राधाकृष्ण
प्रेमचंद का जो व्यक्तित्व था वह न सूरज की तरह चमकता हुआ था न चांद की तरह दमकता हुआ। वह बनारस जिले के ठेठ किसान की तरह था, जिसे आप कहीं ऊंख के खेत के भीतर से निकलते हुए देख सकते हैं, जो किसान उर्द और मटर के खेतों के बीच से कुछ सोचता हुआ जा रहा हो, जो किसान रहट के पास बैठा हुआ हो और कुछ विचार कर रहा हो। उस सीधे-साधे निष्कपट व्यक्तित्व के भीतर साहित्य की बड़ी-बड़ी बातें हैं, यह पता ही नहीं चल सकता था। लमही गांव के किसानों के लिए वह 'भैयाजीÓ था, मुंशी नवाब राय था। वह उन्हीं की तरह बातें करता था, उन्हीं की तरह रहता था। वे तो यह भी जाने थे कि अपने घर में बैठकर यह क्या लिखा करते हैं? सोचते थे कि अरे भाई मुंशी है, लिख रहा होगा कुछ। खेवट-खतियान की नकल उतार रहा होगा, जमीनों की चौहद्दी लिख रहा होगा, अर्जी तैयार कर रहा होगा। हां, बेचारे गांव के किसान क्या जानें कि इस कागज और उस ब्लाटिंग-पेपर में क्या फर्क है। यह आदमी, और साहित्य! मगर जो जानता था वह ताज्जुब करता था।
होली का हुरदंग हो रहा है? कबीरा गाए जा रहे हैं। चल जोगीड़ा-तीन ताल पर! कहिन कि अररर कबीर, कहिन कि सररर कबीर। भीड़ की बोली में अश्लीलता बरस रही है और हाव-भाव में उमंग। क्या यहां सात्विक साहित्य का अमरस्रष्टा प्रेमचंद हो सकता है? उसे इस अटपटी बानी से उबकाई आने लगेगी, जी मितला जाएगा। मगर नहीं, वह देखिए उन अलमस्तों की टोली के पीछे प्रेमचंद भी चला जा रहा है, इस तरह चला जा रहा है मानो वह उस भीड़ की एक अनिवार्य इकाई हो। वाक्य के साथ-साथ जैसे अल्प विराम चलता है, उसी प्रकार प्रेमचंद भी उस टोली के साथ चला जा रहा है। उस समय वह एक औसत बनारसी मुंशी की तरह दिखलाई देता था, जिसके शरीर पर ढीली-ढाली धोती है, साधारण खादी का कुरता है, माथे पर एक टोपी। आप कह नहीं सकते कि यह हिंदी साहित्य का उपन्यास सम्राट चला जा रहा है। बनारस की सार्वजनिक जिंदगी से वह अभिन्न नहीं। उस जन-जीवन में वह दूध और पानी की तरह इस तरह घुला-मिला हुआ है कि समझ में नहीं आता कि कहां बनारस का लोक मानस, कहां प्रेमचंद हैं और कहां साहित्य है। वह उक लेदिस की रेखा की तरह था, जिस अनाकर्षक देखा के द्वारा धरती की बड़ी-बड़ी आकर्षक समस्याएं हल की जाती हैं। कुल मिलाकर वह व्यक्तित्व बहुत खास नहीं था।
उनके पात्र आर चरित्र भी तो वैसे ही हैं बहुत खास या ऐबनार्मल नहीं। वह प्रेमशंकर और ज्ञानशंकर, कादिर मियां अपनी बूढ़ी और फटी-फटी आंखों से देख रहा है, ताहिर जिल्दसाजी के काम में लगा हुआ है और पे्रमचंद की कलम चलती जा रही है। वह कलम इस तरह चल रही है जैसे जिंदगी चलती हो, जैसे सरिता की धारा बहती हो, जैसे हरसिंगार के फूल बरसते हों। उसी कलम से वह राजकुमार विनय सूरज की तरह निकल निकला और कांच की तरह टूट गया, सोफिया लहरों की तरह उठी और दीपक की तरह बुझ गई, वह अंधा भिखभंगा सूरदास चेतना में पत्थर की लकीर बनकर रह गया। प्रेमचंद के साहित्य में चरित्र और पात्रों की विविधता का बाहुल्य है। साहित्य की उन घाटियों में घूमते हुए हम उन जिंदगियों को देखते हैं जो मोमबत्ती की तरह जल रही है और घुल रही है, आग की लपटों की तरह धधक रही है, बर्फ की तरह गल रही है, फूल की तरह खिल रही है और भूसे की तरह उड़ रही है। विविधताओं से भरे उस साहित्य का स्रष्टा अपने अंदर किसी प्रकार की विविधता नहीं रखता था।
उसमें मजदूर की आत्मा थी। वह लगन के साथ परिश्रम पर विश्वास करता था। वह 'आइडियाÓ और 'इंसपिरेशनÓ के पीछे नहीं पड़ता था, मूड आने की राह देखता हुआ बैठा नहीं रह जाता था। वह उसी तरह अपनी कलम को उठाता था, जिस तरह मजदूर अपना फावड़ा उठाता है। वह लिखना शुरू कर देते थे और जिस प्रकार नदी अपने बहाव का मार्ग बना लेती है, उसी प्रकार उनकी कलम भी अपनी राह खोज लेती थी। उनकी कलम से निकली हुई साहित्य-सरिता शब्दों और वाक्यों की लहरे लहराती हुई उस ओर से निकलती थी, जहां गांव की जिंदगी है, जहां मटमैले हरे और भूरे खेत हैं, जहां होरी धनिया से बातचीत कर रहा है, जहां सोना-रूपा दोनों बहनें खेल रही हैं, जहां दूर से प्रेमशंकर का प्रेमाश्रम दिखलाई दे रहा है। वह सरिता उन शहरों से गुजरती थी जहां बनी बनाई जिंदगी और बने-बनाए घाट हैं। और प्रेमचंद की कलम चलती चली जा रही है। प्रेमचंद स्वयं थक गए, परंतु उनकी कलम कभी नहीं। वह कलम हमेशा-हमेशा ताजी बनी रही। प्रेमचंद को देखकर कहा जा सकता था कि मजदूर ही ताजमहल का निर्माण कर सकते हैं।
शायद वह अपने को मजदूर समझते भी थे। इलाहाबाद से बच्चनजी आए हुए हैं। प्रेमचंदजी से बातें हो रही हैं। बच्चन जी कहते हैं-बाबूजी, मैं आपका एक फोटो लेना चाहता हूं।
प्रेमचंद जी उनकी ओर अजीब दृष्टि से देखते हैं।
बच्चनजी कहते हैं-बेनियाबाग में आप और प्रसाद जी टहलते रहें, उस समय मैं आपका फोटो लेना चाहता हूं।
प्रेमचंद जी हंसते हैं और कहते हैं-अरे भाई, तुमने कहीं मजदूरों को भी हवाखोरी के लिए निकलते देखा है? हम तो मजदूर हैं टहलने-घूमने की कहां फुर्सत।
परंतु बच्चनजी की अदम्य आकांक्षा। प्रसादजी को आना पड़ा, प्रेमचंद जी को आना पड़ा। बच्चनजी ने फोटो ली, परंतु याद नही कि उस फोटो को मैंने कहीं छपा देखा हो।
प्रेमचंद जी की सरलता ही उनकी महानता थी। उनकी सादगी में ही उनका विराट रूप छिपा हुआ था। अपने को उन्होंने कभी भूल से भी जनसाधारण से न बड़ा लगाया न बड़ा समझा। बड़े आदमियों से मिलते हुए उन्हें स्वाभाविक रूप से संकोच होता था। साधारण आदमियों से वह उसी प्रकार मिलते-बोलते, मानों वे उन्हीं में से एक हैं। प्रेमचंद जी उर्दू और हिंदी तो लिखते ही थे, अंग्रेजी भी बड़ी अच्छी लिखते थे। मैंने उनके लिखे हुए अंग्रेजी के पत्र देखे हैं, जो उन्होंने अपने बड़े लड़के श्रीपतराय को लिखे थे, जब कि वह इलाहाबाद में पढ़ा करते थे। उनके पत्रों में सादा जीवन और उच्च विचार का पूरा जोर रहता था। प्रेमचंद आदर्श के बड़े हिमायती थे। एक बार उन्होंने कहा था-उपन्यासों की अपेक्षा महापुरुषों की जीवनियां पढऩे में मेरा बड़ा मन लगता है।
वह 'हंसÓ निकालते थे। बोले, हंस में मैं प्रतिमास किसी आदर्श पुरुष की संक्षिप्त जीवनी छापना चाहता हूं, मगर मिलती नहीं।
प्रेमंचद की जिंदगी और साहित्य में व्यापक रूप से फैले हुए आदर्शवाद को देखकर लगता है कि जैसे वह बड़े ईश्वरभक्त होंगे, पूजा-पाठ में उनकी आस्था होगी। परंतु यह जानकार आश्चर्य होता है कि प्रेमचंद आसमान पर रहने वाले किसी ईश्वर पर विश्वास नहीं करते थे। वह मानव के उस देवत्व पर विश्वास करते थे, जो उसके अंत:करण में रहता है। मनुष्य के अंत:करण में बसने वाली मानवता की चेतना के अतिरिक्त वह किसी भगवान पर विश्वास नहीं करते थे। परंतु क्या ऐसा है भी? नर को नराधम होते हुए देखा, मगर नराधम के भीतर से देवत्व का प्रकाश फूटते हुए नहीं देखा। यहां तक कि प्रेमचंद भी उल्का की तरह टूट कर विलीन हो गए, मगर मानव के अंतर में बैठा देवत्व कहां जागा? जीवित देवता की पूजा यहां कहां? कोई मर जाए तो मरने वाले का बड़ी श्रद्धाभक्ति से श्राद्ध होता है, कोई मर जाए तो उसकी कब्र पर चादर चढ़ाई जाती है, उर्स लगाए जाते हैं, मेला जुड़ता है, कव्वालियां होती हैं।
प्रेमचंद की एक चि_ी की याद आती है, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मैं जवानी के दिनों में रेलवे-गार्ड होना चाहता था, इससे जगह-जगह घूमने का मौका मिलता, तरह-तरह के पात्रों से भेंट होती, न जाने कितनी कहानियों के प्लाट मिलते।
वह गोरे-चिट्टे प्रेमचंद, मानो नर्मदा के किनारे के श्वेत संग-मरमर को तराश कर उस सीधे-सादे व्यक्ति की सीधी-सादी मूर्ति बनाई गई हो। हंसने के समय वह मुस्कराता नहीं, ठहाका लगता था, इतने जोर का ठहाका, जैसे दीवार में दरारें पड़ जाएंगी। वह निर्लिप्त उन्मुक्त ठहाका अब कहां? जिस सीधे-सादे ढंग से वह आया था, उसी सीधे-सादे ढंग से स्वर्ग का दरवाजा खेलकर संसार की आंखों से आगे चला गया। वह मर गया, मगर हिंदी साहित्य को जिला गया। अछूत और उपेक्षित हिंदी साहित्य को उसने इतना
ऊंचा उठाया कि देखने वालों ने स्वीकार किया कि हां, हिंदी में भी कुछ है। पुस्तकों के रूप में उनके सपने बराबर बने हुए हैं और हीरे और मोती की तरह चमकते हुए और मजबूत सपने। वे बने हुए हैं और बने रहेंगे। अपने सपनों में प्रेमचंद अमर हैैं और अमर रहेंगे।
प्रेमचंद का जो व्यक्तित्व था वह न सूरज की तरह चमकता हुआ था न चांद की तरह दमकता हुआ। वह बनारस जिले के ठेठ किसान की तरह था, जिसे आप कहीं ऊंख के खेत के भीतर से निकलते हुए देख सकते हैं, जो किसान उर्द और मटर के खेतों के बीच से कुछ सोचता हुआ जा रहा हो, जो किसान रहट के पास बैठा हुआ हो और कुछ विचार कर रहा हो। उस सीधे-साधे निष्कपट व्यक्तित्व के भीतर साहित्य की बड़ी-बड़ी बातें हैं, यह पता ही नहीं चल सकता था। लमही गांव के किसानों के लिए वह 'भैयाजीÓ था, मुंशी नवाब राय था। वह उन्हीं की तरह बातें करता था, उन्हीं की तरह रहता था। वे तो यह भी जाने थे कि अपने घर में बैठकर यह क्या लिखा करते हैं? सोचते थे कि अरे भाई मुंशी है, लिख रहा होगा कुछ। खेवट-खतियान की नकल उतार रहा होगा, जमीनों की चौहद्दी लिख रहा होगा, अर्जी तैयार कर रहा होगा। हां, बेचारे गांव के किसान क्या जानें कि इस कागज और उस ब्लाटिंग-पेपर में क्या फर्क है। यह आदमी, और साहित्य! मगर जो जानता था वह ताज्जुब करता था।
होली का हुरदंग हो रहा है? कबीरा गाए जा रहे हैं। चल जोगीड़ा-तीन ताल पर! कहिन कि अररर कबीर, कहिन कि सररर कबीर। भीड़ की बोली में अश्लीलता बरस रही है और हाव-भाव में उमंग। क्या यहां सात्विक साहित्य का अमरस्रष्टा प्रेमचंद हो सकता है? उसे इस अटपटी बानी से उबकाई आने लगेगी, जी मितला जाएगा। मगर नहीं, वह देखिए उन अलमस्तों की टोली के पीछे प्रेमचंद भी चला जा रहा है, इस तरह चला जा रहा है मानो वह उस भीड़ की एक अनिवार्य इकाई हो। वाक्य के साथ-साथ जैसे अल्प विराम चलता है, उसी प्रकार प्रेमचंद भी उस टोली के साथ चला जा रहा है। उस समय वह एक औसत बनारसी मुंशी की तरह दिखलाई देता था, जिसके शरीर पर ढीली-ढाली धोती है, साधारण खादी का कुरता है, माथे पर एक टोपी। आप कह नहीं सकते कि यह हिंदी साहित्य का उपन्यास सम्राट चला जा रहा है। बनारस की सार्वजनिक जिंदगी से वह अभिन्न नहीं। उस जन-जीवन में वह दूध और पानी की तरह इस तरह घुला-मिला हुआ है कि समझ में नहीं आता कि कहां बनारस का लोक मानस, कहां प्रेमचंद हैं और कहां साहित्य है। वह उक लेदिस की रेखा की तरह था, जिस अनाकर्षक देखा के द्वारा धरती की बड़ी-बड़ी आकर्षक समस्याएं हल की जाती हैं। कुल मिलाकर वह व्यक्तित्व बहुत खास नहीं था।
उनके पात्र आर चरित्र भी तो वैसे ही हैं बहुत खास या ऐबनार्मल नहीं। वह प्रेमशंकर और ज्ञानशंकर, कादिर मियां अपनी बूढ़ी और फटी-फटी आंखों से देख रहा है, ताहिर जिल्दसाजी के काम में लगा हुआ है और पे्रमचंद की कलम चलती जा रही है। वह कलम इस तरह चल रही है जैसे जिंदगी चलती हो, जैसे सरिता की धारा बहती हो, जैसे हरसिंगार के फूल बरसते हों। उसी कलम से वह राजकुमार विनय सूरज की तरह निकल निकला और कांच की तरह टूट गया, सोफिया लहरों की तरह उठी और दीपक की तरह बुझ गई, वह अंधा भिखभंगा सूरदास चेतना में पत्थर की लकीर बनकर रह गया। प्रेमचंद के साहित्य में चरित्र और पात्रों की विविधता का बाहुल्य है। साहित्य की उन घाटियों में घूमते हुए हम उन जिंदगियों को देखते हैं जो मोमबत्ती की तरह जल रही है और घुल रही है, आग की लपटों की तरह धधक रही है, बर्फ की तरह गल रही है, फूल की तरह खिल रही है और भूसे की तरह उड़ रही है। विविधताओं से भरे उस साहित्य का स्रष्टा अपने अंदर किसी प्रकार की विविधता नहीं रखता था।
उसमें मजदूर की आत्मा थी। वह लगन के साथ परिश्रम पर विश्वास करता था। वह 'आइडियाÓ और 'इंसपिरेशनÓ के पीछे नहीं पड़ता था, मूड आने की राह देखता हुआ बैठा नहीं रह जाता था। वह उसी तरह अपनी कलम को उठाता था, जिस तरह मजदूर अपना फावड़ा उठाता है। वह लिखना शुरू कर देते थे और जिस प्रकार नदी अपने बहाव का मार्ग बना लेती है, उसी प्रकार उनकी कलम भी अपनी राह खोज लेती थी। उनकी कलम से निकली हुई साहित्य-सरिता शब्दों और वाक्यों की लहरे लहराती हुई उस ओर से निकलती थी, जहां गांव की जिंदगी है, जहां मटमैले हरे और भूरे खेत हैं, जहां होरी धनिया से बातचीत कर रहा है, जहां सोना-रूपा दोनों बहनें खेल रही हैं, जहां दूर से प्रेमशंकर का प्रेमाश्रम दिखलाई दे रहा है। वह सरिता उन शहरों से गुजरती थी जहां बनी बनाई जिंदगी और बने-बनाए घाट हैं। और प्रेमचंद की कलम चलती चली जा रही है। प्रेमचंद स्वयं थक गए, परंतु उनकी कलम कभी नहीं। वह कलम हमेशा-हमेशा ताजी बनी रही। प्रेमचंद को देखकर कहा जा सकता था कि मजदूर ही ताजमहल का निर्माण कर सकते हैं।
शायद वह अपने को मजदूर समझते भी थे। इलाहाबाद से बच्चनजी आए हुए हैं। प्रेमचंदजी से बातें हो रही हैं। बच्चन जी कहते हैं-बाबूजी, मैं आपका एक फोटो लेना चाहता हूं।
प्रेमचंद जी उनकी ओर अजीब दृष्टि से देखते हैं।
बच्चनजी कहते हैं-बेनियाबाग में आप और प्रसाद जी टहलते रहें, उस समय मैं आपका फोटो लेना चाहता हूं।
प्रेमचंद जी हंसते हैं और कहते हैं-अरे भाई, तुमने कहीं मजदूरों को भी हवाखोरी के लिए निकलते देखा है? हम तो मजदूर हैं टहलने-घूमने की कहां फुर्सत।
परंतु बच्चनजी की अदम्य आकांक्षा। प्रसादजी को आना पड़ा, प्रेमचंद जी को आना पड़ा। बच्चनजी ने फोटो ली, परंतु याद नही कि उस फोटो को मैंने कहीं छपा देखा हो।
प्रेमचंद जी की सरलता ही उनकी महानता थी। उनकी सादगी में ही उनका विराट रूप छिपा हुआ था। अपने को उन्होंने कभी भूल से भी जनसाधारण से न बड़ा लगाया न बड़ा समझा। बड़े आदमियों से मिलते हुए उन्हें स्वाभाविक रूप से संकोच होता था। साधारण आदमियों से वह उसी प्रकार मिलते-बोलते, मानों वे उन्हीं में से एक हैं। प्रेमचंद जी उर्दू और हिंदी तो लिखते ही थे, अंग्रेजी भी बड़ी अच्छी लिखते थे। मैंने उनके लिखे हुए अंग्रेजी के पत्र देखे हैं, जो उन्होंने अपने बड़े लड़के श्रीपतराय को लिखे थे, जब कि वह इलाहाबाद में पढ़ा करते थे। उनके पत्रों में सादा जीवन और उच्च विचार का पूरा जोर रहता था। प्रेमचंद आदर्श के बड़े हिमायती थे। एक बार उन्होंने कहा था-उपन्यासों की अपेक्षा महापुरुषों की जीवनियां पढऩे में मेरा बड़ा मन लगता है।
वह 'हंसÓ निकालते थे। बोले, हंस में मैं प्रतिमास किसी आदर्श पुरुष की संक्षिप्त जीवनी छापना चाहता हूं, मगर मिलती नहीं।
प्रेमंचद की जिंदगी और साहित्य में व्यापक रूप से फैले हुए आदर्शवाद को देखकर लगता है कि जैसे वह बड़े ईश्वरभक्त होंगे, पूजा-पाठ में उनकी आस्था होगी। परंतु यह जानकार आश्चर्य होता है कि प्रेमचंद आसमान पर रहने वाले किसी ईश्वर पर विश्वास नहीं करते थे। वह मानव के उस देवत्व पर विश्वास करते थे, जो उसके अंत:करण में रहता है। मनुष्य के अंत:करण में बसने वाली मानवता की चेतना के अतिरिक्त वह किसी भगवान पर विश्वास नहीं करते थे। परंतु क्या ऐसा है भी? नर को नराधम होते हुए देखा, मगर नराधम के भीतर से देवत्व का प्रकाश फूटते हुए नहीं देखा। यहां तक कि प्रेमचंद भी उल्का की तरह टूट कर विलीन हो गए, मगर मानव के अंतर में बैठा देवत्व कहां जागा? जीवित देवता की पूजा यहां कहां? कोई मर जाए तो मरने वाले का बड़ी श्रद्धाभक्ति से श्राद्ध होता है, कोई मर जाए तो उसकी कब्र पर चादर चढ़ाई जाती है, उर्स लगाए जाते हैं, मेला जुड़ता है, कव्वालियां होती हैं।
प्रेमचंद की एक चि_ी की याद आती है, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मैं जवानी के दिनों में रेलवे-गार्ड होना चाहता था, इससे जगह-जगह घूमने का मौका मिलता, तरह-तरह के पात्रों से भेंट होती, न जाने कितनी कहानियों के प्लाट मिलते।
वह गोरे-चिट्टे प्रेमचंद, मानो नर्मदा के किनारे के श्वेत संग-मरमर को तराश कर उस सीधे-सादे व्यक्ति की सीधी-सादी मूर्ति बनाई गई हो। हंसने के समय वह मुस्कराता नहीं, ठहाका लगता था, इतने जोर का ठहाका, जैसे दीवार में दरारें पड़ जाएंगी। वह निर्लिप्त उन्मुक्त ठहाका अब कहां? जिस सीधे-सादे ढंग से वह आया था, उसी सीधे-सादे ढंग से स्वर्ग का दरवाजा खेलकर संसार की आंखों से आगे चला गया। वह मर गया, मगर हिंदी साहित्य को जिला गया। अछूत और उपेक्षित हिंदी साहित्य को उसने इतना
ऊंचा उठाया कि देखने वालों ने स्वीकार किया कि हां, हिंदी में भी कुछ है। पुस्तकों के रूप में उनके सपने बराबर बने हुए हैं और हीरे और मोती की तरह चमकते हुए और मजबूत सपने। वे बने हुए हैं और बने रहेंगे। अपने सपनों में प्रेमचंद अमर हैैं और अमर रहेंगे।
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