पीके घोष यानी प्रशांत कुमार घोष। पीके रांची से तीन बार सांसद रहे। दिसंबर से इनका गहरा लगाव रहा। 20 दिसंबर, 1926 को उनका जन्म हुआ। 11 दिसंबर, 1962 में शादी हुई और 25 दिसंबर 2013 में रांची में निधन। वे पहली बार 1962 में रांची ईस्ट से विजयी हुए। तब रांची में दो लोकसभा की सीट होती थी। उस समय वे स्वतंत्र पार्टी में थे। बाद में इस पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया। इसके बाद 1967 में कांग्रेस के बैनर पर लड़े और विजयी हुए। इसके बाद 1971 में रांची से
ही चुनाव लड़े। बाद में उनकी जगह पर शिवप्रसाद साहू को टिकट दिया गया, लेकिन वह चुनाव हार गए। दूसरी बार शिव प्रसाद साहू जीत दर्ज की। पीके घोष 1980 से 84 तक छोटानागपुर व संथाल परगना के कांग्रेस महासचिव भी रहे। उनके बड़े बेटे सिद्धार्थ घोष बताते हैं कि पिता का साफ-स्वच्छ और पारदर्शी व्यक्तित्व था। मेरे दादा के पिता दरभंगा नरेश के दीवान थे। दरभंगा से मुजफ्फपुर और फिर रांची हम लोग बस गए। उस समय हमारी जमींदारी थी। काफी जमीनें थी। कृषि विवि भी हमारी जमी
न पर बनी। मूल रूप से हम लोग वर्धमान के हैं। पर दादा यहीं जन्में। पिता भी यहीं जन्मे। हमलोगों का जन्म भी यहीं हुआ। पिताजी राजनीति में गए। इंदिरा गांधी से उनकी बहुत बनती थी। 1984 में इंदिरा गांधी ने फिर रांची से टिकट देने का मन बनाया। इंदिरा गांधी के साथ मीटिंग में मैं भी था। तब मेरी उम्र 21 साल थी। हम दिल्ली उनके निवास पर गए थे। काफी कांग्रेस के लोग थे। आईं तो उन्होंने मुझे मेरे नाम से ही पुकारा। फिर मां का नाम लेकर हाल-चाल पूछा। उस समय मैं दंग रहा है कि उनकी स्मृति कितनी तेज थी। बाद में तो उनकी हत्या कर दी गई। इसके बाद पिताजी ने भी सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। इसके बाद तो पतित होती राजनीति और कांग्रेस में भी पदलोलुपता को लेकर वे काफी क्षुब्ध महसूस करने लगे। मुझे याद है, जब राज्य बना तो मैं दिल्ली में एयर लाइंस से जुड़ा था। उन्होंने मुझे दिल्ली से बुला लिया और कहा कि कुछ राज्य के लिए करो। लेकिन यहां की राजनीति और प्रशासनिक अक्षमता को देखकर वे निराश हो गए। कहने लगे, ऐसे लोगों से राज्य का विकास नहीं हो सकता। किसी के पास सेंटीमेंट नहीं है। हालांकि उन्होंने हम तीनों भाइयों को राजनीति में नहीं आने दिया। सिद्धार्थ कहते हैं पिताजी अपनी पूरी कमाई समाज सेवा पर ही खर्च कर देते थे। बिहार आई बैंक के संस्थापकों में थे तो उनका अधिकांश पैसा इसी आई बैंक में ही चला जाता था। महान क्रांतिकारी प्रफुल्लचंद्र रॉय इनके नाना थे। ये बाकुंडा से 1952 से 57 तक विधायक रहे। दादा भी फ्रीडम फाइटर थे। पिता भी अनुशीलन समिति से जुड़े थे। बाद में 1940 से 51 तक फारवर्ड ब्लाक के सदस्य रह। फिर 1960 से 64 तक स्वतंत्र पार्टी कार्यकारिणी के सदस्य रहे।
ही चुनाव लड़े। बाद में उनकी जगह पर शिवप्रसाद साहू को टिकट दिया गया, लेकिन वह चुनाव हार गए। दूसरी बार शिव प्रसाद साहू जीत दर्ज की। पीके घोष 1980 से 84 तक छोटानागपुर व संथाल परगना के कांग्रेस महासचिव भी रहे। उनके बड़े बेटे सिद्धार्थ घोष बताते हैं कि पिता का साफ-स्वच्छ और पारदर्शी व्यक्तित्व था। मेरे दादा के पिता दरभंगा नरेश के दीवान थे। दरभंगा से मुजफ्फपुर और फिर रांची हम लोग बस गए। उस समय हमारी जमींदारी थी। काफी जमीनें थी। कृषि विवि भी हमारी जमी
न पर बनी। मूल रूप से हम लोग वर्धमान के हैं। पर दादा यहीं जन्में। पिता भी यहीं जन्मे। हमलोगों का जन्म भी यहीं हुआ। पिताजी राजनीति में गए। इंदिरा गांधी से उनकी बहुत बनती थी। 1984 में इंदिरा गांधी ने फिर रांची से टिकट देने का मन बनाया। इंदिरा गांधी के साथ मीटिंग में मैं भी था। तब मेरी उम्र 21 साल थी। हम दिल्ली उनके निवास पर गए थे। काफी कांग्रेस के लोग थे। आईं तो उन्होंने मुझे मेरे नाम से ही पुकारा। फिर मां का नाम लेकर हाल-चाल पूछा। उस समय मैं दंग रहा है कि उनकी स्मृति कितनी तेज थी। बाद में तो उनकी हत्या कर दी गई। इसके बाद पिताजी ने भी सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। इसके बाद तो पतित होती राजनीति और कांग्रेस में भी पदलोलुपता को लेकर वे काफी क्षुब्ध महसूस करने लगे। मुझे याद है, जब राज्य बना तो मैं दिल्ली में एयर लाइंस से जुड़ा था। उन्होंने मुझे दिल्ली से बुला लिया और कहा कि कुछ राज्य के लिए करो। लेकिन यहां की राजनीति और प्रशासनिक अक्षमता को देखकर वे निराश हो गए। कहने लगे, ऐसे लोगों से राज्य का विकास नहीं हो सकता। किसी के पास सेंटीमेंट नहीं है। हालांकि उन्होंने हम तीनों भाइयों को राजनीति में नहीं आने दिया। सिद्धार्थ कहते हैं पिताजी अपनी पूरी कमाई समाज सेवा पर ही खर्च कर देते थे। बिहार आई बैंक के संस्थापकों में थे तो उनका अधिकांश पैसा इसी आई बैंक में ही चला जाता था। महान क्रांतिकारी प्रफुल्लचंद्र रॉय इनके नाना थे। ये बाकुंडा से 1952 से 57 तक विधायक रहे। दादा भी फ्रीडम फाइटर थे। पिता भी अनुशीलन समिति से जुड़े थे। बाद में 1940 से 51 तक फारवर्ड ब्लाक के सदस्य रह। फिर 1960 से 64 तक स्वतंत्र पार्टी कार्यकारिणी के सदस्य रहे।
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