गणतंत्र के गांव में भूख का नृत्य

संजय कृष्ण, रांची :  रांची से बेड़ो, सिसई, गुमला होते हुए रायडीह प्रखंड के एक गांव कुलमुंडा पहुंचते हैं तो सूरज सीधे सिर पर आ गया था। ठंड के मौसम में तीखी धूप थोड़ा राहत दे रही थी। पहाड़ उदास खड़े थे। जंगल खामोश थे। खेतों में दूब भी दुबके हुए थे। पिछले कई सालों से बारिश के दगा देने से लोगों के चेहरे पर मायूसी साफ-साफ झलक रही थी।  गुमला से इस गांव की दूरी करीब दस किमी है और रायडीह की दूरी इससे थोड़ी कम है। राजधानी रांची से करीब एक  सौ दस किमी। कुलमुंडा राजस्व गांव है और इसमें कुल 16 टोले हैं। पीबो पहाड़ी की तलहटी में बसे इस गांव के खासी टोले में पहुंचते हैं। चमचमाते हाइवे से गांव जाने के लिए कच्ची सड़क है। हम कच्ची सड़क पकड़ गांव की ओर रुख कर लेते हैं।
गांव की पगडंडियों पर अधनंगे बच्चे बेफिक्र खेल रहे हैं। न उन्हें अतीत का बोध न भविष्य की चिंता। शहरी बच्चों का बचपन तो किताबों में गुम हो गया है। पर यहां तो अभावों में भी उनके चेहरे पर संतोष और मुस्कान पसरी है। गांव पहुंचते हैं तो खुले आंगन के घर में प्रवेश करते हैं। 
लेदरू राम की उम्र पचास को छू रही है। शरीर ऐसा कि एक-एक हड्डी गिन सकते हैं। सात भाइयों में सात एकड़ जमीन। पर, पानी के अभाव में खेत भी प्यासा और शरीर भी। वह बताता है, मात्र तीन महीने की उपज होती है। नौ महीने के लिए हाड़तोड़ परिश्रम करनी पड़ती है। मांदर बनाकर पूरे साल कमाई नहीं की जा सकती। लेदरू बताता है कि लोग अपनी संस्कृति से भी दूर हट रहे हैं। सो, मांदर की बिक्री भी कम हो रही है। इसलिए, मांदर पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। सरकार की ओर से कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
इस गांव में घासी जाति के नौ घर हैं। राजपूत के दो घर। गांव में राजपूतों के घर पक्का हैं। बेशक, उनके घर को देखने से उनकी खुशिहाली झलकती है। गांव में एकमात्र घर बढ़ई का है। माडू राम लोहार। पर वह गांव में नहीं है। उसकी बूढ़ी मां घर पर है। गांव में घूम-घूमकर उसका पेट भरता है। गांव में सब उसे सेशो मां कहते हैं। मांडू को कोई रोजगार नहीं मिला, इसलिए बच्चे, पत्नि समेत बाहर कमाने चला गया।
जंगल से लकड़ी काटने पर अब मनाही है। वन विभाग की ओर से नहीं, लाल सलाम की ओर से। वन विभाग सजग होता तो राज्य के जंगल नंगे नहीं होते। जंगल पर निर्भर रहने वालों के लिए पलायन के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। गांव वाले शिकायत करते हैं, मनरेगा से काम तो मिल जाता है, पर समय से मजदूरी नहीं मिल पाती। इस क्षेत्र के विधायक हैं कमलेश उरांव। गांव वालों ने उनका दर्शन नहीं किया। फोटो में देखे हैं। समस्याएं और भी हैं...। गांव के इस गणतंत्र में क्या गण अपनी किस्मत खुद लिख सकेंगे?
यह रिपोर्ट विस्फोट डाट काम पर प्रकाशित।

मैं अल्बर्ट एक्का बोल रहा हूं...

जी हां, मैं अल्बर्ट एक्का बोल रहा हूं। सोचा, आज गणतंत्र दिवस है। कुछ अपनी कुछ जग की कहानी सुनाऊं। तो, आपने भी मेरी आदमकद मूर्ति देखी होगी। रांची का हृदय कहा जाने वाला फिरायालाल चौक पर। तब यह फिरायालाल चौक कहा जाता था। जब से मेरी आदमकद मूर्ति लगी, आधिकारिक रूप से इसका नाम मेरे नाम पर यानी अलबर्ट एक्का चौक हो गया। हालांकि बहुत से लोग उसके पुराने नाम से ही जानते हैं। मेरी यहां पर मूर्ति क्यों लगी, शायद आप जानते होंगे। फिर भी, कुछ बातें आपसे से साझा करना चाहता हूं। चूंकि गणतंत्र दिवस का जश्न पूरे देश में मनाया जा रहा है। इसलिए आज मौजू भी है।
शुरुआत अपने जन्म से कर रहा हूं। मेरा जन्म एक ईसाई आदिवासी परिवार में आज से 69 साल पहले 27 दिसंबर, 1942 को गुमला के जारी गांव में हुआ था। तब गुमला रांची में था। ब्रिटिश काल के दौरान गुमला लोहरदगा जिले के अधीन था। रांची भी लोहरदगा में ही था। 1843 में बिशुनपुर रियासत के अधीन हुआ, जो बाद में रांची कहलाया। 1899 में रांची जिला अस्तित्व में आया। इसके तीन साल बाद 1902 में गुमला रांची का सब डिविजन बना। लेकिन रांची से अलग जिला बनने में गुमला को 81 साल लग गए। 18 मई 1983 को गुमला आखिरकार जिला बन गया। कभी-कभी सोचता हूं कि मैं रांची का हूं या गुमला का। मेरा जन्म भी रांची जिले में हुआ और जब 1971 को शहीद हुआ तब भी मैं रांची जिले का ही था। यह अलग बात है कि मेरे शहीद होने के 12 साल बाद गुमला जिले का अस्तित्व आया।  
आप सोच रहे होंगे कि अपनी कथा के बजाय अपने जिले की कथा सुनाने क्यों लग गया। यह जानना भी जरूरी था। क्योंकि आज की पीढ़ी शायद इन जिलों की कहानी से अनजान हो।
जब मेरी उम्र 20 साल की थी, इंडियन आर्मी में शामिल हो गया। यह भी दिसंबर का माह था और तारीख थी वही 27 दिसंबर। सेना में भर्ती होने के बाद उत्साह के साथ दुश्मनों से लड़ता। 1971 में जब भारत और पाकिस्तान से युद्ध हुआ। दिसंबर का माह था। चौदह सुरक्षाकर्मियों का मैं लांस नायक था। त्रिपुरा और बंगलादेश की सीमा पर गंगासागर के निकट तैनाती थी। हम लोग पोजीशन लिए हुए थे। दुश्मनों की संख्या भी अच्छी खासी थी। 4 दिसंबर, 1971 को अपने सैनिकों के साथ बाएं की ओर बढ़ रहे थे। बाएं की ओर से दुश्मन सैनिकों की गोलियां आ रही थीं। हम आगे बढ़ते रहे। पाकिस्तानी बंकर से मशीन गन से फायर झोंक दिया। इसमें कई सैनिक हताहत हुए। फिर भी हम, उसी दिशा में आगे बढ़ते रहे। अंतत: उस बंकर को ध्वस्त कर दिया। इसमें खुद मैं भी घायल हो गया, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। आगे बढ़ता रहा और पाकिस्तानी सैनिकों को डेढ़ किमी पीछे धकेल दिया। हालांकि इसी बीच फिर फायरिंग हुई दूसरे बंकर से। इसमें बुरी तरह घायल हो गया। खून बहता जा रहा था। अफसोस नहीं था, क्योंकि यह खून देश के लिए बह रहा था। अंतत: मेरी आंखें धीरे-धीरे बंद होने लगीं। मुझे खुशी थी कि पाकिस्तानी कब्जे से गंगासागर अखौरा को दुश्मनों से मुक्त करा दिया था। और, इस तरह शहीदों में एक नाम और जुड़ गया। मेरे बलिदान को देखते हुए भारत की सरकार ने 50 वें गणतंत्र दिवस पर सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया। इस सम्मान और मेरे बलिदान को देखते हुए ही फिरायालाल चौक पर मेरी आदमकद मूर्ति लगी है। मेरी संगीन पश्चिम की ओर है। पश्चिम में ही, जिसे मेन रोड कहा जाता है, हालांकि इसका नाम भी गांधी मार्ग है, इस मार्ग पर मंदिर है, गिरजा है, गुरुद्वारा है और मस्जिद भी है। चारों धर्म को मानने वालों के पूजा स्थल गांधी मार्ग पर है। मेरी संगीन इस दिशा में इसलिए है कि सांप्रदायिक शक्तियों को नियंत्रित कर सकूं। बातें और भी हैं। घर-परिवार बहुत खुशहाल नहीं है। हारी-बीमारी में मेरे परिवार पर लोगों का ध्यान तभी जाता है जब मीडिया वाले सरकार को जगाते हैं। मेरी पत्नी बलमदीना को शहादत दिवस पर अपने गांव में लगने वाले मेले में बुलाया जाता है। उन्हें शाल देकर सम्मानित भी किया जाता है। फिर भूला दिया जाता है। एक बेटा है विंसेट एक्का। हमारे देश में शहीदों की यही स्थिति है।
पता नहीं, दिसंबर का माह मेरे साथ कैसे चिपक गया। जन्म में इसी माह में और शहादत भी इसी माह है। खैर, ईसाई धर्म में दिसंबर माह पवित्र होता है। सो, यह मेरे लिए गर्व का विषय है। जाते-जाते एक और बात कहते जाता हूं। मेरी आदमकद मूर्ति पर लोग अपनी-अपनी पार्टी के झंडे-बैनर लगा देते हैं। अभी मेरी साफ-सफाई हो रही है। फिर किसी को मेरी सुधि नहीं होगी।
                                                                                                                                            -संजय कृष्ण