सिमोन उरांव फोटोसाभारआनंद बाजार |
सिमोन ने 1955 से 1970 के बीच
बांध बनाने का अभियान जोरदार ढंग से चलाया। लोगों को बताया, समझाया। इसके
बाद लोग जुड़ते चले गए। जब उन्होंने यह काम शुरू किया तो 500 लोग भी उनसे
जुड़कर जल संरक्षण की दिशा में काम करने लगे। पांच हजार फीट नहर काटकर, 42
फीट ऊंचा बांध बनाकर 50 एकड़ में सिंचाई की सुविधा की। उन्होंने भी यह
महसूस किया कि बांध बनाने से बहुत मदद मिल रही है। वे आज भी जल संरक्षण, वन
रक्षा और पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करते हैं। उन्होंने अनपढ़ होते हुए
भी गांव में आठवीं क्लास तक पढ़ाई शुरू कराने में सफलता पाई। सिमोन जमीन पर
गांव वालों का अधिकार मानते हैं। उन्होंने तीर-धनुष लेकर पेड़ों की कटाई
का विरोध किया। पर्यावरण संरक्षण के मकसद को पूरा करने के लिए दो बाल जेल
जा चुके हैं और दोनों बार अदालत ने उन्हें समाजिक कार्यकर्ता बताकर रिहा कर
दिया।
पानी के बेतरतीब बहाव की वजह से जहां बरसात के दिनों में
सैकड़ों एकड़ भूमि जलमग्न रहा करती थी, वहीं बरसात के बाद सुखाड़ का आलम।
रोटी की जुगाड़ में पलायन बेड़ो प्रखंड के नरपत्रा, झरिया, खरवागढ़ा, जाम
टोली, वैद्य टोली, खक्सी टोला समेत आसपास के दर्जनों गांवों की कहानी थी।
गांव में जल प्रबंधन का अभाव इसकी मूल वजह थी। उस समय सिमोन की उम्र तकरीबन
12-15 वर्ष की थी। खेती-बारी ही आजीविका का इकलौता साधन था, परंतु तब दो
जून की रोटी का जुगाड़ भी बड़ा सवाल था। 60 के दशक में कुदाल-फावड़े के साथ
जो खेतों को समृद्ध करने उतरे, आज भी उसी काम में जुटे हैं।
सिमोन
ने पूर्वजों के मिले पारंपरिक ज्ञान को ग्रामीणों के बीच बांटा। फिर मेहनत
की बदौलत गांव की तस्वीर बदलने की समेकित योजना तैयार की। काम मुश्किल था,
परंतु ग्रामीणों के सहयोग से मंजिल मिलती गई। लगभग दशक भर की कड़ी मेहनत
के बाद पहले गायघाट, फिर झरिया और फिर देशपल्ली बांध बनकर तैयार हो गया।
इससे जहां सैकड़ों एकड़ भूमि डूब क्षेत्र से बाहर निकल गई, वहीं बांध बन
जाने से पानी के भंडारण की समस्या दूर हो गई। ग्रामीणों के सहयोग से इस
बांध के सहारे 5500 फीट लंबी नहर निकाली गई। फिर क्या फसलें लहलहा उठीं।
ग्रामीणों में नई ऊर्जा का संचार हुआ। फिर वैसे क्षेत्र जहां बांध का पानी
नहीं पहुंच सकता था, ग्रामीणों सहयोग से पांच तालाब और 10 कुएं खोद डाले
गए।
आजादी से पहले और आजादी के बाद बांध निर्माण की बड़ी-बड़ी
परियोजनाओं से उत्पन्न विस्थापन की समस्या से सबक लेते हुए हमने बांध का
निर्माण सुनियोजित तरीके से करने की कोशिश की। हमारे पास न ही कोई खास
तकनीक थी और न ही फंड। सब कुछ ग्रामीणों की हिम्मत और उनकी मेहनत पर
केंद्रित था। मिट्टी का क्षरण न हो, सो बांध के किनारे-किनारे पौधे लगाते
चले गए। बांध बनाने, जलाशयों के निर्माण आदि में में जिन 30 किसान परिवारों
की जमीन गई, पुनर्वास के तौर पर उन्हें मत्स्य पालन से जोड़ दिया।
वह
एक बात का जिक्र करते हैं। 'देखो, सीखो, करो, खाओ और खिलाओÓ। इस भावना के
साथ अगर हम आगे बढ़े तो गांवों की तस्वीर बदल जाए। जब ग्रामीण समृद्ध
होंगे। उनका आर्थिक और सामाजिक स्तर ऊंचा उठेगा। समाज में व्याप्त
विसंगतियां स्वत: दूर होती चली जाएंगी। धरती सोना है। यह जमीन फसाद की जड़
भी है और विकास का साधन भी। यह तो हमारा नजरिया है कि हम इसे किस रूप में
लेते हैं। यह स्थापित सत्य है कि 'अगर आदमी जमीन से लड़ेगा तो विकास होगा
और आदमी आदमी से लड़ेगा तो विनाश होगा।Ó
जीवन संघर्ष का मैदान
है। अगर आप इस पथ पर चलेंगे तो कांटे भी मिलेंगे, परंतु अगर आप सही मार्ग
पर हैं तो जीत आपकी ही होगी, आप पराजित कदापि नहीं हो सकते। जब ग्रामीणों
के सहयोग से हम जंगल से होकर नहर निकाल रहे थे, सरकारी महकमे के विरोध का
सामना करना पड़ा। हमपर मुकदमे भी हुए, परंतु मानव मूल्यों के संवद्र्धन के
लिए हमारे काम की सराहना हुई और फिर उसी सरकार ने मुकदमा वापस भी लिया।
चाहे वह गांव हो, राज्य हो या फिर देश। विकास के मामले में सबको एकजुट रहना
होगा।
सिमोन को पर्यावरण संरक्षण के लि
ए पहले भी कई पुरस्कार मिले हैं-
ए पहले भी कई पुरस्कार मिले हैं-
-उन्हें अमेरिकन मेडल ऑफ ऑनर लिमिटेड स्टा्राकिंग 2002 पुरस्कार के लिए चुना गया।
-विकास भारती विशुनपुर से जल मित्र का सम्मान मिला।
-झारखंड सरकार की तरफ से सम्मान
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