किसानों में भ्रमण

 पं. जवाहरलाल नेहरू


तीन दिन तक मैं गाँवों में घूमता रहा, और एक बार इलाहाबाद आकर फिर वापस गया । हम गाँव गाँव घूमे किसानों के साथ खाते, उन्हीं के साथ उनके कच्चे झोंपड़ों में रहते, घंटों उनसे बातचीत करते और कभी कभी छोटी-बड़ी सभाओं में व्याख्यान भी देते । शुरू में हम एक छोटी मोटर में गये थे । किसानों में इतना उत्साह था कि सैकड़ों ने रात-रात भर काम करके खेतों के रास्ते कच्ची सड़क तैयार की, जिससे मोटर ठेठ दूर-दूर के गाँवों में जा सके । अक्सर मोटर अड़ जाती और बीसों आदमी खुशी-खुशी दौड़कर उसे उठाते । आख़िर को हमें मोटर छोड़ देनी पड़ी और ज्यादातर सफ़र पैदल ही करना पड़ा ; जहाँ कहीं हम गये, हमारे साथ पुलिस के लोग, खुफ़िया और लखनऊ के डिप्टी कलेक्टर रहते थे । मैं समझता हूँ, खेतों में हमारे साथ दूर-दूर तक पैदल चलते हुए उनपर एक प्रकार की मुसीबत आ गयी होगी। वे सब थक गये थे | हमसे और किसानों से बिलकुल उकता उठे थे । डिप्टी कलेक्टर ये लखनऊ के एक नाजुक मिज़ाज़ नौजवान और पम्प शू पहने हुए थे । कभी-कभी वह हमसे कहते कि जनरा धीरे चलें । मैं समझता हूँ, आख़िर हमारे साथ चलना उन्हें दुश्वार हो गया और वह रास्ते में ही कहीं रह गये ।

जून का महीना था जिसमें सबसे ज्यादा गर्मी पड़ती है बारिश के पहले की तपिश थी । सूरज की तेज़ी बदन को झुलसाये देती थी और आँखों को अंधा बनाए देती थी। मुझे धूप में चलने की बिलकुल आदत न थी और इंग्लैंड से लौटने के बाद हर साल गर्मियों में मैं पहाड़ पर चला जाया करता था। किन्तु इस बार मैं दिन-भर खुली धूप में घूमता था और सिर पर धूप से बचने को हैट भी न था। सिर्फ एक छोटा तौलिया सिर पर लपेट लिया था । दूसरी बातों में मैं इतना मशगूल था कि धूप का कुछ ख़्याल भी नहीं रहा; और इलाहाबाद लौटने पर जब कहीं देखा तो मेरे चेहरे का रंग कितना पक्का हो गया था । और फिर मुझे  याद पड़ा कि सफ़र में क्या-क्या बीती । लेकिन इस बात पर मैं अपने-आप खुश हुआ; क्योंकि मुझे मालूम हो गया कि बड़े-बड़े मजबूत आदमियों के बराबर मैं धूप को बर्दाश्त कर सका और जो मैं उससे डरता था उसकी ज़रूरत नहीं थी। मैंने देख लिया है कि मैं कड़ी से कड़ी गर्मी और कड़े से कड़े जाड़े को बिना ज्यादातकलीफ़ के बर्दाश्त कर सकता हूँ। इससे मुझे अपने काम में तथा जीवन बिताने में बड़ी मदद मिली । इसकी वजह यह थी कि मेरा शरीर आम तौर पर मजबूत और काम करने लायक था और मैं हमेशा कसरत किया करता था। इसका सबक मैंने पिताजी से सीखा था जो थोड़े कसरती थे और करीब करीब आखिरी दिनों तक जिन्‍होंने अपनी रोजाना कसरत जारी रखी थी। उनके सिर पर चांदी से सफेद बाल हो गये थे, चेहरे पर झुर्रियां पड गई थीं और विचार करते-करते बूढे दिखाई देते थे। मगर उनका शरीर मृत्‍यु के एक दो साल पहले तक उनसे बीस बरस कम उम्र के आदमी का जान पडता था।
 जून 1920 में परतापगढ जाने के पहले भी मैं गांवों से अक्‍सर गुजरता था। वहां ठहरता था और किसानों से बातचीत भी करता था। बडे बडे मेलों के अवसर पर गंगा किनारे हजारों देहातियों को मैंने देखा थ कि उनमें होमरूल का प्रचार किया था लेकि उस समय मैं यह अच्‍छी तरह न जानता था कि दरअसल वे क्‍या हैं, और हिंदुस्‍तान के लिये उनका क्‍या महत्‍व है।  हममें से ज्‍यादातर लोगों की तरह मैं भी उनके बारे में कोई विचार न करता था। यह बात मुझे परतापगढ की यात्रा में मालूम हुई और तब से हिंदुस्‍तान का जो चित्र मैंने अपने दिमाग में बना रखा है, उसमें हमेशा के लिये  इस नंगी-भूखी  जनता के लिये स्थान बन गया है । संभवतः उस हवा में बिजली थी । शायद मेरा दिमाग उसका असर अपने पर पड़ने देने के लिये तैयार था । और उस समय जो चित्र मैंने देखे और जो छाप मुझ पर पड़ी वह मेरे दिल पर हमेशा के लिये अमिट हो गई ।

 इन किसानों की बदौलत मेरी झेंप निकल गई और मैं सभाओं में बोलना सीख गया | तब तक शायद ही किसी सभा में बाेला होऊँ । अक्सर हमेशा हिन्दुस्तानी में बोलने की नौबत आती थी और उसके ख़याल से मैं दहशत खाया करता था । लेकिन मैं किसान सभाओं में बोलने को कैसे टाल सकता था ? और इन सीधे-सादे ग़रीब लोगों के सामने बोलने में झेंपने की क्या बात थी ? मैं वक्तृत्व कला तो जानता न था । इसलिये उनके साथ एकदिल होकर बोलता और मेरे दिल और दिमाग में जो कुछ होता था, वह सब उनसे कह देता था । लोग चाहे थोड़े हों या हजारों की तादाद में हों, मैं हमेशा बातचीत के या जाती (व्यक्तिगत ) ढंग से ही उनके सामने बोलता, और मैंने देखा कि चाहे कुछ कमी भी उसमें रह जाती हो, लेकिन मेरा काम चल जाता था । मेरे व्याख्यान में प्रवाह काफ़ी रहता था। मैं जो कुछ कहता था, शायद बहुत कुछ हिस्सा उनमें से बहुतेरे समझ नहीं पाते थे । मेरी भाषा और मेरे विचार इतने सरल न थे कि वे समझ सकते । बहुत लोग तो मेरा भाषण सुन ही न पाते थे ; क्योंकि  भीड़ तो भारी होती थी और मेरी आवाज़ दूर तक नहीं पहुँच पाती थी । लेकिन जब कि वे किसी एक शख़्स पर भरोसा और श्रद्धा कर लेते हैं, तब इन सबकी ज्यादा परवाह नहीं रहती ।
 
फोटो साभार https://twitter.com/babelepiyush/status/1338542034966048768

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