मूक बराकर को जैसे भाषा मिल गई

सुकांत भट्टïाचार्य का पत्र

12 अनंतपुर, हिनू, रांची
अरुण। आंधी, तूफान और अविश्वास को अनदेखा करते हुए अंतत: सचमुच रांची आ गया। आने के क्रम में उल्लेखनीय कुछ नहीं देखा। सिर्फ पूर्णिमा के अस्पष्ट प्रकाश में गहरे बराकर नदी को देखा। रात गहरी थी, लग रहा था कि रात्रि जा रही है। उसी अंधेरी रात में मूक बराकर नदी में गंभीरता प्रतिबिंबित हो रही थी। लग रहा था कि सबको भाषा मिल गई है। बराकर का पानी और दूर के पहाड़ मेरे सामने एक सपना रच रहे थे। बराकर नदी के एक ओर बंगाल है और दूसरी ओर बिहार। इसी के बीच में झरझर बहती बराकर नदी। क्या अद्भुत एवं गंभीर दृश्य। दूसरी कोई नदी, शायद गंगा भी मेरी नजरों में इतनी मोहनी नहीं है।
और अच्छा लगा रहा था गोमो स्टेशन। वहां ट्रेन बदलने के लिए आखिरी रात इंतजार करना पड़ा। पूर्णिमा की पूर्णिता को उपलब्ध किया। उस स्टेशन की शांति मेरे जीवन में हमेशा चिरस्थायी रहेगी। इसके बाद अपरिचित सुबह हुई। अब छोटे-छोटे पहाड़, छोटी-छोटी सूखी नदियां, लाल पंगडंडी अगल-बगल में अनजान भागते पेड़, देखते- देखते ट्रेन का रास्ता खत्म हो गया।
रांची रोड से बस से आगे बढऩा शुरू किया। बस की क्या भयंकर आवाज थी। बहुत तेजी से पहाड़ी सड़क से गुजर रहा था। हजारों फीट की ऊंचाई में बस चल रही थी। यह देखकर हम बहुत आवेश में आ गए। जिंदगी में बहुत से प्राकृतिक दृश्य देखें लेकिन ऐसा अभिभूत करने वाला नहीं। रांची आ गया। हमलोग जहां रहते हैं, वह रांची नहीं है। वह रांची से दूर, डोरंडा में रहते हैं। हम लोगों के घर के सामने से स्वर्णरेखा नदी बहती है। उसी के बगल के एक क्रबिस्तान है। इसको देख कर हम खो जाते हैं। उस क्रबिस्तान में बहुत बड़ा वटवृक्ष है जो सिर्फ मेरा ही नहीं, सबका प्रिय है। उस वटवृक्ष के ऊपर एवं नीचे मेरी कई दोपहर बीती है। पिछला शुक्रवार से सोमवार दोपहर तक प्रति पल मेरा बहुत आनंद में बीता। रविवार को 18 मील दूर जोन्हा जल प्रपात देखने गए। ट्रेन चलने के साथ ही भयंकर बारिश शुरू हो गई। इस तरह की बारिश का आनंद पहली बार लिया। दोनों पहाड़ और वन धुंधला नजर आने लगे। यह रोमांच पैदा कर रहा था। लेकिन आनंद अभी बाकी था, जो जोन्हा पहाड़ के अंदर इंतजार कर रहा था। पानी में भींगते हुए काफी दूर पैदल चलने के बाद पहाड़ के नीचे एक बौद्ध मंदिर के सामने खड़े हुए। मंदिर के रक्षक ने आकर दरवाजा खोल दिया। शांत मंदिर में प्रवेश किए। मंदिर में लोहे के दरवाजा एवं खिड़कियां थीं, उसको हमलोंगों ने घूमघूम देखा। मंदिर का घंटा बजाया। यह ध्वनि पहाड़ तक ही सीमित रही। बाहरी दुनिया में नहीं पहुंची। संध्या हो रही थी। इस भयंकर जंगल में बाघ का डर भय पैदा कर रहा था। इसलिए हमलोग मंदिर में ही आश्रय लिए। इसके बाद हमलोग निकटवर्ती जलप्रपात देखने गए। हम लोगों ने जो देखा, उसने स्नायु तंत्र को अभिभूत किया। अब तक का अभ्यस्त परंपरागत वृष्टि का प्रलय था। यह सब देख कविता लिखे बगैर नहीं रह सका। यह कविता मेरे पास है। लौटकर दिखाएंगे। जोन्हा में आकर हम जो कुछ देखे वह छोटानागरपुर आकर सार्थक हो गया। यद्यपि हुंडरू बहुत ही विख्यात जलप्रपात है, लेकिन उसके उपभोग का सौभाग्य नहीं मिल सका। यह हम जोर से बोल सकते हैं। जो आदमी जोन्हा देखा है, वह मेरी बात का विश्वास नहीं करेगा। जोन्हा जितना सुंदर उपभोग्य नहीं है। ऐसी बात नहीं है। अगर एक दिन पहले भी पहुंचते तो भी इस तरह के रोमांचित दृश्य से वंचित रहते। प्रपात देखने के बाद संध्या हमलोगों ने बुद्ध देव की वंदना की। गपशप किया। रात्रि भोजन किया। इसके बाद स्तब्ध गहन अरण्य में पानी के धुन को सुनते-सुनते सो गए। जोन्हा पूरी रात तीव्र वेग से गहरी जलधारा पहाड़ पर पटकता रहा। अपनी सांस को सुन रहे थे।
प्रहरी जैसा जगा रहा ध्यानमग्न पहाड़। दूसरे दिन हमलोगों ने रहस्यमय जोन्हा को देखा। उसके उच्छल रूप के प्रति हमलोग गहरा प्यार जताए। उसके बाद अनिच्छा के साथ वापस लौटे। आने के समय जो वेदना हुई, वह और भी बढ़ गई जब हम लोगों ने आधे लोगों को विदाई दी।
जोन्हा से लौटते हुए मन में प्रार्थना कर रहे थे कि यह यात्रा अनंत हो, लेकिन रास्ता खत्म हुआ, हमलोग जोन्हा और आश्रयदाता बुद्ध मंदिर को छोड़कर वापस आ गए।
जिंदगी में बहुत कम चीज आती है, लेकिन लगभग सबकुछ चला जाता है। जोन्हा ही इसका बड़ा प्रमाण है।
रांची आने बाद आधा लोग विदा हुए तो आनंद जाता रहा। लेकिन इसी के बीच दो दिन रांची पहाड़ी गए और उल्लसित हुए। इस पहाड़ी के ऊपर से रांची शहर बहुत सुंदर नजर आता है, लगता है कि लिलिपुट साम्राज्य का गठन कर रहा है। शहर के बीचोबीच एक लेक है, सृजन के साथ उसका दृश्य भी लगातार बदलते रहता है। यही लेकर शहर के सौंदर्य को बढ़ाता है। रांची पहाड़ के ऊपर एक छोटा सा शिव मंदिर है। उस मंदिर में खड़ा होकर लगता है कि रांची चारों ओर पहाड़ से घिरा है। पहाड़ पर एक गुफा है, जिसका आनंद लिया जा सकता है। रांची की अखंड सत्ता सिर्फ रांची पहाड़ से ही नजर आती है।
डोरंडा में डोरंडा बांध एक चीज है, जिसमें एक दिन हम नहाएं। एक शाम उसका हृदय से अनुभव किया। इसको एक तालाब कह सकते हैं। इसको सब लेक बोलता है फिर भी जलाशय के रूप में मुझे बहुत अच्छा लगा। इसके सिवा डोरंडा का रास्ता, मैदान और जंगल बहुत अच्छे लगे। एक तरह से यहां का सबकुछ अच्छा है। सिर्फ एक चीज खराब है। यहां का पड़ोसी, बाजार की दूरी और सैनिकों का आधिपत्य। अभी भी बारिश हो रही है। लेकिन यही हल्का पानी असाध्य को साधा है। दुबली पतली स्वर्ण रेखा नदी को युवती बना दिया। इसके जलस्रोत और लहर से रोमांचित हो रहे थे। क्योंकि कल तक स्वर्णरेखा के बीचोबीच खड़ा होने से भी पैर नहीं भींगता थे।
फिर भी रांची का बहुत कुछ नहीं देखे हैं। पर जो कुछ देखा है, उससे परितृप्त हो गए-यानी कि रांची मुझे अच्छा लगा। फिर भी रांची का वैचित्र्य कम होता जा रहा है। आजकल सभी का चेहरा एक ही नजर आ रहा है। अत: विदाय
सुकांत भट्टाचार्य
पुनश्च
मुझे लौटने में देर होगी। उतने दिन कृपा करके भाई की देखभाल करना। क्योंकि यहां का प्राकृतिक आकर्षण से अधिक पारिवारिक आकर्षण है। कब लौटेंगे, यह निश्चय नहीं है। बन्ना का काम कितना दूर। पत्र का उत्तर देना। 
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आए थे इलाज कराने, मोहित हो गए रांची पर

21 साल की उम्र दुनिया से विदा लेने की नहीं, दुनिया को देखने-समझने की होती है। पर, सुकांत इतने खुशनसीब नहीं थे। सुकांत यानी सुकांत भट्टाचार्य। सरदार भगत सिंह भी मात्र 23 साल ही जिए, लेकिन दुनिया को एक संदेश दे गए। उ
उस समय डोरंडा अलग था। ओवरब्रिज नहीं बना था। सो, डोरंडा रांची से अलग-थलग था। घने जंगल हुआ करते थे। पुराने लोग आज भी कहते हैं, रांची जाना है।
सुकांत रांची ही नहीं, जोन्हा फाल भी जाते हैं ट्रेन से...18 मील दूर जोन्हा जल प्रपात देखने गए। ट्रेन चलने के साथ ही भयंकर बारिश शुरू हो गई। इस तरह की बारिश का आनंद पहली बार लिया। दोनों ओर पहाड़ और वन धुंधले नजर आने लगे। यह रोमांच पैदा कर रहा था। लेकिन आनंद अभी बाकी था, जो जोन्हा पहाड़ के अंदर इंतजार कर रहा था। ..इस भयंकर जंगल में बाघ का डर भी था। इसलिए हमलोग बौद्ध मंदिर में ही आश्रय लिए। इसके बाद हमलोग निकटवर्ती जलप्रपात देखने गए। यह सब देख  कविता लिखे बगैर नहीं रह सका। ...जिंदगी में बहुत कम चीज आती है, लेकिन लगभग सबकुछ चला जाता है। जोन्हा इसका बड़ा प्रमाण है।Ó
सुकांत रांची पहाड़ी और बड़ा तालाब का जिक्र करते हैं। कहते हैं कि इस पहाड़ के ऊपर से रांची शहर बहुत सुंदर नजर आता है, लगता है कि लिलिपुट साम्राज्य का गठन कर रहा है। शहर के बीचोबीच एक लेक है, सृजन के साथ उसका दृश्य भी लगातार बदलते रहता है। रांची पहाड़ के ऊपर एक छोटा सा शिव मंदिर है। उस मंदिर में खड़ा होकर लगता है कि रांची चारों ओर पहाड़ से घिरी है। रांची की अखंड सत्ता सिर्फ रांची पहाड़ से ही नजर आती है।Ó
सुकांत डोरंडा में एक तालाब का जिक्र करते हैं...डोरंडा में डोरंडा बांध है, जिसमें एक दिन हम नहाएं। एक शाम उसका हृदय से अनुभव किया। इसको एक तालाब कह सकते हैं। इसके सिवा डोरंडा का रास्ता, मैदान और जंगल बहुत अच्छा लगा। एक तरह से यहां का सबकुछ अच्छा है।Ó पर सुकांत एक खराब चीज का भी वर्णन करते हैं, सिर्फ एक चीज खराब है। यहां के पड़ोसी, बाजार की दूरी और मिलिट्री का आधिपत्य। फिर भी रांची का बहुत कुछ नहीं देखे हैं। पर जो कुछ देखा है, उससे परितृप्त हो गए-यानी कि रांची मुझे अच्छा लगा।Ó
पत्र बहुत लंबा है। अपने इस पत्र में सुकांत बहुत कुछ कहते हैं। रांची की एक झलक उनके पत्रों में मिलती है। यह पत्र, किसी दुर्लभ दस्तावेज से कम नहीं। 
नकी लेखनी में जिस तरह विचारों की प्रौढ़ता झलकती है, वैसा ही सुकंात की कविताओं या लेखों-पत्रों में दिखाई पड़ती है। सुकांत असमय काल कवलित हो गए। उन्हें तब राजरोग था यानी टीबी। उस दौर में यह लाइलाज बीमारी थी। कैंसर की तरह। इलाज के क्रम में ही सुकांत रांची आए थे और निवारणपुर के अनंतपुर में वे रहते थे। गुलामी के दौर में 15 अगस्त, 1926 को वे पैदा हुए, लेकिन आजादी से ठीक पहले 13 मई, 1947 को वे चल बसे। सुकांत ने अपनी छोटी से उम्र में खूब लिखा। वे काजी और गुरुदेव से खासे प्रभावित रहे, लेकिन उनकी कविता का स्वर काजी के साथ संगत करता है। विद्रोह की लालिमा उनकी कविताओं में मिलती है। इसलिए इस युवा कवि को 'युवा नजरूलÓ भी कहा गया। निधन से तीन साल पहले कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया से जुड़ गए थे। पं बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य सुकांत के भतीजे थे।    खैर, उनके साहित्य-रचना की चर्चा फिर कभी करेंगे। आज उनके पत्र में समाए रांची या कहें, छोटानागपुर के सौंदर्य को देखते हैं। उन्होंने रांची के अपने ठिकाने,  2 अनंतपुर, हिनू, रांची से एक पत्र अरुण को लिखा था। पं बंगाल से आने का हवाला दिया है और बराकर नदी के अप्रतिम सौंदर्य का। गोमो में ट्रेन बदलने का इंतजार और उस पूर्णिमा की स्तब्ध रात का सौंदर्य उनकों आंखों में उतर गया। वहां दूसरी टे्रन पकड़ रांची रोड उतरे और बस पकड़ रांची आए। पहले रांची आने का यही मार्ग था। सीधे ट्रेन नहीं थी। सो, उन्होंने वैसा ही किया और बस से रांची आए। रांची रोड से रांची के बीच में पहाड़ों की बेपनाह मुहब्बत उन्हें आकर्षित कर रही थी। उनके शब्दों में ही देखें 'रांची रोड से बस से आगे बढऩे लगी। बस की क्या भयंकर आवाज थी। बहुत तेजी से पहाड़ी सड़क से गुजर रही थी। हजारों फीट की ऊंचाई पर बस चल रही थी। जिंदगी में बहुत से प्राकृतिक दृश्य देखे, लेकिन ऐसा अभिभूत करने वाला नहीं। तब तक रांची आ गया। हमलोग जहां रहते हैं, वह रांची नहीं है। रांची से दूर, डोरंडा में रहते हैं। हम लोगों के घर के सामने से स्वर्णरेखा नदी बहती है। उसी के बगल में एक क्रबिस्तान है। इसको देख कर हम खो जाते हैं। उस क्रबिस्तान में बहुत बड़ा वटवृक्ष है जो सिर्फ मेरा ही नहीं, सबका प्रिय है। उस वटवृक्ष के ऊपर एवं नीचे मेरी कई दोपहर बीती है।Ó 

हम तो कवि हैं, इतिहास बदलने वाले हैं

हिंदी में गोपाल सिंह नेपाली अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्हें कई विशेषणों से नवाजा गया है। प्रकृति से लेकर राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने वाली उनकी कविताओं का रेंज इतना व्यापक है कि उन्हें किसी एक खांचे में डालना थोड़ा मुश्किल लगता है। लोगों ने अपने-अपने सौंदर्यबोध, राष्ट्रबोध, प्रकृति प्रेम के कारण कई संबोधनों से संबोधित किया। उन्हें 'प्रकृति का कविÓ कहा गया, 'राग और आग का कविÓ कहा गया, 'गीतों का राजकुमारÓ कहा गया तो 'राष्ट्रवादी कविÓ से भी संबोधित किया गया। पर, उनकी कविताओं की विविधवर्णी छवियों को देखकर ये सारे संबोधन, उपाधियां, विशेषण उनकी विद्युत प्रतिभा की चमक के आगे बौने ही सिद्ध होते हैं। बेशक, देश की सरहद के आर-पार देखने वाले नेपाली का मूल्यांकन अभी बाकी है। इसका एक कारण यह भी है किआलोचक अभी अपने कुनबे से बाहर देख पाने पर असमर्थ हैं। वे ठोंक-बजाकर अपने चहेते कवि को महान और कालजयी कवि सिद्ध करने के 'सारस्वतÓ कर्म में संलग्न हैं। फिर, नेपाली का अपना कोई कुनबा भी नहीं था। वैचारिक खूंटा भी नहीं कि आलोचक उन्हें याद करें?

पिछले पचास साल की उपेक्षा के बाद भी नेपाली यदि लोगों के जनमानस में अपनी जगह बनाए हुए हैं तो आलोचकों की बदौलत नहीं, अपनी कविता, भाव बोध और राष्ट्रीय चेतना की बदौलत। हालावाद के सर्जक हरिवंश राय बच्चन ने उनकी मृत्यु पर लिखा था, 'हिंदी कविता को जनमानस तक पहुंचाने में उनका योगदान अद्वितीय है।Ó अभी हाल में दिवंगत हुए जानकी वल्लभ शास्त्री ने लिखा है- 'मिल्टन, कीट्स और शेली जैसे त्रय कवियों की प्रतिभा नेपाली में त्रिवेणी संगम की तरह उपस्थित है।Ó प्रकृति के सुकुमार कवि पंत ने नेपाली की कविताओं का पर कहा था- 'आपकी सरस्वती, स्नेह, सहृदयता और सौंदर्य की सजीव प्रतिमा है।Ó निराला ने तो उन्हें 'काव्याकाश का दैदीप्यमानÓ सितारा ही कह डाला। ये बातें आज की लिखी हुई नहीं हैं। बहुत पहले की हैं। फिर भी हमने नेपाली को उपेक्षित छोड़ दिया।

गोपाल सिंह नेपाली का जन्म एक गोरखा परिवार में जन्माष्टमी (11 अगस्त, 1911 )के दिन हुआ था। उनका मूल नाम गोपाल बहादुर सिंह था। पिता सेना में थे। सो, कभी यहां कभी वहां। परिवार का कोई स्थायी ठिकाना नहीं बन पाया। नेपाली लिखते हैं, 'मां और कहीं, पिता जी जर्मनी की लड़ाई में, और मेरा छोटा भाई पेशावर में। छुटपन के इसी विरह ने कविता की तुकबंदी सिखाई होगी।Ó इस अस्थिरता और भागमभाग ने उनकी पढ़ाई भी बाधित की। पर, उनकी प्रतिभा बाधित नहीं हो पाई। सोलह की उम्र से ही तुकबंदी ने कविता का शक्ल लेना शुरू कर दिया और 22 की उम्र में उनका पहला संग्रह 'उमंगÓ आ गया था। संग्रह आने से पहले ही वे मंच के मजे हुए कवि सिद्ध हो चुके थे। बनारस, इलाहाबाद, कलकत्ता के तीन बड़े कवि सम्मेलनों ने न केवल उनके आत्मविश्वास को बढ़ाया, बल्कि वे देश के चुनिंदा कवियों में शुमार भी होने लगे। मंच ने ही उन्हें मायानगरी पहुंचाया। 1943-44 में बंबई में हुए महाकवि कालिदास शताब्दी समारोह से वे फिल्मी दुनिया में प्रवेश किए। उनकी पहली फिल्म थी मजदूर थी। इसके निर्माता थे एस मुखर्जी, निर्देशक थे पीएल संतोषी, कथा लेखक थे प्रेमचंद और संवाद लिखे थे उपेंद्र नाथ अश्क ने। इसके बाद तो सफर, लीला, गजरें, शिवरात्रि, शिवभक्त, तुलसीदास, नाग पंचमी, नरसी भगत आदि 40-45 फिल्मों में करीब तीन सौ गीत लिखे। उसी दौरान इन्होंने 'हिमालय फिल्म्सÓ और 'नेपाली पिक्चर्सÓ की स्थापना की। निर्माता-निर्देशक के तौर पर तीन फीचर फिल्में-नजराना, सनसनी और खुशबू भी बनाई। इतना कुछ होने के बाद भी यह दुनिया उन्हें रास नहीं आई। एक पत्र में उन्होंने लिखा है, 'यह सिनेमा वल्र्ड साहित्य, कला या दर्शन की जगह नहीं, बिजनेस का अखाड़ा है। यहां रुपया और रमणियां हैं।Ó करीब एक दशक तक सक्रिय रहने के बाद 1955-56 में फिल्मी दुनिया को अलविदा कह दिया और मंच पर एक बार फिर अपनी सत्ता कायम कर ली। इसके बाद तो उनके 'पंछीÓ 'रागिनीÓ 'पंचमीÓ 'नवीनÓ और 'हिमालय ने पुकाराÓ इनके काव्य और गीत संग्रह आए। 'पंछीÓ संग्रह पर निराला ने अपनी टिप्पणी लिखी है, 'मुझे उनके काव्य में शक्ति, प्रवाह, सौंदर्य-बोध तथा चारू चित्रण एक विशेषता लिए हुए दिख पड़े।Ó

उमंग संकलन में ही मोहन शीर्षक कविता संकलित है। यह 1931 में तब लिखी गई थी, जब गांधी दिसंबर महीने में गोलमेज सम्मेलन में भाग ले रहे थे। बीस की उम्र में नेपाली ने लिखा, पर इससे क्या होता जाता/है हम दुखियों का मोहन/ यहां हमारे घर में जारी/ वैसा ही निष्ठुर दोहन/...आओ मोहन शंख बजाओ/ पहनो केशरिया बाना।

 नेपाली का अहिंसा में कतई विश्वास नहीं था। इसलिए गांधी को भी केशरिया बाना पहनने का आह्वान किया। यह विश्वास आजादी के बाद भी खंडित नहीं हुआ। 1956 में ही शासन चलता तलवार से कविता लिखकर एक बार फिर देश की चेतना को झकझोर दिया। पाकिस्तान के दुस्साहस और नेहरू द्वारा महज कागजी कार्रवाई के बाद कवि आहत मन से लिखा,
 ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से
 चरखा चलता है हाथों से शासन चलता तलवार से।  
सन् 1962 के चीनी आक्रमण के समय उन्होने कई देशभक्तिपूर्ण गीत एवं कविताएं लिखीं जिनमें सावन, कल्पना, नीलिमा, नवीन कल्पना करो आदि बहुत प्रसिद्ध हैं। चीनी आक्रमण पर नागार्जुन ने भी कविताएं लिखीं और चीन, नेहरू और वामपंथ की खबर ली।
नेपाली का आह््वान था-
भारत के जवानो, भारत के जवानो
भारत से तुम्हें प्यार तो बंदूक उठा लो
इन चीनी लुटेरों को हिमालय से निकालो। 

......
नेपाली अपने कलम को तलवार की तरह इस्तेमाल करते थे। कविता पर गौर करें-
'बहन तू बन जा क्रांतिकराली, मैं भाई विकराल बनूं
तू बन जा हहराती गंगा, मैं झेलम बेहाल बनूं।

ये पंक्तियां अब मुहावरा बन चुकी हैं। उन्होंने अपनी कलम की सदैव रक्षा की। उनके लिए कलम की स्वाधीनता ही असली धन था। मेरा धन स्वाधीन कलम। अपनी इस विशिष्टता के कारण ही वे भीड़ों में खोए नहीं। वे सदैव नवीन कल्पना करते रहे। आम आदमी के दुख-दर्द को शब्द देते रहे-दिन गए बरस गए, यातना गई नहीं, रोटियां गरीब की, प्रार्थना बनी रहीं। जाति के झंझावतों में फंसी हिंदू समाज की चेतना को भी झकझोरा-बिछड़े परिजन मिले बढ़ाते हाथ प्रेम का मिलने को/पर, जाता सम्मान हमारा उन हरिजन को छूने में। नागार्जुन की हरिजन कविता को याद करें। तब साहित्य में दलितवाद उपस्थित नहीं हुआ था। लेकिन नेपाली और नागार्जुन हिंदू समाज की जड़ता पर प्रहार कर रहे थे।

इन विशिष्टताओं के साथ-साथ उनके प्रकृति के प्रति एक अनुराग था। शायद चंपारण और देहरादून में बीते बचपन के कारण प्रकृति से उनका एक गहरा लगाव पैदा हो गया था। यही वजह है कि उनकी रचनाओं में मौलसिरी, पंछी, हरीघास, पीपल, किरण, सरिता, बेर आदि का अत्यंत सजीव चित्रण मिलता है।
नेपाली ने पत्रकारिता भी की। निराला के साथ 'सुधाÓ मासिक पत्र में काम भी किया। इसके बाद 'रतलाम टाइम्सÓ, 'पुण्य भूमिÓ तथा 'योगीÓ के संपादकीय विभाग में काम किया। उत्तर छायावाद के महत्वपूर्ण कवियों में शुमार नेपाली ने लोकतत्वों से संस्कार लेकर हिंदी गीतों को समृद्ध किया। एक नई भाषा दी। उसका विस्तार किया। एक नई पहचान बनाई। 'हम धरती क्या आकाश बदलने वाले हैं, हम तो कवि हैं, इतिहास बदलने वाले हैं।

गंवई गंध में लिपटी मिथिलेश्वर की कहानियां

मिथिलेश्वर tजी उन कथाकारों में हैं, जिनके यहां गांव अपनी पूरी प्रामाणिकता के साथ बोलता है। गंवई मन मिजाज के होते हुए भी वे गांव को स्थितप्रज्ञ दृष्टि से देखते हैं। यह देखने की दृष्टि ही उन्हें अन्य कथाकारों से अलग और विशिष्ट बनाती है। वे कहानियां लिखते नहीं, सुनाते हैं। सत्तर के बाद वे कहानी के मंच पर उपस्थित होते हैं और अब तक बने बने हुए हैं। बार-बार वे गांव की ओर देखते हैं और हर बार वे गांव से कंकड़-पत्थर ही नहीं मोती भी चुन कर ले आते हैं।
जरा याद करें सत्तर के बाद का समय। देश एक नई आजादी की ओर झुक रहा था। पटना से संपूर्ण क्रांति की चिंगारी उठी थी और उसी के एक साल पहले मिथिलेश्वर की कहानी 'अनुभवहीनÓ सारिका के नवलेखन अंक में छपी। एक नवविवाहित बेरोजगार युवक की कथा, जिसने बिहार पब्लिक कमिशन के आवेदन शुल्क के लिए नसबंदी कराया। इस सच्ची घटना ने 'अनुभवहीनÓ को जन्म दिया। इस तरह की अनेक घटनाएं ही आखिरकार संपूर्णक्रांति की जमीन तैयार कर रही थीं। यह वह दौर था जब आम आदमी तल्ख और खुरदुरे हकीकत से रूबरू हो रहा था। शहर ही नहीं, गांव की संस्कृति और आबोहवा भी बदल रही थी। शहरों में एक नया मध्यवर्ग उभर रहा था। राजेंद्र यादव, रवींद्र कालिया, कमलेश्वर, मोहन राकेश इसे ही अपना उपजीव्य बना रहे थे। शहर कहानियों में आ रहा था, पर गांव अपेक्षाकृत उपेक्षित था, जबकि देश की 75 प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है। इनका दर्द कौन सुने?

यह भी सही है कि प्रेमचंद और रेणु का गांव हालांकि तेजी से बदल रहा था। यह बदलाव कई मोर्चे पर दिख रहा था। एक तो शहरी प्रभाव के कारण जातिगत बंधन ढीले हो रहे थे, वहीं जाति चेतना भी विकसित हो रही थी। लोगों का रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पयालन भी बढ़ रहा था। पढ़े-लिखे लोग खेती-किसानी के प्रति उदासीन हो रहे थे। गांव के प्रति जो एक अतिरिक्त आकर्षण था, धीरे-धीरे छीज रहा था। नए मूल्य बन रहे थे तो पुराने टूट रहे थे। यह टूटन-फूटन एक नई संस्कृति को जन्म दे रही थी और मिथिलेश्वर इसी संस्कृति की पहचान कर अपने कथा शिल्प को नया आयाम दे रहे थे।

 वे ऐसे दौर में आए जब संस्मरण और यात्रा वृत्तांतों की प्रधानता बढ़ गई थी। जिन कहानियों में गांव उपस्थित था, वहां संवेदना की भारी कमी थी। कुछ अपवाद जरूर थे। डा. शिवप्रसाद सिंह की कहानियों का ताना-बाना गांव से बनता है। उनकी कहानियों में गांव है। वे भी गांव से होते हुए शहर की ओर जाते हैं। फिर शहर के वर्तमान से अतीत की ओर जाते हैं। लेकिन हिंदी जगत में उनकी चर्चा गाहे-बगाहे भी नहीं होती। उस दौर के बाद ग्रामीण परिवेश को लेकर मिथिलेश्वर भी कहानियां लिख रहे थे। उनकी कहानियां बताती हैं कि वे कभी शैली के कायल नहीं रहे। उन्होंने बहुत सीधी-सादी शैली अपनाई-लोककथा की शैली। शायद, यह मां का उनपर प्रभाव था। बचपन में मां द्वारा सुनी गई कथाओं का आकर्षण भी कह सकते हैं। उस जमाने में शायद ही किसी ने इस शैली को अपनाया हो। इस शैली के कारण उनकी कहानियों में सादगी है। और यह सादगी बतौर फैशन नहीं आई है। यह सादगी उन्हीं को हासिल है, जो ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े हैं। गांवों की राजनीति से जिनका पाला पड़ा हो।

मिथिलेश्वर जी की कहानियों की एक और विशेषता है, जिधर ध्यान किसी का नहीं गया। वह है उनका स्त्री के प्रति एक समानता का दृष्टिकोण। स्त्रियों को अपनी कथा की नायिका बनाते समय वे स्त्रीवादी विमर्शों के मोह में नहीं फंसे। आज कितने लोगों की दुकान इसी पर चल रही है। पर, मिथिलेश्वर को दुकान नहीं चलानी थी। सच-सच कहें तो उनकी कहानियों में भारतीय महिलाओं की दयनीय और दुदर्शापूर्ण स्थित बेधक ढंग से उभरी हैं, बिना किसी नारे के। ग्रामीण समाज की महिलाओं के प्रति भेदभाव, अपमान-तिरस्कार, शोषण-उपेक्षा को गांगिया फुआ, जी का जंजाल, वैतरणी भौजी, नए दंपति, भोर होने से पहले आदि में पढ़ा जा सकता है। ये गढ़ी हुई नायिकाएं नहीं, गांवों की जीवंत पात्र हैं। 'माटी कहे कुम्हार सेÓ नामक उपन्यास में भी मुनीला का जो चरित्र गढ़ा है, वह बार-बार याद आती है। उनका लेखन बताता है कि अपने घर से होते हुए, आस-पड़ोस और गांव में स्त्रियों की दशा को जो देखा, वही उनकी कहानियों का आधार बनीं।

 मिथिलेश्वर जी की कथा जिस ग्रामीण परिवेश से शुरू होती है, वह भोजपुरिया गांवों के मन-माटी-महक, खेती-किसानी के जटिल संघर्ष को सामने लाता है। जातिवादी मन-मस्तिष्क के साथ-साथ अल्पसंख्यक की पीड़ा को भी बहुत बारीकी से उकेरती हुई कहानियां शहरी आपाधापी के साथ आगे बढ़ती और विस्तार पाती हैं। शहर-गांव का द्वंद्व सिर्फ उनका
बचपन से लेकर युवा होने तक गांव की जो विभिन्न छवियां दिमाग में बनी थीं, वही आगे चलकर कहानी की शक्ल लेती गईं। 'बाबूजीÓ, 'नपुंसक समझौतेÓ, 'बीच रास्ते मेंÓ, ...आदि आदि। 16 सितंबर 1973 के 'धर्मयुगÓ में 'नपुंसक समझौतेÓ कहानी के प्रकाशन पर बहैसियत संपादक धर्मवीर भारती ने जो टिप्पणी की, वह बहुत कुछ कह जाती है। भारती की टिप्पणी थी, 'क्या गांवों के विकास के लक्षण नई पीढ़ी का पढ़-लिख जाना, अच्छी नौकरियां पाना और मिट्टïी के मकानों का ईंट की बिल्डिंगों में परिवर्तित हो जाना ही है? गांव में ऐसे भी तो पात्र यदा-कदा देखने को मिल जाते हैं, जिनके फैलते दृष्टिïकोण अपने घर के खंडहर तक हो जाने की प्रक्रिया प्रभावित हैं। विकास आखिर कहां हैं और किनके लिए? ...युवा कथाकार मिथिलेश्वर की यह कहानी आज के गांव की अंदरूनी हालात का सशक्त खाका खींचती है। धर्मयुग में यह उनकी प्रथम कहानी है।Ó
इस छोटी सी टिप्पणी के बाद कुछ और कहने को नहीं रह जाता है। आज भी गांव हाशिए पर है। हमें गांव के अंदरुनी हालातों का जायजा लेना होगा तो निश्चय ही हमें मिथिलेश्वर के पास जाना होगा। उनकी कहानियों से दोस्ती करनी होगी। उनके पात्रों से बोल-बतियाना होगा।

निजी द्वंद्व नहीं, समय का द्वंद्व बनकर उभरता है। गांवों के प्रति एक अतिरिक्त भावनात्मक आकर्षण, लेकिन बदलते दौर में गांव की सीमित भूमिका के मद्देनजर रोजी-रोजगार के कारण खींचता निष्ठुर शहर भीतर चल रहे द्वंद्व को एक तार्किक जामा पहनाता है। इस तरह गांव से शुरू हुई उनकी यात्रा शहर में आकर विराम लेती है। पर, गांव उनके अंतर्मन से बेदखल नहीं होता है। उनकी कहानियां, उनके उपन्यास या उनका कथेतर गद्य इसके प्रमाण हैं। सब कुछ सादगी-सरलता में लिपटा हुआ।