डॉ चंद्रकांत वर्मा
छोटानागपुर के पठारी क्षेत्रों में अनेक
प्रकार के आदिवासी कबीले निवास करते हैं, ये आदिवासी झारखंड राज्य के
प्रायः सभी जिलों में निवास करते हैं। यह क्षेत्र मुख्यतः पहाड़ी तथा जंगली
पठार है इसका कुछ भाग समतल भूमि और चिकनी मिट्टी की भी है तथा आबादी भी
घनी है। इन क्षेत्रों में मुख्यतः ग्रामीण लोग रहते हैं तथा वैदिक काल से
ही यह भारतीय सभ्यता का केन्द्र रहा है। झारखण्ड का जनजातीय क्षेत्र
मूगर्भशास्त्र की दृष्टिकोण से राजमहल, साहेबगंज, दुमका, गोड्डा, देवघर,
सिमडेगा, लोहरदगा, चाईवासा, पलामू सिंहभूम आदि क्षेत्रों में निवास करते
हैं। झारखंड राज्य में लगभग 30 प्रकार की जनजातियां रहती हैं। इनमें
संथाल, असुर, बिरहोर, कोरवा आदि प्रमुख जनजातियां हैं। ये जनजातियों केवल
गैर-आदिवासियों से ही भिन्न नहीं बल्कि एक दूत्तरे से भी भिन्न हैं। ये लोग
एक दूसरे से नस्ल, सामाजिक संगठन, भाषा, अर्थव्यवस्था तथा संस्कृति में भी
भिन्न है। कुछ ऐसी भी जनजातियों हैं जिनका न तो कोई स्थायी निवास स्थान है
और न कोई स्थायी आय का साधन ही।
ये
लोग भोजन की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकते फिरते हैं और इस
प्रकार इनके गृह द्वार में भी परिवर्तन होते रहता है। इनमें से कुछ
जनजातियाँ कृषि एवं शिकार पर अपना जीवन निर्वाह करती हैं। कृषि में धान,
गेहूँ, बाजरा, महुआ, मकई तथा कुछ तिलहनी फसल भी लगाते हैं। इसके अतिरिक्त
जंगलों से विभिन्न प्रकार के जंगली जानवरों तथा पक्षियों का शिकार करते
हैं। इससे भी जब समय बचता है तो विभिन्न प्रकार के कन्दमूल, फल के पत्ते,
दतवन, के फूल एवं फल लाकर बाजारों में बेचते हैं। इन सब कार्यों के लिए
इन्हें सुबह से शाम तक का समय लगता है। इस बीच उन्हें कडी धूप एवं वर्षा का
भी सामना करना पड़ता है। लगातार काम करते रहने से एवं स्नान न कर पाने के
कारण आदिवासियों एवं गैर मजदूरों के शरीर पर एक विशेष प्रकार की फफूँद एवं
कीटाणु (जीव) शरीर के त्वचा पर उत्पन्न हो जाते हैं। जो शरीर एवं उनके
स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाते हैं। जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ जाने का खतरा
बना रहता है।
धूप
आदिवासियों एवं वैसे मजदूर जो दिन भर खेतों एवं जंगलों में कड़ी धूप में
काम करते हैं या घूमते रहते हैं के स्वास्थ्य के लिए कुछ वैज्ञानिक कारणों
की वजह से लाभकारी है। धूप त्वचा पर जमी एक विशेष प्रकार की फफूँद और
बैक्टीरिया नामक जन्तु नष्ट करती है। आदिवासी जो दिन भर धूप में कोई न कोई
काम करते हैं, उनके शरीर की त्वचा पर लगी फफूंद और बैक्टीरिया जैसे जन्तु
को धूप नष्ट करती है, जो स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। इस तरह धूप झारखण्ड
के आदिवासियों के लिए एक प्रकार की औषधि का काम करती है।
विटामिन
डी की कमी से ही बच्चों में विभिन्न स्तर के रिकेट्स (Rekets) की बीमारी
तथा वयस्कों में ऑस्टिओमेलेशिया (Osteormalasia) नामक रोग उत्पन्न होती है।
चूँकि विटामिन डी शरीर में मुख्य रूप सेकैल्सियम एवं फास्फोरस के अवशोषण
तथा उपयोग में सहायता करता है, इसलिए इसकी कमी कैल्सियम एवं फास्फोरस की
परोक्ष रूप से शरीर में कभी उत्पन्न कर देती है। फलस्वरूप उक्त व्याधियं
उत्पन्न होती है । इसकी कमी दूर करने के लिए नवजात शिशुओं को कुछ समय के
लिए खुले बदन धूप का सेवन कराया जाता है। इससे शिशुओं के शरीर में विटामिन
डी
की पूर्ति होती है। इसके अतिरिक्त धूप मानव के श्वेत कणों की सक्रियता
बढ़ाती है जिससे शरीर की प्रतिरक्षा क्षमता बढ़ती है।
जब धूप शरीर की त्वचा पर पडती है तो कुछ तत्व रक्त
में प्रवेश कर उसे नई शक्ति देते हैं। इससे शरीर तरोताजा सा महसूस होता है।
पेशियां अधिक तन जाती हैं और बेहतर काम करने के लायक शरीर में स्फूर्ति
पैदा होती है। एक तरह से हमारे स्नायु तंत्र को धूप से अतिरिक्त चेतना
मिलती है जिससे हम अधिक सजग हो जाते हैं और हमारी क्रियाशीलता बढ जाती है।
त्वचा में एस्टरोल नामक एक पदार्थ होता है को सूर्य की
पराबैंगनी किरणों के प्रभाव से विटामिन डी में बदल जाता है। विटामिन डी से
हडिड्यां अधिक विकसित होती है
जो शरीर के लिए लाभप्रद हैंा यही कारण ह कि आदिवासियों गैर आदिवासियों की
अपेक्षा अधिक ताकतवर एवं स्वस्थ होते हैं।
पेड
पौधों में हमने देखा है कि इसके पत्तों एवं तनों में कई प्रकार के कीडे
-मकोडे तथा कीट
पतंग लग जाते हैं। ये कीडे मकोडे तथा कीट पतंग पौधों में लगकर नुकसान करते
हैं तथा पौधों को बढने से अवरुद्ध करते हैं। कभी कभी उसमें इतने कीडे
मकोडे लग जाते हैं कि उस पर दवा का छिडकाव करना पडता है। यदि इन पेडों को
बराबर ठीक ढंग से धूूप मिलता रहे तो पेड पौधों की कीड़े
मकोडे से छुटकारा पाया जा सकता है। यह कीडे मकोडे तथा कीट पतंग अधिकांशत:
वर्षा ऋतु में ही देखने को मिलते हैं। इस ऋतु में धूप ठीक ढंग से पेड पौधों
को नहीं मिल पाती है। ग्रीष्म ऋतु में कीडे मकोडे पेड पौघों में देखने को
नहीं मिलते हैं, इसका कारण यह है कि ग्रीष्म ऋतु में पेड पौधाे को
पर्याप्त धूप मिलती रहती है। यही वजह है कि ग्रीष्म ऋतु में पेड पौधों
में कीडे मकोडे बिल्कुल नहीं दिखाई देते हैं।
अत: निष्कर्ष: के तौर पर हम कह सकते हैं कि धूप मनुष्य के साथ साथ पेड पौधों के लिए भी अत्यंत आवश्यक है। एक ओर जहां आदिवासियों तथा बच्चों को कई प्रकार के रोगों से बचाती है वहीं दूसरी ओर पेड पौधों के समुचित विकास में धूम काफी मदद करती है।
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