स्मृतिशेष : डॉ श्याम सुंदर घोष

डा. श्यामसुंदर घोष बीते छह अक्टूबर चले गए। यह वही दिन था, जिस दिन उनकी
अंतिम दो पुस्तकें 'चीनी समालोचकों की नजर में प्रेमंचदÓ व 'शिखर सेतु
समापनमÓ छपकर आईं। उसकी प्रति हाथ में ली, निहारा और ठीक 15 मिनट बाद
उनका शरीर अनंत की यात्रा पर निकल पड़ा। 20 नवंबर, 1934 को झारखंड के
गोड्डा जिले के सैदापुर गांव में उनका जन्म हुआ था। यहीं उनकी कर्मस्थली
भी रही 1994 में 37 सालों की सेवावधि के बाद हिंदी विभागाध्यक्ष पद से
गोड्डा कालेज से ही अवकाश ग्रहण किया। 'प्रेमचंद के उपन्यासों में
मध्यवर्गÓ पर भागलपुर विश्वविद्यालय से 1967 में पीएच डी की, लेकिन लेखन
की शुरुआत आजादी के बाद से ही शुरू हो गई थी और निरंतर जारी
है-मृत्युपर्यंत।
इनका लिखना इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि वे पिछले 20-22 सालों से स्नायुरोग
की गिरफ्त में थे। चलना मुश्किल से हो पाता था। जिन्होंने उन्हें देखा
होगा, वही महसूस कर सकते थे कि वह किस मिट्टी के बने थे। पूरा शरीर जवाब
दे गया था, पर मन-मस्तिष्क लाजवाब रूप से काम कर रहे थे और लेखन जारी था।
डॉ बालेंदुशेखर तिवारी ठीक ही कहते हैं कि लेखन से ही उन्हें ऊर्जा मिलती
थी।
डॉ घोष की एक बेटी रांची रहती हैं। वहीं पर 2008 में उनसे मुलाकात हुई
थी। बीमारी के बावजूद पूरे गर्मजोशी से मिले और अपनी किताबों के बारे में
बताया था। तब रांची मेरे लिए नई थी और डॉ घोष भी। महसूस हुआ कि लेखन का
उनका रेंज काफी बड़ा है। कविता, कहानी, हास्य-व्यंग्य से लेकर संस्मरण,
समाजशास्त्र, नाटक, भाषा चिंतन, बाल साहित्य तक। कई पत्रिकाओं का संपादन
भी किया और किताबों का भी। किताबों की संख्या की बात करें तो 70 तक
पहुंचती हैं।
सन्् 1951 में उनका पहला काव्य संग्रह 'मधुयामाÓ प्रकाशित हुआ था। तब
उन्होंने अपना उपनाम 'अशांतÓ रखा था। दूसरे संग्रह 'मसीहाÓ तक 'अशांतÓ
बने रहे। इसके बाद मूल नाम से ही कई संग्रह प्रकाशित हुए। कविता के अलावा
व्यंग्य भी प्रकाशित हुए और समीक्षात्मक पुस्तकें भी। उपन्यासकार
प्रेमचंद, नई कविता का स्वरूप विकास, नवलेखन : समस्याएं एवं संदर्भ,
प्रासंगिकता के बहाने, लोक साहित्य : विविध प्रसंग, रामकथा, कबीर-एक और
दृष्टि, बच्चन: व्यक्ति और रचनाकार...। संस्मरणों की भी कई पुस्तकें
प्रकाशित हैं। अनियतकालीन पत्रिका 'प्रतिमानÓ का भी कई अंकों तक संपादन
किया। किसी एक विधा में बंधकर वे कभी नहीं रहे। कुछ साल पहले 'नटराज शिवÓ
पुस्तक का संपादन किया था, जिसमें शिव पर लिखे  दुर्लभ लेखकों की रचनाओं
को शामिल किया था। अंतिम कृति 'चीनी समालोचकों की नजर में प्रेमंचदÓ कई
मायनों में इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें चीनी लेखकों का हवाला भी
दिया है कि किस चीनी लेखक ने प्रेमचंद की कौन सी कहानी का अनुवाद किया
है। यह अपने आप में एक बड़ा काम है। यह काम भी वे छोटे से शहर गोड्डा में
रहकर किया। फिर भी, अपने उस शहर की तरह हमेशा वे अल्पज्ञात ही रहे। यह हम
हिंदी वालों का दुर्भाग्य है, या उनका।

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