संताल विद्रोह 1855-56 और वह भयानक दौर

-आर ई बार्टन जोन्स, बीरभूम 


हमारा परिवार उन दिनों बीरभूम में रहता था। परिवार में पिता, मां, दो महिलाएं और मैं और मेरी बहन के अलावा पांच बच्चे थे। इस बात को मैं यहीं छोड़कर मूल बात पर आती हूं। वहां के शांत, स्निग्ध वातावरण के अलावा मनभावन संताल लोकगीत जैसे अचानक भयावह भीड़ में तब्दील हो गए। भीड़ की जद में जो भी आया लूटपाट, हिंसा, कत्ल और तबाही का शिकार हो गया। जमींदार, स्थानीय निवासी-चाहे वे हिंदू हों कि मुस्लिम या यूरोपियन, सभी का बेरहमी से कत्ल किया जा रहा था, उनकी धन-संपति बर्बाद की जा रही थी।

शांत-सुरक्षित हमारा जीवन किसी भी खतरे से बेपरवाह था, क्योंकि हमारे माता-पिता को वहां का हर वर्ग बहुत सम्मान देता था। आधिकारिक सूत्र हमें आगाह कर रहे थे लेकिन हमारे मन में किसी के प्रति अविश्वास करने का कोई कारण न दिखता था। यही हमारा भ्रम था। कुछ अन्य शुभचिंतकों ने भी हमें सचेत किया था लेकिन ईमानदार, निश्छल और विनम्र स्थानीय निवासियों से हमें कोई खतरा महसूस नहीं हो रहा था। हमारे परिवार सहित कुछ अन्य मूर्खता की हद तक उन पर भरोसा कर रहे थे। हम उन ईमानदार किंतु कुछ-कुछ वहशी लोगोें के बीच अपनी जिंदगी में एकदम आश्वस्त थे।

काश! यह सिलसिला लंबा न चलता

 एक शाम एक अत्यंत विश्वसनीय पड़ोसी बदहवास सा भागता हुआ हमारे घर में घुसा। उसके चेहरे से हताशा साफ-साफ झलक रही थी। उसको देखते ही हम भयाक्रांत हो गए। वह चिल्लाते हुए बोला, ‘भागो। ईश्वर के लिए भाग जाओ। बिना कोई वक्त गंवाए, तुरंत निकल लो। वे लोग नदी के उस पर जमा हो गए हैं। वे किसी भी क्षण नदी पार कर सकते हैं। उनके शिकार या तो गंभीर जख्मी हालत में या मृतावस्था में लाए जा रहे हैं। वे किसी को नहीं बख्श रहे। भागो, कम से कम बच्चों के लिए भाग जाओ। जो दृश्य मैं देखकर आ रहा हूं, तुमलोगों ने देखा होता तो निश्चय ही भागने में एक क्षण भी विलंब न करते। मेरा घोड़ा तैयार है। मैं थक चुका हूं।’

यह पूछे जाने पर कि तुम कहां जा रहे हो, उसने कहा,‘मैं बता नहीं सकता। इन मित्रों की हत्यारी पहुंच से दूर, बहुत दूर।’

इतना कहकर वह भागता भागा।

निराशा में डूबते-उतराते हमने एक क्षण के लिए एक-दूसरे को बेहद चिंतित भाव से देखा। पिता यह बोलकर, ‘हम ईश्वर को याद करें और उनका मार्गदर्शन मांगेें’ ध्यान में डूब हमारे लिए प्रार्थना करने लगे। कुछ देर बाद वे सचेतन हो धीमे से बोले, एक अनिश्चित यात्रा के लिए कुछ साथ रख लो। अपने एकमात्र नौकर को बुलाकर उन्होंने इस अचानक की यात्रा के लिए सवारी पर विमर्श किया। संतान विहीन वह नौकर अपने पारिवारिक संबंधों से मुक्त हो चुका था। जब वह सवारी का प्रबंध करने निकला तो हमने अत्यंत आवश्यक कुछ सामग्री और बच्चों के लिए कुछ खाद्य पदार्थ जमा कर लिये।

करीब घंटा भर बाद उदास भाव से वह आदमी लौटा। उसकी चोटियां बिखरी हुई थीं। उसने बताया कि बड़ी मुश्किल से वह दो बैलगाड़ियां जुगाड़ पाया है, बाकी तो सपरिवार भाग रहे हैं और कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं। हालांकि बहुत विचार करने के बाद हमने सोचा कि जहां हैं, वहीं रहें लेकिन पिता ने ऐसा करने से बेसाख्ता मना कर दिया। हमने बर्दवान जाने का मन बनाया तो पिता ने ठीक उलटी दिशा में एक पुराने जमींदार के यहां आश्रय लेने की बात कही। उन्होंने कहा कि जबतक यह तूफान थम नहीं जाता, जमींदार हमें छिपाकर सुरक्षित आश्रय देने मंे सक्षम है। वह हमें तेज सवारियां भी मुहैया करा सकता है ताकि हम जल्द से जल्द जिले से बाहर जा सकें। पिता ने यह भी कहा कि वे जमींदार के आश्रय से निकलने के बाद की यात्रा में शामिल हो जाएंगे, तबतक यहीं रहेंगे। तबतक यहां रहकर वे घटनाओं पर नजर रखेंगे।

बहुत हड़बड़ी और जल्दबाजी के बावजूद हम मुंहअंधेरे से थोड़ा पहले निकल सके। विद्रोही या वहशी जो कहें, नदी के पार खाने-पीने के उत्सव में निमग्न रहे, इस कारण हमें थोड़ा वक्त मिल गया और हम जमींदार के आवास तक पहुंच गए। इसके पहले हम करीब घंटा भर मुख्य सड़क पर चलने के बाद साल और झाड़ियों के जंगल के रास्ते वहां पहुंच सके थे। इस पूरी यात्रा में हालांकि हम संतालों से तो सुरक्षित थे किंतु हमारा दिल धड़कता रहा। थोड़ी सुरक्षा और आश्वस्ति के बावजूद जंगली जानवरों की दहाड़ से उत्पन्न यातना और संताप से अक्सर दिल डूबने लगता था।

जैसे रात बीती, वैसे ही दिन निकलने पर भी हम भय, दुश्चिंता और अवसाद से मुक्त नहीं हो सकते थे। ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद कि रात ढलने पर हम अपने ठिकाने पर पहुंच ही गए। वहां प्रतापी जमींदार ने हमारा बहुत ही अपनापन, रहमदिली और गर्मजोशी से स्वागत किया। उन्होंने अपना पूरा दफ्तर (रिट्रिट) हमारे इस्तेमाल के लिए सौंप दिया। यह एक बहुत बड़ा कमरा था, जिसके चारों तरफ विशाल बरामदे थे। इसमें आराम और निजता की सारी सुविधाएं उन्होंने बहाल कर रखी थी। किसी दूसरी जगह इतनी सुविधा से हम नहीं रह सकते थे।

एक सुनहरी सुबह हम अजीबोगरीब मौन और धुंधली बेचैनी से घिर गए। वह बुजुर्ग हर दिन की तरह सुबह की खबरें और गुड मार्निंग करने भी नहीं आया। उसको हमने दफ्तरी पहनावे में वहां देखा। वह चमकदार केले के तने के नीचे आमतौर पर वर्षा के दिनों को छोड़कर सार्वजनिक स्थान पर खड़ा रहता था। आज भी वैसे ही खड़ा था। उसके कई लोग वहां जुटे हुए थे। ओह, हमारा दिल यह सोचकर ठंडा हुआ जा रहा था कि उनमें तीर-धनुष से लैस दो-तीन जन भी थे और वे जमींदार का इंतजार कर रहे थे।

हमने अपने एक चतुर नौकर को वहां कुली के वेश में भेजा ताकि वह उनमें घुल-मिल जाय और वहां चल रही बातों और गतिविधियों को सुन-समझकर हमें बताए। करीब आधा घंटा बाद वहां का जमावड़ा खत्म हो गया और हमारा नौकर बहुत बच-बचाकर छिपते हुए लौटा। उसकी बातें सुनकर मां ने उसे तुरंत बाहर भेजा ताकि वह हमारे लिए सवारी का जुगाड़ कर सके। मां ने हमें हिदायत दी कि हम अपना सारा सामान अगली यात्रा के लिए समेट लें।

उधर हमारे मेजबान उदास दिवास्वप्न में डूबे हुए थे, जिनके लिए हमने बुलावा भेज रखा था। वे हिलते कदमों से आए और दोनों हाथ बांधे बैठ गए। वे बोले, ‘मैं लज्जा और अपमान से मरा जा रहा हूं लेकिन जबतक मेरा जीवन रहेगा, आप लोगों का कोई नुकसान नहीं होने दूंगा’।

मेरी मां ने पूछा,‘क्या हो गया’? ‘मैंने हथियारबंद कुछ संतालों को देखा और मुझे आशंका है कि यहां हमारी मौजूदगी ने आपको परेशानी में डाल दिया है।’

‘हां, एक संगठन के लोगों ने हमें मार डालने का हुक्म दिया है लेकिन जो लोग यहां आए थे, वे हमारे शुभचिंतक हैं। उन्होंने हमें सावधान किया है। वे हमले में विलंब कराने का प्रयास करेंगे। हमारी सारी सामग्री जनानखाने में डाल दी जाय। हम हर हाल में प्रतिरोध और आत्मरक्षा का प्रयास करेंगे।’

चूंकि अपने परिवार में मैं अकेली थी, जो अच्छी तरह हिंदुस्तानी बोल-समझ सकती थी, इसलिए मैं उस बुजुर्ग महानुभाव की चहेती थी। वे हर दिन कुछ घंटे मुझसे बातचीत में बिताते थे क्योंकि वे जो भी जानकारियां चाहते थे, मैं विशेष तत्परता से उनको उपलब्ध कराती थी। इतना ही नहीं, अपनी मां की एकदम अलग हिंदुस्तानी से भी उनको अवगत कराती थी। हमलोगों में बहुत घनिष्टता थी। उनका संताप निश्चय ही समयोचित था और हम उससे बहुत प्रभावित थे।

अगले एक घंटे में दिन के 10 से 11 बजे के बीच हम अगली दुश्चिंता और भयावह यात्रा के लिए तैयार थे। ईश्वर ही जानता है कि हम कितने भयाक्रांत थे। सुनने में यह भी आ रहा था कि सेना आ रही है और वह बीरभूम में ही अपना मुख्यालय बनाएगी। विद्रोही उस शहर में नहीं घुसे थे लेकिन जिन बाहरी सड़कों पर वे गुजरे थे, हमें जाना उन्हीं सड़कों से होकर था। वे अपने पीछे या तो गृहविहीन जख्मी या मारे जा चुके हिंदुओं के अलावा उनके घरों के बिखरे भारी माल-असबाब छोड़ गए थे। ये वे वजनी  सामान थे, जिन्हें वे ढो नहीं सकते थे। हाल यह था कि जीवित बचे पति अपने बच्चों और पत्नी को तलाश रहे थे तो व्यग्र पत्नियां इधर-उधर दौड़तीं अपने बच्चों और पति को ढूंढ रही थीं। जरा सोचिए, हमारी यात्रा कितनी त्रासद और यातनापूर्ण रही होगी क्योंकि रास्ते में हम चीत्कार ही चीत्कार सुनने को अभिशप्त थे। कोई-कोई औरत दिल को चीर देनेवाला विलाप करती हुई चीख रही थी, घायलों और मृतकों के बीच उसके स्वजन की तलाश अब बेमतलब है क्योंकि वे खत्म हो चुके हैं।

जिन जगहों से हम रात के अंतिम पहर में गुजरे, वहां देखा कि मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं का विध्वंसक तूफान किस प्रकार हिलोरें मार चुका था। यह सब देखते-महसूस करते हमारी यात्रा के दौरान अब दोपहर के दो-तीन बज चुके थे। लेकिन ईश्वर की अनंत कृपा से हम देर करके निकले। यदि पहले निकले होते तो पागलपन की हद तक वहशी लोगों के चंगुल में फंस जाते, जो हम कतई चाहते नहीं थे। यदि हम पहले निकले होते तो रास्ते में जो भयावह दृश्य था, उससे अलग हमारे साथ क्या होता, यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

इस बीच दरिंदे विद्रोही उस स्थान को तबाह करने में जुटे रहे, जिसको छोड़कर हम इस यात्रा पर निकल चुके थे। ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है कि हमारे भले मेजबान  सपरिवार वहां से सकुशल खिसक चुके थे। यह अलग बात है कि उनके कुछ स्वजन और नौकर जिद बांधे हुए थे कि वे वहां से तबतक नहीं हिलेंगे, जबतक वे वास्तविक खतरे से दो-चार नहीं हो लेंगे। अपनी इस जिद की बड़ी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। उन पर विद्रोही संतालों का आक्रमण हुआ तो  उनके फुर्तीले घोड़ों का ही कमाल है कि उन्हें घायलावस्था में ले भागे।

जहां तक हमारे मेजबान के भाई का सवाल है, उनको इस बात का श्रेय जाता है कि इतने भीषण खतरे में भी उन्होंने आत्मसंयम नहीं खोया। उन्होंने खतरे के बीच से भागने के पहले सारा कुछ अपनी आंखों से देखा। उनका एक विद्रोही दुश्मन उनके बिलकुल करीब आ गया था और आते ही उसने कुल्हाड़ी से वार किया लेकिन वे घोड़े की जीन पर सवार होने तक उसका सामना  करते रहे। उसने पीछे से उनके पृष्ठभाग के कंधे पर टांगी से वार किया। उस समय वे निहायत अकेले पड़ गए थे, एकदम सहायताविहीन। ऐन मौके पर उनके घोड़े के पाश्र्वभाग में एक तीर लगा। इससे पगलाये घोड़े को न तो चाबुक का इंतजार रहा, न ही किसी टिटकार का। वह सरपट भागा। वह विद्रोहियों की जद से इतनी तेजी से भागा कि दूर निकल गया। हालांकि इसके बावजूद कुछ तीर दोनों का पीछा करते रहे लेकिन विद्रोहियों और उनके बीच इतनी दूरी थी कि वे तीर मामूली जख्म के अलावा न तो अधिक नुकसान नहीं पहुंचा सके, न ही अधिक खून बहा। इस स्थिति में भी यह सच है कि वे सकुशल जीवित अपने गंतव्य तक पहुंच गये। उनकी बहादुरी ही कहेंगे कि बहुत कमजोरी की अवस्था में भी वे घुड़सवारी करते रहे। यह बताते हुए मुझे खुशी हो रही है कि वे बाद में स्वस्थ हो गये और उस रिट्रिट से सभी सकुशल जीवित भाग निकले।

यह सोच-सोचकर हम प्रसन्न होते रहे कि उस रिट्रिट में हम अधिक समय तक नहीं रूके और खतरे का आभास होते ही समय रहते निकल गए। इससे उन विद्रोहियों की मंशा धरी रह गई। ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद कि भीषण खतरे के बावजूद उन्होंने हमें बचा लिया। पिता ने निश्चय किया कि ऐसी जोखिम भरी परिस्थितियों में सुरक्षित स्थान पर जाने के बजाय वहां जमे रहना ईश्वरीय कृपा की अवहेलना होगी। उनको ड्यूटी पर बने रहने की कोई ताकीद भी न थी। इसलिए हम वह स्थान छोड़ सकते थे। इस प्रकार एक-दो दिन में रास्ता खुला पाकर हम सुरक्षित बर्दवान पहुंच गए और अंततः कलकत्ता। हमारे लिए दुःस्वप्न जैसी घटना का अंत हो गया।

जब यह परेशानी बीरभूम और आसपास के इलाकों में पेश आई थी, अनेक लोग गृहविहीन हो गए थे और कुछ गरीब किसानों की हत्या हो रही थी, विध्वंस का इससे बड़ा नमूना कुछ हो नहीं सकता था। उसी समय इससे भी वीभत्स और दर्दनाक घटनाएं राजमहल और उसके बाहर अंजाम दी जा रही थीं।

जिस समय अनेक स्थान ऐसे हादसों से भयाक्रांत थे, उन दिनों विद्रोह फैलने की आशंका से दूसरी सुरक्षित जगहों पर इसकी सूचना नहीं दी जा रही थी। यही कारण है कि कई हफ्तों बाद हमें पता चल सका कि हमारे एक करीबी संबंधी और उनके एक बच्चे की मृत्यु हो गई, जबकि उनके दो पुत्र बड़े हुए। 

अनुवाद - श्‍याम किशोर चौबे। 

बंगाल पास्‍ट एंड प्रजेंट में यह संस्‍मरण प्रकाशित हुआ था। -आर ई बार्टन जोन्स के पति बीरभूम में अधिकारी थे।

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