बस यारा, बंद करो यह लंगर

हुसैन कच्छी 
पाकिस्तान जिसको एक दुनिया गेटवे टू इस्लामिक वल्र्ड यानी इसलामी मुल्कों तक जाने का सदर दरवाजा कहलाती है, वहां बेकसूर लोगों के कत्ल का बाजार लगे हुए कई साल हो गए हैं। पेशावर उसका सदर मुकाम बना हुआ है। वही पेशावर जो एक वक्त में दमिश्क से चीन तक कारोबार के लिए आने-जाने के रास्ते में मुसाफिरों के लिए राहते जान का दर्जा रखता था। यात्रा वृत्तांत लिखने वालों ने इस शहर को तकिया कहा है। सारे जहां के लोग यहां एक दूसरे से मिलते थे। सब अनजाने लोग यहां जाने-पहचाने बन जाते थे। अपने-अपने इलाकों की बातें बताते थे। सफर की दास्तानें सुनाते थे। किस्से-कहानियों का सिलसिला सदियों तक जारी रहा। इस शहर की इसी खसूसियत की वजह से यहां के मशहूर बाजार किस्सा ख्वानी का नाम पड़ा। वही किस्सा ख्वानी बाजार जिसके अंदर मुहल्ला खुदा आबाद में दिलीप कुमार का जन्म हुआ था। नजदीक ही पृथ्वी राजकपूर और राज, शम्मी और शशि कपूर का पैतृक घर भी है, जहां राजकपूर की आदमकद तस्वीर सामने से गुजरने वालों का इस्तकबाल करती है और बताती है कि यह शहर तहजीबों, रिवायतों का गहवारा रहा है। इस शहर ने हिंदुस्तान के अजीम अदाकार दिलीप कुमार, नहीं, यूसुफ खां, नहीं, दिलीप कुमार को पाकिस्तान का सबसे बाइज्जत शहरी सम्मान सितारा-ए-पाकिस्तान के लकब से नवाजा गया। इसी शहर में पैदा हुए शायर अहमद फराज ने कहा, 'अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलेंÓ तो माडर्न लिटरेचर के जानकार उर्दू शायरी के इस ताजा फूल को और नजदीक से देखने की कोशिश कर रहे थे। उसी गजल में जब वह कहते हैं, 'तू खुदा है न मेरा इश्क फरिश्तों जैसा, दोनों इंसां हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलेंÓ तो जमाने ने महसूस किया कि दरअसल फराज पेशावर की सबसे बाइज्जत और बाबरकत शख्सीयत अजीम सूफी शायर रहमान बाबा की रिवायत को ही आगे बढ़ा रहे हैं। रहमान बाबा पश्तो भाषा में रुह की गहराई तक उतर जाने वाली शायरी करते थे। उनकी शायरी का तर्जुमा दुनिया भर की भाषाओं में किया गया है। पेशावर में उनके मुरीदों ने उनका आलीशान मजार तामीर किया जहां अकीदतमंदों का हुजूम लगा रहता है। नापाक उग्रवादियों को रहमान बाबा की तालीम से डर लगता है क्योंकि वो कहते थे सब इंसान बराबर हैं। यह दुनिया सबके लिए है और अमन भाईचारा अमृत है। अमन का धर्म अजीम धर्म है। बाकी सब धोखा। रहमान बाबा जब लोगों के बीच थे तो उनके आस-पास मजमा लगा रहता था। प्यार मुहब्बत के तलबगारों का मजमा। सच्ची और ईमानदार तालीम के तलबगारों का मजमा। ऐसे तलबगारों को ही तालिबान कहते हैं। ढोंगियों को नहीं। रहमान बाबा ने आंखें मूंद लीं तो और भी ताकतवर हो गए। उनका मजार दुनिया में उनके चाहने वालों के लिए राहत की जगह है और पनाहगाह बन गया है। दुनिया करवट लेती रही, ढोंगियों का गिरोह शक्लें बदल-बदल कर जमीन पर फैल गया। उन्हीं ढोंगियों में ये झूठे तालिबान शामिल हो गए। यह तालिबान नहीं बल्कि बबूल रोपने वाले बागबान हैं और जो इंसानी खून से कांटों की खेती को सींचते हैं। रहमान बाबा ने अपनी शायरी में बहुत पहले कहा था, 'तुम दूसरों पर तीर चलाओगे तो वही तीर पलटकर आएंगे और तुम्हें छेदेंगे।Ó इसके साथ उन्होंने यह भी कहा था कि 'तुम दूसरों के लिए कांटे बोओगे तो वह तुम्हारे पैरों में आकर तुम्हें ही लहूलुहान कर देंगे।Ó बदकिस्मती से जब इन नापाक तालिबानों की बुआई शुरू हुई तो पाकिस्तान अफगानिस्तान में कुछ लोग इसको दीन की खिदमत समझने की गलती कर बैठे। इसका नतीजा सामने है। पेशावर, जो दिलचस्प किस्सागोई, माहौल में फलों-फूलों की खुशबू, हस्तशिल्प, लाजवाब फनकारों, खुबसूरत लोगों, शुजाअत और बहादुरी की मिसाल, आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के सामने सीना तानकर खड़े होने का हौसला रखने के लिए मशहूर था, आज एक सहमा हुआ, रोता-बिलखता शहर है। सौ से ज्यादा स्कूली बच्चों का कत्लेआम पाकिस्तान की पेशानी का ही नहीं, दुनिया के तमाम अमनपसंद शहरियों के सीने का दाग बन चुका है। ये सिलसिला बंद होना ही चाहिए। जाहिर में खबरें कुछ भी बताएं लेकिन टेलीविजन पर एक आदमी जो यह कह रहा था कि यार बस करो, तुम्हें खुदा का वास्ता, रसूल का वास्ता...। , उसी दरम्यान उसने यह भी कहा, यार अफगानिस्तान में अमरीका का एक भी कुत्ता नहीं मरता, यहां कितने बच्चों की लाशें पड़ी हुई हैं।
पता नहीं क्यूं, कुछ चैनल वाले अमरीकी कुत्ता वाली बात को एडिट कर रहे थे, अखबारों का भी यही हाल रहा। पेशावर में मौत का लंगर बांटा गया, डेढ़ सौ के करीब जिंदगियां बुझ गईं। इसकी पहली खबर के बाद दिल की बेचैनी का आलम लिए दिल ही दिल में रहमान बाबा के मजार में हाजिरी हुई और यह शिकायत पेश की, यह गुजारिश भी कि बस यारा, अब बंद करो यह लंगर। अब और सहा नहीं जाता। यहां मुझे विभाजन के वक्त अमृता प्रीतम की कही हुई दो पंक्तियां याद आ रही हैं, जिसके मायने हैं, आज वारिस शाह से पूछूंगी, कभी कब्र से बाहर आकर बोल और ये कत्लोगारतगरी रोक। यही पंक्तियां रहमान बाबा के आस्ताने में याद आ रही हैं।
                                                                 हुसैन कच्‍छी रांची के जिंदादिल इंसान और संस्‍क़तिकर्मी हैं।

नजरबंदी में भी रांची में मौलाना ने जलाई शिक्षा और आजादी की अलख

मौलाना अबुल कलाम आजाद हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल हिमायती था। रांची का सौभाग्य रहा कि नजरबंदी में उन्होंने रांची में अपना समय व्यतीत किया और रांची को तो दिया ही, यहां रहकर उन्होंने अपनी नजरबंदी का बेहतर इस्तेमाल भी किया। यहीं पर उन्होंने कुरआन की तरजुमा भी किया। कंधार से एक व्यक्ति उन्हें पैदल ही रांची मिलने आया। रांची में गोवंश को बचाने के लिए हिंदू और मुसलमानों को एक साथ खड़ा किया। कई संस्थाओं को जन्म दिया, जो आज भी हैं। मुसलमानों के शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए मदरसा की नींव रखी।

पांच अप्रैल, 1916 को रांची में रखा कदम 
28 मार्च, 1916 को बंगाल की सरकार ने उन्हें बंगाल छोडऩे का हुक्म दिया और चार दिन का समय। बाद में समय बढ़ाया और इसे चार अप्रैल तक बढ़ा दिया। आदेश के बाद मौलाना पांच अप्रैल को रांची आ गए और डाक बंगला में ठहरे। यहां की पुलिस को कोई खबर नहीं। बड़ी मुश्किल से वह आठ अप्रैल को पता लगा पाई कि मौलाना रांची में हैं। इसके बाद 13 अप्रैल को उनकी बहनें और बहनोई मोइनुद्दीन भोपाल से आए और उनके साथ ठहर गए। 15 अप्रैल को बंबई की राज्य सरकार ने भी अपनी सीमा में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी। उडि़सा-बिहार की सरकार की पुलिस ने भी उनके रांची प्रवास पर आपत्ति जताई। 21 अप्रैल को रिटायर्ड इंस्पेक्टर आफ स्कूल्स, बंगाल सरकार के मौलवी अब्दुल करीम के मोरहाबादी स्थित आवास में स्थानांतरित हो गए। बाद में काफी मशक्कत के बाद उन्हें रांची में रहने की इजाजत मिली मगर कई शर्तों के साथ। 15 अगस्त, 1917 को अंजुमन इस्लामिया की स्थापना हुई। एक सितंबर को हुई बैठक में यहां एक मदरसा स्थापित करने पर सहमति बनी। 27 जनवरी, 1918 को मदरसा इस्लामियां रांची भवन का शिलान्यास किया गया।
मौलाना रांची में चुप नहीं बैठे थे। राजनीतिक गतिविधियों पर रोक लगी थी। इसलिए वे खुले तौर पर कुछ नहीं करते थे। लेकिन उन्होंने मस्जिद में ही तकरीर करनी शुरू कर दी। मुसलमान तो सुनते ही थे, हिंदू भी सुनने के लिए मस्जिद में जाने लगे। जब कुछ लोगों ने हिंदुओं के प्रवेश पर आपत्ति जताई तो एक किताब लिखकर जवाब दिया।
मदरसा का पहला वार्षिक सम्मेलन :
मदरसा इस्लामिया का पहला वार्षिक सम्मेलन तीन से पांच नवंबर, 1918 को हुआ तो उसके उद्घाटन के मौके पर रांची के कई गणमान्य हिंदू भी शामिल हुए। इसमें कलकत्ता, सासाराम, पटना से भी लोग आए थे। उनके नाम देखकर इसका अंदाजा लगा सकते हैं-हाजी गनी लतीफ, इस्माइल मोहम्मद, नूर मोहम्मद जकारिया, दाउद अहमद, फजलुद्दीन अहमद। सभी कलकत्ता से आए थे। साथ ही यहीं से अखबार मोहम्मदी के संपादक मौलवी एकराम भी तशरीफ लाए थे। शाह सुलेमान फुलवारवी पटना से, अब्दुल अजीज, बांकीपुर, मौलाना कादिर बख्श, सहसराम, मौलवी चौधरी नजीर आलम जो उस समय रांची के डीसी थे, मौलवी अब्दुल करीम, राय बहादुर राधा गोविंद चौधरी, कालीपद घोष, राय साहब अमरेंद्र नाथ बनर्जी, राय साहब ठाकुर दास, बाबू गोरखनाथ वकील सभी रांची के। आनरेबल मिस्टर एसके सहाय के अलावा कलकत्ता से बाबू विपिन चंद्र पाल भी आए थे। कई सत्रों में यह सम्मेलन हुआ। ज्योतिंद्रनाथ टैगोर सहित यहां के कई भद्र बंगालियों ने भी हिस्सा लिया और सहयोग किया। उस दौर में रांची घूमने आए सुल्तानपुर, अवध के राजा साहब भी आए थे और उन्हें भी आमंत्रित किया गया।

मौलाना से मिलने कंधार से आया पैदल : 
इस घटना का दिलचस्प विवरण उनकी किताबों में है। घटना 1918 की है। दिसंबर की ठिठुरती ठंड में एक दिन मौलाना आजाद नमाज पढ़कर मस्जिद से बाहर निकले तो उनकी निगाह एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जो एक कंबल ओढ़े उनकी प्रतीक्षा में खड़ा था। मौलाना उसके पास गए और उससे पूछताछ की। पता चला कि वह सीमा प्रांत कंधार की ओर से केवल उनसे मिलने के लिए ही रांची आया है। मौलाना आजाद की उत्सुकता बढ़ी और उनके पूछने पर उसने बतलाया कि वह एक निहायत गरीब और साधारण आदमी है। वह पैदल चलकर कंधार से क्वेटा तक आया। वहां उसे अपनी तरफ के कुछ व्यापारी मिल गए। जिन्होंने किसी तरह उसे आगरा भिजवा दिया। आगरा से वह फिर पैदल चलकर रांची पहुंचा। उसकी इन बातों को सुनकर मौलाना काफी द्रवित हो उठे। उन्होंने जब उससे इतना कष्ट उठाकर रांची आने का कारण पूछा, तब उसने कहा कि पवित्र कुरआन की कुछ व्याख्या सुनने के लिए उनके पास आया है। वह व्यक्ति कई दिनों तक रांची में मौलाना आजाद के साथ रहा। लेकिन एक दिन अचानक वह बिना किसी पूर्व सूचना के वापस चला गया। मौलाना को इसका काफी दुख हुआ। मौलाना ने तरजुमानुल कुरआन उसी को समर्पित कर दिया।




गोशाला में दिया अंतिम भाषण
रांची में नजरबंद रहते हुए भी मौलाना आजाद की राजनीतिक और सामाजिक सरगर्मियां ठंडी नहीं पड़ी थी। मौलाना केवल तकरीर ही नहीं करते थे। लोगों में आजादी का जोश तो भरते ही थे, शिक्षा को लेकर अपनी चिंता को भी यहां परवाना चढ़ाया। वे हर जुमे को तकरीर करते थे। नमाज के बाद मस्जिद में हिंदू भी मौलाना का भाषण सुनने के लिए आते थे। रांची के कुछ मुसलमानों ने विरोध प्रकट किया कि ये लोग मस्जिद में क्यों आ जाते हैं? उन लोगों की आपत्ति सुनकर मौलाना ने 'जामिल सवाहिदÓ नाम की किताब लिखी। यह हिंदू मुस्लिम एकता की बेजोड़ पुस्तक मानी जाती है। रांची के गजनफर मिर्जा, मोहम्मद अली, डा. पूर्णचंद्र मित्र, देवकीनंदन प्रसाद, गुलाब नारायण तिवारी, नागरमल मोदी, रंगलाल जालान, रामचंद्र सहाय आदि उनसे अक्सर मिलते-जुलते रहते थे और आजादी पर चर्चा करते थे। 1919 में रांची गोशाला में गोपाष्टमी मेला लगा था। अंतिम दिन अपना अंतिम भाषण देकर वे रांची से चले गए। उस दिन रांची गोशाला, पिंजरापोल में हिंदू-मुसलमानों की इतनी सम्मिलित भीड़ थी, जैसा रांची के इतिहास में पहले कभी भीड़ नहीं जुटी थी। रांची से जाने के बाद दुबारा मौलाना रांची नहीं आ सके। लेकिन रांची उनके दिल में बस गई। कई महत्वपूर्ण और कालजयी काम उन्होंने रांची में ही किया। रांची को बहुत कुछ दिया भी।

जगदीश त्रिगुणायत और मुंडारी रामायण


भारतीय भाषा में ही नहीं, दुनिया की कई भाषाओं में रामकथा का साहित्य मौजूद है। दूसरी भाषाओं में राम से जुड़े प्रेरक प्रसंग, उनकी कथा, जीवन चरित आदि से उनकी लोकप्रियता का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। अपने देश में ही कई भाषाओं में राम का चरित उजागर हुआ है। संस्कृत से लेकर कई अन्य लोक भाषाओं में हम राम को पढ़ते-गुनते आ रहे हैं। कुछ दूसरी गोत्र की भाषाओं में भी राम के आख्यान मौजूद हैं, जिन्हें हिंदी के लेखकों या फिर राम पर गंभीर काम करने वाले अध्येताओं ने भी छोड़ दिया। यह भाषा है मुंडारी... मुंडा आदिवासी द्वारा बोली जाने वाली भाषा है।

इस भाषा के बाबत, जैसा कि जगदीश त्रिगुणायत जी ने लिखा है, छोटानागपुर पहाडिय़ों की संथाल, हो तथा अन्य जातियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के साथ भाषाओं के उस परिवार से संबंध रखती हैं जिसे आस्ट्रो-एशियाटिक कहते हैं और जिसमें मान-ख्मेर, वापालंग, निकोवारी, खासी, मलक्का की आदिवासी भाषाएं सम्मिलित हैं। इस भाषा में फैले मुंडारी लोक गीतों का संकलन जगदीश जी ने किया है, जिसका नाम है 'बांसरी बज रहीÓ। इस संकलन में करीब 351 गीत हैं। जिनमें कुछ गीत राम के प्रसंग से भी जुड़े हैं। हम यहां उन्हीं में से कुछ गीतों को रखेंगे ताकि यह पता चल सके कि एक नितांत दूसरी कुल गोत्र की भाषा में रामकथा किस रूप में मौजूद है।

इससे पहले इस बात की भी छूट चाहेंगे कि हम थोड़ा जगदीश त्रिगुणायतजी के बारे में भी जान लें, जिन्होंने यह भगीरथ प्रयास किया। योंकि वे अभी जीवित हैं और नबे को छू रहे हैं। इन्हें हिंदी का हमारा समाज पूरी तरह भूल ही चुका है। 
   जगदीश जी का जन्म देवरिया (उार प्रदेश)में एक मार्च 1923 को हुआ था। पढ़ाई-लिखाई के बाद वे 1941 में महात्मा गांधी और डा. राजेंद्र प्रसाद की प्रेरणा से खादी ग्रामोद्योग के प्रचार-प्र्रसार के सिलसिले में रांची (झारखंड) चले आए। वे यहां अकेले नहीं आए थे, बल्कि उनकी मंडली में पांच आदमी थे-मोती बीए, सदानंद ब्रह्मïचारी, कवि शंभुनाथ सिंह, जगदीश त्रिगुणायत और एक कोई उपाध्यायजी। इस ग्रामोद्योग का उद्देश्य आदिवासियों में आजादी के प्रति जागृति, उनका उत्थान, चरखा का प्रचार आदि शामिल था। ये लोग एक साल तक छोटानागपुर के गांवों को घूमते रहे। गांवों की संस्कृति-संस्कार, रहन-सहन, नृत्य-गीत, रीति-रिवाज को देखते-परखते, सोचते-समझते रहे। कुछ लोगों को झारखंड की आबोहवा भा गई। वे यहीं रह गए। शंभुनाथ सिंह एक साल बाद एमए करने के लिए इलाहाबाद चले गए। इसी तरह और लोग भी यहां से चले गए सिवाय सदानंद ब्रह्मïचारी और जगदीश त्रिगुणायतजी के। जब खूंटी हाई स्कूल बना, त्रिगुणायतजी उसमें प्राध्यापक हो गए और वहीं छात्रावास में छात्रों के साथ रहने लगे। इसके बाद जब एचईसी की स्थापना हुई, त्रिगुणायतजी वहां जनसपंर्क अधिकारी के रूप में पदस्थापित हो गए। सन 1981 में यहां से अवकाश लिया और 91 तक रांची में रहे। इसके बाद वे अपने गांव देवरिया लौट गए। अभी वे जीवित हैं। हालांकि कुछ लेखों में उन्हें स्वर्गवासी बता दिया गया है। 
   आदिवासी जीवन के प्रति उनके रुझान को ले उनके परम शिष्य डा. रामदयाल मुंडा कहते हैं कि उनका रुझान शुरू से ही आदिवासी जीवन के प्रति रहा। यहां के लोक गीत, लोक नृत्य और लोक कथाओं के बारे में अधिकाधिक जानने का उत्सुक रहते। त्रिगुणायतजी का भी मानना है कि 'उनकी (आदिवासियों) सेवा करने का मौका नहीं मिलता तो उनकी संस्कृति को नहीं जान पाते।Ó
इस 'जाननेÓ के कारण ही उनकी दो पुस्तकें 'बांसरी बज रहीÓ और 'मुंडा लोक कथाएंÓ आईं। 'बांसरी बज रहीÓ 1957 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से प्रकाशित हुई और 'मुंडा लोक कथाएंÓ 1968 में बिहार कल्याण विभाग से। 
   मुंडा जाति का सबसे बड़ा गीत या कथागीत 'सोसोबोंगाÓ जो उनके पूरे संघर्ष के इतिहास को दर्शाता है, इस गीत को प्रकाश में लाने का श्रेय त्रिगुणायतजी को ही है। वैसे, हाफमैन ने भी इस गीत को अपने विश्वकोष में जगह दी है, लेकिन वह पूरा नहीं है। संकलन के बाद त्रिगुणायतजी ने इस कथागीत को स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कराया था। बाद में मुंडारी लोक कथा में इसे शामिल कर दिया।
   त्रिगुणायतजी के 'बांसरी बज रहीÓ संकलन में रामकथा प्रसंग से जुड़े करीब बीस गीत शामिल हैं। गीत के मूल रचयिता बुधू बाबू हैं। बुधू बाबू मुंडा साहित्य को समृद्ध करने वाले सबसे बड़े गीतकार थे। इनका पूरा नाम बुधनाथ शिखर था और इनका जन्म 1830 के लगभग और मृत्यु 1900 और 1910 के बीच हुई थी। वे लगभग अस्सी वर्ष जीवित रहे। बुधू बाबू के बारे में कहा जाता है कि जो बोल गए वह गीत बन गया। यह भी अजीब है बुधू बाबू मुंडा नहीं थे, लेकिन वे मुंडा भाषा के सबसे बड़े कवि हैं। कहते हैं कि हरी बाबू नामक एक पंचपरगनिया भाषा का गीतकार बुधू बाबू का साथी था। वह मुंडा भाषा भी अच्छी तरह जानता था। बुधू बाबू ने अंतिम समय में उससे अपनी 'रामायणÓ पूरी करने का अनुरोध किया था, किंतु उनकी इच्छा पूरी न हो सकी। इसी अधूरी रामायण के कुछ अंश को जगदीश जी ने अपने संकलन में जगह दी है।        
संकलन का पहला गीत शूर्पनखा से होती है, जो लंकापति के दरबार में कहती है कि-हाय, हे भाई! मै तुमकों या बताऊं, दो युवकों के साथ
एक बहुत सुंदर स्त्री है।
.......   
हाय, हे भाई!
उन्होंने मेरी नाक काट ली।
और, गीत का अंत-अंगद की लंका से वापसी पर होता है, जहां राम के शिविर में पहुंचकर अंगद राम को प्रणाम करता है। इसी के बीच की कथा दी गई है। गीतों में वीर हनुमान व अंगद की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। कुछ गीत देखें-
 रामायन रे ओलकन/बुदु बाबू दुरङ्तन/
राम राम मेन्ते/ सेटेर जनको लङकते/ राम राम मेन्ते। (रामायण में जो कुछ लिखा हुआ है, उसी को बुदु बाबू गा रहे हैं। राम राम कहते हुए, वे लंका को पहुंच गए, राम राम कहते हुए)
डरी मंदोदरी जब रावण से बंदरों की वीरता का बखान करती है तो रावण कहता है-
होड़ो गडि़ सदोम् मिडि/ इन जिलुलो:ञ् जोम्तन् मडि/ दिनकि हो अम्गेम् उतुतन्/ अञ्दोञ् छन्द जन्/ ओको बीर लङाक्ते: हिअकन्। (आदमी, बंदर, घोड़े और भेड़/इन्हीं के मांस से तो हम भात खाते हैं। प्रतिदिन तुम्ही तो(उन्हें) पकाती हो। मुझे आश्चर्य होता है/ (कि) कौन वीर लंका आया हुआ है?)
अंगद लंकापति के दरबार में पैर जमाकर बैठ गया। रावण मेघनाथ से कहता है कि यह नहीं जानता कि मैं कौन हूं। वह कहता है, हे मेघनाथ, उठो, इसे पकड़ लो और उठाकर फेंक दो। बंदर वीर बनने चला है! (रावन राजाए: कजितन/ अञ् ओकोए कए: ठोओरन/ इनते अनए: कजितन्/ बिरिद् मे ग मेघनाथ/ सबि:मे ग मेघनाथ/ हुरङ् गिडि़ तइमे/ गडि़ बीरे: बइअकन्)
रावण को इस बंदर की शक्ति का अहसास नहीं था। वीर अंगद ने ताल ठोका और राजा रावण मुंह के बल गिर पड़ा। उसका मुकुट जमीन पर बिखर गया। वीर अंगद उठा-उठाकर रावण को फेंक रहा है। राम दल के वीर इस तमाशे को देख रहे हैं। (अङ्गïद बीरे: तलिकेन/ रावन राजाए: तुबिद्जन/ बो:रे मुकुट तलरे गिडिज़न्/ अङ्गïद वीर हलङ्  हलङ् हुरङ्गिडि़तन्/ रामदल बीर को लेल्तन्)
रावण को परास्त करने के बाद अंगद राम के शिविर में चला जाता है। सभी वीर अंगद को देख रहे हैं और अंगद राम को प्रणाम कर रहा है। बुदु बाबू की यह कहानी यहीं समाप्त हो जाती है। जगदीश जी ने इन गीतों को बड़े परिश्रमपूर्वक संकलित किया है। हिंदी में इसे माइलस्टोन माना जाता है। उनके बाद फिर किसी हिंदी भाषी ने मुंडा या अन्य झारखंड की भाषाओं में बिखरे गीतों को संकलित करने का प्रयास नहीं किया। अलबाा, धीरे-धीरे आदिवासी समाज खुद अपने टोटमों, गीतों, कथाओं को संकलित करने के प्रति जागरूक हुआ है। 

मूक बराकर को जैसे भाषा मिल गई

सुकांत भट्टïाचार्य का पत्र

12 अनंतपुर, हिनू, रांची
अरुण। आंधी, तूफान और अविश्वास को अनदेखा करते हुए अंतत: सचमुच रांची आ गया। आने के क्रम में उल्लेखनीय कुछ नहीं देखा। सिर्फ पूर्णिमा के अस्पष्ट प्रकाश में गहरे बराकर नदी को देखा। रात गहरी थी, लग रहा था कि रात्रि जा रही है। उसी अंधेरी रात में मूक बराकर नदी में गंभीरता प्रतिबिंबित हो रही थी। लग रहा था कि सबको भाषा मिल गई है। बराकर का पानी और दूर के पहाड़ मेरे सामने एक सपना रच रहे थे। बराकर नदी के एक ओर बंगाल है और दूसरी ओर बिहार। इसी के बीच में झरझर बहती बराकर नदी। क्या अद्भुत एवं गंभीर दृश्य। दूसरी कोई नदी, शायद गंगा भी मेरी नजरों में इतनी मोहनी नहीं है।
और अच्छा लगा रहा था गोमो स्टेशन। वहां ट्रेन बदलने के लिए आखिरी रात इंतजार करना पड़ा। पूर्णिमा की पूर्णिता को उपलब्ध किया। उस स्टेशन की शांति मेरे जीवन में हमेशा चिरस्थायी रहेगी। इसके बाद अपरिचित सुबह हुई। अब छोटे-छोटे पहाड़, छोटी-छोटी सूखी नदियां, लाल पंगडंडी अगल-बगल में अनजान भागते पेड़, देखते- देखते ट्रेन का रास्ता खत्म हो गया।
रांची रोड से बस से आगे बढऩा शुरू किया। बस की क्या भयंकर आवाज थी। बहुत तेजी से पहाड़ी सड़क से गुजर रहा था। हजारों फीट की ऊंचाई में बस चल रही थी। यह देखकर हम बहुत आवेश में आ गए। जिंदगी में बहुत से प्राकृतिक दृश्य देखें लेकिन ऐसा अभिभूत करने वाला नहीं। रांची आ गया। हमलोग जहां रहते हैं, वह रांची नहीं है। वह रांची से दूर, डोरंडा में रहते हैं। हम लोगों के घर के सामने से स्वर्णरेखा नदी बहती है। उसी के बगल के एक क्रबिस्तान है। इसको देख कर हम खो जाते हैं। उस क्रबिस्तान में बहुत बड़ा वटवृक्ष है जो सिर्फ मेरा ही नहीं, सबका प्रिय है। उस वटवृक्ष के ऊपर एवं नीचे मेरी कई दोपहर बीती है। पिछला शुक्रवार से सोमवार दोपहर तक प्रति पल मेरा बहुत आनंद में बीता। रविवार को 18 मील दूर जोन्हा जल प्रपात देखने गए। ट्रेन चलने के साथ ही भयंकर बारिश शुरू हो गई। इस तरह की बारिश का आनंद पहली बार लिया। दोनों पहाड़ और वन धुंधला नजर आने लगे। यह रोमांच पैदा कर रहा था। लेकिन आनंद अभी बाकी था, जो जोन्हा पहाड़ के अंदर इंतजार कर रहा था। पानी में भींगते हुए काफी दूर पैदल चलने के बाद पहाड़ के नीचे एक बौद्ध मंदिर के सामने खड़े हुए। मंदिर के रक्षक ने आकर दरवाजा खोल दिया। शांत मंदिर में प्रवेश किए। मंदिर में लोहे के दरवाजा एवं खिड़कियां थीं, उसको हमलोंगों ने घूमघूम देखा। मंदिर का घंटा बजाया। यह ध्वनि पहाड़ तक ही सीमित रही। बाहरी दुनिया में नहीं पहुंची। संध्या हो रही थी। इस भयंकर जंगल में बाघ का डर भय पैदा कर रहा था। इसलिए हमलोग मंदिर में ही आश्रय लिए। इसके बाद हमलोग निकटवर्ती जलप्रपात देखने गए। हम लोगों ने जो देखा, उसने स्नायु तंत्र को अभिभूत किया। अब तक का अभ्यस्त परंपरागत वृष्टि का प्रलय था। यह सब देख कविता लिखे बगैर नहीं रह सका। यह कविता मेरे पास है। लौटकर दिखाएंगे। जोन्हा में आकर हम जो कुछ देखे वह छोटानागरपुर आकर सार्थक हो गया। यद्यपि हुंडरू बहुत ही विख्यात जलप्रपात है, लेकिन उसके उपभोग का सौभाग्य नहीं मिल सका। यह हम जोर से बोल सकते हैं। जो आदमी जोन्हा देखा है, वह मेरी बात का विश्वास नहीं करेगा। जोन्हा जितना सुंदर उपभोग्य नहीं है। ऐसी बात नहीं है। अगर एक दिन पहले भी पहुंचते तो भी इस तरह के रोमांचित दृश्य से वंचित रहते। प्रपात देखने के बाद संध्या हमलोगों ने बुद्ध देव की वंदना की। गपशप किया। रात्रि भोजन किया। इसके बाद स्तब्ध गहन अरण्य में पानी के धुन को सुनते-सुनते सो गए। जोन्हा पूरी रात तीव्र वेग से गहरी जलधारा पहाड़ पर पटकता रहा। अपनी सांस को सुन रहे थे।
प्रहरी जैसा जगा रहा ध्यानमग्न पहाड़। दूसरे दिन हमलोगों ने रहस्यमय जोन्हा को देखा। उसके उच्छल रूप के प्रति हमलोग गहरा प्यार जताए। उसके बाद अनिच्छा के साथ वापस लौटे। आने के समय जो वेदना हुई, वह और भी बढ़ गई जब हम लोगों ने आधे लोगों को विदाई दी।
जोन्हा से लौटते हुए मन में प्रार्थना कर रहे थे कि यह यात्रा अनंत हो, लेकिन रास्ता खत्म हुआ, हमलोग जोन्हा और आश्रयदाता बुद्ध मंदिर को छोड़कर वापस आ गए।
जिंदगी में बहुत कम चीज आती है, लेकिन लगभग सबकुछ चला जाता है। जोन्हा ही इसका बड़ा प्रमाण है।
रांची आने बाद आधा लोग विदा हुए तो आनंद जाता रहा। लेकिन इसी के बीच दो दिन रांची पहाड़ी गए और उल्लसित हुए। इस पहाड़ी के ऊपर से रांची शहर बहुत सुंदर नजर आता है, लगता है कि लिलिपुट साम्राज्य का गठन कर रहा है। शहर के बीचोबीच एक लेक है, सृजन के साथ उसका दृश्य भी लगातार बदलते रहता है। यही लेकर शहर के सौंदर्य को बढ़ाता है। रांची पहाड़ के ऊपर एक छोटा सा शिव मंदिर है। उस मंदिर में खड़ा होकर लगता है कि रांची चारों ओर पहाड़ से घिरा है। पहाड़ पर एक गुफा है, जिसका आनंद लिया जा सकता है। रांची की अखंड सत्ता सिर्फ रांची पहाड़ से ही नजर आती है।
डोरंडा में डोरंडा बांध एक चीज है, जिसमें एक दिन हम नहाएं। एक शाम उसका हृदय से अनुभव किया। इसको एक तालाब कह सकते हैं। इसको सब लेक बोलता है फिर भी जलाशय के रूप में मुझे बहुत अच्छा लगा। इसके सिवा डोरंडा का रास्ता, मैदान और जंगल बहुत अच्छे लगे। एक तरह से यहां का सबकुछ अच्छा है। सिर्फ एक चीज खराब है। यहां का पड़ोसी, बाजार की दूरी और सैनिकों का आधिपत्य। अभी भी बारिश हो रही है। लेकिन यही हल्का पानी असाध्य को साधा है। दुबली पतली स्वर्ण रेखा नदी को युवती बना दिया। इसके जलस्रोत और लहर से रोमांचित हो रहे थे। क्योंकि कल तक स्वर्णरेखा के बीचोबीच खड़ा होने से भी पैर नहीं भींगता थे।
फिर भी रांची का बहुत कुछ नहीं देखे हैं। पर जो कुछ देखा है, उससे परितृप्त हो गए-यानी कि रांची मुझे अच्छा लगा। फिर भी रांची का वैचित्र्य कम होता जा रहा है। आजकल सभी का चेहरा एक ही नजर आ रहा है। अत: विदाय
सुकांत भट्टाचार्य
पुनश्च
मुझे लौटने में देर होगी। उतने दिन कृपा करके भाई की देखभाल करना। क्योंकि यहां का प्राकृतिक आकर्षण से अधिक पारिवारिक आकर्षण है। कब लौटेंगे, यह निश्चय नहीं है। बन्ना का काम कितना दूर। पत्र का उत्तर देना। 
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आए थे इलाज कराने, मोहित हो गए रांची पर

21 साल की उम्र दुनिया से विदा लेने की नहीं, दुनिया को देखने-समझने की होती है। पर, सुकांत इतने खुशनसीब नहीं थे। सुकांत यानी सुकांत भट्टाचार्य। सरदार भगत सिंह भी मात्र 23 साल ही जिए, लेकिन दुनिया को एक संदेश दे गए। उ
उस समय डोरंडा अलग था। ओवरब्रिज नहीं बना था। सो, डोरंडा रांची से अलग-थलग था। घने जंगल हुआ करते थे। पुराने लोग आज भी कहते हैं, रांची जाना है।
सुकांत रांची ही नहीं, जोन्हा फाल भी जाते हैं ट्रेन से...18 मील दूर जोन्हा जल प्रपात देखने गए। ट्रेन चलने के साथ ही भयंकर बारिश शुरू हो गई। इस तरह की बारिश का आनंद पहली बार लिया। दोनों ओर पहाड़ और वन धुंधले नजर आने लगे। यह रोमांच पैदा कर रहा था। लेकिन आनंद अभी बाकी था, जो जोन्हा पहाड़ के अंदर इंतजार कर रहा था। ..इस भयंकर जंगल में बाघ का डर भी था। इसलिए हमलोग बौद्ध मंदिर में ही आश्रय लिए। इसके बाद हमलोग निकटवर्ती जलप्रपात देखने गए। यह सब देख  कविता लिखे बगैर नहीं रह सका। ...जिंदगी में बहुत कम चीज आती है, लेकिन लगभग सबकुछ चला जाता है। जोन्हा इसका बड़ा प्रमाण है।Ó
सुकांत रांची पहाड़ी और बड़ा तालाब का जिक्र करते हैं। कहते हैं कि इस पहाड़ के ऊपर से रांची शहर बहुत सुंदर नजर आता है, लगता है कि लिलिपुट साम्राज्य का गठन कर रहा है। शहर के बीचोबीच एक लेक है, सृजन के साथ उसका दृश्य भी लगातार बदलते रहता है। रांची पहाड़ के ऊपर एक छोटा सा शिव मंदिर है। उस मंदिर में खड़ा होकर लगता है कि रांची चारों ओर पहाड़ से घिरी है। रांची की अखंड सत्ता सिर्फ रांची पहाड़ से ही नजर आती है।Ó
सुकांत डोरंडा में एक तालाब का जिक्र करते हैं...डोरंडा में डोरंडा बांध है, जिसमें एक दिन हम नहाएं। एक शाम उसका हृदय से अनुभव किया। इसको एक तालाब कह सकते हैं। इसके सिवा डोरंडा का रास्ता, मैदान और जंगल बहुत अच्छा लगा। एक तरह से यहां का सबकुछ अच्छा है।Ó पर सुकांत एक खराब चीज का भी वर्णन करते हैं, सिर्फ एक चीज खराब है। यहां के पड़ोसी, बाजार की दूरी और मिलिट्री का आधिपत्य। फिर भी रांची का बहुत कुछ नहीं देखे हैं। पर जो कुछ देखा है, उससे परितृप्त हो गए-यानी कि रांची मुझे अच्छा लगा।Ó
पत्र बहुत लंबा है। अपने इस पत्र में सुकांत बहुत कुछ कहते हैं। रांची की एक झलक उनके पत्रों में मिलती है। यह पत्र, किसी दुर्लभ दस्तावेज से कम नहीं। 
नकी लेखनी में जिस तरह विचारों की प्रौढ़ता झलकती है, वैसा ही सुकंात की कविताओं या लेखों-पत्रों में दिखाई पड़ती है। सुकांत असमय काल कवलित हो गए। उन्हें तब राजरोग था यानी टीबी। उस दौर में यह लाइलाज बीमारी थी। कैंसर की तरह। इलाज के क्रम में ही सुकांत रांची आए थे और निवारणपुर के अनंतपुर में वे रहते थे। गुलामी के दौर में 15 अगस्त, 1926 को वे पैदा हुए, लेकिन आजादी से ठीक पहले 13 मई, 1947 को वे चल बसे। सुकांत ने अपनी छोटी से उम्र में खूब लिखा। वे काजी और गुरुदेव से खासे प्रभावित रहे, लेकिन उनकी कविता का स्वर काजी के साथ संगत करता है। विद्रोह की लालिमा उनकी कविताओं में मिलती है। इसलिए इस युवा कवि को 'युवा नजरूलÓ भी कहा गया। निधन से तीन साल पहले कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया से जुड़ गए थे। पं बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य सुकांत के भतीजे थे।    खैर, उनके साहित्य-रचना की चर्चा फिर कभी करेंगे। आज उनके पत्र में समाए रांची या कहें, छोटानागपुर के सौंदर्य को देखते हैं। उन्होंने रांची के अपने ठिकाने,  2 अनंतपुर, हिनू, रांची से एक पत्र अरुण को लिखा था। पं बंगाल से आने का हवाला दिया है और बराकर नदी के अप्रतिम सौंदर्य का। गोमो में ट्रेन बदलने का इंतजार और उस पूर्णिमा की स्तब्ध रात का सौंदर्य उनकों आंखों में उतर गया। वहां दूसरी टे्रन पकड़ रांची रोड उतरे और बस पकड़ रांची आए। पहले रांची आने का यही मार्ग था। सीधे ट्रेन नहीं थी। सो, उन्होंने वैसा ही किया और बस से रांची आए। रांची रोड से रांची के बीच में पहाड़ों की बेपनाह मुहब्बत उन्हें आकर्षित कर रही थी। उनके शब्दों में ही देखें 'रांची रोड से बस से आगे बढऩे लगी। बस की क्या भयंकर आवाज थी। बहुत तेजी से पहाड़ी सड़क से गुजर रही थी। हजारों फीट की ऊंचाई पर बस चल रही थी। जिंदगी में बहुत से प्राकृतिक दृश्य देखे, लेकिन ऐसा अभिभूत करने वाला नहीं। तब तक रांची आ गया। हमलोग जहां रहते हैं, वह रांची नहीं है। रांची से दूर, डोरंडा में रहते हैं। हम लोगों के घर के सामने से स्वर्णरेखा नदी बहती है। उसी के बगल में एक क्रबिस्तान है। इसको देख कर हम खो जाते हैं। उस क्रबिस्तान में बहुत बड़ा वटवृक्ष है जो सिर्फ मेरा ही नहीं, सबका प्रिय है। उस वटवृक्ष के ऊपर एवं नीचे मेरी कई दोपहर बीती है।Ó 

हम तो कवि हैं, इतिहास बदलने वाले हैं

हिंदी में गोपाल सिंह नेपाली अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्हें कई विशेषणों से नवाजा गया है। प्रकृति से लेकर राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने वाली उनकी कविताओं का रेंज इतना व्यापक है कि उन्हें किसी एक खांचे में डालना थोड़ा मुश्किल लगता है। लोगों ने अपने-अपने सौंदर्यबोध, राष्ट्रबोध, प्रकृति प्रेम के कारण कई संबोधनों से संबोधित किया। उन्हें 'प्रकृति का कविÓ कहा गया, 'राग और आग का कविÓ कहा गया, 'गीतों का राजकुमारÓ कहा गया तो 'राष्ट्रवादी कविÓ से भी संबोधित किया गया। पर, उनकी कविताओं की विविधवर्णी छवियों को देखकर ये सारे संबोधन, उपाधियां, विशेषण उनकी विद्युत प्रतिभा की चमक के आगे बौने ही सिद्ध होते हैं। बेशक, देश की सरहद के आर-पार देखने वाले नेपाली का मूल्यांकन अभी बाकी है। इसका एक कारण यह भी है किआलोचक अभी अपने कुनबे से बाहर देख पाने पर असमर्थ हैं। वे ठोंक-बजाकर अपने चहेते कवि को महान और कालजयी कवि सिद्ध करने के 'सारस्वतÓ कर्म में संलग्न हैं। फिर, नेपाली का अपना कोई कुनबा भी नहीं था। वैचारिक खूंटा भी नहीं कि आलोचक उन्हें याद करें?

पिछले पचास साल की उपेक्षा के बाद भी नेपाली यदि लोगों के जनमानस में अपनी जगह बनाए हुए हैं तो आलोचकों की बदौलत नहीं, अपनी कविता, भाव बोध और राष्ट्रीय चेतना की बदौलत। हालावाद के सर्जक हरिवंश राय बच्चन ने उनकी मृत्यु पर लिखा था, 'हिंदी कविता को जनमानस तक पहुंचाने में उनका योगदान अद्वितीय है।Ó अभी हाल में दिवंगत हुए जानकी वल्लभ शास्त्री ने लिखा है- 'मिल्टन, कीट्स और शेली जैसे त्रय कवियों की प्रतिभा नेपाली में त्रिवेणी संगम की तरह उपस्थित है।Ó प्रकृति के सुकुमार कवि पंत ने नेपाली की कविताओं का पर कहा था- 'आपकी सरस्वती, स्नेह, सहृदयता और सौंदर्य की सजीव प्रतिमा है।Ó निराला ने तो उन्हें 'काव्याकाश का दैदीप्यमानÓ सितारा ही कह डाला। ये बातें आज की लिखी हुई नहीं हैं। बहुत पहले की हैं। फिर भी हमने नेपाली को उपेक्षित छोड़ दिया।

गोपाल सिंह नेपाली का जन्म एक गोरखा परिवार में जन्माष्टमी (11 अगस्त, 1911 )के दिन हुआ था। उनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह था। पिता सेना में थे। सो, कभी यहां कभी वहां। परिवार का कोई स्थायी ठिकाना नहीं बन पाया। नेपाली लिखते हैं, 'मां और कहीं, पिता जी जर्मनी की लड़ाई में, और मेरा छोटा भाई पेशावर में। छुटपन के इसी विरह ने कविता की तुकबंदी सिखाई होगी।Ó इस अस्थिरता और भागमभाग ने उनकी पढ़ाई भी बाधित की। पर, उनकी प्रतिभा बाधित नहीं हो पाई। सोलह की उम्र से ही तुकबंदी ने कविता का शक्ल लेना शुरू कर दिया और 22 की उम्र में उनका पहला संग्रह 'उमंगÓ आ गया था। संग्रह आने से पहले ही वे मंच के मजे हुए कवि सिद्ध हो चुके थे। बनारस, इलाहाबाद, कलकत्ता के तीन बड़े कवि सम्मेलनों ने न केवल उनके आत्मविश्वास को बढ़ाया, बल्कि वे देश के चुनिंदा कवियों में शुमार भी होने लगे। मंच ने ही उन्हें मायानगरी पहुंचाया। 1943-44 में बंबई में हुए महाकवि कालिदास शताब्दी समारोह से वे फिल्मी दुनिया में प्रवेश किए। उनकी पहली फिल्म थी मजदूर थी। इसके निर्माता थे एस मुखर्जी, निर्देशक थे पीएल संतोषी, कथा लेखक थे प्रेमचंद और संवाद लिखे थे उपेंद्र नाथ अश्क ने। इसके बाद तो सफर, लीला, गजरें, शिवरात्रि, शिवभक्त, तुलसीदास, नाग पंचमी, नरसी भगत आदि 40-45 फिल्मों में करीब तीन सौ गीत लिखे। उसी दौरान इन्होंने 'हिमालय फिल्म्सÓ और 'नेपाली पिक्चर्सÓ की स्थापना की। निर्माता-निर्देशक के तौर पर तीन फीचर फिल्में-नजराना, सनसनी और खुशबू भी बनाई। इतना कुछ होने के बाद भी यह दुनिया उन्हें रास नहीं आई। एक पत्र में उन्होंने लिखा है, 'यह सिनेमा वल्र्ड साहित्य, कला या दर्शन की जगह नहीं, बिजनेस का अखाड़ा है। यहां रुपया और रमणियां हैं।Ó करीब एक दशक तक सक्रिय रहने के बाद 1955-56 में फिल्मी दुनिया को अलविदा कह दिया और मंच पर एक बार फिर अपनी सत्ता कायम कर ली। इसके बाद तो उनके 'पंछीÓ 'रागिनीÓ 'पंचमीÓ 'नवीनÓ और 'हिमालय ने पुकाराÓ इनके काव्य और गीत संग्रह आए। 'पंछीÓ संग्रह पर निराला ने अपनी टिप्पणी लिखी है, 'मुझे उनके काव्य में शक्ति, प्रवाह, सौंदर्य-बोध तथा चारू चित्रण एक विशेषता लिए हुए दिख पड़े।Ó

उमंग संकलन में ही मोहन शीर्षक कविता संकलित है। यह 1931 में तब लिखी गई थी, जब गांधी दिसंबर महीने में गोलमेज सम्मेलन में भाग ले रहे थे। बीस की उम्र में नेपाली ने लिखा, पर इससे क्या होता जाता/है हम दुखियों का मोहन/ यहां हमारे घर में जारी/ वैसा ही निष्ठुर दोहन/...आओ मोहन शंख बजाओ/ पहनो केशरिया बाना।

 नेपाली का अहिंसा में कतई विश्वास नहीं था। इसलिए गांधी को भी केशरिया बाना पहनने का आह्वान किया। यह विश्वास आजादी के बाद भी खंडित नहीं हुआ। 1956 में ही शासन चलता तलवार से कविता लिखकर एक बार फिर देश की चेतना को झकझोर दिया। पाकिस्तान के दुस्साहस और नेहरू द्वारा महज कागजी कार्रवाई के बाद कवि आहत मन से लिखा,
 ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से
 चरखा चलता है हाथों से शासन चलता तलवार से।  
सन् 1962 के चीनी आक्रमण के समय उन्होने कई देशभक्तिपूर्ण गीत एवं कविताएं लिखीं जिनमें सावन, कल्पना, नीलिमा, नवीन कल्पना करो आदि बहुत प्रसिद्ध हैं। चीनी आक्रमण पर नागार्जुन ने भी कविताएं लिखीं और चीन, नेहरू और वामपंथ की खबर ली।
नेपाली का आह््वान था-
भारत के जवानो, भारत के जवानो
भारत से तुम्हें प्यार तो बंदूक उठा लो
इन चीनी लुटेरों को हिमालय से निकालो। 

......
नेपाली अपने कलम को तलवार की तरह इस्तेमाल करते थे। कविता पर गौर करें-
'बहन तू बन जा क्रांतिकराली, मैं भाई विकराल बनूं
तू बन जा हहराती गंगा, मैं झेलम बेहाल बनूं।

ये पंक्तियां अब मुहावरा बन चुकी हैं। उन्होंने अपनी कलम की सदैव रक्षा की। उनके लिए कलम की स्वाधीनता ही असली धन था। मेरा धन स्वाधीन कलम। अपनी इस विशिष्टता के कारण ही वे भीड़ों में खोए नहीं। वे सदैव नवीन कल्पना करते रहे। आम आदमी के दुख-दर्द को शब्द देते रहे-दिन गए बरस गए, यातना गई नहीं, रोटियां गरीब की, प्रार्थना बनी रहीं। जाति के झंझावतों में फंसी हिंदू समाज की चेतना को भी झकझोरा-बिछड़े परिजन मिले बढ़ाते हाथ प्रेम का मिलने को/पर, जाता सम्मान हमारा उन हरिजन को छूने में। नागार्जुन की हरिजन कविता को याद करें। तब साहित्य में दलितवाद उपस्थित नहीं हुआ था। लेकिन नेपाली और नागार्जुन हिंदू समाज की जड़ता पर प्रहार कर रहे थे।

इन विशिष्टताओं के साथ-साथ उनके प्रकृति के प्रति एक अनुराग था। शायद चंपारण और देहरादून में बीते बचपन के कारण प्रकृति से उनका एक गहरा लगाव पैदा हो गया था। यही वजह है कि उनकी रचनाओं में मौलसिरी, पंछी, हरीघास, पीपल, किरण, सरिता, बेर आदि का अत्यंत सजीव चित्रण मिलता है।
नेपाली ने पत्रकारिता भी की। निराला के साथ 'सुधाÓ मासिक पत्र में काम भी किया। इसके बाद 'रतलाम टाइम्सÓ, 'पुण्य भूमिÓ तथा 'योगीÓ के संपादकीय विभाग में काम किया। उत्तर छायावाद के महत्वपूर्ण कवियों में शुमार नेपाली ने लोकतत्वों से संस्कार लेकर हिंदी गीतों को समृद्ध किया। एक नई भाषा दी। उसका विस्तार किया। एक नई पहचान बनाई। 'हम धरती क्या आकाश बदलने वाले हैं, हम तो कवि हैं, इतिहास बदलने वाले हैं।

गंवई गंध में लिपटी मिथिलेश्वर की कहानियां

मिथिलेश्वर tजी उन कथाकारों में हैं, जिनके यहां गांव अपनी पूरी प्रामाणिकता के साथ बोलता है। गंवई मन मिजाज के होते हुए भी वे गांव को स्थितप्रज्ञ दृष्टि से देखते हैं। यह देखने की दृष्टि ही उन्हें अन्य कथाकारों से अलग और विशिष्ट बनाती है। वे कहानियां लिखते नहीं, सुनाते हैं। सत्तर के बाद वे कहानी के मंच पर उपस्थित होते हैं और अब तक बने बने हुए हैं। बार-बार वे गांव की ओर देखते हैं और हर बार वे गांव से कंकड़-पत्थर ही नहीं मोती भी चुन कर ले आते हैं।
जरा याद करें सत्तर के बाद का समय। देश एक नई आजादी की ओर झुक रहा था। पटना से संपूर्ण क्रांति की चिंगारी उठी थी और उसी के एक साल पहले मिथिलेश्वर की कहानी 'अनुभवहीनÓ सारिका के नवलेखन अंक में छपी। एक नवविवाहित बेरोजगार युवक की कथा, जिसने बिहार पब्लिक कमिशन के आवेदन शुल्क के लिए नसबंदी कराया। इस सच्ची घटना ने 'अनुभवहीनÓ को जन्म दिया। इस तरह की अनेक घटनाएं ही आखिरकार संपूर्णक्रांति की जमीन तैयार कर रही थीं। यह वह दौर था जब आम आदमी तल्ख और खुरदुरे हकीकत से रूबरू हो रहा था। शहर ही नहीं, गांव की संस्कृति और आबोहवा भी बदल रही थी। शहरों में एक नया मध्यवर्ग उभर रहा था। राजेंद्र यादव, रवींद्र कालिया, कमलेश्वर, मोहन राकेश इसे ही अपना उपजीव्य बना रहे थे। शहर कहानियों में आ रहा था, पर गांव अपेक्षाकृत उपेक्षित था, जबकि देश की 75 प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है। इनका दर्द कौन सुने?

यह भी सही है कि प्रेमचंद और रेणु का गांव हालांकि तेजी से बदल रहा था। यह बदलाव कई मोर्चे पर दिख रहा था। एक तो शहरी प्रभाव के कारण जातिगत बंधन ढीले हो रहे थे, वहीं जाति चेतना भी विकसित हो रही थी। लोगों का रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पयालन भी बढ़ रहा था। पढ़े-लिखे लोग खेती-किसानी के प्रति उदासीन हो रहे थे। गांव के प्रति जो एक अतिरिक्त आकर्षण था, धीरे-धीरे छीज रहा था। नए मूल्य बन रहे थे तो पुराने टूट रहे थे। यह टूटन-फूटन एक नई संस्कृति को जन्म दे रही थी और मिथिलेश्वर इसी संस्कृति की पहचान कर अपने कथा शिल्प को नया आयाम दे रहे थे।

 वे ऐसे दौर में आए जब संस्मरण और यात्रा वृत्तांतों की प्रधानता बढ़ गई थी। जिन कहानियों में गांव उपस्थित था, वहां संवेदना की भारी कमी थी। कुछ अपवाद जरूर थे। डा. शिवप्रसाद सिंह की कहानियों का ताना-बाना गांव से बनता है। उनकी कहानियों में गांव है। वे भी गांव से होते हुए शहर की ओर जाते हैं। फिर शहर के वर्तमान से अतीत की ओर जाते हैं। लेकिन हिंदी जगत में उनकी चर्चा गाहे-बगाहे भी नहीं होती। उस दौर के बाद ग्रामीण परिवेश को लेकर मिथिलेश्वर भी कहानियां लिख रहे थे। उनकी कहानियां बताती हैं कि वे कभी शैली के कायल नहीं रहे। उन्होंने बहुत सीधी-सादी शैली अपनाई-लोककथा की शैली। शायद, यह मां का उनपर प्रभाव था। बचपन में मां द्वारा सुनी गई कथाओं का आकर्षण भी कह सकते हैं। उस जमाने में शायद ही किसी ने इस शैली को अपनाया हो। इस शैली के कारण उनकी कहानियों में सादगी है। और यह सादगी बतौर फैशन नहीं आई है। यह सादगी उन्हीं को हासिल है, जो ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े हैं। गांवों की राजनीति से जिनका पाला पड़ा हो।

मिथिलेश्वर जी की कहानियों की एक और विशेषता है, जिधर ध्यान किसी का नहीं गया। वह है उनका स्त्री के प्रति एक समानता का दृष्टिकोण। स्त्रियों को अपनी कथा की नायिका बनाते समय वे स्त्रीवादी विमर्शों के मोह में नहीं फंसे। आज कितने लोगों की दुकान इसी पर चल रही है। पर, मिथिलेश्वर को दुकान नहीं चलानी थी। सच-सच कहें तो उनकी कहानियों में भारतीय महिलाओं की दयनीय और दुदर्शापूर्ण स्थित बेधक ढंग से उभरी हैं, बिना किसी नारे के। ग्रामीण समाज की महिलाओं के प्रति भेदभाव, अपमान-तिरस्कार, शोषण-उपेक्षा को गांगिया फुआ, जी का जंजाल, वैतरणी भौजी, नए दंपति, भोर होने से पहले आदि में पढ़ा जा सकता है। ये गढ़ी हुई नायिकाएं नहीं, गांवों की जीवंत पात्र हैं। 'माटी कहे कुम्हार सेÓ नामक उपन्यास में भी मुनीला का जो चरित्र गढ़ा है, वह बार-बार याद आती है। उनका लेखन बताता है कि अपने घर से होते हुए, आस-पड़ोस और गांव में स्त्रियों की दशा को जो देखा, वही उनकी कहानियों का आधार बनीं।

 मिथिलेश्वर जी की कथा जिस ग्रामीण परिवेश से शुरू होती है, वह भोजपुरिया गांवों के मन-माटी-महक, खेती-किसानी के जटिल संघर्ष को सामने लाता है। जातिवादी मन-मस्तिष्क के साथ-साथ अल्पसंख्यक की पीड़ा को भी बहुत बारीकी से उकेरती हुई कहानियां शहरी आपाधापी के साथ आगे बढ़ती और विस्तार पाती हैं। शहर-गांव का द्वंद्व सिर्फ उनका
बचपन से लेकर युवा होने तक गांव की जो विभिन्न छवियां दिमाग में बनी थीं, वही आगे चलकर कहानी की शक्ल लेती गईं। 'बाबूजीÓ, 'नपुंसक समझौतेÓ, 'बीच रास्ते मेंÓ, ...आदि आदि। 16 सितंबर 1973 के 'धर्मयुगÓ में 'नपुंसक समझौतेÓ कहानी के प्रकाशन पर बहैसियत संपादक धर्मवीर भारती ने जो टिप्पणी की, वह बहुत कुछ कह जाती है। भारती की टिप्पणी थी, 'क्या गांवों के विकास के लक्षण नई पीढ़ी का पढ़-लिख जाना, अच्छी नौकरियां पाना और मिट्टïी के मकानों का ईंट की बिल्डिंगों में परिवर्तित हो जाना ही है? गांव में ऐसे भी तो पात्र यदा-कदा देखने को मिल जाते हैं, जिनके फैलते दृष्टिïकोण अपने घर के खंडहर तक हो जाने की प्रक्रिया प्रभावित हैं। विकास आखिर कहां हैं और किनके लिए? ...युवा कथाकार मिथिलेश्वर की यह कहानी आज के गांव की अंदरूनी हालात का सशक्त खाका खींचती है। धर्मयुग में यह उनकी प्रथम कहानी है।Ó
इस छोटी सी टिप्पणी के बाद कुछ और कहने को नहीं रह जाता है। आज भी गांव हाशिए पर है। हमें गांव के अंदरुनी हालातों का जायजा लेना होगा तो निश्चय ही हमें मिथिलेश्वर के पास जाना होगा। उनकी कहानियों से दोस्ती करनी होगी। उनके पात्रों से बोल-बतियाना होगा।

निजी द्वंद्व नहीं, समय का द्वंद्व बनकर उभरता है। गांवों के प्रति एक अतिरिक्त भावनात्मक आकर्षण, लेकिन बदलते दौर में गांव की सीमित भूमिका के मद्देनजर रोजी-रोजगार के कारण खींचता निष्ठुर शहर भीतर चल रहे द्वंद्व को एक तार्किक जामा पहनाता है। इस तरह गांव से शुरू हुई उनकी यात्रा शहर में आकर विराम लेती है। पर, गांव उनके अंतर्मन से बेदखल नहीं होता है। उनकी कहानियां, उनके उपन्यास या उनका कथेतर गद्य इसके प्रमाण हैं। सब कुछ सादगी-सरलता में लिपटा हुआ।

विकास, विस्थापन और आदिवासी

'यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज आदिवासी, जो कि संभवतया भारत के मूल निवासियों के वंशज हैं, अब देश की कुल आबादी के 8 प्रतिशत बचे हैं। वे एक तरफ गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, बीमारियों और भूमिहीनता से ग्रस्त हैं। वहीं दूसरी तरफ भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या जो कि विभिन्न अप्रवासी जातियों की वंशज है, उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है।Ó
- जस्टिस मार्कंडेय काटजू व ज्ञानसुधा मिश्र की खंडपीठ की टिप्पणी, 5 जनवरी, 2011
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी हमारे लोकतंत्र पर भी एक टिप्पणी है, जहां एक बड़ी आबादी आज भी हाशिए पर जीने का विवश है। यह उस लोकतंत्र में, जहां की जड़े बहुत पुरानी मानी जाती हैं। हम इस लोकतंत्र पर इतराते भी हैं। जब भी मौका आता है, हम इसकी दुहाई देने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते। एक बड़ी आबादी जो अब शायद दस करोड़ पहुंच गई है, क्यों बार-बार विकास की कीमत चुकाती है! क्यों बार-बार उसे उसकी जड़ों से, उसकी परंपराओं से, उसकी संस्कृति से उसे बेदखल कर दिया जाता है, विकास के नाम पर? सभ्य कहलाने वाली जातियां क्यों उनके साथ असभ्य और बर्बरता का व्यवहार करती हैं? क्या इसलिए कि वे अपने जंगल से प्रेम करते हैं, प्रकृति के साथ दोस्ताना रिश्ता रखते हैं, निजी के बजाय सामूहिकता में विश्वास करते हैं।
  झारखंड पर जब नजर डालते हैं तो शोषण का एक अंतहीन सिलसिला दिखाई पड़ता है। अंगरेजों के समय से भी बहुत पहले से। तब उनके जंगलों पर लोगों की नजर थी, आज उनकी जमीनों के भीतर छिपे खनिजों पर है। औपनिवेशिक काल से लेकर आज तक वे अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करते आ रहे हैं। इस आजीविका के लिए कितने ही अपनी माटी से दूर चले गए। अपनी जड़ों से सदा-सदा के लिए उखड़ गए। इसका कोई हिसाब नहीं है।
  झारखंड में जहां ये बहुसंख्यक थे, आज अल्पसंख्यक हो गए हैं। जहां कभी चिराग जलते थे, अब वे बेचिरागी गांव बन गए हैं। यह सब अचानक नहीं, एक सोची-समझी राजनीति के तहत हुआ लगता है। उन्हें उनकी जड़ों से बेदखल करने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए गए। लंबा संघर्ष भी चला। साहूकारों से लेकर अंग्रेजों तक। लड़ाई आज भी जारी है। आज विकास के नाम पर उनका विस्थापन हो रहा है। कहीं जबरन तो कहीं पैसे का लालच देकर उन्हें विस्थापित किया जा रहा है। उदारीकरण ने औद्योगीकरण के दरवाजे खोल दिए। इससे वे तो अंदर आ रहे हैं, लेकिन यहां के आदिवासी, दलित बाहर जा रहे हैं रोजी रोजगार की तलाश में। नई आर्थिक नीति ने तो मानो आदिवासियों को उजाडऩे का कानूनन अधिकार ही दे दिया है। इसने बाहरी उद्योगपतियों के लिए दरवाजे खोल दिए। झारखंड उनके लिए एक बड़ा चारागाह बन गया। सबका ध्यान यहां की खनिज संपदा लग गया। नाम दिया विकास का। थोड़े अतीत में चले और उसके परिणाम देख लें तो विकास की हकीकत समझ में आ जाएगी। बात आज से सौ साल पहले की है। 1908 में राज्य का पहला उद्योग स्थापित हुआ। बड़े-बड़े दावे किए गए है। आदिवासी और विस्थापितों की तकदीर बदल जाएगी। हर स्तर पर विकास किया जाएगा। कोई भूखा नहीं रहेगा। हर आदमी शिक्षित होगा। पर, सौ सालों की हकीकत कुछ और ही बयां करती है। आदिवासी सौ साल पहले जहां थे, आज भी वहीं हैं और टाटा? कहने की जरूरत नहीं। इस उद्योग ने कितना विकास किया, किसका विकास किया, यह जगजाहिर है। विकास के नाम आज भी आदिवासी अपनी जमीनों से बेदखल किए जा रहे हैं। झारखंड बनने के बाद भी स्थिति बदली नहीं, बदस्तूर जारी है।
                          ।। 2।।
अलेक्स हेली ने अपने उपन्यास रूट्स में जड़ों से कटने के दर्द का काफी विस्तार से वर्णन किया है। इस उपन्यास के पात्रों को बदलकर झारखंड के पात्रों को रख दिया जाए तो कोई अंतर नहीं पड़ेगा। इसमें भी वही दर्द है, जिसे झारखंड के लाखों लोग सालों से झेल रहे हैं। इस दर्द को वही समझ सकता है, जिससे उसकी जमीन ले ली गई हो, विकास के नाम पर। आदिवासियों की पीड़ा को मारिया वार्गास ल्योसा के उपन्यास किस्सागो में भी पढ़ा जा सकता है, जिसमें अमेजन नदी के किनारे बसने वाली आदिवासियों की व्यथा-कथा है। दूसरे अफ्रीकी लेखक चीनुवा एचेबे हैं, जिनकी कई कृतियों में आदिवासी समाज की पीड़ा व्यक्त हुई है। आदिवासियों के लेकर हमारा नजरिया बहुत कुछ पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति टामस जैफर्सन जैसा रहा है। उसने कहीं लिखा है, काले लोग, चाहे वे मूल रूप में अलग नस्ल के हों अथवा समय और परिस्थितियों ने उन्हें अलग नस्ल का बनाया हो, शरीर और दिमाग दोनों मामलों में गोरों के मुकाबले काफी हीन हैं।
यह मानसिकता अंगरेजों साथ-साथ कमोबेश भारत के मैदानी इलाकों के कथित सभ्य लोगों की भी है। हम भी आदिवासियों के मामले में किसी नस्लवादी से कम नहीं हैं। इनके लिए तरह-तरह के शब्दों का इजाद हमने किया है।  
।। 3।।
अंग्रेजों की साम्राज्यवादी सोच ने औपनिवेशिक काल में, कांग्रेस की स्थापना के एक दशक बाद, भू-अर्जन के लिए 1894 में कानून बनाया। इसके माध्यम से झारखंड के किसानों की खूंटकटी एवं कोड़कर भूमि पर कब्जा कायम करना शुरू किया गया। इस भूमि लूट का मूल मकसद था झारखंड में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विस्तार करने के लिए भूमि अर्जित करना। इसी भूमि अधिग्रहण की आड़ में लाखों ग्रामीणों को भूमिहीन और साधनविहीन बनाकर भिखारी बना दिया गया। जैसे-जैसे अंग्रेजों का अत्याचार बढ़ता गया, कानून की आड़ में, आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल किया जाता रहा, वैसे-वैसे आदिवासियों ने उलगुलान किए। सबसे ताकतवर विद्रोह बिरसा का था। भू-अर्जन कानून बनने के एक साल बाद 1895 में यह उलगुलान प्रारंभ हुआ। इसके पूर्व भी कोल विद्रोह, भूमिज विद्रोह, मुल्की विद्रोह हुए। सभी उलगुलान के केंद्र जल, जंगल, जमीन और स्वशाासन की मांग थी। इनका नारा था-हमारा जमीन, जल एवं जंगल सिंगबोंगा की देन है। हमने अपना खून पसीना बहाकर जंगलझाड़ी काटकर भूमि योग्य खेत बनाया है।घ्अत: हम जान देंगे, जमीन नहीं। कानून बनाने की प्रक्रिया संताल विद्रोह के बाद ही शुरू हो गई। जब-जब विद्रोह का लावा फंूटा कानून के पानी से उसे शांत किया जाता रहा। पर, न अंग्रेजों की भूख कम होती न आदिवासियों का विद्रोह शांत हुआ। ये दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चलती रहीं। दुर्भाग्य यह है ये आज भी साथ-साथ चल रही हैं। आजादी के बाद लगा अब शोषण करने वाले चले गए, लेकिन यह आदिवासियों के लिए छलावा ही साबित हुआ। उनकी जगह काले अंग्रेज बैठ गए। न्याय इन्हें नहीं मिला, कानून की धाराएं जरूर मिलती रहीं।घ्इस शोषण चक्र का ही परिणाम था कि अलग राज्य की मांग उठने लगी। लगा कि जब तक झारखंड अलग नहीं होगा, झारखंड का विकास नहीं होगा। आदिवासी-मूलवासी इसी तरह उपेक्षित होते रहेंगे। उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक से अलग राज्य की मांग ने आजादी के बाद धार पकड़ी। कई उतार-चढ़ाव के बाद आखिरकार राज्य अलग हुआ। अलग होने के बाद लगा विकास होगा, कोई विस्थापित नहीं होगा। लेकिन यहां की बार-बार बदलती सरकारें आदिवासियों की किस्मत नहीं बदल सकीं। वे आज भी वहीं हैं, जहां हजारों साल पहले थीं।   
 ।। 4।।
आजादी के बाद संविधान सभा में आदिवासी इलाकों की खासियतों के कारण ही संविधान की पांचवीं व छठी अनुसूची का निर्माण हुआ। वहीं, आदिवासी इलाकों के विकास के लिए अलग रणनीति बनाने की भी बात कही गई थी। जवाहरलाल नेहरू भी मानते थे कि औद्योगीकरण के बुरे प्रभावों से आदिवासी संस्कृति का बचाव किया जाना चाहिए। उन्होंने वेरियर एल्विन और जयपाल सिंह मुंडा के साथ हुए विमर्शों के बाद आदिवासी इलाकों के विकास के लिए एक पंचशील की बात की थी। इस नीति के सूत्रा थे: 1-आदिवासी इलकों के लोगों को खुद ही विकसित होने दिया जाना चाहिए, हमें उनपर कुछ थोपने से बचना चाहिए, उनकी परंपरागत कला और संस्कृति को हर तरह से प्रोत्साहित करना चाहिए। 2-जमीन और जंगलों पर आदिवासियों के अधिकारों को सम्मान देना चाहिए। 3-प्रशासन और विकास का कार्य करने के लिए उनके बीच से ही लोगों के कार्यदल को प्रशिक्षित करना चाहिए। 4-हमें इन इलाकों पर ज्यादा प्रशासन नहीं लादना चाहिए। न ही उन पर भारी भरकम योजनाओं का बोझ डालना चाहिए। वहां सहज तरीके से ही ऐसे कार्य करना चाहिए जिससे उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के साथ कोई प्रतिस्पर्ध पैदा न हो। 5- आदिवासी इलाकों में कितना धन खर्च हुआ और उसके क्या परिणाम निकले, इस मानक का त्याग कर गुणवत्ता और विकास के नए मानक तैयार करने चाहिए।
यदि नेहरू के इस पंचशील सिद्धांत का ख्याल रखा गया होता, आदिवासी इलाकों का इस मानक पर विकास किया गया होता, प्रकृति के साथ उनके रिश्ते और संस्कृति को समझा गया होता तो आज आदिवासी अस्मिता भी बची रहती और जो विद्रोह के लावे फूटते रहे हैं, नक्सली संगठनों के जो पांव पसर रहे हैं, यह सब कदापि न होता। राज्य के 24 में से 22 जिलों में नक्सलियों का प्रभाव है। नक्सलियों को खत्म करने के नाम पर केंद्र सरकार अरबों रुपये पानी की तरह बहा रही है। फिर भी उसका ध्यान मूल मुद्दों पर नहीं है। वह अब जंगलों से आदिवासियों को खदेडऩे का अभियान चला रही है ताकि जंगलों को कारपोरेट घरानों को सौंप सके। आदिवासी इसका विरोध कर रहे हैं। विरोध करना जायज है। जिन कंपनियों की स्थापना पिछले सौ सालों में हुई है, और कंपनियो ंकी स्थापना के क्रम में जिनकी जमीनें अधिग्रहित की गई, उनसे जो वादे किए गए, वे आज तक पूरे नहीं हुए। यही कारण है कि अब आदिवासी अपनी जमीन नहीं देना चाहते। जिनकी जमीनें गईं, वे आज मजदूर हो गए। जिनकी जमीनों से आज काला हीरा निकल रहा है, वे अब कोयला चोर कहलाने लगे हैं। कितनी पीड़ाजनक है कि कोई किसान अपने ही जमीन से बेदखल हो जाए और अपनी जमीन से पापी पेट के लिए थोड़ा कोयला निकाल ले तो कोयला चोर। आखिर, किसान से कोयला चोर किसने बनाया? कानून ने या सरकार ने?
।। 5।।
विकास क्या उद्योगों से ही सकता है? क्या उद्योगों से सबको रोजगार संभव है? झारखंड में जितने लोगों की जमीन ली गई, क्यों उन्हें उन कंपनियों ने नौकरी दी, जिसकी जमीन उन्होंने ली थी? उत्तर ना होगा। कंपनियों को सबको रोजगार देना संभव नहीं है। सौ साल पहले जब तकनीक उतनी उन्नत नहीं थी, तब तो उसने सबको रोजगार दिए नहीं, जहां मानव श्रम की ज्यादा जरूरत होती थी, आज तो तकनीक ने मानव श्रम का घटा दिया है। फिर कैसे कंपनियां, किस आधार पर लोगों को रोजगार देने और विकास की बात कर रही हैं? विकास के रहनुमा और राज्य की सरकार भी अच्छी तरह जानती है कि राज्य की लगभग 85 प्रतिशत आबादी खेती और जंगलों पर निर्भर है। आदिवासियों में यह निर्भरता और भी ज्यादा है यानी 92.33 प्रतिशत है। इस पर राज्य में न सिंचाई की कोई व्यवस्था है न बिजली की। पलामू में पिछले चालीस साल से डैम बन रहे हैं, आज तक पूरे नहीं हुए। तब उनकी लागत पचास करोड़ थी और अब हजार करोड़ पहुंच गई है। डैम बनाने के चक्कर में लोगों को चालीस साल पहले ही विस्थापित कर दिया गया, लोग कहां गए, क्या कर रहे हैं, सरकार का इससे कोई वास्ता नहीं। लेकिन ठेकेदारों और इंजीनियरों की चांदी कट रही है। क्योंकि हर साल उसकी लागत बढ़ जाती है। यह एक बानगी है।
इस तरह की कई योजनाएं पूरी नहीं हो पाई लेकिन लोग विस्थापित हो गए। थोड़ा आंकड़े पर बात करें तो बिजली और सिंचाई सुविधा प्रदान करने के लिए 50000 हेक्टेअर जमीन बांधों व जलाशयों के लिए कुर्बान हो चुकी हैं। लेकिन कुल कृषि क्षेत्र का केवल नौ प्रतिशत भाग ही सिंचित है। इसके अलावा खनन एक और कारण है, जिससे लोगों की जमीनें छिन रही हैं। विकास परियोजनाओं के लिए अधिग्रहित जमीन में से 34.4 प्रतिशत खनन के लिए अधिग्रहित हुुईं। अभी सरकार ने करीब सौ एमओयू किए हैं। सभी को धरातल पर उतार दिए जाएं तो झारखंड से जंगल गायब हो जाएंगे, खेती की जमीन नहीं बचेगी। लोग कहां जाएंगे, क्या करेंगे, इसकी चिंता सरकार को नहीं। दिलचस्प है कि सरकारें कैसे बड़ी पूंजीपतियों के हितों के लिए काम करती रही हैं, इसका पहला उदाहरण टाटा कंपनी है, जहां आज अरबों के उसके साम्राज्य को वारिस की खोज की जा रही है। जरा उसके अतीत पर नजर डालें।
 झारखंड में औद्योगिकरण की शुरुआत औपनिवेशिक काल में ही हो गई थी। 1907 में जमशेदजी टाटा ने काली माटी क्षेत्रा में अपनी फैक्ट्री की नींव रखी। इसके लिए  3564 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया। इस फैक्ट्री ने हजारों परिवारों को विस्थापित किया। कंपनी की स्थापना के लिए छोटानागपुर टेंनेंसी एक्ट को चार साल तक ठंडे बस्ते में रखा गया ताकि टाटा को जमीन अधिग्रहण में ज्यादा कानूनी दांवपेंच का सामना न करना पड़े। क्योंकि एक्ट के प्रभावी हो जाने से टाटा को जमीन लेने में काफी दिक्कतें आतीं। इस अधिनियम के तहत आदिवासी जमीन गैरआदिवासियों को हस्तांतरित नहीं की जा सकती। सामाजिक कार्यकर्ता धनश्याम पूछते हैं, क्या यह सवाल पूछना बेमानी होगा कि टाटा रेलवे स्टेशन और उसके बगल में स्थित टाटा इस्पात कारखाना, जहां पहले कालीमाटी गांव था, वह गांव और उसके निवासी अब कहां गए? क्या इसकी जानकारी सरकार के पास है? यह बात हम मान सकते हैं कि अंगरेजों ने अपने मुनाफे के लिए उस जमीन को टाटा को लीज पर दिया था, लेकिन आजादी के बाद भी हमारी सरकार ने उस गांव की खोज-खबर क्यों नहीं ली?
यह किस्सा सिर्फ कालीमाटी गांव का नहीं है। बोकारो के साथ भी यही हुआ। बोकारो स्टील संयंत्र की स्थापना में भी हजारों एकड़ जमीन गई। विस्थापितों को नाममात्र का मुआवजा दिया गया। बोकारो में जब स्टील प्लांट बनना तय हुआ तो दामोदर नदी के उत्तर में एक जमीन के बड़े हिस्से को चिह्निïत कर इसे खाली कराने का काम शुरू हुआ। लगभग 60 गांव पूरी तरह और कुछ गांवों के कुछ हिस्से को सरकार ने जमीन अधिग्रहण कानून का इस्तेमाल करके अपने कब्जे में ले लिया। सरकारी दरों पर जमीन का मुआवजा दिया गया जो जमीन के बाजार भाव से बेहद कम थे। स्टील प्लांट में बड़ी संख्या में काम करने वालों की जरूरत थी। हर तरह के पदों पर लोग रखे जाने थे। लेकिन सरकार ने यह तय किया कि सिर्फ चौथी श्रेणी के पदों पर हर विस्थापित परिवार से एक आदमी को नौकरी दी जाएगी। इसके अलावा हर परिवार को रहने के लिए जमीन का एक टुकड़ा दिया जाएगा।
1960 के दशक में बुलडोजर चलाकर गांवों को समतल कर दिया गया और लोग अपने सामान बैलगाडिय़ों पर लाद कर दूसरी ठौर ढूंढ लिए। गांवों में घर, बाग, चारागाह, कुलदेवता के स्थान, श्मशान सभी कुछ थे। पर सब कुछ समतल हो गया था। विस्थापितों के साथ चुभने वाली बात यह हुई कि उनसे जमीन लेते समय कहा गया कि इस जमीन पर प्लांट बनेगा और वहां काम करने वालों के लिए कालोनियां बनाई जाएंगी। लेकिन विस्थापितों ने देखा कि स्टील प्लांट प्रबंधन ने प्रापर्टी डीलर की भूमिका अपना ली है। पहले तो एक को-आपरेटिव कालोनी बनाकर लगभग 500 प्लाट लीज पर दे दिए गए। इन 500 लोगों को प्लाट देते समय विस्थापितों को किसी तरह की वरीयता नहीं दी गई।...हद तो तब हो गई जब स्टील प्रबंधन ने मजदूरों के लिए बनाई गई कालोनियों के फ्लैट लीज पर देना शुरू कर दिया। इस तरह हजारों की संख्या में फ्लैट दे दिए गए। बाद में मामला अदालत में पहुंचा तो फ्लैट देने का सिलसिला तो रुका, लेकिन जिन्हें फ्लैट दिए जा चुके थे, उनसे वापस नहीं लिए गए। (दिलीप मंडल-एक विस्थापित का अविश्वास पत्र)
।। 6।।
  न्याय की आस में डिमना झील के विस्थापित आज भी भटक रहे हैं। डिमना बांध का निर्माण आजादी से पहले 1942-43 में किया था, जिसमें 12 गांवों के लोगों को विस्थापित किया गया। यह किसी और ने नहीं, टाटा कंपनी ने किया। मदन मोहन ने लिखा है टाटा कंपनी ने गैर कानूनी तरीके से 102 एकड़ जमीन भी अपने कब्जे में ले लिया है। जब सरकारी अधिकारी और टिस्को अधिकारी के समक्ष डिमना झील का सीमांकन किया गया तो पता चला कि टाटा कंपनी ने 102 एकड़ जमीन गैरकानूनी तरीके से कब्जा कर रखा है। बरसात के समय डिमना झील के पानी से 5.84 एकड़ की फसल नष्ट हो जाती है। डिमना झील के विस्थापित आज भी उचित मुआवजे की मांग कर रहे हैं। जब-तब आंदोलन भी होते रहता है। धरना-प्रदर्शन विस्थापित करते हैं, लेकिन न्याय उन्हें आज तक नहीं मिला। झारखंड मुक्ति वाहिनी विस्थापितों की लड़ाई लड़ रहा है। इस तरह न जाने कितने विस्थापित आज भी भटक रहे हैं। पलामू का मंडल डैम चालीस साल से बन रहा है। हर साल उसकी लागत बढ़ जाती है। 14 गांव के लोगों को चालीस साल पहले ही विस्थापित कर दिया गया। वे आज भी भटक रहे हैं। न ठीक से उन्हें मुआवजा दिया गया न उन्हें पुनर्वासित किया गया। इनमें आदिवासी और दलित ज्यादा थे। पी साईनाथ ने एक बार इस डैम का दौरा किया था और रिपोर्ट लिखी थी। पलामू में इस तरह की कई अन्य योजनाएं सिंचाई के लिए चल रही हैं, जो आज तक पूरी नहीं हुईं। लागत हर साल बढ़ती जाती है। अब तो इनके बनने की संभावना भी क्षीण हो चुकी है, क्योंकि आस-पास के इलाके में माओवादी सक्रिय हैं। ठेकेदारों के लिए भी चांदी है कि माओवादी काम नहीं करने देते, लेकिन सरकारी मशीनरी से कोई पूछने वाला नहीं कि साठ-सत्तर करोड़ की परियोजना एक एक हजार करोड़ में कैसे पहुंच गई, इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
 पलामू में ही कनहर परियोजना 36 साल से लटकी है। परियोजना निर्माण के लिए राज्य के पूर्व मंत्राी हमेंद्र प्रताप देहाती ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर जल्द निर्माण किए जाने की मांग की है। परियोजना के निर्माण के बाद यह अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगी, यह संशय ही है। क्योंकि जो परियोजनाएं बनीं, जो वादे किए गए थे, वे पूरे नहीं हुए।
 आजादी के बाद बनी डीवीसी परियोजना के मात्रा दो बांधों से 93,874 लोग विस्थापित हुए। इसमें अगर तिलैया, कोनार, मसानजोर को जोड़ दिया जाए तो विस्थापितों की संख्या एक लाख सत्तर हजार के आस-पास पहुंच जाती है। इन परियोजनों में विस्थापित होने वालों में तीन चौथाई आदिवासी थे। (झारखंड विकास पर विमर्श-घनश्याम)
भरत डोंगरा कहते हैं, हाल के समय में विस्थापन की समस्या ने विकराल रूप ले लिया है। विस्थापन की समस्या पहले भी मौजूद थी परंतु भूमंडलीकरण के दौर में पिछले दस-पंद्रह वर्ष के दौरान यह तेजी से बढ़ी है। पहले कम से कम ऊपरी तौर पर यह कहा जाता था कि सरकार किसी सार्वजनिक हित के लिए भूमि का अधिग्रहण कर रही है। परंतु अब तो वह खुलेआम निजी क्षेत्रों के बड़े पूंजीपतियों व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण करने हेतु मात्र बेहद सक्रिय ही नहीं बल्कि आक्रामक भूमिका निभा रही है। ऐसे लगता है जैसे विश्व पूंजीवाद को पनपाने के लिए बाक्साइट, लौह अयस्क व और भी न जाने कितने खनिजों या उत्पादों की आपूर्ति के लिए सरकारें बड़े पैमाने पर किसानों, आदिवासियों व अन्य गांवववासियों को उजाडऩे के लिए तैयार बैठी हैं। इस मामले में सभी मुख्य राजनीतिक दल जैसे एक हो गए हैं। कलिंगनगर से लेकर नंदीग्राम की बेहद त्रासद घटनाएं बताती हैं कि इस विस्थापन हेतु सरकारें क्रूर हिंसा करने
के लिए भी तैयार हैं।
    अर्थशास्त्री गिरीश मिश्र ने झारखंड को लेकर लिखा है, खनिज पदार्थों की वहां विविधता और प्रचुरता है। उपजाऊ जमीन और पानी विपुल मात्रा में है तथा लोग मेहनती हैं। फिर भी विडम्बना है कि वह देश के निर्धनतम राज्यों में आता है। 2 करोड 88 लाख 46 हजार की जनसंख्या में लगभग 30 प्रतिशत आदिवासी हैं। 2 करोड 23 लाख 10 हजार लोग गांवों तथा मात्र 65 लाख 36 हजार शहरों में रहते हैं। कहना न होगा कि अधिकतर आदिवासी, दलित तथा अन्य पिछड़े वर्ग के लोग गांवों में ही रहते हैं। शहरो में अधिकांशतया उच्च और मध्यम वर्ग के लोग बसे हैं जो वाणिज्य-व्यापार, उद्योग, शिक्षा तथा सेवाओं के अन्य क्षेत्रों में कार्यरत हैं। झारखंड के ऊपर ग्रहण ब्रिटिश शासन के दौरान ही लग गया जब बाहरी शक्तिसम्पन्न लोगों ने उसके प्राकृतिक संसाधनों को हडपना शुरू कर दिया। यह आज भी जारी है और भी विकराल रूप में। अब अपने ही इस लूट रहे हैं, बेच रहे हैं। इन दो उद्धरणों से झारखंड की स्थिति को समझा जा सकता है।
  एक रिपोर्ट में 65 लाख विस्थापितों की बात कही गई है। इस आंकड़े पर गौर करें तो माइंस को ले 25.50 लाख, बड़ी सिंचाई परियोजनाओं में 16.40 लाख, फैक्टरी में 12.50 लाख, अभयारण्य को ले 11 लाख अब तक विस्थापित हो चुके हैं। सन 1960 से कुछ महत्वपूर्ण कंपनियों के लिए जो जमीन ली गई, वह इस प्रकार है-एचइसी के लिए 7,711एकड़, बोकारो स्टील के लिए 34,227 एकड़, दामोदर वैली प्रोजेक्ट के लिए 28,837 एकड़, आदित्यपुर इंडस्ट्रीज के लिए 34,432 एकड़ जमीनें ली गईं। वर्तमान में राज्य सरकार ने एक सौ से उपर एमओयू पर साइन किया है। इन उद्योगों के लिए एक लाख एकड़ से अधिक जमीन चाहिए। इससे कितने लोग विस्थापित होंगे, कितने जंगल कटेंगे, कितना पक्षियों और जानवरों का रहवास छिनेगा, राज्य के वातावरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका कोई आकलन राज्य सरकार ने अभी तक नहीं किया है। उसे केवल विकास नजर आ रहा है। कैसा विकास, किसका विकास ...यह बताने की जरूरत वह नहीं समझती।
                
।। 7।।
 एक समय झारखंड में आदिवासियों की आबादी 70 प्रतिशत थी। पर, धीरे-धीरे इनकी जनसंख्या कम होती गई। शशिभूषण कड़वार व अलेक्स एक्का ने लिखा है, 1901 से 1951 तक आदिवासी जनसंख्या क्रमश: 59.35 प्रतिशत से 60.48 प्रतिशत तथा 68.60 प्रतिशत से 48. 18 प्रतिशत बनी रही। पूरा छोटानागपुर में इस अवधि में आदिवासी जनसंख्या क्रमश: 34.84 प्रतिशत, 31.14  प्रतिशत रह गई।घ्देश की आजादी के बाद तो झारखंड में गैरआदिवासियों की संख्या बाढ़ की तरह हो गई और आज बढ़कर 72.33  प्रतिशत हो गई है। आदिवासियों की जनसंख्या में गिरावट के तीन कारण रहे हैं। पहला, आप्रवास, औद्योगीकरण और शहरीकरण। बाहर से लोग आकर राज्य में बसते गए, औद्योगीकरण ने भी महती भूमिका निभाई। बड़े-बड़े उद्योग लगे, डैम बने तो बाहर आकर लोग रोजगार-नौकरी करने लगे। शहरीकरण ने भी लोगों को रोजगार मुहैया कराया। इस तरह बाहर से आकर लोग राज्य में बसते गए। एक ओर रोजगार के लिए बाहरी लोग झारखंड में आए तो आदिवासी रोजगार की तलाश में बाहर जाने लगे। कुछ का जाना मौसमी थी, कुछ दूसरी जगहों पर जाकर बस गए। कुछ जबरिया भी ले जाए गए। असम के चाय बगानों में सैकड़ों साल पहले अंगरेजों ने जबरन झारखंड के लोगों को काम करने के लिए ले गए। कुछ विस्थापन का शिकार होकर अपने वतन से दूर चले गए। इस तरह ये अपने ही घर में अल्पसंख्यक होते चले गए। एक और बड़ी वजह है जनगणना। जनगणना में इनके लिए कोई कॉलम नहीं हैं। देश की संप्रभु सरकार इनकी उपस्थिति को ही नकारती है। इसको लेकर राज्य में काफी आंदोलन हुए, हो रहे हैं। ये अलग से चिद्दित करने की मांग कर रहे हैं। डॉ रामदयाल मुंडा कहते हैं, भारतीय संविधान ने आदिवासियों को एक विशिष्ट समुदाय के रूप में मान्यता दी है और उनकी सुरक्षा और विकास के लिए कई प्रावधान किए हैं किंतु धर्म के मामले में उसने यह स्वतंत्राता दे रखी है कि जो जिस धर्म का अनुसरण करना चाहे, करे। व्यवहार में जैसा कि जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है, आदिवासी की अपनी धार्मिक पहचान नहीं के बराबर है। गणना प्रणाली में अब तक अन्य धर्मों-हिंदू, मुस्लिम-सिख, ईसाई इत्यादि-की तरह अपनी धार्मिक पहचान दर्ज करने के लिए कोई निश्चित जगह न पाकर आदिवासियों को 'अन्यÓ के ही अंतर्गत गिनाने के लिए बाध्य होना पड़ता है। (आदि धरम का प्राक्कथन डॉ रामदयाल मुंडा-रतन सिंह मानकी) इस तरह आदिवासियों की लगातार घटती जनसंख्या के पीछे भी कई पेंच, राजनीति और साजिश दिखाई पड़ती है। ये केवल, विकास और विस्थापन के मारे हुए नहीं हैं, इनका मिटाने एक गहरी साजिश भी दिखाई देती है। क्योंकि जहां-जहां ये हैं, उनकी धरती के नीचे सोना है। इस पर नजर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की है। दुर्भाग्य से यही वह इलाका है, जिसे लाल गलियारा कहा जा रहा है और जिसके लिए ग्रीन हंट आपरेशन चलाया जा रहा है। आदिवासियों के सामने इधर कुआं-उधर खाई की स्थिति पैदा हो गई है। औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के बाद यह सिलसिला थमता नजर नहीं आ रहा। नागार्जुन ने आजादी के आस-पास सितंबर 1947 में एक कविता लिखी थी, उदबोधन, जो युगधारा में संकलित है। वे उसी समय भांप गए थे और आदिवासियों को जागरूक करते हुए कहा, उठो, उठो...।
पंक्तियों पर गौर करें-
झारखंड सतपुड़ा सदृश तव स्कंध!
रत्नाकर हो अगर तुम्हारा नाम
सागर को क्या कुछ होगी आपत्ति?
अबरख और कोयला और पेट्रऊऊोल
हीरा और जवाहर (मणिमाणिक्य)
सोना चांदी लोहा औÓ इस्पात...
अंदर दबी पड़ी हैं सौ-सौ खान
उठो, उठो, उठ जाओ विन्ध्य महान!
मांग रहा युग तुमसे जीवनदान !
.................
कविता की अंतिम पंक्तियां हैं-
भील, गोंड, हो, मुंडा औÓ संथाल
अब भी तो विकसित हों तेरे बाल
देखो तुमसे मांग रहे द्युति दान
निर्विकल्प निश्चल सौ-सौ दिनमान
उठो, उठो, उठ जाओ विन्ध्य महान!
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इस कविता के साथ अरुंधती रॉय के उस लेख के कुछ अंश भी देख लें, शायद स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। रॉय आउटलुक में मिस्टर चिदंबरम वार लेख में लिखती हैं, 'झारखंड और उड़ीसा आदि की पहाडिय़ों में जितनी बाक्साइट भरी पड़ी है, उसकी कीमत आंकी जाए तो उसमें 12 शून्य आता है। वह पूछती हैं, इसके क्या मायने है? कहती हैं, झारखंड में पिछले दिनों मधु कोड़ा की अवैध 4,500 करोड़ की संपत्ति का मामला काफी गरमाया था। झारखंड खनिजों का भंडार है। वहां भी आदिवासी हैं। वहां भी सरकार 'विकासÓ कर रही है और माओवादी तो वहां हैं ही। जाहिर है, जो पैसे मधु कोड़ा एंड कंपनी ने कमाए, वे खनिज और कोयले से ही आए हैं। कंपनियों की जहां तक बात है, आर्सेलर मित्तल-जिंदल से लेकर कौन है, जो झारखंड में मौजूद नहीं। यानी, खनिज, आदिवासी, माओवाद, धन, विकास, जंगल, जमीन, निजी पूंजी, आंतरिक सुरक्षा-ये तमाम शब्द दरअसल एक ही संदर्भ से ताल्लुक रखते हैं, जो एक ही किस्म के भौगोलिक परिक्षेत्रा पर लागू होते हैं।Ó
 अब ऐसे विकास के क्या मायने हैं, और जो कंपनियां यहां उद्योग लगाने को आतुर क्यों हैं, यह समझने के लिए बहुत दिमाग पर जोर डालने की जरूरत नहीं है। उनके इस विकास से वास्तव में विकास किसका होगा, यह भी अबूझ नहीं है। इसलिए, यदि आदिवासी आज जमीन नहीं देने की बात कर रहे हैं तो वे गलत नहीं हैं। शायद वे अपनी पुरानी गलती को दुर$स्त कर रहे हैं।

विकास, विस्थापन और आदिवासी


तुम किस खोह में खोये हो

तेलंगना, नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम की मिट्टी
सोनभद्र और पुनपुन की तराई में जमकर
एक नया सपना उगाने में लगी हैं-
तुम किस खोह में खोये हो?

                                                                                                                  -कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह
सपने आज भी जिंदा हैं। जिंदा न होते तो महाराष्ट्र से पं बंगाल तक आंध्रप्रदेश से लेकर उड़ीसा और झारखंड तक की जंगलों में दिनों दिन आग की लपटें बड़ी नहीं होती। आज भी इन इलाकों में जल, जंगल, जमीन की लड़ाई जारी है-आजादी के 63 साल बाद भी। यह देश के लिए गर्व का विषय है या शर्म का-इसका जवाब तो देश के प्रधानमंत्री ही दे सकते हैं। क्या यह अजीब नहीं लगता कि देश की करीब दस करोड़ आबादी, जिसे आदिवासी कहा जाता है, वह आज भी विकास की कीमत चुका रही है? उसकी भाषा, उसकी संस्कृति सबकुछ नष्ट करने के लिए तथाकथित सभ्य समाज और उसके नुमाइंदे कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे? क्या ऐसा नहीं लगता कि इस देश में लोकतंत्र का अर्थ सबके लिए एक ही नहीं है? आजादी, अभिव्यक्ति, और अस्मिता जैसे शब्द भी एक ही माने नहीं रखते। क्या वर्ग बदलते ही इनकी अवधारणा नहीं बदल जाती हैं। आजादी के बाद का इतिहास तो यही दर्शाता है।
हमारे देश के प्रधानमंत्री अपने विशेष विमान से देश को संबोधित करते हुए कहते हैं दुनिया भारत को आगे बढ़ते हुए देखना चाहती है। मनमोहन सिंह से पूछना चाहिए कि इसमें रुकावट कौन है? उनका इशारा आदिवासियों की ओर तो नहीं है? आखिर, विकास में सबसे बड़े बाधक तो उनकी नजर में यही हैं। उनके इस संदेश के पीछे छिपे निहितार्थ तो यही लगते हैं? जैसे कारपोरेट गृहमंत्री को आदिवासी और माओवादी में अंतर नहीं समझ में आता है और इन्हें समाप्त करने के लिए उन्होंने आपरेशन ग्रीन हंट चला रखा है। महाश्वेता देवी पूछती हैं आपरेशन ग्रीन का क्या मतलब है? ग्रीन यानी जंगल का शिकार? क्यों भाई? इसलिए कि जंगल को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंपना है। वे कंपनी लगाएंगे, इससे देश की तरक्की होगी। देश आगे बढ़ेगा? अब ये आदिवासी इसमें बाधक हैं। वे जंगलों में रहते हैं। माओवादी भी जंगलों में रहते हैं। तो, दोनों को खत्म करने के लिए इससे आसान रास्ता क्या हो सकता है कि सभी को माओवादी घोषित कर दो। न भी करो तो आपरेशन के बाद खुद आदिवासी जंगल छोड़ देंगे। फिर पी चिदंबरम का मार्ग निष्कंटक हो जाएगा। पं सिंहभूम आदि क्षेत्रों से ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि जवान गांवों में घुसकर महिलाओं और ग्रामीणों के साथ जबरदस्ती कर रहे हैं, मारपीट कर रहे हैं। उनके उत्पात से लोग गांव छोड़ रहे हैं। छत्तीसगढ़ की हालत किसी से छिपी नहीं है। लेकिन जो रास्ता अख्तियार केंद्र सरकार की है, उसकी जो अदूरदर्शी सोच है, उससे लगता नहीं कि वह इस समस्या से पार पाएगी। क्योंकि जो लोग आदिवासियों के इतिहास की थोड़ी बहुत भी समझ रखते हैं वह जानते हैं कि जल, जंगल, जमीन के लिए ये कुछ भी कर सकते हैं। बहुत दिनों तक इनकी भलमनसाहत का फायदा नहीं उठाया जा सकता। औपनिवेशिककाल इसका सबसे अच्छा उदाहरण है।
अंग्रेजों ने झारखंड में प्रवेश करने के बाद यहां के जंगल और जमीन पर एकाधिकार स्थापित करने के लिए कई कानून बनाए। 1793 में स्थायी बंदोबस्त कानून बनाया और आदिवासियों को अलग-थलग कर दिया। जमीन के बाद जंगल पर एकाधिकार के लिए 1865 में कानून बनाया। विकास के लिए 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून बनाया। यानी शोषण को कानूनी जामा पहनाया। लेकिन आदिवासी उसके कानून के झांसों में नहीं आए। इसी का परिणाम रहा आदिवासी क्षेत्रों में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह। 1855 से लेकर आजादी मिलने तक कई विद्रोह हुए..मानभूम विद्रोह, चेरो विद्रोह, तमाड़ विद्रोह, कोल विद्रोह, गंगनारायण विद्रोह, संथाल विद्रोह, भुइयां टिकैत विद्रोह आदि-आदि। उल्लेखनीय है कि 1857 के महान राष्ट्रव्यापी संघर्ष से पहले ही झारखंड की धरती ने 1855 में ही संघर्ष का सिंहनाद कर दिया था। चार भाइयों सिदू-कान्हों-चांद-भैरव की अगुवाई वाले इस संघर्ष को संताल हूल के नाम से जाना जाता है, जिसमें दस हजार लोग बलिदान हुए थे। संताल गजेटियर में लिखा है, संताल विद्रोह के पीछे जमीन पर एकछत्र अधिकार की स्थापना की लालसा थी। इस विद्रोह का क्षेत्र व्यापक था और इसने लंबे समय तक झारखंड के मानस को हिलोड़ते रहा और क्रांति के लिए उकसाता रहा। इस महान हूल को मुख्यधारा के इतिहासकारों ने उपेक्षित ही छोड़ दिया। यह अकारण नहीं कि सखुए की टहनी को गांव-गांव घुमाकर 30 जून, 1855 को भगनाडीह गांव में संतालों को एकत्रित होने के लिए आमंत्रित किया गया था। कहते हैं इस दिन करीब चार सौ गांवों से दस हजार लोग अपने पारंपरिक हथियारों के साथ जुटे थे। अब क्या था, क्रांति का बिगुल फूंक दिया गया। नारा दिया, खेत हमने बनाए हैं, इसलिए ये हमारे हैं। इसके लिए किसी को कर देने की जरूरत नहीं है। इस वाक्य ने जो हुंकार भरी, वह अप्रत्याशित था। सालों का दबा आक्रोश अचानक फूंट पड़ा। यह अलग बात है इस संघर्ष में दस हजार लोग मारे गए। लेकिन इसने संघर्ष की पीठिका तैयार कर दी। इसके दो साल बाद 1857 में धरती फिर धधक उठी। इस बार पूरे देश में आग लग गई। झारखंड का पलामू, मानभूम, सिंहभूम, रांची और उसके आस-पास के क्षेत्रों में आग की लपटें तेज होने लगीं। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पांडेय गणपत राय, नीलांबर-पीतांबर आदि ने जगह-जगह नेृतत्व संभाला। विद्रोह ने नया मुकाम हासिल किया। रांची, चाइबासा, चक्रधरपुर, कोल्हान, हजारीबाग आदि क्षेत्र भी रह-रह कर सुलगते-सुलगते धधक उठते। संघर्ष चलता रहा। अंग्रेजों के अत्याचार व शोषण में कमी नहीं आ रही था। अलबत्ता कानून बनाकर थोड़ी-थोड़ी रियायत जरूर दे रहे थे। आगे चलकर झारखंड को एक और नायक मिला, जिसने बहुत दूर तक इस राज्य को प्रभावित किया। नाम था बिरसा मुंडा। संताल हूल बीस साल बाद बिरसा का जन्म हुआ। बहुत कम आयु पाई थी। 9 जून, 1900 को रांची कारा में देहावसान हो गया। कुल पच्चीस की उम्र में पूरे झारखंड को बेचैन करने वाले इस युवा ने अंग्रेजी की चपलनीति, उनकी मानसिकता, लूट, धर्मातरण आदि पर जमकर प्रहार किया, लोगों को एकजुट किया। संघर्ष को आगे बढ़ाया। लोगों को संगठित कर साम्राज्यवादी सत्ता से लड़ने का ऐलान किया.. कहा, अब सरकार की बात कानने की जरूरत नहीं है। उनका संघर्ष धीरे-धीरे पठारों से होते हुए गांवों में फैलने लगा। लोग संगठित होकर अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए। मुक्ति की कामना लिए हुए सैकड़ों नौजवान बिरसा के साथ हो लिए। चक्रधरपुर, खूंटी, चाईबासा, कर्रा, तोरपा, बसिया आदि में आजादी की चाह की आग सुलगने लगी। बिरसा ने डोम्बारी बुरू और सइल रकाब के सुरक्षित जंगलों से, जो खूंटी में पड़ता है, आंदोलन की धार को तेज कर दिया। 24 दिसंबर 1899 को पूर्व योजना के अनुसार मिशनों और सरकारी दफ्तरों तथा सैनिकों पर हमले होने लगे। सात जनवरी को खूंटी पर आक्रमण किया गया। बिरसा का आंदोलन बढ़ता जा रहा था। अंग्रज प्रशासन इसे किसी भी स्तर पर कुचलने के लिए तैयार थी। लिहाजा, सइन रकाब और डोम्बारी बुरू को बुरी तरह घेर लिया गया। अंग्रेजों से मुखबिरी कर दी कि बिरसा डोम्बारीबुरू पर डेरा डाले हुए है। अब अंग्रेजों का काम आसान हो गया था। उस पहाड़ को चारों तरफ से घेर लिया गया था। युद्ध शुरू हो गया। इसमें काफी लोग मारे गए। कुछ दिनों के बाद संतरा के जंगल से बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद बिरसा और उनके अनुयायियों पर मुकदमा चला। लेकिन सुनवाई के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। बिरसा को लेकर खूंटी और आस-पास के क्षेत्रों में मुंडारी भाषा में गीत प्रचलित हैं। इसे कुमार सुरेश सिेह ने संकलित कर एक पुस्तक ही लिख डाली है, जिसमें बिरसा की पूरी कहानी और आंदोलन को समेटा है। खैर, भगवान बिरसा के बाद भी आंदोलन का सिलसिला थमा नहीं। बाद के दिनों में कांगे्रस का फैलाव जैसे-जैसे होता गया, गांधी का प्रभाव भी बढ़ता गया और आंदोलन का रुख भी बदलता गया। गांधी से प्रभावित झारखंड में टाना भगतों का अहिंसक आंदोलन चला। आज ये उपेक्षित हैं। क्यों, क्या ये आजादी की कीमत चुका रहे हैं?
इन आंदोलनों के पीछे क्या था? जल, जंगल, जमीन ही न? फिर आजाद देश की सरकार कैसे सोच रही है कि वह जवानों की बदौलत उनकी जमीन हड़प लेगी? वह बार-बार विकास की दुहाई देती है-दे रही है। विकास माने विनाश तो नहीं होता। आजादी के बाद और कुछ उसके पूर्व झारखंड में बडे़-बड़े उद्योग स्थापित हुए। इससे आदिवासियों का विस्थापन हुआ। उन्हें शर्त के अनुसार न मुआवजा दिया न नौकरी। बोकारो, एचईसी, कोयलकारो आदि उद्योगों-परियोजनाओं की कीमत आदिवासियों ने चुकाई और वे आज भी चुका रहे हैं। आज स्थिति और भी भयावह है। पहले सरकार के पास कुछ नैतिकता भी और समाज कल्याण की भावना भी थी। पर, 1991 के बाद सबकुछ बदल गया। मनमोहन सिंह ने नई आर्थिक क्रांति का फलसफा तैयार किया, उसे उदारीकरण का नाम दिया। यह उदारता किसके लिए, गरीबों के लिए या अमीरों के लिए! समय और अनुभव तो यही बताते हैं कि पूंजीपतियों की तिजोरी भरने के लिए उदार नियम बनाए गए। इस नियम ने आम जनता को हाशिए पर ढकेला और पूंजीपति लगातार समृद्ध होते गए। करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या बढ़ती गई। इनका मुनाफा भी तेजी से बढ़ता गया। लेकिन गरीबी भी तेजी से बढ़ती गई। आज देश के सौ अमीरों के पास 276 बिलियन डालर की पूंजी है, जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 25 प्रतिशत है। 2008 में भारतीय अरबपतियों की संख्या 27 थी, जो एक वर्ष में बढ़कर 52 हो गई। एक वर्ष में भारतीय अरबपतियों की संपत्ति पांच लाख करोड़ बढ़ी है। 2009-10 में भारत का सकल घरेलू उत्पाद 1100 बिलियन डालर रहने की उम्मीद है, यानी सौ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देश का एक चौथाई पैसा सौ लोगों के पास है। यह मनमोहन सिंह के आर्थिक उदारीकरण की भयावह तस्वीर का एक छोटा रूप है। दूसरी तरफ इस वित्तीय वर्ष की समाप्ति (मार्च 2010) पर देश का वित्तीय घाटा 4 लाख करोड़ का होने का अनुमान है। यह सब देश के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उदारवादी सिद्धांत का कमाल है। जब से यह व्यवस्था लागू हुई है, एक और अरबपतियों की संख्या बढ़ी है तो दूसरी ओर गरीबों की संख्या। अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट बताती है कि 84 करोड़ भारतीय रोजाना बीस रुपए से कम पर गुजर-बसर करते हैं। 30 प्रतिशत ग्रामीण जनता रोज 19 रुपए और 10 प्रतिशत शहरी जनता 13 रुपए प्रतिदिन पर गुजर-बसर कर रही है। बीस करोड़ की आबादी मात्र 12 रुपए से भी कम पर अपने जीवन की गाड़ी चला रही है। कहने की जरूरत नहीं कि आम आदमी की कीमत पर ही आर्थिक विकास की इमारत खड़ी की जा रही है।
विषमता की ऐसी खाई समस्याओं को ही जन्म दे सकती है। नागार्जुन ने बहुत पहले पूछा थाभुक्खड़ के हाथों में यह बंदूक कहां से आई? इसका जवाब तो मनमोहन सिंह ही दे सकते हैं। 
नई आर्थिक नीति में किसानी की चिंता नहीं, बड़े कारपोरेट घरानों की चिंता है। सरकार का ध्यान गरीबों पर नहीं अमीरों पर है। अब संसद में भी गरीबों के हक की आवाज नहीं सुनाई देगी क्योंकि संसद में भी अमीर सांसद बहुमत में हैं। कमल नयन काबरा कहते हैं कि 'आज का भारतीय राज्य एक पक्षपाती राज्य है जो पूंजीपतियों की सेवा करता है, और जनता के हितों की बेशर्मी से उपेक्षा करता है।'
अब सरकार के सरोकारों पर और कुछ कहा जा सकता है? हम जो विकास करना चाहते हैं या  विकास का जो माडल हमने बनाया है, ज्यादा सही होगा कि हमने विकसित देशों से उधार लिया, उसने विनाश ही ज्यादा किया। जगह-जगह सेज बनाने की सरकार ने घोषणा कर रखी है। राज्य की सरकारें एमओयू के जरिए राज्य की संपदा को औने-पौने दामों में कंपनियों को मुहैया करा रही हैं। दुर्भाग्य यह है कि जहां-जहां मिनरल्स हैं, कोयला है, सोना है, यूरेनियम है, उन क्षेत्रों में आदिवासियों का रहवास है। और, इन्हीं क्षेत्रों में लाल आतंक फैला हुआ है। केंद्र की सरकार इनके खात्मे के लिए आपरेशन ग्रीनहंट चला रही है। कई मानवाधिकार संगठन और महाश्वेता देवी तक यही मानती हैं कि ग्रीन हंट आपरेशन नक्सलियों के सफाए के लिए नहीं जंगल से आदिवासियों को बेदखल करने के लिए चलाए जा रहे हैं। इन संगठनों का कहना है कि एक ओर आपेरशन ग्रीन चलाया जा रहा है तो दूसरी ओर खनिज संपदा का हवाई सर्वेक्षण हो रहा है। आखिर, इसका क्या मतलब है? एक और प्रश्न उठता है कि आखिर, 63 साल बाद सरकार को आदिवासी इलाकों में विकास की सुध क्यों जगी? झारखंड, छत्तीसगढ़, पं बंगाल का लालगढ़ इलाका, मध्यप्रदेश के कुछ हिस्से, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश आदि में रहने वाले आदिवासियों की सुधि पहले क्यों नहीं ली गई?
अचानक, जब सरकार ने बड़ी-बड़ी कंपनियों से एमओयू किए और उन्हें आदिवासियों ने अपनी देने से इनकार कर दिया तो सरकार ने बहुत सुनियोजित तरीके से दुष्प्रचार करना शुरू किया। विकास का नारा उछाला। जंगलों से माओवादियों को खदेड़ने का अभियान शुरू किया। इस अभियान में माओवादी भले बच निकले, आदिवासियों दोहरी मार झेलने का मजबूर हो गए हैं। एक ओर माओवादी तो दूसरी ओर  आरपीएफ के जवान। अब ये पलायन न करें तो क्या करें? वैसे, सरकार के इस आपरेशन पर भी लोग सवाल उठा रहे हैं। दंतेवाड़ा की घटना ने सरकार की रणनीति और उसकी इच्छा शक्ति दोनों की पोल खोल दी है। इसने साबित कर दिया है कि उसके पास कोई ठोस योजना नहीं है। या फिर वह जवानों को शहीद करवाकर नक्सलियों की भयावहता रेखांकित करना चाहती है ताकि वह सेना को उतार सके। सेना ने चूंंकि पहले ही कह दिया है, अपनों के खिलाफ हथियार नहीं उठाएंगे। सो, कारपोरेट गृहमंत्री  चाहते हैं कि इस तरह की घटना हो। गृहमंत्री जी विकास का रट लगाए हुए हैं। सवाल उठता है कि सरकार यदि आदिवासी क्षेत्रों में विकास ही करना चाहती है तो पहले उसे उन आदिवासी क्षेत्रों में विकास करके दिखाना चाहिए जो लाल आतंक से मुक्त हैं। छत्तीसगढ़ के 18 जिलों में छह जिले ही हैं जहां नक्सलियों की धमक हैं। चार जिलों में उनकी उपस्थित शून्य है। सरकार को बाकी के जिलों में विकास करके तो दिखाना चाहिए। इसी तरह झारखंड की बात कर सकते हैं। ऐसा नहीं कि झारखंड के 24 जिले पूरी तरह लाल आंतक से ग्रस्त हैं। इनमें कुछ ही जिले हैं, जहां उनकी चलती है। लेकिन सरकार मौन साधे हैं। यहां तो वृद्धापेंशन के लिए भी सरकारी हाकीमों को घूस देना पड़ता है। इंदिरा आवास, बिरसा मुंडा आवास, मनरेगा आदि की हालत किसी गांव में जाकर देख सकते हैं। पर, सरकार अपने बेईमान अधिकारियों पर कोई अंकुश लगाना मुनासिब नहीं समझती।
राज्यसभा सांसद डा. रामदयाल मुंडा तो स्पष्ट कहते हैं कि विकास हो लेकिन जनता की शर्त पर, पूंजीपतियों की शर्त नहीं। उन्होंने कई बार दुहराया है कि सरकार जो भी विकास करना चाहती है, उसमें जनता कहीं भी नहीं है। इस विकास के माडल में उसे विस्थापित ही होना पड़ता है। वहीं, झारखंड के बौद्धिक अगुवा
डा. बीपी केशरी कहते हैं कि विकास से हमारा विरोध नहीं है, लेकिन सरकार उपनिवेशवादी विकास कर रही है। इस विकास से पूंजीपतियों का विकास तो हो रहा है लेकिन बड़ी आबादी भिखारी बनती जा रही है। वह कहते हैं कि सरकार आदिवासियों को खत्म करना चाहती है। आस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका में वहां के मूल निवासियों को खत्म कर दिया गया। पूरी दुनिया में कई जातियों विकास की भेंट चढ़ गई। उनका अस्तित्व ही खत्म हो गया। यही काम अब अपने देश की सरकार कर रही है। वह कहते हैं कि विकास का यह जहरीला तरीका है। हमें वैकल्पिक विकास की योजना बनानी चाहिए। जनता के विकास का प्रोग्राम बनना चाहिए। विकास कैसा हो, किस तरह का हो, यह गांव की जनता सोचे। लेकिन सरकार सोच नहीं पा रही है। वन अधिकार कानून को भी ठीक से लागू नहीं कर पा रही है। जो कानून आदिवासी हितों के लिए बने भी उन पर वर्चस्वशाली जातियों ने अपने हितों की ओर मोड़ दिया। आदिवासी समाज जहां 63 साल पहले खड़ा था, वहीं आज भी खड़ा है। क्या उनके जज्बात, उनके आक्रोश, उनकी जायज मांगों, उनके हकों को लेकर हम या हमारी सरकार, मुख्यधारा का मीडया कभी संजीदा हुआ है?  
नोट * दो साल पहले लिखी रचना है।