रांची : आदिवासियों पर लिखे महाश्वेता देवी के उपन्यासों में सतही जानकारी मिलती है। ये बातें जेएनयू के प्रोफेसर डा. वीर भारत तलवार ने कही। वे सोमवार को विकास मैत्री में रोज केरकेट्टा के कहानी संग्रह पगहा जोरी-जोरी रे घाटो का विमोचन कर रहे थे। आदिवासी लेखन की चार प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए तलवार ने कहा कि पहली प्रवृत्ति उन लेखकों की है, जो ऊंचे ओहदे पर थे और उन लोगों ने आदिवासियों पर लिखीं, इनमें योगेंद्र नाथ सिन्हा प्रमुख हैं, जिन्होंने हो आदिवासी पर वनलक्ष्मी की रचना की, जो गलत और सवर्ण दृष्टि से लिखी गई है। दूसरे किस्म के वे लेखक हैं, जिन्होंने सतही जानकारी के आधार पर कहानियां या उपन्यास लिखे, इनमें महाश्वेता देवी प्रमुख हैं। तीसरे वे हैं, जो आदिवासी नहीं हैं, पर पूरी संवेदना के साथ लिखा। इनमें पुन्नी सिंह का नाम लिया जा सकता है। चौथे लेखक वे हैं, जो बहुत कम हैं, वह हैं आदिवासी लेखक। इनमें हरिराम मीणा और रोज केरकेट्टा को लिया सकता है। रोज ने अपने कथा संग्रह में आदिवासी जीवन को सघनता और संपूर्णता के साथ शामिल किया है। जो जिया है, उसे ही लिखा है। संग्रह में व्यापकता है, विविधता है, आधुनिकता है, और जो सबसे बड़ी बात है, वह है प्रतिरोध का राजनीतिक स्वर। तलवार ने साहित्य में चल रहे स्त्री विमर्श के अलग इस संग्रह का जिक्र करते हुए कहा कि कहानियां पुरुष के विरोध में नहीं, व्यवस्था के विरोध में खड़ी हैं। यहां अलग तरह का नारीवाद है। उन्होंने, जल, जंगल, जमीन को संदर्भित करते हुए भी कहानियों का पाठ प्रस्तुत किया। कार्यक्रम के प्रारंभ में रविभूषण ने रोज केरकेट्टा की कहानियां जनजातियों की कहानियां हैं, जिसमें स्त्री पात्र प्रमुख हैं। वर्तमान से अधिक अतीत पर बल है। इस मौके पर दिल्ली से आए सबलोग के संपादक किशन कालजयी ने भी कहानियों को प्रतिरोध की कहानियां बताई। मौके पर वाल्टर भेंगरा तरुण, माया प्रसाद, बीपी केशरी, रणेंद्र आदि ने भी कृति पर चर्चा की। कार्यक्रम का संचालन सुनील मिंज ने किया और धन्यवाद ज्ञापन श्रावणी ने किया। पुस्तक देशज प्रकाशन ने छापी है। मौके पर घनश्याम, डा. गिरिधारी राम गौंझू, केडी सिंह, महताब आलम, वंदना टेटे, शेखर, राहुल सिंह, मिथिलेश सहित शहर के जाने-माने रंगकर्मी, लेखक व साहित्यप्रेमी उपस्थित थे।
डा. दिनेश्वर प्रसाद : नए पथ के खोजी
संजय कृष्ण : डा. दिनेश्वर प्रसाद हिंदी जगत के लिए अपरिचित नहीं है। अपनी प्रतिबद्धता, विषयों की विविधता, सीमाओं में न बंधने की उनकी अपनी जिद, चुनौतियों को स्वीकार करने और आगे बढऩे का लगातार साहस और बिना किसी हो-हल्ला किए अपनी साधना में लीन। वे ऐसे एकनिष्ठ साधक हैं कि उनकी स्थापनाओं को कुछ देर के लिए ओझल किया जा सकता है, लेकिन अलक्षित नहीं। चाहे लोक साहित्य की बात हो, या प्रसाद की विचारधारा की, चाहे मुंडारी भाषा के जरिए सांस्कृतिक निरंतरता की खोज की, वह हर कसौटियों पर खरे उतरते हैं।
वे जटिल विषयों के अध्येता जरूर हंै लेकिन उनका व्यक्तित्व जटिल नहीं है। बहुत ही सहज, सरल और मिलनसार। न किसी प्रकार का अहं न कोई बनावटीपन। यह उनकी विशेषता नहीं, उनके व्यक्तित्व के सहज गुण हंै। जब रांची आया तो उनसे मिलने की इच्छा जगी। कहीं से फोन नंबर मिला। बात की और चल पड़ा उनके बताए पते पर। बिना दरस-परस के मन में जो उनकी छवि बनी थी वह पचास-पचपन के उम्र की थी। जब उन्होंने दरवाजा खोला और मैंने उन्हीं से पूछा कि दिनेश्वर प्रसाद जी हैं तो उनका जवाब था- मैं हूं। मैं चकित हुआ। मन की छवि टूट गई। यह भी बोध हुआ बिना देखे मन में जो छवि बनेगी, खंडित होगी। उन्नत ललाट, आंख पर चश्मा, कोमल स्वर, कुर्ता और लुंगी इसी वेश में मिले। घर पर वे इसी सहज वेश में रहते हैं। इसके बाद उनसे मिलने का सुअवसर मिलता रहता है-किसी न किसी बहाने। पास जब उनके होता हूं तो साहित्य जगत की पुरानी बातें सुनने को खूब मिलती हैं। अनुभव और स्मृतियों के पट को खोलते हैं तो बड़े अनमोल खजाने निकलते हैं। घंटों उनको सुनने के बाद भी मन रीता का रीता ही रहता है। एक अतृप्त प्यास।
दिनेश्वर प्रसाद माक्र्सवादी हैं, लेकिन रूढि़बद्ध नहीं हैं। इसीलिए उनके पसंदीदा कवि प्रसाद हैं।
वे अन्य माक्र्सवादियों की तरह प्रसाद से परहेज नहीं करते हैं। उनका जन्म ही उस काल में हुआ, जब साहित्य में अन्य छायावादी कवियों तरह की प्रसाद की कविताएं छायी हुई थीं। जाहिर है, यह दौर छायावाद का था। इस 'वादÓ के वातावरण में दिनेश्वर बाबू प्रसाद की छाया से कैसे बच सकते थे! जैसे-जैसे उनकी कविताओं को पढ़ते गए, वैसे-वैसे उनके आकर्षण में बंधते गए। इसके पीछे इस कारण को भी तलाशा जा सकता है जिसे कभी आइ ए रिचर्ड ने कहा था, सच्ची कविता अपने अर्थ का बोध बाद में कराती है, अपने सौंदर्य विशिष्ट लय विधान के कारण सबसे पहले अर्थ का बोध कराने से पहले ही संप्रेषित हो जाती है। कहना न होगा कि प्रसाद इस उक्ति की कसौटी पर खरे उतरते हैं। संभव है प्रसाद की भाषा और सांगितिकता का सम्मोहन ही दिनेश्वर बाबू को उधर ले गई हो? उल्लेखनीय है कि मैट्रिक पास करने के पूर्व ही प्रसाद साहित्य को वे कई बार पढ़ चुके थे। उनका कहना है कि, बाद में जब बौद्धिक विश्लेषण के स्तर पर उसे समझने का प्रयत्न किया तो धीरे-धीरे इस प्रसंग में मेरी एक दृष्टि बनती गई और यह कहते हुए मुझे कोई संकोच नहीं कि वह दृष्टि अन्य आलोचकों से बहुत भिन्न होती गई। और, इसी दृष्टिभिन्नता के कारण उन्होंने प्रसाद पर काम किया और हिंदी जगत को 'प्रसाद की विचारधाराÓ नामक पुस्तक दी।
वस्तुत: इस पुस्तक को लिखने के पीछे यह भी उद्देश्य हो सकता है कि प्रसाद की स्थापनाएं नितांत मौलिक हैं, लेकिन उन्हें उतना महत्व नहीं दिया गया, जिसकेवे हकदार थे। उन्हें प्रगतिविरोधी सिद्ध करने की हर संभव कोशिश की गई, लेकिन सत्य को बहुत दिनों तक ओझल नहीं किया जा सकता है। वह देर-सबेर अपना प्राप्य लेकर ही रहता है। दिनेश्वर बाबू ने अपनी उस कृति में उन पक्षों पर ध्यान दिया, जिसे प्राय: आलोचकों ने लक्षित नहीं किया या जानबूझकर उपेक्षित छोड़ दिया। पर हमें यह ध्यान देना चाहिए कि किसी भी कृति का असली मूल्यांकन आलोचक नहीं, 'समयÓ करता है। और समय ही, ऐसे आलोचकों को पैदा करता है, जो हाशिए की आवाज बनकर उभरते हैं या उपेक्षितों के समाजशास्त्र पर काम करते हैं। कबीर से लेकर निराला, मुक्तिबोध और धूमिल तक अपने समय में उतना ख्यात नहीं हुए, जितना अपना दैहिक अस्तित्व के न रहने पर। प्रसाद भी उसी कड़ी में थे। ऐसे कवि के महत्व को इतने आसान तरीके से नहीं खारिज किया जा सकता है। मुक्तिबोध ने भले ही वैचारिक स्तर कामायनी की कटु आलोचना की हो, लेकिन उससे उसका महत्व कम नहीं हो सका। आज भी वह उतना ही लोकप्रिय है। अब तो वह हिंदी की क्लासिक रचना का दर्जा भी पा चुकी है। और, यह ऐसी रचना है, जिसे पाठक बार-बार पढ़ता है, पढऩा चाहता है और हर बार उसे नए भाव-बोध और अर्थ-बोध का दर्शन होता है। दिनेश्वर बाबू ने ऐसे ही पक्षों को उठाया, उनके वैशिष्टï्य को रेखांकित किया।
उनका दूसरा काम लोक साहित्य पर है। हिंदी में लोक साहित्य पर अब भी बहुत कम काम हुआ हैै। पहले तो इसकी घोर उपेक्षा की गई, लेकिन जैसे-जैसे पश्चिम ने अपने लोक के महत्व, उसकी ऐतिहासिक अन्विति और बहुआयामी भूमिका पर प्रकाश डाला, अपने हिंदी के लेखकों ने भी उधर ध्यान देना उचित समझा। हम तो सदैव पश्चिम के मुखापेक्षी रहे हैं। जब तक वहां से कोई नया विचार न आए, अपना विचार हीन लगता हैै। दिनेश्वर प्रसाद इस विचारधारा के कायल नहीं हैं। वे पश्चिम से प्रभाव जरूर ग्रहण करते हैं, लेकिन वे भारतीय भूमिका के सूत्र तलाशते हैं।
उन्होंने लोक के ऐसे ही पक्षों पर हमारा ध्यान आकर्षित किया, जो अमूमन हमारी पकड़ से बाहर थे या उस तरफ हमने ध्यान नहीं दिया। वह पक्ष था-लोक साहित्य की सैंद्धातिकी। भारतीय भाषाओं में लोक साहित्य बिखरा पड़ा हैै। 1857 की क्रांति के अनेक नायकों को इतिहास से पहले लोक ने जगह दी। झांसी की रानी की अमर कहानी को सुभद्रा कुमारी चौहान से पहले बुंदेलखंडी समाज ने अपने लोक में स्थान दे दिया।
बाबू कुंअर सिंह भी इतिहास से पहले भोजपुर के इलाके में गीतों में सुरक्षित हो चुके थे। उनकी साहस की कथा अब भी उस इलाके में गाई जाती है। यानी, ये नायक इतिहास के पन्नों पर दर्ज होने से पहले लोककंठों में अपना स्थान सुरक्षित कर चुके थे। और, ऐसे लोकगीत इतिहास की दृष्टि से बड़ा अर्थवान साबित होते हैं। यह पुरानी परिपाटी है। ऋग्वेद के जितने सूक्त हैं, वे पहले कंठ में ही विराजमान थे। कबीर के सबद बनारस से लेकर पंजाब तक गाए जाते थे। बाद में उनका किताबीकरण किया गया।
इसी तरह झारखंड में मुंडाओं का इतिहास उनके लोकगीतों में ही सुरक्षित था, जिसे कुमार सुरेश सिंह ने इन गीतों के आधार पर उनका इतिहास ही लिख डाला। इस ऐतिहासिक काम के लिए उन्हें मुंडारी सीखनी पड़ी। यानी, धीरे-धीरे लोक साहित्य के महत्व की स्वीकार्यता बढ़ी और उसका महत्व बढ़ता गया। जैसा कि उसे गंवारू मानने की प्रवृत्ति थी, यह धारणा धीरे-धीरे निर्मूल होने लगी। इसके महत्व को दर्शाने के लिए ही दिनेश्वरजी ने उसके सैद्धांतिक पक्ष को पकड़ा और उसके विभिन्न आयामों पर प्रकाश डाला। यह ध्यान रखना चाहिए कि लोक साहित्य के सभी स्वरों को तभी समझा जा सकता है, जब हम सामाजिक जीवन, संस्कृति और रचनात्मक मानकों की एकत्र पृष्ठभूमि में कार्य करें। 'लोक साहित्य एवं संस्कृतिÓ उनकी ऐसी ही किताब है, जो लोक साहित्य के सैद्धांतिक प्रश्नों से जूझती है। यह कृति इतनी महत्वपूर्ण है कि इसके कारण ही उनकी एक पहचान बनी। 1973 में प्रकाशित इस किताब की मांग अब भी बनी हुई है और उसके संस्करण रह-रह कर निकलते रहते हैं।
छात्र जीवन से ही मेधावी दिनेश्वर प्रसादजी ने एमए पास करने के बाद दो सालों तक पटना विवि में पढ़ाया। यहां उन्होंने अपने ज्ञान का विस्तार किया। प्रेमाख्यान पढ़ाने के क्रम में 'इनसाइक्लोपीडिया आफ इस्लामÓ, 'कुरआनÓ, 'गुलशन-ए-राजÓ, 'रूमीÓ, और 'हाफिजÓ, की मसनवियों का अंगरेजी अनुवाद, सर इकबाल का 'सिक्रेट आफ द सेल्फÓ आदि ढेर सारे गं्रथों का अध्ययन किया। इससे उन्हें दूसरे धर्मांे की बारीकियों को समझने में मदद मिली। इसके साथ ही उन्होंने कश्मीरी शैव दर्शन, शंकराचार्य, वैदिक साहित्य का भी अध्ययन किया। इससे उनके दृष्टिकोण में एक लोच आया। ïचीजों को देखने की उनकी एकांगी दृष्टिï जाती रही। एक तरह से खुद का आत्मविस्तार करते रहे।
रांची विवि में 36 वर्षों तक अध्यापन करने के बाद यहीं से अवकाश लिया। यहां आने के बाद अपने
कार्यकाल के दौरान एक और महत्वपूर्ण कार्य किया-जनजातीय भाषाओं को लेकर। झारखंड मानव विज्ञान के अध्ययन की दृष्टि से बड़ा अनुकूल जगह है। यहां कई प्राचीन जनजातियों से लेकर हाल-हाल तक की जातियां मिलती हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रांची ही नहीं पूरा झारखंड एक चलता-फिरता संग्रहालय है। अध्ययन और लेखन के लिहाज से अब भी बहुत संभावनाशील राज्य है। मानव विज्ञान की दृष्टिï से तो कई अजूबों को समेटे है। इस तरफ काफी काम किया, शरतचंद्र राय ने। वे यहां एक वकील थे, लेकिन वे बहुत बड़े मानव विज्ञानी भी थे। उनके पास अपनी निजी लाइब्रेरी थी और मानव विज्ञान और संस्कृति पर 1880 से अब तक जितनी पुस्तकें प्रकाशित थीं, वे सारी पुस्तकें उनकी लाइब्रेरी में मौजूद थीं। इस रिच लाइब्रेरी का लाभ दिनेश्वर बाबू को भी मिला। वहां उपलब्ध पुस्तकों के अध्ययन से एक खास दृष्टि बनी। जनजातीय समाज को लेकर एक समझ पैदा हुई। ऐसी समझ जिसने पूर्व की धारणाओंको खंडित किया। पूर्वग्रह से मुक्त किया। पश्चिम ने कई स्थापनाएं ऐसी दे रखी हैं, जो भारत के संदर्भ में लागू होती ही नहीं है, लेकिन हमारे देश के तथाकथित विद्वान उनकी स्थापनाओं को हूबहू यहां पर लागू करने का बेमतलब प्रयास करते हैं। पश्चिम की यह अंधभक्ति का ही परिणाम है कि अभी तक हम 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहने से हिचकते हैं। इसी तरह की धारणा आदिवासियों को लेकर रही है। आदिवासी बनाम गैरआदिवासियों में भेद करने की दृष्टिï या विचार पश्चिम से आया। लेकिन यह भारत के संदर्भ में बेबुनियाद है। भाषाई दृष्टिï से देखें तो आदिवासी और गैरआदिवासी हजारों साल से साथ रहते आए हैं। भाषाओं के आदान-प्रदान से यह बात समझ में आती है। संस्कृति की दृष्टिï से भी यह महत्वपूर्ण है। यहां दोनों संस्कृतियां समानांतर रूप में नहीं बल्कि एक दूसरे से सामंजस्य निरूपित करती हुई देखी जा सकती हैं। इस दृष्टि से उनकी 'मुंडारी शब्दावली: अखिल भारतीय संदर्भÓ देखने योग्य पुस्तक है। पुस्तक की स्थापना ने पूर्व प्रचलित स्थापनाओं को खंडित किया। मसलन यह कि गैरआदिवासी और आदिवासी संस्कृतियों में सन्निकटता व अंतरावलंबन भारतीय जीवन का एक बड़ा यथार्थ है। लेकिन इस यथार्थ को देखने वाली आंखें चाहिए। ऐसी आंखें, जो खुली हों, पूर्वाग्रह से मुक्त हों, निद्र्वंद्व हों।
दिनेश्वर बाबू की यह कृति पूर्व प्रचलित अवधारणा कि आदिवासी और गैरआदिवासी अलग-अगल समुदाय हैं, का पुरजोर खंडन करती है। कृति आस्ट्रिक (आग्नेय) परिवार की एक महत्वपूर्ण भाषा मुंडारी की शब्दावली के अखिल भारतीय भाषिक-सांस्कृतिक प्रसंगों एवं अभिप्रायों का विश्लेषण करते हुए यह स्पष्टï करती है कि हमारे जनजातीय और गैरजनजातीय समुदायों के बहुप्रचारित पार्थक्य की अवधारणा बिल्कुल निराधार और अतार्किक है। उन्होंने इसके लिए भाषा को माध्यम बनाया। उन्होंने बताया है कि 'मुंडारी में अनेक ऐसे शब्द मिलते हैं, जिनके रूप को, परिवर्तन के बावजूद, संस्कृत में पहचाना जा सकता है। मुुंडारी में ऐसे कई शब्दों का अस्तित्व निश्चय ही प्राचीन है। ऐसे कुछ शब्द हैं अंद मनोआ(अंध मानव), अंगोर(अंगार), कंता(कंधा), चन्दि(छंद), दिसुम(देशम्), दुखम्-सुखम्(दु:खम्-सुखम्), सिसिर (शिशिर) आदि।Ó ध्वनियों, उच्चारणों की दृष्टि से भी इस कृति में विचार किया गया है और पूर्व की अतार्किक स्थापनाओं को निर्मूल किया गया है।
आदिवासी और गैरआदिवासी का जो विभाजन किया गया, वह किसी तर्र्क की परिणति नहीं, राजनीति से निकला सिद्धांत है। वे जातियां जो विभाजन का बीज बोती हैं, उन्हें झारखंड में पहचानना आसान है। कुछ बुद्धिजीवी हमेशा यही राग ही अलापते हैं। कुछ तो ऐसे अतिरेकी हुए कि सदानों को ही बाहरी करार दिया। लेकिन ऐसी स्थापनाओं को डा. वीपी केशरी ने खारिज कर दिया। दिनेश्वर बाबू ने भाषा को आधार बना कर उनकी प्राचीनता और सहअस्तित्व को रेखांकित किया।
दिनेश्वरबाबू 'हॉफ़मैन से प्रभावित हैं। 'हॉफ़मैन ऑन मुंडारी पोएट्रीÓ पर काम भी किया। हॉफ़मैन की इस पुस्तक की विशेषता यह है कि यह लोक साहित्य के अध्ययन की एक नई दिशा का संकेत करती है। अब तक लोक कविता में अंतरभुक्त प्रतिमानों का संधान बहुत कम हुआ है। हॉफ़मैन पहले व्यक्ति हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि लोकगीत तथा लोक कविता के अपने प्रतिमान होते हैं और वे लिखित या शिष्टï कविता के प्रतिमानों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।
दिनेश्वर बाबू उन कार्यों से बचने का प्रयास करते रहे हैं जो दूसरे लोग करते हैं। यानी चुनौतियों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति और कुछ विशिष्ट की उपलब्धि के प्रति सक्रियता। उन विषयों पर अपनी नजरें गड़ाई, जिधर, लोग जल्दी देखना नहीं चाहते। जो लोग बनी-बनाई लीक या पंगडंडियों पर चलने के आदी हैं, उन्हें दिनेश्वर बाबू का कर्म जरूर असहज लगेगा, लेकिन साहसभरा। लेकिन जो लोग अपनी लीक खुद बनाते हैं, उन लोगों के लिए इनकी महत्ता निर्विवाद है। कहने का आशय यही है कि ज्ञान के क्षेत्र मेंजो छूटे हुए हाशिए हैं, उनके प्रति उनका अनुराग प्रकृतिगत हैै, स्वाभाविक है। नए पन की खोज उनकी प्रवृत्ति रही हैै।
इस प्रवृत्ति ने ही उन्हें फादर कामिल बुल्के का सानिध्य दिलवाया। उनके साथ बाइबल के हिंदी अनुवाद का कार्य किया। उनके जीवन काल में ही कभी उनके अनुवाद के परामर्शदाता तो कभी सह अनुवादक की भूमिका में कार्य किया। फादर कामिल बुल्के के निधन के बाद बाइबल के बचे शेष प्रसंगों का स्वतंत्र रूप से अनुवाद किया। यह एक तरह से एक भिन्न धर्म को जानने और उससे भारत के अन्य धर्मावलंबियों को परिचित कराने का कार्य है तो दूसरी ओर नई सांस्कृतिक दुनियाएं हिंदी के पाठक को साक्षात्कार कराने का प्रयत्न भी है। जिस दुनियाओं को उसे जानना चाहिए, लेकिन वह नहीं जानता है।
दिनेश्वर बाबू ने एक और महत्वपूर्ण काम उनके साथ मिलकर किया, वह है अंग्रेजी-हिंदी कोश। इस कोश निर्माण में वे उनके सहयोगी रहे। इधर, उनके निधन के बाद इन्हीं की देख-रेख में उसका परिवद्र्धित संस्करण आया हैै। साहित्य अकादमी के लिए फादर कामिल बुल्के के ऊपर मोनाग्राफ भी लिखा। अनुवाद में इनकी दिलचस्पी शुरू से रही है। यही कारण है अनुवाद के लंबे अनुभव ने इन्हें अमेरिका के सबसे बड़े अंगरेजी कवि वाल्ट ह्विïटमैन की कविताओं का अनुवाद करने के लिए प्रेरित किया। कुछ अनुवादों के अंश विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं। अभी हाल मेंफादर कामिल बुल्क के निबंधों को संपादित करके 'एक ईसाई की आस्था: रामकथा और हिंदीÓ का प्रकाशन कराया।
वे जटिल विषयों के अध्येता जरूर हंै लेकिन उनका व्यक्तित्व जटिल नहीं है। बहुत ही सहज, सरल और मिलनसार। न किसी प्रकार का अहं न कोई बनावटीपन। यह उनकी विशेषता नहीं, उनके व्यक्तित्व के सहज गुण हंै। जब रांची आया तो उनसे मिलने की इच्छा जगी। कहीं से फोन नंबर मिला। बात की और चल पड़ा उनके बताए पते पर। बिना दरस-परस के मन में जो उनकी छवि बनी थी वह पचास-पचपन के उम्र की थी। जब उन्होंने दरवाजा खोला और मैंने उन्हीं से पूछा कि दिनेश्वर प्रसाद जी हैं तो उनका जवाब था- मैं हूं। मैं चकित हुआ। मन की छवि टूट गई। यह भी बोध हुआ बिना देखे मन में जो छवि बनेगी, खंडित होगी। उन्नत ललाट, आंख पर चश्मा, कोमल स्वर, कुर्ता और लुंगी इसी वेश में मिले। घर पर वे इसी सहज वेश में रहते हैं। इसके बाद उनसे मिलने का सुअवसर मिलता रहता है-किसी न किसी बहाने। पास जब उनके होता हूं तो साहित्य जगत की पुरानी बातें सुनने को खूब मिलती हैं। अनुभव और स्मृतियों के पट को खोलते हैं तो बड़े अनमोल खजाने निकलते हैं। घंटों उनको सुनने के बाद भी मन रीता का रीता ही रहता है। एक अतृप्त प्यास।
दिनेश्वर प्रसाद माक्र्सवादी हैं, लेकिन रूढि़बद्ध नहीं हैं। इसीलिए उनके पसंदीदा कवि प्रसाद हैं।
वे अन्य माक्र्सवादियों की तरह प्रसाद से परहेज नहीं करते हैं। उनका जन्म ही उस काल में हुआ, जब साहित्य में अन्य छायावादी कवियों तरह की प्रसाद की कविताएं छायी हुई थीं। जाहिर है, यह दौर छायावाद का था। इस 'वादÓ के वातावरण में दिनेश्वर बाबू प्रसाद की छाया से कैसे बच सकते थे! जैसे-जैसे उनकी कविताओं को पढ़ते गए, वैसे-वैसे उनके आकर्षण में बंधते गए। इसके पीछे इस कारण को भी तलाशा जा सकता है जिसे कभी आइ ए रिचर्ड ने कहा था, सच्ची कविता अपने अर्थ का बोध बाद में कराती है, अपने सौंदर्य विशिष्ट लय विधान के कारण सबसे पहले अर्थ का बोध कराने से पहले ही संप्रेषित हो जाती है। कहना न होगा कि प्रसाद इस उक्ति की कसौटी पर खरे उतरते हैं। संभव है प्रसाद की भाषा और सांगितिकता का सम्मोहन ही दिनेश्वर बाबू को उधर ले गई हो? उल्लेखनीय है कि मैट्रिक पास करने के पूर्व ही प्रसाद साहित्य को वे कई बार पढ़ चुके थे। उनका कहना है कि, बाद में जब बौद्धिक विश्लेषण के स्तर पर उसे समझने का प्रयत्न किया तो धीरे-धीरे इस प्रसंग में मेरी एक दृष्टि बनती गई और यह कहते हुए मुझे कोई संकोच नहीं कि वह दृष्टि अन्य आलोचकों से बहुत भिन्न होती गई। और, इसी दृष्टिभिन्नता के कारण उन्होंने प्रसाद पर काम किया और हिंदी जगत को 'प्रसाद की विचारधाराÓ नामक पुस्तक दी।
वस्तुत: इस पुस्तक को लिखने के पीछे यह भी उद्देश्य हो सकता है कि प्रसाद की स्थापनाएं नितांत मौलिक हैं, लेकिन उन्हें उतना महत्व नहीं दिया गया, जिसकेवे हकदार थे। उन्हें प्रगतिविरोधी सिद्ध करने की हर संभव कोशिश की गई, लेकिन सत्य को बहुत दिनों तक ओझल नहीं किया जा सकता है। वह देर-सबेर अपना प्राप्य लेकर ही रहता है। दिनेश्वर बाबू ने अपनी उस कृति में उन पक्षों पर ध्यान दिया, जिसे प्राय: आलोचकों ने लक्षित नहीं किया या जानबूझकर उपेक्षित छोड़ दिया। पर हमें यह ध्यान देना चाहिए कि किसी भी कृति का असली मूल्यांकन आलोचक नहीं, 'समयÓ करता है। और समय ही, ऐसे आलोचकों को पैदा करता है, जो हाशिए की आवाज बनकर उभरते हैं या उपेक्षितों के समाजशास्त्र पर काम करते हैं। कबीर से लेकर निराला, मुक्तिबोध और धूमिल तक अपने समय में उतना ख्यात नहीं हुए, जितना अपना दैहिक अस्तित्व के न रहने पर। प्रसाद भी उसी कड़ी में थे। ऐसे कवि के महत्व को इतने आसान तरीके से नहीं खारिज किया जा सकता है। मुक्तिबोध ने भले ही वैचारिक स्तर कामायनी की कटु आलोचना की हो, लेकिन उससे उसका महत्व कम नहीं हो सका। आज भी वह उतना ही लोकप्रिय है। अब तो वह हिंदी की क्लासिक रचना का दर्जा भी पा चुकी है। और, यह ऐसी रचना है, जिसे पाठक बार-बार पढ़ता है, पढऩा चाहता है और हर बार उसे नए भाव-बोध और अर्थ-बोध का दर्शन होता है। दिनेश्वर बाबू ने ऐसे ही पक्षों को उठाया, उनके वैशिष्टï्य को रेखांकित किया।
उनका दूसरा काम लोक साहित्य पर है। हिंदी में लोक साहित्य पर अब भी बहुत कम काम हुआ हैै। पहले तो इसकी घोर उपेक्षा की गई, लेकिन जैसे-जैसे पश्चिम ने अपने लोक के महत्व, उसकी ऐतिहासिक अन्विति और बहुआयामी भूमिका पर प्रकाश डाला, अपने हिंदी के लेखकों ने भी उधर ध्यान देना उचित समझा। हम तो सदैव पश्चिम के मुखापेक्षी रहे हैं। जब तक वहां से कोई नया विचार न आए, अपना विचार हीन लगता हैै। दिनेश्वर प्रसाद इस विचारधारा के कायल नहीं हैं। वे पश्चिम से प्रभाव जरूर ग्रहण करते हैं, लेकिन वे भारतीय भूमिका के सूत्र तलाशते हैं।
उन्होंने लोक के ऐसे ही पक्षों पर हमारा ध्यान आकर्षित किया, जो अमूमन हमारी पकड़ से बाहर थे या उस तरफ हमने ध्यान नहीं दिया। वह पक्ष था-लोक साहित्य की सैंद्धातिकी। भारतीय भाषाओं में लोक साहित्य बिखरा पड़ा हैै। 1857 की क्रांति के अनेक नायकों को इतिहास से पहले लोक ने जगह दी। झांसी की रानी की अमर कहानी को सुभद्रा कुमारी चौहान से पहले बुंदेलखंडी समाज ने अपने लोक में स्थान दे दिया।
बाबू कुंअर सिंह भी इतिहास से पहले भोजपुर के इलाके में गीतों में सुरक्षित हो चुके थे। उनकी साहस की कथा अब भी उस इलाके में गाई जाती है। यानी, ये नायक इतिहास के पन्नों पर दर्ज होने से पहले लोककंठों में अपना स्थान सुरक्षित कर चुके थे। और, ऐसे लोकगीत इतिहास की दृष्टि से बड़ा अर्थवान साबित होते हैं। यह पुरानी परिपाटी है। ऋग्वेद के जितने सूक्त हैं, वे पहले कंठ में ही विराजमान थे। कबीर के सबद बनारस से लेकर पंजाब तक गाए जाते थे। बाद में उनका किताबीकरण किया गया।
इसी तरह झारखंड में मुंडाओं का इतिहास उनके लोकगीतों में ही सुरक्षित था, जिसे कुमार सुरेश सिंह ने इन गीतों के आधार पर उनका इतिहास ही लिख डाला। इस ऐतिहासिक काम के लिए उन्हें मुंडारी सीखनी पड़ी। यानी, धीरे-धीरे लोक साहित्य के महत्व की स्वीकार्यता बढ़ी और उसका महत्व बढ़ता गया। जैसा कि उसे गंवारू मानने की प्रवृत्ति थी, यह धारणा धीरे-धीरे निर्मूल होने लगी। इसके महत्व को दर्शाने के लिए ही दिनेश्वरजी ने उसके सैद्धांतिक पक्ष को पकड़ा और उसके विभिन्न आयामों पर प्रकाश डाला। यह ध्यान रखना चाहिए कि लोक साहित्य के सभी स्वरों को तभी समझा जा सकता है, जब हम सामाजिक जीवन, संस्कृति और रचनात्मक मानकों की एकत्र पृष्ठभूमि में कार्य करें। 'लोक साहित्य एवं संस्कृतिÓ उनकी ऐसी ही किताब है, जो लोक साहित्य के सैद्धांतिक प्रश्नों से जूझती है। यह कृति इतनी महत्वपूर्ण है कि इसके कारण ही उनकी एक पहचान बनी। 1973 में प्रकाशित इस किताब की मांग अब भी बनी हुई है और उसके संस्करण रह-रह कर निकलते रहते हैं।
छात्र जीवन से ही मेधावी दिनेश्वर प्रसादजी ने एमए पास करने के बाद दो सालों तक पटना विवि में पढ़ाया। यहां उन्होंने अपने ज्ञान का विस्तार किया। प्रेमाख्यान पढ़ाने के क्रम में 'इनसाइक्लोपीडिया आफ इस्लामÓ, 'कुरआनÓ, 'गुलशन-ए-राजÓ, 'रूमीÓ, और 'हाफिजÓ, की मसनवियों का अंगरेजी अनुवाद, सर इकबाल का 'सिक्रेट आफ द सेल्फÓ आदि ढेर सारे गं्रथों का अध्ययन किया। इससे उन्हें दूसरे धर्मांे की बारीकियों को समझने में मदद मिली। इसके साथ ही उन्होंने कश्मीरी शैव दर्शन, शंकराचार्य, वैदिक साहित्य का भी अध्ययन किया। इससे उनके दृष्टिकोण में एक लोच आया। ïचीजों को देखने की उनकी एकांगी दृष्टिï जाती रही। एक तरह से खुद का आत्मविस्तार करते रहे।
रांची विवि में 36 वर्षों तक अध्यापन करने के बाद यहीं से अवकाश लिया। यहां आने के बाद अपने
कार्यकाल के दौरान एक और महत्वपूर्ण कार्य किया-जनजातीय भाषाओं को लेकर। झारखंड मानव विज्ञान के अध्ययन की दृष्टि से बड़ा अनुकूल जगह है। यहां कई प्राचीन जनजातियों से लेकर हाल-हाल तक की जातियां मिलती हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रांची ही नहीं पूरा झारखंड एक चलता-फिरता संग्रहालय है। अध्ययन और लेखन के लिहाज से अब भी बहुत संभावनाशील राज्य है। मानव विज्ञान की दृष्टिï से तो कई अजूबों को समेटे है। इस तरफ काफी काम किया, शरतचंद्र राय ने। वे यहां एक वकील थे, लेकिन वे बहुत बड़े मानव विज्ञानी भी थे। उनके पास अपनी निजी लाइब्रेरी थी और मानव विज्ञान और संस्कृति पर 1880 से अब तक जितनी पुस्तकें प्रकाशित थीं, वे सारी पुस्तकें उनकी लाइब्रेरी में मौजूद थीं। इस रिच लाइब्रेरी का लाभ दिनेश्वर बाबू को भी मिला। वहां उपलब्ध पुस्तकों के अध्ययन से एक खास दृष्टि बनी। जनजातीय समाज को लेकर एक समझ पैदा हुई। ऐसी समझ जिसने पूर्व की धारणाओंको खंडित किया। पूर्वग्रह से मुक्त किया। पश्चिम ने कई स्थापनाएं ऐसी दे रखी हैं, जो भारत के संदर्भ में लागू होती ही नहीं है, लेकिन हमारे देश के तथाकथित विद्वान उनकी स्थापनाओं को हूबहू यहां पर लागू करने का बेमतलब प्रयास करते हैं। पश्चिम की यह अंधभक्ति का ही परिणाम है कि अभी तक हम 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहने से हिचकते हैं। इसी तरह की धारणा आदिवासियों को लेकर रही है। आदिवासी बनाम गैरआदिवासियों में भेद करने की दृष्टिï या विचार पश्चिम से आया। लेकिन यह भारत के संदर्भ में बेबुनियाद है। भाषाई दृष्टिï से देखें तो आदिवासी और गैरआदिवासी हजारों साल से साथ रहते आए हैं। भाषाओं के आदान-प्रदान से यह बात समझ में आती है। संस्कृति की दृष्टिï से भी यह महत्वपूर्ण है। यहां दोनों संस्कृतियां समानांतर रूप में नहीं बल्कि एक दूसरे से सामंजस्य निरूपित करती हुई देखी जा सकती हैं। इस दृष्टि से उनकी 'मुंडारी शब्दावली: अखिल भारतीय संदर्भÓ देखने योग्य पुस्तक है। पुस्तक की स्थापना ने पूर्व प्रचलित स्थापनाओं को खंडित किया। मसलन यह कि गैरआदिवासी और आदिवासी संस्कृतियों में सन्निकटता व अंतरावलंबन भारतीय जीवन का एक बड़ा यथार्थ है। लेकिन इस यथार्थ को देखने वाली आंखें चाहिए। ऐसी आंखें, जो खुली हों, पूर्वाग्रह से मुक्त हों, निद्र्वंद्व हों।
दिनेश्वर बाबू की यह कृति पूर्व प्रचलित अवधारणा कि आदिवासी और गैरआदिवासी अलग-अगल समुदाय हैं, का पुरजोर खंडन करती है। कृति आस्ट्रिक (आग्नेय) परिवार की एक महत्वपूर्ण भाषा मुंडारी की शब्दावली के अखिल भारतीय भाषिक-सांस्कृतिक प्रसंगों एवं अभिप्रायों का विश्लेषण करते हुए यह स्पष्टï करती है कि हमारे जनजातीय और गैरजनजातीय समुदायों के बहुप्रचारित पार्थक्य की अवधारणा बिल्कुल निराधार और अतार्किक है। उन्होंने इसके लिए भाषा को माध्यम बनाया। उन्होंने बताया है कि 'मुंडारी में अनेक ऐसे शब्द मिलते हैं, जिनके रूप को, परिवर्तन के बावजूद, संस्कृत में पहचाना जा सकता है। मुुंडारी में ऐसे कई शब्दों का अस्तित्व निश्चय ही प्राचीन है। ऐसे कुछ शब्द हैं अंद मनोआ(अंध मानव), अंगोर(अंगार), कंता(कंधा), चन्दि(छंद), दिसुम(देशम्), दुखम्-सुखम्(दु:खम्-सुखम्), सिसिर (शिशिर) आदि।Ó ध्वनियों, उच्चारणों की दृष्टि से भी इस कृति में विचार किया गया है और पूर्व की अतार्किक स्थापनाओं को निर्मूल किया गया है।
आदिवासी और गैरआदिवासी का जो विभाजन किया गया, वह किसी तर्र्क की परिणति नहीं, राजनीति से निकला सिद्धांत है। वे जातियां जो विभाजन का बीज बोती हैं, उन्हें झारखंड में पहचानना आसान है। कुछ बुद्धिजीवी हमेशा यही राग ही अलापते हैं। कुछ तो ऐसे अतिरेकी हुए कि सदानों को ही बाहरी करार दिया। लेकिन ऐसी स्थापनाओं को डा. वीपी केशरी ने खारिज कर दिया। दिनेश्वर बाबू ने भाषा को आधार बना कर उनकी प्राचीनता और सहअस्तित्व को रेखांकित किया।
दिनेश्वरबाबू 'हॉफ़मैन से प्रभावित हैं। 'हॉफ़मैन ऑन मुंडारी पोएट्रीÓ पर काम भी किया। हॉफ़मैन की इस पुस्तक की विशेषता यह है कि यह लोक साहित्य के अध्ययन की एक नई दिशा का संकेत करती है। अब तक लोक कविता में अंतरभुक्त प्रतिमानों का संधान बहुत कम हुआ है। हॉफ़मैन पहले व्यक्ति हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि लोकगीत तथा लोक कविता के अपने प्रतिमान होते हैं और वे लिखित या शिष्टï कविता के प्रतिमानों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।
दिनेश्वर बाबू उन कार्यों से बचने का प्रयास करते रहे हैं जो दूसरे लोग करते हैं। यानी चुनौतियों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति और कुछ विशिष्ट की उपलब्धि के प्रति सक्रियता। उन विषयों पर अपनी नजरें गड़ाई, जिधर, लोग जल्दी देखना नहीं चाहते। जो लोग बनी-बनाई लीक या पंगडंडियों पर चलने के आदी हैं, उन्हें दिनेश्वर बाबू का कर्म जरूर असहज लगेगा, लेकिन साहसभरा। लेकिन जो लोग अपनी लीक खुद बनाते हैं, उन लोगों के लिए इनकी महत्ता निर्विवाद है। कहने का आशय यही है कि ज्ञान के क्षेत्र मेंजो छूटे हुए हाशिए हैं, उनके प्रति उनका अनुराग प्रकृतिगत हैै, स्वाभाविक है। नए पन की खोज उनकी प्रवृत्ति रही हैै।
इस प्रवृत्ति ने ही उन्हें फादर कामिल बुल्के का सानिध्य दिलवाया। उनके साथ बाइबल के हिंदी अनुवाद का कार्य किया। उनके जीवन काल में ही कभी उनके अनुवाद के परामर्शदाता तो कभी सह अनुवादक की भूमिका में कार्य किया। फादर कामिल बुल्के के निधन के बाद बाइबल के बचे शेष प्रसंगों का स्वतंत्र रूप से अनुवाद किया। यह एक तरह से एक भिन्न धर्म को जानने और उससे भारत के अन्य धर्मावलंबियों को परिचित कराने का कार्य है तो दूसरी ओर नई सांस्कृतिक दुनियाएं हिंदी के पाठक को साक्षात्कार कराने का प्रयत्न भी है। जिस दुनियाओं को उसे जानना चाहिए, लेकिन वह नहीं जानता है।
दिनेश्वर बाबू ने एक और महत्वपूर्ण काम उनके साथ मिलकर किया, वह है अंग्रेजी-हिंदी कोश। इस कोश निर्माण में वे उनके सहयोगी रहे। इधर, उनके निधन के बाद इन्हीं की देख-रेख में उसका परिवद्र्धित संस्करण आया हैै। साहित्य अकादमी के लिए फादर कामिल बुल्के के ऊपर मोनाग्राफ भी लिखा। अनुवाद में इनकी दिलचस्पी शुरू से रही है। यही कारण है अनुवाद के लंबे अनुभव ने इन्हें अमेरिका के सबसे बड़े अंगरेजी कवि वाल्ट ह्विïटमैन की कविताओं का अनुवाद करने के लिए प्रेरित किया। कुछ अनुवादों के अंश विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं। अभी हाल मेंफादर कामिल बुल्क के निबंधों को संपादित करके 'एक ईसाई की आस्था: रामकथा और हिंदीÓ का प्रकाशन कराया।
आदिवासी लेखन का कोई प्रवक्ता नहीं : सूरज प्रकाश
संजय कृष्ण : हिंदी के जाने-माने कथाकार, अनुवादक, व्यंग्यकार सूरज प्रकाश से मुलाकात इत्तेफाकन हुई, कथाकार रणेंद्र के सौजन्य से। रांची में हैं। रविवार को मुंबई रवाना होंगे। कई मुद्दों पर बातें हुईं। कई संस्मरण सुनाएं। काशी का अस्सी पर बन रही फिल्म के किस्से भी सुनाए।
पूछता हूं, दस करोड़ की आदिवासी आबादी आखिर हिंदी साहित्य में उपेक्षित क्यों है? दलित लेखन हाशिए से केंद्र में स्थापित हो गया, पर आदिवासी लेखन?
उन्हें उनका प्रवक्ता नहीं मिला। शाइस्तगी और ईमानदारी से वे जवाब देते हैं। कहते हैं, आदिवासी समाज को उनका कोई अपना प्रवक्ता नहीं मिला है। दलित लेखन में कई प्रवक्ता हैं। पर, आदिवासी समाज का अपना कोई नहीं है। निर्मला पुतुल दिखाई पड़ती हैं। मधु कांकरिया, राकेश कुमार सिंह, संजीव ने आदिवासी जीवन पर कहानियां-उपन्यास लिखे हैं। पर वह आब्र्जवेशन ही है। आदिवासी साहित्य की उपेक्षा एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि उन्हें अभी तक मंच नहीं मिला। दलित लेखन के पास मंच है, अकादमी है, रचनाकार हैं, संपादक हैं। पर, आदिवासी समाज के पास इनका अभाव है। यह चिंताजनक है।
चालीस के करीब कहानियां लिख चुके सूरज प्रकाश कहानी के क्षेत्र में सक्रिय वर्तमान पीढ़ी से आश्वस्त हैं। आश्वस्त इस बात को लेकर भी हैं कि उनके पास नई भाषा है, विश्लेषणात्मक नजरिया है, नए विषय हैं। वे भावुक नहीं हैं। बहुत मोह नहीं पाले हुए हैं। हालांकि सूरज जी मानते हैं कि वे थोड़ी हड़बड़ी में हैं। पुरस्कार और मान्यता को लेकर भी कुछ ज्यादा जल्दबाजी उनमें है। यह उनके लिए घातक है। सृंजय का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि उन्हें तब बहुत उछाला गया, पर आज कहां हैं? तो इस प्रवृत्ति से युवा लेखकों को बचना चाहिए।
'लेखन बहुत बड़ी शक्ति देता है। छोटे पद या ओछेपन से मुक्ति दिलाता हैÓ-के कायल सूरज एक घुमक्कड़ इंसान हैं। हिमाचल प्रदेश के अपने घुमक्कड़ी का संस्मरण सुनाते हैं। कुल्लू घाटी में सिकंदर के भगोड़े सैनिकों का गांव है मलाना। दस हजार फीट की ऊंचाई पर बसे इस गांव में भारत का कानून नहीं, उनका अपना कानून चलता है। गांव के दो हिस्से हैं, जो आपस में शादियां करते हैं। कोई विवाहित महिला किसी दूसरे पुरुष के साथ रहना चाहे तो वह रह सकती है। इसके बदले वह जिस पुरुष के साथ वह रहने चली जाती है, वह उसके पहले पति का कुछ रुपये दे देता है। वहां कई अजीब रिवाज हैं। हालांकि धीरे-धीरे शिक्षा की रोशनी उनके अंधेरे जिंदगी को प्रकाशित कर रही है।
सूरजजी ने अनुवाद भी काफी किए हैं। चाल्र्स डार्विन व चार्ली चैपलिन की आत्मकथा। गांधी के बड़े बेटे हरिलाल गांधी की जीवनी उजाले की ओर का अनुवाद भी छप रहा है। गांधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग का अनुवाद अभी-अभी खत्म किया है। जार्ज आर्वेल, गैब्रियल गार्सिया मार्खेज की रचनाओं को भी हिंदी में उपलब्ध कराया है। मूलत: पंजाबी भाषी सूरज प्रकाश ने गुजराती से भी काफी अनुवाद किए हैं। गांधी की आत्मकथा के अनुवाद को लेकर कहते हैं कि हर युग के पाठक को ताजा अनुवाद चाहिए। आज की भाषा पहले की भाषा से अलग हैं। हमें आज के मुहावरे में बात करनी चाहिए। चलते-चलते चार्ली चैप्लिन का एक वाक्य सुनाते हैं, 'मैं बरसात में भिंगते हुए रोता हूं, ताकि कोई मेरे आंसू न देख ले।Ó
पूछता हूं, दस करोड़ की आदिवासी आबादी आखिर हिंदी साहित्य में उपेक्षित क्यों है? दलित लेखन हाशिए से केंद्र में स्थापित हो गया, पर आदिवासी लेखन?
उन्हें उनका प्रवक्ता नहीं मिला। शाइस्तगी और ईमानदारी से वे जवाब देते हैं। कहते हैं, आदिवासी समाज को उनका कोई अपना प्रवक्ता नहीं मिला है। दलित लेखन में कई प्रवक्ता हैं। पर, आदिवासी समाज का अपना कोई नहीं है। निर्मला पुतुल दिखाई पड़ती हैं। मधु कांकरिया, राकेश कुमार सिंह, संजीव ने आदिवासी जीवन पर कहानियां-उपन्यास लिखे हैं। पर वह आब्र्जवेशन ही है। आदिवासी साहित्य की उपेक्षा एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि उन्हें अभी तक मंच नहीं मिला। दलित लेखन के पास मंच है, अकादमी है, रचनाकार हैं, संपादक हैं। पर, आदिवासी समाज के पास इनका अभाव है। यह चिंताजनक है।
चालीस के करीब कहानियां लिख चुके सूरज प्रकाश कहानी के क्षेत्र में सक्रिय वर्तमान पीढ़ी से आश्वस्त हैं। आश्वस्त इस बात को लेकर भी हैं कि उनके पास नई भाषा है, विश्लेषणात्मक नजरिया है, नए विषय हैं। वे भावुक नहीं हैं। बहुत मोह नहीं पाले हुए हैं। हालांकि सूरज जी मानते हैं कि वे थोड़ी हड़बड़ी में हैं। पुरस्कार और मान्यता को लेकर भी कुछ ज्यादा जल्दबाजी उनमें है। यह उनके लिए घातक है। सृंजय का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि उन्हें तब बहुत उछाला गया, पर आज कहां हैं? तो इस प्रवृत्ति से युवा लेखकों को बचना चाहिए।
'लेखन बहुत बड़ी शक्ति देता है। छोटे पद या ओछेपन से मुक्ति दिलाता हैÓ-के कायल सूरज एक घुमक्कड़ इंसान हैं। हिमाचल प्रदेश के अपने घुमक्कड़ी का संस्मरण सुनाते हैं। कुल्लू घाटी में सिकंदर के भगोड़े सैनिकों का गांव है मलाना। दस हजार फीट की ऊंचाई पर बसे इस गांव में भारत का कानून नहीं, उनका अपना कानून चलता है। गांव के दो हिस्से हैं, जो आपस में शादियां करते हैं। कोई विवाहित महिला किसी दूसरे पुरुष के साथ रहना चाहे तो वह रह सकती है। इसके बदले वह जिस पुरुष के साथ वह रहने चली जाती है, वह उसके पहले पति का कुछ रुपये दे देता है। वहां कई अजीब रिवाज हैं। हालांकि धीरे-धीरे शिक्षा की रोशनी उनके अंधेरे जिंदगी को प्रकाशित कर रही है।
सूरजजी ने अनुवाद भी काफी किए हैं। चाल्र्स डार्विन व चार्ली चैपलिन की आत्मकथा। गांधी के बड़े बेटे हरिलाल गांधी की जीवनी उजाले की ओर का अनुवाद भी छप रहा है। गांधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग का अनुवाद अभी-अभी खत्म किया है। जार्ज आर्वेल, गैब्रियल गार्सिया मार्खेज की रचनाओं को भी हिंदी में उपलब्ध कराया है। मूलत: पंजाबी भाषी सूरज प्रकाश ने गुजराती से भी काफी अनुवाद किए हैं। गांधी की आत्मकथा के अनुवाद को लेकर कहते हैं कि हर युग के पाठक को ताजा अनुवाद चाहिए। आज की भाषा पहले की भाषा से अलग हैं। हमें आज के मुहावरे में बात करनी चाहिए। चलते-चलते चार्ली चैप्लिन का एक वाक्य सुनाते हैं, 'मैं बरसात में भिंगते हुए रोता हूं, ताकि कोई मेरे आंसू न देख ले।Ó
कौन हैं कलाम
संजय कृष्ण : भारत रत्न एपीजे अब्दुल कलाम गुरुवार को टोरियन वल्र्ड स्कूल के प्रांगण में गिरिडीह से चलकर आए बिरहोर जनजाति के बच्चों से मिले। गिरिडीह के सरिया बगोदर से चलकर 48 बच्चे अपने शिक्षक गेंदू प्रसाद वर्मा के साथ रांची आए थे। पिंटू बिरहोर कक्षा तीन पढ़ता है। पूछने पर वह नहीं बता पाता कि कलाम कौन हैं? बस उसे यही पता कि किसी से मिलना है। उसकी इस जानकारी पर आश्चर्य नहीं होता। वह ऐसे दूर गांव से आया है, जहां विकास की रोशनी भी नहीं पहुंच पाई है। वह भला टोरियन के फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते बच्चों के साथ अपनी तुलना कैसे कर सकते हंै? पता नहीं, गिरिडीह की डीसी ने इन बच्चों को कलाम से मिलने के लिए क्यों भेजा था? इनकी नुमाइंगी किए लिए? क्या आदिवासी प्रदर्शनी के ही काबिल हैं?
सचमुच टोरियन वल्र्ड स्कूल में एक ओर दीनहीन भारत था तो दूसरी ओर चमकदार इंडिया था। दीनहीन भारत का प्रतिनिधित्व यही बिरहोर बच्चे कर रहे थे, जिनके शरीर पर सरकार द्वारा दी गई ड्रेस थी। ये बच्चों झारखंड के उन जनजातियों के हैं, जो विलुप्ति के कगार पर खड़ी हैं। इनको बचाने के लिए न जाने कितनी योजनाएं केंद्र और राज्य सरकार की चल रही हैं। पर, सरकार की योजनाएं पहाड़ों तक नहीं पहुंच पातीं, जहां ये पत्तों का आशियाना बनाकर रहते हैं। एक दूसरे बच्चे राजेश बिरहोर से पूछता हूं तुम्हारे पिता क्या करते हैं? वह कहता है, गाड़ी चलाते हैं। स्कूल में मध्याह्न भोजन मिलता है? हां। क्या-दाल, भात और सब्जी। मीनू में और भी कुछ है, पर इन्हें दाल-भात से ही संतोष करना पड़ता है। ये बच्चे ठीक से हिंदी भी नहीं बोल पाते। कलाम से हाथ मिलाने से क्या उनकी तकदीर बदल जाएगी, जिसे पता ही न हो कि कलाम कौन है? यही है हमारे देश की शिक्षा-व्यवस्था। एक देश में कई देश।
सचमुच टोरियन वल्र्ड स्कूल में एक ओर दीनहीन भारत था तो दूसरी ओर चमकदार इंडिया था। दीनहीन भारत का प्रतिनिधित्व यही बिरहोर बच्चे कर रहे थे, जिनके शरीर पर सरकार द्वारा दी गई ड्रेस थी। ये बच्चों झारखंड के उन जनजातियों के हैं, जो विलुप्ति के कगार पर खड़ी हैं। इनको बचाने के लिए न जाने कितनी योजनाएं केंद्र और राज्य सरकार की चल रही हैं। पर, सरकार की योजनाएं पहाड़ों तक नहीं पहुंच पातीं, जहां ये पत्तों का आशियाना बनाकर रहते हैं। एक दूसरे बच्चे राजेश बिरहोर से पूछता हूं तुम्हारे पिता क्या करते हैं? वह कहता है, गाड़ी चलाते हैं। स्कूल में मध्याह्न भोजन मिलता है? हां। क्या-दाल, भात और सब्जी। मीनू में और भी कुछ है, पर इन्हें दाल-भात से ही संतोष करना पड़ता है। ये बच्चे ठीक से हिंदी भी नहीं बोल पाते। कलाम से हाथ मिलाने से क्या उनकी तकदीर बदल जाएगी, जिसे पता ही न हो कि कलाम कौन है? यही है हमारे देश की शिक्षा-व्यवस्था। एक देश में कई देश।
भोजपुरी सिनेमा: आधी सदी का सफर
संजय कृष्ण : भारत की बोलियों में भोजपुरी ही एक ऐसी भाषा है, जो अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए सात समंदर पार भी जा पहुंची है। इस भाषा को ले जाने का श्रेय निश्चित रूप से उन मजदूरों को है, जिन्हें अंगरेज जबरन यहां से ले गए थे। उन मजदूरों को ही गिरमिटिया कहा गया। आज ये मजदूर काफी संपन्न हो गए हैं और अपने देश में ऊंची हैसियत और रसूख रखते हैं। ऐसे में भोजपुरी में बनने वाली फिल्में अपनी सीमाओं में कैद कैसे रह सकती हैं? अब तो भोजपुरी फिल्में देश के हिस्सों सहित दुनिया के कई देशों मच्ं अच्छा-खासा व्यवसाय कर रही हैं। बालीवुड ही नहीं, कई अन्य दूसरे भाषा-भाषी भी भोजपुरी फिल्मों की ओर खिंच रहे हैं। अपने संघर्ष से अपनी जमीन बनाने वाले भोजपुरी सिनेमा ने अपने सफर में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। सन 1962 से लेकर अब तक करीब ढ़ाई सौ भोजपुरी फिल्में बन चुकी हैं और इसका सफर अब जी जारी है। यद्यपि, बीच में ऐसे दौर भी आए जब इस भाषा में फिल्में बननी बंद हो गईं। फिर भी, इसका सिलसिला रुका नहीं। इस साल भोजपुरी सिनेमा के गौरवपूर्ण क्षणों को याद करना गैरवाजिब नहीं होगा।
देश में पहली भोजपुरी फिल्म हे गंगा मैया तोहें पियरी चढ़ैबों 1962 में आई। पहली भोजपुरी फिल्म के निर्माण में देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की प्रेरणा, मशहूर अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दन बाई, कन्हैया लाल का सहयोग, गिरिडीह झारखंड के व्यवसायी विश्वनाथ शाहाबादी का धन और गाजीपुर, उसिया के रहने वाले नजीर हुसैन की जिद ने प्रमुख भूमिका निभाई। सभी ने मिलकर भोजपुरी फिल्म निर्माण की नींव रखी। इस तरह पहली भोजपुरी फिल्म हे गंगा मैया तोहें पियरी चढैबो बनी। बनने के बाद इसका प्रीमियर दिल्ली के गोलचा सिनेमा हाल में रखा गया। इस मौके पर भोजपुरी माटी के सपूत जगजीवन राम, लाल बहादुर शास्त्री सहित कई केंद्रीय मंत्री व नेता मौजूद थे। इस फिल्म ने बनारस में भी सफलता के रेकार्ड तोड़े। पांच लाख में बनी फिल्म ने उस समय 75 लाख का व्यवसाय किया। दिल्ली, बनारस और मद्रास (अब चेन्नई) में भी इसे खूब पसंद किया गया। इसमें बिहार के रहने वाले चित्रगुप्त ने संगीत दिया था। रफी साहब की आवाज में इसके कई गीत काफी लोकप्रिय हुए थे। मसलन, सोनवा के पिंजरा...या टाइटल सांग हे गंगा मैया तोहें पियरी चढैबो, सैंया से कर द मिलनवा, हाय राम।
इस फिल्म को लेकर बनारस में तो एक कथा ही चल पड़ी। वहां, लहुराबीर के पास प्रकाश टाकीज (अब बंद हो चुका है) में यह फिल्म लगी थी। इस सिनेमा को देखने लो सत्तू-सीधा बांधकर बैलगाड़ी या टमटम पर सवार होकर बनारस आने लगे। तब उस समय एक मुहावरा ही चल पड़ा कि गंगा नहा, विश्वनाथ जी क दर्शन कर, गंगा मदया देख, तब घरे जा।
इस सफलता को देख लोगों का भोजपुरी फिल्मों की ओर झुकाव बढ़ा। फिल्म इतिहासकार फिरोज रंगूनवाला अपनी किताब ए पॉलीटिकल हिस्ट्री आफ इंडियन सिनेमा में लिखा है, 'एक समय भोजपुरी सिनेमा का क्रेज बढ़ गया था। 1962 में शुरू हुआ भोजपुरी सिनेमा का सिनेमाई सफर 1966 तक आते-आते इस भाषा में 18 फिल्में रिलीज हो चुकी थीं। जबकि एक अवधि(1964), दो छत्तीसगढ़ी(1965 के बाद) में और दो मागधी (1964-65) में फिल्में आई थीं।Ó
'हे गंगा मैया तोहें पियरी चढैबोÓ के बाद लागी नाहीं छूटे राम (1963), बिदेसिया (1963), गंगा (1965), लोहा सिंह (1966) आईं। इसी दशक में नैहर छूटा जाए, बलमा बड़ा नादान, कब होइहैं गवनवा हमार, जेकरा चरनवा में लगले परनवा, नाग पंचमी, सीता मैया, सैंया से भइले मिलनवा, आइल बसंत बहार, बिधना नाच नचावे, हमार संसार, सोलहो सिंगार करे दुल्हनिया, गोस्वामी तुलसीदास आदि फिल्में बनीं।
'बिदेसियाÓ फिल्म निर्माण में गुजराती निमाच्ता बच्चू शाह ने पैसा लगाया था। इसका निर्देशन संगीतकार एसएन त्रिपाठी ने किया था। गीत के बोल राममूर्ति चतुर्वेदी के थे। 'बिदेसियाÓ भोजपुरी के शेक्सपीयर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर की रचना पर आधारित थी। इसमें उन्हें गाते हुए भी फिल्माया गया है।
इसी के अंतिम दौर में विश्वनाथ शाहाबादी की दूसरी फिल्म सोलहो सिंगार करे दुल्हनिया बाक्स आफिस पर कोई खास करामात नहीं दिखा सकी। नजीर हुसैन ने अपनी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी 'कमसार फिल्मसÓ बनाई। कमसार उनके इलाके को कहा जाता है। इस बैनर तले पहली फिल्म हमार संसार बनाई। इस फिल्म पर भी लोगों ने विशेष ध्यान नहीं दिया। जबकि इसे भोजपुरी अंचल के परिवारों का जीवंत दस्तावेज माना जाता है। इस फिल्म को विमल रॉय की दो बीघा जमीन से प्रेरित माना जाता है। इसका निर्देशन नसीम ने किया था और इसको उन्होंने भोजपुरी समाज की बड़ी समस्या पलायन पर केंद्रित किया था। फिल्म में पलायन के सामाजिक-आर्थिक पहलुओं को बड़ी बारीकी से उकेरा गया है। उस समय ही उन्होंने आधुनिक विकास के मॉडल पर प्रश्नचिह्न लगाया था। आज उसकी भयावहता चरम पर है। बिना सोचे समझे विकास का फलसफा गढऩे का हश्र क्या होता है, यही इस फिल्म में है। नसीम ने अपने निर्देशकीय कौशल और नजीर साहब की चुस्त जमीनी पटकथा और संवाद से इसे मील का पत्थर बना दिया है। भोजपुरी भाषा की ताकत का एहसास और दर्द भी बार-बार छलक उठता है। लोगों ने कहा कि इस फिल्म में प्रेमचंद की कहानियों की गंध महसूस की जा सकती है। फिल्म में गांव छोड़कर शहर की ओर जाते परिवार का टे्रन सीक्वेंस इतना मार्मिक है कि आंखें भर आती हैं। भागती हुई ट्रेन के पीछे गांव, खेत, बघार सब कुछ पीछे छूटते जा रहे हैं। खिड़की से देखते हुए किसान का बेटा बार-बार इसे दोहराता है, ए बाबू, गंउवा छूटल जाता। यह देखने में तो सामान्य वाक्य लगता है, लेकिन इस एक वाक्य से नजीर साहब असाधारण पीड़ा रचते हैं। इस छोटे से वाक्य में ही पीड़ा का अंतहीन विस्तार है।
सन 1970-79 का दशक भोजपुरी सिनेमा के लिए क्रांतिकारी साबित हुआ। इस दौर में डाकू रानी गंगा, अमर सुहागिन, बलम परदेसिया, दंगल, मितवा, माई क लाल, धरती मैया, जागल भाग हमार, आईं। यह दशक भोजपुरी सिनेमा के लिए उल्लेखनीय रहा। रति कुमार के निर्देशन में दंगल भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म थी। इसमें तब की मिस इंडिया प्रेमा नारायण ने काम किया था। सुजीत कुमार लीड रोल में थे। इसके संगीतकार नदीम-श्रवण थे, जिन्होंने इस फिल्म से ही अपने करियर की शुरुआत की। इसके कई गाने उस समय लोगों की जुबान पर चढ़ गए थे, आरा हिले छपरा हिले, बलिया हिले ला...जब लचके तोर कमरिया सारा जिला हिले ला...।
लाल बहादुर ओझा ने लिखा है, पहलवानी, लठैती, भेड़ा की लड़ाई जैसे गंवई मसाले थे तो डाकुओं के अड्डे, घोड़ो की चौकड़ी और गोला-बारूद वाले एक्शन सीक्वेंस जैसे तत्कालीन नुमाइशी तत्वों का इस्तेमाल किया गया। इस फिल्म के बाद भोजपुरी सिनेमा ने एक बार फिर जोर पकड़ा।
नजीर हुसैन की 1979 में बलम परदेसिया आई। अपने कथ्य, गीत, संवाद को लेकर यह फिल्म काफी सराही गई। उसके कर्णप्रिय गीत आज भी लोगों को याद हैं। वितरक अशोक जैन ने 1983 में गंगा किनारे मोरा गांव बनाई। इसके निर्देशक थे दिलीप बोस। यह फिल्म पटना के अप्सरा थियेटर में 30 सप्ताह तक चली। 2000 में मारीशस में हुए विश्व भोजपुरी सम्मेलन में इसे खासतौर पर प्रदर्शित किया गया था। इसके बाद चनवा के ताके चकोर (1981), सैंया मगन पहलवानी में (1981), सैंया तोरे कारन (1981), हमार भौजी (1983), चुटकी भर सेंदुर (1983), गंगा किनारे मोरा गांव (1984), पिया के गांव (1985), दूल्हा गंगा पार के (1986), रूस गइले सैंया हमार (1988), पान खाए सैंया हमार, बिटिया भइल सयान, संैया से नेह लगइबे, नैहर के चुनरी, पटना के बाबू, बलमा नादान, पिया निरमोहिया, सोनवा क पिंजरा, बैरी सावन, मैया महतारी, बसुरिया बाजे गंगा तीरे, गजब भइले रामा, भैया दूज, दगाबाज बलमा, गोदना, लागल चुनरी में दाग, गंगा मैया कर द मिलनवा हमार, हमार दूल्हा और घायल पियवा प्रमुख रहीं।
मोहनजी प्रसाद की हमार भौजी, लक्ष्मण शाह की दूल्हा गंगा पार के फिल्में काफी सफल रहीं। भैया दूज भी इसी दौर में आई। इसे राजस्थानी में भी डब किया गया था। वहां भी सफल रही। नजीर हुसैन की रूस गइले सैंया हमार ने भी दर्शकों की वाहवाही बटोरी। फिल्म की अधिकांश शूटिंग नजीर साहब ने अपने गांव-गिराव जमानियां स्टेशन में किए।
इसके बाद बाबा के दुआरी, कसम गंगा जल के, गंगा से नाता बा हमार, गंगा तोरी ममता की छांव, कईसन बनउल संसार आदि फिल्में 1990-1999 के बीच आईं। इसी दौर में भोजपुरी गायक मनोज तिवारी गायकी में अपना परचम लहाराने के बाद फिल्म निर्माण की ओर रुख किया। भोजपुरी सिनेमा को ताकत मिली और इस दौर ने फिर से लोगों को आकर्षित किया। पांच-छह सालों के अंतराल के बाद 2005 में मनोज ने ससुरा बड़ा पइसा वाला बनाई। खुद भूमिका निभाई। मृतप्राय भोजपुरी सिनेमा को जीवन मिला। इसने बनारस में पचास सप्ताह और कानपुर में 25 सप्ताह तक व्यवसाय किया। मनोज का उत्साह बढ़ा। फिर, दारोगा बाबू आई लव यू बनाई। इसने चार करोड़ का व्यवसाय किया। बंधन टूटे ना ने तीन करोड़ का व्यवसाय किया। इस सफलता को देख भोजपुरी में सिनेमा बनाने की बाढ़ आ गई। धरती कहे पुकार के, धरती पुत्र, गंाग, गंगोत्री, प्रतिज्ञा, भाई होखे त भरत नियन आई। गंगा में अमिताभ बच्चन व हेमामालिनी ने काम किया था। इसे अमिताभ के मेकअप मैन दीपक सावंत ने बनाई थी। भाई होखे तक भरत नियन में भोजपुरी गायक भरत शर्मा व्यास ने इस दुनिया में पदार्पण किया। इसमें सुरेश वाडेकर ने क्लासिक अंदाज में एक भोजपुरी गीत गाया है...गोरिया चल न जवनिया संभार के।
इस दौर में कई ऐसी फिल्में रहीं, जिनमें हिंदी सिनेमा के स्टारों ने काम किया। अजय देवगन ने धरती कहे पुकार के में काम किया। मिथुन चक्रवर्ती भी पीछे नहीं रहे। दक्षिण भारत की नगमा ने कई फिल्मों में काम किया। उनकी पहचान भी इन्हीं फिल्मों से बनीं। रवि किशन आज भोजपुरी के स्टार हैं। टीवी से इस दुनिया में प्रवेश किया। श्वेता तिवारी, उर्वशी ढोलकिया आदि कई नाम हैं, जिन्होंने भोजपुरी फिल्मों में काम किया। बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा व उदित नारायण ने भी भोजपुरी फिल्में बनाईं। आज भोजपुरी का बाजार गरम है। लेकिन इसे वह दर्जा नहीं मिल पाया, जो अन्य क्षेत्रीय सिनेमा को मिला। बांग्ला, मलयालम आदि में बनी फिल्में पुरस्कार भी जीततीं। क्या आज पैसा बनाने का साधन नहीं बन गई हैं भोजपुरी फिल्में? नजीर हुसैन, चित्रगुप्त, विश्वनाथ शाहाबादी ने अपनी परंपरा को याद करते हुए फिल्में बनाई। समाज, संस्कृति और समस्याएं मूल थीं। आज ये सारी चीजें नदारद हैं। इसकी चिंता आज के निर्माताओं और निर्देशकों को नहीं है। एक समय शैलेंद्र, महेंद्र मिसिर, अनजान, पद्मा खन्ना, सुजीत कुमार, कुंदन कुमार, असीत कुमार, असीत सेन आदि भोजपुरी के पर्याय बन गए थे। आज वह बात नहीं रही। संविधान सूची में शामिल नहीं किए जाने के बावजूद यह आगे बढ़ती रही। लेकिन आज के निर्देशकों का ध्यान इस ओर नहीं है कि कैसे स्तरीय सिनेमा बने। कमाई में नंबर होने के बावजूद क्षेत्रीय सिनेमा में कैसे नंबर वन स्थान हासिल करे, इसकी चिंता तो सबको करनी पड़ेगी। द्विअर्थी संवादों-गीतों से न भाषा का कल्याण हो न फिल्मों का। सफलता के बजाय कुछ सार्थक सिनेमा बने तो बात बने। आधी सदी के सफर के बाद हम इस दिशा में सोच सकते हैं। यह मौका है बताने का कि भोजपुरी अश्लीलता का ही पर्याय नहीं है।
देश में पहली भोजपुरी फिल्म हे गंगा मैया तोहें पियरी चढ़ैबों 1962 में आई। पहली भोजपुरी फिल्म के निर्माण में देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की प्रेरणा, मशहूर अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दन बाई, कन्हैया लाल का सहयोग, गिरिडीह झारखंड के व्यवसायी विश्वनाथ शाहाबादी का धन और गाजीपुर, उसिया के रहने वाले नजीर हुसैन की जिद ने प्रमुख भूमिका निभाई। सभी ने मिलकर भोजपुरी फिल्म निर्माण की नींव रखी। इस तरह पहली भोजपुरी फिल्म हे गंगा मैया तोहें पियरी चढैबो बनी। बनने के बाद इसका प्रीमियर दिल्ली के गोलचा सिनेमा हाल में रखा गया। इस मौके पर भोजपुरी माटी के सपूत जगजीवन राम, लाल बहादुर शास्त्री सहित कई केंद्रीय मंत्री व नेता मौजूद थे। इस फिल्म ने बनारस में भी सफलता के रेकार्ड तोड़े। पांच लाख में बनी फिल्म ने उस समय 75 लाख का व्यवसाय किया। दिल्ली, बनारस और मद्रास (अब चेन्नई) में भी इसे खूब पसंद किया गया। इसमें बिहार के रहने वाले चित्रगुप्त ने संगीत दिया था। रफी साहब की आवाज में इसके कई गीत काफी लोकप्रिय हुए थे। मसलन, सोनवा के पिंजरा...या टाइटल सांग हे गंगा मैया तोहें पियरी चढैबो, सैंया से कर द मिलनवा, हाय राम।
इस फिल्म को लेकर बनारस में तो एक कथा ही चल पड़ी। वहां, लहुराबीर के पास प्रकाश टाकीज (अब बंद हो चुका है) में यह फिल्म लगी थी। इस सिनेमा को देखने लो सत्तू-सीधा बांधकर बैलगाड़ी या टमटम पर सवार होकर बनारस आने लगे। तब उस समय एक मुहावरा ही चल पड़ा कि गंगा नहा, विश्वनाथ जी क दर्शन कर, गंगा मदया देख, तब घरे जा।
इस सफलता को देख लोगों का भोजपुरी फिल्मों की ओर झुकाव बढ़ा। फिल्म इतिहासकार फिरोज रंगूनवाला अपनी किताब ए पॉलीटिकल हिस्ट्री आफ इंडियन सिनेमा में लिखा है, 'एक समय भोजपुरी सिनेमा का क्रेज बढ़ गया था। 1962 में शुरू हुआ भोजपुरी सिनेमा का सिनेमाई सफर 1966 तक आते-आते इस भाषा में 18 फिल्में रिलीज हो चुकी थीं। जबकि एक अवधि(1964), दो छत्तीसगढ़ी(1965 के बाद) में और दो मागधी (1964-65) में फिल्में आई थीं।Ó
'हे गंगा मैया तोहें पियरी चढैबोÓ के बाद लागी नाहीं छूटे राम (1963), बिदेसिया (1963), गंगा (1965), लोहा सिंह (1966) आईं। इसी दशक में नैहर छूटा जाए, बलमा बड़ा नादान, कब होइहैं गवनवा हमार, जेकरा चरनवा में लगले परनवा, नाग पंचमी, सीता मैया, सैंया से भइले मिलनवा, आइल बसंत बहार, बिधना नाच नचावे, हमार संसार, सोलहो सिंगार करे दुल्हनिया, गोस्वामी तुलसीदास आदि फिल्में बनीं।
'बिदेसियाÓ फिल्म निर्माण में गुजराती निमाच्ता बच्चू शाह ने पैसा लगाया था। इसका निर्देशन संगीतकार एसएन त्रिपाठी ने किया था। गीत के बोल राममूर्ति चतुर्वेदी के थे। 'बिदेसियाÓ भोजपुरी के शेक्सपीयर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर की रचना पर आधारित थी। इसमें उन्हें गाते हुए भी फिल्माया गया है।
इसी के अंतिम दौर में विश्वनाथ शाहाबादी की दूसरी फिल्म सोलहो सिंगार करे दुल्हनिया बाक्स आफिस पर कोई खास करामात नहीं दिखा सकी। नजीर हुसैन ने अपनी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी 'कमसार फिल्मसÓ बनाई। कमसार उनके इलाके को कहा जाता है। इस बैनर तले पहली फिल्म हमार संसार बनाई। इस फिल्म पर भी लोगों ने विशेष ध्यान नहीं दिया। जबकि इसे भोजपुरी अंचल के परिवारों का जीवंत दस्तावेज माना जाता है। इस फिल्म को विमल रॉय की दो बीघा जमीन से प्रेरित माना जाता है। इसका निर्देशन नसीम ने किया था और इसको उन्होंने भोजपुरी समाज की बड़ी समस्या पलायन पर केंद्रित किया था। फिल्म में पलायन के सामाजिक-आर्थिक पहलुओं को बड़ी बारीकी से उकेरा गया है। उस समय ही उन्होंने आधुनिक विकास के मॉडल पर प्रश्नचिह्न लगाया था। आज उसकी भयावहता चरम पर है। बिना सोचे समझे विकास का फलसफा गढऩे का हश्र क्या होता है, यही इस फिल्म में है। नसीम ने अपने निर्देशकीय कौशल और नजीर साहब की चुस्त जमीनी पटकथा और संवाद से इसे मील का पत्थर बना दिया है। भोजपुरी भाषा की ताकत का एहसास और दर्द भी बार-बार छलक उठता है। लोगों ने कहा कि इस फिल्म में प्रेमचंद की कहानियों की गंध महसूस की जा सकती है। फिल्म में गांव छोड़कर शहर की ओर जाते परिवार का टे्रन सीक्वेंस इतना मार्मिक है कि आंखें भर आती हैं। भागती हुई ट्रेन के पीछे गांव, खेत, बघार सब कुछ पीछे छूटते जा रहे हैं। खिड़की से देखते हुए किसान का बेटा बार-बार इसे दोहराता है, ए बाबू, गंउवा छूटल जाता। यह देखने में तो सामान्य वाक्य लगता है, लेकिन इस एक वाक्य से नजीर साहब असाधारण पीड़ा रचते हैं। इस छोटे से वाक्य में ही पीड़ा का अंतहीन विस्तार है।
सन 1970-79 का दशक भोजपुरी सिनेमा के लिए क्रांतिकारी साबित हुआ। इस दौर में डाकू रानी गंगा, अमर सुहागिन, बलम परदेसिया, दंगल, मितवा, माई क लाल, धरती मैया, जागल भाग हमार, आईं। यह दशक भोजपुरी सिनेमा के लिए उल्लेखनीय रहा। रति कुमार के निर्देशन में दंगल भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म थी। इसमें तब की मिस इंडिया प्रेमा नारायण ने काम किया था। सुजीत कुमार लीड रोल में थे। इसके संगीतकार नदीम-श्रवण थे, जिन्होंने इस फिल्म से ही अपने करियर की शुरुआत की। इसके कई गाने उस समय लोगों की जुबान पर चढ़ गए थे, आरा हिले छपरा हिले, बलिया हिले ला...जब लचके तोर कमरिया सारा जिला हिले ला...।
लाल बहादुर ओझा ने लिखा है, पहलवानी, लठैती, भेड़ा की लड़ाई जैसे गंवई मसाले थे तो डाकुओं के अड्डे, घोड़ो की चौकड़ी और गोला-बारूद वाले एक्शन सीक्वेंस जैसे तत्कालीन नुमाइशी तत्वों का इस्तेमाल किया गया। इस फिल्म के बाद भोजपुरी सिनेमा ने एक बार फिर जोर पकड़ा।
नजीर हुसैन की 1979 में बलम परदेसिया आई। अपने कथ्य, गीत, संवाद को लेकर यह फिल्म काफी सराही गई। उसके कर्णप्रिय गीत आज भी लोगों को याद हैं। वितरक अशोक जैन ने 1983 में गंगा किनारे मोरा गांव बनाई। इसके निर्देशक थे दिलीप बोस। यह फिल्म पटना के अप्सरा थियेटर में 30 सप्ताह तक चली। 2000 में मारीशस में हुए विश्व भोजपुरी सम्मेलन में इसे खासतौर पर प्रदर्शित किया गया था। इसके बाद चनवा के ताके चकोर (1981), सैंया मगन पहलवानी में (1981), सैंया तोरे कारन (1981), हमार भौजी (1983), चुटकी भर सेंदुर (1983), गंगा किनारे मोरा गांव (1984), पिया के गांव (1985), दूल्हा गंगा पार के (1986), रूस गइले सैंया हमार (1988), पान खाए सैंया हमार, बिटिया भइल सयान, संैया से नेह लगइबे, नैहर के चुनरी, पटना के बाबू, बलमा नादान, पिया निरमोहिया, सोनवा क पिंजरा, बैरी सावन, मैया महतारी, बसुरिया बाजे गंगा तीरे, गजब भइले रामा, भैया दूज, दगाबाज बलमा, गोदना, लागल चुनरी में दाग, गंगा मैया कर द मिलनवा हमार, हमार दूल्हा और घायल पियवा प्रमुख रहीं।
मोहनजी प्रसाद की हमार भौजी, लक्ष्मण शाह की दूल्हा गंगा पार के फिल्में काफी सफल रहीं। भैया दूज भी इसी दौर में आई। इसे राजस्थानी में भी डब किया गया था। वहां भी सफल रही। नजीर हुसैन की रूस गइले सैंया हमार ने भी दर्शकों की वाहवाही बटोरी। फिल्म की अधिकांश शूटिंग नजीर साहब ने अपने गांव-गिराव जमानियां स्टेशन में किए।
इसके बाद बाबा के दुआरी, कसम गंगा जल के, गंगा से नाता बा हमार, गंगा तोरी ममता की छांव, कईसन बनउल संसार आदि फिल्में 1990-1999 के बीच आईं। इसी दौर में भोजपुरी गायक मनोज तिवारी गायकी में अपना परचम लहाराने के बाद फिल्म निर्माण की ओर रुख किया। भोजपुरी सिनेमा को ताकत मिली और इस दौर ने फिर से लोगों को आकर्षित किया। पांच-छह सालों के अंतराल के बाद 2005 में मनोज ने ससुरा बड़ा पइसा वाला बनाई। खुद भूमिका निभाई। मृतप्राय भोजपुरी सिनेमा को जीवन मिला। इसने बनारस में पचास सप्ताह और कानपुर में 25 सप्ताह तक व्यवसाय किया। मनोज का उत्साह बढ़ा। फिर, दारोगा बाबू आई लव यू बनाई। इसने चार करोड़ का व्यवसाय किया। बंधन टूटे ना ने तीन करोड़ का व्यवसाय किया। इस सफलता को देख भोजपुरी में सिनेमा बनाने की बाढ़ आ गई। धरती कहे पुकार के, धरती पुत्र, गंाग, गंगोत्री, प्रतिज्ञा, भाई होखे त भरत नियन आई। गंगा में अमिताभ बच्चन व हेमामालिनी ने काम किया था। इसे अमिताभ के मेकअप मैन दीपक सावंत ने बनाई थी। भाई होखे तक भरत नियन में भोजपुरी गायक भरत शर्मा व्यास ने इस दुनिया में पदार्पण किया। इसमें सुरेश वाडेकर ने क्लासिक अंदाज में एक भोजपुरी गीत गाया है...गोरिया चल न जवनिया संभार के।
इस दौर में कई ऐसी फिल्में रहीं, जिनमें हिंदी सिनेमा के स्टारों ने काम किया। अजय देवगन ने धरती कहे पुकार के में काम किया। मिथुन चक्रवर्ती भी पीछे नहीं रहे। दक्षिण भारत की नगमा ने कई फिल्मों में काम किया। उनकी पहचान भी इन्हीं फिल्मों से बनीं। रवि किशन आज भोजपुरी के स्टार हैं। टीवी से इस दुनिया में प्रवेश किया। श्वेता तिवारी, उर्वशी ढोलकिया आदि कई नाम हैं, जिन्होंने भोजपुरी फिल्मों में काम किया। बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा व उदित नारायण ने भी भोजपुरी फिल्में बनाईं। आज भोजपुरी का बाजार गरम है। लेकिन इसे वह दर्जा नहीं मिल पाया, जो अन्य क्षेत्रीय सिनेमा को मिला। बांग्ला, मलयालम आदि में बनी फिल्में पुरस्कार भी जीततीं। क्या आज पैसा बनाने का साधन नहीं बन गई हैं भोजपुरी फिल्में? नजीर हुसैन, चित्रगुप्त, विश्वनाथ शाहाबादी ने अपनी परंपरा को याद करते हुए फिल्में बनाई। समाज, संस्कृति और समस्याएं मूल थीं। आज ये सारी चीजें नदारद हैं। इसकी चिंता आज के निर्माताओं और निर्देशकों को नहीं है। एक समय शैलेंद्र, महेंद्र मिसिर, अनजान, पद्मा खन्ना, सुजीत कुमार, कुंदन कुमार, असीत कुमार, असीत सेन आदि भोजपुरी के पर्याय बन गए थे। आज वह बात नहीं रही। संविधान सूची में शामिल नहीं किए जाने के बावजूद यह आगे बढ़ती रही। लेकिन आज के निर्देशकों का ध्यान इस ओर नहीं है कि कैसे स्तरीय सिनेमा बने। कमाई में नंबर होने के बावजूद क्षेत्रीय सिनेमा में कैसे नंबर वन स्थान हासिल करे, इसकी चिंता तो सबको करनी पड़ेगी। द्विअर्थी संवादों-गीतों से न भाषा का कल्याण हो न फिल्मों का। सफलता के बजाय कुछ सार्थक सिनेमा बने तो बात बने। आधी सदी के सफर के बाद हम इस दिशा में सोच सकते हैं। यह मौका है बताने का कि भोजपुरी अश्लीलता का ही पर्याय नहीं है।
भूल गए राधाकृष्ण को
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राधाकृष्ण का जन्म रांची के अपर बाजार में 18 सितंबर 1910 को हुआ था और निधन 3 फरवरी 1979 को। उनके पिता मुंशी रामजतन मुहर्रिरी करते थे। उनकी छह पुत्रियां थीं और एक पुत्र राधाकृष्ण, जो बहुत बाद में हुए। पर, राधाकृष्ण के साथ यह क्रम उलट गया यानी राधाकृष्ण को पांच पुत्र हुए व एक पुत्र। राधाकृष्ण जब चार साल की उम्र के थे तो उनके पिता का निधन हो गया। 1942 में इनकी शादी हुई। उनके निधन के सत्रह साल बाद उनकी पत्नी का देहांत भी 1996 में हुआ।
अपनी गुरबत की जिंदगी के बारे में उन्होंने लिखा है, 'उस समय हम लोग गरीबी के बीच से गुजर रहे थे। पिताजी मर चुके थे। घर में कर्ज और गरीबी छोड़ कुछ भी नहीं बचा था। न पहनने को कपड़ा और न खाने का अन्न।Ó अभावों में उनका बचपन बीता। चाह कर भी स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाई। किसी तरह एक पुस्तकालय से पढऩे-लिखने का क्रम बना। कुछ दिन मुहर्रिरी सीखी। वहां मन नहीं लगा तो एक बस में कंडक्टर हो गए। 1937 में यह नौकरी भी छोड़ दी। लेकिन इसी दरम्यान कहानी लेखन में सक्रिय हो गए। सबसे पहले 1929 में उनकी कहानी छपी गल्प माला में। इस पत्रिका को जयशंकर प्रसाद के मामा अंबिका प्रसाद गुप्त निकालते थे। कहानी का शीर्षक था-सिन्हा साहब। इसके बाद तो माया, भविष्य, त्यागभूमि आदि पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपने लगे। प्रेमचंद राधाकृष्ण की प्रतिभा देख पहले ही कायल हो चुके थे। इसलिए हंस में भी राधाकृष्ण छपने लगे थे। जब प्रेमचंद का निधन हुआ तो शिवरानी देवी ने हंस का काम देखने के लिए रांची से बुला लिया। यहीं रहकर श्रीपत राय के साथ मिलकर 'कहानीÓ निकाली। पत्रिका चल निकली, लेकिन वे ज्यादा दिनों तक बनारस में नहीं रह सके। इसके बाद वे बंंबई गए और वहां कथा और संवाद लिखने का काम करने लगे। पर बंबई ने इनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाला और वे बीमार होकर रांची चले आए। फिर कभी उधर नहीं देखा। कुछ दिनों कलकत्ते में रहे। वहां मन नहीं लगा। इस बीच मां की मृत्यु ने इन्हें तोड़ दिया। अमृत राय ने लिखा हैै, 'मेरी पहली भेंट (राधाकृष्ण से) 1937 के किसी महीने में हुई। वो हमारे घर आए। हम लोग उन दिनों राम कटोरा बाग में रहते थे। हम दोनों ही उस समय बड़े दुखियारे थे। इधर, मेरे पिता को देहांत अक्तूबर 1936 में हुआ था और उधर लालबाबू (राधाकृष्ण को लोग इसी नाम से पुकारते थेे) की मां का देहांत उसी के दो चार महीने आगे-पीछे हुआ था। एक अर्थ में लालबाबू का दुख मेरे दुख से बढ़कर था, क्योंकि उनके पिता तो बरसों पहले उनके बचपन में ही उठ गए थे और फिर अपनी नितांत सगी एक मां बची थी, जिसके न रहने पर लालबाबू अब बिल्कुल ही अकेले हो गए थे।Ó
राधाकृष्ण 1947 में बिहार सरकार की पत्रिका 'आदिवासीÓ के संपादक बनाए गए। इसका प्रकाशन केंद्र रांची ही था। पहले यह नागपुरी में निकली, लेकिन बाद में हिंदी में निकलने लगी। इस पत्रिका से राधाकृष्ण की एक अलग पहचान बनी। आदिवासियों को स्वर मिला। बाद में वे पटना आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यूसर हो गए। जब रांची में आकाशवाणी केंद्र की स्थापना (27 जुलाई, 1957)हुई तो वे यहीं आ गए।
बस कंडक्टरी से आकाशवाणी तक के सफर में गरीबी और अभावों ने कभी साथ नहीं छोड़ा। उन्होंने कभी हार नहीं मानी। लेखनी लगातार सक्रिय रही। उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण आदि का क्रम चलता रहा।
राधाकृष्ण ने अपनी कहानियों की लीक खुद ही बनाई। उस दौर में, जब कहानी के कई स्कूल चल रहे थे, प्रसाद की भाव व आदर्श से युक्त, प्रेमचंद की यथार्थवाद से संपृक्त, जैनेंद्र, अज्ञेय के साथ माक्र्सवादी विचारों से प्रभावित कहानियों का चलन था। पर राधाकृष्ण ने किसी भी बड़े नामधारी रचनाकारों का अनुसरण नहीं किया। न उनकी प्रतिभा से कभी आक्रांत हुए। उन्हें अपने जिए शब्दों, अनुभवों पर दृढ़ विश्वास था। आंखन देखी ही वे कहानियां लिखा करते थे। पर, कभी सुदूर देश की समस्या पर भी ऐसी कहानी लिख मारते थे, जैसे वह आंखों देखी हो। आदिवासियों के जीवन और उनकी विडंबना, सहजता और सरलता को भी अत्यंत निकट से जाना-समझा। यह भी देखा कि इनकी ईमानदारी का दिकू (बाहरी आदमी) कैसे लाभ उठाते हैं, उन्हें कैसे ठगते हैं। इसके साथ ही यह भी देखा कि आदिवासी कैसे अपने ही बनाए टोटमों में बर्बाद हो रहे हैं। उनकी 'मूल्यÓ कहानी ऐसी ही एक प्रथा से जुड़ी है। आदिवासियों के उरांव जनजाति में प्रचलित ढुकू प्रथा को लेकर लिखी गई है। इसी तरह उनकी कहानी 'कानूनी और गैरकानूनीÓ जमीन से जुड़ी हुई है। लेखक की जिंदगी, वसीयतनामा, परिवर्तित, रामलीला, अवलंब, एक लाख सत्तानवे हजार आठ सौ अ_ïासी, कोयले की जिंदगी, गरीबी की दवा निम्र मध्य वर्ग से सरोकार रखने वाली कहानियां हैं। इंसानियत के स्खलन, आदमी की बदनीयती, संवेदनाओं का घटते जाना आदि को बहुत बेधक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। विश्वनाथ मुखर्जी ने लिखा है, हिंदी में कुछ कहानियां आई हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। गुलेरी जी की 'उसने कहा थाÓ, प्रेमचंदजी की 'मंत्रÓ, कौशिक जी की 'ताईÓ...रांगेय राघव की 'गदलÓ आदि कहानियां भुलाई जाने वाली नहीं हैं। ठीक उसी प्रकार राधाकृष्ण की 'एक लाख चौरासी हजार सात सौ छियासीÓ भी। अमृत राय ने भी माना कि 'अवलंबÓ और 'एक लाख चौरासी हजार सात सौ छियासीÓ जैसी कहानियां हिंदी में बहुत नहीं हैं।Ó
उनकी एक और कहानी जिसकी चर्चा या ध्यान लोगों का नहीं गया, वह है 'इंसान का जन्मÓ। श्रवणकुमार गोस्वामी ने भी राधाकृष्ण पर लिखे अपने विनिबंध में इस कहानी की चर्चा नहीं की है। बंगलादेश पर पाकिस्तानी फौजों के अत्याचार और बाद में भारतीय फौजों के आगे उनके सपर्मण को केंद्र में रखकर बुनी गई है यह कहानी। यह उनके किसी संग्रह में शामिल नहीं है। जबकि रामलीला, सजला (दो खंड), गेंद और गोल संग्रह हैं। इनमें कुल मिलाकर 56 कहानियां हैं। इसके अलावा फुटपाथ, रूपांतर, सनसनाते सपने, सपने बिकाऊ हैं आदि उनके प्रकाशित उपन्यास हैं। नाटक, एकांकी, बाल साहित्य भी अकूत हैं। उनकी ढेर सारी रचनाएं अप्रकाशित भी हैं। अपने समय की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में वे प्रकाशित होते रहे, जिनमें साप्ताहिक हिंदुस्तान, आजकल, कादंबिनी, नई कहानियां, विश्वमित्र, विशाल भारत, सन्मार्ग, प्राची, ज्ञानोदय, चांद, औघड़, धर्मयुग, सारिका, नवनीत, बोरीबंदर, माया, माध्यम, संगम, परिकथा, क ख ग, माधुरी, गंगा, त्रिपथगा, प्रताप, वर्तमान प्रमुख हैं।
राधाकृष्ण घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी नाम से व्यंग्य भी लिखते थे। इनके लिखे व्यंग्य पर आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा है, 'घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी के उपनाम से कहानियां लिखकर हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में युगांतर लाने वाले व्यक्ति आप ही हैं। ...आयासहीन ढंग से लिखा गया ऐसा व्यंग्य हिंदी साहित्य में विरल है।Ó
ऐसा विरल साहित्यकार हिंदी जगत में उपेक्षित रह गया। आखिर जिस कथाकार ने अपने समय में जयशंकर प्रसाद गुप्त, प्रेमंचद, डा. राजेंद्र प्रसाद, भगवतीचरण वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त, आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी, अमृत राय, विष्णु प्रभाकर, फादर कामिल बुल्के को अपना प्रशंसक बना लिया था, उसे हमारे आलोचकों ने क्यों उपेक्षित छोड़ दिया?द्
तीन फरवरी को राधाकृष्ण की पुण्यतिथि है। उनकी स्मृति को समर्पित है यह लेख।
सिर्फ इक बार मुलाकात का मौका दे दे
संजय कृष्ण : ...तो गजल के बेताज बादशाह गुलाम अली की सुरमई शाम थी। सरहद पार से आती सुर की आवाज रांची को भिंगो गई। बुधवार की शाम कुछ ऐसी थी, जो सालोंसाल याद रहेगी। वाकई, थी खबर गर्म उनके आने की। जैसे ही वह रांची के जिमखाना क्लब के मंच पर नमूदार हुए, तालियों से जोरदार इस्तकबाल हुआ। अब तो बहार आने की बारी थी। वे गजलों का ऐसा गुलदस्ता लेकर आए थे, जिसमें हर रंग के फूल खिले थे। कुंजे-लब से जब लहरों की तरह कशिश भरी आवाज बाहर आ रही थी तो वह मिस्ले-अश्क (आंसू की तरह) की तरह भी बन जाती।
आगाज इन दुआओं के साथ कि...मैं आपका दुआ करने वाला हूं, खुश रहें, सुर में रहें, तभी हम भी सुर में रह सकते हैं। ...अब मैं समझा तेरे रुखसार पे तिल का मतलब, दौलते हुस्न पे दरवान बिठा रखा है से अपनी गजलों का आगाज किया। अनवर की इस गजल के बाद अपनी मशहूर गजल सुनाई। इस गजल से उन्हें पहचान भी मिली और प्रसिद्धि भी। यह गजल थी हसरत मोहानी की। तीस पंक्तियों की इस गजल के कुछ शेर ही सुनाए। कंपकपाते ओठ से जब पहला शब्द चुपके निकला तो तालियां से पूरी बज्म गूंज उठी। करीब पांच मिनट तक इस शब्द पर ही अटके रहे। श्रोता लहालोट होते रहे। सात सुरों में पिरोया था इस शब्द को। ..चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है...हमको अब तक आशिकी का वह जमाना याद है। यह काफी राग में थी। इसे ठाट का राग कहते हैं। इस गजल को गुलाम अली ने खुद कंपोज किया था। एक-एक शब्द पर ठहरते फिर आगे बढ़ते। अगली बारी नासिर काजमी के गजल की थी...रागिनी पहाड़ी में। पहले शेर पढ़ी। दिल गया था तो ये आंखें भी कोई ले जाता...मैं फकत एक ही तस्वीर कहां तक देखूं। अब गजल की बारी थी, दिल में एक लहर-सी उठी है अभी, कोई ताजा हवा चली है अभी। लहरों में जैसे अलोडऩ पैदा होती है, ओठों से भी गुलाम साहब कुछ ऐसा ही एहसास पैदा कर रहे थे। शांत लहर, तेज लहर, मद्धिम लहर...। न जाने कितनी लहरें लबों से उठ रही थीं। अब चौथी गजल की बारी थी। गजल से पहले यह शेर भी सुनाया- कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में, बंदे भी हो गए हैं खुदा तेरे शहर में..। इसके बाद गजल पेश की- हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह, सिर्फ इक बार मुलाकात का मौका दे दे..। मेरी मंजिल है कहां, मेरा ठिकाना है कहां सुबह तक तुझसे बिछड़कर मुझे जाना है कहां..। आज इजहारे खयालात का मौका दे दे..।
हालांकि मना करने के बावजूद कुछ लोग मोबाइल व इलेक्ट्रानिक कैमरे में इस शाम को कैद रहे थे। बार-बार वह कैमरा बंद करने की गुजारिश कर रहे थे। कहा, मैं गजलें आपको सुनाने आया हूं, कैमरों को नहीं।
व्यवधान के बाद अगली गजल पेश की...तुम्हारे खत में वो इक सवाल किसका था, वफा रकीब तो आखिर वो नाम किसका था...। महफिल जवां होकर धीरे-धीरे अंजाम की ओर बढ़ रही थी। थोड़ा मूड बदला। गजल से ठुमरी पर आए। बरसन लागे सावन....तोरे बिना लागे न जिया मोरा। ठुमरी सुन सबके हाथ खुल गए। एक बार फिर तालियां की गडग़ड़ाट से अपने इस कलाकार का इस्तकबाल किया। अब तो बारी हंगामा बरपाने की थी। 'हंगामा है क्यों बरपाÓ कार्यक्रम के जरिए गजल सम्राट गुलाम अली ने क्लब परिसर में सुरमई जाजम बिछा दी। सुरों में झलकती बुजुर्गियत के बावजूद उन्होंने श्रोताओं को गजल अदायगी से बांधे रखा। स्वर पर ऐसी पकड़ की कि संगतसाज जुगलबंदी करने में अपने को असहज पा रहे थे। सुर व स्वर पर ऐसा नियंत्रण कि तबले की थाप भी असहज हो जाती। ऐसी थी 70 साल के इस युवा गायक की दिलकश आवाज।
आगाज इन दुआओं के साथ कि...मैं आपका दुआ करने वाला हूं, खुश रहें, सुर में रहें, तभी हम भी सुर में रह सकते हैं। ...अब मैं समझा तेरे रुखसार पे तिल का मतलब, दौलते हुस्न पे दरवान बिठा रखा है से अपनी गजलों का आगाज किया। अनवर की इस गजल के बाद अपनी मशहूर गजल सुनाई। इस गजल से उन्हें पहचान भी मिली और प्रसिद्धि भी। यह गजल थी हसरत मोहानी की। तीस पंक्तियों की इस गजल के कुछ शेर ही सुनाए। कंपकपाते ओठ से जब पहला शब्द चुपके निकला तो तालियां से पूरी बज्म गूंज उठी। करीब पांच मिनट तक इस शब्द पर ही अटके रहे। श्रोता लहालोट होते रहे। सात सुरों में पिरोया था इस शब्द को। ..चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है...हमको अब तक आशिकी का वह जमाना याद है। यह काफी राग में थी। इसे ठाट का राग कहते हैं। इस गजल को गुलाम अली ने खुद कंपोज किया था। एक-एक शब्द पर ठहरते फिर आगे बढ़ते। अगली बारी नासिर काजमी के गजल की थी...रागिनी पहाड़ी में। पहले शेर पढ़ी। दिल गया था तो ये आंखें भी कोई ले जाता...मैं फकत एक ही तस्वीर कहां तक देखूं। अब गजल की बारी थी, दिल में एक लहर-सी उठी है अभी, कोई ताजा हवा चली है अभी। लहरों में जैसे अलोडऩ पैदा होती है, ओठों से भी गुलाम साहब कुछ ऐसा ही एहसास पैदा कर रहे थे। शांत लहर, तेज लहर, मद्धिम लहर...। न जाने कितनी लहरें लबों से उठ रही थीं। अब चौथी गजल की बारी थी। गजल से पहले यह शेर भी सुनाया- कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में, बंदे भी हो गए हैं खुदा तेरे शहर में..। इसके बाद गजल पेश की- हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह, सिर्फ इक बार मुलाकात का मौका दे दे..। मेरी मंजिल है कहां, मेरा ठिकाना है कहां सुबह तक तुझसे बिछड़कर मुझे जाना है कहां..। आज इजहारे खयालात का मौका दे दे..।
हालांकि मना करने के बावजूद कुछ लोग मोबाइल व इलेक्ट्रानिक कैमरे में इस शाम को कैद रहे थे। बार-बार वह कैमरा बंद करने की गुजारिश कर रहे थे। कहा, मैं गजलें आपको सुनाने आया हूं, कैमरों को नहीं।
व्यवधान के बाद अगली गजल पेश की...तुम्हारे खत में वो इक सवाल किसका था, वफा रकीब तो आखिर वो नाम किसका था...। महफिल जवां होकर धीरे-धीरे अंजाम की ओर बढ़ रही थी। थोड़ा मूड बदला। गजल से ठुमरी पर आए। बरसन लागे सावन....तोरे बिना लागे न जिया मोरा। ठुमरी सुन सबके हाथ खुल गए। एक बार फिर तालियां की गडग़ड़ाट से अपने इस कलाकार का इस्तकबाल किया। अब तो बारी हंगामा बरपाने की थी। 'हंगामा है क्यों बरपाÓ कार्यक्रम के जरिए गजल सम्राट गुलाम अली ने क्लब परिसर में सुरमई जाजम बिछा दी। सुरों में झलकती बुजुर्गियत के बावजूद उन्होंने श्रोताओं को गजल अदायगी से बांधे रखा। स्वर पर ऐसी पकड़ की कि संगतसाज जुगलबंदी करने में अपने को असहज पा रहे थे। सुर व स्वर पर ऐसा नियंत्रण कि तबले की थाप भी असहज हो जाती। ऐसी थी 70 साल के इस युवा गायक की दिलकश आवाज।
क्या हमें डोंबारी बुरू का नरसंहार याद है
संजय कृष्ण, रांची : जालियांवाला बाग की घटना देश-दुनिया को याद है, स्कूलों के पाठ्यक्रम में भी शामिल है। पर, क्या हमें डोंबारी बुरू की याद है? जवाब आएगा नहीं? क्योंकि न इतिहास में दर्ज है, न पाठ्यक्रमों में। पर लोगों के दिलोदिमाग में यह घटना आज भी दर्ज है। जालियांवाला बाग की घटना के बीस साल पहले झारखंड के खूंटी जिले में अंग्रेजों ने नौ जनवरी 1899 को हजारों मुंडाओं का बेरहमी से नरसंहार कर दिया था। इसमें महिलाएं और बच्चे काफी संख्या में कत्ल किए गए थे। इस पहाड़ी पर बिरसा मुंडा अपने प्रमुख 12 शिष्यों सहित हजारों मुंडाओं को जल, जंगल, जमीन बचाने को लेकर संबोधित कर रहे थे। आस-पास के दर्जनों गांवों से लोग एकत्रित होकर भगवान बिरसा को सुनने गए थे। बात अभी शुरू ही हुई थी कि अंग्रेजों ने डोंबारी बुरू हो घेर लिया। हथियार डालने के लिए अंग्रेज मुंडाओं को ललकारने लगे। लेकिन मुंडाओं ने हथियार डालने की बजाय शहीद होने का रास्ता चुना। फिर क्या था, अंग्रेजों की सैनिक टुकड़ी टूट पड़ी और हजारों को मौत के घाट उतार दिया। बिरसा मुंडा गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें आज के बिरसा मुंडा कारावास में बंद कर दिया गया। आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच की रेजेन गुडिय़ा बताती हैं, इस नरसंहार में एक बच्चा बच गया था, जिसे एक अंग्रेज ने गोद ले लिया। यह बच्चा आगे चलकर जयपाल सिंह मुंडा बना। जंगल बचाओ आंदोलन से जुड़ी आलोका कहती हैं, डोंबारी बुरू का नरसंहार इतिहास में भी दर्ज नहीं है। बहुत से मुंडा आदिवासी भी इसे नहीं जानते। दयामनी बरला कहती हैं कि इस ऐतिहासिक उलगुलान को इतिहास में जगह नहीं दी गई। मुख्यधारा का इतिहास आज भी झारखंड से परहेज करता है जबकि अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले लड़ाई झारखंड में ही शुरू हुई। बेशक, झारखंड के बने दस साल हो गए, लेकिन डोंबारी बुरू में एक विशाल स्तंभ निर्माण के अलावा वहां कुछ भी नहीं है। यह अपने इतिहास के प्रति निरपेक्ष दृष्टि है। हम अपने ही इतिहास से बेखबर हैं। जिसका नतीजा है कि वह वही इतिहास पढ़ते हैं, जो सत्ता हमें पढ़ाना चाहती है।
गणतंत्र के गांव में भूख का नृत्य
संजय कृष्ण, रांची : रांची से बेड़ो, सिसई, गुमला होते हुए रायडीह प्रखंड के एक गांव कुलमुंडा पहुंचते हैं तो सूरज सीधे सिर पर आ गया था। ठंड के मौसम में तीखी धूप थोड़ा राहत दे रही थी। पहाड़ उदास खड़े थे। जंगल खामोश थे। खेतों में दूब भी दुबके हुए थे। पिछले कई सालों से बारिश के दगा देने से लोगों के चेहरे पर मायूसी साफ-साफ झलक रही थी। गुमला से इस गांव की दूरी करीब दस किमी है और रायडीह की दूरी इससे थोड़ी कम है। राजधानी रांची से करीब एक सौ दस किमी। कुलमुंडा राजस्व गांव है और इसमें कुल 16 टोले हैं। पीबो पहाड़ी की तलहटी में बसे इस गांव के खासी टोले में पहुंचते हैं। चमचमाते हाइवे से गांव जाने के लिए कच्ची सड़क है। हम कच्ची सड़क पकड़ गांव की ओर रुख कर लेते हैं।
गांव की पगडंडियों पर अधनंगे बच्चे बेफिक्र खेल रहे हैं। न उन्हें अतीत का बोध न भविष्य की चिंता। शहरी बच्चों का बचपन तो किताबों में गुम हो गया है। पर यहां तो अभावों में भी उनके चेहरे पर संतोष और मुस्कान पसरी है। गांव पहुंचते हैं तो खुले आंगन के घर में प्रवेश करते हैं।
लेदरू राम की उम्र पचास को छू रही है। शरीर ऐसा कि एक-एक हड्डी गिन सकते हैं। सात भाइयों में सात एकड़ जमीन। पर, पानी के अभाव में खेत भी प्यासा और शरीर भी। वह बताता है, मात्र तीन महीने की उपज होती है। नौ महीने के लिए हाड़तोड़ परिश्रम करनी पड़ती है। मांदर बनाकर पूरे साल कमाई नहीं की जा सकती। लेदरू बताता है कि लोग अपनी संस्कृति से भी दूर हट रहे हैं। सो, मांदर की बिक्री भी कम हो रही है। इसलिए, मांदर पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। सरकार की ओर से कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
इस गांव में घासी जाति के नौ घर हैं। राजपूत के दो घर। गांव में राजपूतों के घर पक्का हैं। बेशक, उनके घर को देखने से उनकी खुशिहाली झलकती है। गांव में एकमात्र घर बढ़ई का है। माडू राम लोहार। पर वह गांव में नहीं है। उसकी बूढ़ी मां घर पर है। गांव में घूम-घूमकर उसका पेट भरता है। गांव में सब उसे सेशो मां कहते हैं। मांडू को कोई रोजगार नहीं मिला, इसलिए बच्चे, पत्नि समेत बाहर कमाने चला गया।
जंगल से लकड़ी काटने पर अब मनाही है। वन विभाग की ओर से नहीं, लाल सलाम की ओर से। वन विभाग सजग होता तो राज्य के जंगल नंगे नहीं होते। जंगल पर निर्भर रहने वालों के लिए पलायन के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। गांव वाले शिकायत करते हैं, मनरेगा से काम तो मिल जाता है, पर समय से मजदूरी नहीं मिल पाती। इस क्षेत्र के विधायक हैं कमलेश उरांव। गांव वालों ने उनका दर्शन नहीं किया। फोटो में देखे हैं। समस्याएं और भी हैं...। गांव के इस गणतंत्र में क्या गण अपनी किस्मत खुद लिख सकेंगे?
यह रिपोर्ट विस्फोट डाट काम पर प्रकाशित।
गांव की पगडंडियों पर अधनंगे बच्चे बेफिक्र खेल रहे हैं। न उन्हें अतीत का बोध न भविष्य की चिंता। शहरी बच्चों का बचपन तो किताबों में गुम हो गया है। पर यहां तो अभावों में भी उनके चेहरे पर संतोष और मुस्कान पसरी है। गांव पहुंचते हैं तो खुले आंगन के घर में प्रवेश करते हैं।
लेदरू राम की उम्र पचास को छू रही है। शरीर ऐसा कि एक-एक हड्डी गिन सकते हैं। सात भाइयों में सात एकड़ जमीन। पर, पानी के अभाव में खेत भी प्यासा और शरीर भी। वह बताता है, मात्र तीन महीने की उपज होती है। नौ महीने के लिए हाड़तोड़ परिश्रम करनी पड़ती है। मांदर बनाकर पूरे साल कमाई नहीं की जा सकती। लेदरू बताता है कि लोग अपनी संस्कृति से भी दूर हट रहे हैं। सो, मांदर की बिक्री भी कम हो रही है। इसलिए, मांदर पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। सरकार की ओर से कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
इस गांव में घासी जाति के नौ घर हैं। राजपूत के दो घर। गांव में राजपूतों के घर पक्का हैं। बेशक, उनके घर को देखने से उनकी खुशिहाली झलकती है। गांव में एकमात्र घर बढ़ई का है। माडू राम लोहार। पर वह गांव में नहीं है। उसकी बूढ़ी मां घर पर है। गांव में घूम-घूमकर उसका पेट भरता है। गांव में सब उसे सेशो मां कहते हैं। मांडू को कोई रोजगार नहीं मिला, इसलिए बच्चे, पत्नि समेत बाहर कमाने चला गया।
जंगल से लकड़ी काटने पर अब मनाही है। वन विभाग की ओर से नहीं, लाल सलाम की ओर से। वन विभाग सजग होता तो राज्य के जंगल नंगे नहीं होते। जंगल पर निर्भर रहने वालों के लिए पलायन के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। गांव वाले शिकायत करते हैं, मनरेगा से काम तो मिल जाता है, पर समय से मजदूरी नहीं मिल पाती। इस क्षेत्र के विधायक हैं कमलेश उरांव। गांव वालों ने उनका दर्शन नहीं किया। फोटो में देखे हैं। समस्याएं और भी हैं...। गांव के इस गणतंत्र में क्या गण अपनी किस्मत खुद लिख सकेंगे?
यह रिपोर्ट विस्फोट डाट काम पर प्रकाशित।
मैं अल्बर्ट एक्का बोल रहा हूं...
जी हां, मैं अल्बर्ट एक्का बोल रहा हूं। सोचा, आज गणतंत्र दिवस है। कुछ अपनी कुछ जग की कहानी सुनाऊं। तो, आपने भी मेरी आदमकद मूर्ति देखी होगी। रांची का हृदय कहा जाने वाला फिरायालाल चौक पर। तब यह फिरायालाल चौक कहा जाता था। जब से मेरी आदमकद मूर्ति लगी, आधिकारिक रूप से इसका नाम मेरे नाम पर यानी अलबर्ट एक्का चौक हो गया। हालांकि बहुत से लोग उसके पुराने नाम से ही जानते हैं। मेरी यहां पर मूर्ति क्यों लगी, शायद आप जानते होंगे। फिर भी, कुछ बातें आपसे से साझा करना चाहता हूं। चूंकि गणतंत्र दिवस का जश्न पूरे देश में मनाया जा रहा है। इसलिए आज मौजू भी है।
शुरुआत अपने जन्म से कर रहा हूं। मेरा जन्म एक ईसाई आदिवासी परिवार में आज से 69 साल पहले 27 दिसंबर, 1942 को गुमला के जारी गांव में हुआ था। तब गुमला रांची में था। ब्रिटिश काल के दौरान गुमला लोहरदगा जिले के अधीन था। रांची भी लोहरदगा में ही था। 1843 में बिशुनपुर रियासत के अधीन हुआ, जो बाद में रांची कहलाया। 1899 में रांची जिला अस्तित्व में आया। इसके तीन साल बाद 1902 में गुमला रांची का सब डिविजन बना। लेकिन रांची से अलग जिला बनने में गुमला को 81 साल लग गए। 18 मई 1983 को गुमला आखिरकार जिला बन गया। कभी-कभी सोचता हूं कि मैं रांची का हूं या गुमला का। मेरा जन्म भी रांची जिले में हुआ और जब 1971 को शहीद हुआ तब भी मैं रांची जिले का ही था। यह अलग बात है कि मेरे शहीद होने के 12 साल बाद गुमला जिले का अस्तित्व आया।
आप सोच रहे होंगे कि अपनी कथा के बजाय अपने जिले की कथा सुनाने क्यों लग गया। यह जानना भी जरूरी था। क्योंकि आज की पीढ़ी शायद इन जिलों की कहानी से अनजान हो।
जब मेरी उम्र 20 साल की थी, इंडियन आर्मी में शामिल हो गया। यह भी दिसंबर का माह था और तारीख थी वही 27 दिसंबर। सेना में भर्ती होने के बाद उत्साह के साथ दुश्मनों से लड़ता। 1971 में जब भारत और पाकिस्तान से युद्ध हुआ। दिसंबर का माह था। चौदह सुरक्षाकर्मियों का मैं लांस नायक था। त्रिपुरा और बंगलादेश की सीमा पर गंगासागर के निकट तैनाती थी। हम लोग पोजीशन लिए हुए थे। दुश्मनों की संख्या भी अच्छी खासी थी। 4 दिसंबर, 1971 को अपने सैनिकों के साथ बाएं की ओर बढ़ रहे थे। बाएं की ओर से दुश्मन सैनिकों की गोलियां आ रही थीं। हम आगे बढ़ते रहे। पाकिस्तानी बंकर से मशीन गन से फायर झोंक दिया। इसमें कई सैनिक हताहत हुए। फिर भी हम, उसी दिशा में आगे बढ़ते रहे। अंतत: उस बंकर को ध्वस्त कर दिया। इसमें खुद मैं भी घायल हो गया, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। आगे बढ़ता रहा और पाकिस्तानी सैनिकों को डेढ़ किमी पीछे धकेल दिया। हालांकि इसी बीच फिर फायरिंग हुई दूसरे बंकर से। इसमें बुरी तरह घायल हो गया। खून बहता जा रहा था। अफसोस नहीं था, क्योंकि यह खून देश के लिए बह रहा था। अंतत: मेरी आंखें धीरे-धीरे बंद होने लगीं। मुझे खुशी थी कि पाकिस्तानी कब्जे से गंगासागर अखौरा को दुश्मनों से मुक्त करा दिया था। और, इस तरह शहीदों में एक नाम और जुड़ गया। मेरे बलिदान को देखते हुए भारत की सरकार ने 50 वें गणतंत्र दिवस पर सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया। इस सम्मान और मेरे बलिदान को देखते हुए ही फिरायालाल चौक पर मेरी आदमकद मूर्ति लगी है। मेरी संगीन पश्चिम की ओर है। पश्चिम में ही, जिसे मेन रोड कहा जाता है, हालांकि इसका नाम भी गांधी मार्ग है, इस मार्ग पर मंदिर है, गिरजा है, गुरुद्वारा है और मस्जिद भी है। चारों धर्म को मानने वालों के पूजा स्थल गांधी मार्ग पर है। मेरी संगीन इस दिशा में इसलिए है कि सांप्रदायिक शक्तियों को नियंत्रित कर सकूं। बातें और भी हैं। घर-परिवार बहुत खुशहाल नहीं है। हारी-बीमारी में मेरे परिवार पर लोगों का ध्यान तभी जाता है जब मीडिया वाले सरकार को जगाते हैं। मेरी पत्नी बलमदीना को शहादत दिवस पर अपने गांव में लगने वाले मेले में बुलाया जाता है। उन्हें शाल देकर सम्मानित भी किया जाता है। फिर भूला दिया जाता है। एक बेटा है विंसेट एक्का। हमारे देश में शहीदों की यही स्थिति है।
पता नहीं, दिसंबर का माह मेरे साथ कैसे चिपक गया। जन्म में इसी माह में और शहादत भी इसी माह है। खैर, ईसाई धर्म में दिसंबर माह पवित्र होता है। सो, यह मेरे लिए गर्व का विषय है। जाते-जाते एक और बात कहते जाता हूं। मेरी आदमकद मूर्ति पर लोग अपनी-अपनी पार्टी के झंडे-बैनर लगा देते हैं। अभी मेरी साफ-सफाई हो रही है। फिर किसी को मेरी सुधि नहीं होगी।
-संजय कृष्ण
शुरुआत अपने जन्म से कर रहा हूं। मेरा जन्म एक ईसाई आदिवासी परिवार में आज से 69 साल पहले 27 दिसंबर, 1942 को गुमला के जारी गांव में हुआ था। तब गुमला रांची में था। ब्रिटिश काल के दौरान गुमला लोहरदगा जिले के अधीन था। रांची भी लोहरदगा में ही था। 1843 में बिशुनपुर रियासत के अधीन हुआ, जो बाद में रांची कहलाया। 1899 में रांची जिला अस्तित्व में आया। इसके तीन साल बाद 1902 में गुमला रांची का सब डिविजन बना। लेकिन रांची से अलग जिला बनने में गुमला को 81 साल लग गए। 18 मई 1983 को गुमला आखिरकार जिला बन गया। कभी-कभी सोचता हूं कि मैं रांची का हूं या गुमला का। मेरा जन्म भी रांची जिले में हुआ और जब 1971 को शहीद हुआ तब भी मैं रांची जिले का ही था। यह अलग बात है कि मेरे शहीद होने के 12 साल बाद गुमला जिले का अस्तित्व आया।
आप सोच रहे होंगे कि अपनी कथा के बजाय अपने जिले की कथा सुनाने क्यों लग गया। यह जानना भी जरूरी था। क्योंकि आज की पीढ़ी शायद इन जिलों की कहानी से अनजान हो।
जब मेरी उम्र 20 साल की थी, इंडियन आर्मी में शामिल हो गया। यह भी दिसंबर का माह था और तारीख थी वही 27 दिसंबर। सेना में भर्ती होने के बाद उत्साह के साथ दुश्मनों से लड़ता। 1971 में जब भारत और पाकिस्तान से युद्ध हुआ। दिसंबर का माह था। चौदह सुरक्षाकर्मियों का मैं लांस नायक था। त्रिपुरा और बंगलादेश की सीमा पर गंगासागर के निकट तैनाती थी। हम लोग पोजीशन लिए हुए थे। दुश्मनों की संख्या भी अच्छी खासी थी। 4 दिसंबर, 1971 को अपने सैनिकों के साथ बाएं की ओर बढ़ रहे थे। बाएं की ओर से दुश्मन सैनिकों की गोलियां आ रही थीं। हम आगे बढ़ते रहे। पाकिस्तानी बंकर से मशीन गन से फायर झोंक दिया। इसमें कई सैनिक हताहत हुए। फिर भी हम, उसी दिशा में आगे बढ़ते रहे। अंतत: उस बंकर को ध्वस्त कर दिया। इसमें खुद मैं भी घायल हो गया, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। आगे बढ़ता रहा और पाकिस्तानी सैनिकों को डेढ़ किमी पीछे धकेल दिया। हालांकि इसी बीच फिर फायरिंग हुई दूसरे बंकर से। इसमें बुरी तरह घायल हो गया। खून बहता जा रहा था। अफसोस नहीं था, क्योंकि यह खून देश के लिए बह रहा था। अंतत: मेरी आंखें धीरे-धीरे बंद होने लगीं। मुझे खुशी थी कि पाकिस्तानी कब्जे से गंगासागर अखौरा को दुश्मनों से मुक्त करा दिया था। और, इस तरह शहीदों में एक नाम और जुड़ गया। मेरे बलिदान को देखते हुए भारत की सरकार ने 50 वें गणतंत्र दिवस पर सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया। इस सम्मान और मेरे बलिदान को देखते हुए ही फिरायालाल चौक पर मेरी आदमकद मूर्ति लगी है। मेरी संगीन पश्चिम की ओर है। पश्चिम में ही, जिसे मेन रोड कहा जाता है, हालांकि इसका नाम भी गांधी मार्ग है, इस मार्ग पर मंदिर है, गिरजा है, गुरुद्वारा है और मस्जिद भी है। चारों धर्म को मानने वालों के पूजा स्थल गांधी मार्ग पर है। मेरी संगीन इस दिशा में इसलिए है कि सांप्रदायिक शक्तियों को नियंत्रित कर सकूं। बातें और भी हैं। घर-परिवार बहुत खुशहाल नहीं है। हारी-बीमारी में मेरे परिवार पर लोगों का ध्यान तभी जाता है जब मीडिया वाले सरकार को जगाते हैं। मेरी पत्नी बलमदीना को शहादत दिवस पर अपने गांव में लगने वाले मेले में बुलाया जाता है। उन्हें शाल देकर सम्मानित भी किया जाता है। फिर भूला दिया जाता है। एक बेटा है विंसेट एक्का। हमारे देश में शहीदों की यही स्थिति है।
पता नहीं, दिसंबर का माह मेरे साथ कैसे चिपक गया। जन्म में इसी माह में और शहादत भी इसी माह है। खैर, ईसाई धर्म में दिसंबर माह पवित्र होता है। सो, यह मेरे लिए गर्व का विषय है। जाते-जाते एक और बात कहते जाता हूं। मेरी आदमकद मूर्ति पर लोग अपनी-अपनी पार्टी के झंडे-बैनर लगा देते हैं। अभी मेरी साफ-सफाई हो रही है। फिर किसी को मेरी सुधि नहीं होगी।
-संजय कृष्ण
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