प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार डॉ. श्यामसुन्दर घोष

झारखण्ड की धरती जितनी रत्नगर्भा है उतनी ही साहित्य प्रवण भी। यहाँ के साहित्यकारों/ रचानाकारों ने अपनी रचनाओं से हिन्दी साहित्य को अत्यन्त समृद्ध किया है। मूर्द्धन्य कहानीकार राधाकृष्ण उर्फ ‘लाल बाबू’, नाटककार एवं नाट्य विशेषज्ञ डॉ. सिद्धनाथ कुमार, प्रख्यात भाषाविद आचार्य दिनेश्वर प्रसाद को भला कौन नहीं जानता। इसी तरह डॉ. श्रवण कुमार गोस्वामी, प्रो0 अशोक प्रियदर्शी, डॉ. ऋता शुक्ल अत्यन्त समाहृत विद्वान एवं रचनाकार हैं। इसी क्रम में गोड्ा (झारखण्ड) निवासी, डॉ. श्याम सुन्दर घोष का योगदान भी कम उल्लेखनीय नहीं है।

डॉ. श्यामसुन्दर घोष जीवन और साहित्य के विश्लेषण में पारंगत थे। उनकी दृष्टि से मानव-जीवन और भाषा एवं साहित्य का कोई कोण नहीं छूटता था। वे एक सामान्य सी बात से शुरू करके अपनी तीक्ष्ण विवेचनात्मक दृष्टि से बड़ी बात कह जाते हैं और खूबी यह की उनकी बातें इतनी सटिक होती हैं कि कोई उसे झुठला नहीं सकता और वे ऐसे विरले लेखक थे जो आलोचना की भी आलोचना करने से नहीं चूकते। डॉ. घोष ने साहित्य की सभी विधाओं में लिखा है। वे एक सिद्धहस्त लेखक थे। उनके लिए लेखन एक व्यसन था, जो लग गया, सो लग गया। उनकी पैठ सभी प्रकार के लेखन में थी, चाहे वह लेखन किसी भी प्रकार का क्यों न हो। वे आलोचना लिखते थे तो कविता भी करते थे। व्यंग्य लिखते थे तो भाषा विषयक लेखन भी करते थे। उन्होंने अपने लेखन में जीवन की सभी प्रकार की संवेदना को स्वर दिया है।

डॉ. घोष निरन्तर लिख रहे थे। उनकी लगभग साठ पुस्तकें प्रकाशित हुई होंगी। वैसे तो उन्होंने गीत-प्रगीत और कविताएँ भी लिखी हैं। परन्तु, डॉ. हरिवंश राय बच्चन पर लिखी इनकी समीक्षा अत्यधिक चर्चित है। मुझे उनका भाषा विषयक लेखन अच्छा लगता है। अब यह भी नहीं की दूसरे विषयों पर उनके लेखन की मैं कद्र नहीं करती। सच तो यह है कि मैं उनकी कद्रदान हूँ। परन्तु, आज के समाज में भाषा के प्रति जो उदासी का व्यामोह व्याप्त है, इस पृष्ठभूमि में ’भाषाचिन्तननामा’ नामक, डॉ. घोष की पुस्तक ’रोशनी’ का काम करती है। इस पुस्तक का फलक बहुत व्यापक है। निस्संदेह ही यह पुस्तक व्यापक तौर पर भाषा और बोलियों के महत्त्व और उसकी उपयोगिता को समझने के लिए हमें बाध्य करती है। पुस्तक में एक ओर जहाँ लेखक ने ’भाषायी हीनता-भाव’ और ’भाषा की फजीहत’ पर विवेचन किया है तो दूसरी ओर उसने ’भाषा के विकास में जन और  अभिजन की भूमिका’ व भाषाओं और बोलियों की समीपता


का अर्थ-सन्दर्भ भी ढूढ़ने की भी चेष्टा की है। इतना ही नहीं विद्वान लेखक ने भाषा में शुद्धतावाद और भाषा में सेंधमारी की पड़ताल की है, तो, भाषाओं को सरकारी दर्ज़ा देने के सवाल और ’हिन्दी दिवस’ नहीं, भारतीय भाषा दिवस’ जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर भी विमर्श किया है। आखिर सवाल सिर्फ़ हिन्दी का नहीं अपितु व्यापक तौर पर सभी भारतीय भाषाओं और बोलियों की अस्मिता का प्रश्न भी है।

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