साझी विरासत का पर्व है होली

होली साझी विरासत का पर्व है। जब दो संस्कृतियों का मिलन हुआ तो संस्कृति के साथ-साथ पर्व-त्योहार भी एक दूसरे के हो लिए। होली की बात करें तो यह भले हिंदुओं का पर्व है, लेकिन इसने अपनी सीमाएं तोड़ी हैं। यह मुसीबतों में भी मस्ती का एहसास कराता है। इस पर्व पर शायरों ने भी अपनी खूब कलम तोड़ी है। यह हमारी अनमोल साझी विरासत और इंसानी रिश्तों को एक सूत्र में बांधता है। फ़ाइ$ज देहलवी ने फरमाया है, आज है रोज़े-वसंत अय दोस्तां, सर्व $कद हैं, बोस्तां के दरमियां...अज अबीर-ओ-रंगे-केशर और गुलाल, अब्र छाया है सफेद-ओ-जर्द-ओ-लाल।
मीर तकी मीर की तो पूछिए ही मत। फरमाते हैं-होली खेला आसिफुद्दौला वजीर, रंगे-सुहबत से अजब है खुर्द और पीर। एक और नज्म देखिए-जश्ने नौरोजे हिंद होली है, राग-ओ-रंग और बोली-ठोली है। जश्ने नौरोजे यानी नए साल का समारोह। होली के साथ ही नया साल भी प्रारंभ हो जाता है।
नज़ीर अकबराबादी के फन से तो वाकिफ ही होंगे-जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की। और दफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की। परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की...लड़-भिड़ के नजीर फिर निकला, कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो, जब ऐसे ऐश झमकते हों, तब देख बहारें होली की।
शाह 'हातिमÓ लिखते हैं, मुहैया सब है अब अस्बाबे होली, उठो यारों भरो रंगों से झोली...कोई है सांवरी कोई है गोरी, कोई चंपा बरन उम्रों में थोड़ी। सआदत यार खां 'रंगींÓ पिचकारी में रंग भरने की बात कहते हैं, भर के पिचकारियों में रंगीं रंग, नाजनीं को खिलाई होली सं...और...यह हंसी तेरी भाड़ में जाए, तुझको होली न दूसरी आये। इस तरह बहुत से उर्दू शायरों ने होली पर नज्म कही है। 

मरंग गोड़ा वाया आदित्य श्री

अपने पहले ही उपन्यास से चर्चित, प्रशंसित, पुरस्कृत महुआ माजी का दूसरा उपन्यास 'मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआÓ राजकमल प्रकाशन से अभी-अभी आया है। छपने से पहले इसकी पांडुलिपि भी पुरस्कृत हो गई। उपन्यास का टैग लाइन है, विकिरण, प्रदूषण व विस्थापन से जूझते आदिवासियों की गाथा। यह गाथा कोल्हान के उस क्षेत्र की है, जहां के आदिवासी पिछले कई दशकों से यूरेनियम के कचरे का शिकार हो जवानी में ही दम तोड़ दे रहे हैं। कई तरह की बीमारियां, गर्भपात हो जाना, लाइलाज चर्म रोग और असमय बुढ़ापे की मार...ये सब अतिरिक्ति सौगातें हैं। विकास का एक भयावह चेहरा यहां दिखाई देता है। हालांकि कंपनी इससे अपना पल्ला झाड़ती रही है, लेकिन देश-विदेश के कई विशेषज्ञों की टीम ने इस क्षेत्र का दौरा किया और पाया कि ये सारी बीमारियां यूरेनियम के कचरे की वजह से पैदा हो रही हैं। महुआ माजी ने अपने उपन्यास में इसी विषय को उठाया है। पिछले तीन-चार साल से वह इस विषय पर काम कर रही थीं।
कहना न होगा कि जब हिंदी की मुख्यधारा में अभी तक आदिवासी ही नहीं आ पाए हैं तो उनकी समस्याएं कहां से आ पातीं? वह भी जादूगोड़ा के आदिवासी। कहा जा रहा है कि पहली बार जादूगोड़ा के आदिवासियों को आवाज मिली है। तब, महुआ इसके लिए वाकई बधाई की पात्र हैं।    मरंग गोड़ा को आप यहां जादूगोड़ा भी पढ़ सकते हैं। पर, पर मरंग गोड़ा नीलकंठ कैसे हो गया? यह समझ से परे है। नीलकंठ तो भगवान शिव का एक नाम है, जिन्होंने समाज के लिए विष पिया था। इन आदिवासियों को तो जबरन विष पिलाया जा रहा है।
402 पेज के उपन्यास में लेखिका ने 167 पेज तो अपनी आंखों से मरंग गोड़ा को देखने की कोशिश की है। दृष्टि भले आधी-अधूरी हो। लेकिन 168 पेज से लेखिका मरंग गोड़ा को कैमरे की आंख से देखती हंै। कैमरामैन का मना है आदित्यश्री। तआरुफ देखिए...'इनसे मिलिए, यही है वो फिल्म बनाने वाला पत्रकार-आदित्यश्री।Ó लेखिका के कृतज्ञता से भरे शब्द हैं, 'पहले दिन मरंग गोड़ा में कदम रखते ही उस युवा पत्रकार आदित्यश्री ने देखा था, ढेर सारे औरत, मर्द, बच्चे, बूढ़े एक तालाब में उछल कूद करते हुए हाथ से ही मछली पकड़ रहे हैं। बड़ा आश्चर्य हुआ था उसे। अपने वीडियो कैमरे से शॉट लेते हुए उसने जाना था कि अचानक उस दिन तालाब की तमाम मछलियां मर मरकर पानी की सतह पर चली आई थीं। तभी इतनी आसानी से लोग उन्हें पकड़ पा रहे थे। बाद में सगेन ने खुलासा किया था-'तालाब में टेलिंग डैम का जहरीला पानी कुछ ज्यादा ही चला आया था शायद...ÓÓ
सगेन उपन्यास का नायक है। सगेन को ततंग यानी उसके दादा पत्थरों का डाक्टर बनाना चाहते थे, लेकिन जैसे-जैसे सगेन बड़ा होता है, उसे जादूगोड़ा का सच दिखाई देने लगता है और फिर लोगों को जागरूक करने, एकजुट करने के लिए कमर कस लेता है। सगेन की भेंट जब आदित्यश्री से होती है तब जादूगोड़ा के सच से देश-दुनिया परिचित होती है। आदित्यश्री जादूगोड़ा पर कई डाक्यूमेंट्री बनाता है। उसका प्रदर्शन जापान सहित कई अन्य देशों में होता है। इस डाक्यूमेंट्री के माध्यम से आदिवासियों का दर्द लोगों के सामने आता है। जब देश-दुनिया में कंपनी की करतूतों का पता चलता है तो कंपनी वाले भी थोड़ा मानवीय रुख अपनाने को बाध्य होते हैं। 
आदित्यश्री एक एनजीओ की मदद से ही डाक्यूमेंट्री बनाता है। एनजीओ का नाम देने से लेखिका ने परहेज किया गया है। वहीं, एनजीओ के मुख्य कर्ता-धर्ता का नाम भी यहां बदल दिया गया है, जबकि उपन्यास में कुछ पात्र अपने सही नामों के साथ उपस्थित हैं। जादूगोड़ा के साथ ही सारंडा की कहानी भी कही गई है। साल बनाम सागवान की लड़ाई को भी उठाया गया है, लेकिन उस समय के एक बहुत बड़े आंदोलन कोल्हान विद्रोह को छोड़ दिया गया है।
1977 में केसी हेम्ब्रम और उस समय के मानकी मुंडा के प्रमुख नारायण जोंको ने कोल्हान रक्षा संघ का गठन किया था। आंदोलन की लपटें बहुत दिनों तक उठती रहीं। 1981 में अलग कोल्हान की मांग की गई। यहां तक कि कॉमनवेल्थ सचिव के सामने इसकी मांग रख दी गई। इसकी मांग यूएनओ में भी गूंजी। केसी हेम्ब्रम पर राष्ट्रदोह का मुकदमा भी चला। शुरुआत में इस संगठन के लोगों ने जादूगोड़ा में विकिरण के दुष्प्रभावों को सामने लाने की कोशिश की। आंदोलन को वैचारिक धार देने के लिए ही उक्त एनजीओ का गठन किया गया। पर उपन्यास में इस आंदोलन का कहीं जिक्र ही नहीं है। लेखिका ने आदित्यश्री के माध्यम से  जो देखा, सुना, समझा, बताया, या जो दिखाया गया, वही उपन्यास में परोस दिया गया। और, इस उपन्यास की सबसे बड़ी कमी तो यह है कि  उपन्यास उत्तराद्र्ध मरंग गोड़ा की कथा न होकर आदित्यश्री की संघर्ष गाथा लगने लगती है। फिल्म निर्माण, उसका विदेशों में प्रदर्शन, प्रेम का घटना और इसका शरीर के तल पर घटित होना ...। शक होने लगता है कि हम मरंग गोड़ा की कथा पढ़ रहे हैं या आदित्यश्री की। कहीं-कहीं उपन्यास में शोध इतना हावी हो गया है कि कथा पीछे छूट जाती है। दिल्ली वालों के लिए भले ही यह उपन्यास अंतरराष्ट्रीय लगे, जिनका कभी न आंदोलन से वास्ता रहा न आदिवासी समाज से, लेकिन झारखंडवासियों के लिए इसे पचाना मुश्किल ही होगा। फिर भी, उपन्यास को इसलिए पढ़ा जाना चाहिए ताकि हम जादूगोड़ा के दर्द को समझ सकें। दूसरा यह कि जापान ने अपनी जनता के विरोध के कारण विकिरण के खतरे को देखते हुए परमाणु संयंत्रों को बंद कर दिया। उपन्यास हमें विकिरण के खतरे से आगाह करता है। बताता है कि 'यूरेनियम को धरती के भीतर ही पड़े रहने दो। उसे मत छेड़ो। वरना सांप की तरह वह हम सबको डंस लेगा।Ó  

टैगोर हिल सुनाती है ज्योतिरींद्र की गाथा

संजय कृष्ण, रांची
टैगोर हिल के शिखर पर ब्रह्म मंदिर के खुले स्थान पर जैसे आज भी कोई ध्यान मुद्रा में बैठा है। सैकड़ों सीढिय़ां चढऩे के बाद इस एहसास से आप अलग नहीं हो सकते। सीढिय़ों के दाए-बाएं शिलाखंड, पेड़, पौधे, पत्तियां जैसे आज भी अपनी कहानी सुनाने को बेताब हों कि वह व्यक्ति कहां-कहां टहलता रहा। पेड़-पौधों और शिलाओं से कैसे बातचीत करता रहा? वह कुसुम का विशाल वृक्ष भी, जिसकी सौ साल से ऊपर उम्र हो गई है, उसकी चरणों में बैठक ज्योतिरींद्रनाथ टैगोर ध्यान लगाया करते थे। यहां आने पर कुछ भी अबूझ, अज्ञात और अव्यक्त नहीं है। कोई मौन नहीं, सब मुखर हैं।

वह आवास जहां ज्‍योतिरींद्र रहते थे
कण-कण बोलते हैं। हृदय को स्पंदित करते हैं। कभी-कभी यादों के झरोखें से झांकने पर बेचैन भी। कुसुम वृक्ष न जाने कितनी घटनाओं का साक्षी है। यहीं पर बैठकर ज्योति दा बाल गंगाधर तिलक की गीता रहस्य का अनुवाद करते थे। यहीं पर बैठकर नई-नई धुनें बनाते थे। यह धुन आज भी सुनाई देता है। रात के सन्नाटे में जब आप यहां से गुजरें तो लगेगा कि ज्योति दा की धुनों के साथ पेड़-पौधे, शिलाएं कोरस गा रही हैं।
सूरज की पहली किरण और फिर आखिरी किरण पड़ते ही इस पहाड़ी में चैतन्यता आ जाती है। सूरज का स्वागत भी करती है और संध्या विदा भी। अब आप सोच रहे हैं, क्यों निर्जीव की कथा सुना रहे हैं और यह ज्योतिरींद्रनाथ हैं कौन?  
ज्योतिरींद्रनाथ महर्षि देवेंद्रनाथ के पांचवें पुत्र थे और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से 12 साल बड़े थे। संगीतज्ञ, गायक, पेंटर, अनुवादक, नाटककार, कवि...कला के जितने रूप हो सकते हैं, उनमें वे सिद्धहस्त थे। रवींद्रनाथ पर इनका गजब का प्रभाव था। 1868 में कादंबरी देवी से इनका विवाह हुआ। पर, कादंबरी देवी ने 19 अप्रैल, 1884 को आत्महत्या कर ली। इससे ये बड़े दुखी हुए। इसके बाद इनका मन उचटने लगा। वे ठाकुरबाड़ी छोड़कर कुछ दिनों तक अपने अग्रज भारत के पहले आईएएस सत्येंद्रनाथ टैगोर के साथ रहने लगे।
 1905 में अपने पिता महर्षि देवेंद्र नाथ के निधन के बाद उन्होंने कुछ दिनों तक विरागी होकर विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया। बड़े भाई सत्येंद्रनाथ टैगोर के साथ पहली बार वे 1905 में रांची आए। यहां की आबोहवा उनके मन के अनुकूल लगी। कुछ दिन रहने के बाद वे चले गए। फिर तीन साल बाद एक अक्टूबर, 1908 को रांची रहने के लिए ही आ गए। यहां पर मोरहाबादी स्थित पहाड़ी इन्हें पसंद आ गई। तब तक यह वीरान था। यहां पर 1842 से 48 तक कैप्टन एआर ओस्ली रहे। उन्होंने ही यहां पर एक रेस्ट हाउस बनवाया था। ओस्ली यहां 1839 में रांची आए। वे प्रतिदिन प्रात:काल काले घोड़े पर सवार होकर मोरहाबादी मैदान टहलने जाते थे। फिर रेस्ट हाउस में आकर विश्राम करते थे। उनके भाई ने किसी अज्ञात कारण से इस रेस्ट हाउस में आत्महत्या कर ली। इसके बाद ओस्ली का मन यहां से उचट गया और इसके बाद फिर वे कभी नहीं आए। इसके बाद यह वीरान हो गया।
प्रवेश द्वार
ज्योतिंद्रनाथ आए तो उन्होंने यहां के जमींदार हरिहरनाथ सिंह से मुलाकात की और 23 अक्टूबर 1908 को पंद्रह एकड़ अस्सी डिसमिल जमीन पहाड़ी के साथ बंदोबस्त कराई। यह जमीन उन्होंने अपने भाई सत्येंद्रनाथ ठाकुर के पुत्र सुरेंद्रनाथ ठाकुर यानी भतीजे के नाम से लिखा-पढ़ी कराई। इसका सालाना लगान 295 रुपये वार्षिक था। लेने के बाद टूटे-फूटे रेस्ट हाउस को दुरुस्त करवाया। पहाड़ पर चढऩे के लिए काफी धन खर्च कर सीढिय़ां बनवाई। मकान के प्रवेश द्वार पर एक तोरण द्वार बनवाया। द्वार के निकट विभिन्न प्रजातियों की चिडिय़ां, कुछ हिरण, कुछ मोर रखकर एक आश्रम का रूप दिया गया। वे ब्रह्म समाजी थे। इसलिए बुर्ज पर एक खुला मंडप बनवाया ध्यान-साधना के लिए। नाम रखा शांतालय। पहाड़ के नीचे सत्येंद्रनाथ एक मकान बनवाए थे, जिसका नाम रखा था 'सत्यधामÓ। कहा जाता है कि रांची में हाथ रिक्शा का प्रचलन इन्हीं के कारण हुआ। हाथ रिक्शे से ही वे रांची घूमते थे। कभी-कभी वे अपनी पॉकिट घड़ी का समय मिलाने के लिए रांची डाकघर तक आते थे, जो उन दिनों सदर अस्पताल के पास था। आर. अली साहब की दुकान से केक, बिस्कुट आदि खरीदते थे। हजारीबाग रोड के किनारे कुमुद बंधु चक्रवर्ती के अन्नपूर्णा भंडार से अपनी जरूरत की चीजें लेते थे। कुमुद बाबू उनके बायोकेमिक चिकित्सक थे। और, विष्णुपुर घराने के सुविख्यात सितार वादक नगेंद्रनाथ बोस से वे सितारवादन सीखते थे। जब अवनींद्रनाथ ठाकुर सपरिवार रांची आते थे तब उनकेच्बच्चों के लिए ढेर सारी चीजें खरीदकर खिलाया करते थे। ऐसे अवसरों पर उनके आवास में हंसी-खुशी का माहौल छा जाता।
कुसुम ताल
ज्योतिरींद्र नाथ की डायरी से पता चलता है कि उन दिनों रांची के गणमान्य लोग उनके भवन में प्राय: आते थे तथा साहित्य, संगीत, उपासना आदि कार्यक्रमों में शामिल होते थे। और, वे खुद भी दूसरों के यहां जाया करते थे। थड़पकना हाउस के उद्धव रॉय, नवकृष्ण राय, भूपालचंद्र बसु, त्रिपुराचरण राय उनमें प्रमुख हैं।
मंजरी चक्रवर्ती ने लिखा है कि 'स्वतंत्रता संग्राम के अन्यतम योग्य नेता विपिनचंद्र पाल के मध्यम पुत्र मेरे पिता ज्ञानांजन पाल, मेरी छोटी फूफी वीणा चौधुरी, जब पुरुलिया के देशबंधु सी आर दास के घर आए थे, तब वे ज्योतिरींद्रनाथ से मिलने रांची भी आए। तब पहाड़ों पर घूमते समय ज्योति दा ने मेरी फूफी और सास के चित्र भी बनाए थे।Ó
एक बात यहां उल्लेखनीय है कि रवींद्रनाथ टैगोर यहां भले न आए लेकिन उनके परिवार का नाता इस धरती से बहुत पुराना है। रवींद्रनाथ टैगोर के दादा द्वारिका नाथ टैगोर ने पलामू के राजहरा में एक अंग्रेज व्यापारी से मिलकर कोलियरी चलाई थी। फर्म का नाम था मेसर्स कार्र-टैगोर एंड कंपनी। 1834 में इस फर्म के जरिए कोयले का व्यापार शुरू किया गया। विलियम कार्र एवं विलियम प्रिंसेप का इंग्लैंड के साथ सिल्क व नील का व्यापार था। इन्होंने ही कोयले का व्यापार भी शुरू किया। 1936 में रानीगंज कोलियरी खरीदा गया। इसे मूलत: विलियम जान्स ने खोला था। इस कोलियरी को खरीदने के बाद कार्र-टैगोर फर्म ने अपनी कंपनी का विस्तार किया। इसके साथ डीन कैंपवेल एवं डा. मैकफर्सन इसके अतिरिक्त पार्टनर बन गए। कलकत्ता (अब कोलकाता) कार्यालय का काम डोनाल्ड मैकलियोड गार्डन देखते थे और कोलियरी का काम सीबी टेलर। खैर, आगे चलकर द्वारिका नाथ इस व्यवसाय से अलग हो गए। धु्रब मित्र बताते हैं कि 1920 के आस-पास गुरुदेव के भाई अवनींद्रनाथ ठाकुर कोकर में दो बेहद खूबसूरत मकान बनवाए थे, जिसका नाम रखा था सन्नी नूक। भवन विभिन्न प्रकार के फूलों, वृक्षों, पौधों से पटा था। इसी भवन पर बाद में रामलखन सिंह कालेज बना। दूसरा भवन भी सड़क के ठीक विपरीत में था, जिसे कुछ लोगों ने प्लाटिंग करके बेच दिया। इनके साथ ही सत्येंद्रनाथ की सुपुत्री इंदिरा देवी एवं उनके पति प्रख्यात साहित्यकार प्रमथ चौधुरी ने भी एक मकान रांची में खरीदा था और वे लोग अक्सर यहां रहा करते थे। आज जहां रामकृष्ण मिशन का पुस्तकालय है, वहीं पर उनका मकान हुआ करता था। यही नहीं, गुरुदेव की एक भतीजी सुप्रभा एवं उनके पति सुकुमार हालदार सामलौंग, रांची में ही रहते थे। ये सभी गुरुदेव को रांची आने को कहते। ज्योति दा की डायरी से पता चलता है कि उनका कार्यक्रम भी बना, लेकिन वे यहां नहीं आ सके। हालांकि गुरुदेव ने एक पारिवारिक तनाव से दूर रहने को लेकर पत्र में लिखा था कि कलकत्ता की अपेक्षा रांची में रहना बेहतर होगा। खैर, गुरुदेव नहीं आ सके। ज्योति दा ने यहीं पर अपनी अंतिम सांसें ली। चार मार्च 1925 को सदा-सदा के लिए चले गए। उनकी यादों को सहेजने का प्रयास किया जा रहा है।

साठ साल की सक्रियता ने रचा शोध का नया आयाम


संजय कृष्ण, रांची
डॉ.बीपी केशरी। बहुमुखी प्रतिभा का स्थापित मानदंड। बिरल व्यक्तित्व। उम्र के पड़ाव का आठवां दशक। चिंतन और विचार से तेजस्क्रिय। यह जमाना उन्हें किस रूप में याद करना चाहेगा- एक संस्कृतिकर्मी के रूप में, झारखंड आंदोलन के बौद्धिक अगुवा के रूप में या एक गहन साहित्य के शोधार्थी के रूप में। इन तीनों रूपों में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। किसी में कमतर नहीं। इतिहास में एक मुकम्मल जगह उन्होंने बना ली है। लेकिन, एक काम ऐसा है, जिसे करने के बाद उन्हें असीम संतुष्टि मिली। वह है- नागपुरी कवियों पर काम। यह काम पिछले पचास वर्षों से चल रहा था।  हौले-हौले। कई तरह की बाधाएं भी आईं। झारखंड आंदोलन में व्यस्तता रही। फिर भी पूरा हुआ। निस्संदेह यह एक शलाका पुरुष की सारस्वत साधना का सद्परिणाम है। रांची विवि में जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग की स्थापना...बीच-बीच में ऐसे काम आए, जो वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं थे। फिर यह काम बंद नहीं हुआ। एक हसरत जरूर थी कि यह ऐतिहासिक काम उनके जीते जी हो जाए और हो भी गया। पांच मार्च को जब वे अशोक पागल के यहां बैठे थे और बार-बार उनका फोन आ रहा था कि मैं इंतजार कर रहा हूं तो भागा-भागा बीमारी में भी उनसे मिलने गया। उनके चेहरे पर एक असीम खुशी तैर रही है। काम की पूर्णता का एहसास उनकी बातों से लग रहा था। उन्होंने एक प्रति दी। छाप-छपाई और कवर देखकर बहुत आनंद हुआ।

इस महती योजना का प्रारंभ कैसे किया। यह काम कितने दिनों में हुआ और कैसे मन में विचार आया?
केशरी : 1951 का साल। आइए की परीक्षा देकर घर आया था। एक चचेरी बहन की शादी थी। गर्मी का मौसम था। चांदनी रात में घर और पास-पड़ोस की मां-बहनें शादी पर झूमर खेल रही थीं। आंगन नागपुरी गीतों से नहा रहा था। अचानक कुछ पंक्तियों पर मेरा कान लग गया-
अम्बा मंजरे मधु मातलयं रे,
तइसने पिया मातल जाय।
नाग-नागिन कांचुर छोड़लयं रे,
तइसने पिया छोड़ल जाय।

इस झुमटा गीत की लय, शब्द रचना और अर्थ-व्यंजना ने मुग्ध कर दिया। दिल-दिमाग एकमेक हो गए और सोचने लगा, इतनी सुंदर पंक्तियों का रचयिता कौन है? छिटक रही चांदनी की उस रात ने ऐसा बेचैन किया कि फिर इस तरह के गीतों की तलाश में जुट गया। आस-पास के गांव, घर, खेत-खलिहान और संगी-साथियों से अनायास ही कुछ गीत मिल गए। इस काम में आदिवासी पत्रिका से भी सहायता मिली। काम आगे बढ़ा। फिर जीएल कालेज डालटनगंज में नियुक्ति हो गई। इसके बाद छुट्टियों में ही कुछ काम कर पाता।
कवियों की खोज कैसे की और कहां-कहां गए?
डॉ.केशरी बताते हैं कि 1957 में आकाशवाणी की स्थापना हुई। इसके तीन साल बाद 1960 में रांची विवि की। इससे नागपुरी जगत में हलचल हुई। 1960 में ही नागपुरी भाषा परिषद का गठन भी हुआ। नागपुरी पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। इससे काम आसान हुआ। कई लेख इसमें छपे। गीतों के संग्रह में भी आसानी हुई। 1964-65 में नागपुरी क्षेत्र का व्यापक दौरा किया। नागपुरी जानने वालों से संपर्क किया, साक्षात्कार लिया। पांच सौ नए-पुराने कवियों के लगभग 15000 गीत मिले। काम को आगे बढ़ाने के लिए 1967 में एक पुस्तिका छपाई-नगपुरिया कविमनक सूची। धीरे-धीरे काम बढ़ रहा था।

नागपुरी गीतों में ही पीएचडी करने का विचार कैसे आया?
नागपुरी में काम कर रहा था। इसलिए इसी में पीएच डी करने का मन बनाया। 1971 में रांची विवि से नागपुरी गीतों में शृंगार रस पर पीएच डी की डिग्री मिली। इसके पहले जर्मनी के बौन विवि से मोनिका जॉर्डन और रांची विवि से डॉ.श्रवणकुमार गोस्वामी को नागपुरी में यह डिग्री मिली थी। इस बीच झारखंड आंदोलन भी तेज हो रहा था। शोषण का क्रम जारी था। एक तरह से यह आंतरिक उपनिवेश बन गया था। इस बीच झारखंड का इतिहास लेखन, झारखंड पार्टी की सदस्यता लेना, पार्टी का मैनिफेस्टो लिखना, नागपुरी में जय झारखंड पत्रिका निकालना, यहां की भाषाओं की समस्याओं एवं संभावनाओं पर आलेख तैयार करना आदि काम करने पड़े।
आंदोलन के साथ रचनात्मक काम कैसे करते रहे?
 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन से लेकर छोटानागपुर सांस्कृतिक संघ, नागपुरिया संघ, शालपत्र के प्रकाशन की कहानी बताई। रांची विवि के जनजातीय भाषा विभाग में आने और स्नातकोत्तर विभाग की स्थापना भी रोचक कहानी है। विभाग की स्थापना में कुमार सुरेश सिंह का विशेष योगदान रहा। फिर डॉ. रामदयाल मुंडा ने इस बिरवे को वृक्ष बनाया। विभाग ने सांस्कृतिक नवजागरण की भूमिका निभाई।
फिर नागपुरी संस्थान की स्थापना की बात दिमाग में कैसे आई?
1993 में अवकाश प्राप्ति के बाद भी शोध का काम आगे चलता रहा। उम्र बढ़ रही थी और शैक्षिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व्यस्तताएं पीछा नहीं छोड़ रही थीं। काम आगे बढ़ाने के लिए किसी तरह अपने गांव में ही नागपुरी संस्थान की स्थापना की। इसके बाद लोगों के सहयोग से काम को तेज किया। अथक परिश्रम के बाद 650 कवियों की सूची बनी। लेकिन पुस्तक में 248 कवियों एवं उनकी रचनाओं को ही शामिल कर सका।
इस उपलब्धि पर क्या कहना चाहेंगे?
केशरी जी कहते हैं कि शोधयात्रा के दौरान लगभग 35 हजार नागपुरी गीत-कविता, 61 कवियों-संपादकों की 119 पुस्तक-पुस्तिकाएं मिलीं, जो नागपुरी संस्थान में उपलब्ध हैं। संग्रह में 1600 ईस्वी से लेकर 2000 ईस्वी के रचनाकारों को शामिल किया गया है। अभी मुझे बस फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट की पंक्तियां याद आ रही हैं। इसे मेरा भावोच्छवास भी कह सकते हैं। कविता की पंक्तियों का आशय है-'आनंद मात्र धन संग्रह में नहीं। यह रचनात्मक प्रयासों के रोमांच में, उपलब्धियों के उल्लास में है।Ó यह उपलब्धि मेरे लिए कुछ ऐसा ही अर्थ रखती है।   

आजादी से ही लड रहे हैं अपनी जमीन वापसी के लिए टाना भगत

टाना भगतों का योगदान देश की आजादी में भी तो अभूतपूर्व रहा, लेकिन इन्हें वह सम्मान आज तक नहीं मिला। कुछ ताम्रपत्र जरूर मिले, लेकिन उनकी जमीन नहीं मिली। इसके लिए ये आज भी अपनी लड़ाई अहिंसात्मक ढंग से जारी रखे हुए हैं। नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक ने इसकी कहानी सुनी, वादा किया, लेकिन वादे आज तक पूरे नहीं हो सके। अपने अधिकार और हक की लड़ाई ये आज भी लड़ रहे हैं। शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन के जरिए सरकार को अपनी बात भी सुनाते हैं, लेकिन सरकार इतनी संवेदनशील होती तो ये 66 सालों से लड़ते ही क्यों?
यह लड़ाई वैसे तो आजादी के तुरंत बाद ही शुरू हो गई थी। सरकार ने इनकी जमीन वापसी की प्रक्रिया भी शुरू कर दी थी, लेकिन बहुतों को जमीन का आज भी इंतजार है। आजादी के तत्काल बाद, 1947 में ही इनकी जमीन वापसी का कानून बना। बिहार राज्य सरकार ने रांची जिला टाना भगत रैयत कृषि प्रत्यावर्तन अधिनियम पारित किया, जिसके अनुसार सन् 1913 से 1942 तक स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लगान नहीं देने पर नीलाम कर दी गई उनकी जमीन वापसी का प्रावधान है। इस अधिनियम के तहत उस समय कुल 358 टाना भगतों को कुल 3722.26 एकड़ जमीन वापस की गई एवं जमीन पर दखलकार विपक्षियों को कुल 13,05,669 रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में भुगतान किया गया है।
हालांकि इस कानून में कुछ कमियां थीं। यह रांची तक ही सीमित था, जबकि कई अन्य जिलों के टाना भगतों को इससे लाभ नहीं मिलता था। फिर इस कानून को 1961-62 में संशोधित किया गया। 1968-69 में जो जमीन वापसी की गई थी, उस बारे में पता चलता है कि उस समय कुल 1,200 मुकदमे दायर हुए। 232 परिवारों को लाभ मिला। 7,38,98 रुपये खर्च हुआ। 88 मामले लंबित दिखाया गया और 2,808 एकड़ 80 डिसमिल जमीन वापस की गई।
तत्कालीन बिहार सरकार ने इनकी समस्याओं को निपटारे के लिए 1966 में टाना भगत बोर्ड का गठन किया, जिसमें 14 टाना भगत इसके सदस्य थे। यह बोर्ड कल्याण विभाग के अधीन था। प्रत्येक महीने इसकी बैठक होने की बात कही गई थी, लेकिन चार-पांच महीने बाद ही बंद कर दी गई।
हालांकि बोर्ड के बंद हो जाने के बाद भी जमीन वापसी का सिलसिला जारी रहा। 1972 में भी इन्हें सरकारी जमीन दी गई। उस समय कुल 389 टाना भगतों को कुल 827.06 एकड़ जमीन सरकार से बंदोबस्त की गई। बंदोबस्त की गई जमीन ऐसी थी कि उसमें फसल भी नहीं होती। इसके लिए भूमि कर्षण विभाग से कृषि योग्य बनाने के लिए संपर्क किया गया था।
जमीन वापसी के संघर्ष का उनका लंबा इतिहास है। इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी और राहुल गांधी तक अपनी बात रख चुके हैं। फिर भी इनकी मांग पूरी नहीं हो पा रही है। एक समय टाना भगतों को न्याय दिलाने के लिए परमेशचंद्र सिंह ने अखिल भारतीय टाना विकास परिषद् नामक संस्था का गठन किया था। उन्होंने टाना भगतों को इंदिरा गांधी व राजीव गांधी से मिलवाया। परमेशचंद्र सिंह अपने नेतृत्व में 28 दिसंबर, 1983 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से कलकत्ता में हो रहे अखिल भारतीय कांग्रेस अधिवेशन में मिलवाया और अपनी बात सुनाई। प्रधानमंत्री ने इन्हें पूर्ण आश्वासन दिया। यही नहीं, उन्होंने इनके एक प्रतिनिधि को राज्यसभा में तथा प्रांतीय स्तर पर एक प्रतिनिधि को कौंसिल में भी मनोनीत करने का आश्वासन दिया। इसके बाद 3 जनवरी, 1984 को रांची के मेसरा में अखिल भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन के मौके पर भी परमेशचंद्र सिंह ने टाना भगतों को फिर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलवाया। पर, इसी साल अक्टूबर में उनकी हत्या कर दी गई और आश्वासन भी उन्हीें के साथ दफन हो गया। पर, टाना भगतों ने हिम्मत नहीं हारी। परमेशचंद्र सिंह ने फिर इन्हें प्रधानमंत्री राजीव गांधी से मिलवाया। यह दिसंबर 1985 की बात है। टाना भगतों ने राजीव गांधी को सम्मानित कर रस्म पगड़ी और मान पत्र भेंट किया। प्रधानमंत्री ने मार्च 1986 में इनकी नीलाम जमीन की वापसी के लिए बिहार के मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे को आदेश दिया। आदेश के बाद काफी लोगों को जमीनें मिलीं। पर सभी को नहीं। लंबे समय बाद आज फिर 48 टाना भगतों को हेमंत सोरेन ने जमीन का पट्टा दिया। हेमंत को पहल कर सभी टाना भगतों को उनकी जमीन दे देनी चाहिए। ये गांधी के सच्चे अनुयायी हैं और अहिंसक तरीके से आज भी ये लड़ रहे हैं।

                                                                     संजय कृष्ण

बांग्लादेश की आजादी में रांची के 26 सपूतों ने गंवाई थी अपनी जान


संजय कृष्ण, रांची
रांची का फिरायालाल चौक अब अल्बर्ट एक्का चौक कहा जाता है। अल्बर्ट उन शहीदों में शुमार हैं, जिन्होंने अपना बलिदान देकर बांग्लादेश को पूर्वी पाकिस्तान से आजाद कराया। अल्बर्ट को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। बांग्लादेश की आजादी में अल्बर्ट अकेले नहीं थे, रांची और आस-पास के करीब 26 जवानों ने अपनी जान की आहुति दी थी।
बंगलादेश की आजादी में भारत की बड़ी भूमिका रही। भारतीय सैनिकों की जांबाजी का ही यह नतीजा था कि पाकिस्तान की तानाशाह सैनिकों को समर्पण करना पड़ा। 14 दिन के घमासान युद्ध के बाद 1971 में 16 दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में पाकिस्तान के सपने जमींदोज हो गए। 7 जनवरी, 1972 को रांची के रोटरी हॉल में ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने पूरी कहानी बयां की। उनकी गाथा को तब 'आदिवासीÓ पत्रिका ने संपादित कर छापा था। एक अंश देखिए, 'भारतीय सेना का लौह शिकंजा कसने के साथ हमारे दिलेर एवं दक्ष हवाबाजों ने ढाका में ठीक निशाने पर पाकिस्तान गवर्नर डॉ. मल्लिक के सरकारी निवास-स्थान पर बम बरसाए। हमने ढाका एवं इस्लामाबाद में हुई बातचीत भी सुन लिया। जब तीसरी बार हमारे चतुर हवाबाजों ने बम की वर्षा की तो गवर्नर के होश फाख्ता हो गए तो उसकी सरकार ने इस्तीफा दे दिया और होटल इंटर कांटिनेेंटल में उसने शरण मांगी।Ó आगे बताया, 'हमारी पहली टुकड़ी ने ढाका छावनी के करीब पहुंचकर गोलाबारी शुरू की। उस समय उनके पास चार तोपें थीं, लेकिन पाकिस्तानियों का हौसला पस्त हो चुका था।Ó...  '15 दिसंबर को प्रात:काल पाकिस्तानी जनरल नियाजी ने संदेश भेजा कि वह युद्ध विराम चाहते हैं, हमने जवाब दिया कि युद्ध विराम नहीं। कल सवेरे 9 बजे तक आत्मसमर्पण करें।Ó हुआ भी यही। पाकिस्तान के पास अब कोई विकल्प नहीं था। रांची के जवानों की कहानियां यहीं तक नहीं है। पाकिस्तान फौज के दुर्जेय समझे जाने वाले गढ़ जैसोर को रांची स्थित 9 वीं पैदल डिवीजन ने मुक्त कराया था। बांग्लादेश आजाद हो गया तो अपने देश में भी जश्न का माहौल था। यह जश्न पत्र-पत्रिकाओं में झलका। नए साल का स्वागत आजादी के तराने के साथ शुरू हुआ। आदिवासी के उसी अंक में रोज टेटे ने खडिय़ा में अपनी भावनाएं व्यक्त कीं, जिसे हिंदी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया गया। रोज ने लिखा, जय मिली देश को, हार गया दुश्मन। जन्मा नया देश, नया सूर्य उदित हुआ, नए वर्ष में। रामकृष्ण प्रसाद 'उन्मनÓ ने उत्साहित होकर विजय गीत लिखा, 'लोकतंत्र की विजय हो गई, हार गई है तानाशाही, हम आगे बढ़ते जाते हैं, हर पग पर है विजय हमारी।Ó आचार्य शशिकर ने च्मुक्त कंठÓ से गाया, मुक्त कंठ, गाओ यह गान, धरा मुक्त है, मुक्त है आसमान। प्रो. रामचंद्र वर्मा 'विजय पर्वÓ का संदेश लेकर आए, 'वतन के सपूतों, खुशी अब मनाओ, विजय पर्व आया, विजय गीत गाओ। पराजित हुई शत्राु सेना समर में, फहरती हमारी ध्वजा अब गगन में। जहां में हमारा सुयश छा गया है, धवल कीर्ति को तुम अमर अब बनाओ।Ó
 देश में भी एक उत्साह था। सैनिकों ने देश का मस्तक ऊंंचा किया था। सैनिकों के प्रति देश नतमस्तक था। रांची में शहीद परिवारों को सहयोग देने के लिए होड़ लग गई थी। 26 शहीद परिवारों को पांच-पांच हजार की मुआवजा राशि तो दी ही गई। जमीन, नौकरी आदि का आश्वासन भी सरकार की ओर से दिया गया। 21 जनवरी को रांची के बारी पार्क में एक समारोह का आयोजन किया गया। इसमें 7 लाख, पांच हजार रुपयों का वितरण किया गया। बिहार के राज्यपाल देवकांत बरुआ ने शहीद परिवार वालों को ये रुपये दिए। परमवीर चक्र विजेता अल्बर्ट एक्का के परिवार को राच्यपाल ने अपनी ओर से 25 हजार रुपये देने की घोषणा की। उनके गांव में पांच एकड़ भूमि भी दी गई, जिसका पर्चा 21 जनवरी को ही राच्यपाल ने अल्बर्ट एक्का के पिता को दिया। उस समय श्रीमति डेविस ने श्रीमति एक्का के लिए डेड़ सौ रुपये मासिक की नौकरी की व्यवस्था की। कहा कि जब वे चाहेंगी, उन्हें यह सुविधा मुहैय्या करा दी जाएगी। यही नहीं, अल्बर्ट एक्का की स्मृति में वेलफेयर सिनेमा के पास स्थित सरकारी भवन का नाम भी अल्बर्ट एक्का के नाम पर किए जाने की सहमति बनी।
 रांची के तत्कालीन डीसी ईश्वर चंद्र कुमार ने भी शहीद परिवार वालों के लिए कई योजनाओं की घोषणा की। कुमार ने बताया कि  '12 शहीदों के परिवार वालों को नौकरी देने की बात तय हो गई है। तीन लोगों ने शिक्षक बनने की चाहना की है। जिला परिषद की ओर से उन्हें शिक्षक का पद दिया जाएगा। 4 व्यक्तियों ने एचइसी में नौकरी करने की इच्छा व्यक्त की है। उन्हें टाउन प्रशासकीय विभाग में नौकरी दिलाने के लिए एचइसी के अधिकारियों से मैंने बात कर ली है। 3 व्यक्तियों को पुलिस की नौकरी में बहाल कर दिया जाएगा। घर बनाने के लिए जो खर्च पड़ेगा उसके लिए मैंने रांची नगर पालिका के अध्यक्ष शिव नारायण जायसवाल से बातें कर ली है। वे खर्च अपने पास से देने को प्रस्तुत हैं।Ó
शहीद परिवारों की सहायता के लिए कई संगठन भी आए और आर्थिक सहायता दी। कुमार ने इसकी भी जानकारी दी, '5.51 लाख रुपये नागरिकों एवं ग्रामीणों द्वारा, 51हजार विजय मेले से आई राशि, 11 हजार विधवा कल्याण हेतु श्रीमती अरोड़ा को प्रेषित, 11 हजार श्री बागची द्वारा, 27,800 रोमन कैथोलिक द्वारा, 3,500 एक अन्य चर्च द्वारा, 2,500 छात्राओं द्वारा एकत्र श्रीमती मेरी लकड़ा के मार्फत से प्राप्त, 12,200 बीआइटी मेसरा, पांच हजार विकास विद्यालय, 7,500 एसपी रांची द्वारा आइजी को प्रेषित, 20,000 एजी द्वारा सेंट्रल आफिस को प्रेषित।Ó इस सभा में यह भी जानकारी दी गई कि श्रीमती डेविस के अमेरीकी परिचित व्यक्ति को जब ज्ञात हुआ कि वे राष्टीय सुरक्षा कोष के लिए धन एकत्रित कर रही है तो भूतपूर्व अमेरिकी सिनेटर श्री डॉन हेवार्ड ने 40 डॉलर की सहायता श्रीमती डेविस के पास भेजी। इसके अतिरिक्त श्रीराम ग्रुप द्वारा 20 लाख रुपये तथा एसीसी ग्रुप द्वारा सात लाख रुपये का दान दिया गया।Ó डा. डेविस कांके मन:चिकित्सा केंद्र के निदेशक थे। बाद में वहीं पर उन्होंने अपना अलग अस्पताल खोल लिया था।

पंद्रह पंक्तियों की कथा पर लिख डाला उपन्यास

 
संजय कृष्ण, रांची
दशमफॉल और उसके आस-पास के जंगलों में छैला संदु की कहानी आज भी विचरती है। छैला संदु नाम का कोई प्रेमी था या नहीं। या फिर यह मिथक है? यह सब किसी को पता नहीं। पर, सैकड़ों सालों से लोग इस कथा को सुनते आ रहे हैं। कहानी भी बहुत लंबी नहीं।
खंूटी के कथाकार मंगल सिंह मुंडा जब इस मिथक को पकड़ सच की तलाश में निकले तो बूढ़े-बजुर्गों ने महज 15 पंक्तियों की कथा सुनाई। पहले तो अचरज से पूछा, कहां से आए हो, क्या काम है, क्यों सुनना चाहते हो? जब मुंडा ने बात बताई और कहा कि हम आपके ही बच्चे हैं। मुंडा हैं, तब लोगों ने विश्वास किया। एक सप्ताह तक जंगलों की खाक छानने के बाद मंगल सिंह ने इस कथा को आगे बढ़ाने की सोची। इसके बाद इस उपन्यास को पूरा किया। छैला संदु के बहाने आदिवासी जीवन के संघर्ष, उनके शोषण और संस्कृति को भी पिरोने का काम किया। पूरा हो गया तो छपाई की समस्या। मंगल कहते हैं, उस समय (1996) कोलकाता में नौकरी करता था। वहां पुस्तक मेला लगा था। मेले में राजकमल प्रकाशन का स्टाल था और उसके मालिक अशोक माहेश्वरी आए थे। उनसे किसी तरह बात हुई। पांडुलिपि को भेजने के लिए कहा। दिल्ली भेज दिया। उन्होंने तो विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई आदिवासी लिख भी सकता है। उन्होंने रांची के एक पत्रकार को पांडुलिपि पढऩे के लिए भेजी। यहां से ओके होने के बाद फिर छपने की प्रक्रिया शुरू हुई। 2004 में पुस्तक छपकर आ गई और लोगों ने इसका खूब स्वागत किया। हर साल पुस्तक की रायल्टी मिलती है।
1945 में खूंटी के रंगरोंग गांव में जन्मे मंगल सिंह मुंडा ने काफी संघर्ष किया है। पिता राम मुंडा कवि और शिक्षक थे। समाज सुधारक भी थे। पर मां-बाप का प्यार नसीब नहीं हो सका। बचपन में ही मां-बाप चल बसे। चाचा ने पढ़ाया। एसएस हाई स्कूल खंूटी से पढ़ाई की। इसके बाद नदिया हायर सेकेंडरी स्कूल, लोहरदगा से मैट्रिक किया। चाइबासा के टाटा कालेज में प्रवेश लिया और पढ़ाई शुरू की। तभी रेलवे में नौकरी लग गई। पढ़ाई छोड़कर नौकरी करने लगा। पढऩे की फिर ललक उठी। इसके बाद पत्राचार से बीए किया। छात्र जीवन से ही लिखना शुरू कर दिया था। नौकरी के समय भी लिखता। कलकत्ते में डा. श्रीनिवास शर्मा थे। वे पत्रिका निकालते थे। उन्होंने लिखने की प्रेरणा दी। खूब प्रोत्साहित किया। इसके बाद तो लिखने लगा। पहली रचना वैसे रांची से निकलने वाली पत्रिका आदिवासी में 1982 में छपी। इसके बाद शुभ तारिका अंबाला में भी रचना छपी। पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं छपने लगीं।
महुआ का फूल कहानी संग्रह दिल्ली से छपकर 1998 में आया। इसके बाद रांची झरोखा से 'कामिनालाÓ  मुंडारी-हिंदी में आया। कामिनाला का मतलब होता है काम की खोज। झरोखा से ही दुरंग को कोरे आद जाना? आया। अर्थ है गीत कहां खो गए। यह भी दोनों भाषाओं में हे। दो रचनाएं डायन और कॉलेज गेट प्रकाशित होने वाले हैं। डायन हिंदी में उपन्यास है और दूसरा नाटक।
2005 में रेलवे से अवकाश लेने वाले मंगल सिंह आज भी लिख रहे हैं। पर, हिंदी के कथित मुख्यधारा के रचनाकारों ने नोटिस नहीं लिया। उन लोगों ने भी नहीं, जो खुद को आदिवासियों का प्रवक्ता के तौर पर पेश करते हैं। रांची में ही गैरआदिवासी और हिंदी में प्रतिष्ठित लेखक और आलोचक हैं। लेकिन ये लोग खुद को स्थापित और दूसरे को विस्थापित करने में लगे हैं। पर आदिवासी साहित्य और आदिवासी लेखकों की ओर भूल से भी नजर नहीं डालते। जबकि आदिवासी पत्रिका के पुराने अंकों को पलटिए तो सैकड़ों आदिवासी रचनाकारों की सूची मिल जाएगी। लेकिन आज हम उन रचनाकारों को नहीं जानते। साहित्य में तो दलित विमर्श ने अपना एक मुकाम पा लिया। आदिवासी साहित्य को उसका प्राप्य कब मिलेगा? जबकि आदिवासी साहित्य का इतिहास भी सौ साल से कम नहीं। इस बात का कोफ्त मंगल सिंह मुंडा को भी है।    

बड़े उर्दू अदब नवाज थे समीउल्लाह शफक

हुसैन कच्‍छी

हुसैन कच्छी :  शहर के अतीत इसकी तहजीब की बात हो रही है तो इस वक्त मुझे एक बेहद दिलचस्प शख्सियत समीउल्लाह शफक की याद आ रही है। कुछ साल पहले तक वो हमारे दरम्यान थे। उनको जानने वाले मानेंगे कि उनके चले जाने से एक तहजीब रुखसत हो गई। रांची के मेन रोड पर अंजुमन प्लाजा के बाहरी हिस्से में 'सबरंग बुक्सÓ नाम की एक गुमटी होती थी। अभी भी है, लेकिन अब वहां अला-बला चीजें मिलती हैं। समी साहब के जमाने में यह गुमटी उर्दू नवाजों में ऐसी मशहूरो मकबूल थी जैसे बड़े-बड़े मॉल्स होते हैं। समी साहब इसके मालिक थे जिनकी जिंदगी उर्दू अदब की खिदमत के लिए वक्फ थी, वो किसी खजाने के मालिक नहीं थे, इसके बावजूद सबरंग में उर्दू के आशिकों के लिए बड़ा जखीरा रखते थे। उन दिनों मुल्क भर के जाने माने अखबार, पत्रिकाएं बच्चों के लिए कहानी की किताबें, औरतों के मैगजीन, शेरो-शायरी के संग्रह, नॉवेल, पॉकेट बुक्स के अलावा पढऩे के शौकीनों की फरमाइश पर कोई उम्दा किताब वगैरह वो मंगवाते रहते। उनके दम से सबरंग बुक्स शहर के उर्दू वालों के मिलने-मिलाने की जगह थी। अदीब, शायर, प्रोफेसर, सहाफी और उर्दू के स्टूडेंट्स इस गुमटी को एक दूसरे तक पैगाम रसानी के लिए इस्तेमाल करते और समी साहब उनके पैगाम रसां बनते। ये खिदमत उन्होंने तीस-चालीस साल निभाई, निहायत मासूमियत से। वो जब तक जिंदा रहे न खुद बदले न उनकी गुमटी बदली न उनकी तर्जे जिंदगी में तब्दीली आई। बस इस चाहत के साथ जीते रहे कि उर्दू पढ़ी जाए, उर्दू लिखी जाए, उर्दू बोली जाए। उनके रोजाना के विजिटर्स में ऐसे लोग भी होते थे जो कुछ खरीदते नहीं थे, घंटों सबरंग पर खड़े-खड़े दो तीन अखबार चाट जाते, रिसालों को पढ़ डालते। इस दरम्यान समी साहब कुल्हड़ वाली चाय पिला देते, किसी-किसी को सिगरेट का कश लगवा देते। कुछ तो ऐसे भी होते जो उनसे किताब और रिसाले लेकर घर ले जाते और फिर मुफ्त में पढ़कर उन्हें वापस लौटा देते। ऐसे में समी साहब का न चेहरा बदलता न कोई उनसे यह जानने की जहमत उठाता के समी साहब ये सबआप कैसे कर लेते हैं। वो किसी से शिकायत भी तो नहीं करते थे ना। यह सब दिल की बात है। समी साहब शायर थे, हुलिया ऐसा था कि कोई भी उन्हें देखकर बता सकता था कि वो शायर हैं। उनकी शायराना अजमत पर बेहतर राय कोई बड़ा नक्काद दे सकता है। लेकिन मेरे नजदीक उर्दू के खिदमतगारों में वो एक बुलंद दर्जे के मालिक थे। सिर्फ मुशायरे की भनक मिलते ही उनकी बॉडी लैंग्वेज में जो तब्दीली आ जाती थी वो देखने और महसूस करने लायक होती। मुशायरे वाले दिन का तो खैर कहना ही क्या, शहर का कोई भी शायर इतने शानदार और रिवायती अंदाज से स्टेज पर जलवा अफरोज नहीं होता था। जितनी खुशी समी साहब के रुख पर होती थी साफ-सुथरा कुर्ता पाजामा ऊपर से शेरवानी, साथ में छोटी सी पान की डिबिया और उंगलियों के दरम्यान सिगरेट, गाव तकिए से लगे बैठे हैं और सामने एक चमड़े के थैले में अपनी शायरी का दीवान। इधर उनके नाम का एलान हुआ उधर, मुशायरा सुनने आए लोगों के चेहरे खिल उठे, एक हलचल सी मची और महफिल गुलजार हो गई। समी साहब इसके बाद माइक के सामने खड़े हो जाते, अपना कलाम सुनाने लगते। ज्यादातर मेहमान शायरों की तरफ मुखातिब होकर कलाम सुनाते, ऐसे में यूं महसूस होता कि वो एक दूसरी दुनिया में पहुंंच चुके हैं और समझ रहे हैं कि मजमा उनके कलाम में डूब चुका है। इतना लहक-लहक कर शेर पढ़ते कि उनपर प्यार आ जाता था। बाद में उनसे मुलाकात होती तो पूछिए मत, वो उसी कैफियत में शराबोर नजर आते। इतने सादा दिल अदब नवाज की याद में कोई शाम आयोजित की जानी चाहिए। अंजुमन इसलामिया के साये में इतने साल गुजारने के बाद उनका हक बनता है कि खुद अंजुमन इसका एहतेमाम करे।

हुसैन कच्‍छी हरफन मौला इंसान हैं।  कुछ दिनों तक राजनीति में भी सक्रिय रहे। चुनाव भी लड़े। अब संस्कृतिकर्मी। लिखना-पढऩा और अड्डेबाजी शगल।  रांची में निवास पर परिवार पाकिस्‍तान में।

14 साल में लिखा छउ नृत्य पर ग्रंथ


संजय कृष्ण :  बदरी प्रसाद हिंदी के प्राध्यापक रहे। रांची विवि से 2004 में अवकाश लिया, लेकिन काम 1991 से ही शुरू कर दिया था। छउ के प्रति रुचि के सवाल पर बदरी प्रसाद कहते हैं कि रांची विवि ने परीक्षा के दौरान 1990 में सुपरिटेंडेंट बनाकर सरायकेला भेज दिया था। परीक्षा वगैरह खत्म हो गई लोगों ने इस नृत्य के बारे में बताया। पहले तो कहा, क्या ये सब होता है? फिर चपरासी से पूछा तो उसने बताया और नृत्य गुरु केदारनाथ साहु से मिलवा भी दिया। कागज-कलम लेकर उनके पास गए। एक शरतचंद्र रथ थे, जो कोर्ट में डीड लिखने का काम करते थे। उनके साथ गया और कुछ जानकारी मिली। इसके बाद रांची आ गया। फिर 1991 में जाने का मौका मिला। इसके बाद तो आना-जाना लगा रहा और नृत्य के प्रति रुचि बढ़ती ही गई। रुचि ने भूख को बढ़ा दिया। अब तो उसके बारे में मन बना लिया जानने का। छउ नृत्य के कलाकार वैसे तो किसान या अन्य काम करते थे। कभी कटनी तो कभी गाय-भैंस चराते। बताने वाला परेशान हो जाता। एक बार एक कलाकार से मिला तो कहा, अभी तो गाय चराने जा रहा हूं। आने पर बात करेंगे? हमने कहा, हम भी चलते हैं। इस तरह ऐसे जमीनी कलाकारों के साथ जाता, नृत्य की बारीकियों को समझता। इसके बाद फिर तीन-चार लोगों से क्रास करता। पूरी तरह संतुष्ट हो जाने के बाद फिर शास्त्रों को खंगालता। फुटनोट से जानकारी लेता। भरत नाट्यम, ओडिसी आदि नृत्य को भी समझता और तुलनात्मक अध्ययन करता। भरत का नाट्य शास्त्र, नंदीकेश्वर का नृत्य देखा। भरत ने अपने ग्रंथ में 104 नृत्य कर्म की चर्चा की है। 
छउ मूक नृत्य है। इसमें कोई संवाद नहीं। पर भावनाएं झलकती हैं। प्रेम, विरह, करुणा सब कुछ। हर छोटी-बड़ी जानकारी गांव-गांव जाकर लिया। रात-रातभर जागकर नृत्य देखा। पद संचालन से लेकर हस्ताभिनय आदि को देखा-परखा-समझा। छउ की तीन शैलियां है। पुरुलिया, पं बंगाल, मयूरभंज ओडि़सा और सरायकेला झारखंड। सरायकेला ही इसका जन्म स्थान है। यहीं से यह फैला। पुरुलिया ने अपने प्रयोग किए। इसलिए तीनों अलग-अलग नाम से जाने गए। तीनों प्रदेशों की खाक छानी। पुरुलिया में चड़ीदा जगह है, वहां ही इसका केंद्र है। यहां 84 घर उन लोगों के हैं, जो नृत्य में उपयोग होने वाले मुखौटे बनाते हैं। इनकी पूरी आजीविका इसी से चलती है। इसी तरह सरायकेला में भी।
छउ आज भी लोकनृत्य ही है। इसे गांधी ने देखा। टैगोर ने देखा। इन सबकी दुर्लभ तस्वीर ग्रंथ में है। वे कहते हैं, लोक महासागर है, जो चीजें यहां हैं, जो रत्न यहां हैं, अन्यत्र नहीं मिलेंगे। वे इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि उनका परिश्रम सफल रहा। पर, इस बात से थोड़ा परेशान भी दिखे कि पुस्तक की पांडुलिपि 20 फरवरी, 2003 को ही अकादमी को भेज दिया था लेकिन छपत-छपते दस साल लग गए। कुछ महीने पहले यह छपकर आई है। इस बात का जरूर कोफ्त है कि डा. सिद्धनाथ कुमार जी व डा. दिनेश्वर प्रसाद जी इस कृति को नहीं देख सके। बहरहाल, वे इसका अंग्रेजी में भी खुद ही अनुवाद कर चुके हैं। पांडुलिपि तैयार हो गई है। उसे भी संगीत नाटक अकादमी को भेजने की तैयारी कर चुके हैं। वैसे, नागपुरी व छत्तीसगढ़ी भाषा के तुलनात्मक अध्ययन की पांडुलिपि भी तैयार है। 

चौदह साल के अथक परिश्रम, अनवरत शोध और सैकड़ों लोगों से बातचीत के बाद बदरी प्रसाद की दो खंडों में 'भारतीय छउ नृत्य : इतिहास, संस्कृति और कलाÓ का प्रकाशन संगीत नाटक अकादमी ने किया है। अब तक किसी लोक नृत्य पर यह अद्भुत काम है। लोक ही नहीं, संभवत: शास्त्रीय नृत्य पर ऐसा काम किसी का नहीं देखने को मिला है। सैकड़ों दुर्लभ चित्रों से सजी यह पुस्तक उनके जुनून और कुछ बेहतर करने का प्रतिफल है। खुद इसके लेखन में वे एक लाख रुपये अपना खर्च कर चुके हैं।

1917 में पहली बार टाना भगत से मिले गांधी


'गांधी बाबास बड़ा लीला धारेस/ चरेखा ले ले मेरे ओजदस/ अंग्रेज सरकार बड़ा पापी रहचा/ गांधी बाबासीन कैदी नंजा/ कैदी नंजा बरा लाबागे लागिया/ मं गांधीस अंग्रेजन खेचस चिचस...।
यानी, महात्मा गांधी बहुत लीला वाले महापुरुष थे। वे चरखा द्वारा सूत काते थे। अंगरेज बहुत आततायी थे। गांधी बाबा को कैद कर लिया था और मारना चाहा था, परंतु अंत में अंगरेज को भागना पड़ा।
गांधी दुनिया के लिए महान पुरुष होंगे पर झारखंड के लिए वे भगवान हैं। टाना भगत उन्हें भगवान मानते हैं और तिरंगे को भी। 
1917 की घटना है, जब टाना भगत  गांधीजी से मिले। गांधीजी से ये इतने प्रभावित हुए कि पूरा ताना-बाना ही इनका बदल गया।  1922 के गया कांग्रेस में करीब तीन सौ टाना भगतों ने भाग लिया। ये रांची से पैदल चलकर गया पहुंचे थे।
 चार साल बाद, पांच अक्टूबर, 1926 को रांची में राजेंद्र बाबू के नेतृत्व में आर्य समाज मंदिर में खादी की प्रदर्शनी लगी थी तो टाना भगतों ने इसमें भी भाग लिया। 1934 में महात्मा गांधी
मोहनदास करमचंद गांधी रांची में पहली बार 920 में आए थे। असहयोग आंदोलन के सवाल पर वे देश का दौरा कर रहे थे, उसी क्रम में रांची भी आए। इसी साल रांची में जिला कांग्रेस कमेटी का गठन किया गया। गांधीजी जब रांची आए तो यहां उनकी मुलाकात टाना भगतों से हुई। आदिवासियों की स्थिति को देखकर ही उन्होंने कई योजनाएं भी चलाईं। अपने गृह प्रदेश गुजरात में भी उन्होंने 1920 में आदिवासियों की स्थिति देखी थी। वहां पर भील सेवा मंडल की स्थापना की गई। यह देश की पहली संस्था थी, जो सिर्फ आदिवासियों के कल्याण, विकास और बेहतर जीवन निर्माण की दिशा में काम करने के लिए बनी थी। इसके बाद संयुक्त बिहार में 'आदिम जाति सेवा मंडलÓ का गठन रांची में किया गया। इसके बाद दर्जनों संस्थाएं विभिन्न प्रांतों में गठित की गईं। उन्होंने ठक्कर बापा को उत्साहित किया और उनके इशारे पर ठक्कर बापा के साथ सैकड़ों कार्यकर्ता गुजरात, बिहार, मध्यप्रदेश, उड़ीसा आदि स्थानों में, आदिवासियों की सेवा कार्य में जुट गए।
ठक्कर बापा का असली नाम अमृतलाल ठक्कर था। उन्होंने इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की थी और कुछ समय तक रेल विभाग में सहायक अभियंता रहने के बाद पांच साल तक वे पोरबंदर राज्य में मुख्य अभियंता रहे। वर्ष 1913 के अंत में उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। बाद में गांधी जी ने उन्हें वंचितों की सेवा में लगा दिया। उस समय उनकी आयु 44 साल थी। इसके बाद वे वंचितों, हरिजनों और आदिवासियों के लिए काम करते रहे।