आजादी की लड़ाई में पलामू के योद्धाओं ने लिखी इबारत

देश की आजादी में पलामू का भी योगदान रहा है। मुल्क को आजाद कराने में पलामू के युवकों ने हर स्तर पर कुर्बानी दी। इसमें स्वतंत्रता सेनानी केश्वर विश्वकर्मा, हरिनाराण वाजपेयी, महावीर प्रसाद, नीलकंठ सहाय, यदुवर सहाय समेत कई योद्धा शामिल थे। इनमें अब नीलकंठ सहाय को छोड़कर इस दुनियां में कोई नहीं रहा। हां स्वतंत्रता की लड़ाई में उनकी कुर्बानी की गाथा लोगों को याद है। जरूरत है नवयुवकों को अंग्रेजी शासनकाल में उनकी छीन ली गई शारीरिक,आर्थिक,सामाजिक व राजनीतिक आजादी की कहानी से रूबरू कराने की। प्रस्तुत है  पलामू जिला के विश्रामपुर प्रखंड के कंडा गांव निवासी स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय केश्वर विश्वकर्मा की कहानी।

केश्वर विश्वविश्वकर्मा
वर्ष 1918 में रामजतन विश्वकर्मा के घर पर केश्वर विश्वकर्मा का जन्म हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा कंडा गांव में हुई थी। वे समाज में मृदुभाषी व कोमल स्वभाव के व्यक्ति के रूप में पहचाने जाने लगे। केश्वर विश्वकर्मा होश संभालते ही अंग्रेजी हुकूमत का विरोध शुरू कर दिया। जवान होते ही भारतीयों के शोषण के खिलाफ वे आजाद भारत अभियान में कूद पड़े। उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा कि क्या खोया व पाया। भारत आजाद हुआ और अपने परिजनों के साथ आजाद भारत में 68 बसंत देखे। उन्होंने अपने 18 वर्ष की उम्र में कांग्रेस से प्रभावित होकर 1936 में कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की। वे अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में कूद पड़े। 1940 में रामगढ़ में हुए कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आसपास के दर्जनों पुल-पुलिया को काटकर सड़क अवरुद्ध कर दिया। इनकी देश भक्ति देख अंग्रेजी शासन आक्रोशित हो उठा। अंग्रेजो ने इन्हें पकडऩे के लिए स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अभियान चलाया। स्व.विश्वकर्मा अपने साथियों के साथ मिलकर सड़क काट रहे थे कि इसी बीच रास्ते से गुजर रही अंग्रेजी फौज की निगाह उन पर पड़ गई। अंग्रेज सिपाही उन्हें गिरफ्तार कर पटना के फुलवारी शरीफ स्थित कैंप जेल में डाल दिया। वहां 50 रुपये जुर्माना के साथ 18  माह तक की सजा काटी।

पुत्र के जेल जाते ही पिता चल बसे
जेल जाने की खबर को केश्वर विश्वकर्मा के पिता रामजतन विश्वकर्मा सहन नहीं कर सके। उनका हर्ट अटैक हो गया। इससे उनकी मौत हो गई। जेल से निकलने के 9 माह बाद 1943 मे राष्ट्र पिता महात्मा गांधी की भारत छोड़ो आंदोलन के शांत होते अन्य लोग भी जेल से बाहर आए। इसके बाद केश्वर फिर अपने साथियों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए।

इंदिरा गांधी व एपीजे अबुल कलाम ने किया था पुरस्कृत
स्वतंत्रता सेनानी स्व केश्वर विश्वकर्मा की मुलाकत देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद व प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से भी हुई। उनसे वे काफी प्रभावित होकर देश प्रेम व सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया। देश की प्रथम महिला प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से उनकी 1972 में मुलाकात हुई। उन्हें प्रधानमंत्री ने ताम्र पत्र से  नवाजा था। देश के तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अबुल कलाम ने 2003 में दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन बुलाकर उन्हें सम्मानित किया था।

 कंडा गांव में रखी गांधी आश्रम की नींव
केश्वर विश्वकर्मा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या को सहन नहीं कर सके। वे हर रोज रात में घर में बैठकर रोते रहते थे। घर वालों की ओर से पूछने पर वे सहज ही बताते थे कि जिसने देश को आजाद कराया उसे मौत की सजा मिली। स्व. विश्वकर्मा गांधी जी से इतने प्रभावित थे कि वे गांव में ही गांधी स्मारक भी बनाने का संकल्प लिया। वे कंडा गांव स्थित एनएच 98 के किनारे गांधी आश्राम की नींव गांधी जी के दशगात्र के दिन 1948 में रखी। यह आज भी कायम है।

10 वर्षो तक की सरकारी सेवा
भारत को आजाद होने के बाद स्थानीय जिला प्रशासन की पहल पर स्व. विश्वकर्मा ने नौकरी भी की। वे गांव स्थित कंडा के डाकघर में 10 वर्षो तक सेवा की। वे नौकरी में बंधे रहना नहीं चाहते थे। वे नौकरी को छोड़कर समाज सेवा में कूद पड़े। इससे उनकी लोकप्रियता क्षेत्र में दिन प्रतिदिन बढ़ती गई। वे जीवन के अंत तक समाज सेवा के क्षेत्र में जुटे रहे।

1857 के गदर का गवाह राजहरा का बरगद

 गुलाम भारत को आजाद कराने के लिए देश के कोने-कोने में अलग-अलग लड़ाई लड़ी गई। इसमें हजारों लोगों को फांसी दी गई। मां ने बेटे को, पत्नी ने पति को व बहनों ने अपने भाई को खोया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कई लोग इतिहास के पन्नों में अपनी गाथा अमर कर गए। इनका गर्व से देश में नाम लिया जाता है। सैकड़ों शहीद होने के बावजूद गुमनाम रह गए। गुमनाम रहने वाले शहीदों में पलामू जिला के नावाबाजार प्रखंड का राजहरा गांव भी हैं। आजादी के सात दशकों बाद भी यह अब तक गुमनाम है। इस क्षेत्र ने 1857 के गदर में अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। 1857 ई.में गदर का गवाह बना है राजहारा कोठी स्थित बरगद का विशाल बूढ़ा पेड़। यहां 200 से ज्यादा लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था। इसका उद्देश्य  था 1857 के गदर  में भाग लेने वाले लोगों को दबाना। इस बरगद के पेड़ के नीचे रह वर्ष नवंबर माह की 27 से 29  तारीख तक लोग श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

जुल्म के खिलाफ लोगों में था उबाल

खंडहर में तब्दील अंग्रेजों की कोठी 1857 की गदर में लोगों पर हुए जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने वाले शहीदों की याद दिलाता है। जानकारी के अनुसार 1857 के पूर्व राजहारा क्षेत्र में बंगाल कोल कंपनी का माईंस संचालित था। इस पर अंग्रेजों का अधिकार था। 1857 ई. में  देश में ढाए जा रहे जुल्म के प्रति मजदूरों में उबाल आया। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ राजहारा कोलियरी के मजदूरों ने आवाज बुलंद की। आस-पास के गांव के सैकड़ों लोग राजहरा कोठी स्थित अंग्रेजों के बंगला को घेर लिया। माइङ्क्षनग कार्य बंद कर आजादी की लड़ाई का बिगुल फूंक दिया। अंग्रेजों ने इन्हें फांसी पर लटका दिया।

27 से 29 नवंबर 1857 तक काला दिन

रजहरा में  प्रथम स्वंतत्रता की लड़ाई में शामिल लोगों को फांसी दिए जाने के साक्षी विशाल बरगद का पेड़ आज भी जीवित है। इसका वर्णन स्थानीय इतिहासकार  डॉ. बी.निरोत्तम ने किया है। लिखित पुस्तक झारखंड का इतिहास व संस्कृति में बताते हैं कि 27 से 29 नवंबर 1857 के  तीन दिन राजहारा के लिए काला दिन साबित हुआ। 27 नवंबर 1857 को पारंपरिक हथियार व बंदूकों से लैस कई हजार आंदोलनकारी का जत्था राजहारा पहुंचा। यहां बंगाल कोल कंपनी माइङ्क्षनग का काम कर रही थी। आजादी के दीवानों ने बंगाल कोल कंपनी को जला दिया। साथ ही मशीनों को बर्बाद किया। इसमें दर्जनों  बहुसंख्यक ब्राह्मण गांव के बसे ब्राह्मण सहित भोक्ता व खरवार मौजूद थे। सभी विश्रामपुर राजपरिवार के भवानी बक्सराय की देखरेख में आगे बढ़ रहे थे। इनमें से लगभग 200 राष्ट्रभक्तों को 27 नवंबर 1857 को गिरफ्तार कर लिया गया।  28 व 29 नवंबर को राजहरा कोठी स्थित बरगद के पेड़ में फांसी दे दी गई। लोगों की माने तो शहीद क्रांतिकारियों के परिजन को इसकी सूचना भी नहीं दी गई। आजादी की पहली लड़ाई में फांसी पर चढ़े वीर शहीदों के परिजनों व आश्रितों की खोज खबर भी नहीं ली गई। इस लिए आज ये सभी शहीद गुमनाम बनकर रह गए।

 लोगों की जुबानी गदरकी कहानी

राजहारा गांव निवासी रङ्क्षवद्र पांडेय ने बताया उनके पूर्वज बताते हैं कि कोल कंपनी  अंग्रेजों की देखरेख में  संचालित था। इस पर 1857 ईस्वी में  अधिकार भी था। विद्रोह के समय  स्थानीय  लोगों सहित  आसपास के दर्जनों गांव के लोगों ने अंग्रेजों की  वर्तमान गतिविधि के खिलाफ  आंदोलन किया। कंपनी को भारी नुकसान पहुंचाया।  अंग्रेजी हुकुमत ने इन्हें पकड़कर राजहारा कोठी स्थित बरगद के पेड़ पर लटका कर फांसी दी गई थी। संख्या स्पष्ट नहीं हो पाता है । रामाकांत पांडेय ने कहा कि 1857 में हुए विद्रोह की स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पाती है। हां यहां एक आंदोलन हुआ था। इसमें कई लोगों की जाने गई थी। वह कौन थे और कहां से आए थे इसकी जानकारी स्पष्ट नहीं हो पाती। राजहारा निवासी बंशीधर पांडेय ने बताया कि वे अपने दादा राम चरित्र पांडेय व पिता मुनी पांडेय से राजहारा कोठी स्थित शहीदों की कहानी सुनी है। राजहरा कोठी की घटना सही है। इसमें कितने लोगों को फांसी दी गई जानकारी नहीं। ऐसी जगह की पहचान विश्व पटल पर मिलनी चाहिए।