पंद्रह पंक्तियों की कथा पर लिख डाला उपन्यास

 
संजय कृष्ण, रांची
दशमफॉल और उसके आस-पास के जंगलों में छैला संदु की कहानी आज भी विचरती है। छैला संदु नाम का कोई प्रेमी था या नहीं। या फिर यह मिथक है? यह सब किसी को पता नहीं। पर, सैकड़ों सालों से लोग इस कथा को सुनते आ रहे हैं। कहानी भी बहुत लंबी नहीं।
खंूटी के कथाकार मंगल सिंह मुंडा जब इस मिथक को पकड़ सच की तलाश में निकले तो बूढ़े-बजुर्गों ने महज 15 पंक्तियों की कथा सुनाई। पहले तो अचरज से पूछा, कहां से आए हो, क्या काम है, क्यों सुनना चाहते हो? जब मुंडा ने बात बताई और कहा कि हम आपके ही बच्चे हैं। मुंडा हैं, तब लोगों ने विश्वास किया। एक सप्ताह तक जंगलों की खाक छानने के बाद मंगल सिंह ने इस कथा को आगे बढ़ाने की सोची। इसके बाद इस उपन्यास को पूरा किया। छैला संदु के बहाने आदिवासी जीवन के संघर्ष, उनके शोषण और संस्कृति को भी पिरोने का काम किया। पूरा हो गया तो छपाई की समस्या। मंगल कहते हैं, उस समय (1996) कोलकाता में नौकरी करता था। वहां पुस्तक मेला लगा था। मेले में राजकमल प्रकाशन का स्टाल था और उसके मालिक अशोक माहेश्वरी आए थे। उनसे किसी तरह बात हुई। पांडुलिपि को भेजने के लिए कहा। दिल्ली भेज दिया। उन्होंने तो विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई आदिवासी लिख भी सकता है। उन्होंने रांची के एक पत्रकार को पांडुलिपि पढऩे के लिए भेजी। यहां से ओके होने के बाद फिर छपने की प्रक्रिया शुरू हुई। 2004 में पुस्तक छपकर आ गई और लोगों ने इसका खूब स्वागत किया। हर साल पुस्तक की रायल्टी मिलती है।
1945 में खूंटी के रंगरोंग गांव में जन्मे मंगल सिंह मुंडा ने काफी संघर्ष किया है। पिता राम मुंडा कवि और शिक्षक थे। समाज सुधारक भी थे। पर मां-बाप का प्यार नसीब नहीं हो सका। बचपन में ही मां-बाप चल बसे। चाचा ने पढ़ाया। एसएस हाई स्कूल खंूटी से पढ़ाई की। इसके बाद नदिया हायर सेकेंडरी स्कूल, लोहरदगा से मैट्रिक किया। चाइबासा के टाटा कालेज में प्रवेश लिया और पढ़ाई शुरू की। तभी रेलवे में नौकरी लग गई। पढ़ाई छोड़कर नौकरी करने लगा। पढऩे की फिर ललक उठी। इसके बाद पत्राचार से बीए किया। छात्र जीवन से ही लिखना शुरू कर दिया था। नौकरी के समय भी लिखता। कलकत्ते में डा. श्रीनिवास शर्मा थे। वे पत्रिका निकालते थे। उन्होंने लिखने की प्रेरणा दी। खूब प्रोत्साहित किया। इसके बाद तो लिखने लगा। पहली रचना वैसे रांची से निकलने वाली पत्रिका आदिवासी में 1982 में छपी। इसके बाद शुभ तारिका अंबाला में भी रचना छपी। पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं छपने लगीं।
महुआ का फूल कहानी संग्रह दिल्ली से छपकर 1998 में आया। इसके बाद रांची झरोखा से 'कामिनालाÓ  मुंडारी-हिंदी में आया। कामिनाला का मतलब होता है काम की खोज। झरोखा से ही दुरंग को कोरे आद जाना? आया। अर्थ है गीत कहां खो गए। यह भी दोनों भाषाओं में हे। दो रचनाएं डायन और कॉलेज गेट प्रकाशित होने वाले हैं। डायन हिंदी में उपन्यास है और दूसरा नाटक।
2005 में रेलवे से अवकाश लेने वाले मंगल सिंह आज भी लिख रहे हैं। पर, हिंदी के कथित मुख्यधारा के रचनाकारों ने नोटिस नहीं लिया। उन लोगों ने भी नहीं, जो खुद को आदिवासियों का प्रवक्ता के तौर पर पेश करते हैं। रांची में ही गैरआदिवासी और हिंदी में प्रतिष्ठित लेखक और आलोचक हैं। लेकिन ये लोग खुद को स्थापित और दूसरे को विस्थापित करने में लगे हैं। पर आदिवासी साहित्य और आदिवासी लेखकों की ओर भूल से भी नजर नहीं डालते। जबकि आदिवासी पत्रिका के पुराने अंकों को पलटिए तो सैकड़ों आदिवासी रचनाकारों की सूची मिल जाएगी। लेकिन आज हम उन रचनाकारों को नहीं जानते। साहित्य में तो दलित विमर्श ने अपना एक मुकाम पा लिया। आदिवासी साहित्य को उसका प्राप्य कब मिलेगा? जबकि आदिवासी साहित्य का इतिहास भी सौ साल से कम नहीं। इस बात का कोफ्त मंगल सिंह मुंडा को भी है।    

बड़े उर्दू अदब नवाज थे समीउल्लाह शफक

हुसैन कच्‍छी

हुसैन कच्छी :  शहर के अतीत इसकी तहजीब की बात हो रही है तो इस वक्त मुझे एक बेहद दिलचस्प शख्सियत समीउल्लाह शफक की याद आ रही है। कुछ साल पहले तक वो हमारे दरम्यान थे। उनको जानने वाले मानेंगे कि उनके चले जाने से एक तहजीब रुखसत हो गई। रांची के मेन रोड पर अंजुमन प्लाजा के बाहरी हिस्से में 'सबरंग बुक्सÓ नाम की एक गुमटी होती थी। अभी भी है, लेकिन अब वहां अला-बला चीजें मिलती हैं। समी साहब के जमाने में यह गुमटी उर्दू नवाजों में ऐसी मशहूरो मकबूल थी जैसे बड़े-बड़े मॉल्स होते हैं। समी साहब इसके मालिक थे जिनकी जिंदगी उर्दू अदब की खिदमत के लिए वक्फ थी, वो किसी खजाने के मालिक नहीं थे, इसके बावजूद सबरंग में उर्दू के आशिकों के लिए बड़ा जखीरा रखते थे। उन दिनों मुल्क भर के जाने माने अखबार, पत्रिकाएं बच्चों के लिए कहानी की किताबें, औरतों के मैगजीन, शेरो-शायरी के संग्रह, नॉवेल, पॉकेट बुक्स के अलावा पढऩे के शौकीनों की फरमाइश पर कोई उम्दा किताब वगैरह वो मंगवाते रहते। उनके दम से सबरंग बुक्स शहर के उर्दू वालों के मिलने-मिलाने की जगह थी। अदीब, शायर, प्रोफेसर, सहाफी और उर्दू के स्टूडेंट्स इस गुमटी को एक दूसरे तक पैगाम रसानी के लिए इस्तेमाल करते और समी साहब उनके पैगाम रसां बनते। ये खिदमत उन्होंने तीस-चालीस साल निभाई, निहायत मासूमियत से। वो जब तक जिंदा रहे न खुद बदले न उनकी गुमटी बदली न उनकी तर्जे जिंदगी में तब्दीली आई। बस इस चाहत के साथ जीते रहे कि उर्दू पढ़ी जाए, उर्दू लिखी जाए, उर्दू बोली जाए। उनके रोजाना के विजिटर्स में ऐसे लोग भी होते थे जो कुछ खरीदते नहीं थे, घंटों सबरंग पर खड़े-खड़े दो तीन अखबार चाट जाते, रिसालों को पढ़ डालते। इस दरम्यान समी साहब कुल्हड़ वाली चाय पिला देते, किसी-किसी को सिगरेट का कश लगवा देते। कुछ तो ऐसे भी होते जो उनसे किताब और रिसाले लेकर घर ले जाते और फिर मुफ्त में पढ़कर उन्हें वापस लौटा देते। ऐसे में समी साहब का न चेहरा बदलता न कोई उनसे यह जानने की जहमत उठाता के समी साहब ये सबआप कैसे कर लेते हैं। वो किसी से शिकायत भी तो नहीं करते थे ना। यह सब दिल की बात है। समी साहब शायर थे, हुलिया ऐसा था कि कोई भी उन्हें देखकर बता सकता था कि वो शायर हैं। उनकी शायराना अजमत पर बेहतर राय कोई बड़ा नक्काद दे सकता है। लेकिन मेरे नजदीक उर्दू के खिदमतगारों में वो एक बुलंद दर्जे के मालिक थे। सिर्फ मुशायरे की भनक मिलते ही उनकी बॉडी लैंग्वेज में जो तब्दीली आ जाती थी वो देखने और महसूस करने लायक होती। मुशायरे वाले दिन का तो खैर कहना ही क्या, शहर का कोई भी शायर इतने शानदार और रिवायती अंदाज से स्टेज पर जलवा अफरोज नहीं होता था। जितनी खुशी समी साहब के रुख पर होती थी साफ-सुथरा कुर्ता पाजामा ऊपर से शेरवानी, साथ में छोटी सी पान की डिबिया और उंगलियों के दरम्यान सिगरेट, गाव तकिए से लगे बैठे हैं और सामने एक चमड़े के थैले में अपनी शायरी का दीवान। इधर उनके नाम का एलान हुआ उधर, मुशायरा सुनने आए लोगों के चेहरे खिल उठे, एक हलचल सी मची और महफिल गुलजार हो गई। समी साहब इसके बाद माइक के सामने खड़े हो जाते, अपना कलाम सुनाने लगते। ज्यादातर मेहमान शायरों की तरफ मुखातिब होकर कलाम सुनाते, ऐसे में यूं महसूस होता कि वो एक दूसरी दुनिया में पहुंंच चुके हैं और समझ रहे हैं कि मजमा उनके कलाम में डूब चुका है। इतना लहक-लहक कर शेर पढ़ते कि उनपर प्यार आ जाता था। बाद में उनसे मुलाकात होती तो पूछिए मत, वो उसी कैफियत में शराबोर नजर आते। इतने सादा दिल अदब नवाज की याद में कोई शाम आयोजित की जानी चाहिए। अंजुमन इसलामिया के साये में इतने साल गुजारने के बाद उनका हक बनता है कि खुद अंजुमन इसका एहतेमाम करे।

हुसैन कच्‍छी हरफन मौला इंसान हैं।  कुछ दिनों तक राजनीति में भी सक्रिय रहे। चुनाव भी लड़े। अब संस्कृतिकर्मी। लिखना-पढऩा और अड्डेबाजी शगल।  रांची में निवास पर परिवार पाकिस्‍तान में।

14 साल में लिखा छउ नृत्य पर ग्रंथ


संजय कृष्ण :  बदरी प्रसाद हिंदी के प्राध्यापक रहे। रांची विवि से 2004 में अवकाश लिया, लेकिन काम 1991 से ही शुरू कर दिया था। छउ के प्रति रुचि के सवाल पर बदरी प्रसाद कहते हैं कि रांची विवि ने परीक्षा के दौरान 1990 में सुपरिटेंडेंट बनाकर सरायकेला भेज दिया था। परीक्षा वगैरह खत्म हो गई लोगों ने इस नृत्य के बारे में बताया। पहले तो कहा, क्या ये सब होता है? फिर चपरासी से पूछा तो उसने बताया और नृत्य गुरु केदारनाथ साहु से मिलवा भी दिया। कागज-कलम लेकर उनके पास गए। एक शरतचंद्र रथ थे, जो कोर्ट में डीड लिखने का काम करते थे। उनके साथ गया और कुछ जानकारी मिली। इसके बाद रांची आ गया। फिर 1991 में जाने का मौका मिला। इसके बाद तो आना-जाना लगा रहा और नृत्य के प्रति रुचि बढ़ती ही गई। रुचि ने भूख को बढ़ा दिया। अब तो उसके बारे में मन बना लिया जानने का। छउ नृत्य के कलाकार वैसे तो किसान या अन्य काम करते थे। कभी कटनी तो कभी गाय-भैंस चराते। बताने वाला परेशान हो जाता। एक बार एक कलाकार से मिला तो कहा, अभी तो गाय चराने जा रहा हूं। आने पर बात करेंगे? हमने कहा, हम भी चलते हैं। इस तरह ऐसे जमीनी कलाकारों के साथ जाता, नृत्य की बारीकियों को समझता। इसके बाद फिर तीन-चार लोगों से क्रास करता। पूरी तरह संतुष्ट हो जाने के बाद फिर शास्त्रों को खंगालता। फुटनोट से जानकारी लेता। भरत नाट्यम, ओडिसी आदि नृत्य को भी समझता और तुलनात्मक अध्ययन करता। भरत का नाट्य शास्त्र, नंदीकेश्वर का नृत्य देखा। भरत ने अपने ग्रंथ में 104 नृत्य कर्म की चर्चा की है। 
छउ मूक नृत्य है। इसमें कोई संवाद नहीं। पर भावनाएं झलकती हैं। प्रेम, विरह, करुणा सब कुछ। हर छोटी-बड़ी जानकारी गांव-गांव जाकर लिया। रात-रातभर जागकर नृत्य देखा। पद संचालन से लेकर हस्ताभिनय आदि को देखा-परखा-समझा। छउ की तीन शैलियां है। पुरुलिया, पं बंगाल, मयूरभंज ओडि़सा और सरायकेला झारखंड। सरायकेला ही इसका जन्म स्थान है। यहीं से यह फैला। पुरुलिया ने अपने प्रयोग किए। इसलिए तीनों अलग-अलग नाम से जाने गए। तीनों प्रदेशों की खाक छानी। पुरुलिया में चड़ीदा जगह है, वहां ही इसका केंद्र है। यहां 84 घर उन लोगों के हैं, जो नृत्य में उपयोग होने वाले मुखौटे बनाते हैं। इनकी पूरी आजीविका इसी से चलती है। इसी तरह सरायकेला में भी।
छउ आज भी लोकनृत्य ही है। इसे गांधी ने देखा। टैगोर ने देखा। इन सबकी दुर्लभ तस्वीर ग्रंथ में है। वे कहते हैं, लोक महासागर है, जो चीजें यहां हैं, जो रत्न यहां हैं, अन्यत्र नहीं मिलेंगे। वे इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि उनका परिश्रम सफल रहा। पर, इस बात से थोड़ा परेशान भी दिखे कि पुस्तक की पांडुलिपि 20 फरवरी, 2003 को ही अकादमी को भेज दिया था लेकिन छपत-छपते दस साल लग गए। कुछ महीने पहले यह छपकर आई है। इस बात का जरूर कोफ्त है कि डा. सिद्धनाथ कुमार जी व डा. दिनेश्वर प्रसाद जी इस कृति को नहीं देख सके। बहरहाल, वे इसका अंग्रेजी में भी खुद ही अनुवाद कर चुके हैं। पांडुलिपि तैयार हो गई है। उसे भी संगीत नाटक अकादमी को भेजने की तैयारी कर चुके हैं। वैसे, नागपुरी व छत्तीसगढ़ी भाषा के तुलनात्मक अध्ययन की पांडुलिपि भी तैयार है। 

चौदह साल के अथक परिश्रम, अनवरत शोध और सैकड़ों लोगों से बातचीत के बाद बदरी प्रसाद की दो खंडों में 'भारतीय छउ नृत्य : इतिहास, संस्कृति और कलाÓ का प्रकाशन संगीत नाटक अकादमी ने किया है। अब तक किसी लोक नृत्य पर यह अद्भुत काम है। लोक ही नहीं, संभवत: शास्त्रीय नृत्य पर ऐसा काम किसी का नहीं देखने को मिला है। सैकड़ों दुर्लभ चित्रों से सजी यह पुस्तक उनके जुनून और कुछ बेहतर करने का प्रतिफल है। खुद इसके लेखन में वे एक लाख रुपये अपना खर्च कर चुके हैं।

1917 में पहली बार टाना भगत से मिले गांधी


'गांधी बाबास बड़ा लीला धारेस/ चरेखा ले ले मेरे ओजदस/ अंग्रेज सरकार बड़ा पापी रहचा/ गांधी बाबासीन कैदी नंजा/ कैदी नंजा बरा लाबागे लागिया/ मं गांधीस अंग्रेजन खेचस चिचस...।
यानी, महात्मा गांधी बहुत लीला वाले महापुरुष थे। वे चरखा द्वारा सूत काते थे। अंगरेज बहुत आततायी थे। गांधी बाबा को कैद कर लिया था और मारना चाहा था, परंतु अंत में अंगरेज को भागना पड़ा।
गांधी दुनिया के लिए महान पुरुष होंगे पर झारखंड के लिए वे भगवान हैं। टाना भगत उन्हें भगवान मानते हैं और तिरंगे को भी। 
1917 की घटना है, जब टाना भगत  गांधीजी से मिले। गांधीजी से ये इतने प्रभावित हुए कि पूरा ताना-बाना ही इनका बदल गया।  1922 के गया कांग्रेस में करीब तीन सौ टाना भगतों ने भाग लिया। ये रांची से पैदल चलकर गया पहुंचे थे।
 चार साल बाद, पांच अक्टूबर, 1926 को रांची में राजेंद्र बाबू के नेतृत्व में आर्य समाज मंदिर में खादी की प्रदर्शनी लगी थी तो टाना भगतों ने इसमें भी भाग लिया। 1934 में महात्मा गांधी
मोहनदास करमचंद गांधी रांची में पहली बार 920 में आए थे। असहयोग आंदोलन के सवाल पर वे देश का दौरा कर रहे थे, उसी क्रम में रांची भी आए। इसी साल रांची में जिला कांग्रेस कमेटी का गठन किया गया। गांधीजी जब रांची आए तो यहां उनकी मुलाकात टाना भगतों से हुई। आदिवासियों की स्थिति को देखकर ही उन्होंने कई योजनाएं भी चलाईं। अपने गृह प्रदेश गुजरात में भी उन्होंने 1920 में आदिवासियों की स्थिति देखी थी। वहां पर भील सेवा मंडल की स्थापना की गई। यह देश की पहली संस्था थी, जो सिर्फ आदिवासियों के कल्याण, विकास और बेहतर जीवन निर्माण की दिशा में काम करने के लिए बनी थी। इसके बाद संयुक्त बिहार में 'आदिम जाति सेवा मंडलÓ का गठन रांची में किया गया। इसके बाद दर्जनों संस्थाएं विभिन्न प्रांतों में गठित की गईं। उन्होंने ठक्कर बापा को उत्साहित किया और उनके इशारे पर ठक्कर बापा के साथ सैकड़ों कार्यकर्ता गुजरात, बिहार, मध्यप्रदेश, उड़ीसा आदि स्थानों में, आदिवासियों की सेवा कार्य में जुट गए।
ठक्कर बापा का असली नाम अमृतलाल ठक्कर था। उन्होंने इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की थी और कुछ समय तक रेल विभाग में सहायक अभियंता रहने के बाद पांच साल तक वे पोरबंदर राज्य में मुख्य अभियंता रहे। वर्ष 1913 के अंत में उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। बाद में गांधी जी ने उन्हें वंचितों की सेवा में लगा दिया। उस समय उनकी आयु 44 साल थी। इसके बाद वे वंचितों, हरिजनों और आदिवासियों के लिए काम करते रहे।  

वैद्यनाथ की यात्रा

 यह यात्रा विवरण हरिश्चंद्र चन्द्रिका और मोहन चन्द्रिका खं 7, संख्या 4, आषाढ़ शुक्ल एक सम्वत 1937 यानी सन् 1880 में प्रकाशित था। मंदिर के बारे में संस्‍क़त के श्‍लोकों को यहां नहीं दिया गया है। सावन के महीने में इसका महत्‍व कुछ बढ गया है। भारतेंदु ने यह यात्रा काशी नरेश के साथ की थी। उनकी मजेदार भाषा का यहां दर्शन तो होता ही है, मौका मिलने पर अंगरेजी राज को भी कोसना नहीं भूलते। रेल की यह यात्रा काफी रोमांचक भी है।

                                         भारतेंदु हरिश्‍चंद्र                       
श्री मन्महाराज काशीनरेश के साथ वैद्यनाथ की यात्रा को चले। दो बजे दिन के पैसेंजर ट्रेन में सवार  हुए। चारांे ओर हरी हरी घास का फर्श, ऊपर रंग रंग के बादल, गड़हों में पानी भरा हुआ, सक कुछ  सुंदर। मार्ग में श्री महाराज के मुख से अनेक प्रकार के अमृतमय उपदेश सुनते हुए चले जाते थे। सांझ को बक्सर के आगे बड़ा भारी मैदान, पर सब्ज काशानी मखमल से मढ़ा हुआ। सांझ होने से बादल  छोटे छोटे पीले नीले बड़े ही सुहाने मालमू पड़ते थे। बनारस कालिज की रंगीन शीशे की खिड़कियों का सा सामान था। क्रम से अंधकार होने लगा, ठंढी ठंढी हवा से निद्रा देवी अलग नेत्रों से लिपटी जाती थी। मैं महाराज के पास से उठकर सोने के वास्ते दूसरी गाड़ी में चला गया। झपकी का आना था कि     बौछारों ने छेड़छाड़ करनी शुरू कक, पटने पहुंचते-पहुंचते तो घेर घार कर चारों ओर से पानी बरसने ही लगा। बस पृथ्वी आकाश सब नीरब्रह्ममय हो गया। इस धूमधाम में भी रेल, कृष्णाभिसारिका सी   अपनी धुन में चली ही जाती थी। सच है सावन की नदी और दृढ़प्रतिज्ञ उद्योगी और जिनके मन पीतम के पास हैं वे कहीं रुकते हैं? राह में बाज पेड़ों में इतने जुगनू लिपटे हुए थे कि पेड़ सचमुच ‘सर्वे  चिरागां’ बन रहे थे। जहां रेल ठहरती थी, स्टेशन मास्टर और सिपाही बिचारे टुटरू टूं छाता, लालटेन  लिए रोजी जगाते भीगते हुए इधर उधर फिरते दिखाई पड़ते थे। गार्ड अलग ‘मैकिंटाश कवच पहिने’ अप्रतिहत गति से घूमते थे। आगे चलकर एक बड़ा भारी विघ्न हुआ, खास जिस गाड़ी पर श्री महाराज सवार थे, उसके धुरे घिसने से गर्म होकर शिथिल हो गए। वह गाड़ी छोड़ देनी पड़ी। जैसे धूमधाम से अंधेरी, वैसी ही जोर शोर का पानी। इधर तो यह आफत, उधर फरऊन क्या फरऊन के भी बाबाजान  रेलवालों को जल्दी, गाड़ी कभी आगे हटै, कभी पीछे। खैर, किसी तरह सब ठीक हुआ। इस पर भी बहुतसा असबाब और कुछ लोग पीछे छूट गए। अब आगे आगे बढ़ते तो सबेरा ही होने लगा। निद्रा वधू का संयोग भाग्य में न लिखा था, न हुआ। एक तो सेकंेड क्लास की एक ही गाड़ी, उसमें भी लेडीज कंपार्टमेंट निकल गया, बाकी जो कुछ बचा उसमें बारह आदमी। गाड़ी भी ऐसी टूटी फूटी, जैसी हिदंुओं की किस्मत और हिम्मत। इस कम्बख्त गाड़ी से और तीसरे दर्जे की गाड़ी से कोई फर्क नहीं, सिर्फ एक ही धोके की टट्टी का शीशा खिड़कियों में लगा था। न चैड़े बेंच न गद्दा न बाथरूम। जो लोग मामूली से तिगुना रुपया देें उनको ऐसी मनहूस गाड़ी पर बिठलाना, जिसमें कोई बात भी आराम की न हो, रेलवे कंपनी की सिर्फ बेइंसाफी ही नहीं, वरन धोखा देना है। क्यों नहीं ऐसी गाडि़यों को आग लगाकर जला देती। कलकत्ते में नीलाम कर देती। अगर मारे मोह के न छोड़ी जाए तो उसमें तीसरे दर्जे का काम ले। नाहक अपने गाहकों को बेवकूफ बनाने से क्या हासिल। लेडीज कंपार्टमेंट खाली था, मैंने गार्ड से कितना कहा कि इसमें सोने दो, न माना। और दानापुर से दोचार नीम अंगरेज (लेडी नहीं सि। लैड) मिले। उनको बेतकल्लुफ उसमें बैठा दिया। फस्र्ट क्लास की सिर्फ दो गाड़ी-एक में महाराज, दूसरी में आधी लेडीज, आधी में अंगरेज। अब कहां सोवैं कि नींद आवै। सचमुच अब तो तपस्या करके गोरी गोरी कोख से जन्म लें तब संसार में सुख मिलै। मैं तो ज्यों ही फस्र्ट क्लास में अंगरेज कम हुए कि सोने की लालच से उसमें घुसा। हाथ फैलाना था कि गाड़ी टूटने वाला विघ्न हुआ। महाराज के इस गाड़ी में आने से फिर मैं वहीं का वहीं। खैर इसी सात पांच में रात कट गई। बादल के परदों को फाड़ फाड़कर ऊषा देवी ने ताकझांक आरंभ कर दी। परलोकगत सज्जनों की कीर्ति की भांति सूय नारायण काप्रकाश पिशुन मेघों के वागाडंबर से घिरा हुआ दिखलाई पड़ने लगा। प्रकृति का नाम काली से सरस्वती हुआ, ठंढी ठंढी हवा मन की कली खिलाती हुई बहने लगी। दूर से धनी और काही रंग के पर्वतों पर सुनहरापन आ चला। कहीं आधे पर्वत बादलों से घिरे हुए, कहीं एक साथ वाष्प निकलने से चोटियां छिपी हुईं और कहीं चारों ओर से उनपर जलधारा पात से बुक्के की होली खेलते हुए बड़े ही सुहाने मालूम पड़ते थे। पास से देखने से भी पहाड़ बहुत ही भले दिखलाई पड़ते थे। काले पत्थरों पर हरी हरी घास और जहां तहां छोटे बड़े पेड़, बीच बीच में मोटे पतले झरने, नदियों की लकीरें, कहीं चारों ओर सघन हरियाली, कहीं चट्टानांे पर ऊंचे नीचे अनगढ़ ढोंके और कहीं जलपूर्ण हरित तराई विचित्रा शोभा देती थी। अच्छी तरह प्रकाश होते होते तो वैद्यनाथ के स्टेशन पर पहंुच गए। स्टेशन से वैद्यनाथ जी कोई तीन कोस हैं।  बीच में एक नदी उतरनी पड़ती है जो आजकल बरसात में कभी घटती और कभी बढ़ती है। रास्ता पहाड़ के ऊपर ही ऊपर बरसात से बहुत सुहावना हो रहा है। पालकी पर हिलते हिलते चले। श्रीमहाराज के सोचने के अनुसार कहारों की गतिध्वनि में भी परदेश की ही चर्चा है। पहले ‘कोह कोह’ की ध्वनि सुनाई पड़ती है फिर ‘सोह सोह’ की एकाकार पुकार मार्ग में भी उसमें तन्मय किए देती थी। मुसाफिरों को अनुभव होगा कि रेल पर सोने से नाक थर्राती है और वही दशा कभी कभी सवारियों पर होती है। इससे मुझे पालकी पर भी नींद नहीं आई और जैसे तैसे बैजनाथ जी पहुंच ही गए।
       बैजनाथ जी एक गांव है, जो अच्छी तरह आबाद है। मजिस्ट्रेट, मुनसिफ वगैरह हाकिम और जरूरी सब आफिस हैं। नीचा और तर होने से देश बातुल गंदा और ‘गंधद्वारा’ है। लोग काले काले और हतोत्साह मूर्ख और गरीब हैं। यहां सौंथाल एक जंगली जाति होती है। ये लोग अब तक निरे वहशी हैं। खाने पीने की जरूरी चीजें यहां मिल जाती हैं। सर्प विशेष हैं। राम जी की घोड़ी जिनको कुछ लोग ग्वालिन कहते भी कहते हैं एक बालिश्त लंबी और दो दो उंगल मोटी देखने में आईं।
      मंदिर वैद्यनाथ जी का टोप की तरह बहुंत ऊंचा शिखरदार है। चारांे ओर देवताओं के मंदिर और बीच में फर्श है। मंदिर भीतर से अंधेरा है क्योंकि सिर्फ एक दरवाजा है। बैजनाथ जी की पिंडी जलधरी से तीन चार अंगल ऊंची बीच में से चिपटी है। कहते हैं कि रावण ने मूका मारा है इससे यह गड़हा पड़ गया है। वैद्यनाथ बैजनाथ और रावणेश्वर यह तीन नाम महादेवजी के हैं। यह सिद्धपीठ और ज्योतिर्लिंग स्थान है। हरिद्रापीठ इसका नाम है और सती का हृदयदेश यहां गिरा है। जो पार्वती अरोगा और दुर्गा नाम की सामने एक देवी हैं वही यहां की मुख्य शक्ति हैं। इनके मंदिर एवं महादेव जी के मंदिर से गांठ जोड़ी रहती है रात को महादेव जी के ऊपर बेलपत्रा का बहुत लंबा चैड़ा एक ढेर करके ऊपर से कम खाब या ताश का खोल चढ़ाकर शृंगार करते हैं या बेलपत्रा के ऊपर से बहुत सी माला पहना देते हैं सिर के गड़हे में भी रात को चंदन भर देते हैं।
   वैद्यनाथ की कथा यह है कि एक बेर पार्वतीजी ने मान किया था और रावण के शोर करने से वह मान छूट गया। इस महादेव जी ने प्रसन्न होकर वर दिया कि हम लंका चलंेगे और लिंग रूप से उसके साथ चले। राहमें जब बैजनाथ जी पहुंचे तब ब्राह्मण रूपी विष्णु के हाथ में वह लिंग देकर पेशाब करने लगा। कई घड़ी तक माया मोहित होकर वह मूतता ही रह गया और घबड़ाकर विष्णु ने उस लिंग को वहीं रख दिया। रावण का महादेव जी से यह करार था कि जहां रख दोगे वहां से आगे न चलेंगे। इससे महादेव जी वहां रह गए वरंच इसी पर खफा होकर रावणने उनको मूका भी मार दिया।
   वैद्यनाथ जी मंदिर राजा पूरणमल्ल का बनाया हुआ है। लोग कहते हैं कि रघुनाथ ओझा नामक एक तपस्वी इसी वन में रहते थे। उनको स्वप्न हुआ कि हमारी एक छोटी सी मढ़ी झाडि़यों में छिपी है तुम उसका एक बड़ा मंदिर बनाओ। उसी स्वप्न के अनुसार किसी वृक्ष के नीचे उनको तीन लाख रुपया मिला। उन्हांेने राजा पूरणमल को वह रुपया दिया कि वे अपने प्रबंध में मंदिर बनवा दें। वे बादशाह के काम से कहीं चले गए और कई बरस तक न लौटें, तब रघुनाथ ओझा ने दुखित होकर अपने व्यय से मंदिर बनवाया। जब पूरणमल लौटकर आए और मंदिर बना देखा तो सभा मंडप बनवाकर मंदिर के द्वार पर अपनी प्रशस्ति लिखकर चले गए। यह देखकर रघुनाथ ओझा ने दुखित होकर कि रुपया भी गया कीर्ति भी गई, एक नई प्रशस्ति बनाई और बाहर के दरवाजे खुदवाकर लगा दी। वैद्यनाथ महात्म्य से मालूम होता है कि इन्हीं महात्मा का बनाया हुआ है क्योंकि उसमें छिपाकर रघुनाथ ओझा को श्रीरामचंद्र जी का अवतार लिखा है। प्रशस्ति का काव्य भी उत्तम नहीं है जिससे बोध होता है कि ओझा जी श्रद्धालु थे किंतु उद्वत पंडित नहीं थे। गिद्धौर के महाराज सर जयमंगलसिं के सीएसआइ कहते हैं कि पूरणमल उनके पुरखा थे। एक विचित्रा बात यहां और भी लिखने योग है। गोवर्धन पर श्रीनाथ जी का मंदिर सं 1556 में एक राजा पूरणमल्ल ने बनाया और यहां संवत् 1652 सन् 1595 ई मेंएक पूरणमल्ल ने वैद्यनाथ जी का मंदिर बनाया। क्या यह मंदिरों का काम पूरणमल्ल ही हो परमेश्वर को सौंपा है?
               निज मंदिर का लेख
अचल शशिशायके लसित भूमि शकाब्दके।
         वलति रघुनाथके वहल पूजक श्रद्धया।।
विमल गुण चेतसा नृपति पूणेनाचितं।
          त्रिपुरहरमंदिरं व्यरचि सर्वकामप्रदम्।।
                     नृपतिकृत पद्यमिदम्।।

    मंदिर के चारों ओर देवताओं के मंदिर हैं। कहीं प्राचीन जैन मूर्तियां हिंदू मूर्ति बनकर पूजती हैं एक पद्मावती देवी की मूर्ति बड़ी सुंदर है जो सूर्य नारायण के नाम से पुजती है। यह मूर्ति पद्म पर बैठी है और वे बड़ी सुंदर कमल की लता दोनों ओर बनी है। इस पर अत्यंत प्राचीन पाली अक्षर में कुछ लिखा है जो मैंने श्री बाबू राजेंद्रलाल के पास पढ़ने को भेजा है। दो भैरव की मूर्ति, जिससे एक तो किसी जैन सिद्ध की और एक जैन क्षेत्रापाल की है, बड़ी ही सुंदर है लोग कहते हैं कि भागलपुर जिले में किसी तालाब में से निकली थी।
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नजरबंदी में भी रांची में जोश भरा था मौलाना ने

संजय कृष्ण, रांची
आजादी के एक प्रमुख सिपाही हिंदू-मुसलिम एकता के संबल मौलाना अबुल कलाम आजाद (11 नवंबर, 1888-22 फरवरी 1958) जब रांची से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका 'आदिवासीÓ (वर्ष 18, अंक 28, 15 अगस्त, 1964) के एक अंक में समरुल हक ने 'आवाज गूंजती हैÓ नामक लेख में लिखा है कि 'रांची के बुजुर्ग जब मौलाना को देखते थे तो उन्हें विश्वास ही नहीं होता था कि इतनी कम उम्र का नौजवान इतना बड़ा साहित्यकार, ओजस्वी वक्ता और ब्रिटिश सरकार के लिए इतना भयानक हो सकता है। रांची में नजरबंद रहते हुए भी मौलाना आजाद की राजनीतिक और सामाजिक सरगर्मियां ठंडी नहीं पड़ी थी।Óमौलाना केवल तकरीर ही नहीं करते थे। लोगों में आजादी का जोश ही नहीं भरते थे। शिक्षा को लेकर अपनी चिंता को भी यहां परवाना चढ़ाया और कई संस्थाओं की नींव डाली। अगस्त, 1917 में उन्होंने अंजुमन इस्लामिया, रांची तथा मदरसा इस्लामिया की नींव डाली। ये दोनों आज भी हैं और उनकी स्मृतियों की गवाही देती हैं।
समरुल हक ने लिखा है कि जुमे की नमाज के बाद मसजिद में हिंदू भी मौलाना का भाषण सुनने के लिए आते थे। रांची के कुछ मुसलमानों ने विरोध प्रकट किया कि ये लोग मस्जिद में क्यों आ जाते हैं? उन लोगों की आपत्ति सुनकर मौलाना ने 'जामिल सवाहिदÓ नाम की किताब लिखी। यह हिंदू मुस्लिम एकता की बेजोड़ पुस्तक मानी जाती है।
रांची के गजनफर मिर्जा, मोहम्मद अली, डा. पूर्णचंद्र मित्र, देवकीनंदन प्रसाद, गुलाब नारायण तिवारी, नागरमल मोदी, रंगलाल जालान, रामचंद्र सहाय आदि उनसे अक्सर मिलते-जुलते रहते थे और आजादी पर चर्चा करते थे।
कहा जाता है कि 1919 में रांची के गौरक्षणी में हिंदू मुसलमानों की इतनी बेजोड़ सभा हुई कि इतनी भीड़ रांची  ने इसके पहले नहीं देखी थी। उस समय खिलाफत और असहयोग आंदोलन के बारे में ओज और तेज से भरी वक्तृताएं हुईं। मौलाना उस समय नजरबंद थे और सभा में जा नहीं सकते थे, फिर भी सारी प्रेरणा उनकी ही थी। सन 1919 में मौलाना की नजरबंदी से मुक्त हुए। उसके बाद वे रांची में गोशाला के गोपाष्टमी मेला के दिन अपना अंतिम भाषण देकर रांची से चले गए। उस दिन रांची गोशाला में हिंदू-मुसलमानों की इतनी सम्मिलित भीड़ थी, जैसा रांची के इतिहास में पहले कभी भीड़ नहीं जुटी थी। उनके जाने के बाद 1920 में यहां कांग्रेस का गठन हुआ। इसी साल गांधी भी रांची आए और लोगों से आंदोलन में भाग लेने की अपील की। इसके बाद तो कई बार गांधी आए और फिर रांची भी आजादी के दीवानों का एक प्रमुख केंद्र बन गया। 
रांची में नजरबंद थे तब भी आजादी का तकरीर करने से नहीं चूकते थे। कम से कम जुमे की नमाज के बाद तो उनकी तकरीर होती ही थी। वे आजादी का जोश भरते। उनकी तकरीर सुनने के लिए हिंदू भी मस्जिदों जाते थे। वे रांची में अप्रैल 1916 से 27 दिसंबर, 1919 तक रहे और आजादी के आंदोलन को परिपक्वता प्रदान की।

आजादी की मुनादी और वो रात

संजय कृष्ण, रांची
अगस्त का महीना था। 1947 का साल। राजनीतिक वातावरण काफी विषाक्त हो गया था। तरह-तरह की अफवाहें हवा में तैर रही थीं। मेरी उम्र उस समय 18 साल थी। एक रात घर में हम लोग आराम से सोए थे कि पटाखे छूटने लगे। गलियों-सड़कों से होती हुई खबर घर में भी दाखिल हुई, 'पाकिस्तान बन गया।Ó
मुल्तान के पास बहावलपुर स्टेट था। उस स्टेट में एक गांव था कायमपुर। उस गांव के हम वाशिंदे थे। गांव में 85 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की थी और 15 प्रतिशत हम लोगों की।
रातू रोड, कृष्णापुरी गुरुद्वारे में प्लास्टिक की कुर्सी पर अपनी छड़ी के साथ बैठे आपबीती सुनाते ऋषिकेश गिरधर की आंखें रह-रहकर सजल हो उठती हैं। कहते हैं, पाकिस्तान बनने की खबर जैसे ही आई, दंगे शुरू हो गए। इन दंगों में अफवाहों ने बड़ी भूमिका निभाई। 14 अगस्त की रात तो इतनी स्याह थी कि कभी वैसी रात देखी ही नहीं। दंगों की खबरें आती तो पूरा शरीर कांप जाता। लगता, मौत अब सामने खड़ी है। 
किसी तरह गांव के सभी लोग गुरुद्वारे में जमा हो गए। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं सभी। गुरुद्वारे की खिड़कियां और दरवाजों को मजबूती से बंद कर दिया गया। मेरे बहनोई बालकृष्ण दो बजे रात को लालटेन लेकर ऊपर चढ़े देखने के लिए। तभी एक गोली की आवाज सुनाई दी। दंगाइयों ने उन्हें गोली मार दी। वे छत पर ही ढेर हो गए। हम लोग कुल पंद्रह सौ के करीब थे। घरों को लूटने की खबर आई। खेतों को आग के हवाले कर दिया गया। अब सवाल बहू-बेटियों का था। बुजुर्गों ने बड़ा कठोर फैसला लिया...गुरुद्वारे में ही उन्हें आग के हवाले कर दिया जाए ताकि अपने सामने इन्हें बेआबरू होते न देख सकें। इस प्रस्ताव की खबर गुरुद्वारे से बाहर जा पहुंची। भीड़ में मुसलमानों के एक पीर थे अब्दुल्ला शाह। उन्हें इसका पता चला तो खबर भिजवाई, ऐसा मत करिए।
गिरधर की आंखों में आंसू आ गए। आंसू पोछने के बाद फिर बताते हैं, पीर ने खबर भिजवाई अपने डेरे चलने के लिए। अब माहौल ऐसा था कि उनकी बात पर विश्वास किया जाए या नहीं? खैर, अंतत: चांस लिया गया। जितने लोग थे, अपने गहने मुसलमानों को हवाले करते जाते और फिर उनके साथ चल दिए। दस दिन उनके डेरे पर रहा गया। फिर एक दिन पांच सौ के करीब मुसलमान गांवों से पहुंच गए और कहने लगे कि ये मुसलमान बन जाएंगे तो इन्हें छोड़ देंगे। कुछ तैयार भी हो गए, पर ऐसी नौबत ही नहीं आई। वाहे गुरु ने सुन ली। उसी रास्ते से एक अंग्रेज आफिसर जा रहे थे फोर्स के साथ। आगे एक गांव में भारी तबाही मची थी। जब हम लोगों को पता चला तो रास्ते में हम लोगों ने उन्हें रोक लिया। कहानी सुन उनका दिल पसीजा। उन्होंने ऊपर के अधिकारियों से बात की। हमारी गिनती हुई और हमें मिलिट्री वालों को सुपुर्द कर दिया गया। इसके बाद दोनों देश के बीच बातचीत हुई। तय हुआ कि एक ट्रेन पाकिस्तान से जाएगी और एक हिंदुस्तान से। इस तरह 26 सितंबर को वहां से हम लोग ट्रेन से चले और 28 को राजस्थान के बार्डर पर जो अंतिम स्टेशन था, हिंदू मलकोट वहां उतरे। हिंदू मलकोट से पांच मील पहले ही एक दरिया के पुल पर हमें फिर दंगाइयों ने घेर लिया। पर, मिलिट्री के कारण हम सुरक्षित भारत की सीमा में दाखिल हो गए। स्टेशन पर रांची से आए फिरायालाल, जीव लाल, गोपालदास मुंजाल, शिवदयाल छाबड़ा आदि स्वागत के लिए खड़े थे। ये लोग भी हमारे गांव के ही थे, पर व्यापार के सिलसिले में सत्तर-अस्सी साल पहले इनका परिवार यहीं का हो गया था। हिंदू मलकोट से लोग बिखर गए। सौ-डेढ़ सौ लोग रांची आए। मैं, माता-पिता और भाई सभी यहीं आए। चार लोग आए थे और आज चौवन लोग हैं। केंद्र और बिहार की सरकार ने इनलोगों की खूब मदद की। गिरधर बताते हैं कि पीर का पत्र आते रहा कि आप अपना सामान ले जाइए। उनके पास आते समय काफी सोना रख आए थे। पर, फिर वहां जा नहीं सके। कहते हैं, आजादी की वह काली रात आज भी सिहरन पैदा कर जाती है।       

आजादी की लड़ाई में गंवा दी अपनी जमीन

मोहनदास करमचंद गांधी पहले नेता थे, जिन्होंने आजादी के आंदोलन की शुरुआत करने से पहले पूरा देश का भ्रमण किया। इसके बाद उन्होंने अपनी रणनीति बनाई। मैदानी इलाकों से एकदम अलग-थलग रहने वाले रांची की पठार पर भी उनके कदम पड़े। यह वाकया 1920 का है। असहयोग आंदोलन शुरू हो गया था। वे देश का दौरा कर रहे थे। इसी क्रम में वे रांची भी आए। गांधीजी जब रांची आए तो यहां उनकी मुलाकात टाना भगतों से हुई। इसका श्रेय डा. राजेंद्र प्रसाद को जाता है। टाना भगत भी छह साल पहले ही अस्तित्व में आए थे। वे गांधी के व्यक्तित्व से इस कदर प्रभावित हुए कि फिर गांधी के ही होकर ही रह गए।
श्री नारायणजी ने 'आदिवासीÓ के  गांधी अंक, 2 अक्टूबर, 1969 में लिखा है, 'टाना भगत महात्मा गांधी के अनन्य भक्त बन गए। आजादी की लड़ाई में टाना भगतों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। कितने जेल गए, हजारों की जमीन नीलाम हुई, कितने जेल में खेत आए। स्वराज्य का संवाद सुनने के लिए कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिए सैकड़ों पांव पैदल गया, कानपुर, बेलगांव और कोकोनाडा गए।
1922 के गया कांग्रेस में करीब तीन सौ टाना भगतों ने भाग लिया। ये रांची से पैदल चलकर गया पहुंचे थे। 1940 में रामगढ़ कांग्रेस में इनकी संख्या तो पूछनी ही नहीं थी।
  पांच अक्टूबर, 1926 को रांची में राजेंद्र बाबू के नेतृत्व में आर्य समाज मंदिर में खादी की प्रदर्शनी लगी थी तो टाना भगतों ने इसमें भी भाग लिया। 1934 में महात्मा गांधी हरिजन-उत्थान-आंदोलन के सिलसिले में चार दिनों तक रांची में थे। इस समय भी टाना भगत उनके पास रहते थे। साइमन कमीशन के बॉयकाट में टाना भगत भी शामिल थे। टाना भगतों की जमीन तो अंगरेजी सरकार ने पहले ही नीलाम कर दी थी, फिर भी वे आजादी के आंदोलन से पीछे नहीं हटे, मार खाई, सड़कों पर घसीटे गए, जेल की यातनाएं सही, फिर भी गांधीजी की जय बोलते रहे, अंतिम दम तक। देश जब आजाद हुआ तो टाना भगतों ने अपनी तुलसी चैरा के पास तिरंगा लहराया, खुशियां मनाईं, भजन गाए। आज भी टाना भगतों के लिए 26 जनवरी, 15 अगस्त व दो अक्टूबर पर्व के समान है। हरवंश भगत ने 'पंद्रह अगस्त और टाना भगतÓ लेख में बताया है कि '15 अगस्त को टाना भगत पवित्र त्यौहार के रूप में मनाते हैं। इस दिन टाना भगत किसी प्रकार खेतीबाड़ी आदि का काम नहीं करते। प्रात: उठकर ग्राम की साफ-सफाई करते हैं। महिलाएं घर-आंगन की पूरी सफाई करती हैं। स्नानादि के बाद समूह रूप में वे राष्ट्रीय गीत गाकर राष्ट्र-ध्वज फहराते हैं। अभिवादन करते हैं। स्वतंत्र भारत की जय, महात्मा गांधी की जय, राजेंद्र बाबू की जय, जवाहर लाल नेहरू की जय तथा सभी टाना भगतों की जय का नारा लगाते हैं। गांव में जुलूस निकालते हैं। प्रसाद वितरण भी करते हैं। अपराह्न आम सभा होती है। सूत काता जाता है और आपस में प्रेम और संगठन को दृढ़ करने की चर्चा होती है।Ó पर, आजादी के ये अहिंसक सिपाही आज भी अपनी जमीन वापसी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

काशी नरेश संग की थी भारतेंदु ने बाबा धाम की यात्रा


आज से सावन चढ़ गया। बाबा धाम की यात्रा भी प्रारंभ हो चुकी है। एक यात्रा हिंदी के युग निर्माता भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी काशी नरेश के संग की थी, जिसका पूरा विवरण 1880 में हरिश्चंद्र चंद्रिका और मोहन चंद्रिका में छपा था।
भारतेंदु की यात्रा दिन के दो बजे बनारस से ट्रेन द्वारा शुरू हुई। सांझ हुई तो बक्सर पहुंचे। आगे बढ़ तो एक बड़ा विघ्न हुआ। जिस गाड़ी पर महाराज सवार थे, उसके धुरे घिसने से गर्म होकर शिथिल हो गए। भारतेंदु लिखते हैं, 'वह गाड़ी छोड़ देनी पड़ी। इधर तो यह आफत, उधर फरऊन क्या फरऊन के भी बाबाजान रेलवालों को जल्दी, गाड़ी कभी आगे हटै, कभी पीछे। खैर, किसी तरह सब ठीक हुआ।Ó...'अब आगे बढ़ते-बढ़ते सबेरा ही होने लगा। निद्र वधू का संयोग भाग्य में न लिखा था, न हुआ। एक तो सेंकेड क्लास की एक ही गाड़ी, उसमें भी लेडिज कंपार्टमेंट निकल गया, बाकी जो कुछ बचा उसमें बारह आदमी। गाड़ी भी ऐसी टूटी फूटी, जैसी हिंदुओं की किस्मत और हिम्मत।Ó
कैसी रेल थी, क्या व्यवस्था था, इस पर भी भारतेंदु तंज कसते हुए लिखते हैं, 'इस कम्बख्त गाड़ी से और तीसरे दर्जे की गाड़ी से कोई फर्क नहीं, सिर्फ एक धोके की टट्टी का शीशा खिड़कियों में लगा था। न चौड़े बेंच न गद्दा, न बाथरूम। जो लोग मामूली से तिगुना रुपया दें, उनको ऐसी मनहूस गाड़ी पर बिठलाना, जिसमें कोई बात भी आराम की न हो, रेलवे कंपनी की सिर्फ बेइंसाफी ही नहीं वरन धोखा देना है। क्यों नहीं ऐसी गाडिय़ों को आग लगाकर जला देती।Ó
अंगरेज किस तरह अपने लोगों के साथ पक्षपात करते थे। इसकी भी बानगी देखिए...'लेडीज कंपार्टमेंट खाली था, मैंने गार्ड से कितना कहा कि इसमें सोने दें, न माना। और दानापुर से दो चार नीम अंगरेज (लेडी नहीं सिफै लैड)मिले। उनको बेतकल्लुफ उसमें बैठा दिया। फस्र्ट क्लास की सिर्फ दो गाड़ी-एक में महाराज, दूसरी में आधी लेडीज, आधी में अंगरेज। अब कहां सौवें कि नींद आवै।Ó खैर, किसी तरह भारतेंदु और काशी नरेश बैजनाथ धाम पहुंचे।
यहां पहुंचकर भारतेंदु ने बैजनाथ गांव का खाका खींचा है, 'बैजनाथ जी एक गांव है, जो अच्छी तरह आबाद है। ...लोग काले-काले और हतोत्साह व गरीब हैं। यहां सौंथाल (संताल) एक जंगली जाति होती है। खाने-पीने की जरूरी चीजें यहां मिल जाती हैं।Ó इसके बाद बैजनाथ की कहानी का वर्णन है। रावण प्रसंग, किसने मंदिर को बनवाया, निज मंदिर के लेख, सभा मंडप के लेख को दिया गया है। अंत में लिखा है, 'कहीं जैन मूर्तियां हिंदू मूर्ति बनकर पूजती हैं। दो भैरव की मूर्ति, जिससे एक तो किसी जैन सिद्ध की और एक जैन क्षेत्रपाल की है, बड़ी ही सुंदर है। लोग कहते हैं कि भागलपुर के किसी तालाब से निकली थी।Ó

किसे याद है काजी का गांव


संजय कृष्ण
क्रांतिधर्मी और विद्रोही कवि काजी नजरूल इस्लाम का गांव चुरुलिया आज भी वही हैं, जहां वह एक शताब्दी पहले था। पं. बंगाल के आसनसोल सब डिविजन में पडऩे वाले इस ऐतिहासिक गांव में जो भी आया, घोषणाएं की, लेकिन पूरा किसी ने नहीं किया। सीएम से लेकर पीएम तक ने। काजी के परिवार वाले अपने स्तर से ही संग्रहालय, नजरूल अकादमी और हर साल उनके जन्मदिन पर सात दिवसीय मेले सहित अन्य कार्यक्रम आयोजित करते आ रहे हैं। ताज्जुब तो तब होता है, जब जनता की दुहाई देने प. बंगाल पर लंबे समय तक शासन करने वाली वाम मोर्चा की सरकार ने भी कोई सुधि नहीं ली। नजरूल के नाम पर एक ईंट भी उसने नहीं रखी। जबकि नजरूल वह पहले कवि हैं, जिन्होंने कलकत्ता में साम्यवाद की नींव रखी थी। स्वतंत्रता-समानता की पूरजोर वकालत की थी। अपने समय के महान कहलाने वाले कवियों की तरह वे अंग्रेजों का गुणगान नहीं किए, उसके राज की खिलाफत की और जेल भी गए। ऐसा कवि वाममोर्चा सरकार के लिए भी अछूत ही रहा।
जब ममता बनर्जी सत्ता में आईं तो पांच मई, 2011 को उनके नाम पर विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा कर गईं। कहा कि नजरूल के गांव चुरुलिया में ही उनके नाम पर विश्वविद्यालय बनेगा। पता नहीं, क्या हुआ और किसने उन्हें समझा दिया कि पिछले साल उन्होंने घोषणा कर दी कि यह उनके गांव नहीं, आसनसोल में बनेगा। उन्होंने बिना सोचे-समझे यह घोषणा भी कर दी कि चुरुलिया में जमीन नहीं है। अब सवाल है, जब गांव में जमीन नहीं है तो शहर में कैसे जमीन उपलब्ध होगी? पर इसके पीछे हकीकत कुछ और ही है।
काजी नजरूल के भतीजे और नजरूल अकादमी के महासचिव काजी मोजाहर हुसैन बताते हैं कि चुरुलिया में जमीन की कोई कमी नहीं थी। यहां पर हम लोगों ने एक सौ पचास बीघे जमीन की व्यवस्था की थी। उसका पूरा नक्शा भी बना लिया था। जरूरत पड़ती तो और भी जमीन दी जाती। लेकिन सरकार ने चुरुलिया के ग्रामीणों की एक न सुनी और तीन जुलाई, 2012 को बिल भी पास हो गया। मोजाहर कहते हैं कि आसनसोल में जहां विश्वविद्यालय बन रहा है, वहां नाला बहता है, कुष्ठ रोगियों का अस्पताल है। कई अन्य चीजें भी हैं, जो शिक्षा के अनुकूल नहीं है। पर, किसके बहकावे में उन्होंने ऐसा किया है, यह तो वही जानें।
खैर, ममता बनर्जी ने काजी पर इतना ही एहसान नहीं किया। पिछले साल से उन्होंने मेले में सरकारी फंड को भी बंद कर दिया है। हर साल नजरूल की जयंती पर चुरुलिया में एक सप्ताह का सांस्कृतिक मेला लगता है। इस बार भी 26 मई से एक जून तक लगने वाला है। पहले प. बंगाल की सरकार पंद्रह हजार देती थी, कुछ सालों से यह रकम बढ़ाकर साठ हजार कर दी गई थी। पर, ममता की मेहरबानी से यह छोटी सी रकम भी बंद हो गई। हालांकि इस छोटी रकम से कुछ होता नहीं है, लेकिन सरकार की मंशा का पता चलता है।
नजरूल अकादमी के सहायक सचिव सुप्रियो काजी कहते हैं कि इस सप्ताहव्यापी कार्यक्रम में बंगलादेश से लेकर असम, राजस्थान, उड़ीसा आदि से कलाकार आते हैं। इनके आने-जाने में ही सात-आठ लाख खर्च हो जाते हैं। फिर उनके रहने, खाने और पारिश्रमिक को जोड़ दें तो खर्च का अंदाजा लगा सकते हैं। इस बार बंगलादेश से काजी नजरूल इस्लाम की नतिनी खिलखिल काजी भी अपने गांव आ रही हैं।
 काजी मोजाहर हुसैन बताते हैं कि मेले का आयोजन 35 सालों से किया जा रहा है। यह सब यहां की जनता के सहयोग से। इन आयोजनों के अलावा कई सामाजिक काम भी अकादमी करती है। 19 जनवरी को स्वास्थ्य कैंप लगाया गया, जिसमें 30 डाक्टरों की टीम ने 2900 लोगों के स्वास्थ्य की जांच की और एक लाख तिहत्तर हजार की दवाएं दी गईं। फिर भी प. बंगाल सरकार ने इस गांव पर कोई मेहरबानी नहीं की।
पिछले साल काजी की जयंती पर चुरुलिया तक रेल चलाने की घोषणा की गई, लेकिन एक ईंट भी नहीं बिछी। घोषणाएं तो और भी हैं। जब देश के पीएम अटल बिहारी वाजपेयी थे, तो कवि के गांव 1999 में आए थे। उन्होंने नजरूल अकादमी को एक करोड़ 25 लाख रुपये देने की घोषणा की। आज तक एक पाई भी नहीं मिली। 1958 से यह अकादमी कार्यरत है। अपने बूते ही वह एक संग्रहालय बनाए हुए हैं, जिसमें कवि की कुछ पांडुलिपियां, दुर्लभ तस्वीरें, उनका बेड, तानपुरा, ग्रामोफोन आदि रखे हुए हैं। परिवार की बनिस्पत ही चीजें बची हुई हैं। परिवार ने ही उनकी समाधि बनाई। कीर्ति स्तंभ बनाया। काजी की पत्नी प्रमिला काजी की इच्छानुसार उन्हें गांव में ही दफनाया गया। उनकी दूसरी इच्छा थी कि उनकी बगल में ही काजी को भी दफनाया जाए। लेकिन केंद्र सरकार और बंगाल सरकार के रवैये के कारण काजी के शव को बांग्लादेश से नहीं लाया जा सका। बाद में उनकी मिट्टी ले आकर उनकी बगल में दफनाया गया।
केंद्र हो या राज्य की सरकार, उनके शताब्दी वर्ष पर भी कोई काम नहीं किया न कोई आयोजन। हिंदी वाले भी चुप ही रहे। पर मजा देखिए, रवींद्रनाथ टैगोर के लिए मरे जा रहे हैं। हिंदी वाले भी खूब बकवास कर रहे हैं और केंद्र की सरकार को स्पेशल टे्रन ही चला दी थी। लेकिन इन्हें काजी की याद कतई नहीं आई। क्या एक ईमानदार कवि से सत्ता इतनी डरती है? ममता भी तो विद्रोही नेता हैं, फिर...।

चुरुलिया गांव का तालाब




चुरुलिया गांव का तालाब वैसे ही था, जैसे काजी नजरूल इस्लाम के समय में था। सौ सालों में कोई तब्दीली नहीं। जैसे तालाब में समय ठहर गया हो। 
यह अप्रैल की आखिरी तारीख थी। 42 डिग्री तापमान। आसनसोल से चुरुलिया के लिए बस पकड़ा तो उसने डेढ़ घंटे में उनके गांव के बाहर उतार दिया। गांव में जाने वाली सड़क के दाहिने ओर एक तालाब है। दिन के डेढ़ बजे थे। सड़कों पर सन्नाटा पसरा था। एक-एक कदम चलना भारी पड़ रहा था। चलते हुए लगता, किसी कोयले की भट्टी से गुजर रहे हों।
यह गांव भी अन्य गांव जैसा ही था। पर, यहां पुआल की झोपडिय़ां अलग किस्म की थीं। सड़कें अलबत्ता पक्की थीं। कुछ पक्के मकान भी थे जो विकास का दावा कर रहे थे। स्कूल, जिसमें काजी ने आरंभिक शिक्षा पाई, वह भी पक्का हो चुका था। वह मस्जिद, जिसमें कुछ दिनों तक पिता के इंतकाल के बाद सेवा की थी, जिसके बदले काजी को 'मुल्लाÓ की उपाधि मिली थी, बहुत की उदास खड़ी थी। उसकी दीवारें, मुख्य द्वार अपनी दुर्दशा की कहानी खुद बयां कर रही थी। मस्जिद की बाईं ओर दो पत्थर, जिस पर बैठकर काजी कविताएं गुनगुनाते थे, नई धुन बनाते थे, वह भी वैसे ही पड़ा था। अफसोस उसे भी था, काजी एक बार गए तो फिर कहां वापस आए? शायद, अब भी उसे इंतजार हो कवि के आने का। 
वह तालाब, जिसका ऊपर जिक्र किया है, इसे लोग पीरपुकुर के नाम से पुकारते हैं। इस तालाब के पक्कीकरण की सोच अभी तक पं बंगाल की सरकार के दिमाग में नहीं आई है। इस तालाब के बाईं ओर पीरपुकुर की मजार भी है। मजार क्या है, पत्थर के कई टुकड़े रख दिए गए हैं और उन्हें चूने से रंग दिया गया है। कहते हैं काजी के बचपन की दुनिया मस्जिद से लेकर इस मजार तक ही सिमटी थी।
थोड़ी देर तक अकेले इन गलियों का चक्कर लगाता हूं। इसके बाद नजरूल अकादमी का दरवाजा खुल जाता है। यह अकादमी, उसी स्थान पर बना है, जहां काजी नजरूल तपते जेठ के महीने में पैदा हुए थे। पहले मिट्टी का मकान था। 1958 में इसे अकादमी का रूप दे दिया गया। अकादमी के अंदर दाखिल होता हूं। राहुल नाम का एक युवक मिलता है। अपने आने का प्रयोजन बताने के बाद वह हमें संग्रहालय दिखाता है। फोटो की मनाही थी। 1982 में बने संग्रहालय में उनकी कुछ दुर्लभ तस्वीरें थीं। छोटा और एक बड़ा ग्रामोफोन रखा हुआ था। एक लकड़ी की कुर्सी व एक बेड भी, जिसका इस्तेमाल नजरूल करते थे, रखा हुआ था। शीशों से ढंकी काजी की कुछ हस्तलिखित कापियां और पांडुलिपियां भी रखी हुई हैं। तानपुरा और कुछ स्मृतिचिह्न भी हैं। यह संग्रहालय निजी प्रयास से चल रहा है। काजी के भतीजे काजी मोजाहर हुसैन ही अकादमी और इसकी देखभाल करते हैं। संग्रहालय देखने के बाद राहुल ही हमें वह स्कूल भी दिखाता है, जिसमें काजी ने आरंभिक शिक्षा पाई थी। स्कूल के प्रांगण में ही एक विशाल मंच बना हुआ है। नाम है प्रमिला मंच। यहीं पर हर साल काजी की जयंती पर एक सप्ताह तक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए कोलकाता, बंगलादेश, उड़ीसा, राजस्थान आदि से लोक कलाकार आते हैं। सातों रात बाउल, नजरूल गीति, रवींद्र गीति की गूंज से चुरुलिया का कोना-कोना प्राणवान हो उठता है। नृत्य, संगीत, गीत की त्रिवेणी गांव में बहने लगती है। स्कूल प्रांगण से सटे ही एक उद्यान दिखता है। उद्यान में काजी नजरूल इस्लाम की सोने की तरह चमक बिखेरती आदमकद प्रतिमा है, जिसे उनकी स्वर्ण जयंती के मौके पर स्थापित की गई थी। बीच में एक कीर्ति स्तंभ भी काले पत्थरों का बना हुआ है। कीर्ति स्तंभ के दाहिनी ओर काजी की समाधि है और उससे सटे प्रमिला नजरूल की। प्रमिला की अंतिम इच्छा थी कि मुझे ससुराल में दफन किया जाए। 30 जून, 1962 को कोलकाता में निधन हो गया तो उन्हें कोलकाता से ले आकर यहां एक जुलाई को मिट्टी दी गई। अस्सी की उम्र की छू रहे काजी के भतीजे मोजाहर जी एक और बात कहते हैं। उन्होंने बताया कि प्रमिला नजरूल की एक और इच्छा थी कि उनके बगल में ही कवि की समाधि बनाई जाए। इसलिए, उनके बगल में उस समय जमीन छोड़ दी गई थी। बाद में जब ढाका में कवि का देहांत हुआ तो वहां से मिट्टी ले आकर उनके बगल में उनकी समाधि बना दी गई।
 मोजाहर जी बात बताते हैं कि बीमार काजी को बंगलादेश की सरकार ने आमंत्रित किया और वे वहां चले गए। वहीं पर उनका निधन हो गया। काजी के दो बेटे तो बचपन में ही चल बसे थे। 22 फरवरी, 1974 को उनके छोटे बेटे अनिरुद्ध की भी मृत्यु हो गई। दो साल बाद कवि भी नहीं रहे तो कोलकाता से उनके बड़े बेटे सव्यसाची इस्लाम अपने पिता के शव को लेने ढाका पहुंचे। पर इसमें न पं बंगाल की सरकार ने कोई रुचि ली न केंद्र सरकार ने। राज्य सरकार ने कहा, यह केंद्र का मामला है। नेता अपनी जिम्मेदारी से भागते हुए एक दूसरे पर ठीकरा फोड़ते रहे। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। फिर तो वहां से उनकी मिट्टी ले आकर प्रमिला के बगल में समाधि दी गई। इस तरह उनकी दूसरी इच्छा पूरी की गई।
कवि ने एक लंबी अवधि वाक्हत बिताई। नौ जुलाई, 1942 से लेकर 29 अगस्त 1976 तक कवि ने कुछ नहीं बोला। देशी-विदेशी डाक्टरों ने उनकी चिकित्सा की। कोई सुधार नहीं हुआ। इसके बाद लुंबिनी के अस्पताल भेजा गया। यहां भी कोई सुधार नहीं। फिर रांची के मानसिक अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। यहां भी कोई सुधार नहीं हो सका। इसके बाद उन्हें लंदन ले जाया गया। रांची मानसिक अस्पताल के सुपरिटेंडेंट मेजर डेविस ने लंदन सेनीटोरियम थामस अस्पताल के मानसिक चिकित्सक डा. विलियम सर्जेंट को एक परिचय पत्र कवि के बारे में उनके साथ के व्यक्तियों के हाथों भेज दिया। लंदन में भी कोई लाभ नहीं हुआ। अंत में वियना ले जाए गए पर अंतत: 14 दिसंबर, 1953 को कोलकाता वापस आ गए। कोलकाता से फिर 24 मई, 1972 को नवगठित बंगलादेश के पीएम मुजीबर रहमान के आमंत्रण पर ढाका लाए गए और यहीं पर उन्होंने दम तोड़ा। ढाका विश्वविद्यालय परिसर में ही उनकी समाधि बना दी गई। बचपन में दुक्खु मियां जो नाम पड़ा तो जीवन भर दुख ने उनका साथ नहीं छोड़ा।
रांची से जुड़े कवि प्रसंग की चर्चा मोजाहर साहब से करता हूं तो वे अनभिज्ञता प्रकट करते हैं। गर्मियों की छुट्टियों में वे अक्सर रांची आते रहते थे। हिनू के पास तारिणी कुटीर में रहते थे। उनकी पत्नी प्रमिला के मामा प्रफुल्ल चंद्र दासगुप्ता यहां एजी थे। प्रमिला-नजरूल ने 12 नवंबर, 1937 को एक पोस्टकार्ड हिनू के पते पर भेजा था।
पत्र के एक तरफ प्रमिला ने लिखा और पते वाले साइड पर कवि ने। मजमून इस प्रकार है-
चरण स्पर्श, मामा बाबू
आपका पत्र मिला। इसके अलावा आपने नूर को जो दो पत्र दिया, वो भी काफी दिन बाद पढऩे को मिला। दोनों चि_ी का नूर को पता नहीं था। घर में हम लोगों की तबीयत खराब चल रही है। लेकिन इसके चलते जो हम चि_ी नहीं लिख सके, ऐसा नहीं है। सच बोलूं तो मामा चि_ी लिखने में आलस लगता है, यही मेरी अभद्रता है। आप लोगों के ऊपर हमलोग गुस्सा करेंगे, यह बात आपके मन में आएगा, मैंने कभी नहीं सोचा। खैर, आप और दीदी, चि_ी नहीं लिखने की गलती के लिए क्षमा करेंगे।                           इति निवेदिका।
दूसरी तरफ नजरूल ने लिखा है-
श्री चरणेषु
मेरा दुर्गा पूजा का प्रणाम स्वीकार कीजिए। मामी को भी प्रणाम बोलिएगा। छोटों को आशीर्वाद। आपका पत्र आफिस में पड़ा था, इसलिए उत्तर देने में देरी हुई। आशा है, भूलचूक माफ करेंगे। आप कैसे हैं? मेरी तबीयत अच्छी नहीं है। इति।
नजरूल।
यह पत्र भी भास्कर गुप्ता ने उपलब्ध कराया। प्रफुल्लचंद्र दासगुप्ता भास्कर के पिता परमेशचंद्र गुप्ता के फूफा लगते थे। मोजाहर साहब की आंखें रांची प्रसंग को सुनकर चमक उठती हैं। वह पत्र के लिए लालायित हो उठते हैं। कहते हैं, वह पत्र दिलवा दीजिए, यहां संग्रहालय में उसे रख देंगे, ताकि दूर-दराज से आने वाले लोग इसका लाभ ले सकें। बातचीत करते-करते सांझ हो उठती है। वहां से चल देता हूं। गलियों में चहल-पहल बढ़ गई है। कुछ युवा सड़क किनारे ताश खेल रहे थे। 14 हजार की आबादी वाले गांव के किसान खेती के लिए भगवान पर भरोसा रखते हैं। गांव से सटे कोलियरी का लाभ गांव वालों को नहीं मिलता। विकास के इस विद्रूप सच के साथ बस पकड़ लेता हूं। मन में कवि की पंक्तियां गूंजने लगती हैं-मैं आता हंू हर युग में, आया हूं फिर महाविप्लव हेतु..हूं स्रष्टा का शनि महाकाल धूमकेतु। 

पातालपुरी में आदिम रात्रि की महक


संजय कृष्ण, कुंानगर से : 
बांध से बड़े हनुमान मंदिर तक ठेलमठेल है। जिधर नजर जाती है, उधर जनप्रवाह ही दिखाई देता। भीड़ में चलना मुश्किल हो रहा था। कांची काम कोटि शंकराचार्य पीठम मंदिर के सामने खड़ा हो जाता हूं। उत्तर में दक्षिण शैली के मंदिर की ओर निहारने लगता हूं। कुछ उडिय़ावासी दर्शन कर निकल रह थे। गंजाम, उड़ीसा से आए थे। कुल छह लोग। आर आर पंडा आर्मी से रिटायर्ड। लंबा सफर तय कर यहां पहुंचे हैं। महाकुंा की जानकारी के बाबत कहने लगे, 'पंजिका के माध्यम से इसकी जानकारी मिली।  पंजिका यानी पतरा। पतरा ने उन्हें कुंभ का पता बताया और चले आए इस पुण्यनगरी में। माघी पूर्णिमा का स्नान कर यहां से रवाना होंगे। पहली बार मेले में इस छोटी सी अनुशासित भीड़ को देखकर स्तब्ध हैं। कहते हैं, इसके बारे केवल सुना था। देखा तो जीवन धन्य-धन्य हो गया।Ó बातचीत कर किले की ओर रुख कर लेता हूं। बीच में रामजानकी मंदिर में दर्शनार्थियों का तांता लगा हुआ था। मंदिर का पट बंद होने की घोषणा हो रही थी। मन को समझाया, बाद में दर्शन कर लेंगे। अभी तो आदिम रात्रि की उस महक को महसूस करना है, जहां राम ने तीन रात्रि बिताई थी। अक्षय वट के दर्शन को लंबी कतारें लगी थीं। हम भी कतार में खड़े हो जाते हैं और धीरे-धीरे कदम दर कदम बढऩे लगता है। तन-मन रोमांचित है। कतार में खड़े श्रद्धालु जय-जय गंगे, हर-हर गंगे का उद्घोष कर रहे हैं। किले के उस मुहाने पर पहुंच जाता हूं। वहां से पंडित दान की महिमा बता रहे थे और भंडारे के लिए दान की अपील कर रहे थे। भक्त दान करते और पातालपुरी की ओर बढ़ चलते। पाताल में मंदिरों का समुच्चय। एक जगह वट का जड़ दिखा। लोग श्रद्धा से शीश झुकाते और फिर दूसरे रास्ते से ऊपर आ जाते। इसके बाद बाहर। अक्षय वट की महिमा तो सबने बखानी है। लेकिन मेरे ज्ञान में एक ठेले वाला वृद्धि करता है। मुख्य द्वार के दूसरी छोर पर वह चने भूंज रहा था। चने का स्वाद लेते हुए मैंने इस वट के बारे में उससे पूछने लगा। कहने लगा, 'इ ओरीजिनल बट थोड़े है। उ तो दूसरी ओर है। उसे नहीं दिखाते। उ बट को तो अंगरेज जाते-जाते उसकी जड़ में आग डालकर गए, लेकिन उसका कुछ नहीं बिगड़ा। उसकी रक्षा तो राम-लक्ष्मण सीता करते हैं।Ó
 खैर, दर्शन करने के बाद संगम की ओर बढ़ लेता हूं। स्नान की लंबी कतारें। पंडे संकल्प करा रहे हैं...हरिओ-हरिओम...अपने गोत्र का नाम लीजिए, अपना नाम....इसके बाद कुछ सुनाई नहीं देता। आधा मिनट में कर्मकांड पूरा। दान-दक्षिणा ले उन्हें तृप्ति का अहसास होता है और भक्त को पुण्य का। दान-पुण्य की इस नगरी में कोई आंध्रप्रदेश से आया तो कोई गुजरात से। पूरा देश ही संगम तट पर सिमट गया है। चाहे वह गरीब हो या अमीर। हर आदमी एक डुबकी लगाता। वापसी पर गुजरात के संत से भेंट हो जाती है। वे लंदन से संत गुणवंती देवी को लेकर यहां स्नान कराने आए थे। वे बीमार थी। पुलिस से गुजारिश की, वीआइपी गेट के पास स्नान करा दीजिए, पर पुलिस असहाय थी। वे चार पहिए से तीन दिनों में यहां पहुंचे थे। चौथे दिन वे संगम पहुंचे थे। काफी परेशान थे। लेकिन कोई चारा भी नहीं दिख रहा था। पुलिस उन्हें सरस्वती घाट का रास्ता बता देती है...। भीड़ को चीरते हुए वे आगे बढ़ लेते हैं और मैं भी अपना रास्ता पकड़ लेता हूं।

बछिया एक दाता हजार

जानकर ताज्जुब होगा कि तीर्थनगरी प्रयाग में एक ही बछिया को एक नहीं, हजारों लोग दान देते हैं। तंबुओं की इस तीर्थ नगरी में 
पुल 10-11 के बीचे गंगा के रेतीले विशाल तट पर दर्जनों पंडे ाक्तों को कथा बांच रहे हैं। दान-पुण्य की महिमा बता रहे हैं तो दूर-दराज से आए ाक्त वैतरणी पार करने की अािलाषा लिए बछिया ाी दान कर रहे हैं। मजा यह कि बछिया एक है और दान करने वाले हजार। आदित्य पंडा चौकी लगाए गंगा घाट पर अपने एक ाक्त को बछिया दान की महिमा बताते हैं। इसके बाद उससे पूंछ पक
ड़वाते हैं। मंत्र बुदबुदाते हैं। हाथ मे दक्षिणा लेते हैं और, दान का कर्मकांड पूरा। माघ पूर्णिमा की पूर्व संध्या। सामने गंगा का अविरल प्रवाह यमुना से मिलने क लिए बड़ी तेजी से बढ़ रहा था। संध्या के चार बज रहे थे। रेत पर कुछ बच्चे ोल रहे हैं तो कुछ गंगा मैया में डुबकी लगा रहे।
 प्रयाग की इन मनोरम छटा को निहारने के बाद आदित्य पंडा की चौकी पर बैठता हूं तो वे बछिया दान की महिमा बताते कहते हैं कि जैसा यजमान वैसी सेवा। बछिया दान के लिए कम से कम 11 रुपये तो दक्षिणा देनी पड़ेगी। पूछता हूं, 11 रुपये में बछिया मिल जाती है? कहते हैं, 11 रुपये में आज क्या मिलेगा? लेकिन गरीब यजमान है और उसके पास पैसा है नहीं, पर पुण्यनगरी में वह चाहता है कि वैतरणी पार के लिए एक बछिया दान करे तो वह कहां से करेगा? उसकी मन की शांति के लिए कुछ तो करना पड़ेगा। आदित्य बहुत उत्साह से बताते हैं कि इस एक बछिया से अब तक दस हजार लोगों का गोदान करा चुका हूं। अमावस पर तो कई हजार। आदित्य का यह पुश्तैनी पेशा है। 
 एक दूसरे पंडा विमल मिश्र बताते हैं अमावस्या के दिन पांच हजार लोगों को गोदान करवाया। विमल ने पास ही एक मरियल से बछिया बांध राी थी। उस ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि इस एक बछिया को एक महीने में दस हजार लोगों से अधिक ने अपनी मुक्ति के लिए दान कर चुके हैं। वैतरणी का डर और आस्था की चाह के कारण लोग गोदान करते हैं। विमल बताते कि 11, 21, 51, 100 से लेकर हजार और उससे ऊपर तक। जैसा ाक्त वैसी पूजा। वह बताते हैं कि दान का बड़ा महत्व है। वह ाी माघ के महीने और प्रयाग की धरती पर तो पुण्य कई गुना बढ़ जाता है। जो ाी आता है, चाहता है कि पुण्य का लाा लेकर जाए। इस बार महाकुंा के कारण ाी श्रद्धालु काफी आ रहे हैं। उनका कहना है कि गो दान, गंगा पूजन, बेड़ी दान, पिंड दान और अस्थि पूजन करवाया जाता है। वह प्रयाग की महिमा बताते हैं कि यह तो महातीर्थ है। को कही सकई प्रयाग प्रााऊ...। विमल आगे बताते हैं कि 'सूर्य और चंद्रमा जब प्रतिवर्ष मकर राशि में संचरण करते हैं तब माघ में माघ मेले का आयोजन होता है। वृहस्पति जब मेष राशि चक्र की वृषा राशि में 12 साल में आते हैं तब प्रयाग में कुंा लगता है और इस बार तो महाकुंा लगा है। इसे पूर्णकुंा ाी कहा जा रहा है, क्योंकि ऐसे नक्षत्र का योग अब 360 साल बाद आएगा।Ó इंटर पास विमल और ाी बहुत कुछ बताते हैं। पर, पीढिय़ों से चले आ रहे इस पेशे में अपने बेटों को नहीं डालना चाहते। कहते हैं  'यह काम अच्छा नहीं है। आपस में लड़ाई-झगड़ा ाी ाूब होता है। प्रशासन ाी कोई मदद नहीं करता।Ó ौर, विमल अकेले नहीं है न आदित्य। जैसी जिसकी धारणा...पर धर्म की इस नगरी में आस्था का प्रबल प्रवाह कम होता दिााई नहीं देता।

भारद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा

संजय कृष्ण : जानते हो परमार्थ का मतलब क्या होता है? तीर्थराज प्रयाग की इस नगरी में सत्तर साल के गाजीपुर से आए संत प्रवर अनंतश्री स्वामी महिधर प्रपन्नाचार्य सबसे पहला सवाल मेरी ओर यही दागा। दिनरात धर्म की बह रही गंगा के बीच ऐसे सहज सवाल से पहली बार साबका पड़ा था। मैंने जब अनभिज्ञता जाहिर की तो कहने लगे, परमार्थ के तीन चरण होते हैं। रोटी देकर, दवा देकर और कथा सुनाकर। इसे थोड़ा विस्तार देते हुए कहते हैं, यदि कोई भूखा है तो उसे रोटी की जरूरत होगी। बीमार है तो दवा की। तब उसे कथा सुनाओगे तो सुनेगा। जिसके यहां यह तीनों है, वही स'चा परमार्थी है...भारद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा, परमारथ पथ परम सुजाना। महिधर प्रपन्नाचार्य कथा के बाबत कहते हैं कि संगीमय भागवत कथा नहीं होती। किसी ऋषि ने संगीतमय कथा कही है क्या? शायद उनका इशारा कुकुरमूत्ते की तरह उग आए कथावाचकों की ओर हो?
खैर, परमार्थ के इस विकट रहस्य को जान आगे बढ़ लेते हैं। बरसात के बाद खिली धूप ने रास्तों को सुकून बख्शा है। चहल-पहल बढ़ गई है। एक विशाल शिविर के आगे बोर्ड पढ़ता हंू तो साढ़े सात सौ साल पुराने हथियाराम मठ का बोर्ड लगा हुआ दिखा। अंदर घुसते ही चंदौली के हलधर सिंह मिल जाते हैं। बताते हैं कि यहां से लोग 16 मार्च को गाजीपुर जाएंगे। थोड़ी देर बाद उनके महंत भवानी नंदन यति से मुलाकात होती है। संस्कृत विश्वविद्यालय, बनारस से पी एचडी हैं। उनका यह तीसरा कुंभ है। युवा हैं। तार्किक भी। चेहरे पर ओज भी है। जिज्ञासावश एक सवाल पूछता हूं...अब 12 स्थानों पर कुंभ की तैयारी हो रही है, आप क्या सोचते हैं? सहजढंग से कहते हैं, परंपराओं को जिंदा रखना आसान नहीं। प्रयाग में पूरे देश से लोग आते हैं। चार स्थानों पर कुंभ हो रहे हैं। प्रयाग में कैसे होता है, यह आप देख रहे हैं। संकल्प करना ब'चों का खेल नहीं। संकल्प वहीं लेना चाहिए, जिसे हम निभा सकें। संकल्प का कोई विकल्प नहीं होता। इसका भी ध्यान रखना चाहिए।
सेक्स स्कैंडल में फंसे स्वामी नित्यानंद के महामंडलेश्वर बनाए जाने को लेकर हो रहे विरोध पर कहते हैं, विरोध तो स्वाभाविक है। वैसे, इस युवा संन्यासी में मुझे जो एक बात आकर्षित की, वह थी ईमानदारी। उन्होंने बहुत स्पष्ट ढंग से कहा कि मैं कोई बड़ा संत नहीं हूं। मैं तो साधना पथ का एक अदना से आदमी हूं। प्रारब्ध ने साथ दिया तो मंजिल एक दिन मिल ही जाएगी। यहां से फिर आगे बढ़ लेता हूं ...। एक शिविर के पास अचानक कदम ठिठक जाते हैं। शिविर के सामने अनंतश्री स्वामी अखंडानंद सरस्वती महाराज के चित्र लगे थे। महाराज के बारे बहुत सुनता रहा हूं। हिंदी के महत्वपूर्ण ललित निबंधकार विद्यानिवास मिश्र के साथ इनकी तस्वीरें देखी थीं बनारस में। सो, खुद को रोक नहीं पाया। सोचा, उनके किसी शिष्य से मुलाकात होगी, पर यहां तो आधुनिक मीरा से मुलाकात हो गई। श्रीमां पूर्णप्रज्ञा। उनके चेहरे पर गजब की कांति थी। अत्यंत मधुर आवाज। सोचा, धर्म-अध्यात्म की बातें तो कई जगह हो गईं थोड़ा उनके भीतर मन को टटोला जाए। आखिर, वे संन्यास का मार्ग क्यों चुनीं। मीरा की तरह श्री मां भी सतना जिले में पडऩे वाला नागौद रियासत से ताल्लुक रखती हैं। 19 की उम्र में ग्वालियर से बी एससी किया। इसके बाद गुजरात के लाठी रियासत में शादी हो गई। पर, छोटी से उम्र में आर्ष ग्रंथों की ओर जो झुकाव बढ़ा, वह शादी के बाद और भी प्रगाढ़ होता गया। शादी हुई तो भी जो समय मिलता जप और ध्यान में जाता।
श्रीमां बताती हैं कि एक बार वे घर में पत्र छोड़ हिमालय चली गईं। ग्रंथों में पढ़ा था कि संतों को हिमालय जरूर जाना चाहिए। सो, चल दी। ससुर ने पुलिस में कंपलेन लिखवा दिया। इसके बाद मेरी खोजबीन शुरू हुई। आखिरकार पुलिस ने मेरे ठिकाने का पता लगा लिया। ससुर भी पुलिस अधिकारी थे। पुलिस ने मेरे से पूछताछ की...क्या किसी ने बहकाया....श्रीमां कहने लगीं, हां। कौन? नाम बताने लगीं....विवेकानंद, दयानंद, शंकराचार्य, चिन्मयानंद....इस तरह नाम बताती गईं। एक पुलिस वाला बड़ी तेजी से इन नामों को लिख रहा था कि अचानक उसकी कलम रुक गई...कहने लगा, इनमें तो कई जीवित नहीं है। इसके बाद ससुरजी से भी पूछताछ किया। इसके बाद छोड़ दिया। इसके बाद पति को समझाया। वे मेरी भावनाओं को समझ ही नहीं पा रहे थे। उन्हें पार्टी और घुड़सवारी का शौक था। इनमें मेरी कोई रुचि नहीं थी। उनके साथ पार्टी में जाती जरूर लेकिन एक किनारे बैठ माला जपा करती। इस बीच मेरे तीन बेटे हो गए। अंतिम बार जब घर छोड़ा, मेरा सबसे छोटा बेटा पांच साल का था। वही मेरे संपर्क में रहता है। श्रीमां वेदांत से लेकर उपनिषद तक को खंगाला और वे उसी पर बोलती भी हैं। मां कहती हैं, चिंतन ही जीवन है और चित्त ही संसार...। ब्रह्म वह है, जिसमें शब्द की गति नहीं। मां से हम विदा लेते हैं, लेकिन वे प्रसाद लेने का आग्रह करती हैं...वहां से चलते हैं तो सांझ अपना पैर पसारने लगी थी....धीरे-धीरे पूरा कुंभ परिसर ही पीली रोशनी से जगमगा उठता है। 

उठीं भक्ति की अगम तरंगे

संजय कृष्ण
माघी पूर्णिमा पर किले से झांकता चौदहवीं का चांद अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा है और इधर, सूर्य की लालिमा से संगम तट सिंदूरी हो रहा है। सात घोड़ों पर सवार भुवन भास्कर को प्रणाम करते हुए लााों हाथ ऊपर उठे हुए हैं...बासंती बयार में गूंज रहा है ऊं आदित्य नम: ऊं सूर्याय नम: ऊं ाास्कराय नम:...मंत्र के साथ हे सूरुजदेव, हे गंगा मैया का तार सप्तक स्वर...। कहीं गायत्री मंत्र की गूंज तो कहीं पं जगन्नाथ की गंगा लहरी के पुण्य श्लोक...। भक्ति के गाढ़े होते रस में मेरा सिर भी श्रद्धा से झुक जाता है। संगम की ओर निहारता हूं। पूरा तट श्रद्धालुओं से भरा हुआ। तील रखने की जगह नहीं। जिधर देखिए, उधर केवल सिर...। संगम पर भक्ति की अगम तरंगे उठ रही हैं।
गंगा के मटमैले जल में लोग उतरते हैं, आस-पास जल में तैर रहे पुष्पों, नारियल, दीपों को अपने दोनों हाथों से चारों ओर ठेलते हैं और इसके बाद डुबकी लगा लेते हैं। उन्हें इसकी कतई परवाह नहीं कि गंगा मैली है कि गंगा के किनारे कचरों का अंबार है...श्रद्धा की अविरल धारा उनके भीतर बह रही है। गूंज रही है सनातन परंपरा की आदिम लय। इस लय में में समाया है सृष्टि चक्र... 
 इस बीच लाउडस्पीकर की वाचालता और मुखर होने लगती है... बिछड़े लोगों की सूचनाएं प्रसारित हो रही हैं...कोई सीधे माइक पर पुकारता है, हम इहां हैं, चली आव....कोई ओडि़सा का रहने वाला अपने बिछड़े साथी को पुकार रहा है....। तट पर पुलिस वाले भी सुरक्षा में मुस्तैद हैं। घोड़े पर सवार पुलिस भी अपार जनसमूह के बीच से रास्ता बनाते हुए आती-जाती है। इस बेफ्रिकी के साथ कि उसके आने-जाने से स्नानार्थियों की लय में विघ्न पड़ता है।
  रेती पर भीड़ एकदम शांत। अनुशासित। इन्हें देखकर मार्क ट्वेन की पंक्तियां याद आने लगती हैं। मार्क 1895 के कुंभ में प्रयाग आए थे। उस समय यहां की अनुशासित भीड़ को देखकर आश्चर्य में पड़ गए थे। वैसे ही जैसे स्वीटजरलैंड से आए फोटोग्राफर एंड्रीप ब्लो इस महाकुंभ को देख हतप्रभ रह जाते हैं। पिछले तीन दिनों से वे कुंभ की तस्वीरें उतार रहे हैंं। भारत उन्हें इतना रास आया है कि वे चौथी बार यहां आए हैं। कुंभ की जानकारी मिली तो भागे-भागे आए। कुंभ में आई भीड़ को देख कहते हैं कि यहां इतने लोग धर्म पर विश्वास करते हैं। तंबुओं के इस शहर को देख कहते हैं कि 'मेरे लिए यह आश्चर्य है कि यहां एक शहर सिर्फ दो महीने के लिए बसता है।Ó
 अंजलि के जल में सूर्य की रश्मियां दिख रही हैं। दिख रहा है जन प्रवाह...पटना, बेगूसराय, पलामू, लातेहार, गोरखपुर, रींवा, सतना...हैदराबाद, ओड़ीसा, धार...न जाने कहां-कहां से, किस-किस कोने से यहां माघी पूर्णिमा पर गंगा मैया का आशीष लेने आए हैं। संगम की ओर बढ़ते लोगों के बीच एक लोकगीत उठने लगता है। उसकी भाषा समझ में नहीं आती है। धीरे-धीरे शब्दों को पकडऩे की कोशिश करता हूं, लेकिन नाकाम....ये यात्री धोती-कुर्ता पहने थे। माथे पर प्लास्टिक का छोटा सा बोरा...पहनावे से अनुमान लगाया कि ये अपने ही आस-पास के होंगे। पर लोकगीत ने रास्ता बदल दिया...पूछने पर बताया, सतना जिले से आए हैं। भाषा अलग, बोली अलग, पहनावा अलग....थोड़ा ठहरकर सोचता हूं...आखिर वह कौन सी कड़ी है, जो पूरे देश से यहां लोगों को खींच लाई है...तर्क मत करिए...हजार-हजार किमी की कठिन यात्राएं, खुले आकाश में रैन बिताने के पीछे क्या कोरी श्रद्धा है या कुछ और...। संगम पर पूरा भारत दिखाई देता है। चिरंतन भारत, अप्रतिम भारत, शाश्वत भारत...। यहां से ध्यान हटता है कि 'महाकुभ्ंाÓ से अमृत की बूंदें छलकने लगती हैं। तैरती आस्थाओं में विश्वास डूबकी लगाने लगता है। प्रश्न-प्रतिप्रश्न सब कुछ लहरों में तिरोहित होने लगता है। अमृत मुहूर्त में मैं तीन डुबकी लगा लेता हूं। आस्था, विश्वास, करुणा और श्रद्धा के अनगिनत दिए गंगा में तैरने लगते हैं। धीरे-धीरे भीड़ को चीरते हुए मैं अपने गंतव्य की ओर बढ़ता हूं, उधर, भक्तों का रेला खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा...लाखों कदम संगम की ओर बढ़ते जा रहे हैं...सूर्य धीरे-धीरे तीाा होता जा रहा है...।   

सौ साल पहले रांची की आबादी थी पांच हजार

संजय कृष्ण : दोमिनिक बाड़ा ऐसी शख्सियत हैं, जो मुंह से कम और कलम से ज्यादा बोलते हैं। कलम भी लीक पर नहीं चलती, लीक से हटकर चलती है। लीक पर चलने वाले बहुत हैं। झारखंड के स्वयंभू जानकार भी बहुत हैं, लेकिन उनका काम कुछ अलहदा किस्म का है। सो, इन दिनों उनकी छोटी सी अंगरेजी पुस्तक  'ग्लिपंस आफ लाइफ एंड मिलेयू इन नाइंटींथ सेंचुरी झारखंडÓ चर्चा में है, जिसमें है सौ साल पहले का आंखों देखा हाल। यह ऐसी पुस्तक है, जिसे एक बैठकी में पढ़ा जा सकता है, पर ज्ञान का जो खजाना यह पुस्तक मुहैया कराती है, वह दुर्लभ और खासी महत्वपूर्ण है। 
मूल जर्मन से अनुदित इस पुस्तक में जर्मन लोगों की आंखों से देखा 19 वीं शताब्दी का चुटिया या कहें झारखंड कैद है। सौ साल के इतिहास से गुजरना अपने आप में काफी दिलचस्प है। हालांकि 1895 में मिशन इंस्पेक्टर काउश व मिशनरी एफ हान ने एक मोनोग्राफ लिखा था। उन्होंने जर्मन के गोथिक लिपि में लिखा था। इस पुस्तक पर किसी झारखंडी का ध्यान नहीं गया। जाता भी कैसे, जर्मन में लिखी पुस्तक को वही पढ़-समझ सकता है, जिसे जर्मन भाषा आती हो, जिसे जर्मन का ज्ञान हो, उसके लिए जरूरी नहीं कि उसे झारखंड में रुचि हो। आखिर, क्यों कोई अपनी मेहनत बेमतलब के कामों में जाया करेगा, पर आधी दुनिया घूम चुके, इंग्लैंड और कनाडा के विश्वविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर चुके दोमिनिक झारखंडी भी हैं और आदिवासियों की संस्कृति में गहरी रुचि भी रखते हैं। उसी परिवेश और गांव-घर में उनकी पैदाइश हुई है।
सो, उनके हाथ में जब जर्मन में लिखी पुस्तक लगी तो उनके अध्यायों को देख उनकी आंखें चमक उठीं। अपने संगठन के कामों से अक्सर जर्मनी की यात्रा करने वाले बाड़ा ने जर्मन भी सीखी और गोथिक के बारे में काफी जानकारी भी एकत्र की।  फिर क्या था, लग गए उसे अनुवाद करने में। पहले उसे हिंदी में किया और बाद में अंगरेजी में। हिंदी में नाम है: उन्नीसवीं सदी का आंखों देखा चुटियानागपुर (1845 से 1895 तक)। अंगरेजी में इसका नाम 'ग्लिपंस आफ लाइफ एंड मिलेयू इन नाइंटींथ सेंचुरी झारखंडÓ। 
पुस्तक में उल्लेख है कि चुटिया नागपुर राजनीतिक दृष्टि से पांच जिलों, आठ सब डिवीजन और नौ कचहरियों में बंटा था। लोहरदगा को उस समय खास चुटियानगर कहा जाता था। इसके अलावा अन्य जिले थे हजारीबाग, पलामू, मानभूम, सिंहभूम। हालांकि अंगरेजी सरकार की देखरेख में वर्तमान झारखंड के सरायकेला खरसांवा के अलावा छत्तीसगढ़ के सरगुजा, गांगपुर, जशपुर, कोरया, बोनाई, उदयपुर, चांगभुकार भी शामिल था। 
रांची की उस समय आबादी लगभग 15 हजार थी, जबकि लोहरदगा, चतरा, झालदा आदि की आबादी महज चार हजार। चुटियानागपुर की पूरी आबादी 55,12,151 बताई गई है। इनमें से 8,83,359 लोग इसके सहायक राज्यों से आते हैं। ( 55 लाख की आबादी संशय पैदा करती है। संभव है जानकारी देने वालों ने उन्हें गलत जानकारी दे दी हो।) पुस्तक में सहायक राज्यों का उल्लेख नहीं है। अलबत्ता आदिवासी संख्या के बारे में जानकारी दी गई है, जिसमें चुटियानागपुर में वास्तविक आदिवासियों की संख्या 15,89,825 बताई गई है। उस समय उरांव 4,56,978, संताली 3,74,449, मुंडारी 3,12,291 हो अथवा लरका 1,49,660 बताई गई है। चुटियानागपुर में गोंड जनजाति का भी उल्लेख किया गया है, जिसकी आबादी 1,30,000 बताई गई और खडिय़ा 47,000, कोरवा 9,700। लेकिन यह आज का चुटियानागपुर नहीं लगता है। उस समय इसकी चौहद्दी में मध्यप्रदेश, उड़ीसा, पं बंगाल, उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्से भी इसमें शामिल थे। इसे अंगरेजों ने प्रशासनिक ढंग से बांटा था। इसलिए पूरी आबादी इसमें शामिल कर ली गई है। हिंदू-मुस्लिम आबादी के बारे में बस इतना की कहा गया है ये सब जगह फैले हुए हैं। पुस्तक ईसाई दृष्टि से ही लिखी गई है। कितने लोग मिशन के प्रति उत्सुक हैं, कितनों ने बपतिस्मा लिया। लेखक लिखता है, समस्त चुटियानागपुर में 1893 के अंत तक गोस्सनर मिशन में 35,778 व्यक्तियों ने बपतिस्मा लिया और 3,696 ने धर्म जानने की उत्सुकता दिखाई। पुस्तक में आदिवासी संस्कृति, उनके पहनावे, हुंडरू जलप्रपात, नदी-नाले, खान-पान, खेत-खलिहान आदि का भी जिक्र किया गया है। तब नदियों को पार करने के लिए कोई पुल नहीं थी। घने दुर्गम जंगल थे। जंगलों में खूंखार जानवर थे। इन सबका हवाला है। सौ साल पहले के अपने समय का अक्स इसमें दिखाई पड़ता है। हालांकि पुस्तक में सौ साल पूर्व के पहनावे को देखा जा सकता है। हां, अंगरेजी पुस्तक में शिशिर लाल ने अपने रेखांकन से पुस्तक को सजाया है। दोमिनिक झारखंड की जमीन को लेकर अगली पुस्तक लिख रहे हैं। 

ग्लोबलाइजेशन की आंधी में बहे तो मिट जाएगी हमारी पहचान


संजय कृष्ण :
खिलता हुआ गेहुंआ रंग, लंबी काया पर चमकता कुर्ता और सफेद घुंघराले-बंकिम बाल, उंगलियों में कीमती रत्न, मनोहर व्यक्तित्व...ऐसी ही आभा के साथ महान संतूर वादक पं शिव कुमार शर्मा से रांची के रैडिशन ब्लू होटल में मुखातिब होने का मौका मिला। बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो बात झारखंड के तार वाद्य टुहिला पर भी हुई, जिसे बजाने वाले मात्र एक दो लोग ही बचे हैं। बताया कि झारखंड का यह एक तार वाद्य अंतिम सांसे गिन रहा है। ऐसे लोक वाद्यों के बचाने का क्या प्रयास होना चाहिए? छूटते ही बोले, यह सिर्फ झारखंड की बात नहीं है। ऐसे तमाम लोक वाद्यों, लोकगीतों और लोक रागों, लोक साहित्य को बचाने की कवायद होनी चाहिए और इसमें सरकार को, मीडिया को और कारपोरेट हाउस को आगे आना चाहिए। बिना इसके इनका संरक्षण नहीं हो सकता। अभी स्पीक मैके यह काम पिछले 37 सालों से कर रहा है। हर साल वह छह हजार कार्यक्रम आयोजित करता है।
बात संतूर पर चली तो इसके पूरे इतिहास से परिचित कराया कि यह कितना प्राचीन है और देश-विदेशों में पुराने समय में अलग-अलग नामों से यह पुकारा जाता था। हालांकि यह भारत से ही पश्चिम गया। पं शर्मा ने यह भ्रम भी दूर किया कि यह एक कश्मीरी लोक वाद्य नहीं, बल्कि सूफियाना मौशिकी में बजाया जाने वाला वाद्य है। कश्मीर इसका जन्म स्थान है, लेकिन इसे लोग जम्मू में भी साठ साल पहले नहीं जानते थे। पर, ईश्वर ने मुझे निमित्त बनाया और इसे एक शास्त्रीय वाद्य के रूप में पहचान दिलाई।
 तबले और गायन से शुरुआत करने वाले पद्म विभूषण पं शिव कुमार ने कई फिल्मों में संगीत भी दिया पं हरि प्रसाद चौरसिया के साथ मिलकर। रूपहले पर्दे पर प्रेम का महाकाव्य रचने वाले स्व यश चोपड़ा ने 'सिलसिलाÓ में शिव-हरि की जोड़ी को पहला मौका दिया। इसके बाद चांदनी, 'लम्हेंÓ और 'डरÓ आदि फिल्में कीं। बाद में 'हम आपके हैं कौनÓ को भी अपने मधुर संगीत से संवारने वाले थे लेकिन समयाभाव के कारण वे इस फिल्म को नहीं कर सके।
पंडिती ने फिल्मी दुनिया का एक वाकया भी सुनाया। बताने लगे कि एक बार एक फिल्म की रिकार्डिंग हो रही थी। उसमें मैं भी मौजूद था। ख्वाजा अहमद अब्बास मेरे पास आए और एक कोने में ले जाकर कहने लगे, मैं एक फिल्म बना रहा हूं, 'सात हिंदुस्तानीÓ। उसमें आप काम करें। उस रोल में आप एकदम फिट हैं। पं शर्मा ने बड़ी शाइस्तगी से काम करने से इनकार कर दिया। खैर, वे अभिनेता बन जाते तो दुनिया संतूर के सात स्वर से अपरिचित नहीं रह जाती! वह भी मानते हैं कि भगवान तो मुझसे कुछ और ही कराना चाहता था।
सौ तारों वाले इस वाद्य को सात सुरों में पिरोना आसान काम तो नहीं था। जब इसे वे सात सुरों में पिरो रहे थे कई ने आलोचना भी की। इसके बाद इसमें कुछ फेरबदल कर इसे शास्त्रीय मंच तक ले गए। इसके पीछे उनकी लंबी साधना और पिता की इच्छा भी शामिल थी।
जब 1952 में इस वाद्य को कश्मीर रेडियो स्टेशन से बजाया तो थोड़ा आत्मविश्वास जगा। इसके बाद 1955 में गुरु भाई डा. कर्ण सिंह ने इन्हें तब  बांबे भिजवाया। शुरू में फिल्मों में भी बजाया। 1956 में कोलकाता में भी अपनी प्रस्तुति दी। इसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। 
आज की युवा पीढ़ी और संगीत को हमसफर बनाने वालों से यह जरूर कहते हैं कि शास्त्रीय वादन समर्पण, साधना और प्रतिबद्धता की मांग करता है। ऐसे कलाकारों में तारीफ को जज्ब करने की क्षमता भी होनी चाहिए। यह अपेक्षा रखना बेमानी है कि ऐसी विधाओं में हजारों कलाकार पैदा हो सकते हैं। यह ईश्वर की कृपा और पूर्व जन्म का संस्कार होता है। जैसे क्रिकेट में सब धौनी नहीं बन सकते।  जबकि यह गांव से लेकर शहर में खेला जा रहा है। फिर यह तो शास्त्रीय वादन का क्षेत्र है। स्कूलों में कलाकार पैदा नहीं हो सकते। यह ध्यान रखनी चाहिए। इसके लिए तो गुरु-शिष्य परंपरा की एकमात्र गुरुकुल है। 
हां, वे इस बात पर संतोष जताते हैं कि उनके पुत्र राहुल शर्मा उनकी परंपरा को आगे बढ़ा रहे और उसमें काफी प्रयोग भी कर रहे हैं। साथ ही जापान से आए ताका हीरो आराइ भी 2007 से उनके साथ हैं और संतूर की की बारीकी सीख रहे हैं। बातें और भी हैं। फ्यूजन से लेकर फिल्मी संगीत तक। इस पर भी अपनी बेबाक और ईमानदार राय रखी। बताया कि फ्यूजन वही है, जहां दो अलग-अलग विधाएं मिलें तो एक तीसरा खूबसूरत रंग पैदा हो। हिंदी सिनेमा में अनिल विश्वास, एसडी बर्मन, पंकज मल्लिक आदि ने इसका प्रयोग किया है। 
जाते-जाते मीडिया के लिए यह नसीहत भी दिए कि मीडिया को भी इस क्षेत्र में आगे आना चाहिए। संस्कार और रुचि निर्माण मीडिया ही कर सकता है। सो, यदि देश को लीडर बनना देखना चाहते हैं तो अपनी कलम का इस्तेमाल सकारात्मक काम के लिए करिए। उपभोक्तावादी और वैश्वीकरण की आंधी हमारे मूल्यों, संस्कृति और संस्कार को ध्वस्त कर रही है। इसे बचाने के लिए आगे आना चाहिए। देश की पहचान यहां के शास्त्रीय व लोक गीतों से हैं। ग्लोबलाइजेशन की आंधी में बह गए तो हमारी पहचान भी मिट जाएगी। 

हॉकी की धरती पर क्रिकेट का जुनून

संजय कृष्ण
क्रिकेट की दीवानगी बुधवार की रात हरमू रोड में भी दिखी। पीली रौशनी में धौनी के घर का बाहरी हिस्सा नहाया हुआ था तो सड़क भी पीताभ हो चुका था। आकाश का चांद अलबत्ता दूधिया रोशनी फेंक रहा था। शायद, दूर क्षितिज में चांद को अपने क्रिकेट टीम के धुरंधरों को देखने की व्याकुलता हो...। खैर, हम थे, भीड़ थी, शोर था, जोश था, जुनून थी और था जज्बा। 
जमीं और आसमां के बीच के खालीपन को शोर भर रहा था। सड़क को बांटने वाले डिवाइडर से लेकर आस-पास की दीवारों तक में तील रखने की जगह नहीं थी। धौनी-धौनी का शोर मौसम में गर्मी पैदा कर रहा था। यह मत सोचिए कि यहां महेंद्र सिंह धौनी की एक झलक पाने के लिए सिर्फ  क्रिकेट के जुनूनी युवा ही थे, 45-50 की उम्र लांघ रहीं सिबयंती लकड़ा से लेकर छह साल की बिटिया आयशा तक...। सभी एक ही रंग में रंगे थे। वह रंग था क्रिकेट का। हॉकी की धरती पर क्रिकेट का जुनून चढ़कर बोल रहा था...।
हजारों की भीड़ यहां संध्या सात बजे से ही डट गई थी। बाधित हो रही आवाजाही के लिए ट्रैफिक पुलिस तो थी ही, लेकिन उसे यहां की ट्रैफिक संभालने में भी खासी मशक्कत करनी पड़ रही थी। फिर भी यहां भीड़ तो भीड़ थी। रह-रहकर कभी सीटियां बजा रही थी तो कभी हा हू की आवाज निकाल रही थी। शायद, अब धौनी सुन लें...। तभी भीड़ से किसी ने कहा, भगवान सुन सकता है, भैया धौनी नहीं।
भीड़ से निकल डिवाइडर आते हैं तो यहां महिलाओं का हुजूम था। सिबयंती लकड़ा हरमू की ही थीं। धौनी की एक झलक पाने के लिए न जाने कब से खड़ी थीं। उम्र यही कोई पचास के करीब। बताती हैं, एक झलक दिख जाए तो चली जाऊं। उन्हीं की बगल में खड़ी मार्गेट बाखला मेरी ओर इशारा कर कहती हैंं, इधर आइए, हम हैं क्रिकेट के दीवाने। उम्र यही कोई 45 साल। उनकी दीवानगी पर कोई भी युवा शरमा जाए। साढ़े सात बज रहे थे। पूछा कब से खड़ी हैं, बोली एक घंटा हो गया।
आयशा की उम्र छह साल थी। पिता के कंधे पर उचक-उचक कर एक झलक देखने की असफल कोशिश कर रही थी। पिता बोले, घर से जिद कर आई है। धौनी अपने घर तो साढ़े पांच बजे पहुंच गए। सीधे एयरपोर्ट से अपने घर अपनी गाड़ी चलाते हुए। इंडियन टीम के कुछ खिलाड़ी सात बजे उनके घर दावत उड़ाने पहुंचे। यह खबर जब फैली तो भीड़ बढ़ती ही गई। डेढ़ घंटे से खड़े-खड़े एक दर्शक से रहा नहीं गया। कहा, दीखिए जाएगा। डेढ़ घंटा हो गया, अब चला जाए। एक दूसरे व्यक्ति का सीना थोड़ा गर्व से चौड़ा हो गया। रांची के अतीत को याद करते हुए बोला, रांची क्या से क्या हो गया। पहले एक छोटा शहर था। पर आज इसकी पहचान अंतरराष्ट्रीय हो गई। वहीं पास खड़ा एक इंस्पेक्टर बोला, उससे क्या हो जाएगा। रांची की गरीबी तो नहीं दूर हो जाएगी...
शोर-शराबे के बीच घड़ी अपनी रफ्तार से चल रही थी। नौ बजे थे कि युवाओं का धैर्य जवाब देने लगा। सो, किसी ने बस की ओर अपनी टोपी उछाल दी तो किसी ने एक ढेला धौनी के घर की ओर ...। इतने में धौनी के पिता पान सिंह और जीजा दोनों गेट से बाहर निकले और पुलिस को हिदायत दे अपने घर में समा गए...। हालांकि युवाओं ने जैसे ही ढेला फेंका था, पुलिस तुरत हरकत में आ गई और हवा में लाठियां लहराने लगी...भीड़ का रेला अपने पीछे वालों को धकेलते सड़क की ओर भागा....। थोड़ा मामला शांत हुआ तो एक पुलिस वाला बोला, अब बताइए, हम लोग लाठी चला दें तो आप लोग कहिएगा की पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया...। खैर, जब 10.30 बजा तो भीड़ से आवाज आई, अरे बस का ड्राइवर बैठ गया। लगता है टीम अब निकलेगी।  दूसरे ने कहा, अरे उ कब से बैठा है। चलो घर चलें। पर, थोड़ी देर बाद, 10.45 पर गेट पर हलचल हुई। गेट खुला और धीरे-धीरे खिलाड़ी बस के अंदर समाते चले गए..युवराज को देख लड़कियां ..युवराज-युवराज चिल्लाने लगीं....पर खिलाडिय़ों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। काले शीशे वाले बस की ओर टकटकी लगाई देख रही थीं, पर भीतर कुछ दिख नहीं रहा था...।
धौनी के घर से बस सीधे रेडिशन ब्लू की ओर चल पड़ी। ओवरब्रिज होते हुए। पीछे-पीछे पुलिस तो मोटरसाइकिल से युवाओं की टोली भी पीछा करते हुए... होटल में भी दीदार के लिए उमड़ पड़े लोग ...बस से निकलते ही होटल के अंदर प्रवेश करते ही ईशांत और युवराज झूमते हुए अंदर समा गए। भुवनेश्वर ने जरूर थोड़ी प्रतिक्रिया दी और हंसते हुए हाथ हिलाते होटल की लॉबी में चले गए...।