बिरसा के आंदोलन को हम तीन चरणों में देख सकते हैं-समाज सुधार, नए धर्म के
प्रवर्तक और आं
दोलनकारी। बिरसा ने मुंडा समाज के भीतर पनपीं सामाजिक
बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया। उसने हिंदू धर्म और ईसाई दोनों का
अध्ययन किया। हालांकि बिरसा मुंडा की प्रारंभिक शिक्षा भी मिशन स्कूल में
हुई थी। जब 12 साल की उम्र में बिरसा का बपतिस्मा हुआ तो नाम रखा गया दाउद।
हालांकि बाद में मोहभंग हो गया। वे हिंदू धर्म के संपर्क में आए। जनेऊ धारण
किया। लेकिन दोनों से अलग बिरसा ने अलग पंथ बिरसाइत धर्म चलाया। उसने बलि
प्रथा का विरोध किया। उसने गुरुवार को प्रार्थना अनिवार्य किया। इस दिन कोई
काम नहीं। हल जोतने की इस दिन मनाही की। जब ब्रिटिश सत्ता ने 1895 में
उन्हें गिरफ्तार किया तो धार्मिक गुरु के रूप में मुंडा समाज में स्थापित
हो चुके थे। दो साल बाद जब रिहा हुए तो अपने धर्म को मुंडाओं के समक्ष रखना
शुरू। बिरसा ने पहले 12 शिष्य बनाए और उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचार के लिए भेजा।
इधर, मुंडा समाज अपनी जमीन से हाथ धो रहा था। तरह-तरह के कर से परेशान था।
बिरसा मुंडा में उसने अपना मुक्तिदाता दिखाई दिया। तब बिरसा की उम्र 20 साल
थी। छह अगस्त 1895 को चौकीदारों ने तमाड़ थाने में यह सूचना दी कि 'बिरसा
नामक मुुंडा ने इस बात की घोषणा की है कि सरकार के
राज्य का अंत हो गया
है।Ó इस घोषणा को अंग्रेज सरकार ने हल्के में नहीं लिया। वह बिरसा को लेकर गंभीर हो गई।
15 नवंबर, 1875 को खूंटी जिले के उलिहातु में जन्मे बिरसा मुंडा ने मुंडाओं
को जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए बलिदान देने के लिए प्रेरित किया।
गांव-गांव सामाजिक चेतना और स्वाभिमान की ज्योति जलाई। स्वाधीनता का स्वर
बुलंद किया। इसके पूर्व क्षेत्र में सरदार आंदोलन सुस्त हो गया था। यह
आंदोलन भी ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ और जल, जंगल, जमीन के लिए ही था। उस समय
अपनी जमीन की रक्षा के लिए बहुतेरे मुंडा ईसाई बने ताकि उनकी जमीन की रक्षा
हो सके। कई फादर इन्हेंं कानूनी सहायता भी उपलब्ध कराते, लेकिन न्याय नहीं
मिल पा रहा था। इसलिए, ईसाई धर्म के प्रति भी इनका मोहभंग हो गया। अदालत ने
भी इनकी कोई मदद नहीं की। इसी बीच इस इलाके में दो बार अकाल ने भी दस्तक
दी-1896-97 व 1899-1900। इस अकाल में भी बिरसा मुंडा ने गांव-गांव में
लोगों की मदद की। इससे भी बिरसा के प्रति मुंडा समाज का विश्वास दृढ़ होता
गया। जब नौ जून 1900 को बिरसा ने रांची जेल में शहादत दी तो बिरसा के
अनुयायिायों को यह विश्वास था कि बिरसा फिर लौटकर आएंगे। इस विश्वास ने
गांवों में आंदोलन को कभी ठंडा होने नहीं दिया। ब्रिटिश सरकार को भी यह बात
समझ में आ गई कि छोटानागपुर में शासन करने के लिए इनके पारंपरिक अधिकारों
की रक्षा जरूरी शर्त होगी। इसका नतीजा यह हुआ कि ब्रिटिश सरकार ने 1908 में
छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम को लागू किया।
ब्रिटिश सरकार 25 साल के बिरसा मुंडा से कितनी डरी हुई थी कि रांची जेल में
कथित बीमारी से मृत्यु के बाद रात में आनन-फानन में कोकर के डिस्टिलरी पुल
के पास अंतिम संस्कार कर दिया। बिरसा मुंडा का पूरा आंदोलन मात्र पांच साल
तक चला-1895 से लेकर 1900 तक। इन पांच सालों में बिरसा मुुंडा कई रूपों में
देखे जा सकते हैं। पांच साल के इस छापामार युद्ध ने अंग्रेजी सत्ता को
बाध्य कर दिया कि उनके जमीन की रक्षा के लिए कानून बनाए। इसलिए, बिरसा की
मृत्यु और उनके अनेक साथियों के पकड़े जाने के बाद भी अंग्रेज यह नहीं कह
सकते थे कि इस आंदोलन में जीत उनकी हुई है। इस आंदोलन ने छोटानागपुर के
जनजातियों में जागरूक करने काम किया। बिरसा के बलिदान के बाद स्वाधीनता की
चाह बढ़ती गई। बिशुनपुर में टाना भगतों का आंदोलन शुरू हो गया। यह आंदोलन
पूरी तरह अहिंसक था। 1940 में रामगढ़ में हुए कांग्रेस अधिवेशन के मुख्य
द्वार का नाम बिरसा द्वार रखा गया, जो बताता है कि बिरसा की स्मृति क्षीण
नहीं हुई है। क्षेत्र में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम को भी बिरसा मुंडा के
आंदोलन ने प्रभावित किया। बिरसा आजाादी के नायक के तौर पर उभरे। 1940 तक तो
छोटानागपुर के पठार पर बिरसा की स्मृति में कार्यक्रम होने लगे और आगे चलकर
देश की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया। एक 25 साल के युवक ने मुंडा जनजाति ही
नहीं, झारखंड में रहने वाली 32 जनजातियों में स्वाधीनता की चेतना को जगाने
का काम किया। 1900 से 1947 के बीच आजादी की चाह में पठार आंदालित रहा तो
इसके पीछे मुख्य कारण बिरसा मुंडा का आंदोलन ही रहा। क्षेत्रीय राजनीतिक
आंदोलनों पर भी बिरसा मुंडा के आंदोलन का प्रभाव रहा। 1916 में छोटानागपुर
उन्नति समाज की स्थापना की गई। 1938 में आदिवासी महासभा का गठन हुआ। इस तरह
देखें तो पूरे अंचल में आदिवासी आरंभ से ही अपनी स्वाधीनता को लेकर अत्यंत
सजग रहे और आज भी झारखंड के कई हिस्सों में चल रहे आंदोलन में इसे देखा जा
सकता है। आदिवासी किसी पर निर्भर नहीं रहे। प्रकृति के संग-साथ रहे और
सामूहिकता इनके जीवन का आधार रहा है। स्वावलंबन इनकी सांस्कृतिक चेतना का
हिस्सा है। देश की आजादी के लिए सर्वाधिक बलिदान भी आदिवासियों ने ही दिए।
देश की आजादी के लिए बिरसा का आंदोलन एक स्वर्णिम अध्याय रहा, जिसे भारतीय
इतिहास के पृष्ठों पर उचित और अपेक्षित स्थान नहीं मिला। पर, सौ सालों में
बिरसा देश के आदिवासी युवाओं के आइकान जरूर बन गए। झारखंड जब बिहार से अलग
हुआ तो बिरसा जयंती (15 नवंबर)को ही चुना गया। जिस जेल में बिरसा मुंडा ने
अंतिम सांस ली, उसका नाम बाद में बिरसा जेल कर दिया गया और अब बिरसा की
स्मृति में उसे संग्रहालय का का रूप दिया जा रहा है। बिरसा का महत्व इसलिए
भी है कि उसने क्रांति की मशाल भी जलाई और एक नए धर्म को आकार देकर समाज की
बुराइयों को दूर करने का भी प्रयास किया। भारतीय इतिहास में ऐसे नायक विरले
ही मिलेंगे जो कई मोर्चे पर लड़े और सफल रहे। अनुज कुमार धान ने ठीक ही
लिखा है कि बिरसा देश के अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी थे। पच्चीस वर्ष की
अल्प आयु में इतिहास के चौखट को लांघनेवाला, यह अमर योद्धा संस्कृति, समाज
और आदि धर्म का रखवाला भी था।
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