बाबा बैजू के दरबार में भक्त भरते हैं जुर्माना

टॉवर चौक देवघर का हृदय स्थल है। यहां से तीन राहें फूटती हैं, लेकिन इसे चौक का नाम दिया गया है। यहीं से बाबा धाम की ओर एक रास्ता फूटता हैं। चौक से दस कदम पर बाएं एक पुराना मंदिर है। सड़क से दिखाई नहीं देता। सड़क किनारे दुकानें हैं और दुकान के पीछे ही यह मंदिर है। छोटा सा। सालों से इसकी पुताई नहीं हुई है। मंदिर के बाए हीं प्लास्टिक के हजारों लोटे पड़े हुए हैं। इन्हीं लोटों में भक्त जल लेकर आते हैं और बैजू बाबा को चढ़ाते हैं। हिंदू मंदिरों की दुर्दशा यहां देख सकते हैं। पसरी गंदगी कोई नई बात नहीं। यह उस मंदिर का हाल है, जिसके नाम पर कामना शिवलिंग का नाम बाबा बैजनाथ पड़ा और दुनिया इसी नाम से याद करती है।

खैर, सुबह-सुबह की बेला थी। सैकड़ों लोग बोल बम का नारा लगाते हुए उस मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। सड़क से तो यह कतई नहीं दिखाई देता। अंदर जाने पर ही पता चलता है। मंदिर के काली पड़ चुकी सफेद दीवार पर लाल रंग से लिखा है-पुराना बैजू मंदिर यही है। मंदिर की खास बात यह है कि यहां लोग जल तो चढ़ा ही रहे थे, भक्त कान पकड़कर उठक-बैठक भी कर रहे थे। ऐसी कोई परंपरा हमने किसी और मंदिर में नहीं देखी थी। इसमें पुरुष भी शामिल थे-महिलाएं भी। आखिरकार, एक भक्त से पूछ ही लिया-आप कान पकड़कर उठक-बैठक क्यों कर रहे हैं?

भक्त ने संक्षिप्त जवाब दिया-जुर्माना।
जुर्माना? मैं चौक गया? उससे पूछा, जुर्माना मतलब, किसलिए?
आखिर, यहां कौन सा जुर्माना दिया जा रहा है। यह तो कभी सुना नहीं। जाना नहीं। वह भी भगवान के दरबार में नहीं, भक्त के दरबार में।
उस भक्त ने साफ किया-जाने-अनजाने अपनी गलती के लिए।
यह अजीब और अद्भुत परंपरा थी। लोग सीतामढ़ी से आए थे। बाबा बैजनाथ को तिलक चढ़ाने। बसंत शुरू होने के साथ मिथिलांचल के लोग बाबा बैजनाथ का तिलक चढ़ाने आते हैं और बसंत पंचमी इसकी आखिरी तारीख होती है। भक्त बताते हैं, असल पूजा तो इसी समय होती है। सावन में कांवरियों का रेला-मेला तो पचास-साठ साल पहले शुरू हुआ।

हालांकि बाबा बैजनाथ का मंदिर भी अतिक्रमण की भेंट चढ़ गया है और बाबा बैजू को तो लोग जानते ही नहीं। इसकी परम भक्ति के कारण ही बाबा बैजनाथ अपने भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं।

आखिर, यह बैजू था कौन?

कहते हैं, बैजू एक चरवाहा था। रावण शिव के परम भक्त। परम ज्ञानी-प्रतापी रावण शिव को प्रसन्न करने के लिए हिमालय पर तप कर रहा था। पौराणिक कथा बताती है कि वह एक-एक करके अपने सिर काटकर शिवलिंग पर चढ़ा रहा था। नौ  सिर चढ़ाने के बाद जब वह अपना दसवां सिर चढ़ाने वाला था तो शिव प्रसन्न होकर दर्शन दिए और उससे वर मांगने के लिए कहा।
रावण यही चाहता था। उसने 'कामना लिंगÓ को लंका ले जाने का वर मांगा। शिव ने उसे वर दे दिया, लेकिन एक शर्त भी रख दी। कहा कि अगर तुमने शिवलिंग को रास्ते में कही भी रखा तो मैं फिर वहीं रह जाऊंगा और नहीं उठूंगा। ज्ञानी रावण ने शिव की यह शर्त मान ली। शिव के कैलाश छोडऩे की बात सुनकर देवता चिंतित हो गए। जब रावण आचमन करके शिवलिंग को लेकर श्रीलंका की ओर चला तो देवघर के पास उसे लघुशंका लगी। उसने एक ग्वाले को शिवलिंग देकर लघुशंका करने चला गया। कथा बताती है कि बैजू नाम के ग्वाले के रूप में स्वयं भगवान विष्णु थे। रावण कई घंटों तक लघुशंका करता रहा जो आज भी एक तालाब के रूप में देवघर में है। इधर बैजू ने शिवलिंग धरती पर रखकर को उसे स्थापित कर दिया। जब रावण लौट कर आया तो लाख कोशिश के बाद भी शिवलिंग उठ नहीं पाया। तब उसे भी भगवान की यह लीला समझ में आ गई।


रावण कैलाश पर्वत पर जाकर शिवजी की तपस्या कर रहा था। उसने हवन करना आरंभ किया। जब उससे भी शिव जी प्रसन्न नहीं हुए तब उन्होंने सोचा कि अब अपने शरीर को अग्नि में भेंट कर देना चाहिए। ऐसा सोच कर उसने दस मस्तकों में से एक-एक को काट कर अग्नि में हवन करने लगा। जब नौ मस्तक कट चुका और दसवें मस्तक को काटने के लिए तैयार हुए तो शिवजी प्रसन्न होकर उनके समक्ष प्रकट हुए। शिवजी ने उनके हाथ पकड़ लिए और वर मांगने को कहा। शिव की कृपा से उनके सभी मस्तक अपने अपने स्थान से जुड़ गए। हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हुए रावण ने वर मांगा-हे प्रभो! मैं अत्यंत पराक्रमी होना चाहता हूं। आप मेरे नगर में चल कर निवास करें। यह सुन कर शिवजी बोले- हे रावण! तुम हमारे लिंग को उठा कर ले जाओ और इसका पूजन किया करो परंतु यदि तुमने लिंग को मार्ग में कहीं रख दिया तो वह वहीं पर स्थित हो जाएगा।
रावण के कहने पर शिवजी दो रूपों में विभाजित हो गए और दो लिंग स्वरूप धारण किए। रावण उन दोनों शिवलिंगों को कांवर में रख कर चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद रावण को लघुशंका लगी। उसने लघुशंका निवारण के लिए किसी व्यक्ति की तलाश करने लगा जो कुछ देर तक कांवर को उठाए रखे। उसी समय वहां एक चरवाहा दिखाई दिया। रावण ने उससे प्रार्थना किया कि कुछ देर तक कांवर को अपने कंधों पर उठाए रखे जिससे मैं लघुशंका कर लूं। चरवाहे ने उत्तर दिया- हे रावण! मैं दो घड़ी इस कांवर को लिए रहूंगा। यदि इस समय के अन्दर तूने कांवर को न लिया तो मैं इसे जमीन पर रख दूंगा। इतना सुन कर रावण उसे कांवर देकर लघुशंका करने बैठ गया। रावण के अहंकार को नष्ट करने के लिए वरूण ने उसका मूत्र इतना अधिक बढ़ा दिया कि उस चरवाहे ने कांवर का भार सहन नहीं कर पाया और कांवर को जमीन पर रख दिया। पृथ्वी पर रखते ही शिवलिंग उसी स्थान पर दृढ़ता पूर्वक जम गए। लघुशंका से उठने के बाद रावण ने उन लिंगों को उठाने का अथक प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हो सका और अंत में निराश होकर घर लौट आया। रावण के चले जाने पर सभी देवताओं ने आकर वहां शिवलिंग की पूजा की। शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें अपना दर्शन दिया और वर मांगने को कहा। सभी देवताओं ने प्रार्थना करते हुए उनसे कहा- हे स्वामी! आप हमें अपनी भक्ति प्रदान करें और कृपा पूर्वक सदैव यहीं स्थित रहें। आप मनुष्यों को वैद्य के समान आनंद प्रदान करने वाले हैं अस्तु आपका नाम वैद्यनाथ हैं।

अब वह चरवाहा नित्यदिन लिंग की पूजा करने लगा। उसका नाम बैजू था। जब तक वह उस लिंग की पूजा नहीं कर लेता तब तक भोजन नहीं किया करता था। अनेक प्रकार के विघ्न आने पर भी उसने अपना नियम कभी नहीं छोड़ा अंतत: एक दिन उसकी दृढ़ भक्ति को देख कर वामांग में भगवती गिरिजा से सुशोभित शिवजी ने उन्हें दर्शन दिया और उसे वर मांगने को कहा। प्रेम की अधिकता में भर कर उस चरवाहे बैजू ने कहा-हे प्रभु! आपके चरणों में मेरा प्रेम बढ़ता रहे और मैं आपके भक्तों की सेवा किया करूं और आप मेरे नाम से प्रसिद्ध हों। शिव एवमस्तु कह कर उस लिंग में प्रवेश कर गए। तब से बाबा वैैद्यनाथ को संसार बाबा बैजनाथ के नाम से भी जाना जाने लगा। पर, दुख इस बात का है कि इस मंदिर का कायाकल्प नहीं हो सका। चारों तरफ गंदगी का साम्राज्य। न प्रशासन को चिंता न नगर पालिका को।

1 टिप्पणी: