‘झारखंड की लड़ाई और फ्रांस की लड़ाई मंे कोई अंतर नहीं। वे फ्रांस के पाल लाफार्ग की किताब ‘संपत्ति का विकास’ से एक लंबा उद्धरण देते हैं-‘ अधिक निर्दयता के साथ जंगलों को हथिया लिया गया। कानूनी बातों को ताक पर रखके जमींदारों ने जंगलों और झाड़ियों पर अपना अधिकार रिजर्व और प्रोटेक्टेड बनाजमा लिया। उनने जंगलों को घेर दिया , उनने औरों का शिकार खेलना रोक दिया और घर गिरस्ती केलिया लिए काठबांस वगैरह लेना खत्म कर दिया, जिससे ईंधन तथा घर, घेरा, औजारों की मरम्मत वगैरह के लिए कुछ भी जंगल से नहीं लिया जा सकता था। जो जंगल बराबर गांवों की सार्वजनिक संपत्ति थे, उन्हें इस तरह जमींदारांे द्वारा हथियाए जाने का नतीजा यह हुआ कि किसानों के भयंकर विद्रोह होने लगे।’
‘वर्तमान समय में कोल समाज की जो स्थिति है, इससे लगता नहीं कि उन्हें महाजनांे की आवश्यकता होगी। अगर हिंदुस्तानी महाजन वहां प्रवेश नहीं करते तो शायद उनमें कर्ज लेने की रीति का प्रचलन नहीं होता। इनके कर्ज लेने का समय अभी भी नहीं आया है। कर्ज उन्नत समाज की देन है। कोल लोगांे की ऐसी उन्नति में अभी देर है। समाज में स्वाभाविक तौर पर जो स्थिति उत्पन्न नहीं हुई है, बनावटी तौर पर उसे लाने में या उन्नत देश की रीति को लागू करने पर नतीजा अच्छा नहीं होता। हमारे बंगाल के एकािधक क्षेत्रा में ऐसा दिख रहा है। एक समय में यहूदियों ने अविकसित इंग्लैंड में कर्ज देने के समय विकसित देशों का नियम लागू कराकर वहां काफी हानि पहुंचाई थी। अब हिंदुस्तानी महाजन लोग वही हानि कोल लोगों में पहुंच कर रहे हैं।’
सन् 1947 में देश को आजादी मिली। लेकिन पलामू की आजादी आज भी संदिग्ध है। पलामू एक जिले का नाम नहीं है। वह प्रतीक है गुलामी का। बंधुआ मजदूरी का। आदमखोर मउआर के आतंक का। सामंतवाद की जघन्य प्रवृत्तियों का। भूख का, अकाल का, शोषण का। हिंसा का। प्रतिहिंसा का। कोयल किनारे दहकते पलाश का। आग का। डूबते सांझ का। बूढ़े की झुर्रियों का। पलामू यही नहीं है... इससे आगे भी है, जिसे किसी उपमा या प्रतीक में कैद नहीं किया जा सकता। इसके विस्तार में बियावान जंगलों में खिलने वाला सूर्ख पलाश हमें डराने लगता है। कोयल का मटमैला पानी लहू की तरह हमारी नसों में दौड़ने लगता है। पलामू की यह तस्वीर अचानक नहीं बनी। बहुत पहले से बनी है। चार-पांच सौ साल पीछे भी जा सकते हैं।
पलामू को अकाल का घर कहा जाता है। आजादी के पूर्व अंगरेजों के समय 1859, 1890 व 1918 में यहां बड़े अकाल पड़े, आजादी के बाद 1967 का अकाल भीषण था। 1967 के दौरान तीन वर्षों की अनावृष्टि के कारण त्राहिमाम मचा था। खेत होते हुए लोग भूखों मरने लगे थे। लोग पलायन को मजबूर हुए। खेती पर निर्भर जातियों की स्थिति तो और भी बदतर हो गई। छह साल बाद 1973 में फिर अकाल ने दस्तक दे दी। तब 50 से अधिक लोगांे को अपनी जान गवानी पड़ी थी। फिर तो अकाल पलामू के माथे पर चिपक गया। फिर अतिवृष्टि। सन् 1923, 1953, 1956, 1957 व 1971 की बाढ़ ने फसलों को तबाह कर दिया। खेतों मंे बालू भर गए। 1976 की भयानक बाढ़ में तो तीन हजार गांव बह गये।
इन प्राकृतिक आपदा-विपदा के बीच भी जमींदारों की मनमानियां मुकम्मल कायम रहीं। हराई प्रथा, बेगारी-रोपनी, सलामी, दीवान रस्म और मुसद्दी खर्चा आदि प्रथाएं इस क्षेत्रा में प्रचलित रहीं। हराई के अंतर्गत किसानों को अपना नुकसान सहकर हल बैल के साथ भू-स्वामियों की भूमि को साल में तीन बार जोतना पड़ता था। जमींदारी समाप्त हो जाने के बाद भी यह प्रथा चलती रही। बेगारी रोपनी के अंतर्गत जमींदार के खेत में रोपनी करनी पड़ती थी। इस तरह की सेवा उनको हर साल कम से कम आठ दिन देनी पड़ती थी। इन प्रथाओं के कारण किसान अपनी खुद की जमीन समय से नहीं जोत पाते थे। वर्षा के अभाव में उनके खेत परती ही रह जाते थे। सलामी प्रथा के अंतर्गत विजय दशमी को इस क्षेत्रा के राजाओं, जागीरदारों, जमींदारों के यहां दरबार लगता था जहां उस दिन प्रत्येक रैयत को एक या दो रुपये भू-स्वामी को सलामी के रूप में देना होता था। इसके साथ ही सलामी बबुआन, सलामी ठाकुरबाड़ी भी प्रचलित थी। दीवान रस्म भी दीवान को दिया जाता था। जहां दीवानी नहीं, ठेकेदारी प्रथा थी, वहां यह ठेकेदार लेता था। जब किसान अपना बकाया भू-स्वामी को चुकता कर देता तब भू-स्वामी उसको फरकती रसीद देता था। इसके बदले में किसान को एक आना देना पड़ता था। उस समय एक आने में साढ़े तीन सेर कच्चा चावल मिलता था। बाद के दिनों में यह प्रथा शोषण-लूट का साधन बन गई। फरकती रसीद, लगान व कर्ज दोनों के चुकता होने पर ही जारी होता। बाद में कर्ज महाजनों द्वारा भी दिया जाने लगा। वह दस रुपये किसान को कर्ज देता तो सौ रुपये का कागज बनवाता था। सूद-दर-सूद जोड़कर पांच सालों मंे यह रकम कई गुना हो जाती थी। किसी को तो अपनी जमीन महाजन को देकर कर्ज से मुक्त होना पड़ता था। यह प्रथा वहां अस्सी के दशक तक रही और इसके फलस्वरूप ही इस क्षेत्रा में अधिकांश को अपनी जमीन गंवानी पड़ी या फिर उन्हें अपनी ही जमीन में मजदूरी करने को मजबूर होना पड़ा था। शोषण यहीं तक नहीं था। किसानों या कर्जदारों से मुहर कर्जा भी वसूला जाता। साल के अंत में जब किसान जमींदार या ठेकेदार को लगान देता था, उस समय रसीद पर मुहर लगाने के लिए दो आने से चार आने तक रैयतांे को मुहर लगाई देनी पड़ती थी। यही पलामू है। इन्हीं स्थितियों-परिस्थितियों-प्राकृतिक आपदाओं के बीच बंधुआ मजदूरी की एक अमानवीय प्रथा ने आकार ग्रहण किया। 1920 में यहां 63 हजार सेवकिया थे। इसके बाद तो यह जिला धीरे-धीरे बंधुआ मजदूरों का खदान के रूप में जाना जाने लगा। ऐसी प्रथाओं के कारण बिहार सरकार नेे 1982 में इसे बंधुआ मजदूर बहुल जिला घोषित किया था।
सन् 1880 में जब बंकिम चंद्र चट्टोपध्याय के बडे़ भाई संजीब चट्टोपाध्याय पलामू में रहते हुए पलामू के जीवन को शब्द दे रहे थे, उसके सौंदर्य को देख-समझ रहे थे, पहाड़-पठार पर बसे कोल आदिवासियों के नृत्य में झूम रहे थे, महुआ के उन्मत्त गंध को पोर-पोर महसूस कर रहे थे, तब भी जालिम जमींदार उनके सामने थे, जो हर स्तर पर कोल आदिवासियों का शोषण कर रहे थे। ये आदिवासी-कोल पांच रुपये का कर्जा जीवन भर नहीं चुका पाते। तब, उनके सामने या तो पलायन का बेबस विकल्प होता या बंधुआ मजूदरी या सेवकिया बन अंतहीन पीड़ा को गले लगाने का। इस कथाभूमि पलामू पर खड़े होकर मनमोहन पाठक ने ‘गगन घटा घहरानी’ रची।
यह उपन्यास पहले कतार प्रकाशन, धनबाद से पुस्तकाकार आया। फिर नवभारत टाइम्स मंे 90 दिनों तक हर रोज इसके अंश छपते रहे। इसके बाद प्रकाशन संस्थान ने 1991 के अंत में इसे प्रकाशित किया था। और, अब 2015 में प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली ने इसे फिर से छापा है। पाठकजी उपन्यास शुरू करने से पहले ‘उनके लिए’ लिखते हैं, ‘बिहार में सामंती अवशेषों के लक्षणांे से युक्त शक्तियां जहां-जहां घृणित रूप में सक्रिय हैं, त मेंपर है। इन शक्तियों की गिरउनमें पलामू का नाम शायद सबसे आदिवासी ही नहीं, सदान भी हैं।’ आगे कैफियत देते हैं, ‘मेरे इस उपन्यास की प्रेरणाभूमि पलामू और उसके आस-पास के तमाम क्षेत्रा हैं, जहां एक लंबे समय से आजादी की लड़ाई चल रही है। इस लड़ाई का इतिहास मुगलकाल से आरंभ होकर ब्रिटिश गुलामी को पार करता हुआ भारत की 45 साल की स्वतंत्राता तक खिंचा आया है। इसके नेताओं में अनेक शहीद हुए हैं, अनेकानेक के पांव फिसले हैं और कुछ ने साफ दगा दी है।’
इस कैफियत को गौर से पढ़ने के बाद देखें तो पलामू के चरित्रा में मुगलकाल से लेकर आज तक कोई चारित्रिक और गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है। जब यह उपन्यास लिखा गया तब भी नहीं, उसके 25 साल बाद, आज भी है और, जब बिहार से अलग होकर 2000 में झारखंड नामक नया राज्य बन गया और उसके हिस्से में पलामू आ गया तब भी नहीं। पलामू के पांव आज भी ठिठके हैं। लेनिन के शब्दों में एक कदम आगे, दो कदम पीछे...। पलामू ऐसा ही है कि छोटा सा कर्ज जीवन भर की गुलामी का सबब बन जाता... ‘‘नहीं-नहीं ऐसा न कह गुनी। क्या मैं अपनी मर्जी से जंगल छोड़ भागा। अपने ससुर का कर्जा ही तो चुका रहा हूं सेवकिया बनकर, क्या तू नहीं जानता? अब तक भी बोझा ज्यों-का त्यों लदा हुआ है। तेरे जैसा गांव-गांव जंगल-जंगल घूमने की आजादी कहां!...’’ यह जागो है, जो अपने बालसखा मित्रा गुनी से अपना दुखड़ा रोता है। उसके एक-एक शब्द में उसकी पीड़ा, उसके संत्रास, उसके दुख को महसूस कर सकते हैं। मैं उनकी बात नहीं कर रहा जो सामंत हैं, शोषक हैं। उनके लिए तो पलामू के गांव का मौसम गुलाबी ही गुलाबी है।
इस पूरे उपन्यास में पात्रों की आवाजाही के बावजूद दो पात्रा आपको याद रहते हैं। एक जागो, जो सेवकिया है। उसके पीछे उसका कारण है। इस बहाने पूरे पलामू के सच को देखने-दिखाने की कोशिश की गई है और दूसरा सोनाराम, जिसके पास क्रांति के प्रतिरोध का वैकल्पिक मार्ग है। शोषण से मुक्ति का अचूक हथियार है। आरा-बिहार के नक्सलपंथी लोगों के संगत के बावजूद वह उनके मार्ग का अनुसरण नहीं करता। वह उसी मार्ग का अनुसरण करता है, जिस मार्ग पर उसके पुरखे चले थे। इसलिए, जब जंगल से धुआं उठता है तो उसके पीछे माक्र्सवादी दृष्टि के बजाय आदिवासी चेतना को देखना चाहिए, क्योंकि क्रांति का इसका अपना इतिहास रहा है, जो स्मृतियों में आज भी ताजा है। इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि भगत सिंह देश के दूसरे छोर पर अपने विचारों की धार को तेज करने के लिए माक्र्सवादी साहित्य पढ़ रहे और देश के दूसरे छोर पर स्थित उलिहातू के इलाके में बिरसा मुंडा पुरखैती ज्ञान से आंदोलन को तेज धार दे रहे थे। दोनों युवा थे और दोनों के समय में कुछ साल का ही अंतर है।
जागो को सेवकिया या बंधुआ मजूदर इसलिए बनना पड़ा कि उसने अपने ससुर के क्रियाकर्म के लिए राय बहादुर से दो मन अनाज और 60 रुपये कर्ज लिया था। ...‘‘मालिक से दू मन गोंदली और 60 रुपया में लइन रहूं। इकर बाद में जे हो गइल कि नीं, सकलो ददलो। दू मन का तीन साल में बारह मन लौटाया। तबो से कटिए नइखे, बाकिए है। और मांग करते, ग्यारह मन तुम और देओ।...ग्यारह मन अनाज तुम नहीं दिया, सो चलो सेवकिया।’ सो चल गइली।’’ दर असल, यह सिर्फ जागो की नियति नहीं है। उसके जैसे तमाम आदिवासियों की, जो एक बार कर्ज ले लेने के बाद उनका पूरा जीवन उसे चुकाने में ही खत्म हो जाता है।
थोड़ा और पीछे जाएं तो इसी तरह की पीड़ा का एहसास संजीब चट्टोपाध्याय को सन् 1880 में हुआ था। अपनी यात्रावृत्तांत कृति ‘पलामू’ मंे संजीब लिखते हैं, ‘‘कोल सबसे अधिक उत्सव शादियांे में मनाते हैं। उसमें खर्चा भी बहुत होता है। कभी आठ रुपये, कभी दस तो कभी पंद्रह रुपये तक खर्च हो जाते हैं। बंगालियों के लिए यह बहुत अधिक नहीं है पर जंगल के वासियों के लिए अधिक है। इतने रुपयों का इंतजाम वे कहां से करेंगे? उनके पास एक पैसे का भी संचय नहीं, उपार्जन भी नदारद, इसलिए उन्हें कर्ज लेना पड़ता है। दो चार गांवों मंे एक महाजन बसते हैं। वही कर्ज देते हैं। ये महाजन हैं अथवा महापिशाच, इसमें मुझे घोर संदेह है। जिसने एक दिन पांच रुपये का कर्ज लिया, उस दिन से वह कोई भी फसल अपने घर नहीं ले जा सकता। जो भी वह अर्जन करेगा, उसे उसी दिन महाजन के पास पहंुचाना हैै। उसकी खेती में दो मन कपास या चार मन जौ उपजा है, महाजन के घर पहले लाना होगा। वे उसे घर रखेंगे, वनज करेंगे, न जाने और क्या-क्या करेंगे। अंत्यपरीक्षण के बाद कहेंगे इस कपास से तुम्हारा मूल से एक रुपये की अदायगी ा चार रुपये रह गए। किसान ‘जो हुकुम’ कहकर चला जाता है। परहुई। शे उसका परिवार का पालन-ाण कैसे होपो? फसल जो भी हुई थी, महाजन ने सारा ले लिया, किसान को तो हिसाब आता नहीं। उसे तो एक से दस तक की गिनती भी नहीं आती। वह सब पर भरोसा करता है। महाजन नाइंसाफी करंेगे, ऐसा वह सोच भी नहीं सकता। फलस्वरूप नट महाजन के जाल में फंस जाता है। पर परिवार को अन्न कहां से खिलाए। मजबूरन महाजन का दरवाजा फिर खटखटाता है और वह सदा के लिए उसका दास बन जाता है। जो वह अर्जन करेगा, वह सब महाजन का। महाजन थोड़ी बहुत खुराक के रूप में उसे दे देता। इस जनम के लिए उसका यही रहा बंदोबस्त।’’
स्वामी सहजानंद सरस्वती, संजीब चट्टोपाध्याय और मनमोहन पाठक के बीच समय का लंबा फासला है, लेकिन इतने लंबे फासले के बाद भी एक बात काॅमन है, वह है आदिवासियों का अंतहीन शोषण-गुलामी, जो अनवरत जारी है। अलबत्ता महाजन और जमींदार एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए। एक ऐसे राय बहादुर इस इलाके में हुए, जिनके हिंसक किस्से और आदमखोर प्रवृत्ति पलामू की दहलीज लांघकर पटना की सड़कों तक सुनाई देने लगे। जो पलामू के भूगोल और चरित्रा से वाकिफ हैं उन्हें इस राय बहादुर को पहचानना मुश्किल नहीं। तब का यह आदमखोर भले ही आज डालनटनगंज के अपने विशाल पुराने खपरैल के मकान या मनातू की ढहती गढ़ी में शिव की शरण में जाकर महामृत्युंजय का जाप कर रहा हो, उस समय तक उसका आंतक और उसके चीते की दहाड़ रात के गहरे सन्नाटे में दूर-दूर तक सुनाई देती थी। इस उपन्यास का खल चरित्रा यही है। जंगल में इसी का कानून चलता हैं। पुलिस भी इसकी सेवादार। रेंजर, डीएफओ, ठेकेदार और नेताओं की चैकड़ी भी। जो जंगल में रहते हैं, जिनकी जंगल आजीविका है, वे बेदखल किए जा रहे हैं। उन्हें अपने निजी काम के लिए भी लकड़ी काटने की मनाही है। जिसने ऐसा किया, उसे जेल। वनाधिकार कानून के बावजूद आज भी पलामू ही नहीं, पूरे झारखंड में सैकड़ों आदिवासी बेवजह जेल में सजा काट रहे हैं और जो जंगल को खाली कर रहे हैं, वह आनंद में हैं। यह अपने आजाद लोकतंत्रा में हो रहा है। ऐसे में विद्रोह स्वाभाविक है। आदिवासी जीवन में शोषण का चक्र बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकता है। विद्रोह या कहें प्रतिरोध पलामू में भी होता है और आदिवासी एक दिन गढ़ी की दीवार की चूल हिला देते हैं और उस चीते को उनकी गढ़ी से भी आजाद करा देते हैं, जो आतंक का पर्याय बना हुआ था। बहुत माकूल समय। करम पर्व। सब एकत्रित होते हैं। पारंपरिक हथियारांे के साथ नृत्य करते हुए। गांव दर गांव। सभी एक साथ एकत्रित होते हुए गढ़ी की ओर बढ़ते हुए...राय बहादुर को लगता, हर साल की भांति इस साल भी पर्व मनाते हुए गढ़ी से होते हुए निकल जाएंगे...पर इस बार तो कुछ और ही बदा था। युद्ध और त्योहार का अंतर मिट गया था। राय बहादुर नहीं समझ रहे थे। देवी-देवता, भूत-प्रेत सब जाग उठे थे और देखते ही देखते मांदर की गूंज दूर-दूर तक सुनाई देने लगी थी। इस बार इस गूंज में एक भय था, नृत्य में काल की ध्वनि थी। यह अपने तरह का विद्रोह था। अपने ढंग का प्रतिरोध।
दरअसल, गढ़ी से एक बार अपने घर जागो चला आता है। घर आते समय रास्ते में उसका बालसखा मित्रा ओझा पैरुगुनी मिल जाता है और बहुत दिनों के बाद हुई मुलाकात में पैरुगुनी अपनी परंपरा के अनुसार हड़िया के साथ आदर-सत्कार करता है। जागो अधिक पी लेता है। इसके बाद घर जाते समय वह किसी नुकीले पत्थर से टकराकर घायल हो जाता है। बीमार होने के कारण वह घर पर एक महीने रुक जाता है। राय बहादुर की चिंता यह थी कि उनका चीता भूखा है। वह जागो के हाथ ही खाना खाता था। इससे परेशान राय बहादुर के दामाद जागो के गांव जाकर उसे जबरदस्ती जीप में बैठाकर गढ़ी ले आकर सीधे चीते के अहाते में डाल देते हैं। यह अत्याचार देख उस गांव की सहनशक्ति जवाब दे गई। समय का इंतजार करते हुए करम का पर्व सही समय लगा। राय बहादुर और उनके दामाद ने सोचा, महीने भर से भूखा चीता उसे मार डालेगा, लेकिन चीता कुछ नहीं करता। चुपचाप जागो को देखता रहता है- ‘‘हरामखोर है साला! खिलावें हम और नाम जपे जागो का। जिस रोज से गया है जागो, उसी दिन से इसका गरजना जारी है। मन करता है बंदूक उठावें और तड़ातड़ गोली दाग दें।’’ अपने आप बड़बड़ाते हैं जगधारी राय।कृ...वे सोचते हैं, चीता तो पहचान बन गई है उनकी। उसको कैसे मार दें। डालटगंज से पटना तक सब उन्हें चीते वाले राय साहब के नाम से जानते हैं। राय साहब, राय बहादुर की पदवी उन्हंे सरकार से नहीं मिली हैै। खेत-जमीन तो बहुतों को है। हो सकता है, उनसे ज्यादा भी हो। पर चीता किसी के पास नहीं।’ वस्तुतः राय बहादुर के लिए चीता और जागो दोनों ही एक साथ परेशानी के कारण बन गए थे। राय बहादुर को इससे मुक्ति का यही उपाय सूझा, लेकिन वह आदिवासियों की रणनीति को भांप नहीं पाए-... लोग दीवार गिराने लगे। धम्म-धम्म एक साथ जोर लगा-लगाकर। पुरानी दीवार थी, एक जगह अंदर को झुककर गिर गई तो चीता फलांगता हुआ निकल भागा। ढोल-नगाड़े फिर बजने लगे। आवाज के कारण चीता ने मुड़कर देखा तक नहीं। उछलता-कूदता सर पर पांव रखे आंख को सीध में दक्खिन-पूरब का रुख पकड़े दौड़ता ही गया। राय बहादुर को लगता, इस घटना के पीछे कोई और है? पुलिस और उसके कारिंदे उसका पता तो लगा लेते हैं, लेकिन खोज नहीं पाते।
राय बहादुर इसे कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? इसके बाद दमन का चक्र चला। आदिवासी दारोगा ही अपने भाई-बंधु का दुश्मन बन गया। जैसे आज एक ओर आदिवासी नक्सली खड़े हैं और दूसरी को पुलिस की वर्दी पहने आदिवासी। एक दूसरे के दुश्मन। सरकार ने अच्छी तरकीब निकाली। आदिवासी को आदिवासी के सामने खड़ा कर दिया। यही काम राय बहादुर भी करता है। मनमोहन पाठक ने अपनी इस रचना में वर्गीय चरित्रा को ही दिखाया है कि कच्छप भले इंसपेक्टर है, लेकिन वह हुकुम बजाता है राय बहादुर का। इंस्पेक्टर ही क्यों, हर बड़ा अधिकारी भी राय बहादुर की दरबार में हाजिरी लगाने का मौका नहीं गंवाता, लेकिन इनके बीच डीएफओ मिस्टर गुप्ता भी हैं, जो बेहद ईमानदार हैं और वह आदिवासियों की मदद करते हैं।
न्यूनतम मजदूरी का सवाल, उसके लिए लड़ाई। आरा-बिहार से आए रामधनी ने उनके बीच चेतना भरते हैं। गीत गाते हैं, गुलमियां अब नाहीं बजइबो...; मजदूरों का हड़ताल, फिर ठेकेदार द्वारा बाहर से उरांव, खेखार, कोल मजदूर ले आना़...। इसी में सोनाराम भी आ जाता है। तपेसर और रामधनी बाहर से आए आदिवासी मजदूरों को देखते हैं। सभी अपने में मस्त। कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं। इन्हीं के बीच अलग-थलग बैठा सोनाराम दिखा तो उसे सारी बात समझाई। सोनाराम का काम था अपरिचित अपनी जाति को समझाना। पर ठेकेदार ने इस रात मंे इन मजदूरों को ऐसी जहरीली शराब पिलाई की तीन ने दम तोड़ दिया। सोनाराम ने अपरिचित इन लोगों की खूब मदद की, सेवा की। कुछ को बचाया।
रामधनी गांव के मजूदरों को समझाते हैं कि बिहार में भी खेतिहर मजदूरों का संगठन बन गया हैं। गोली बंदूक का जवाब गोली बंदूक से मिलता है। लड़ाई सिर्फ न्यूनतम मजदूरी की नहीं, जमीन के मालिकाने हक को लेकर भी हो रही है...। मालिकाना हक आदिवासी नहीं समझते। उसकी खुलासा करते हैं, अरे भाई यह आगे की लड़ाई है। खेत जो जोते-बोए उसका। जिसकी मेहनत उसकी फसल। कैसे इधर झारखंड में मंुडा, उरांव लोग जंगल पर अपना हक मांग रहे हैं, बस वैसे ही समझो। प्रतिरोध की आग सुलगने लगी था...।
‘‘लुपंगा में कौन ऐसा है, जिसके खेत राय बहादुर के जिम्मे न हों। लुपुंगा क्या सोनाहातू के पूरब दस कोस के सारे गांव के लोगों के लिए एकही महाजन हैं-जगधारी राय!’’ इस जगधारी राय यानी राय बहादुर का ऐसा प्रताप था कि ‘ जंगल में काटी गई लकड़ियों की संख्या एक। चेकपोस्ट पर की उनकी संख्या दूसरी। डीपो में ढुलाई की गई लकड़ियों की संख्या तीसरी। डीपो में बिक्री होकर निकली हुई लकड़ियों की संख्या और स्टाॅक भी कभी नहीं मिलता।’ जंगल भी इनका, लकड़ी भी इनकी। फूल-पलाश-महुआ सब कुछ इनका। सत्ता भी इनकी, सरकार भी यही। फिर, किसी के बच निकलने का रास्ता ही कहां था! चैतू और दामड़ू के पास भी नहीं था। ये ऐसे दो भाई हैं जिनका चरित्रा अजीब है। जो करेंगे साथ-साथ। अपनी-अपनी शादी के लिए बचा-खुचा सारा खेत बाप के मरते ही जिम्मा कर आए राय बहादुर को और अब जहां-तहां काम के लिए भटकते फिरते हैं।...लोगों ने कितना समझाया, खेते मत रखो रेहन। एक साल पानी न पड़ा तो क्या हर साल सूखा ही पड़ेगा। पर जरा धीरज नहीं। न साल भर के लिए शादी टाल सके न खेत का आसरा। सादे कागज पर जाकर अंगूठा कटा आए दोनों, साथ ही साथ। जो करंेगे साथ ही करेंगे। जहां जाएंगे साथ ही जाएंगे। एक को अगर काम भी मिला तो वह तब तक नहीं करेगा जब तक दूसरे को भी काम न मिल जाए। भले ही मजदूरी कम मिले।...कितना कहा रेहन रखनी भी है जमीन तो किसी के हाथ रख आओ। राय बहादुर के हाथ चढ़ा खेत, आज तक कोई लौटा नहीं पाया। सोनाहातू या मोरंगा के ही किसी बनिए-बकाल को दे आता। पर इस गांव के लोग और कोई रास्ता ही नहीं पहचानते हैं।’’
लापुंगा-सोनाहातू ही क्यों? लाते का हाल भी जुदा कहां था-‘‘लाते की हालत कुछ बेशिए खराब है। किसी का भी खेत अपना नहीं रहा। कोई राय बहादुर के घर तो कोई सोनाहातू के बनिया के घर। वे लोग भी कम चालाक नहीं हैं। एक का खेत दूसरा जोता-बोता है। खेत के मालिक को अपने खेत में बटाई भी नहीं करने देते ताकि अपने खेत का मोह खतम हो जाए।’’ आदिवासी-किसान हजार चिल्लाए। मगर उनकी सुने कौन? सरकार बहरी, उसकी कचहरियां बहरी, हाकिम बहरे, पुलिस बहरी, नेता बहरे, साधु-महात्मा बहरे, देवी-देवता बहरे और भगवान भी बहरा।
पर सोनाराम क्या करे? सोनाराम सोने की तरह चमक बिखेरने वाला धीरोदत्त नायक। सिद्धो-कान्हो, चांद-भैरव, नीलांबर-पीतांबर और बिरसा की विरासत को आगे बढ़ाता हुआ... वह राय बहादुर की चालाकियों और उसके पाखंड को समझ रहा था। वह जानता है ‘पाप और पुण्य। इन दो शब्दों में से एक इनके शब्दकोश मे ंनहीं। टूना पहान ही क्यों, उरांव ही क्यों, तमाम आदिवासी जातियों के शब्द कोशों में जो एक शब्द नहीं है वह है पुण्य। पुण्य तो उनके जीवन के सहज प्रवाह में घुला-मिला है-साफ, उज्ज्वल। किसी का कुछ भलाकर उसका प्रदर्शन करते नहीं फिरते थे, उसका अहसान नहीं जताते, ये भगवान की भक्ति का त्रिपुंड दिखाते नहीं फिरते थे।’’
जब टूना पहान उसे समझाता है, कर्ज नहीं उतारना पाप है सोनाराम। तो सोनाराम उसे उसी तर्क से समझाता, रूगन आदमी को मारना-पीटना क्या है? एक का सौ वसूलना क्या है? टूना फिर समझाता है, वे अपने कानून से बंधे हैं। अपने धर्म से बंधे हैं। उनका धर्म उन्हें सजा देगा।’ लेकिन क्या ऐसा ही है? लेकिन उनका धर्म तो हमें सजा दे रहा है, दादा! उनका धर्म, उनका समाज तो हमारे समाजों को, गांवों को लीलता जा रहा है। दादा! हमारा धर्म, हमारे देवता क्या इतने कमजोर हैं कि वे अपने लोगों को बचा नहीं सकते? उनके फैलाए प्रपंच से गांव के गांव उजड़ते चले जा रहे हैं। जब हमारे लोग, हमारी जाति, हमारा समाज ही नहीं रहेगा तो हमारा धर्म किसके लिए होगा?
सोनाराम बड़ी सहजता से एक विकट सवाल खड़ा कर देता है जाने या अनजाने। धर्म किसके लिए? कृष्ण गीता में कहते हैं, जो धर्म की रक्षा करेगा, धर्म उसकी रक्षा करेगा। सोनाराम पूछ रहा, जब हम ही नहीं रहंेगे, जाति ही नहीं रहेगी तो धर्म का क्या करेंगे? धर्म तो तभी है, जब हम हैं।
सोनाराम युवा है, लेकिन उसकी सोच दूसरे आदिवासी युवकों से एकदम अलग है। वह अपने समाज की कुरीतियों से लड़ता है। हड़िया-शराब हाथ न लगाने की बात करता है। उसके आधुनिक विचार को बूढ़ा पहान भी ध्यान और धैर्य से सुनता है, जब वह कहता है-कौन सेवकिया बनना चाहता है? कौन किसी के बेगारी करना चाहता है? सेवकिया बनना कोई नहीं चाहता। जागो दादा को तो हमारे ही समाज, हमारे ही धरम के नियम से मरे हुए ससुर के किरिया-करम के लिए कर्जा लेना पड़ा था, समाज को दारू-हड़िया पिलाने के लिए। सबने खाया होगा, सबने पिया होगा। इसलिए दंड भोगना है तो पूरा समाज भोगे। अकेले-अकेले कोई क्यों भोगेगा?
समाज को उसपर विश्वास था। पैरू के लिए यह देवड़ा था यानी देवता। 25 साल की उम्र में बिरसा ने यही लड़ाई छेड़ी थी और अपने समाज को झकझोर दिया था। अब यह उरांव आदिवासी अपने समाज में एक नई क्रांति का आगाज कर रहा था। प्रतिरोध का एक वैकल्पिक मार्ग दे रहा था।
हालांकि पलामू की परिस्थितियां ऐसी बन रही थीं कि आज नहीं तो कल प्रतिरोध तो होना ही था और गरीब-आदिवासी-दलित जातियों को एक दिन खड़ा तो होना ही था। पलामू के इतिहास से जो वाकिफ हैं, उन्हें पता होगा कि 1984 में जन मुक्ति परिषद नामक संगठन मजदूरी भुगतान, गैरमजरुआ जमीन का बंटवारा तथा शोषण को समाप्त करने के लिए खड़ा किया गया था। इसने कुछ ही वर्षों में अपना प्रभाव जमा लिया और गरीबों, पिछड़ों, दलितों का एक तबका इससे जुड़ गया। इसी के विरोध और क्षेत्रा में पैठ बना चुके नक्सलियों से लोहा लेने के लिए ही 1989 में पलामू के मलवरिया गांव के राजपूतों ने ‘सनलाइट सेना’ का गठन किया था और इन्होंने पहला नरसंहार 4 जून, 1991 में अपने ही गांव में किया। इस नरसंहार से संयुक्त बिहार ही नहीं, पूरा देश हिल गया था। इस नरसंहार में कुल दस लोग मारे गये थे, इनमें बूढ़े और बच्चे भी शामिल थे। दर्जनों लोग घायल हुए तो कुछ जीवन भर के लिए अपंग हो गये। कुल 22 लोगों के घर जलकर राख हो गये थे। उन जले घरों के साक्ष्य वहां आज भी मौजूद हैं। इन घटनाओं को याद रखते हुए ही इस उपन्यास को पढ़ा जा सकता है।
हम जानते हैं, जंगल छोटा होता जा रहा है और इतिहास बड़ा से बड़ा। पर रोज रोज इतिहास में नए नए अध्याय जोड़ती यह दुनिया पठार पर उगे इस जंगल को, जंगल में बसे छोटे-छोटे गांवों को क्या दे रही है? इन्हें परत दर परत उघाड़कर कानून और अधिकार के बर्छी भाले भांेक-भोंक कर सभ्यता की जीभ को कौन सा स्वाद चखा रही है...। आप सोचते रहिए। इस सोच से आगे बढ़ते हैं तो यह खबर भी मिलती है कि डालटेनगंज से लगभग 30 किमी दूर सोनाहातू प्रखंड का आंतक एक आदमखोर चीता मारा गया।...इलाके के प्रतिष्ठित व्यक्ति राय बहादुर जगधारी राय की सिफारिश पर फाॅरेस्ट कंजरवेटर श्री वर्मा एवं जिले के एसपी श्री आर आर प्रसाद ने बड़ी सूझ-बूझ से उसे मोरंगा वन में घेर कर मार डाला। लेकिन यह पूरा सच नहीं था। इस तरह की खबर पटना के दैनिक में छपी थी। पूरा सच छापने का जोखिम एक स्थानीय अखबार ने उठाया। पालतू चीते का पूरा सच उजागर करते हुए जिले के आला अफसरों द्वारा आदमखोर से लोगों की राहत दिलाने की झूठी कथा की आड़ में शिकार के रोमांचक खेल का पर्दाफाश किया था। उसने साहस के साथ लिखा कि असली आदमखोर तो राय बहादुर हैं जो खुलेआम घूम रहे हैं और आदिवासी उनके आतंक से गांव छोड़-छोड़कर भाग रहे हैं।‘...इस खबर का नतीजा यह रहा कि डालटेनगंज से एसपी, डीसी, फारेस्ट कंजरवेटर तथा सोनाहातू के डीएफओ मि गुप्ता का तत्काल तबादला कर दिया और उन्हें 24 घंटे के अंदर नई जगह ज्वाइन करने का आदेश मिला। स्थिति को देखते हुए मंत्रिमंडल ने डालटेनगंज में ऐसे किसी डीसी को भेजने का फैसला लिया जो आदिवासियों का मन जीत सके और उनके असंतोश्ष को कुछ कम कर उन्हंे उग्रवाद के रास्ते पर जाने से रोक सके।’ यह काम आज की सरकार भी कर रही है।
1991 में आए इस उपन्यास में क्रांति की एक महीन धारा के बीच सोनाराम और जागो के बीच प्रेम का एक सोता भी दिखाई देता है। सोनाराम और जागो की बेटी हीरामनी का सात्विक प्रेम। उछाह मारता और बादलों की तरह भटकता-घूमता मन भी है। लोहार तपेसर की कुम्हारिन का प्रेम। तपेसर अपनी प्रेमिका को लेकर भाग जाते हैं। राउरकेला में नौकरी करते हैं। अवकाश ग्रहण करने के बाद ही गांव लौटते हैं। प्रेम की इन परतों के बीच जीवन की आपा-धापी, उसकी जटिलताएं, उसका संघर्ष है। यहां जंगल है। जंगल के गीत हैं। उसका दुख है। उसकी पीड़ा है। शांत और गुमसुम अंतर्मुख खड़े साल हैं। प्रकृति के विवरण बोझिल नहीं करते। काव्य की तरह आनंद देते हैं। एक दृश्य देखें-आसमान का सूरज पहाड़ों के पीछे से निकले इससे पहले अंधकार का काला सूरज सोनाहातू की गढ़ी से निकलकर छोड़ने लगता है, अंधकार केगोले-पूरे सोनाहातू पर। जंगल, पहाड़, खेत, मैदान, गांव, घर-पूरे इलाके पर एक बड़ा घना जाल ओढ़ा देता है।...। आदिवासी-उरांवांे की बस्तियां है तो बभनटोली भी, जहां सिर्फ दो घर है। एक जमुना पंडित और उनकी विधवा चाची का। सोनाहातू की गढ़ी उनकी ज्योतिषी का प्रभाव कम नहीं। पर जब राय बहादुर विशाल यज्ञ कराते हैं तब बनारस के पंडित बुलाते हैं। इसके बाद तो जमुना पंडित का मन खट्टा हो जाता है। इस तरह गांव की पूरी बस्ती है, मुहल्ला है। लेखक सबके घर में झांककर देखता है, उसके सुख-दुख साझा करता है। गांव के गांव वह देखता है। हाट-बाजार घूमता और घुमाता है। पूरे लय में गीत सुनाता है, जिसकी टेर दूर-दूर तक सुनाई देती है। उपन्यास में बहुत कुछ सुनने-सुनाने की कोशिश की गई है। बहुत कुछ अनसुना ही रह जाता है। हां, उसकी पदचाप जरूर सुनाई देती है, जो आगे चलकर नक्सल आंदोलन के रूप में पलामू को अपने आगोश में ले लेता है।
मनमोहन पाठक यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर इसकी रचना करते हैं। हालांकि उरांव आदिवासी की कथा कहते समय जिन गांवों के नाम आते हैं, वे मुंडा संस्कृति से मेल खाते हैं। ये सांस्कृतिक भूलें हैं। उपन्यास में कालखंड का पता नहीं चलता। हालांकि एक लय है। इस लय में बहुत उतार-चढ़ाव नहीं हैं। अथ से इति तक इसे महसूस कर सकते हैं। पर घटनाओं की लयकारी दूसरी है। पलामू वह इलाका है, जो आज भी सुलग रहा है और जिसके जंगल से धुआं आज भी उठ रहा है। सामंती शक्तियों ने नए नकाब ओढ़ लिए हैं।
-स्वामी सहजानंद सरस्वती
‘झारखंड के किसान’ पुस्तक में
‘वर्तमान समय में कोल समाज की जो स्थिति है, इससे लगता नहीं कि उन्हें महाजनांे की आवश्यकता होगी। अगर हिंदुस्तानी महाजन वहां प्रवेश नहीं करते तो शायद उनमें कर्ज लेने की रीति का प्रचलन नहीं होता। इनके कर्ज लेने का समय अभी भी नहीं आया है। कर्ज उन्नत समाज की देन है। कोल लोगांे की ऐसी उन्नति में अभी देर है। समाज में स्वाभाविक तौर पर जो स्थिति उत्पन्न नहीं हुई है, बनावटी तौर पर उसे लाने में या उन्नत देश की रीति को लागू करने पर नतीजा अच्छा नहीं होता। हमारे बंगाल के एकािधक क्षेत्रा में ऐसा दिख रहा है। एक समय में यहूदियों ने अविकसित इंग्लैंड में कर्ज देने के समय विकसित देशों का नियम लागू कराकर वहां काफी हानि पहुंचाई थी। अब हिंदुस्तानी महाजन लोग वही हानि कोल लोगों में पहुंच कर रहे हैं।’
-संजीब चट्टोपाध्याय
‘पलामू’ में
सन् 1947 में देश को आजादी मिली। लेकिन पलामू की आजादी आज भी संदिग्ध है। पलामू एक जिले का नाम नहीं है। वह प्रतीक है गुलामी का। बंधुआ मजदूरी का। आदमखोर मउआर के आतंक का। सामंतवाद की जघन्य प्रवृत्तियों का। भूख का, अकाल का, शोषण का। हिंसा का। प्रतिहिंसा का। कोयल किनारे दहकते पलाश का। आग का। डूबते सांझ का। बूढ़े की झुर्रियों का। पलामू यही नहीं है... इससे आगे भी है, जिसे किसी उपमा या प्रतीक में कैद नहीं किया जा सकता। इसके विस्तार में बियावान जंगलों में खिलने वाला सूर्ख पलाश हमें डराने लगता है। कोयल का मटमैला पानी लहू की तरह हमारी नसों में दौड़ने लगता है। पलामू की यह तस्वीर अचानक नहीं बनी। बहुत पहले से बनी है। चार-पांच सौ साल पीछे भी जा सकते हैं।
पलामू को अकाल का घर कहा जाता है। आजादी के पूर्व अंगरेजों के समय 1859, 1890 व 1918 में यहां बड़े अकाल पड़े, आजादी के बाद 1967 का अकाल भीषण था। 1967 के दौरान तीन वर्षों की अनावृष्टि के कारण त्राहिमाम मचा था। खेत होते हुए लोग भूखों मरने लगे थे। लोग पलायन को मजबूर हुए। खेती पर निर्भर जातियों की स्थिति तो और भी बदतर हो गई। छह साल बाद 1973 में फिर अकाल ने दस्तक दे दी। तब 50 से अधिक लोगांे को अपनी जान गवानी पड़ी थी। फिर तो अकाल पलामू के माथे पर चिपक गया। फिर अतिवृष्टि। सन् 1923, 1953, 1956, 1957 व 1971 की बाढ़ ने फसलों को तबाह कर दिया। खेतों मंे बालू भर गए। 1976 की भयानक बाढ़ में तो तीन हजार गांव बह गये।
इन प्राकृतिक आपदा-विपदा के बीच भी जमींदारों की मनमानियां मुकम्मल कायम रहीं। हराई प्रथा, बेगारी-रोपनी, सलामी, दीवान रस्म और मुसद्दी खर्चा आदि प्रथाएं इस क्षेत्रा में प्रचलित रहीं। हराई के अंतर्गत किसानों को अपना नुकसान सहकर हल बैल के साथ भू-स्वामियों की भूमि को साल में तीन बार जोतना पड़ता था। जमींदारी समाप्त हो जाने के बाद भी यह प्रथा चलती रही। बेगारी रोपनी के अंतर्गत जमींदार के खेत में रोपनी करनी पड़ती थी। इस तरह की सेवा उनको हर साल कम से कम आठ दिन देनी पड़ती थी। इन प्रथाओं के कारण किसान अपनी खुद की जमीन समय से नहीं जोत पाते थे। वर्षा के अभाव में उनके खेत परती ही रह जाते थे। सलामी प्रथा के अंतर्गत विजय दशमी को इस क्षेत्रा के राजाओं, जागीरदारों, जमींदारों के यहां दरबार लगता था जहां उस दिन प्रत्येक रैयत को एक या दो रुपये भू-स्वामी को सलामी के रूप में देना होता था। इसके साथ ही सलामी बबुआन, सलामी ठाकुरबाड़ी भी प्रचलित थी। दीवान रस्म भी दीवान को दिया जाता था। जहां दीवानी नहीं, ठेकेदारी प्रथा थी, वहां यह ठेकेदार लेता था। जब किसान अपना बकाया भू-स्वामी को चुकता कर देता तब भू-स्वामी उसको फरकती रसीद देता था। इसके बदले में किसान को एक आना देना पड़ता था। उस समय एक आने में साढ़े तीन सेर कच्चा चावल मिलता था। बाद के दिनों में यह प्रथा शोषण-लूट का साधन बन गई। फरकती रसीद, लगान व कर्ज दोनों के चुकता होने पर ही जारी होता। बाद में कर्ज महाजनों द्वारा भी दिया जाने लगा। वह दस रुपये किसान को कर्ज देता तो सौ रुपये का कागज बनवाता था। सूद-दर-सूद जोड़कर पांच सालों मंे यह रकम कई गुना हो जाती थी। किसी को तो अपनी जमीन महाजन को देकर कर्ज से मुक्त होना पड़ता था। यह प्रथा वहां अस्सी के दशक तक रही और इसके फलस्वरूप ही इस क्षेत्रा में अधिकांश को अपनी जमीन गंवानी पड़ी या फिर उन्हें अपनी ही जमीन में मजदूरी करने को मजबूर होना पड़ा था। शोषण यहीं तक नहीं था। किसानों या कर्जदारों से मुहर कर्जा भी वसूला जाता। साल के अंत में जब किसान जमींदार या ठेकेदार को लगान देता था, उस समय रसीद पर मुहर लगाने के लिए दो आने से चार आने तक रैयतांे को मुहर लगाई देनी पड़ती थी। यही पलामू है। इन्हीं स्थितियों-परिस्थितियों-प्राकृतिक आपदाओं के बीच बंधुआ मजदूरी की एक अमानवीय प्रथा ने आकार ग्रहण किया। 1920 में यहां 63 हजार सेवकिया थे। इसके बाद तो यह जिला धीरे-धीरे बंधुआ मजदूरों का खदान के रूप में जाना जाने लगा। ऐसी प्रथाओं के कारण बिहार सरकार नेे 1982 में इसे बंधुआ मजदूर बहुल जिला घोषित किया था।
सन् 1880 में जब बंकिम चंद्र चट्टोपध्याय के बडे़ भाई संजीब चट्टोपाध्याय पलामू में रहते हुए पलामू के जीवन को शब्द दे रहे थे, उसके सौंदर्य को देख-समझ रहे थे, पहाड़-पठार पर बसे कोल आदिवासियों के नृत्य में झूम रहे थे, महुआ के उन्मत्त गंध को पोर-पोर महसूस कर रहे थे, तब भी जालिम जमींदार उनके सामने थे, जो हर स्तर पर कोल आदिवासियों का शोषण कर रहे थे। ये आदिवासी-कोल पांच रुपये का कर्जा जीवन भर नहीं चुका पाते। तब, उनके सामने या तो पलायन का बेबस विकल्प होता या बंधुआ मजूदरी या सेवकिया बन अंतहीन पीड़ा को गले लगाने का। इस कथाभूमि पलामू पर खड़े होकर मनमोहन पाठक ने ‘गगन घटा घहरानी’ रची।
।। 1।।
जब अपने देश में 1991 में, उदारीकरण लागू किया जा रहा था, विदेशी कंपनियों के लिए देश के दरवाजे खोले जा रहे थे, मंदिर-मस्जिद की राजनीति अपने उफान पर थी, आरक्षण के सवाल आग के गोले में तब्दील हो रहे थे, तब भी पलामू अपने उसी सामंती अंदाज में जी रहा था। कुछ गांव धधक रहे थे। कुछ सुलग रहे थे। कुछ आंच में झुलस रहे थे। उसी पलामू के एक छोर पर ब्लैक होल की तरह गहन अंधकार में भविष्य का सपना भी जैसे गढ़ी में दम तोड़ रहा था। इसी उथल-पुथल के दौर मे ‘गगन घटा घहरानी’ 1991 में पाठकों के सामने आया। उपन्यास 1991 में आया लेकिन कहानी उसके बहुत पहले तक जाती है।यह उपन्यास पहले कतार प्रकाशन, धनबाद से पुस्तकाकार आया। फिर नवभारत टाइम्स मंे 90 दिनों तक हर रोज इसके अंश छपते रहे। इसके बाद प्रकाशन संस्थान ने 1991 के अंत में इसे प्रकाशित किया था। और, अब 2015 में प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली ने इसे फिर से छापा है। पाठकजी उपन्यास शुरू करने से पहले ‘उनके लिए’ लिखते हैं, ‘बिहार में सामंती अवशेषों के लक्षणांे से युक्त शक्तियां जहां-जहां घृणित रूप में सक्रिय हैं, त मेंपर है। इन शक्तियों की गिरउनमें पलामू का नाम शायद सबसे आदिवासी ही नहीं, सदान भी हैं।’ आगे कैफियत देते हैं, ‘मेरे इस उपन्यास की प्रेरणाभूमि पलामू और उसके आस-पास के तमाम क्षेत्रा हैं, जहां एक लंबे समय से आजादी की लड़ाई चल रही है। इस लड़ाई का इतिहास मुगलकाल से आरंभ होकर ब्रिटिश गुलामी को पार करता हुआ भारत की 45 साल की स्वतंत्राता तक खिंचा आया है। इसके नेताओं में अनेक शहीद हुए हैं, अनेकानेक के पांव फिसले हैं और कुछ ने साफ दगा दी है।’
इस कैफियत को गौर से पढ़ने के बाद देखें तो पलामू के चरित्रा में मुगलकाल से लेकर आज तक कोई चारित्रिक और गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है। जब यह उपन्यास लिखा गया तब भी नहीं, उसके 25 साल बाद, आज भी है और, जब बिहार से अलग होकर 2000 में झारखंड नामक नया राज्य बन गया और उसके हिस्से में पलामू आ गया तब भी नहीं। पलामू के पांव आज भी ठिठके हैं। लेनिन के शब्दों में एक कदम आगे, दो कदम पीछे...। पलामू ऐसा ही है कि छोटा सा कर्ज जीवन भर की गुलामी का सबब बन जाता... ‘‘नहीं-नहीं ऐसा न कह गुनी। क्या मैं अपनी मर्जी से जंगल छोड़ भागा। अपने ससुर का कर्जा ही तो चुका रहा हूं सेवकिया बनकर, क्या तू नहीं जानता? अब तक भी बोझा ज्यों-का त्यों लदा हुआ है। तेरे जैसा गांव-गांव जंगल-जंगल घूमने की आजादी कहां!...’’ यह जागो है, जो अपने बालसखा मित्रा गुनी से अपना दुखड़ा रोता है। उसके एक-एक शब्द में उसकी पीड़ा, उसके संत्रास, उसके दुख को महसूस कर सकते हैं। मैं उनकी बात नहीं कर रहा जो सामंत हैं, शोषक हैं। उनके लिए तो पलामू के गांव का मौसम गुलाबी ही गुलाबी है।
इस पूरे उपन्यास में पात्रों की आवाजाही के बावजूद दो पात्रा आपको याद रहते हैं। एक जागो, जो सेवकिया है। उसके पीछे उसका कारण है। इस बहाने पूरे पलामू के सच को देखने-दिखाने की कोशिश की गई है और दूसरा सोनाराम, जिसके पास क्रांति के प्रतिरोध का वैकल्पिक मार्ग है। शोषण से मुक्ति का अचूक हथियार है। आरा-बिहार के नक्सलपंथी लोगों के संगत के बावजूद वह उनके मार्ग का अनुसरण नहीं करता। वह उसी मार्ग का अनुसरण करता है, जिस मार्ग पर उसके पुरखे चले थे। इसलिए, जब जंगल से धुआं उठता है तो उसके पीछे माक्र्सवादी दृष्टि के बजाय आदिवासी चेतना को देखना चाहिए, क्योंकि क्रांति का इसका अपना इतिहास रहा है, जो स्मृतियों में आज भी ताजा है। इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि भगत सिंह देश के दूसरे छोर पर अपने विचारों की धार को तेज करने के लिए माक्र्सवादी साहित्य पढ़ रहे और देश के दूसरे छोर पर स्थित उलिहातू के इलाके में बिरसा मुंडा पुरखैती ज्ञान से आंदोलन को तेज धार दे रहे थे। दोनों युवा थे और दोनों के समय में कुछ साल का ही अंतर है।
जागो को सेवकिया या बंधुआ मजूदर इसलिए बनना पड़ा कि उसने अपने ससुर के क्रियाकर्म के लिए राय बहादुर से दो मन अनाज और 60 रुपये कर्ज लिया था। ...‘‘मालिक से दू मन गोंदली और 60 रुपया में लइन रहूं। इकर बाद में जे हो गइल कि नीं, सकलो ददलो। दू मन का तीन साल में बारह मन लौटाया। तबो से कटिए नइखे, बाकिए है। और मांग करते, ग्यारह मन तुम और देओ।...ग्यारह मन अनाज तुम नहीं दिया, सो चलो सेवकिया।’ सो चल गइली।’’ दर असल, यह सिर्फ जागो की नियति नहीं है। उसके जैसे तमाम आदिवासियों की, जो एक बार कर्ज ले लेने के बाद उनका पूरा जीवन उसे चुकाने में ही खत्म हो जाता है।
।। 2।।
स्वामी सहजानंद सरस्वती 1939 में पलामू में काफी यात्राएं की थीं। गांव-गांव घूमकर किसानों की स्थिति जानी थी। हजारीबाग जेल में रहते हुए पलामू सहित झारखंड के गांवों में घूमते हुए जो किसानों का हाल देखा था उसे ‘झारखंड के किसान’ सविस्तार लिखा। पुस्तक के एक अध्याय में पलामू की स्थिति का वर्णन है। वह ‘कमिया के कष्ट और सूदखोरी की लूट’ में लिखते हैं कि ‘पलामू जिले में इन्हें सेवकिया कहते हैं। सेवकिया शब्द सेवक से बना है और पलामू में सेवक का अर्थ है आमतौर से गुलाम। कमिया भी काम से बना है; काम के मानी हैं वही सेवा या सेवकाई। बिहार में यह काफी प्रचलित है।’ स्वामी जी ने सूदखोरों का भी जिक्र किया है, ‘ये सूदखोर होते हैं यों तो गांवों और शहरों के बनिए। मगर शोषक गृहस्थ और टुटपूंजिए जमींदार भी यही पेशा करते हैं। इनके अलावे काबुली, गोसाई, मुसलमान, पंजाबी, कान्यकुब्ज, भूमिहार, मारवाड़ी और अग्रवाल बनिए भी यह काम झारखंड के विभिन्न जिलों के यही कारबार करते हैं।’थोड़ा और पीछे जाएं तो इसी तरह की पीड़ा का एहसास संजीब चट्टोपाध्याय को सन् 1880 में हुआ था। अपनी यात्रावृत्तांत कृति ‘पलामू’ मंे संजीब लिखते हैं, ‘‘कोल सबसे अधिक उत्सव शादियांे में मनाते हैं। उसमें खर्चा भी बहुत होता है। कभी आठ रुपये, कभी दस तो कभी पंद्रह रुपये तक खर्च हो जाते हैं। बंगालियों के लिए यह बहुत अधिक नहीं है पर जंगल के वासियों के लिए अधिक है। इतने रुपयों का इंतजाम वे कहां से करेंगे? उनके पास एक पैसे का भी संचय नहीं, उपार्जन भी नदारद, इसलिए उन्हें कर्ज लेना पड़ता है। दो चार गांवों मंे एक महाजन बसते हैं। वही कर्ज देते हैं। ये महाजन हैं अथवा महापिशाच, इसमें मुझे घोर संदेह है। जिसने एक दिन पांच रुपये का कर्ज लिया, उस दिन से वह कोई भी फसल अपने घर नहीं ले जा सकता। जो भी वह अर्जन करेगा, उसे उसी दिन महाजन के पास पहंुचाना हैै। उसकी खेती में दो मन कपास या चार मन जौ उपजा है, महाजन के घर पहले लाना होगा। वे उसे घर रखेंगे, वनज करेंगे, न जाने और क्या-क्या करेंगे। अंत्यपरीक्षण के बाद कहेंगे इस कपास से तुम्हारा मूल से एक रुपये की अदायगी ा चार रुपये रह गए। किसान ‘जो हुकुम’ कहकर चला जाता है। परहुई। शे उसका परिवार का पालन-ाण कैसे होपो? फसल जो भी हुई थी, महाजन ने सारा ले लिया, किसान को तो हिसाब आता नहीं। उसे तो एक से दस तक की गिनती भी नहीं आती। वह सब पर भरोसा करता है। महाजन नाइंसाफी करंेगे, ऐसा वह सोच भी नहीं सकता। फलस्वरूप नट महाजन के जाल में फंस जाता है। पर परिवार को अन्न कहां से खिलाए। मजबूरन महाजन का दरवाजा फिर खटखटाता है और वह सदा के लिए उसका दास बन जाता है। जो वह अर्जन करेगा, वह सब महाजन का। महाजन थोड़ी बहुत खुराक के रूप में उसे दे देता। इस जनम के लिए उसका यही रहा बंदोबस्त।’’
स्वामी सहजानंद सरस्वती, संजीब चट्टोपाध्याय और मनमोहन पाठक के बीच समय का लंबा फासला है, लेकिन इतने लंबे फासले के बाद भी एक बात काॅमन है, वह है आदिवासियों का अंतहीन शोषण-गुलामी, जो अनवरत जारी है। अलबत्ता महाजन और जमींदार एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए। एक ऐसे राय बहादुर इस इलाके में हुए, जिनके हिंसक किस्से और आदमखोर प्रवृत्ति पलामू की दहलीज लांघकर पटना की सड़कों तक सुनाई देने लगे। जो पलामू के भूगोल और चरित्रा से वाकिफ हैं उन्हें इस राय बहादुर को पहचानना मुश्किल नहीं। तब का यह आदमखोर भले ही आज डालनटनगंज के अपने विशाल पुराने खपरैल के मकान या मनातू की ढहती गढ़ी में शिव की शरण में जाकर महामृत्युंजय का जाप कर रहा हो, उस समय तक उसका आंतक और उसके चीते की दहाड़ रात के गहरे सन्नाटे में दूर-दूर तक सुनाई देती थी। इस उपन्यास का खल चरित्रा यही है। जंगल में इसी का कानून चलता हैं। पुलिस भी इसकी सेवादार। रेंजर, डीएफओ, ठेकेदार और नेताओं की चैकड़ी भी। जो जंगल में रहते हैं, जिनकी जंगल आजीविका है, वे बेदखल किए जा रहे हैं। उन्हें अपने निजी काम के लिए भी लकड़ी काटने की मनाही है। जिसने ऐसा किया, उसे जेल। वनाधिकार कानून के बावजूद आज भी पलामू ही नहीं, पूरे झारखंड में सैकड़ों आदिवासी बेवजह जेल में सजा काट रहे हैं और जो जंगल को खाली कर रहे हैं, वह आनंद में हैं। यह अपने आजाद लोकतंत्रा में हो रहा है। ऐसे में विद्रोह स्वाभाविक है। आदिवासी जीवन में शोषण का चक्र बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकता है। विद्रोह या कहें प्रतिरोध पलामू में भी होता है और आदिवासी एक दिन गढ़ी की दीवार की चूल हिला देते हैं और उस चीते को उनकी गढ़ी से भी आजाद करा देते हैं, जो आतंक का पर्याय बना हुआ था। बहुत माकूल समय। करम पर्व। सब एकत्रित होते हैं। पारंपरिक हथियारांे के साथ नृत्य करते हुए। गांव दर गांव। सभी एक साथ एकत्रित होते हुए गढ़ी की ओर बढ़ते हुए...राय बहादुर को लगता, हर साल की भांति इस साल भी पर्व मनाते हुए गढ़ी से होते हुए निकल जाएंगे...पर इस बार तो कुछ और ही बदा था। युद्ध और त्योहार का अंतर मिट गया था। राय बहादुर नहीं समझ रहे थे। देवी-देवता, भूत-प्रेत सब जाग उठे थे और देखते ही देखते मांदर की गूंज दूर-दूर तक सुनाई देने लगी थी। इस बार इस गूंज में एक भय था, नृत्य में काल की ध्वनि थी। यह अपने तरह का विद्रोह था। अपने ढंग का प्रतिरोध।
दरअसल, गढ़ी से एक बार अपने घर जागो चला आता है। घर आते समय रास्ते में उसका बालसखा मित्रा ओझा पैरुगुनी मिल जाता है और बहुत दिनों के बाद हुई मुलाकात में पैरुगुनी अपनी परंपरा के अनुसार हड़िया के साथ आदर-सत्कार करता है। जागो अधिक पी लेता है। इसके बाद घर जाते समय वह किसी नुकीले पत्थर से टकराकर घायल हो जाता है। बीमार होने के कारण वह घर पर एक महीने रुक जाता है। राय बहादुर की चिंता यह थी कि उनका चीता भूखा है। वह जागो के हाथ ही खाना खाता था। इससे परेशान राय बहादुर के दामाद जागो के गांव जाकर उसे जबरदस्ती जीप में बैठाकर गढ़ी ले आकर सीधे चीते के अहाते में डाल देते हैं। यह अत्याचार देख उस गांव की सहनशक्ति जवाब दे गई। समय का इंतजार करते हुए करम का पर्व सही समय लगा। राय बहादुर और उनके दामाद ने सोचा, महीने भर से भूखा चीता उसे मार डालेगा, लेकिन चीता कुछ नहीं करता। चुपचाप जागो को देखता रहता है- ‘‘हरामखोर है साला! खिलावें हम और नाम जपे जागो का। जिस रोज से गया है जागो, उसी दिन से इसका गरजना जारी है। मन करता है बंदूक उठावें और तड़ातड़ गोली दाग दें।’’ अपने आप बड़बड़ाते हैं जगधारी राय।कृ...वे सोचते हैं, चीता तो पहचान बन गई है उनकी। उसको कैसे मार दें। डालटगंज से पटना तक सब उन्हें चीते वाले राय साहब के नाम से जानते हैं। राय साहब, राय बहादुर की पदवी उन्हंे सरकार से नहीं मिली हैै। खेत-जमीन तो बहुतों को है। हो सकता है, उनसे ज्यादा भी हो। पर चीता किसी के पास नहीं।’ वस्तुतः राय बहादुर के लिए चीता और जागो दोनों ही एक साथ परेशानी के कारण बन गए थे। राय बहादुर को इससे मुक्ति का यही उपाय सूझा, लेकिन वह आदिवासियों की रणनीति को भांप नहीं पाए-... लोग दीवार गिराने लगे। धम्म-धम्म एक साथ जोर लगा-लगाकर। पुरानी दीवार थी, एक जगह अंदर को झुककर गिर गई तो चीता फलांगता हुआ निकल भागा। ढोल-नगाड़े फिर बजने लगे। आवाज के कारण चीता ने मुड़कर देखा तक नहीं। उछलता-कूदता सर पर पांव रखे आंख को सीध में दक्खिन-पूरब का रुख पकड़े दौड़ता ही गया। राय बहादुर को लगता, इस घटना के पीछे कोई और है? पुलिस और उसके कारिंदे उसका पता तो लगा लेते हैं, लेकिन खोज नहीं पाते।
राय बहादुर इसे कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? इसके बाद दमन का चक्र चला। आदिवासी दारोगा ही अपने भाई-बंधु का दुश्मन बन गया। जैसे आज एक ओर आदिवासी नक्सली खड़े हैं और दूसरी को पुलिस की वर्दी पहने आदिवासी। एक दूसरे के दुश्मन। सरकार ने अच्छी तरकीब निकाली। आदिवासी को आदिवासी के सामने खड़ा कर दिया। यही काम राय बहादुर भी करता है। मनमोहन पाठक ने अपनी इस रचना में वर्गीय चरित्रा को ही दिखाया है कि कच्छप भले इंसपेक्टर है, लेकिन वह हुकुम बजाता है राय बहादुर का। इंस्पेक्टर ही क्यों, हर बड़ा अधिकारी भी राय बहादुर की दरबार में हाजिरी लगाने का मौका नहीं गंवाता, लेकिन इनके बीच डीएफओ मिस्टर गुप्ता भी हैं, जो बेहद ईमानदार हैं और वह आदिवासियों की मदद करते हैं।
न्यूनतम मजदूरी का सवाल, उसके लिए लड़ाई। आरा-बिहार से आए रामधनी ने उनके बीच चेतना भरते हैं। गीत गाते हैं, गुलमियां अब नाहीं बजइबो...; मजदूरों का हड़ताल, फिर ठेकेदार द्वारा बाहर से उरांव, खेखार, कोल मजदूर ले आना़...। इसी में सोनाराम भी आ जाता है। तपेसर और रामधनी बाहर से आए आदिवासी मजदूरों को देखते हैं। सभी अपने में मस्त। कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं। इन्हीं के बीच अलग-थलग बैठा सोनाराम दिखा तो उसे सारी बात समझाई। सोनाराम का काम था अपरिचित अपनी जाति को समझाना। पर ठेकेदार ने इस रात मंे इन मजदूरों को ऐसी जहरीली शराब पिलाई की तीन ने दम तोड़ दिया। सोनाराम ने अपरिचित इन लोगों की खूब मदद की, सेवा की। कुछ को बचाया।
रामधनी गांव के मजूदरों को समझाते हैं कि बिहार में भी खेतिहर मजदूरों का संगठन बन गया हैं। गोली बंदूक का जवाब गोली बंदूक से मिलता है। लड़ाई सिर्फ न्यूनतम मजदूरी की नहीं, जमीन के मालिकाने हक को लेकर भी हो रही है...। मालिकाना हक आदिवासी नहीं समझते। उसकी खुलासा करते हैं, अरे भाई यह आगे की लड़ाई है। खेत जो जोते-बोए उसका। जिसकी मेहनत उसकी फसल। कैसे इधर झारखंड में मंुडा, उरांव लोग जंगल पर अपना हक मांग रहे हैं, बस वैसे ही समझो। प्रतिरोध की आग सुलगने लगी था...।
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‘‘लुपंगा में कौन ऐसा है, जिसके खेत राय बहादुर के जिम्मे न हों। लुपुंगा क्या सोनाहातू के पूरब दस कोस के सारे गांव के लोगों के लिए एकही महाजन हैं-जगधारी राय!’’ इस जगधारी राय यानी राय बहादुर का ऐसा प्रताप था कि ‘ जंगल में काटी गई लकड़ियों की संख्या एक। चेकपोस्ट पर की उनकी संख्या दूसरी। डीपो में ढुलाई की गई लकड़ियों की संख्या तीसरी। डीपो में बिक्री होकर निकली हुई लकड़ियों की संख्या और स्टाॅक भी कभी नहीं मिलता।’ जंगल भी इनका, लकड़ी भी इनकी। फूल-पलाश-महुआ सब कुछ इनका। सत्ता भी इनकी, सरकार भी यही। फिर, किसी के बच निकलने का रास्ता ही कहां था! चैतू और दामड़ू के पास भी नहीं था। ये ऐसे दो भाई हैं जिनका चरित्रा अजीब है। जो करेंगे साथ-साथ। अपनी-अपनी शादी के लिए बचा-खुचा सारा खेत बाप के मरते ही जिम्मा कर आए राय बहादुर को और अब जहां-तहां काम के लिए भटकते फिरते हैं।...लोगों ने कितना समझाया, खेते मत रखो रेहन। एक साल पानी न पड़ा तो क्या हर साल सूखा ही पड़ेगा। पर जरा धीरज नहीं। न साल भर के लिए शादी टाल सके न खेत का आसरा। सादे कागज पर जाकर अंगूठा कटा आए दोनों, साथ ही साथ। जो करंेगे साथ ही करेंगे। जहां जाएंगे साथ ही जाएंगे। एक को अगर काम भी मिला तो वह तब तक नहीं करेगा जब तक दूसरे को भी काम न मिल जाए। भले ही मजदूरी कम मिले।...कितना कहा रेहन रखनी भी है जमीन तो किसी के हाथ रख आओ। राय बहादुर के हाथ चढ़ा खेत, आज तक कोई लौटा नहीं पाया। सोनाहातू या मोरंगा के ही किसी बनिए-बकाल को दे आता। पर इस गांव के लोग और कोई रास्ता ही नहीं पहचानते हैं।’’
लापुंगा-सोनाहातू ही क्यों? लाते का हाल भी जुदा कहां था-‘‘लाते की हालत कुछ बेशिए खराब है। किसी का भी खेत अपना नहीं रहा। कोई राय बहादुर के घर तो कोई सोनाहातू के बनिया के घर। वे लोग भी कम चालाक नहीं हैं। एक का खेत दूसरा जोता-बोता है। खेत के मालिक को अपने खेत में बटाई भी नहीं करने देते ताकि अपने खेत का मोह खतम हो जाए।’’ आदिवासी-किसान हजार चिल्लाए। मगर उनकी सुने कौन? सरकार बहरी, उसकी कचहरियां बहरी, हाकिम बहरे, पुलिस बहरी, नेता बहरे, साधु-महात्मा बहरे, देवी-देवता बहरे और भगवान भी बहरा।
पर सोनाराम क्या करे? सोनाराम सोने की तरह चमक बिखेरने वाला धीरोदत्त नायक। सिद्धो-कान्हो, चांद-भैरव, नीलांबर-पीतांबर और बिरसा की विरासत को आगे बढ़ाता हुआ... वह राय बहादुर की चालाकियों और उसके पाखंड को समझ रहा था। वह जानता है ‘पाप और पुण्य। इन दो शब्दों में से एक इनके शब्दकोश मे ंनहीं। टूना पहान ही क्यों, उरांव ही क्यों, तमाम आदिवासी जातियों के शब्द कोशों में जो एक शब्द नहीं है वह है पुण्य। पुण्य तो उनके जीवन के सहज प्रवाह में घुला-मिला है-साफ, उज्ज्वल। किसी का कुछ भलाकर उसका प्रदर्शन करते नहीं फिरते थे, उसका अहसान नहीं जताते, ये भगवान की भक्ति का त्रिपुंड दिखाते नहीं फिरते थे।’’
जब टूना पहान उसे समझाता है, कर्ज नहीं उतारना पाप है सोनाराम। तो सोनाराम उसे उसी तर्क से समझाता, रूगन आदमी को मारना-पीटना क्या है? एक का सौ वसूलना क्या है? टूना फिर समझाता है, वे अपने कानून से बंधे हैं। अपने धर्म से बंधे हैं। उनका धर्म उन्हें सजा देगा।’ लेकिन क्या ऐसा ही है? लेकिन उनका धर्म तो हमें सजा दे रहा है, दादा! उनका धर्म, उनका समाज तो हमारे समाजों को, गांवों को लीलता जा रहा है। दादा! हमारा धर्म, हमारे देवता क्या इतने कमजोर हैं कि वे अपने लोगों को बचा नहीं सकते? उनके फैलाए प्रपंच से गांव के गांव उजड़ते चले जा रहे हैं। जब हमारे लोग, हमारी जाति, हमारा समाज ही नहीं रहेगा तो हमारा धर्म किसके लिए होगा?
सोनाराम बड़ी सहजता से एक विकट सवाल खड़ा कर देता है जाने या अनजाने। धर्म किसके लिए? कृष्ण गीता में कहते हैं, जो धर्म की रक्षा करेगा, धर्म उसकी रक्षा करेगा। सोनाराम पूछ रहा, जब हम ही नहीं रहंेगे, जाति ही नहीं रहेगी तो धर्म का क्या करेंगे? धर्म तो तभी है, जब हम हैं।
सोनाराम युवा है, लेकिन उसकी सोच दूसरे आदिवासी युवकों से एकदम अलग है। वह अपने समाज की कुरीतियों से लड़ता है। हड़िया-शराब हाथ न लगाने की बात करता है। उसके आधुनिक विचार को बूढ़ा पहान भी ध्यान और धैर्य से सुनता है, जब वह कहता है-कौन सेवकिया बनना चाहता है? कौन किसी के बेगारी करना चाहता है? सेवकिया बनना कोई नहीं चाहता। जागो दादा को तो हमारे ही समाज, हमारे ही धरम के नियम से मरे हुए ससुर के किरिया-करम के लिए कर्जा लेना पड़ा था, समाज को दारू-हड़िया पिलाने के लिए। सबने खाया होगा, सबने पिया होगा। इसलिए दंड भोगना है तो पूरा समाज भोगे। अकेले-अकेले कोई क्यों भोगेगा?
समाज को उसपर विश्वास था। पैरू के लिए यह देवड़ा था यानी देवता। 25 साल की उम्र में बिरसा ने यही लड़ाई छेड़ी थी और अपने समाज को झकझोर दिया था। अब यह उरांव आदिवासी अपने समाज में एक नई क्रांति का आगाज कर रहा था। प्रतिरोध का एक वैकल्पिक मार्ग दे रहा था।
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एक बात हमें ध्यान रखनी चाहिए कि बिहार में खेत-मजदूरों का जो आंदोलन था, उसकी प्रकृति दूसरी थी। यहां आदिवासी अपनी ही जमीन से बेदखल कर दिए गए थे, कुछ रुपये के कर्ज के कारण। इसलिए, वह अपनी जमीन की वापसी चाहते थे। सोनाराम जैसे नायकों ने उनमें जोश भरा तो वे अपनी जमीन पर, जो उनके हाथ से निकल गई थी, राय बहादुर की हो गई थी, उसमें लगी खड़ी फसल काट लेते हैं। यह राय बहादुर के लिए दूसरा बड़ा झटका था। इससे तिलमिलाए राय बहादुर और उसके गुर्गे और पुलिस गांव वालों पर इतना अत्याचार करते हैं कि फिर गांव छोड़ने के अलावा उनके सामने कोई विकल्प नहीं बचा था। अपने पुरखे का घर-गांव छोड़ अपनी जिंदगी बचाने के लिए जंगल के भीतर दाखिल होकर फिर से आसियाना बनाते हैं...क्योंकि अब गांव अपवित्रा हो गया था। हवा अशुद्ध हो गई थी। यह वन और वन के देवता हमारी रक्षा नहीं कर सके तो इससे मोह का बात का? नाता कैसा? रोग-सोग, अकाल-महामारी इस गांव की धरती में बंधकर सब सह लिया। जंगल-झाड़ काट-साफ कर, पत्थर-चट्टान उखाड़-पखाड़ कर, जोत-कोड़कर बनाया गया सारा खेत उन्हें सौंप दिया। अपने बेटे-पोतों के पत्थर जैसे शरीर उनकी बेगारी में पिघला दिए और आज, आज...’’पैरूगुनी की हर क्षण भारी होती जाती आवाज भहराकर गिर पड़ी। ....नई धरती आबाद करो, देवड़ा का आह्वान करो। यही कहा था पैरूगुनी ने। काफी तर्क-वितर्क हुआ। अंततः पैरूगुनी से सभी सहमत हो गए और उसके पीछे खजुरी के साथ-साथ लापुंगा भी हो लिया। बहंगी, खटिया, टोकरी, खंचिया, बर्तन-भाड़े जिससे जितना बन पड़ा, साथ ले चला। अनाज के दाने नहीं छुटे। गांव से मोह नहीं टूटा। माल-मवेशी, बकरी-मुर्गी-मुर्गा साथ डहरा लिए। इसी बियावान जंगल में आसियाना बनाकर वे खड़ी फसल दखल कर लेते हैं और राय बहादुर के आदमी खोजते रहते हैं। पुलिस खोजती रहती है। इस खोज में दो पुलिसवालों को अपनी जान गंवानी पड़ी।हालांकि पलामू की परिस्थितियां ऐसी बन रही थीं कि आज नहीं तो कल प्रतिरोध तो होना ही था और गरीब-आदिवासी-दलित जातियों को एक दिन खड़ा तो होना ही था। पलामू के इतिहास से जो वाकिफ हैं, उन्हें पता होगा कि 1984 में जन मुक्ति परिषद नामक संगठन मजदूरी भुगतान, गैरमजरुआ जमीन का बंटवारा तथा शोषण को समाप्त करने के लिए खड़ा किया गया था। इसने कुछ ही वर्षों में अपना प्रभाव जमा लिया और गरीबों, पिछड़ों, दलितों का एक तबका इससे जुड़ गया। इसी के विरोध और क्षेत्रा में पैठ बना चुके नक्सलियों से लोहा लेने के लिए ही 1989 में पलामू के मलवरिया गांव के राजपूतों ने ‘सनलाइट सेना’ का गठन किया था और इन्होंने पहला नरसंहार 4 जून, 1991 में अपने ही गांव में किया। इस नरसंहार से संयुक्त बिहार ही नहीं, पूरा देश हिल गया था। इस नरसंहार में कुल दस लोग मारे गये थे, इनमें बूढ़े और बच्चे भी शामिल थे। दर्जनों लोग घायल हुए तो कुछ जीवन भर के लिए अपंग हो गये। कुल 22 लोगों के घर जलकर राख हो गये थे। उन जले घरों के साक्ष्य वहां आज भी मौजूद हैं। इन घटनाओं को याद रखते हुए ही इस उपन्यास को पढ़ा जा सकता है।
हम जानते हैं, जंगल छोटा होता जा रहा है और इतिहास बड़ा से बड़ा। पर रोज रोज इतिहास में नए नए अध्याय जोड़ती यह दुनिया पठार पर उगे इस जंगल को, जंगल में बसे छोटे-छोटे गांवों को क्या दे रही है? इन्हें परत दर परत उघाड़कर कानून और अधिकार के बर्छी भाले भांेक-भोंक कर सभ्यता की जीभ को कौन सा स्वाद चखा रही है...। आप सोचते रहिए। इस सोच से आगे बढ़ते हैं तो यह खबर भी मिलती है कि डालटेनगंज से लगभग 30 किमी दूर सोनाहातू प्रखंड का आंतक एक आदमखोर चीता मारा गया।...इलाके के प्रतिष्ठित व्यक्ति राय बहादुर जगधारी राय की सिफारिश पर फाॅरेस्ट कंजरवेटर श्री वर्मा एवं जिले के एसपी श्री आर आर प्रसाद ने बड़ी सूझ-बूझ से उसे मोरंगा वन में घेर कर मार डाला। लेकिन यह पूरा सच नहीं था। इस तरह की खबर पटना के दैनिक में छपी थी। पूरा सच छापने का जोखिम एक स्थानीय अखबार ने उठाया। पालतू चीते का पूरा सच उजागर करते हुए जिले के आला अफसरों द्वारा आदमखोर से लोगों की राहत दिलाने की झूठी कथा की आड़ में शिकार के रोमांचक खेल का पर्दाफाश किया था। उसने साहस के साथ लिखा कि असली आदमखोर तो राय बहादुर हैं जो खुलेआम घूम रहे हैं और आदिवासी उनके आतंक से गांव छोड़-छोड़कर भाग रहे हैं।‘...इस खबर का नतीजा यह रहा कि डालटेनगंज से एसपी, डीसी, फारेस्ट कंजरवेटर तथा सोनाहातू के डीएफओ मि गुप्ता का तत्काल तबादला कर दिया और उन्हें 24 घंटे के अंदर नई जगह ज्वाइन करने का आदेश मिला। स्थिति को देखते हुए मंत्रिमंडल ने डालटेनगंज में ऐसे किसी डीसी को भेजने का फैसला लिया जो आदिवासियों का मन जीत सके और उनके असंतोश्ष को कुछ कम कर उन्हंे उग्रवाद के रास्ते पर जाने से रोक सके।’ यह काम आज की सरकार भी कर रही है।
1991 में आए इस उपन्यास में क्रांति की एक महीन धारा के बीच सोनाराम और जागो के बीच प्रेम का एक सोता भी दिखाई देता है। सोनाराम और जागो की बेटी हीरामनी का सात्विक प्रेम। उछाह मारता और बादलों की तरह भटकता-घूमता मन भी है। लोहार तपेसर की कुम्हारिन का प्रेम। तपेसर अपनी प्रेमिका को लेकर भाग जाते हैं। राउरकेला में नौकरी करते हैं। अवकाश ग्रहण करने के बाद ही गांव लौटते हैं। प्रेम की इन परतों के बीच जीवन की आपा-धापी, उसकी जटिलताएं, उसका संघर्ष है। यहां जंगल है। जंगल के गीत हैं। उसका दुख है। उसकी पीड़ा है। शांत और गुमसुम अंतर्मुख खड़े साल हैं। प्रकृति के विवरण बोझिल नहीं करते। काव्य की तरह आनंद देते हैं। एक दृश्य देखें-आसमान का सूरज पहाड़ों के पीछे से निकले इससे पहले अंधकार का काला सूरज सोनाहातू की गढ़ी से निकलकर छोड़ने लगता है, अंधकार केगोले-पूरे सोनाहातू पर। जंगल, पहाड़, खेत, मैदान, गांव, घर-पूरे इलाके पर एक बड़ा घना जाल ओढ़ा देता है।...। आदिवासी-उरांवांे की बस्तियां है तो बभनटोली भी, जहां सिर्फ दो घर है। एक जमुना पंडित और उनकी विधवा चाची का। सोनाहातू की गढ़ी उनकी ज्योतिषी का प्रभाव कम नहीं। पर जब राय बहादुर विशाल यज्ञ कराते हैं तब बनारस के पंडित बुलाते हैं। इसके बाद तो जमुना पंडित का मन खट्टा हो जाता है। इस तरह गांव की पूरी बस्ती है, मुहल्ला है। लेखक सबके घर में झांककर देखता है, उसके सुख-दुख साझा करता है। गांव के गांव वह देखता है। हाट-बाजार घूमता और घुमाता है। पूरे लय में गीत सुनाता है, जिसकी टेर दूर-दूर तक सुनाई देती है। उपन्यास में बहुत कुछ सुनने-सुनाने की कोशिश की गई है। बहुत कुछ अनसुना ही रह जाता है। हां, उसकी पदचाप जरूर सुनाई देती है, जो आगे चलकर नक्सल आंदोलन के रूप में पलामू को अपने आगोश में ले लेता है।
मनमोहन पाठक यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर इसकी रचना करते हैं। हालांकि उरांव आदिवासी की कथा कहते समय जिन गांवों के नाम आते हैं, वे मुंडा संस्कृति से मेल खाते हैं। ये सांस्कृतिक भूलें हैं। उपन्यास में कालखंड का पता नहीं चलता। हालांकि एक लय है। इस लय में बहुत उतार-चढ़ाव नहीं हैं। अथ से इति तक इसे महसूस कर सकते हैं। पर घटनाओं की लयकारी दूसरी है। पलामू वह इलाका है, जो आज भी सुलग रहा है और जिसके जंगल से धुआं आज भी उठ रहा है। सामंती शक्तियों ने नए नकाब ओढ़ लिए हैं।
लमही में प्रकाशित। साभार।
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