वे अवगत हो चुके थे। इस लोकप्रियता के कारण वे कई तरह की योजनाएं बनाने लगे। वे यह भी समझ चुके थे कि जासूसी ढंग की कहानियों के जरिए ही पाठकों का विशाल वर्ग तैयार किया जा सकता है। गहमरी जी पूरी तैयारी के साथ जासूसी ढंग के लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। उल्लेखनीय बात यह भी है कि उनके साथ घटी कुछ घटनाओं ने भी जासूसी ढंग के लेखन की ओर उन्हें ढकेला। बकौल गहमरी जी, 'तब से मुझे जासूसी किस्से लिखने और जासूसी काम करने की रुचि अधिक पैदा हो गई।Ó
इस तरह 1899 में ही वे घर आकर जासूस निकालना चाहते थे, किंतु बालमुकुंद गुप्त के पुत्र की शादी होनी थी और वे 'भारत मित्रÓ के संपादन का भार गहमरी जी को देकर अपने गांव गुरयानी चले गए। कुछ दिनों तक गहमरी जी ने 'भारत मित्रÓ का कुशलता पूर्वक संपादन किया। इसकी वजह से जासूस का प्रकाशन थोड़े समय के लिए स्थगित हो गया। उनकी इच्छा थी कि 'सरस्वतीÓ के साथ ही 'जासूसÓ का भी प्रकाशन हो, लेकिन यह इच्छा उनके मन में ही रह गई। इस तरह जासूस का प्रकाशन जनवरी, 1900 में 'सरस्वतीÓ के साथ न होकर चार महीने बाद यानी मई 1900 में हुआ।
गहमरी जी ने 'भारत मित्रÓ के संपादन के दौरान जासूस के निकलने की सूचना दे दी थी। इसका लाभ यह हुआ कि सैकड़ों पाठकों ने प्रकाशित होने से पहले ही पत्रिका की ग्राहकी ले ली। जाहिर है पत्रकारिता की दुनिया में उस समय गहमरी जी की एक साख बन चुकी थी। इस साख की बदौलत ही उन्हें पत्रिका के प्रकाशन से पूर्व सैकड़ों ग्राहक मिल गए थे। आज से सौ साल पहले पाठकों की क्या स्थिति रही होगी, इसका अनुमान लगा सकते हैं। पत्रकारिता की दुनिया में उनकी एक साख, एक विश्वास और एक पहचान के कारण यह संभव हुआ होगा।
एक और उल्लेखनीय बात यह है कि हिंदी में 'जासूसÓ शब्द के प्रचलन का श्रेय गहमरी जी को ही जाता है। उन्होंने लिखा है कि '1892 से पहले किसी पुस्तक में जासूस शब्द नहीं दिख पड़ा था।Ó उन्होंने अपनी पत्रिका का नामकरण ऐसे किया जिससे आम पाठक आसानी से उसकी विषय वस्तु को समझ सके।  जासूस शब्द से हालांकि यह बोध होता है कि इसमें जासूसी ढंग की कहानियां ही प्रकाशित होती होंगी, लेकिन ऐसी बात नहीं थी। उसके हर अंक में एक जासूसी कहानी के अलावा समाचार, विचार और पुस्तकों की समीक्षाएं भी नियमित रूप से छपती थीं।
जासूस निकालने के लिए उन्हें कुछ धन की आवश्यकता थी, इसकी पूर्ति उन्होंने 'मनोरमाÓ और 'मायाविनीÓ लिखकर कर ली। 'जासूसÓ का पहला अंक बाबू अमीर सिंह के हरिप्रकाश प्रेस से छपकर आया और पहले ही महीने में वीपीपी से पौने दो सौ रुपए की प्राप्ति हुई। इसने अपने प्रवेशांक से ही लोकप्रियता की सारी हदोंं को पार करते हुए शिखर को छू लिया था। इसकी अपार लोकप्रियता को देखकर गोपालराम गहमरी जब जासूसी ढंग की कहानियों और उपन्यासों के लेखन की ओर प्रवृत्त हो हुए तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और न इसकी परवाह की कि साहित्य के तथाकथित अध्येता उनके बारे में क्या राय रखते हैंैं। अपने प्रवेशांक में जासूस की परिचय कुछ इस अंदाज में पेश किया- 'डरिये मत, यह कोई भकौआ नहीं है, धोती सरियाकर भागिए मत, यह कोई सरकारी सीआईडी नहीं है। है क्या? क्या है? है यह पचास पन्ने की सुंदर सजी-सजायी मासिक पुस्तक, माहवारी किताब जो हर पहले सप्ताह सब ग्राहकों के पास पहुंचती है। हर एक में बड़े चुटीले, बड़े चटकीले, बड़े रसीले, बड़े गरबीले, बड़े नशीले मामले छपते हैं। हर महीने बड़ी पेचीली, बड़ी चक्करदार, बड़ी दिलचस्प घटनाओं से बड़ेे फड़कते हुए, अच्छी शिक्षा और उपदेश देेने वाले उपन्यास निकलते हैं...कहानी की नदी ऐसी हहराती है, किस्से का झरना ऐसे झरझराता है कि पढऩे वाले आनंद के भंवर में डूबने-उतराने लगते हैं।Ó
 इस तरह यह पत्रिका अपनी पाठकों की बदौलत और उनके अपार स्नेह के कारण एक दो वर्ष नहीं, पूरे 38 वर्ष तक गहमर जैसे गांव से निकलती रही। जिस तरह बाल कृष्ण भट्ट ने भूख से जूझते हुए 33 वर्षों तक 'हिंदी प्रदीपÓ को प्रदीप्त रखा, वैसे ही गोपाल राम गहमरी ने 'हैंड टू माउथÓ ही सही, 38 साल तक इसे जीवित रखा।
इस बीच उन्हें एक बार फिर बंबई जाने का अवसर मिला। वेंकटेश्वर समाचार पत्र निकल रहा था। उन्हें संपादक  की जरूरत थी। यद्यपि उस समय उस पत्र के संपादक यशस्वी लेखक लज्जाराम मेहता जी थे। उन्हें अपने घर बूंदी जाना था। इसलिए पत्र को एक संपादक की जरूरत थी। गहमरी जी उनके बुलावे पर गए और कार्यभारा संभाला, लेकिन जासूस बंद नहीं हुई। वह लगातार निकल रही थी। इस बीच गहमरी जी के समक्ष सेठ रंगनाथ ने प्रस्ताव रखा कि जासूस उनको दे दिया जाए और आजन्म रु 50 बतौर गुजारा लेते रहें। सेठ जी ने उनके समक्ष यह भी प्रस्ताव रखा कि बंबई में रहने की इच्छा न हो जो गहमर से ही लिखकर भेज दिया करें, प्रकाशित करता रहूंगा। लेकिन, गहमरी जी ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और अपने गांव लौट आए।
इस दौरान गहमरी जी ने जासूसी विधा से हटकर आध्यात्मिक विषयक दो पुस्तकें लिखीं। 'इच्छाशक्तिÓ उनकी बंगला से अनुवादित रचना थी और 'मोहिनी विद्याÓ, मैस्मेरिज्म पर अनूठी और हिंदी में संभवत: पहली रचना थी। ये दोनों पुस्तकें हिंदी पाठकों द्वारा काफी पसंद की गईं। बाद के दिनों में जासूसी लेखन से उनकी विरक्ति भी हो गई थी और वे धर्म-अध्यात्म की ओर मुड़ गए थे।
गहमरी जी का कहना था कि 'जिसका उपन्यास पढ़कर पाठक ने समझ लिया कि सब सोलहो आने सच है, उसकी लेखनी सफल परिश्रम समझनी चाहिए।Ó गहमरी जी अपनी रचनाओं में पाठकों की रुचि का विशेष ध्यान रखते थे कि वे किस तरह की सामग्री पसंद करते हैं। साहित्य के संदर्भ में उनके विचार भी उच्च कोटि के थे। वे साहित्य को भी इतिहास मानते थे। उनका मानना था कि  साहित्य जिस युग में रचा जाता है, उसके साथ उसका गहरा संबंध होता है। वे उपन्यास को अपने समय का इतिहास मानते थे। गुप्तचर, बेकसूर की फांसी, केतकी की शादी, हम हवालात में, तीन जासूस, चक्करदार खून, ठन ठन गोपाल, गेरुआ बाबा, मरे हुए की मौत आदि रचनाओं में केवल रहस्य रोमांच ही नहीं हैं, बल्कि युग की संगतियां और विसंगतियां भी मौजूद हैं। समाज की दशा और दिशा का आकलन भी है। यह कहकर कि वे जासूसी और केवल मनोरंजक रचनाएं हैं, उनकी रचनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता है, न उनके अवदानों से मुंह मोड़ा जा सकता हैै। गहमरी जी की बाद की पीढ़ी को जो लोकप्रियता मिली, उसका बहुत कुछ श्रेय देवकीनंदन खत्री और गहमरी जी को ही जाता है। इन्होंने अपने लेखन से वह स्थितियां बना दी थी कि लोगों का पढऩे की ओर रुझान बढ़ गया था। आज अनुवाद के टोटे पड़े हैं। हिंदी में हर साल कितनी पुस्तकों का अनुवाद होता है, इसे बताने की जरूरत नहीं। लेकिन गहमरी जी ने अकेले सैकड़ों कहानियों, उपन्यासों क अनुवाद किए।
गौतम सान्याल ने हंस के एक विशेषांक में लिखा कि, 'प्रेमचंद के जिस उपन्यास को पठनीयता की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, उस 'गïबनÓ की अनेक कथा स्थितियां एक विदेशी क्राइम थ्रिलर से मिलती-जुलती हैं और जिसका अनुवाद गोपालराम गहमरी ने सन् 1906 में जासूस पत्रिका में कर चुके थे।Ó इस उद्धरण से गोपालराम गहमरी के बारे में कुछ और कहने की जरूरत नहीं है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तो अपने साहित्य के इतिहास में गोपालराम गहमरी के कृतित्व को सराहा, लेकिन बाद के आलोचकों ने उन्हें बिसरा दिया। याद किया भी तो लानत-मलानत करने की गरज से, मूल्यांकन की दृष्टि से कतई नहीं। क्या सचमुच गोपालराम गहमरी हिंदी जगत और पत्रकारिता जगत के लिए भुला दिए जाने के काबिल थे?

कला में अश्लीलता और हुसेन

संजय कृष्ण :  मकबूल फिदा हुसेन ने लंदन में अपनी अंतिम सांसें लीं। वे कई सालों से अपने वतन से दूर रह रहे थे। कारण था, दक्षिणपंथियों की धमकी। उनके निधन से भारतीय कला जगत का एक महासूर्य अस्त हो गया। भारतीय कला को बेशक, एक अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई। अपनी खुद की एक ऐसी शैली विकसित की, जिसे देखकर सहसा उनका नाम कौंध जाता है। यह बिरल कलाकार  कुछ दक्षिणपंथी कट्टरपंथियों के डर से अपने देश से दूर चला गया। इन कट्टरपंथियों का सामना करने की हिम्मत उनमें नहीं थी। सरकारें भी उनकी सुरक्षा को लेकर उन्हें कोई आश्वासन नहीं दे सकीं। हमारी सरकारें, केंद्र की हों या राज्य की, कुछ कट्टरपंथियों के आगे झुक जाया करती हैं। हुसेन मामले में भी यही हुआ। अपनी जान की परवाह करते हुए हुसेन ने देश छोड़ दिया। उनके देश छोडऩे पर कागजी लेखकों, कला समीक्षकों ने खूब कागज काले किए। उनके निधन पर यह सिलसिला फिर शुरू हो गया है। कोई इसे राष्ट्रीय शर्म बता रहा है तो कोई इस शर्म से इतना दुखी है कि उसके दिल में कोई दूसरा भाव टिक नहीं पा रहा है। जब वे देश बदर थे तो किसी ने केंद्र सरकार पर दबाव नहीं बनाया। उनके निधन पर भी उनके शव को भारत में लाने की कोशिश नहीं की गई। उन्हें वहीं दफना दिया गया। एयर कंडीशन में बैठ कर शियापा करने वाले लेखक अब जार-जार रो रहे हैं। अजीब स्थिति है।
एक सवाल तो यह उठता है कि हुसेन गए ही क्यों? उन्हें यहां की अदालत का सामना करना चाहिए था। यह सब जानते थे कि जो भी मुकदमें थे, वे ज्यादा दिनों तक टिकते नहीं। फिर भी वे चले गए और कतर की नागरिकता ले ली। लोग कह रहे हैं कि उन्हें देश से बहुत प्रेम था। अंतिम समय में भी वे अपने वतन को नहीं भूले। पर, देश भी उन्हें कहां भूला?
कहते हैं, कला को उन्होंने ऊंचाई दी। भारतीय कला को पहचान दी। विवाद और लोकप्रियता साथ-साथ चली। जिन कारणों से उन्हें अपने देश से दूर जाना पड़ा, कट्टरपंथियों का कोपभाजन बनना पड़ा, उनमें उनके कुछ विवादित चित्र थे, जो हिंदू आस्तिकता पर आघात करते हैं। उनके विवादित चित्रों को लेकर के. बिक्रम सिंह ने लिखा है, 'यह सोचने वाली बात है कि जिन चित्रांकनों के कारण हुसेन विवादों में घिरे, वे भारतीय कला के लिए नए नहीं थे। हिंदू मंदिरों से लेकर बौद्ध स्तूपों तक में देवी के चित्र पाए गए हैं। जहां तक नग्न और कामोद्दीपक चित्रण की बात है, भारतीय परंपरा के लिए यह नई बात नहीं थी, अजंता, गुप्तकाल और चोलकाल की कला से लेकर खजुहारों में भी इस कला को विभिन्न रूपों और शिल्पों में चित्रित किया गया है। रीतिकाल में भी इसकी चिन्हारियां दिख जाती हैं।Ó  के बिक्रम ने यह नहीं बताया कि इन मंदिरों में क्या देवी दुर्गा, पार्वती, सरस्वती, भारत माता के नग्न चित्र बनाए गए हैं? चलिए मान लें, कला में अश्लीलता नाम की कोई चीज नहीं होती। पर, मदर टेरेसा, अपनी मां की तस्वीर, एक मुसलमान को क्यों कपड़ों में रखा? जबकि एक तस्वीर में एक ब्राह्मण को नंगा दिखाया है।    
 कहने वाले कह रहे हैं, ...'असल में बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक भारतीय समाज के सदस्य होने के नाते हिंदू, मुसलिम, ईसाई उनके लिए साझा विरासत के अंग थे। इसीलिए उनकी कला में सभी विश्वासों और परंपरा ने जगह पाई। इतना ही नहीं, दुनिया के दस प्रचलित धर्मों को भी उन्होंने अपने रचना कर्म में जगह दी थी।Ó पर यहीं आकर उनकी सोच दगा दे जाती है। हिंदू प्रतीकों के साथ जो वे बर्ताव करते हैं, वह अपने ही धर्म के साथ कतई नहीं करते। मैं नहीं कहता है कि वे इन चित्रों को बनाते समय किसी प्रकार के पूर्वग्रही थे। लोहिया के आग्रह पर उन्होंने रामायण पर पेंटिंगें बनाई। हिंदू धर्म का उन्हें गहरा ज्ञान था। पर, देवियों को नंगा चित्रित करने के पीछे कभी अपनी मंशा को जाहिर नहीं किया। उनके चाहने वालों ने भी यह सवाल उनसे नहीं पूछा? मध्यकाल में कबीर ने दोनों धर्मों की खूब लानत-मलानत की। वे 125 बरस जीए। बनारस में रहे और कट्टरपंथियों से लड़ते रहे। अंत समय काशी छोड़ मगहर गए तो कट्टरपंथियों के डर से नहीं...उन्हें ललकारते हुए गए। उनकी कथित आस्था व विश्वास को चुनौती देते हुए गए। यह समय तो मध्यकाल जितना बुरा नहीं है। पर हुसेन साहब  कतर की नागरिकता ले ली। वे कबीर की भूमिका में होते तो यह सवाल नहीं उठता...। वे एक महान कलाकार थे... भारत के पिकासो थे, इसमें किसी को शक नहीं। वे बेहद उदार थे... उनका साधु स्वभाव था, इसे मानने में भला किसे गुरेज हो सकता है? पर...।  

बदहाल धरती आबा की धरती

खूंटी जिले के उलिहातू गांव में बिरसा मुंडा के पोते सुकरा मुंडा का मकान
संजय कृष्ण : तमाड़-खूंटी मार्ग से होते हुए उलिहातू पहुंचे तो दस से पार हो चुका था। सूरज तप रहा था। सपीर्ली सड़कों से होते हुए गांव पहुंचे। सड़क के दोनों ओर बसे जंगल निस्तब्ध थे। सड़कें भी शांत थीं। उसके किनारे पथरीले ईंटों से बने इक्का-दुक्का घर भी चुपचाप थे। रास्ते में एकाध मुंडारी महिलाएं लाल पाड़ की सफेद साड़ी में सड़क पर ही धान कूट रही थी। रास्ते पार करती बकरी और भेंडें भी दिख जातीं। प्रकृति के अपूर्व सौंदर्य को निहारते, गांवों की बेबस जिंदगी को देखते हुए हम अपने मुकाम पर पहुंचे। पुरुष समय पास करने के लिए गपबाजी कर रहे थे। वे मुंडारी में बातचीत कर रहे थे, जो अपने पल्ले नहीं पड़ रही थी। महिलाएं अलबत्ता महुआ की डोरी निकाल रही थीं, जिसे सुखाकर तेल निकाला जाता है। धरती आबा बिरसा मुंडा के पोते सुकरा मुंडा की पत्नी लखीमनी भी एक पेड़ की छाया तले यही काम कर रही थी। बिरसा के जन्म स्थल के पीछे उसका मकान है। ऊपर खपरैल। बांस के फट्टे का दरवाजा। क्या आप उम्मीद कर सकते हैं कि राज्य के सबसे बड़े नायक बिरसा मुंडा के वंशज सुकरा के पास एक ढंक का मकान भी नहीं होगा। मकान के आगे लगा चापाकल भी सालभर से बेकार है। वैसे गांव के अधिकांश चापाकल बेकार हैं। बिजली की तो पूछिए मत। दो साल से ट्रांसफार्मर जला है। डीसी से लेकर एसडीओ से भी शिकायत की गई, लेकिन बेकार। मैट्रिक पास सामयल पूर्ति दुभाषिए का काम करता है। गांव के लोग मुंडारी बोलते हैं। हिंदी बहुत मुश्किल से कोई-कोई बोलता है। कहता है, गांव में कोई सुविधा नहीं। नौ जून और 15 नवंबर को अधिकारी दिखाई देते हैं। समस्याएं सुनते हैं, आश्वासन देते हैं। खूंटी जाते ही समस्याओं को 'खूंटीÓ पर टांग देते हैं। नेता इन दो अवसरों के अलावा चुनाव के समय आते हैं, फिर इधर का रास्ता भूल जाते हैं। बरनावास पूर्ति 70 को छू रहे हैं। बुनियादी अस्पातल दिखाते हुए कहते हैं, तीन कमरों वाला यह अस्पातल सालों से बंद है। न कोई डाक्टर, न कोई नर्स। यहां से सबसे नजदीक अस्पताल अड़की दस किमी दूर है और खूंटी 25 किमी दूर। कोई साधन नहीं। एक कमांडर ही चलता है। सुबह-शाम। जरूरत पड़ी तो पैदल ही एकमात्र उपाय। विकास के नाम पर एक सड़क ही दिखाई पड़ती है। 812 लोगों की आबादी वाले इस गांव में महिला-पुरुष संख्या में कोई ज्यादा अंतर नहीं। पुरुष 408 और महिलाएं 404। गांव से सटे बना आवासीय विद्यालय और अस्पताल भी खस्ता हो रहे हैं। अस्पताल में बुध के बुध डाक्टर आते हैं। आवासीय विद्यालय में कक्षा आठ तक 280 बच्चे हैं और शिक्षक महज चार। गर्मी की छुट्टी होने के कारण आवासीय विद्यालय में ताला लटका था। पास बने बिरसा कांप्लेक्स में लगे शिलापट्ट टूट चुके हैं। कांप्लेक्स देखकर रोना आता है। बिरसा अपने की गांव में उपेक्षित हैं। उनके जन्म स्थल को भी मामूली छप्पर से से बनाया गया है। नेताओं के शिलापट्ट जरूर मजबूती से खड़े हैं।  

जनजातीय वेदना की जुबां है 'जोहारÓ

संजय कृष्ण :  गुरुवार को हुई राष्ट्रीय अवार्ड घोषणा में झारखंड की रचनात्मकता को सम्मान मिला। इनमें दो झारखंड के हैं और एक कोलकाता के। मेघनाथ भट्टाचार्य व बिजू टोप्पो रांची हैं, जिनकी दो डाक्यूमेंट्री एक रोपा धान व लोहा गरम है को अवार्ड मिला। वहीं कोलकाता के फिल्ममेकर नीलांजन भट्टाचार्च की जोहार को भी बेहतर पटकथा के लिए अवार्ड दिया गया।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ। श्रीप्रकाश के कई वृत्तचित्रों को पुरस्कार मिला, देश-दुनिया के फिल्मोत्सव में वाहवाही बटोरी। फिर भी कहीं कोई हलचल नहीं। सरकार का कोई प्रयास नहीं। इस बाबत श्रीप्रकाश कहते हैं, जो भी फिल्में बनती हैं, व्यक्तिगत प्रयास से। संस्थागत या सरकारी मदद किसी भी स्तर पर उपलब्ध नहीं है। बंगाल को छोड़कर पूर्वी भारत में यह झारखंड ने यह मिसाल कायम किया है कि उसने अपने बूते देश-दुनिया में जगह बनाई है, पुरस्कार जीते हैं।
मेघनाथ लंबे समय से फिल्म निर्माण  से जुड़े हैं। रचनात्मक और आलोचनात्मक दोनों तरह की फिल्में बनाते हैं। एक रोपा धान उनकी रचनात्मक फिल्म है और लोहा गरम है मुद्दापरक। दोनों ने राष्ट्रीय अवार्ड जीते। 'लोहा गरम हैÓ को बनाने में तीन साल लगे। झारखंड, उड़ीसा, बंगाल आदि राज्यों में शूटिंग की गई। कई तरह की दिक्कतें भी आईं। स्पंज आयरन इंडस्ट्रीज के प्रदूषण से आस-पास की जिंदगियां कैसे प्रभावित हो रही है, इसे दिखाने का प्रयास किया गया है। बताया गया कि जहां १९८५ में इसके तीन प्लांट थे, २००५ आते-आते २०६ प्लांट लग गए। अब यह संख्या ४३० से पार कर गई है। ये छत्तीसगढ़, झारखंड, पं बंगाल और कुछ-कुछ गोवा, महाराष्ट्र व कर्नाटक में हैं। इन पर प्रदूषण बोर्ड का नियंत्रण है न सरकार का। स्वास्थ्य, कृषि, पर्यावरण कैसे प्रभावित हो रहे हैं, प्लांट के आस-पास देखा जा सकता है।
'एक रोपा धानÓ अलबत्ता झारखंड की दूसरी तस्वीर पेश करती है। बिजू टोप्पो कृषि-जल संकट के बीच धान की खेती कैसे करें, पैदावार कैसे बढ़ाएं, इसे ग्रामीणों को बताते हैं। आज से पचीस साल पहले मेडागास्कर में हेनरी डे लौलीने ने धान की खेती के लिए एसआरआई (सिस्टम आफ राइस इनटेंसीफिकेशन) विधि की खोज की। ग्रामीण इसे एक रोपा धान कहते हैं। इस विधि से कैसे खेती कर पैदावार बढ़ा सकते हैं, इसे ग्रामीणों को बताती है। बिजू टोप्पो बताते हैं, पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण पैदावार कैसे बढ़ाई जाए, इसको लेकर इसका निर्माण किया गया है। नीलांजन भट्टाचार्य की 'जोहार : वेलकम टू अवर वल्र्डÓ जनजातीय दर्द को जुबां देती हैं। इसे कोलकाता के नीलांजन भट्टाचार्य ने बनाया है। इसे बेस्ट पटकथा का पुरस्कार मिला है। वृत्तचित्र देखने पर महसूूस होता है कि यह दर्शकों को जनजातीय वेदना की जुबां बनकर कथा सुना रहा हो। नीलांजन ने बताया कि आदिवासी समाज के प्रति एक अतिरिक्त आकर्षण ने इस फिल्म को बनाने के लिए प्रेरित किया। झारखंड पड़ोस में था। कई मित्र रांची में हैं। इसलिए झारखंड को ही चुना। नीलांजन कहते हैं, आदिवासी समाज अपनी गुरबत में भी अपनी संस्कृति को नहीं भूलता। जंगल उजाड़े जा रहे हैं। आजीविका का संकट लगातार घना हो रहा है। ट्राइबल फूड के साथ उनकी ट्राइबल मेडिसिन भी धीरे-धीरे खत्म हो रही है। जोहार में इन्हीं समस्याओं को कैद करने का प्रयास किया गया है। ग्रामीण वन अधिकारी, वन माफिया और माओवादी तीनों से त्रस्त हैं। वन कानून है, लेकिन कागज पर। बीपीएल के लिए आदिवासियों को सड़क जाम करना पड़ता है। नीलांजन आदिवासियों की जिजीविषा से सलाम करते हैं। कहते हैं, गांव में बहुत दिक्कते हैं। फिर भी वे नाचना-गाना नहीं भूलते। उनकी संस्कृति बहुत गहरी है। अब उनका खान-पान प्रभावित हो रहा है। माइनिंग ने वातावरण को प्रदूषित कर दिया है, फिर भी वे जी रहे हैं।

उसकी कहानी

राधाकृष्ण

एक ठूंठ खड़ा था और उसके खोड़हर में घोंसला बना कर एक चिडिय़ा रहती थी।

वह भी कोई दिन था, जब इस ठूंठ ने पृथ्वी के ऊपर खड़े होकर अपने लाल-लाल पत्तों के इशारे से वसंत को बुलाया था और उसके स्वागत में अपनी सुगन्ध-भरी मदमाती मंजरियां भेंट की थीं।

लेकिन अब वे दिन अतीत में अस्त हो गए थे। समय श्वेत और श्यामल चरण-चिह्न छोड़ता हुआ बहुत दूर तक चला गया था। यदि वह ठूंठ याद कर सकता, तो अनेकों वसन्त, अनेकों बरसात और शरद की असंख्य चांदनी रातों को याद कर सकता।

अब भी वसन्त आता था, अब भी भौंरे गुन-गुन गाते थे, अब भी विगह-कूजन से निस्तब्ध सन्ध्या चंचल हो उठती थी; किंतु वहां अब इसका कुछ प्रभाव नहीं पड़ता था; क्योंकि वह एक ठूंठ था। इने-गिने पत्र-पुञ्ज ही उसकी सजीवता की साक्षी देते थे।

समीप ही एक झरना झर रहा था। वह एक स्वर और एक रागिनी में न जाने क्या गा रहा था। यह वही जाने। वहां फेनिल लहरें उछल-उछल कर, नाच-नाच कर क्रीड़ा किया करती थीं। आसपास हरे-भरे झुरमुट थे, पृथ्वी पर तृणों की शैया थी, बहुतेरे फूल हंस-हंस कर खेल रहे थे; किंतु वह ठूंठ जैसे सबसे पृथक, अकेला और असुन्दर होकर खड़ा था।

रात हो आई थी। तृतीया का बंक शशि रूप की नौका के समान तैरता हुआ आकाश के नील महासागर को पार कर रहा था। बिखरे हुए तारे ऐसे जान पड़ते थे, जैसे किसी महाकाव्य में पड़ी हुई उपमाएं। शीतल पवन मन की भांति इधर-उधर दौड़ता हुआ अठखेलियां कर रहा था।

ठूंठ खड़ा था औ अपने घोंसले से सिर निकाल कर चिडिय़ां झांक रही थीं।

सहसा पूरब की ओर से कुछ मेघ दौड़ पड़े। हवा की चंचलता क्षुब्धता में बदल गई। आकाश में छितराये हुए प्रकाश के मोती अलोप हो गये। चांद बादलों के बीच उलझ गया। चारों ओर एक स्याही सी फिर गई। एक भीषण गरज से पृथ्वी कांप उठी। ...फिर बिजलियों की तड़पन, मेघों की गरज, वृष्टि की बौछार और हवा का हाहाकार!...आखिर थोड़ी देर के बाद सब थम गया। बादल दौड़ते हुए आए थे, दौड़ते हुए चले गये। चांद खिलखिलाता हुआ निकल आया। तारे हंसने लगे।

सब हुआ; लेकिन वह ठूंठ गिर पड़ा। उसकी डालें टूट गई थीं और उसमें रहने वाली चिडिय़ां चें-चें करके उस अंधकार में उड़कर न जाने कहां चली गई थीं। ठूंठ निस्सहाय, निरावलंब पृथ्वी पर पड़ा हुआ था।

अब भी झरना वही अपना मुक्त, प्रवाहमय और अविराम गीत गाने में व्यस्त था, फेनिल लहरें क्रीड़ा कर रही थीं, वृक्षों की द्रुमावलियां डोल रही थीं, फूल हंस-हंसकर लोट रहे थे, पर वह ठूंठ नहीं था और उसमें बसने वाली चिडिय़ां भी नहीं थीं।

सब कुछ वही था, केवल रह-रह कर हवा ठंडी सांसे ले लिया करती थी।

हंस के फरवरी, 1935 अंक में प्रकाशित।

गाजीपुर में गुरुदेव

संजय कृष्ण :  साहित्य के इकलौते नोबेल पुरस्कार पाने वाले कविंद्र-रवींद की 150 वीं जयंती देश-दुनिया में मनाई जा रही है। उनकी कविताओं, उनके व्यक्तित्व, राष्ट्रवाद पर उनके विचार आदि को खंगाला जा रहा है। पर, रवींद्र नाथ टैगोर उत्तरप्रदेश के गाजीपुर में भी प्रवास किया था, वहां रहकर मानसी की अधिकांश कविताएं लिखीं थी, नौका डूबी के कई अंश गाजीपुर में लिखे गए या उससे संबंधित हैं, यह बहुतों को नहीं पता। कई टैगोर के अधिकारी विद्वानों से भी चर्चा की तो उन्होंने अनभिज्ञता प्रकट की। जबकि रवींद्र नाथ टैगोर गाजीपुर में छह मास रहे। वहां का एक छोटा सा इतिहास भी लिखा। गाजीपुर वे क्यों गए, आइए सुनते हैं, उन्हीं की जुबानी।   
रवींद्र नाथ टैगोर ने मानसी की सूचना में लिखा है, बचपन से ही पश्चिमी हिंदुस्तान मेरे लिए रूमानी कल्पना का विषय था। यहीं विदेशियों के साथ इस देश का लगातार संपर्क और संघर्ष होता रहा है। यहां ही सदियों से इतिहास की विराट पट भूमि पर बहुत से साम्राज्यों के उत्थान-पतन की और नए-नए ऐश्वर्यों के विकास-विलय अपने विचित्र रंगीन चित्रों की कतार बनते जा रहे हैं। बहुत दिनों से सोच रहा था कि इसी पश्चिमी हिंदुस्तान की किसी एक जगह कुछ दिन रहकर विराट, विक्षुब्ध अतीत का स्पर्श दिल में महसूस करूं। आखिर में एक बार सफर के लिए तैयार हुआ। इतनी जगहों के बावजूद गाजीपुर को ही क्यों चुना- इसके दो कारण हैं। सुन रखा था कि गाजीपुर में गुलाब के बगीचे हैं। मैंने मन ही मन जैसे गुलाब-बिलासी सिराज का चित्र बना लिया था। उसी का मोह मुझे बहुत जोरों से खींचता रहा। वहां जाकर देखा-व्यापारियों के गुलाब के बगीचे। वहां न तो बुलबुलों को बुलावा है न कवियों को। खो गई वह छवि। दूसरी ओर, गाजीपुर के महिमा मंडित प्राचीन इतिहास के कोई बड़े निशान देखने को नहीं मिले। मेरी निगाहों में उसका चेहरा एक सफेद साड़ी पहनी विधवा सा लगा, वह भी किसी बड़े घर की नहीं।
फिर भी गाजीपुर ही रह गया। इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि मेरे दूर के रिश्तेदार गगनचंद्र राय यहीं अफीम विभाग में बड़ अफसर थे। उनकी मदद से मेरे लिए यहां रहने का इंतजाम बड़ी आसानी से हो गया। एक बड़ा सा बंगला मिल गया, गंगा-तीर पर ही, ठीक गंगा तीर पर भी नहीं। करीब मिल भर का लंबा रेत पड़ गया है। उसमें जौ, चने और सरसों के खेत हैं। गंगा की धारा दूर से दिखती है। रस्सी से खींची जा रहीं नावें मंद गति से चलती हैं। घर से सटी काफी जमीन परती पड़ी है। बंगला देश की मिट्टïी होती तो जंगल हो जाता। निस्तब्ध दोपहर में कुएं से कलकल शब्द करती हुई पुर चलती है। चंपा की घनी पत्तियों में से दोपहर की धूप जली हवाओं से होती हुई कोयल कूंक आती है। पश्चिमी कोने पर एक बहुत बड़ा और पुराना नीम का-सा पेड़ है। उसकी पसरी हुई घनी छाया में बैठने की जगह है। सफेद धूलों से भरा रास्ता घर के बगल से चला गया है? दूर पर खपरैल के घरों वाला मुहल्ला है। 
 गाजीपुर दिल्ली-आगरा के समकक्ष नहीं है। सिराज-समरकंद से भी इसकी तुलना नहीं चलती। फिर भरी अबाध अवकाश में मन रम गया। अपने एक गीत में मैंने कहा है-'मैं सुदूर का प्यासा!Ó परिचित दुनिया से यहां आकर मैं उस दूरी से ही घिर गया। आदत के भारी हाथों की पकड़ के बाहर होते ही मन को आजादी मिल गई। इस वातावरण में मेरी काव्य रचना का एक नया पर्व अपने आप ही उभर आया। अपनी कल्पना पर नये-नये परिमंडलों का प्रभाव पड़ते मैंने बार-बार देखा है। इसी से जब अल्मोड़ा में था, मेरी कलम ने शिशु कविताओं की ओर हठात नई राह ली। हालांकि उस तरह की कविताओं की प्रेरणा का कोई उपलक्ष ही वहां नहीं था। यह पहले की रचना धारा से स्वतंत्र एक नये काव्य रूप का प्रकाश था। मानसी भी वैसी ही है। नये वातावरण में मानो इन कविताओं ने सहसा नई देह धारण कर ली है। ...मानसी में ही छंदों के नए-नए रूप आने लगे। कवि के साथ जैसे एक कलाकार आ मिला।
 रवींद्र नाथ टैगोर की मानसी व अन्य कविताओं के अनुवादक डा. सरजू तिवारी ने लिखा है, कवि प्रवास की कोई खास छाप गाजीपुर के जन-जीवन पर पडऩे के उदाहरण नहीं मिलते। किंतु कवि मन पर यहां के जन-जीवन की गहरी छाप पड़ी थी। उनकी अन्य रचनाओं में भी इनका विस्तृत उल्लेख मिलता है। उनके विख्यात उपन्यास नौका डूबी के कथानक का एक तृतीयांश गाजीपुर पर ही केंद्रित है। गाजीपुर प्रवास के चौवालिस साल बाद कवि का पुनश्च काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। इसमें स्मृति नामक कविता कवि के गाजीपुर वास के बिंबों को पुन: उकेरती है।
कविता की पंक्तियों पर गौर करें
पश्चिम में शहर/ उसी के एक किनारे निर्जन में / दिन की धूप जकड़े है एक अनादृत घर/ झुके हुए छज्जे चारों ओर/ कमरों में चिर काल की छाया पड़ी है मुंह के बल,
और चिरबंदी पुरनियों की गंध।
फर्श पर पीला जाजिम,
किनारों पर ठप्पा मारी बंदूकधारी बाघ शिकारी की तस्वीर।
उत्तर ओर शीशम के नीचे से
चली गई है कच्ची राह, उड़ रही है धूल
प्रखर धूप की देह पर, हल्की ओढऩी जैसे।
सामने के रेते पर गेहूं, अरहर, ककड़ी, तरबूजों के खेत,
दूर में झलमल करती गंगा,
बीच बीच में गोन-बंधी नावें
स्याही की लकीरों से चित्र बन रहे हों जैसे।
कविता लंबी है, लेकिन एक चित्र उकेरा है गुरुदेव ने।
बिजनकष्ण चौधरी ने लिखा है कि मानसी की कविताओं की रचना का समय 1887 से 1890 के बीच है। इन पर गौर करने से पता चलता है कि इनकी शुरुआत कलकत्ते में हुई थी। फिर गाजीपुर, महाराष्ट्र में शोलापुर-खिड़की, कलकत्ता, शांतिनिकेतन होते हुए इंग्लैंड जाने की जहाज म्योसेलिया और अपने देश लौटने की जहाज टेम्स में पूरी हुई। गाजीपुर में कवि सन 1888 के फागुन से क्वार की शुरुआत तक रहे। इस बीच बैसाख से आषाढ़ के दरम्यान 28 कविताओं की रचना की।
गाजीपुर में रहते हुए गुरुदेव ने गाजीपुर का इतिहास नामक एक रोचक इतिहास भी लिखा। इतिहास के अंत में उन्होंने लिखा, केवल 1888 ई में ऐसी एक घटना यहां घटी जो गाजीपुर के इतिहास में अमर रहेगी।
यह घटना कुछ और नहीं, गाजीपुर में गुरुदेव का प्रवास ही था।