कौन हैं कलाम

संजय कृष्ण : भारत रत्न एपीजे अब्दुल कलाम गुरुवार को टोरियन वल्र्ड स्कूल के प्रांगण में गिरिडीह से चलकर आए बिरहोर जनजाति के बच्चों से मिले। गिरिडीह के सरिया बगोदर से चलकर 48 बच्चे अपने शिक्षक गेंदू प्रसाद वर्मा के साथ रांची आए थे। पिंटू बिरहोर कक्षा तीन पढ़ता है। पूछने पर वह नहीं बता पाता कि कलाम कौन हैं? बस उसे यही पता कि किसी से मिलना है। उसकी इस जानकारी पर आश्चर्य नहीं होता। वह ऐसे दूर गांव से आया है, जहां विकास की रोशनी भी नहीं पहुंच पाई है। वह भला टोरियन के फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते बच्चों के साथ अपनी तुलना कैसे कर सकते हंै? पता नहीं, गिरिडीह की डीसी ने इन बच्चों को कलाम से मिलने के लिए क्यों भेजा था? इनकी नुमाइंगी किए लिए? क्या आदिवासी प्रदर्शनी के ही काबिल हैं?
सचमुच टोरियन वल्र्ड स्कूल में एक ओर दीनहीन भारत था तो दूसरी ओर चमकदार इंडिया था। दीनहीन भारत का प्रतिनिधित्व यही बिरहोर बच्चे कर रहे थे, जिनके शरीर पर सरकार द्वारा दी गई ड्रेस थी। ये बच्चों झारखंड के उन जनजातियों के हैं, जो विलुप्ति के कगार पर खड़ी हैं। इनको बचाने के लिए न जाने कितनी योजनाएं केंद्र और राज्य सरकार की चल रही हैं। पर, सरकार की योजनाएं पहाड़ों तक नहीं पहुंच पातीं, जहां ये पत्तों का आशियाना बनाकर रहते हैं। एक दूसरे बच्चे राजेश बिरहोर से पूछता हूं तुम्हारे पिता क्या करते हैं? वह कहता है, गाड़ी चलाते हैं। स्कूल में मध्याह्न भोजन मिलता है? हां। क्या-दाल, भात और सब्जी। मीनू में और भी कुछ है, पर इन्हें दाल-भात से ही संतोष करना पड़ता है। ये बच्चे ठीक से हिंदी भी नहीं बोल पाते। कलाम से हाथ मिलाने से क्या उनकी तकदीर बदल जाएगी, जिसे पता ही न हो कि कलाम कौन है? यही है हमारे देश की शिक्षा-व्यवस्था। एक देश में कई देश।

भोजपुरी सिनेमा: आधी सदी का सफर

संजय कृष्ण : भारत की बोलियों में भोजपुरी ही एक ऐसी भाषा है, जो अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए सात समंदर पार भी जा पहुंची है। इस भाषा को ले जाने का श्रेय निश्चित रूप से उन मजदूरों को है, जिन्हें अंगरेज जबरन यहां से ले गए थे। उन मजदूरों को ही गिरमिटिया कहा गया। आज ये मजदूर काफी संपन्न हो गए हैं और अपने देश में ऊंची हैसियत और रसूख रखते हैं। ऐसे में भोजपुरी में बनने वाली फिल्में अपनी सीमाओं में कैद कैसे रह सकती हैं? अब तो भोजपुरी फिल्में देश के हिस्सों सहित दुनिया के कई देशों मच्ं अच्छा-खासा व्यवसाय कर रही हैं। बालीवुड ही नहीं, कई अन्य दूसरे भाषा-भाषी भी भोजपुरी फिल्मों की ओर खिंच रहे हैं। अपने संघर्ष से अपनी जमीन बनाने वाले भोजपुरी सिनेमा ने अपने सफर में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। सन 1962 से लेकर अब तक करीब ढ़ाई सौ भोजपुरी फिल्में बन चुकी हैं और इसका सफर अब जी जारी है। यद्यपि, बीच में ऐसे दौर भी आए जब इस भाषा में फिल्में बननी बंद हो गईं। फिर भी, इसका सिलसिला रुका नहीं। इस साल भोजपुरी सिनेमा के गौरवपूर्ण क्षणों को याद करना गैरवाजिब नहीं होगा।
देश में पहली भोजपुरी फिल्म हे गंगा मैया तोहें पियरी चढ़ैबों 1962 में आई। पहली भोजपुरी फिल्म के निर्माण में देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की प्रेरणा, मशहूर अभिनेत्री नरगिस की मां जद्दन बाई, कन्हैया लाल का सहयोग, गिरिडीह झारखंड के व्यवसायी विश्वनाथ शाहाबादी का धन और गाजीपुर, उसिया के रहने वाले नजीर हुसैन की जिद ने प्रमुख भूमिका निभाई। सभी ने मिलकर भोजपुरी फिल्म निर्माण की नींव रखी। इस तरह पहली भोजपुरी फिल्म हे गंगा मैया तोहें पियरी चढैबो बनी। बनने के बाद इसका प्रीमियर दिल्ली के गोलचा सिनेमा हाल में रखा गया। इस मौके पर भोजपुरी माटी के सपूत जगजीवन राम, लाल बहादुर शास्त्री सहित कई केंद्रीय मंत्री व नेता मौजूद थे। इस फिल्म ने बनारस में भी सफलता के रेकार्ड तोड़े। पांच लाख में बनी फिल्म ने उस समय 75 लाख का व्यवसाय किया। दिल्ली, बनारस और मद्रास (अब चेन्नई) में भी इसे खूब पसंद किया गया। इसमें बिहार के रहने वाले चित्रगुप्त ने संगीत दिया था। रफी साहब की आवाज में इसके कई गीत काफी लोकप्रिय हुए थे। मसलन, सोनवा के पिंजरा...या टाइटल सांग हे गंगा मैया तोहें पियरी चढैबो, सैंया से कर द मिलनवा, हाय राम।
इस फिल्म को लेकर बनारस में तो एक कथा ही चल पड़ी। वहां, लहुराबीर के पास प्रकाश टाकीज (अब बंद हो चुका है) में यह फिल्म लगी थी। इस सिनेमा को देखने लो सत्तू-सीधा बांधकर बैलगाड़ी या टमटम पर सवार होकर बनारस आने लगे। तब उस समय एक मुहावरा ही चल पड़ा कि गंगा नहा, विश्वनाथ जी क दर्शन कर, गंगा मदया देख, तब घरे जा।
 इस सफलता को देख लोगों का भोजपुरी फिल्मों की ओर झुकाव बढ़ा। फिल्म इतिहासकार फिरोज रंगूनवाला अपनी किताब ए पॉलीटिकल हिस्ट्री आफ इंडियन सिनेमा में लिखा है, 'एक समय भोजपुरी सिनेमा का क्रेज बढ़ गया था। 1962 में शुरू हुआ भोजपुरी सिनेमा का सिनेमाई सफर 1966 तक आते-आते इस भाषा में 18 फिल्में रिलीज हो चुकी थीं। जबकि एक अवधि(1964), दो छत्तीसगढ़ी(1965 के बाद) में और दो मागधी (1964-65) में फिल्में आई थीं।Ó
 'हे गंगा मैया तोहें पियरी चढैबोÓ के बाद लागी नाहीं छूटे राम (1963), बिदेसिया (1963), गंगा (1965), लोहा सिंह (1966) आईं। इसी दशक में नैहर छूटा जाए, बलमा बड़ा नादान, कब होइहैं गवनवा हमार, जेकरा चरनवा में लगले परनवा, नाग पंचमी, सीता मैया, सैंया से भइले मिलनवा, आइल बसंत बहार, बिधना नाच नचावे, हमार संसार, सोलहो सिंगार करे दुल्हनिया, गोस्वामी तुलसीदास आदि फिल्में बनीं।
'बिदेसियाÓ फिल्म निर्माण में गुजराती निमाच्ता बच्चू शाह ने पैसा लगाया था। इसका निर्देशन संगीतकार एसएन त्रिपाठी ने किया था। गीत के बोल राममूर्ति चतुर्वेदी के थे। 'बिदेसियाÓ भोजपुरी के शेक्सपीयर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर की रचना पर आधारित थी। इसमें उन्हें गाते हुए भी फिल्माया गया है।
इसी के अंतिम दौर में विश्वनाथ शाहाबादी की दूसरी फिल्म सोलहो सिंगार करे दुल्हनिया बाक्स आफिस पर कोई खास करामात नहीं दिखा सकी। नजीर हुसैन ने अपनी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी 'कमसार फिल्मसÓ बनाई। कमसार उनके इलाके को कहा जाता है। इस बैनर तले पहली फिल्म हमार संसार बनाई। इस फिल्म पर भी लोगों ने विशेष ध्यान नहीं दिया। जबकि इसे भोजपुरी अंचल के परिवारों का जीवंत दस्तावेज माना जाता है। इस फिल्म को विमल रॉय की दो बीघा जमीन से प्रेरित माना जाता है। इसका निर्देशन नसीम ने किया था और इसको उन्होंने भोजपुरी समाज की बड़ी समस्या पलायन पर केंद्रित किया था। फिल्म में पलायन के सामाजिक-आर्थिक पहलुओं को बड़ी बारीकी से उकेरा गया है। उस समय ही उन्होंने आधुनिक विकास के मॉडल पर प्रश्नचिह्न लगाया था। आज उसकी भयावहता चरम पर है। बिना सोचे समझे विकास का फलसफा गढऩे का हश्र क्या होता है, यही इस फिल्म में है। नसीम ने अपने निर्देशकीय कौशल और नजीर साहब की चुस्त जमीनी पटकथा और संवाद से इसे मील का पत्थर बना दिया है। भोजपुरी भाषा की ताकत का एहसास और दर्द भी बार-बार छलक उठता है। लोगों ने कहा कि इस फिल्म में प्रेमचंद की कहानियों की गंध महसूस की जा सकती है। फिल्म में गांव छोड़कर शहर की ओर जाते परिवार का टे्रन सीक्वेंस इतना मार्मिक है कि आंखें भर आती हैं। भागती हुई ट्रेन के पीछे गांव, खेत, बघार सब कुछ पीछे छूटते जा रहे हैं। खिड़की से देखते हुए किसान का बेटा बार-बार इसे दोहराता है, ए बाबू, गंउवा छूटल जाता। यह देखने में तो सामान्य वाक्य लगता है, लेकिन इस एक वाक्य से नजीर साहब असाधारण पीड़ा रचते हैं। इस छोटे से वाक्य में ही पीड़ा का अंतहीन विस्तार है।
सन 1970-79 का दशक भोजपुरी सिनेमा के लिए क्रांतिकारी साबित हुआ। इस दौर में डाकू रानी गंगा, अमर सुहागिन, बलम परदेसिया, दंगल, मितवा, माई क लाल, धरती मैया, जागल भाग हमार, आईं। यह दशक भोजपुरी सिनेमा के लिए उल्लेखनीय रहा। रति कुमार के निर्देशन में दंगल भोजपुरी की पहली रंगीन फिल्म थी। इसमें तब की मिस इंडिया प्रेमा नारायण ने काम किया था। सुजीत कुमार लीड रोल में थे। इसके संगीतकार नदीम-श्रवण थे, जिन्होंने इस फिल्म से ही अपने करियर की शुरुआत की। इसके कई गाने उस समय लोगों की जुबान पर चढ़ गए थे, आरा हिले छपरा हिले, बलिया हिले ला...जब लचके तोर कमरिया सारा जिला हिले ला...।
लाल बहादुर ओझा ने लिखा है, पहलवानी, लठैती, भेड़ा की लड़ाई जैसे गंवई मसाले थे तो डाकुओं के अड्डे, घोड़ो की चौकड़ी और गोला-बारूद वाले एक्शन सीक्वेंस जैसे तत्कालीन नुमाइशी तत्वों का इस्तेमाल किया गया। इस फिल्म के बाद भोजपुरी सिनेमा ने एक बार फिर जोर पकड़ा।
 नजीर हुसैन की 1979 में बलम परदेसिया आई। अपने कथ्य, गीत, संवाद को लेकर यह फिल्म काफी सराही गई। उसके कर्णप्रिय गीत आज भी लोगों को याद हैं। वितरक अशोक जैन ने 1983 में गंगा किनारे मोरा गांव बनाई। इसके निर्देशक थे दिलीप बोस। यह फिल्म पटना के अप्सरा थियेटर में 30 सप्ताह तक चली। 2000 में मारीशस में हुए विश्व भोजपुरी सम्मेलन में इसे खासतौर पर प्रदर्शित किया गया था। इसके बाद चनवा के ताके चकोर (1981), सैंया मगन पहलवानी में (1981), सैंया तोरे कारन (1981), हमार भौजी (1983), चुटकी भर सेंदुर (1983), गंगा किनारे मोरा गांव (1984), पिया के गांव (1985), दूल्हा गंगा पार के (1986), रूस गइले सैंया हमार (1988), पान खाए सैंया हमार, बिटिया भइल सयान, संैया से नेह लगइबे, नैहर के चुनरी, पटना के बाबू, बलमा नादान, पिया निरमोहिया, सोनवा क पिंजरा, बैरी सावन, मैया महतारी, बसुरिया बाजे गंगा तीरे, गजब भइले रामा, भैया दूज, दगाबाज बलमा, गोदना, लागल चुनरी में दाग, गंगा मैया कर द मिलनवा हमार, हमार दूल्हा और घायल पियवा प्रमुख रहीं।
मोहनजी प्रसाद की हमार भौजी, लक्ष्मण शाह की दूल्हा गंगा पार के फिल्में काफी सफल रहीं। भैया दूज भी इसी दौर में आई। इसे राजस्थानी में भी डब किया गया था। वहां भी सफल रही। नजीर हुसैन की रूस गइले सैंया हमार ने भी दर्शकों की वाहवाही बटोरी। फिल्म की अधिकांश शूटिंग नजीर साहब ने अपने गांव-गिराव जमानियां स्टेशन में किए।
इसके बाद बाबा के दुआरी, कसम गंगा जल के, गंगा से नाता बा हमार, गंगा तोरी ममता की छांव, कईसन बनउल संसार आदि फिल्में 1990-1999 के बीच आईं। इसी दौर में भोजपुरी गायक मनोज तिवारी गायकी में अपना परचम लहाराने के बाद फिल्म निर्माण की ओर रुख किया। भोजपुरी सिनेमा को ताकत मिली और इस दौर ने फिर से लोगों को आकर्षित किया। पांच-छह सालों के अंतराल के बाद 2005 में मनोज ने ससुरा बड़ा पइसा वाला बनाई। खुद भूमिका निभाई। मृतप्राय भोजपुरी सिनेमा को जीवन मिला। इसने बनारस में पचास सप्ताह और कानपुर में 25 सप्ताह तक व्यवसाय किया। मनोज का उत्साह बढ़ा। फिर, दारोगा बाबू आई लव यू बनाई। इसने चार करोड़ का व्यवसाय किया। बंधन टूटे ना ने तीन करोड़ का व्यवसाय किया। इस सफलता को देख भोजपुरी में सिनेमा बनाने की बाढ़ आ गई। धरती कहे पुकार के, धरती पुत्र, गंाग, गंगोत्री, प्रतिज्ञा, भाई होखे त भरत नियन आई। गंगा में अमिताभ बच्चन व हेमामालिनी ने काम किया था। इसे अमिताभ के मेकअप मैन दीपक सावंत ने बनाई थी। भाई होखे तक भरत नियन में भोजपुरी गायक भरत शर्मा व्यास ने इस दुनिया में पदार्पण किया। इसमें सुरेश वाडेकर ने क्लासिक अंदाज में एक भोजपुरी गीत गाया है...गोरिया चल न जवनिया संभार के।
 इस दौर में कई ऐसी फिल्में रहीं, जिनमें हिंदी सिनेमा के स्टारों ने काम किया। अजय देवगन ने धरती कहे पुकार के में काम किया। मिथुन चक्रवर्ती भी पीछे नहीं रहे। दक्षिण भारत की नगमा ने कई फिल्मों में काम किया। उनकी पहचान भी इन्हीं फिल्मों से बनीं। रवि किशन आज भोजपुरी के स्टार हैं। टीवी से इस दुनिया में प्रवेश किया। श्वेता तिवारी, उर्वशी ढोलकिया आदि कई नाम हैं, जिन्होंने भोजपुरी फिल्मों में काम किया। बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा व उदित नारायण ने भी भोजपुरी फिल्में बनाईं। आज भोजपुरी का बाजार गरम है। लेकिन इसे वह दर्जा नहीं मिल पाया, जो अन्य क्षेत्रीय सिनेमा को मिला। बांग्ला, मलयालम आदि में बनी फिल्में पुरस्कार भी जीततीं। क्या आज पैसा बनाने का साधन नहीं बन गई हैं भोजपुरी फिल्में? नजीर हुसैन, चित्रगुप्त, विश्वनाथ शाहाबादी ने अपनी परंपरा को याद करते हुए फिल्में बनाई। समाज, संस्कृति और समस्याएं मूल थीं। आज ये सारी चीजें नदारद हैं। इसकी चिंता आज के निर्माताओं और निर्देशकों को नहीं है। एक समय शैलेंद्र, महेंद्र मिसिर, अनजान, पद्मा खन्ना, सुजीत कुमार, कुंदन कुमार, असीत कुमार, असीत सेन आदि भोजपुरी के पर्याय बन गए थे। आज वह बात नहीं रही। संविधान सूची में शामिल नहीं किए जाने के बावजूद यह आगे बढ़ती रही। लेकिन आज के निर्देशकों का ध्यान इस ओर नहीं है कि  कैसे स्तरीय सिनेमा बने। कमाई में नंबर होने के बावजूद क्षेत्रीय सिनेमा में कैसे नंबर वन स्थान हासिल करे, इसकी चिंता तो सबको करनी पड़ेगी। द्विअर्थी संवादों-गीतों से न भाषा का कल्याण हो न फिल्मों का। सफलता के बजाय कुछ सार्थक सिनेमा बने तो बात बने। आधी सदी के सफर के बाद हम इस दिशा में सोच सकते हैं। यह मौका है बताने का कि भोजपुरी अश्लीलता का ही पर्याय नहीं है।

भूल गए राधाकृष्ण को

संजय कृष्ण :  राधाकृष्ण को हमारे हिंदी लेखकों ने उनकी जन्मशताब्दी पर भी याद नहीं किया। जाहिर है, वे किसी ऐसे गुट के नहीं थे, जो उन्हें याद करता। हिंदी साहित्य जगत में गुटबाजी का ऐसा आलम है कि हम उन्हें याद भी नहीं करते, न जन्म तिथि पर पुण्य तिथि पर। वे ऐसे कथाकार थे, जिन्हें प्रेमचंद पुत्र की तरह प्रेम करते थे, गुरबत के दिनों में उनका खर्च चलाते थे और जब प्रेमचंद का निधन हुआ तो राधाकृष्ण 'हंसÓ को संभालने रांची से बनारस चले गए थे। इनकी कथा-प्रतिभा को देखकर प्रेमचंद ने कहा था 'यदि हिंदी के उत्कृष्ट कथा-शिल्पियों की संख्या काट-छांटकर पांच भी कर दी जाए तो उनमें एक नाम राधाकृष्ण का होगा।Ó
  राधाकृष्ण का जन्म रांची के अपर बाजार में 18 सितंबर 1910 को हुआ था और निधन 3 फरवरी 1979 को। उनके पिता मुंशी रामजतन मुहर्रिरी करते थे। उनकी छह पुत्रियां थीं और एक पुत्र राधाकृष्ण, जो बहुत बाद में हुए। पर, राधाकृष्ण के साथ यह क्रम उलट गया यानी राधाकृष्ण को पांच पुत्र हुए व एक पुत्र। राधाकृष्ण जब चार साल की उम्र के थे तो उनके पिता का निधन हो गया। 1942 में इनकी शादी हुई। उनके निधन के सत्रह साल बाद उनकी पत्नी का देहांत भी 1996 में हुआ। 
 अपनी गुरबत की जिंदगी के बारे में उन्होंने लिखा है, 'उस समय हम लोग गरीबी के बीच से गुजर रहे थे। पिताजी मर चुके थे। घर में कर्ज और गरीबी छोड़ कुछ भी नहीं बचा था। न पहनने को कपड़ा और न खाने का अन्न।Ó अभावों में उनका बचपन बीता। चाह कर भी स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाई। किसी तरह एक पुस्तकालय से पढऩे-लिखने का क्रम बना। कुछ दिन मुहर्रिरी सीखी। वहां मन नहीं लगा तो एक बस में कंडक्टर हो गए। 1937 में यह नौकरी भी छोड़ दी। लेकिन इसी दरम्यान कहानी लेखन में सक्रिय हो गए। सबसे पहले 1929 में उनकी कहानी छपी गल्प माला में। इस पत्रिका को जयशंकर प्रसाद के मामा अंबिका प्रसाद गुप्त निकालते थे। कहानी का शीर्षक था-सिन्हा साहब। इसके बाद तो माया, भविष्य, त्यागभूमि आदि पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपने लगे। प्रेमचंद राधाकृष्ण की प्रतिभा देख पहले ही कायल हो चुके थे। इसलिए हंस में भी राधाकृष्ण छपने लगे थे। जब प्रेमचंद का निधन हुआ तो शिवरानी देवी ने हंस का काम देखने के लिए रांची से बुला लिया। यहीं रहकर श्रीपत राय के साथ मिलकर 'कहानीÓ निकाली। पत्रिका चल निकली, लेकिन वे ज्यादा दिनों तक बनारस में नहीं रह सके। इसके बाद वे बंंबई गए और वहां कथा और संवाद लिखने का काम करने लगे। पर बंबई ने इनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाला और वे बीमार होकर रांची चले आए। फिर कभी उधर नहीं देखा। कुछ दिनों कलकत्ते में रहे। वहां मन नहीं लगा। इस बीच मां की मृत्यु ने इन्हें तोड़ दिया। अमृत राय ने लिखा हैै, 'मेरी पहली भेंट (राधाकृष्ण से) 1937 के किसी महीने में हुई। वो हमारे घर आए। हम लोग उन दिनों राम कटोरा बाग में रहते थे। हम दोनों ही उस समय बड़े दुखियारे थे। इधर, मेरे पिता को देहांत अक्तूबर 1936 में हुआ था और उधर लालबाबू (राधाकृष्ण को लोग इसी नाम से पुकारते थेे) की मां का देहांत उसी के दो चार महीने आगे-पीछे हुआ था। एक अर्थ में लालबाबू का दुख मेरे दुख से बढ़कर था, क्योंकि उनके पिता तो बरसों पहले उनके बचपन में ही उठ गए थे और फिर अपनी नितांत सगी एक मां बची थी, जिसके न रहने पर लालबाबू अब बिल्कुल ही अकेले हो गए थे।Ó
  राधाकृष्ण 1947 में बिहार सरकार की पत्रिका 'आदिवासीÓ के संपादक बनाए गए। इसका प्रकाशन केंद्र रांची ही था। पहले यह नागपुरी में निकली, लेकिन बाद में हिंदी में निकलने लगी। इस पत्रिका से राधाकृष्ण की एक अलग पहचान बनी। आदिवासियों को स्वर मिला। बाद में वे पटना आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यूसर हो गए। जब रांची में आकाशवाणी केंद्र की स्थापना (27 जुलाई, 1957)हुई तो वे यहीं आ गए।
 बस कंडक्टरी से आकाशवाणी तक के सफर में गरीबी और अभावों ने कभी साथ नहीं छोड़ा। उन्होंने कभी हार नहीं मानी। लेखनी लगातार सक्रिय रही। उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण आदि का क्रम चलता रहा।
राधाकृष्ण ने अपनी कहानियों की लीक खुद ही बनाई। उस दौर में, जब कहानी के कई स्कूल चल रहे थे, प्रसाद की भाव व आदर्श से युक्त, प्रेमचंद की यथार्थवाद से संपृक्त, जैनेंद्र, अज्ञेय के साथ माक्र्सवादी विचारों से प्रभावित कहानियों का चलन था। पर राधाकृष्ण ने किसी भी बड़े नामधारी रचनाकारों का अनुसरण नहीं किया। न उनकी प्रतिभा से कभी आक्रांत हुए। उन्हें अपने जिए शब्दों, अनुभवों पर दृढ़ विश्वास था। आंखन देखी ही वे कहानियां लिखा करते थे। पर, कभी सुदूर देश की समस्या पर भी ऐसी कहानी लिख मारते थे, जैसे वह आंखों देखी हो। आदिवासियों के जीवन और उनकी विडंबना, सहजता और सरलता को भी अत्यंत निकट से जाना-समझा। यह भी देखा कि इनकी ईमानदारी का दिकू (बाहरी आदमी) कैसे लाभ उठाते हैं, उन्हें कैसे ठगते हैं। इसके साथ ही यह भी देखा कि आदिवासी कैसे अपने ही बनाए टोटमों में बर्बाद हो रहे हैं। उनकी 'मूल्यÓ कहानी ऐसी ही एक प्रथा से जुड़ी है। आदिवासियों के उरांव जनजाति में प्रचलित ढुकू प्रथा को लेकर लिखी गई है।  इसी तरह उनकी कहानी 'कानूनी और गैरकानूनीÓ जमीन से जुड़ी हुई है। लेखक की जिंदगी, वसीयतनामा, परिवर्तित, रामलीला, अवलंब, एक लाख सत्तानवे हजार आठ सौ अ_ïासी, कोयले की जिंदगी, गरीबी की दवा निम्र मध्य वर्ग से सरोकार रखने वाली कहानियां हैं। इंसानियत के स्खलन, आदमी की बदनीयती, संवेदनाओं का घटते जाना आदि को बहुत बेधक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। विश्वनाथ मुखर्जी ने लिखा है, हिंदी में कुछ कहानियां आई हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। गुलेरी जी की 'उसने कहा थाÓ, प्रेमचंदजी की 'मंत्रÓ, कौशिक जी की 'ताईÓ...रांगेय राघव की 'गदलÓ आदि कहानियां भुलाई जाने वाली नहीं हैं। ठीक उसी प्रकार राधाकृष्ण की 'एक लाख चौरासी हजार सात सौ छियासीÓ भी। अमृत राय ने भी माना कि 'अवलंबÓ और 'एक लाख चौरासी हजार सात सौ छियासीÓ जैसी कहानियां हिंदी में बहुत नहीं हैं।Ó
उनकी एक और कहानी जिसकी चर्चा या ध्यान लोगों का नहीं गया, वह है 'इंसान का जन्मÓ। श्रवणकुमार गोस्वामी ने भी राधाकृष्ण पर लिखे अपने विनिबंध में इस कहानी की चर्चा नहीं की है। बंगलादेश पर पाकिस्तानी फौजों के अत्याचार और बाद में भारतीय फौजों के आगे उनके सपर्मण को केंद्र में रखकर बुनी गई है यह कहानी। यह उनके किसी संग्रह में शामिल नहीं है। जबकि रामलीला, सजला (दो खंड), गेंद और गोल संग्रह हैं। इनमें कुल मिलाकर 56 कहानियां हैं। इसके अलावा फुटपाथ, रूपांतर, सनसनाते सपने, सपने बिकाऊ हैं आदि उनके प्रकाशित उपन्यास हैं। नाटक, एकांकी, बाल साहित्य भी अकूत हैं। उनकी ढेर सारी रचनाएं अप्रकाशित भी हैं। अपने समय की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में वे प्रकाशित होते रहे, जिनमें साप्ताहिक हिंदुस्तान, आजकल, कादंबिनी, नई कहानियां, विश्वमित्र, विशाल भारत, सन्मार्ग, प्राची, ज्ञानोदय, चांद, औघड़, धर्मयुग, सारिका, नवनीत, बोरीबंदर, माया, माध्यम, संगम, परिकथा, क ख ग, माधुरी, गंगा, त्रिपथगा, प्रताप, वर्तमान प्रमुख हैं।
राधाकृष्ण घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी नाम से व्यंग्य भी लिखते थे। इनके लिखे व्यंग्य पर आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा है, 'घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी के उपनाम से कहानियां लिखकर हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में युगांतर लाने वाले व्यक्ति आप ही हैं। ...आयासहीन ढंग से लिखा गया ऐसा व्यंग्य हिंदी साहित्य में विरल है।Ó
 ऐसा विरल साहित्यकार हिंदी जगत में उपेक्षित रह गया। आखिर जिस कथाकार ने अपने समय में जयशंकर प्रसाद गुप्त, प्रेमंचद, डा. राजेंद्र प्रसाद, भगवतीचरण वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त, आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी, अमृत राय, विष्णु प्रभाकर, फादर कामिल बुल्के को अपना प्रशंसक बना लिया था, उसे हमारे आलोचकों ने क्यों उपेक्षित छोड़ दिया?द्
तीन फरवरी को राधाकृष्ण की पुण्यतिथि है। उनकी स्मृति को समर्पित है यह लेख।