मंचीय कविता कभी खत्म नहीं होगी

सवाल: अशोक जी, बहुत से लोगों की शिकायत है कि साहित्य हाशिए पर जा रहा है। इस दूसरा पहलू यह भी देखने को मिल रहा है कि अखबारों के पाठक बढ़ रहे हैं। ऐसे में इन दोनों स्थितियों के बीच कविता के लिए कहां जगह बनती है?
जवाब :  कविता के लिए जगह अपने आप बनती है। इसे बनाया नहीं जाता है। साहित्य की अन्य विधाओं की जगह संकीर्ण हो सकती है, कविता के लिए नहीं। इस बात का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि कविता हर युुग में समाज का भला करती रही है। इसलिए ऐसी कविता आनी चाहिए, जिसकी सोच व्यापक हो, जिसके पास भविष्य का नक्शा हो। समय पर ठोस प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जाए तो लोग कायर समझने लगते हैं। अब परिदृश्य बदल चुका है। कविता निम्न वर्ग के लोगों के प्रति सहानुभूति खो रही है। यह कविता के लिए चिंता की बात है।
-इधर, हिंदी साहित्य में भूमंडलीकरण की चर्चा खूब चल रही है। कई लेखक इसे देश के लिए अच्छा नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि इससे अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ेगा। आप इससे कहां तक सहमत हैं?
अशोक : भाषा किसी सड़े तालाब का जल नहीं है। यह निरंतर बहती रहती है। जब हिंदी में उर्दू के शब्द मिश्रित हो गए तब आप इसे हिंदी उर्दू तो नहीं कहते। अंग्रेजी भी हमारे व्यवहारिक जीवन में आ रही है। यह रोजगार दिला रही है। भाषा से नफरत करना छोड़ देना चाहिए। अंग्रेजी से नफरत करने के दिन लद गए।
सवाल:  एक चर्चा चलती है कि साहित्य में मंचीय कविता ने हिंदी का स्तर गिराया आपका क्या विचार है?
जवाब:  कविता मंचीय और वाचिक होती है। यह पठनीय कम होती है। आप पढ़कर उसके  प्रतिबिंब पर मुग्ध भले हो सक ते हैं। तन्मय होकर झूमना और  झूमाना जो कविता का मूल धर्म है, उससे अलग हो जाते हैं। यही कारण है कि जब नई कविता आंदोलन हुआ तो शताब्दियों से चले आ रहे उन सिद्धांतों को खत्म कर दिया गया, जो कविता को श्रवणीय और मंचीय बनाते थे। बीसवीं शताब्दी में यह कविता लोगों से अलग होने लगी। कविता में आधुनिकता के नाम पर शिल्प की बंदिशें खत्म हो गईं। एक नई राहों के अन्वेषी कहकर अज्ञेय ने जो पथ चला दिया उससे मंचीय कविता का बड़ा नुकसान हुआ। बच्चन, गुप्त, निराला, अंचल, जिन्होंने कविता में जनतत्व के प्राण रखे, वही धारा अब मंच की धारा बन गई है। इन लोगों ने उसमें हास्य को जोड़ा जो जनता को अच्छा लगा। आज की तारीख में वहां निर्मल सहज हास्य के स्थान पर चुहलबाजी आ गई है। हास्य करो तो निर्मल हास्य करो, व्यंग्य करो तो करुणा से उत्पन्न व्यंग्य करो। मंच की कविता कुछ और उम्मीद करती है। आप गाकर सुना रहे हैं तो श्रेष्ठ गायन होना चाहिए। छंद का बेहतर प्रयोग होना चाहिए।
सवाल: नई पीढ़ी छंदबद्ध कविता से भाग रही है। इसके क्या कारण हो सकते  हैं?
जवाब : इसका कारण है कि उन्हें वास्तविक शिक्षा नहीं मिली। उन्हें मात्रा, छंद एवं अन्य चीजों का ज्ञान नहीं है। मंचीय कविता कभी भी खत्म नहीं होगी। यह मैं भविष्यवाणी कर रहा हूं। कविता संक्षेप में वही बात कहती है जो आम जन सोचते हैं। सामाजिक सोच में कहीं खोट हो तो कवि आगाह करता है। वह परिवर्तन चाहता है, इसीलिए उसे समाज का दर्पण या दीपक  भी कहा जाता है। इन दिनों कविता के दर्पण चटके हुए हैं और दीपक बुझे हुए।

आज की कविता और मंच की कविता के बारे में क्या कहना है?
चक्रधर : आज भी कविता लिखी जा रही है। ब्लाग, फेसबुक आदि पर भी कविताएं लिखी जा रही हैं। पत्र-पत्रिकाओं में भी कविताएं लिखी जा रही हैं। बदलते समय में कविता भी बदली है और उसकी भूमिका भी। मंच पर कविताएं कम, लतीफे ज्यादा सुनाए जा रहे हैं। पहले लतीफा संचालक सुनाया करता था। अब कवि सुनाने लगे हैं। इससे गंभीर व व्यंग्यपरक कविताओं के लिए मंच पर जगह कम हुई है।
सवाल: कौन सी किताबें आने वाली हैं?
चक्रधर : नारी के सवाल-अनाड़ी के जवाब आने वाला है। कपिल सिब्बल की कविताओं का हिंदी में अनुवाद पेंग्विन से आ रहा है। इसके अलावे भी एक और संग्रह जल्द ही पाठकों को मिलेगा।
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