स्वामी भवानी दयाल संन्यासी
महापुरुषों की कृतियाँ और स्मृतियाँ
देश की सर्वोपरि निधि हैं। समय के रेत पर उनका जो चरण चिह्न अंकित हो जाता है,
वह भावी पीढ़ी के लिए दीप स्तम्भ का काम देता है।
हिन्दी-साहित्य-संसार में श्रद्धेय पं पद्मसिंह शर्मा भी एक अद्वितीय महापुरुष थे,
अतएव उनकी स्नेहमयी स्मृतियों को संकलित और संचित करना
हिन्दी-प्रेमियों का कर्तव्य होना चाहिए। जो भाग्यशाली पुरुष कुछ काल तक शर्माजी
के सहवास और सत्संग का अवसर प्राप्त कर चुके हैं, केवल वे ही विस्तार और अधिकारपूर्वक अपने अनुभवों को अंकित कर सकते हैं और
मुझे विश्वास है कि उनके लिखे हुए संस्मरण हिन्दी साहित्य की स्थायी संपत्ति सिद्ध
होंगे, किन्तु मुझ जैसे शर्माजी के प्रेमी और भक्त
भी यदि दो-चार शब्द लिखने की धृष्टता कर डालें, तो मुझे आशा है, हिन्दी-प्रेमी
उसे क्षन्तव्य समझेंगे।
पहले-पहल सन् 1912 में मैंने शर्माजी के दर्शन किये थे। पुण्य-सलिला भगवती
भागीरथी के तट पर स्थित गुरुकुल कांगड़ी के वार्षिकोत्सव से लौटकर मैं ज्वालापुर
आया था, और वहीं महाविद्यालय में शर्माजी की
दिव्य-मूर्ति दृष्टिगोचर हुई थी। वृक्ष में जीव है या नहीं, इस विषय पर आर्यसमाजियों में दो पक्ष हैं। प्रख्यात तार्किक स्वर्गीय पं
गणपति शर्मा का पक्ष था कि वृक्ष में जीव अवश्य है, और लब्ध प्रतिष्ठ दार्शनिक स्वर्गीय स्वामी दर्शनानन्दजी इसके विपक्ष में
थे। इस विषय पर स्वामीजी और शर्माजी में शास्त्रार्थ छिड़ गया था, और मध्यस्थ थे साहित्याचार्य पं पद्मसिंह शर्मा। शर्माजी ने
जिस योग्यता और दक्षता के साथ शास्त्रार्थ-सभा का संचान किया था, वह अब तक मुझे स्मरण है।
इसके बाद मैं दक्षिण अफ्रिका चला
आया। समय-समय पर शर्माजी के विद्वतापूर्ण लेख सामयिक पत्रों में पढ़ता रहा। लगभग
बारह वर्ष के बाद सन् 1923 में कानपुर
सम्मेलन के अवसर पर शर्माजी के दर्शन करने का सौभाग्य फिर प्राप्त हुआ, और इस बार उनसे व्यक्तिगत परिचय और कुछ घनिष्ठता भी हो गई।
सम्मेलन में पधारे हुए प्रतिनिधियों
और अतिथियों को एक धर्मशाला में ठहराया गया था। मेरे लिए एक अलग ही कोठरी की
व्यवस्था कर दी गई थी। इसी कोठरी में श्री लक्ष्मीनारायण गर्दे और बनारसीदास
चतुर्वेदी से मिलने के लिए शर्माजी आये, और प्रथम
मिलन में ही उन्होंने मुझे अपना कृपापात्र बना लिया। उस दिन प्रेम का जो बीज
अंकुरित हुआ, वह उनके जीवन के अन्तकाल तक बढ़ता ही
गया। कानपुर में जितने दिनों तक सम्मेलन हुआ, शर्माजी का शेष समय मेरी ही कोठरी में बीतता था। इसका एक विशेष कारण भी था,
हम लोगों में दो बातों में बड़ी समता थी। एक तो मैं चाय
का भारी पियक्कड़ हूं, जहां जाता हूं, पहले चाय की व्यवस्था करता हूं। शर्माजी भी इस रोग के शिकार
थे। दूसरी बात यह कि मैं चायपान के साथ ध्रूमपन भी करता हूँ और उन दिनों शर्माजी
भी बीड़ी से इनकार नहीं करते थे। गर्देजी भी चाय और बीड़ी-दोनों के ही बड़े प्रेमी
हैं, इसलिए शर्माजी और गर्देजी के साथ मेरी खूब
पटती थी। केवल चतुर्वेदीजी एक निव्र्यसनी महात्मा थे, जो हमारी पार्टी में बराबर बने रहते थे। वे दो-चार दिन कितने आनन्द से कटे
थे। चाय की प्यालियां आ रही हैं, बीडिय़ों का ढेर
लगा हुआ है। कोठरी में एक ओर शर्माजी कागज-पेन्सिल लिये बैठे हैं, कुछ देर लेखनी चलती है और कुछ देर जबान। दूसरी ओर गर्देजी का
डेरा है, वे अपने 'भारतमित्रÓ के पेट भरने की चिन्ता में व्यस्त
हैं। एक कोने में चतुर्वेदीजी का आसन है, उनको यही
फिक्र परेशान कर रही है कि प्रवासी भाइयों के सम्बन्ध में कैसा और किस ढंग का
प्रस्ताव तैयार किया जाय, और उसको अमल लाने
के लिए सलाह दी जाय। दरवाजे के पास बैठकर मैं अपनी 'हिन्दीÓ के लिए कुछ गोद-गाद कर रहा हूं,
किंतु अधिक चिन्ता यही व्याप रही है कि शर्माजी और
गर्देजी के लिए चाय और बीड़ी की कमी न होने पावे।
मैं उसी साल दक्षिण-अफ्रिका लौट आया,
परन्तु शर्माजी से पत्र-व्यवहार होता रहा। मुजफ्फपुर-सम्मेलन
का सभापतित्व ग्रहण करने के पश्चात उन्होंने अपने भाषण की एक प्रति मेरे पास भेजते
हुए लिखा था-'बिहार में सम्मेलन हुआ, और अच्छा हुआ, केवल एक कसर रह
गई कि आप नहीं रहे।Ó फिर सन 1929 में शर्माजी से मुलाकात हुई। शर्माजी अपनी पुस्तक छपाने के लिए कलकत्ते
में टिके थे और मैं भी प्रत्यागत प्रवासियों की दशा की जांच के लिए वहां जा
पहुंचा। 'विशाल भारतÓ कार्यालय में अकस्मात शर्माजी के दर्शन हुए, और फिर तो नित्य ही एक बार परस्पर मिलना अनिवार्य हो गया। भिन्न-भिन्न
विषयों पर दिल खोलकर बातें होती थीं, और बड़ा आनन्द
रहता था। एक दिन हम लोग विद्यासागर-कालेज में व्याख्यान देने गये। विद्यालय के
अन्तर्गत एक हिन्दी-साहित्य-सभ है, उसी का
वार्षिकोत्सव था। आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय सभापति थे। बंगालियों का अच्छा जमाव
था। हिन्दी-भाषा के प्रति बंगालियों में जो उपेक्षावृत्ति है, इसी पर शर्माजी बोले, और खूब
बोले। आपने बंगालियों को ऐसी फटकर बतलाई कि सभापति राय महोदय तिलमिला उठे। शर्माजी
खरी बात कहने में जरा भी संकोच नहीं करते थे। उनका स्वभाव जितना कोमल था, उतना ही कठोर भी। मित्र मंडली में बैठे हुए शर्माजी सरलता और
सहृदयता की मूर्ति जान पड़ते थे, किन्तु जब उनकी
आलोचनात्मक लेखनी उठती थी, तो
साहित्य-शत्रुओं के हृदय प्रकम्पित हो उठते थे।
एक दिन मैंने शर्माजी को मटियाबुर्ज
की सैर कराई। वहां का दृश्य देखकर उनकी जो दशा हुई उसका चित्र कोई कुशल
मनोवैज्ञानिक ही खींच सकता था। वे गन्दी घनी बस्तियां, अस्वच्छ जल के नाले, दुर्गन्धमयी
मोरियां, कीचड़ से भरे हुए रास्ते। वे स्वास्थ्यहीन,
भग्न हृदय, मलेरिया-पीडि़त
बेकार प्रवासी भाई। शर्माजी कांप उठे, उनके मुंह
से दर्दभरी आहें निकल पड़ीं, और वे तड़पते हुए
वापस आये।
उन्हीं दिनों वैद्यनाथधाम गुरुकुल का
जलसा था। मेरे विशेष आग्रह से शर्माजी वहां जाने को तैयार हो गये। हम लोग यथासमय
नौ बजे रात्रि को सियालदह स्टेशन पहुंचे। शर्माजी ने इंटर का टिकट लिया और मैंने
थर्ड का। शर्माजी बोले-'आपके लिहाज से मैंने इन्टर का टिकट
लिया और आपने थर्ड का ले लिया। चलिए, टिकट बदल डालिये और
इन्टर का ले लीजिए।Ó मैंने निवेदन किया-'शर्माजी, मैं अकेला नहीं
हूं, मेरे साथ आर्य भाइयों का एक झुंड है। वे सब
थर्ड क्लास में ही जाने वाले हैं, उनको छोड़कर
इन्टर में बैठना मेरे लिए उचित न होगा।Ó शर्माजी
के लिए रात में सोना जरूरी था, इसलिए इन्टर में
बैठने के लिए मजबूर थे। खैर, गाड़ी आई,
शर्माजी इन्टरकी खोज में गये, और मेरी पार्टी ने थर्ड के एक डब्बे पर ही धावा बोलकर कब्जा-दखल कर लिया।
दूसरा उसमें कोई आया ही नहीं। हम लोग बिस्तर डालकर लम्बे पड़े। दूसरे स्टेशन पर
मैंने सोचा कि देखना चाहिए कि शर्माजी सो गये, या जगे हुए हैं। मेरे डब्बे के निकट ही इन्टर के डब्बे में बैठे हुए थे।
उसमें इतनी भीड़ थी कि शर्माजी को मुश्किल से एक किनारे बैठने की जगह मिल सकी थी।
डब्बे में बंगाली स्त्री-पुरुषों का बसेरा था, शर्माजी उनके मध्य में विदेशी बने बैठे थे। वे चुपचाप बैठे शायद इन्टर
क्लास को कोस रहे थे। मैंने उनके डब्बे के पास पहुंचकर पूछा-'कहिये, शर्मा जी,
क्या हाल है?Ó 'बस,
खुद ही मुलाहिजा कर लीजए, पूछने की जरूरत क्या है?Ó-शर्माजी ने जवाब
दिया। मैंने उनको अपने डब्बे में चलने को कहा। शर्माजी तैयार हो गये। मैंने एक सीट
खाली करा दी, उस पर शर्माजी का बिस्तर पड़ गया।
फिर तो वे ऐसा सोये कि जसीडीह में उठाने पर ही उठे। गाडी से झटपट उतर गये, लेकिन अपना एक बक्स उसी में छोड़ आये। जब गाड़ी खुल गई,
तब आपको बक्स की याद आई। अब तो शर्माजी की चिन्ता का
क्या कहना। कहने लगे-'बक्स में बहुत सी चीजें हैं, जिनकी मुझे अधिक परवाह नहीं, किन्तु कुछ हस्तलिखित पुस्तकें और नोट्स हैं, यही मेरे लिए दुर्लभ वस्तुएं हैं। यदि वे खो गईं, तो उनके पुनर्मिलन की कोई आशा नहीं।Ó फिर भी कभी आप नींद पर दोष मढ़ते और कभी अपनी लापरवाही को कोसते। मैंने
कहा-'पंडितजी, अब फिक्र करने से कुछ फायदा नहीं। चलिये, कोशिश की जाय, ताकि आपकी दुर्लभ वस्तुएं गायब न
होने पावें।Ó मैं शर्माजी को लेकर स्टेशन मास्टर
के पास पहुंचा। उन्होंने अगले स्टेशन पर टेलीफोन कर दिया, और मुझे दिन में एक बजे बुलाया। हम लोग अछता-पछताकर गुरुकुल चले गये। वहां
स्नान और जलपान हुआ, किन्तु शर्माजी की चिन्ता बढ़ती ही
जा रही थी। अतएव, हम लोग वहां से जसीडीह के लिए पैदल
ही रवाना हो गये-सवारी की भी परवा न की। लम्बी मंजिल तय कर के स्टेशन पहुंचे,
और गाड़ी की प्रतीक्षा करने लगे। किसी वस्तु की
प्रतीक्षा में बैठिये, तो समय भी शीघ्र नहीं कटता। गाड़ी भी
कुछ लेट हो गई-दो बजे आई। शर्माजी की बेचैनी बढ़ रही थी। खैर, शर्माजी का बक्स मिल गया, और उसे पाकर में वे इतने प्रसन्न हुए, मानो खोई हुई अमूल्य सम्पत्ति मिल गई हो। वहां से हम लोग सवारी लेकर
गुरुकुल लौटे।
शर्माजी सरस्वती-सम्मेलन के सभापति
चुने गये थे, और मैं आर्य सम्मेलन का। हम लोग एक
ही कमरे में ठहरे थे। शर्माजी के एक दो शिष्य भी मिल गये। फिर क्या पूछना था। चाय
तैयार करने की समस्या हल हो गई थी। अब शर्माजी ने बीड़ी पान करना छोड़ दिया था और
तम्बाकू का भोग लगाते थे। इस बार शर्माजी के सत्संग से मैंने खूब लाभ उठाया। आने 'पद्म-परागÓ की एक प्रति मुझे
भेंट की। उलट-पुलटकर देखा, तो उसका एक पन्ना
ही गायब था। मैंने शर्माजी से शिकायत की, तो बोले-'प्रेस के प्रेतों से तो मैं परेशान रहता ही था, अब जिल्दसाजों ने भी मुझे हैरान करना शुरू कर दिया है। खैर,
एक पृष्ठ मैं अपने हाथ से लिखकर आपकी पुस्तक पूरी कर
दूंगा।Ó 'बिहारी सतसईÓ की एक प्रति आपने मेरे पास भेजी थी, किन्तु मित्र की कृपा से वह खो गई। जब शर्माजी को यह खबर मिली, तो आपने फौरन उसकी दूसरी प्रति मेरे पस भेज दी। अस्तु
आपके सभापतित्व में सरस्वती सम्मेलन
हुआ। गुरुकुल के कई ब्रह्मचारियों ने निबन्ध पढ़े और कइयों ने भाषण दिये। शर्माजी
का अन्तिम भाषण बड़ा ही ओजपूर्ण था। एक बात मुझे बहुत खटकी। शर्माजी तो थे सभापति,
किन्तु एक महाशय बीच-बीच में गड़बड़ मचाते थे। प्रत्येक
निबन्ध्ण-पाठ के पश्चात वे उठकर खड़े हो जाते और लगते अनाप-शनाप बकने। सभा के अन्त
में जब मैंने शर्माजी से कहा-'पंडितजी, आपके स्वभाव में निर्बलता है या सज्जनता, इसका विश्लेषण करना मेरे लिए कठिन हो रहा है। सम्मेलन में एक
महाशय दाल-भात में मूसलचन्द बन रहे थे, और वे
बीच-बीच में उठकर अनर्गल प्रलाप कर रहे थे। आपने उनको रोका क्यों नहीं, उनकी स्वच्छन्दता को सहन कैसे कर सके?Ó शर्माजी हंस पड़े, और बोले-'कुछ महाशयों को व्याख्यान-व्याधिका दौरा हुआ करता है, और वे येनकेनप्रकारेण उसके उपचार के लिए अवसर ढूंढ करते हैं।Ó
यही शर्माजी से अन्तिम मिलन था।
गुरुकुल-उत्सव के बाद वे तो कलकत्ता वापस गये, और मैंने अपने प्रवासी भवन को प्रस्थान किया। सन् 1931 में जब जेल से छूटकर प्रत्यागत प्रवासियों के सम्बन्ध में
मैंने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की, और शर्माजी के
पास उसकी एक प्रति भेजी, तो आपने
चतुर्वेदीजी को सन्देश भेजा-'रिपोर्ट इतनी अच्छी
निकली है कि मेरी ओर से उनको एक प्याला चाय पिला दीजिएगा।Ó
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उस दिन हिन्दुस्तान की डाक मिली। 'आर्यमित्रÓ के काले कलेवर
में यह खबर पढ़कर हृदय कांप उठा कि शर्माजी सुरधाम सिधार गये। लोग कहते हैं इस
भूतल पर करोड़ों मनुष्य हैं, यह गणना असत्य
नहीं है, किन्तु क्या यह बात सत्य है? वास्तव में संसार में कुछ इने-गिने जीव ही रहते हैं, उन्हीं का जीवन जगत का जीवन है, और उन्हीं का मत विश्व का अभिमत। हिन्दी साहित्य संसार में शर्माजी अपनी
सानी नहीं रखते थे। वे क्या न थे? वे कवि थे,
लेखक थे, समालोचक थे और
भाषा विज्ञान के पंडित थे। उनके जोड़ का सिद्धहस्त लेखक दूसरा कोई नजर नहीं आता।
उनकी अपनी भाषा थी और अपनी शैली। साहित्य-सेवियों में उनका दर्जा केवल उन्हीं को
प्राप्त था। आज वे इस संसार से उठ गये सही, किन्तु अपनी अमरकीर्ति छोड़ गये हैं। जब तक इस जगत में हिन्दी भाषा जीवित रहेगी,
पं पद्मसिंह शर्माजी का नाम श्रद्धा और भक्ति के साथ
स्मरण किया जाता रहेगा।
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