के.बी.सहाय- एक विस्मृत महानायक


राजेश सहाय


पिछले दिनों मेल में एक अलग ही निवेदन भरा मेल मिला- यदि 'छोटानागपुर दर्पण' से सम्बंधित कोई जानकारी हो तो साझा करें। अच्छा लगा और साथ ही सुखद आश्चर्य भी। दरअसल इस दौर में कोई साठ के दशक में हजारीबाग से प्रकाशित होने वाली पत्रिका के बारे में जानकारी चाहे तो कौतुक होता है- कौतुक इसलिए भी क्योंकि इस 'छोटानागपुर दर्पण' को प्रकाशित करने वाले शख्शियत को सरकार तो क्या वरन देश की जनता भी बिसरा चुकी है। अत: कोई आज भी इन बिसरी बातों और विरासतों को सहेजने में लगा है यह कौतिक और हर्ष का विषय था। ख़ास कर मेरे लिए क्यों कि जिस 'छोटानागपुर दर्पण' पत्रिका की यहाँ चर्चा हो रही है उसके प्रकाशक संपादक मेरे पितामह और संयुक्त बिहार के झारखण्ड क्षेत्र से आने वाले एकमात्र मुख्यमंत्री श्री कृष्ण बल्लभ सहाय थे। अपने पितामह के सम्बन्ध में जानकारी जुटाने में इधर कुछ वर्षों से लगा हूँ। क्यों? इसे जान कर शायद आप भी आश्चर्य में पड़ जाएँ। एक ज़माने में बिहार के सबसे प्रभावशाली नेता जिसे "द इंडियन नेशन' अखबार ने "बिहार के लौह पुरुष" की उपाधि से नवाज़ा था, पर 'स्वतंत्रता सेनानी' शृंखला में जब मैंने भारत सरकार के डाक विभाग से डाक टिकट जारी करने की गुज़ारिश 2014 में की, तो मुझे भी मालूम नहीं था कि इस छोटे से निवेदन को मूर्त रूप देने में मुझे नाकों चने चबाना पड़ेगा। मुझे इस बात का भान तक नहीं था कि यह देश अपने ही सपूतों को इतनी जल्दी भूल जायेगा। बहरहाल मुझे डाक विभाग से यह निर्देश मिला कि मेरे प्रस्ताव को "फिलाटेली सलाहकार समिति" के समक्ष रखने के लिए मुझे निर्धारित आवेदन पत्र भर कर औपचारिक रूप से आवेदन करना पड़ेगा और साथ ही साथ श्री कृष्ण बल्लभ सहाय के बारे में भारत सरकार अथवा राज्य सरकार के विश्वस्त सूत्रों के माध्यम से पुख्ता जानकारी उपलब्ध कराना होगा।
मुझे आश्चर्य हुआ कि क्या भारत सरकार को यह नहीं मालूम श्री कृष्ण बल्लभ सहाय बिहार के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे? या फिर उन्हें यह नहीं मालूम कि श्री सहाय बिहार से संविधान सभा के कुछ सदस्यों में से एक थे जिन्होनें भारत के संविधान की रचना में अपना बहुमूल्य योगदान दिया था? क्या यह भी नहीं मालूम कि श्री सहाय स्वतंत्रता पश्चात् बिहार में गठित श्री कृष्ण सिन्हा की पहली सरकार में राजस्व मंत्री थे जिन्होनें ज़मींदारी उन्मूलन कानून पारित कर बिहार को ज़मींदारी उन्मूलन करने वाला प्रथम राज्य का दजऱ्ा दिलवाने में सफल रहे थे? जिनके ज़मींदारी उन्मूलन कानून को पटना उच्च न्यायलय ने निरस्त कर दिया था और जिसे पुन: उच्चतम न्यायलय में बहाल करवाने से पहले नेहरू को संविधान का पहला संशोधन विधेयक लाना पड़ा था। या यह भी नहीं कि उनके मुख्य मन्त्रित्व काल (1963-1967) में ही बिहार में सर्वाधिक औद्योगिक प्रगति हुई थी।
खैर इन बातों को भुला मैंने बिहार सरकार के विभिन्न विभागों से श्री कृष्ण बल्लभ सहाय के बारे में जानकारी उपलब्ध करवाने की अपील की।  साथ ही साथ हजारीबाग जेल (अब लोकनायक जय प्रकाश केंद्रीय कारागार) से जेल में काटे गए विभिन्न सजाओं के बारे में भी जानकारी उपलब्ध करवाने की अपील की। बिहार सरकार के लोक सूचना अधिकारी को भी मैंने जानकारी उपलब्ध करवाने के लिए लिखा।
हजारीबाग जेल अधीक्षक से मुझे यह सूचना मिली कि श्री कृष्ण बल्लभ सहाय द्वारा जेल में काटे गए सजाओं के बारे में जेल के रिकॉर्ड में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। बिहार विधान सभा के प्रशाखा अधिकारी से सूचना मिली कि ज़मींदारी उन्मूलन विधेयक पेश करने से सम्बंधित कोई रिकॉर्ड बिहार विधान सभा सचिवालय में उपलब्ध नहीं है। बिहार सरकार के विधायी शाखा के अवर सचिव के माध्यम से मुझे सूचना मिली कि "बिहार भूमि सुधार अधिनियम 1951(ज़मींदारी उन्मूलन कानून)  एवं "बिहार टेनेंसी (संशोधन) एक्ट 1950' से सम्बंधित कोई दस्तावेज़ उनके पास उपलब्ध नहीं है। बिहार सरकार के राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग के लोक सूचना अधिकारी के माध्यम से यह जानकारी मिली की बिहार भूमि सुधर अधिनियम 1950 के सम्बन्ध में कोई दस्तावेज़ विभाग में उपलब्ध नहीं है। यानी जिस आधार पर बिहार सरकार देश में ज़मींदारी उन्मूलन करने वाला प्रथम राज्य बना उस सम्बन्ध में बिहार सरकार के पास आज की तारीख में कोई दस्तावेज़ है। न ही स्वतंत्रता सेनानियों के सम्बन्ध में सरकार के किसी भी जेल में कोई जानकारी उपलब्ध है।
तथापि विभिन्न समाचार पत्रों में श्री कृष्ण बल्लभ सहाय के बारे में स्वयं एकत्रित किये गए उपलब्ध सूचनाओं के साथ मैंने विधिवत रूप से डाक विभाग में 18 मई 2015 को आवेदन दाखिल किया और माननीय प्रधानमंत्री और तात्कालिक डाक मंत्री श्री रवि शंकर प्रसाद जी को इसकी एक प्रति देते हुए उनके हस्तक्षेप की अपील की। यह आवेदन भारत सरकार के डाक विभाग के पास पिछले 20 महीने से लंबित है। न कोई जवाब न ही डाक विभाग से मेरे आवेदन की स्वीकृति अथवा अस्वीकृति स्पष्ट सूचना देते हुए कोई पत्र।
झारखण्ड सरकार द्वारा झारखण्ड विभूतियों को सम्मानित करने के लिए विभिन्न आयोजन किये जाते हैं। मैंने झारखण्ड सरकार (वर्त्तमान सरकार से पहले की सरकारों से) से भी श्री कृष्ण बल्लभ सहाय को झारखण्ड विभूति से सम्मानित करने की अपील की जिस पर कोई कार्रवाई अब तक नहीं हुई। इन परिस्थितियों में जब बिहार के लौह पुरुष महानायक कृष्ण बल्लभ सहाय को अपने ही देश और राज्य की जनता ने बिसरा दिया वहां उनके द्वारा प्रकाशित सम्पादित "छोटानागपुर दर्पण" के बारे में किसी ने जब कोई जानकारी चाहे तो आश्चर्य होना सहज स्वाभाविक था। तथापि आज श्री कृष्ण बल्लभ सहाय की जन्म जयंती पर उन्हें याद करते हुए यह लेख उनकी स्मृतियों को समर्पित है।   

बीस तरह के पारंपरिक वाद्य बजाते हैं पद्मश्री सोनम शेरिंग लेपचा

आक्टेव में भाग लेने आए दार्जिलिंग के पद्मश्री सोनम शेरिंग लेपचा 91 की उम्र को छू रहे हैं। वे दो लाख की आबादी वाले आदिवासी समुदाय लेपचा के लिजेंड हैं। साहित्य, संगीत और कला तीनों में पारंगत। इसलिए, उन्हें सम्मान से लोग लुपन बुलाते हैं। यानी गुरुजी। सोमवार को उनसे बातचीत हुई। स्वस्थ रहने के राज का खुलासा करते हुए बताया-योग। वे आधा घंटा प्रतिदिन योग करते हैं। इसके साथ रियाज तो है ही। बताते हैं कि लेपचा समुदाय में करीब बीस तरह के पारंपरिक वाद्य हैं। इन सभी वाद्यों में वे पारंगत हैं। चार होल की बासुंरी को पंतांग कहते हंै। ढोलक को टांगर बांग। एक वाद्य तंबक कहलाता है। सुत्संग, पोपटेक और न जाने क्या-क्या। इनमें वे पारंगत ही नहीं, इनके संरक्षण और संवर्धन का काम भी 1986 से कर रहे हैं। दार्जिलिंग के कालिंपोंग में उनका म्यूजियम है, जहां हर तरह के परंपरागत वाद्य और पहनावे रखे गए हैं।
गीत-संगीत के प्रति रुझान के बारे में बताते हैं कि मेरी चाची के पिता की बहन प्रिस्ट थीं। मातृ प्रधान समाज में महिला प्रिस्ट ही होती है। सभी कर्मकांड वही कराती। बचपन में उनके साथ जाया करता था। जब वे पूजा करतीं तो तरह-तरह के अलापा निकालती थीं। उन अलापों को सुना। इसके साथ फिर पारंपरिक कई रागों पर काम किया। इसकी टाइमिंग पर काम किया।
कक्षा दो तक पढ़े सोनम बताते हैं, इस तरह राग को पकडऩे-छोडऩे, ताल देने लगे। फिर पारंपरिक वाद्यों को बचाने का काम शुरू किया। करीब बीस तरह के पारंपरिक वाद्य प्रचलित हैं। इन्हें बजाना सीखा।
सोनम कहते हैं, जीवन में भी कई तरह के उतार-चढ़ाव आए। 35 साल की उम्र में मां चल बसी। बड़े भाई आर्मी में थे। वे 1944 में द्वितीय विश्वयुद्ध में शहीद हो गए। इसी समय मैं भी आर्मी की ट्रेनिंग ले रहा था। 11 महीने पूरा हो गया। भाई की मौत के बाद मां अकेली हो गई तो ट्रेनिंग पूरी करने के बाद नौकरी छोड़कर घर आ गया। शादी हुई। लोकल प्रिटिंग प्रेस में काम करने लगा। रात स्वयं सेवक का काम करता था। एक रात कुछ चोर चोरी करने के लिहाज से घूम रहे थे। चोरों के सरदार को पकड़ लिया। इस पर सरकार ने अवार्ड दिया। फिर कुछ दिन तक बंगाल पुलिस में काम किया। दो साल बाद यह भी छोड़ दिया। खेती-बारी करने लगे। गीत-संगीत में रुचि थी ही। गांव-गांव प्रोग्राम देता था। पं बंगाल सरकार ने दार्जिलिंग में लोक मनोरंजन शाखा खोली तो उसमें लेपचा आर्टिस्ट के रूप में नियुक्ति हो गई। यह 1965 की बात है। यहां 28 साल सर्विस किया। इसी दौरान एक म्यूजियम खोला। चारों तरफ प्रसिद्धि मिली।
धर्म-संस्कृति पर भी किताबें लिखीं
इसी दौरान लेपचा भाषा में अपने धर्म, कर्मकांड, संस्कृति, संस्कार के बारे में अलग-अलग किताबें लिखीं। हमारे पूजा विधान अलग हैं। जन्म-मृत्यु के संस्कार अलग हैं। चूंकि हम मूल आदिवासी हैं। भूमिपुत्र हैं। इसलिए, हमारे पूजा के विधान अलग हैं। वे बताते हैं, हमारी अपनी लिपि है। हमारी भाषा प्राचीन है। ढेर सारी लोक कथाएं इसमें हैं। हमने कुछ लिखीं। इसके अलावा साहित्यिक किताबें भी लिखीं। गीति-नाट्य भी। हम प्रकृति पूजक हैं। पूजा के अलग-अलग विधान हैं। लेपचा दस्तू यानी मां की पूजा करता है।  
परिवार के बारे में कहते हैं कि तीन शादी हुई है। पहली पत्नी की निधन हो गया। पहली पत्नी से छह, दूसरी से चार और तीसरी पत्नी से एक बेटी है। तीसरी पत्नी को भी कला के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मश्री मिल चुका है।
विरासत को कौन संभालेगा? इस सवाल पर कहते हैं, पहली पत्नी के बेटे नार्ब शेरिंग लेपचा आगे बढ़ा रहे हैं। रांची भी उनके साथ आए हंै। 66 की उम्र। आर्मी में 28 साल सर्विस के बाद अवकाश ग्रहण किए हैं। वैसे, 91 की उम्र में सोनम सक्रिय हैं। अपने समाज के लिए काम करते हैं। सोनम अपने समुदाय के पहले रेडियो कलाकार भी हैं। 66 वर्षीर्य उनके सबसे बड़े बेटे नोर्बूू शेरिंग लेपचा बताते हैं कि हमारा समुदाय तीन देशों में है। नेपाल, दक्षिणी भूटान, सिक्किम और दार्जिलिंग। इनमें कुछ बौद्ध हो गए, कुछ ईसाई और कुछ हिंदू। वे अपने बारे में बताते हैं कि वे बौद्ध हैं। पिता के बारे में कहते हैं, पिता ने तिस्ता और रंगीत नदी पर गीति नाट्य लिखा, जो खूब चर्चित और मंचित हुआ। तिस्ता सिक्किम तथा पश्चिम बंगाल राज्य तथा बांग्लादेश से होकर बहती है। पश्चिम बंगाल में यह दार्जिलिङ जिले में बहती है। तिस्ता नदी को सिक्किम और उत्तरी बंगाल की जीवनरेखा कहा जाता है। पुराणों के अनुसार यह नदी देवी पार्वती के स्तन से निकली है। तिस्ता का अर्थ त्रि-स्रोता या तीन-प्रवाह है। रंगीत भी सिक्किम की सबसे बड़ी नदी तिस्ता की सहायक नदी है। यह पश्चिमी सिक्किम के हिमालय की पहाडिय़ों से निकलती है और जोरेथाँग, पेलिंग और लेगशिप जैसे कस्बों के बीच से बहती है। शेरिंग के कार्य को देखते हुए भारत सरकार ने पद्मश्री  2007 में दिया। इसके पूर्व संगीत नाटक अकादमी 1997 में। गुरु रवींद्र रत्नम 2008 और बंग विभूषण 2011। वे 91 की उम्र में सक्रिय हैं। वे शतायु हों।      

संविधान सभा का अध्यक्ष बनने के बाद रांची में एक सप्ताह तक रहे थे राजेंद्र बाबू

जब 1925 में महात्मा गांधी छोटानागपुर का भ्रमण कर रहे थे, चाइबासा, खूंटी, रांची, हजारीबाग आदि क्षेत्रों में लोगों से मिल रहे थे, तभी उन्‍होंने झारखंड में खादी और गोवंश के क्षेत्र में काम करने का मन बना लिया था। ठक्कर बापा को भेजने का यही उद्देश्य था। इसके बाद उनके सपने को पूरा किया राजेंद्र प्रसाद ने। महात्मा गांधी की प्रेरणा से डा. प्रसाद ने 1928 में धुर्वा के तिरिल में नींव डाल दी। 24 एकड़ में यह संस्थान बना और नाम रखा गया, छोटानागपुर खादी ग्रामोद्योग संस्थान। इस संस्थान में खादी की बुनाई, रंगाई का काम शुरू हुआ। आगे चलकर कुछ और चीजें जुड़ीं। मधु पालन, लकड़ी और लोहे के सामान बनने लगे। साबुन का निर्माण होने लगा। सैकड़ों लोगों को रोजगार मिला। गांधी के स्वरोजगार का यह मूर्तिमान प्रतीक था। यह संस्थान खादी के प्रचार-प्रसार का काम ही नहीं करता था, बल्कि उस समय आजादी में अपनी भूमिका निभाने वालों का भी यह एक तरह से केंद्र बन गया था। कई लोग बाहर से भी यहां आकर रहे। इसमें प्रसिद्ध गीतकर शंभूनाथ सिंह, मोती बीए और जगदीश त्रिगुणायत का नाम उल्लेखनीय है। शंभूनाथ सिंह व मोती बीए तो बाद में चले गए, लेकिन जगदीश जी यहीं रह गए। खूंटी में अध्यापन कार्य किया। बाद में एचइसी से जुड़ गए और यहीं से सेवानिवृत्त हुए। जगदीशजी 1941 से 46 तक इसी आश्रम में रहे। उन्होंने लिखा है कि जब राजेंद्र प्रसाद को जुलाई 1946 में संविधान सभा का अध्यक्ष नियुक्त किया गया तो तुरंत बाद वे स्वास्थ्य लाभ के लिए रांची आए और एक सप्ताह तक तिरिल आश्रम में रहे। उनकी सेवा-सुश्रुषा की जिम्मेदारी जगदीशजी की थी। एक सप्ताह तक प्रसाद का सानिध्य जगदीशजी को मिला।
  जगदीशजी यहां रहकर कई ऐतिहासिक काम किया। मुंडारी लोक कथा और लोकगीतों का संकलन किया। इसके बाद डोंबारी बुरू के निर्माण में अहम भूमिका निभाई। खूंटी जिले में लड़कियों के लिए स्कूल का जाल बिछवाया। मुंडारी गीतों की प्रतियोगिता करवाई। 2010 में उनका निधन उनके पैतृक जिले उत्तर प्रदेश के देवरिया में हुआ। यानी, तिरिल आश्रम कई चीजों का गवाह भी है। कई लोगों की स्मृतियां यहां से जुड़ी हैं।
यह अलग बात है कि आज इसकी हालत पतली हो गई है। राज्य सरकार ने इस ऐतिहासिक संस्थान के बारे में तनिक भी ध्यान नहीं दिया। यहां से जुड़े सैकड़ों कातिन-बुनकर धीरे-धीरे बेरोजगार होते गए और साबुन से लेकर लकड़ी के सामान बनने का काम भी बंद होता चला गया। महात्मा गांधी ने घर-घर चरखा का स्वप्न देखा था। राजेंद्र प्रसाद ने इसीलिए इसकी स्थापना की थी कि यह बड़ा केंद्र बनेगा और यहां के आदिवासियों को रोजगार देगा। लेकिन उनका सपना दम तोड़ रहा है। बाबू राजेंद्र प्रसाद को याद करते समय हम उनकी इस नींव को बुलंद इमारत में बदल सकते हैं। हालांकि इसके पास जमीन की कमी नहीं है। शहीद चौक के पास अपना विशाल आउटलेट है। राज्य सरकार ध्यान दे तो वह हजारों लोगों को रोजगार दे सकता है यह संस्थान। डोरंडा में उनकी आदमकद प्रतिमा जरूर है, लेकिन बेहतर हो कि तिरिल आश्रम जिसके लिए बना था, वह पूरा हो।


राष्ट्रपति का व्यक्तित्व

श्रीयुत राधाकृष्ण
जिस समय महात्मा गांधी चम्पारन (बिहार) में निलहे गोरों के खिलाफ अहिंसा की लड़ाई लड़ रहे थे, उस समय बाबू राजेंद्र प्रसाद भी महात्माजी के साथ लड़ाई में शामिल थे। उनकी बड़ी शान की वकालत थी। जैसे उनके पास विद्या थी वैसी ही तेज बुद्धि भी। राजेंद्र बाबू ने अपने विद्यार्थी जीवन में सदा सर्व प्रथम होकर पास किया था। वकालत में तो अच्छे-अच्छे वकील-बैरिस्टरों का तेज उनके आगे निष्प्रभ हो गया। लेकिन, उनकी रुपये जोड़-जोड़कर लखपति और करोड़पति बनने की इच्छा न थी। उनके कान तो देश की आत्र्त पुकारों को सुन रहे थे। हृदय पीडि़तों के हाहाकार विदीर्ण हो रहा था, किंतु चारों ओर विवशता की जंजीर पड़ी थी। उन्हीं दिनों चम्पारन में राजेंद्रबाबू को राह मिली। वहां उन्होंने सत्य और अहिंसा का बल देखा। उन्हें विश्वास हो गया कि सदा सत्य की जीत होती है-अहिंसा के समान आदमी का दूसरा हथियार नहीं। वे महात्मा गांधी के साथ हो गए।
राधाकृष्‍ण
आज हिंदुस्तान की जनता राजेंद्र बाबू को इस तरह मानती है जिस तरह आदमी अपनी आंख को प्यार करता है। राजेंद्र बाबू को दो बार कांग्रेस ने राष्ट्रपति का पदा दिया है। वे तो कांग्रेस के लिये सतत परिश्रम कर ही रहे हैं, बड़ी गंभीरता के साथ देश की विषम परिस्थितियों को भी सुलझाते जा रहे हैं।
उन्हें फुरसत नहीं, शांति नहीं, काम की इतनी भीड़ कि निश्ंिचत होकर बैठने का समय बिल्कुल ही नहीं। आज यहां हैं तो कल वहां। ऊपर से उन्हें दमा का रोग है। जिस समय उनका दमा उभड़ता है, उस समय वे बुरी तरह बेकाबू हो जाते हैं। फिर भी देश को उनकी सेवा की सख्त जरूरत हे, इसीलिए उन्हें अपने स्वास्थ्य की परवा नहीं। वे सदा साहरा के साथ धीर-गंभीर भाव से कामों में उलझे रहते हैं। उनके पास इतने काम और झंझट हैं कि जिनका हिसाब नहीं-सैकड़ेंा राजनीतक गुत्थियां, पचासों पेंच, जिनमें से एक का ही सामना हो जाने पर बड़े-बड़े लोगों की बुद्धि गोता खा जाएगी।
राजेंद्र बाबू का बड़प्पन बड़े गौर से देखने की चीज है। अगर तुम उनके पास जाओ तो देखोगे, वे किसी गहरे काम में व्यस्त हैं या किसी बड़े व्यक्ति के साथ किसी आवश्यक कार्य के संबंध में परामर्श कर रहे हैं। अगर तुम्हारी ओर उनकी दृष्टि फिर गई तो वे तुम्हें अवश्य बुला लेंगे। कोई काम हो या न हो, तुमसे जरूर बातचीत करेंगे-तुम्हारी बात को बड़ी दिलचस्पी के साथ सुनेंगे और उसका जवाब देंगे। अगर वे तुम्हारी घरेलू भाषा जानते होंगे तो अवश्य तुमसे उसी भाषा में बात करेंगे। वे बंगालियों से बंगला में ही बातचीत करते हैं। उनसे बातचीत करते समय तुम्हें जरा भी ऐसा नहीं मालूम होगा कि तुम भारत क्या संसार के एक महापुरुष से बातें कर रहे हो, बिल्कुल तुम्हारी तरह, तुम्हारे मन के लायक बातें करेंगे। ऐसी कोई भी बात नहीं कहेंगे, जिसे तुम नहीं समझ सको। वे तुम्हारे साथ हंसेंगे, बोलेंगे और इस तरह हो जाएंगे कि तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि इनके सामने भी बड़े-बड़े काम हैं। बालकों को वे बहुत प्यार करते हैं। कोई बालक उनके पास जाकर यही अनुभव करेगा मानों अपने ऐसे पिता के आगे खड़ा है, जिसके हृदय में उसके प्रति ममता भरी है। ऐसा तो कभी मालूम ही नहीं होगा कि उसके आगे एक बड़ा आदमी है जिसका रोब और दबदबा सारे भारत में फैला हुआ है।
उनके पास धनी-मानी जाते हैं और आप-बीती सुना आते हैं। गरीब किसान जाते हैं और अपना तमाम दुख-दर्द हल्का कर आते हैं। क्या वकील, बैरिस्टर, क्या मजदूर और व्यापारी सब उनके पास पहुंचते हैं। उनका दरवाजा सबके लिये खुला हुआ है। न कार्ड भेजने की जरूरत, न दरवान की खुशामद, कहीं कोई रोक-टोक नहीं। आपसे कोई यह भी पूछने वाला नहीं कि कोई जरूरी काम है या यों ही समय बरबाद करना है? इस कारण कुछ लोग उनका समय बर्बाद करने से भी नहीं चूकते। अनेक ऐसे लोग भी उनके पास पहुंच जाते हैं, जिनकी बातों का न कोई सिर है न पैर। फिर भी वे बड़ी बेदर्दी के साथ राष्ट्रपति का समय बरबाद करते रहते हैं। नौकरी खोजने वाले भी उनके पास जा पहुंचते हैं। उन्हें यह भी नहीं मालूम कि ऐसे त्यागी के पास नौकरी कहां से? दूसरा आदमी हो तो ऐसे आदमियों को बुरी तरह झाड़ दे-ऐसा रगड़े कि फिर बिना वजह कभी आने का महाशय नाम भी न लें। लेकिन राजेंद्र बाबू ही ऐसे मुरब्बतवाले व्यक्ति हैं कि हर किसी की प्रेम से सुनते हैं और बड़े प्रेम के साथ जवाब देते हंै। सहन शक्ति उनकी इतनी है कि आप लाख उनका समय बरबाद कर रहे हों, लेकिन वे कभी नहीं कहेंगे कि मेरा जरूरी काम हर्ज हुआ जा रहा है, आप अपना रास्ता नापिये।
 राजेंद्रबाबू के चेहरे-मोहरे से भी कोई बड़प्पन की झलक नहीं मिलती। दुबले-पतले दमा के मरीज आदमी हैं। सांवला शरीर। मूंछे घनी और बड़ी-बड़ी हैं जो अब धीरे-धीरे सफेद होने चली हंै। उनके कान साधारण लोगों की अपेक्षा कुछ विशेष बड़े हैं। हाथ भी कुछ लंबा है। शरीर प्राय: अस्वस्थ रहता है, अत: वे बहुत दुबले-पतले हैं। अगर उनकी छाती की माप ली जाय तो मुश्किल से तीस इंच भी नहीं निकलेगी। पैर की पिंडलियों की भी यही हालत समझिये। बस नाममात्र की। उनका कंठस्वर यद्यपि बहुत कोमल नहीं है, दमे के लगातार दैारे के कारण कुछ रुखा हो गया है, फिर भी उस कंठस्वर में इतना स्नेह भरा रहता है कि जी चाहता है, वे कुछ कहते रहें और हम सुनते रहें। चाहे कैसा भी कठिन प्रसंग हो, उनमें  उत्तेजना मिलेगी और न क्रोध। सब कुछ वे शांत भाव से करते हुए पाये जाएंगे।
मजाक भी उनके एक से एक अनोखे होते हैं। एक बार की बात है। सन 30 से पटने में झंडा सत्याग्रह चल रहा था। नौजवान लोग राष्ट्रीय झंडा लेकर जुलूस निकालते थे और पुलिस उन पर डंडे बरसाती थी, घोड़े दौड़ा देती थी। इसी सिलसिले में एक अंगरेज सर्जेंट ने राजेंद्र बाबू के ऊपर बेंत चला दिया था। प्रोफेसर अब्दुलबारी साहब भी उसी अंगरेज सर्जेंट के द्वारा बेंत से पीटे गये थे। और मजा यह है कि बेंत  चलाता और कहता-यह एक बेंत मेरी ओर से है, दूसरा मेरे साथी की ओर से। इसी तरह सपासप जिस किसी का नाम ले लेकर उसने बारी साहब को पांच या सात बेंत लगाये। लेकिन आखिरी दो बेतों के लिये उसने किसी का नाम न लिया। इस पर स्वर्गीय हसन इमाम साहब ने एक सभा में इसका जिक्र करते हुए मजाक में कहा था-तो वे आखिरी दोनों बेंत किसकी ओर से लगाये गए? राजेंद्र बाबू ने परिहासपूर्वक उनकी ओर देखा और कहा-सल्तनत की ओर से। इस पर सारी सभा खिलखिलाकर हंस पड़ी।
राष्ट्रपति को तुम अगर लेक्चर देते हुए देखो, तो पाओगे कि वे जो कुछ कह रहे हैं, वह बड़े ही सीधे-सादे ढंग से। न कोई आडंबर है और न लच्छेदार वाक्य। दूसरे नेताओं की तरह न हाथ पैर पटकते हैं, न गर्जन-सर्जन करते हैं-सीधे चुपचाप खड़े हैं और जो कहना है, स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं। उनके लेक्चरों में इतनी सादगी और सरलता रहती है कि निपट बच्चों से लेकर ठेठ देहाती भी सब कुछ आसानी से समझ जाते हैं। दूसरी ओ, वही सरल और सीधा सदा व्याख्यान बड़े से बड़े राजनीतिज्ञों को चक्कर में डाल देता है। चाहे लाख कानून का विरोध कर रहे हों, लेकिन कानून का अगाध विद्वान भी उसमें से एक शब्द ऐसा नहीं निकाल सकता जिसे लेकर कानूनी कार्रवाई की जा सके। अर्थात एक ओर से स्पष्ट और सरल होते हुए भी दूसरी ओर इतना ठोस और गंभीर होता है कि लोग मुंह देखते ही रह जाते हैं और उनको जो कहना होता है वह साफ-साफ  कह डालते हैं।
शांति, गंभीरता और सहनशीलता उनमें गजब की है। एक बार आस्ट्रिया के ग्राज नामक शहर में उन्होंने युद्ध-विरोधी भाषण दिया था। उनके युक्तिसंगत तर्कों को सुनकर लड़ाई के पक्षपाती बड़े चिढ़ गये। उन्होंने राजेंद्र बाबू का अपमान किया-उन पर सड़े हुए अंडे फेंके। यही नहीं, उन्हें मारा भी। लेकिन राजेंद्र बाबू शांत, चुपचाप सब सहते रहे। विरोधियों को शांत रहने को भी नहीं कहा। उस समय उनको बड़ी चोट आई थी।
इस समय राजेंद्र बाबू की अवस्था चौवन वर्ष की है। उनका परिवार बहुत बड़ा है। शहरों की अपेक्षा उन्हें देहात की जिंदगी बहुत पसंद है। जब कभी मौका मिलता है, वे अपने गांव जीरादेई में चले जाते हैं। यहीं उनके परिवार के सभी लोग रहते हैं।
आजकल उनके पास इतने काम हैं कि दम लेने की फुरसत भी नहीं मिलती राष्ट्रपति का पद ही ऐसा है। तुम इन्हें अकेला या बिना काम के बैठे हुए कभी पा ही नहीं सकते। हां, दतवन करते हुए या नहाने के लिये तेल लगाते हुए, तुम उन्हें अकेला देख सकते हो। उस समय भी ऐसा मालूम होता है मानो उनका शरीर यहां है, लेकिन मन न जाने कहां है-किस दूर देश में भटक रहा है। भगवान जानें उस समय वे क्या सोचते रहते हैं।

बालक, अक्टूबर, 1939।