आठ साल की उम्र में ही कविता करने लगे थे गुरु भक्त सिंह 'भक्तÓ

गुरु भक्त सिंह 'भक्तÓ का जन्म पूर्वी उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के जमानियां में सात अगस्त, 1893 में हुआ था। उनका जन्म सरकारी अस्पताल में हुआ था। वहीं पर उनके पिता डॉ. कालिका प्रसाद सिंह पर डाक्टर थे। पिता बहुत दिनों तक फौज में डाक्टर रहे थे। इसके बाद वे सिविल डाक्टर हो गए। भक्तजी के जन्म के समय वे जमानियां के सरकारी अस्पताल में इंचार्ज थे। जमानियां में भक्तजी के पांच साल ही बीते। 1893 से लेकर 1898 तक। इसके बाद बलिया चले गए और यहीं पर इनकी आरंभिक शिक्षा शुरू हुई। प्राइमरी की शिक्षा के बाद गोरखपुर में अध्ययन किया। फिर इलाहाबाद में। 1911 से 1916 तक म्योर सेंटल कालेज में अध्ययन किया। इसी बीच 1911 में 18 साल की उम्र में वनश्री देवी से विवाह हो गया। पर, चार साल बाद ही आठ दिन का शिशु छोड़कर 1915 में वनश्री परलोक गमन कर गईं। 1918 में दूसरा विवाह शशिमुखी देवी से हुआ। 1919 में एलएलबी पास करने के बाद 'प्रेमपाशÓ नाटक की रचना की। यद्यपि वे छुटपन से ही रचना करने लगे थे। आठ साल की उम्र की उनकी एक रचना मिलती है-
नजर आ रहा है मकां आलीशां
कि जिसका नहीं हाल होता बयां
करूं किस जबां से बयां इसकी शां
फलक पर भी होगा न ऐसा मकां।

भक्तजी का हिंदी के अलावा उर्दू, फारसी, अंग्रेजी पर भी जबरदस्त अधिकार था। उर्दू में कविताएं लिखीं। अंग्रेजी में भी कविताएं लिखीं। 'नूरजहांÓ का अंग्रेजी में छंदोबद्ध अनुवाद भी खुद ही किया। इन भाषाओं पर अधिकार के बावजूद हिंदी से उन्हें बेहद लगाव था और मुख्य रचनाएं हिंदी में ही लिखीं। 'भक्तÓ जी ने अपने कॅरियर की शुरुआत वकालत से की। बलिया में 1919 से 1922 तक वहां वकालत किया। इसके बाद गांधीजी के आह्वान पर छोड़ दी। बाद में 19 नवंबर, 1922 से 1925 तक बंगाल नार्थ वेस्टर्न रेलवे में टैफ्रिक इंस्पेक्टर के पद पर अपनी सेवाएं दीं। बलिया रहते उनका दूसरा नाटक 'तसनीमÓ आया। इस दौरान कविता भी लिखते रहे। 1925 में पहला काव्य संग्रह 'सरस सुमनÓ का प्रकाशन हुआ। 'भक्तÓ जी ने फिर अपनी नौकरी बदली। वे गाजीपुर में जिला बोर्ड में सेक्रेटरी हो गए। यहां भी वे दो साल यानी 1925 से 1927 तक रहे। इसके बाद इलाहाबाद के मांडा रियासत में मैनेजर हो गए। एक साल तक ही यहां रह पाए कि फिर रायबरेली के जिला बोर्ड में सेक्रेटरी हो गए। यहां से फिर 1932 में बाराबंकी के रामनगर इस्टेट में मैनेजर हो गए। इसके बाद एटा जिले के आवागढ़ रियासत में भी मैनेजर रहे। यहां उन्हें तीन सौ रुपये मासिक वेतन मिलता था। सबसे लंबी नौकरी आजमगढ़ में की और यही उनकी अंतिम नौकरी भी थी। यहां वे 1935 से लेकर 1956, अवकाश प्राप्ति तक म्यूनिसिपल बोर्ड के सेक्रेटरी रहे। यहीं पर अपना आवास बनवाया अलवल मुहल्ले में 'भक्त भवनÓ। कोट, पैंट, टाई के पर रंगदार और धारीदार राजस्थानी मुरेठा इनकी वेशभूषा थी।
अपनी कविताओं और विषय के बारे खुद भक्त ने अपनी कैफियत दी है, 'मेरी कविता का विषय रहा है मानव और मन तथा विविध परिस्थितियों में उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया। साधारण और उपेक्षित की ओर भी मेरा विशेष ध्यान गया चाहे वह जड़ हो या चेतन। विशिष्ट की ओर ही अभी तक साहित्य का स्रोत बहता था और देवी देवता, राजारानी नायक-नायिका बनकर मंच पर आते रहे थे। भारतीय जन-जीवन का शुद्ध रूप हम शत प्रतिशत ग्रामीण जनों में पाते हैं। ये बेचारे विशेषत: उपेक्षित हैं। बुद्धिजीवी नागरिक तथा पाश्चात्य कृत्रिम चमक-दमक की चकाचौंध के पुजारी पतंगे चाहे इन्हें असभ्य और प्रस्तरमूर्ति ही समझते रहे हों, परंतु वस्तुत: यही भारतीय जन जीवन के प्रतीक हैं। ये आधुनिक दयहीन दिखावटी सभ्यता के कल पुरजे नहीं हैं। वे ही तो धर्म शून्य,  हमारे सनातन धर्मा मर्यादा तथा सांस्कृतिक संस्कारों के रक्षक देवता हैं। दय मौज मारता है। इन दीनों की दुर्बल काया में एक उदार स्नेहासिक्त  मैं उनको अपनाया, उनको गले लगाया, इनकी प्रतिमाओं की, कविता द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा कर उनकी पूजा की। उन पर स्नेह के फूल चढ़ाए। ऐसे पात्रा मेरे सभी संग्रहों में आए हैं।Ó
भक्तजी का काव्य जगत में प्रवेश निराला और पंत के साथ ही होता है। किंतु उनकी प्रथम कविता पुस्तक पंत के 'पल्लवÓ के बाद प्रकाशित हुई। उनका दृष्टिकोण न आध्यात्मिक था न रहस्यवादी। वे शुद्ध मानवतादी थे। प्रकृति के पुजारी थे और जिन्हें हमारी सभ्यता ने हाशिए पर ठेल दिया था, उसके वे गायक थे। प्रचार और प्रदर्शन से दूर रहने वाले इस महाकवि का आज कोई नामलेवा भी नहीं है न कहीं चर्चा ही होती है। ऐसा क्यों है? यह तो आज के आलोचक ही बताएंगे? पर उनके योगदान को कैसे भुलाया जा सकता है। उन्होंने प्रबंध काव्य तब लिखी जब हिंदी में इसकी जरूरत महसूस की जा रही थी। इस कमी को पूरा करने के लिए वे प्रबंध काव्य लिखने की ओर प्रवृत्त हुए। इस ऐतिहासिकता को समझेंगे तभी हमें भक्तजी का अवदान समझ में आएगा। उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उन्हीें के शब्दों में पढि़ए। उद्धरण लंबा है, लेकिन वर्तमान पाठकों के लिए जरूरी है। '...प्रबंध काव्य लिखने का कोई अपना विचार नहीं था। परंतु होनी होकर रहती है। प्रयाग के छात्रा जीवन में अपने बहनोई ठाकुर भगवान सिंह रइस कटरा के निजी मकान में रहते थे, जो म्योर सेंट निकट दो सौ गज की दूरी पर है। यहीं मेरे पड़ोसी थे पं देवीदत्त शुक्ल, संपादक 'सरस्वतीÓ। उस महापुरुष पर अपार कृपा मेरे ऊपर रहती और वे स्नेहवश मेरे निवास स्थान पर अक्सर आया जाया करते थे। वे आग्रह करके मेरी अप्रकाशित कविताएं बार-बार सुनते और अनुरोध करते कि मैं कोई महाकाव्य लिखूं। वे खड़ी बोली हिंदी में अच्छे प्रबंध काव्य की कमी अनुभव करते और मुझे दर्शाते कि इस अंग की पूर्ति आप कर सकते हैं, क्योंकि आपकी कविताओं में प्रबंध का मूल तत्व बीज रूप में विद्यमान है। मैं उनका प्रस्ताव टालता रहा। यहां तक कि 1919 में एलएलबी पास कर मैं प्रयाग से विदा भी हो गया और बलिया आकर अपने पिता डॉ कालिका प्रसाद सिंह के यहां अपने पैतृक भवन में रहकर वकालत करने लगा। 1918 में प्रथम जर्मन युद्ध समाप्त होने पर भारत की सहायता और बलिदान के उपलक्ष्य में, स्वाधीनता का द्वार खोलने के बजाय, जब ब्रिटिश सरकार, काले कानूनों द्वारा गुलामी की जंजीर और कसने लगी तब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन छेड़ दिया और सरकारी शासन के संचालन तंत्र को असहयोग द्वारा ठप कर देने का संकल्प लिया। छात्रों से स्कूल और कालेज छोड़कर, वकीलों से वकालत छोड़कर तथा अन्य कर्मचारियों से कार्यवाही से अपना हाथ हटाकर, स्वतंत्रात के संग्राम में कूद पडऩे को ललकारा। अत: गांधी की आंधी में बहकर वकालत छोड़ दी। यों मुझे देश व साहित्य सेवा के लिए पूर्ण अवकाश और देवदत्त-स्वर्ण-संयोग मिला।
जवानी का आलम था। तबीयत में उमंग थी। संसार की चिंता से दूर, प्रकृति-परी की मोहमाया में चूर था, आंखों में सरूर था। अत: उस मधुर बेला में मुझे अपने हितैषी पं देवीदत्त शुक्ल की बात याद आई और तब प्रबंध रत्न निकालने के लिए, संदेह और संकल्प, मेरा हृदय सागर मंथन करने लगा। 
नित्य ही मेरी मित्र मंडली, संध्या समय भृगु क्षेत्र के सुरम्य सुरसरि तट पर वायु सेवन और विनोद हित जाती और तरंगों में हिलोरे लेते हुए पावनपुलिन के रंगमंच पर झाऊ-झुरमुट के मंडप की छाया में, विविध विषयों पर तर्क-वितर्क करती। अवसर पा एक दिन प्रबंध काव्य लिखने के अपने विचार के बारे में मित्रों से परामर्श किया। सबने जोरों से इसका अनुमोदन किया। फिर सवाल आया विषय का। अनेक विषय सुझाए गए, जिनके पक्ष-विपक्ष में काफी वाद-विवाद उठा। सब अलौकिक और आदर्श नायक पेश करते थे। मैं अपने से मानव का चरित्रा लेना चाहता था, देवता का नहीं। अंत में जब मैंने अपनी पसंद सुंदरी नूरजहां पर प्रबंध काव्य लिखने की सुनाई तक काफी हो-हल्ला मचा। पर अनंत पांडेय की मंडली के विरोध करने पर भी मेरा प्रस्ताव बहुमत से स्वीकृत हो गया। तब मैंने इस पर लिखने की ठानी। इसी बीच मेरा संपर्क पं अयोध्या सिंह हरिऔध से हो गया था। वे मौलाना शिबली नोमानी आजमगढ़ी के इस व्यंग्य से बहुत मर्माहत थे कि हिंदी की लेखन शैली में उर्दू की तरह निखार नहीं है। भाषा में लोच व प्रसाद गुण नहीं है। हृदय को छूने वाले मुहावरे नहीं है और नहीं है बोलचाल में मंजे हुए हृदय को छूने वाले प्रयोग की जादूबयानी। 'प्रियप्रवासÓ के लेखक को यह बात तीर सी लगी। बात तो ठीक थी। हम दोनों को यह कमी खटकी और फिर हमने पांडित्यपूर्ण तत्सम बोझिल भाषा को खराद पर चढ़ाकर सुडौल करने की ठानी। इस दिशा में इस कमी की पूर्ति के लिए कवि सम्राट ने चौठो चौपदे, चुभते चौपदे आदि अनेक पुस्तकें लिख डालीं, जो हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
मैंने भी इस हेतु मैल-मिश्रित खनिज शब्दावली को तपा-तपाकर शुद्ध कंचन व कुंदन बनाकर लाने का संकल्प किया। मित्रों को अपने पक्ष में निर्णय सुनने के दूसरे दिन ही रात की मादक बेला में धारा प्रवाह लिखकर एक सर्ग पूरा कर संध्या समय उसी गंगा तट पर सबको सुना दिया। सब आश्चर्यचकित रह गए। सबने रचना की भूरि-भूरि प्रशंसा की। यों प्रोत्साहित हो मैं धीरे-धीरे एक-एक सर्ग लिखने लगा। लिखने के लिए तबीयत मौजूं होने के लिए अक्सर महीनों का अंतर पड़ जाता था। कुछ अंश बलिया में लिखा, कुछ प्रयाग में, कुछ आगरा में, फतेहपुर सीकरी, मथुरा, दिल्ली आदि में। यों तीन वर्ष का समय लेकर काव्य पूरा कर लिया। इसी बीच महान आलोचक पं पद्म सिंह शर्मा प्रयाग पधारे। मैंने उन्हें 'नूरजहांÓ सुनाई। वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तुरंत इसकी प्रशंसा में एक पत्र पं बनारसी चतुर्वेदी संपादक 'विशाल भारतÓ कलकत्ता को लिखा कि इस पुस्तक को सज-धजकर छपवाने का प्रबंध कीजिए और अपनी पत्रिका में इसका कुछ अंश छापकर हिंदी संसार को इसकी अनोखी छवि से अवगत करा दीजिए। इसमें दरिया की रवानी है, जीवन की जवानी है, मोतियां का पानी है, बिछोह और मिलन की कहानी है। इसकी फड़कती भाषा सरल सुबोध मुहावरेदार है। कनक की मादकता लिए इसके शब्द-शब्द बोलते हैं। इसके वाक्य फेनिल छलकते प्याले हैं हाला और अंगूरी के।Ó
सन् 1935 में नूरजहां बड़ी सजधज के साथ लॉ जर्नल प्रेस, इलाहाबाद से निकली। हिंदी संसार ने हाथों हाथ उठा लिया। उसे पढ़ते ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेद्वी ने 'विशाल भारतÓ में एक लंबा लेख लिख डाला। उसके अंतिम शब्द बड़े मार्मिक हैं- 'इन वर्णनों को पढ़ते समय पाठक हृदय अपने इर्द-गिर्द बिखरे सौंदर्य सागर को, जिनकी वह अब तक उपेक्षा करता रहा है, पाकर अचरज में आ जाता है। कुछ कवि के वाक्चातुर्य से, कुछ अपनी सौंदर्य विस्मयकारिणी बुद्धि से, कुछ प्रकृति के अनंत सौंदर्य का साक्षात्कार करके, जी में आता है चिल्लाकर कह दें-यह कवि तो अपने ढंग का अकेला है-यूनिक।
'नूरजहांÓ की तारीफ  भगवतशरण उपाध्याय ने भी की। नूरजहां की प्रति मिलने पर उपाध्याय जी ने अपने उद्गार व्यक्त किए। लिखा कि आधुनिक हिंदी महाकाव्य के जीवन में यह एक नया वितान रचेगा। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्यों की श्रेणी में शुमार होगी। अभिव्यक्ति के लिहाज से कालीदास के प्रवाह की तरह है और इसमें कीट्स की तरह संगीत और फेंटेसी है। बाद में उपाध्याय जी ने नूरजहां पर एक व्याख्यात्मक आलोचना भी लिखी। लेकिन उस समय विशाल भारत के सहायक संपादक ब्रजमोहन वर्मा को नूरजहां में कुछ कमी दिखी। शायद वे एक अंश पढ़कर अपना मंतव्य भक्तजी के पास भेज दिया। उन्होंने एक पत्र भक्तजी के नाम भेजा और लिखा, 'आपका ''नूरजहांÓÓ का प्रथम सर्ग-जो अंश आपने भेजा था-पढ़ा। इस अंश में आपने नूरजहां के पिता के मुख से ईरान की सुंदरता का वर्णन कराया है। कवि न होने के कारण कविता में अपनी टांग अड़ाना मेरे लिए सरासर मूर्खता है। लेकिन एक साधारण पाठक की हैसियत से मरे विचार में यदि आप इस अंश में ईरान के 'गुलÓ, 'बुलबुलÓ, 'चमनÓ, 'सरोÓ, 'नर्गिसÓ, 'गुल्लालाÓ आदि बातों को सम्मिलित कर दें तो ईरान का दृश्य बहुत वास्तविकतापूर्ण हो जाए।Ó हालांकि भक्तजी ने इसका पूरा ख्याल रखा और वहां के सौंदर्य का वर्णन नूरजहां में किया है। इन शब्दों का प्रयोग भी किया है। वर्माजी को वह अंश नहीं मिल सका था, जिसके कारण उन्होंने अपना सुझाव भेज दिया था। उस समय के चर्चित साहित्यकार रूपनारायण चतुर्वेदी ने नूरजहां पढऩे के बाद अपने भाव को व्यक्त करने से नहीं रोक सके। भाषा की तारीफ करते हुए लिखा है, 'क्या भाषा है, क्या मुहावरे हैं, कैसी ललकती, किलकती, छलकती वाणी है और क्या वर्णन शैली है।Ó
इस तरह 'नूरजहांÓ का जन्म हुआ और हिंदी के महान लेखकों ने उस समय इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की, लेख लिखे, आलोचना लिखी। 'नूरजहांÓ की कुछ पंक्तियों को देखना गैरवाजिब न होगा-
फिर बोल उठी कोयल कू! कू!
फिर बोल उठी कोयल कू! कू!
दिन थे हम दोनों होड़ लगा पंचम के स्वर में गाते थे।
दे मींड़ सरित की लहरों पर तारों से तार मिलाते थे।।
हम भी रसाल की डालों पर चढ़ आमों में छिप जाते थे।
हम तेरे आम चुराए बिन ही चोर बनाए जाते थे।।
'नूरजहांÓ में राष्ट्रीयता का उद्गार भी है-
जहां हमारा जन्म हुआ, वहीं हमारा स्वर्ग स्थान।
इस भू की मिट्टी पानी से यह काया है बनी हुई
दु:ख सुख के कितने आंसू से पावन रज है सनी हुई।।


भक्तजी की अन्य रचनाएं भी पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय रहीं। सरस सुमन, कुसुम कुंज, वंशीध्वनि और वनश्री। कहीं न कहीं इनमें प्रकृति का कोमल राग है। भक्तजी प्रकृति प्रेमी थे लेकिन उनका प्रेम पंत से भिन्न किस्म का था। वे भी वर्डस्वर्थ की तरह प्रकृति पर रीझते हैं। प्रकृति उनके जीवन में समाई है। वे उससे भिन्न नहीं हैं। उन्होंने खुद लिखा है, 'प्रकृति मेरे जीवन से इतनी अभिन्न है जितना मीन के लिए पानी। मेरा अस्तित्व उससे विलग सोचा ही नहीं जा सकता। वह मेरे काव्य की प्रेरणा अथवा पृष्ठभूमि नहीं है, वह तो मेरी सहचरी है। वह जीवन अभिनय में अभिनेत्राी है और मैं अभिनेता। वह मेरी रचनाओं के अंग-अंग से बोलती है और मैं उसकी मधुर ध्वनि सुन थिरक-थिरक कर गा उठता हूं।Ó आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेद्वी ने भी उनके इस पक्ष की ओर ध्यान दिलाया है, 'कहते हैं कि निरपेक्ष पुरुष को लुभाने के लिए प्रकृति ने संसार का यह जाल फैला रखा, पर नूरजहां का कवि वह पुरुष है जो स्वयं प्रकृति के जाल में फंसने को सदा उत्सुक रहता है। उसे एक-एक पौधा, एक-एक वृक्ष, उनके पत्र, पुष्प, शाखा, उपशाखा, एक-एक लता, एक-एक पक्षी, एक-एक मृग, पद-पद पर भावाविष्ट से बना देते हैं। वह जान-बूझकर उनके मोहजाल में जा फंसता है। अपनी कथा आरंभ करते ही वह प्रकृति के उस मोहजाल की ओर अग्रसर हो जाता है।Ó आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'अर्थ भूमि के संकोचÓ, 'बंधी लकीर के वादोंÓ, एवं 'प्रेम गान की परिपाटीÓ से आगे बढ़कर 'प्रकृति प्रांगण के सचराचर प्राणियों के रागपूर्ण परिचयÓ, 'विविध विषयों पर आत्मीयता व्यंजक दृष्टिपातÓ एवं 'सुख-दुख में उनके साहचर्य की भावनाÓ को विकास देनेे वाले तत्कालीन कवियों में भक्तजी को गौरव के साथ स्मरण किया गया है।
हरिवंश राय बच्चन ने अगस्त 1963 में भक्तजी को उनके जन्मदिन की बधाई देते हुए पत्रा में लिखा कि 'आपके जन्मदिन पर चरण छूता हूं और चाहता हूं कि हमको आशीर्वाद देने के लिए आप बहुत दिन हमारे बीच बने रहें।...मैं जानना चाहता हूं कि आपकी संपूर्ण रचनावाली कहां से मिलती है। उसे मैं अपने पुस्तकालय में रखना चाहता हूं। मेरी कामना है कि जो पुस्तकालय मैं अपने बच्चों के लिए छोड़ूं, उसमें आपकी रचनाएं अवश्य हों।Ó
भक्त जी का महत्व इतना ही नहीं था। शांति निकेतन में हिंदी भवन निर्माण में भी भक्त जी ने अहम भूमिका निभाई। वहां कई भाषाओं के भवन थे। पर हिंदी भवन नहीं था। अवसर निकालकर भक्तजी ने गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से इस संबंध में विनम्र निवेदन किया। गुरुदेव ने सहज मुद्रा में कहा-भवन बनाना आप लोगों का काम है। मैं जगह की व्यवस्था कर दूंगां। भक्तजी, पं बनारसी दास चतुर्वेदी तथा पं हजारीप्रसाद द्विवेद्वी, जो उन दिनों वहां अध्यापन कार्य कर रहे थे, भवन निर्माण के लिए आ
उनके योगदान को देखते हुए उस समय शांति निकेतन में भक्तजी के सम्मान में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था। यह आयोजन वहां की छात्राओं की ओर से किया था, जिनमें इंदिरा नेहरू भी शामिल थी। इसकी अध्यक्षता स्वयं गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने की थी। इस गोष्ठी में 'नूरजहांÓ में वर्णित बंगाल की छटा का पाठ किया गया। गुरुदेव ने मंत्रमुग्ध होकर सुना, सराहा और गदगद होकर आशीर्वाद भी दिया। भक्तजी के उद्गार थे, मैंने अपने को कृत-कृत्य समझा और संसार का सबसे बड़ा पुरस्कार पा लिया।Ó भक्त हमारे बीच नहीं हैं। आजमगढ़ के अपने आवास पर 17 मई, 1983 को अंतिम सांसे लीं।


रुढ़ हुए। भक्तजी और चतुर्वेदी जी ने कलकत्ता जाकर धन संग्रह का कार्य प्रारंभ किया और लगभग 30 हजार रुपये जुटाकर गुरुदेव के पास भेज दिया। हिंदी भवन के शिलान्यास की तिथि नियत हुई। गुरुदेव ने अपने हाथों नींव का पत्थर रखा। इस तरह हिंदी भवन बनकर तैयार हुआ।