शहीद बुधु भगत का उपेक्षित गांव

सिलागाई अमर शहीद बुधु भगत का गांव हैं। गांव जाने के दो रास्ते हैं। एक चान्हो होते हुए। चान्हो से गांव की दूरी दस किमी है, लेकिन रास्ता बहुत खराब है। यह गांव चान्हो प्रखंड में ही पड़ता है। एक दूसरा रास्ता बेड़ो से तुको और यहां से एक रास्ता सिलागाई की ओर जाता है। यह रास्ता ठीक है और 25 किमी दूरी तय कर इस गांव में पहुंच सकते हैं। तुको से सड़क सिलागाई जाती है, वह कोलतार की है। थोड़ी संकरी भी। 
वीर बुधु भगत कोई सामान्य योद्धा नहीं थे। इस सुदूर गांव से उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध तब छेड़ा था, जब कहीं तथाकथित पहली स्वतंत्रता आंदोलन की 1857 की क्रांति बहुत दूर थी। यानी 1831-1832 में। जब इस गांव में जाएंगे और भर रास्ते आस-पास का प्राकृतिक नजारा आपकी आंखों को सुकून बख्शता है तो आपके दिमाग में यह जरूर बात आएगी कि इतना दूर...इस सुदूर गांव से 180 साल पहले क्रांति की एक ज्वाला उठी थी, जिसे इतिहास में लरका विद्रोह के नाम से दर्ज किया गया।

यह गांव आज भी गांव की तरह है। सड़कें जरूर बन गई हैं। स्कूल जो आठवीं तक था, दसवीं तक हो गया है। स्कूल के पास ही एक पार्क बन गया और यहीं पर हर साल जयंती व पुण्यतिथि पर मेला लगता है। बुधु भगत की आठवीं पीढ़ी की हुलस देवी कहती हैं गांव में करीब सात हजार की आबादी है। उरांव, मुस्लिम, महतो, ग्वाल आदि जातियां यहां रहती हैं। इसी परिवार की अंजू देवी पूर्व मुखिया रह चुकी हैं। कहती हैं, अब भी परिवार के लोग खेती-बारी पर ही निर्भर हैं। परिवार बड़ा हो गया है। घर आज भी मिट्टी के ही हैं। कल्याण विभाग ने जरूर आंगन में सोलर ऊर्जा का एक पोल लगा दिया है, जिससे रात का अंधेरा छंटता है।

परिवार के वरिष्ठ सदस्य रामदेनी भगत कहते हैं कि हम आठवीं पीढ़ी के हैं और 18 परिवार हैं। इस गांव को शहीद गांव का दर्जा दिया गया है, लेकिन सुविधा और विकास के नाम पर केवल घोषणाएं ही हुई हैं। गांव के बाहर उनके नाम पर पार्क है, लेकिन उसकी हालत भी ठीक नहीं। पार्क के ऊपर एक जंगल है। एक पाहन हमें उस जंगल में ले जाते हैं और कुछ छोटे-बड़े पत्थरों का एक टीला है और उसमें एक बड़ा साल होल है, जिसमें पानी था। पाहन बताते हैं कि यहां हमेशा पानी रहता है। बुधु भगत यहीं आकर बैठते थे। पाहन यह भी कहते हैं पहले यहां 24 घंटे पानी निकलता था, लेकिन अब कभी-कभी। पानी कहां से आता है, किसी को पता नहीं। गांव के लोग इसे वीर पानी कहते हैं। इस पहाड़ पर एक शेड बना है। और, अक्सर इस ऊंचे जंगल में शेड के पास जुआ खेलते हुए कुछ नवयुवक मिल जाएंगे। गांव में कई जातियां है। उरांव की बहुलता है। यहां गांव में उरांव के चार श्मशान हैं और चार पाहन भी।

सिलागाई की खास बात यह है कि इसे शहीद गांव का दर्जा दिया गया, बाकी सुविधा कुछ नहीं। यहां एक आंगनबाड़ी केंद्र है, जिसे आदर्श बनाने की कोशिश की गई है। इसकी दीवार पर एक सूचना है-मद-शहीद ग्राम विकास योजना अन्तर्गत 2017-18। योजना का नाम : चान्हो प्रखंड के शिलागांई में आंगनबाड़ी केंद्र के समीप शौचालय, चारदीवारी स्टैचू एवं सुंदरीकरण कार्य। प्राक्कलित राशि-7,19, 420। शौचालय का दरवाजा टूट चुका है। स्टैचू का बेस भी टूट चुका है। ले-देके एक चारदीवारी बची है। आंगनबाड़ी केंद्र के सामने ही चार जलमीनार बने हैं, जहां पानी ही नहीं आता। वीर बुधु परिवार की सदस्य व पूर्व मुखिया अंजू देवी कहती हैं इसे शहीद गांव का दर्जा दिया गया, लेकिन सुविधा कुछ नहीं। आंगनबाड़ी केंद्र भी केवल नाम का है। यहां सात लाख का काम हुआ, लेकिन देखिए। लगता है कि इसमें सात लाख खर्च हुआ है। गांव की की कहानी आप सुन लिए। अब वीर बुधु भगत की कहानी भी जानिए।


वीर बुधु भगत का जन्म रांची जिले के सिलागाई गांव में 17 फरवरी, 1792 ई. में हुआ था और 14 फरवरी, सन् 1832 ई. में ये शहीद हो गए। यानी फरवरी में ही जन्म और फरवरी में ही शहीद। डॉ महेश भगत एक दंतकथा बताते हैं कि जब अंग्रेजों से जब वीर बुधु युद्ध कर रहे थे तो उनका तीर उनके आंगन में गिरा व सिर घर में। धड़ भी गांव के बाहर एक टुंगरी पर। इसलिए, जहां सिर गिरा, वहां पिंड बनाकर आज भी पूजा होती है। वीर बुधु भगत 1831-1832 के 'लरका विद्रोहÓ के नायक रहे। बुधु बचपन से ही जमींदारों और अंग्रेजी सेना की क्रूरता देख रहे थे। तैयार फसल जमींदार ले जाते और गांव के गरीब भूख रह जाते। बालक बुधु भगत कोयल नदी के किनारे बैठ इस क्रूरता के निजात के बारे में सोचते रहते। फिर तीर-तलवार चलाने में निपुणता प्राप्त की और फिर युद्ध छेड़ दिया। अपने दल को गुरिल्ला युद्ध में दक्ष बनाया। इसके बाद अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। अंतत: अंग्रेज सरकार ने बुधु भगत को पकडऩे के लिए कैप्टन इंपे को भेजा। 14 फरवरी 1832 ई. को बुधु और उनके साथियों को कैप्टन इंपे ने  घेर लिया। कैप्टन ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। अंतत: बुधु भगत अपने सैकड़ों साथियों के साथ शहीद हो गए। अब गांव में जयंती व शहीद दिवस पर मेला लगता है। नेता जाते हैं, घोषणा करते हैं। इसी तरह की एक घोषणा पिछले साल सीएम ने किया था कि उनके पैतृक घर के फर्श पर टाइल्स बिछवा देंगे। घर वालों ने कहा, साहेब, भला मिट्टी के घर में टाइल्स कहां शोभा देगी। पहले घर तो पक्का का बनवा दीजिए। परिवार के सदस्य साल भर से इसका इंतजार कर रहे हैं। हां, विकास के नाम पर गांव की सड़क जरूर पक्की हो गई है। बिजली आती-जाती रहती है। 

हाशिए पर टाना भगत


   टाना भगत आदिवासियों का वह समूह है, जिसने अपना एक अलग धर्म चलाया, जिसे टाना धर्म कहा गया। तब के रांची जिले में ही 1914 में उरांव जनजाति के बीच यह धर्म अस्तित्व में आया। टाना धर्म पूर्णतः अहिंसा पर आधारित है। रामचंद्र चौधरी ने लिखा है, ‘बिशुनपुर थाना के पास चिंगरी गांव में जतरा उरांव नामक एक 20 साल के नवयुवक ने इस पंथ को चलाया। कहते हैं, एक दिन वह पोखर में स्नान करने गया था। वहां पानी के भीतर उसे धर्मेश ईश्वर का दर्शन हुआ। धर्मेश ने उसे मंत्रा दिया। पानी के भीतर से ‘टाना बाबा, टाना बाबा’ स्वर उच्चरित करते हुए जतरा निकला। उसने धर्मेश के दर्शन की बातंे लोगों को बताईं-हमें भूत प्रेत और विविध बोंगाओं की पूजा छोड़ देनी चाहिए। हम सात्विकता में रहें और एक ईश्वर की उपासना करें। बलि की प्रथा बंद करें। हड़िया की तपावन की जगह शुद्ध जल और दूध का तपावन दें। परंपरागत शिकार प्रथा बंद करें। जने धारण करें। गो सेवा में लगें। जीव हत्या न करें। भगवान का भजन करें।’
   जतरा का जन्म गुमला जिले के चिंगरी नावाटोली गांव में 1888 को हुआ था। पिता का नाम कोहरा भगत व माता का नाम लिवरी भगत था। बुधनी भगत इनकी पत्नी का नाम था। जतरा के जन्म की तिथि ज्ञात नहीं पर, टाना भगत गांधी जयंती के दिन ही जतरा की जयंती भी मनाते हैं। तुरिया भगत से तंत्रा-मंत्रा की विद्या सीखने के क्रम में इन्हें 1914 में अचानक आत्मबोध हुआ। अंगरेजी राज के अत्याचार, जमींदारों की बेगारी, समाज में फैले अंधविश्वास एवं नाना प्रकार की कुरीतियांे से पीड़ित आदिवासी समुदाय को सन्मार्ग दिखाने का संकल्प लेकर युवा जतरा उरांव जतरा भगत बन गया। जतरा ने अपना मंत्रा लोगांे को दिया। वह रोग निदान भी करने लगा। बहुत से लोग उसके पंथ में चले आए और अनुयायी बन गए। जतरा टाना बाबा बन गए। हालांकि विरोध भी हुआ, लेकिन टाना पंथ आगे बढ़ता चला गया। जतरा के प्रचार से जमींदार, महाजन और अंगरेजी सरकार चौकन्ना हो गई। जतरा को उसके सात साथियों के साथ गिरतार कर लिया गया और डेढ़ साल की सजा हो गई। तब बटकुरी गांव की देवमनिया ने टाना नेतृत्व संभाला और प्रचार करने लगी। रांची, पलामू, हजारीबाग तथा अन्य क्षेत्रों में कोई ढाई लाख लोग टानापंथी बन गए। प्रारंभ में उरांव वर्ग में सादगी, स्वच्छता जैसी सुधारवादी नीयत से काम होने लगा। बाद में महाजन, कुछेक जमींदार और सरकार के विरुद्ध आंदोलन शुरू हो गया। अपने अनुयायियों को मजदूरी करने से रोकने के अपराध में 1916 में जतरा भगत को एक साल की सजा हुई और बाद में उसे इसे शर्त पर छोड़ा गया कि वह अपने नए सिद्धांत का प्रचार नहीं करेगा और शांति बनाए रखेगा। पर, जेल में मिली घोर प्रताड़ना के कारण जेल से बाहर आने के दो महीने के भीतर ही जतरा की मृत्यु हो गई। इस तरह जतरा भगत नेपथ्य में चला गया पर आंदोलन की धार तेज होने लगी। पलामू से लेकर सरगुजा तक यह फैल गया।
   टाना भगतों ने खुद के लिए नियम बनाए। वृहस्पतिवार को हल नहीं जोतने का निश्चय हुआ और इस दिन विश्राम और आपसी मंत्राणा का दिन रखा गया। इसके बाद टाना आंदोलन ने दूसरा ही रूप ले लिया। उन्हांेने खेती करना छोड़ दिया। बारदोली आंदोलन से प्रभावित टाना भगतों ने जमीन टैक्स, चौकीदारी टैक्स आदि देना बंद कर दिया। इसके बाद जमींदारों ने इनकी जमीन नीलाम करवाई।
   हरबंस भगत ने ‘टाना-आंदोलन’ नामक अपने एक लेख में इसके जन्म के कारणांे और आंदोलन की कहानी लिखी है। वे लिखते हैं कि टाना विविध देवताओं की पूजा नहीं करते। टाना अपने व्यक्तित्व तथा समाज में अहिंसक परिवर्तन पर विश्वास करते हैं। वह मानते हैं कि अहिंसक संघर्ष से बाधाएं दूर होती हैं।
                  ‘टाना भगतर सोना भगतर नीसा ओनन मना ननर।
                  टाना भगतर सोना भगतर अहड़ा मोखनन मना ननर।
                  टाना भगतर सोना भगतर अखड़ा बेचनन ननर।’

   यानी, टाना भगत सोने के समान उत्तम भगत है। वे मदिरा नहीं पीते। मांस नहीं खाते। वे नृत्य आदि का त्याग करते हैं। धुमकुरिया और शिकार से खुद को मुक्त किया। रंगीन कपड़ों से परहेज किया। किसी प्रकार का आभूषण भी नहीं पहनते। टाना ईमानदारी के साथ अपना जीवन बिताता है। वह पवित्रा जीवन व्यतीत करता है। गांधी टोपी व सफेद वस्त्रा ही पहनावा है। शंख, घंट, तिरंगा इनकी पहचान है। खाने को लेकर भी ये शुद्धता के आग्रही हैं। ये जहां जाते हैं, खुद बनाते हैं और खाते हैं। पानी तक दूसरों का नहीं पीते। इस परंपरा का पालन ये आज भी कड़ाई से करते हैं।
                     
   टाना भगतों का योगदान देश की आजादी में भी अभूतपूर्व रहा। पर, इन्हें वह सम्मान आज तक नहीं मिला। कुछ ताम्रपत्रा जरूर मिले, लेकिन उनकी जमीन नहीं मिली। इसके लिए ये आज भी अपनी लड़ाई अहिंसात्मक ढंग से जारी रखे हुए हैं। नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक ने इसकी कहानी सुनी, वादा किया, लेकिन वादे आज तक पूरे नहीं हो सके। अपने अधिकार और हक की लड़ाई ये आज भी लड़ रहे हैं। शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन के जरिए सरकार को अपनी बात भी सुनाते हैं, लेकिन सरकार इतनी संवेदनशील होती तो ये 66 सालों से लड़ते ही क्यों? खैर, समाज सुधार के साथ शुरू हुआ टाना भगत का आंदोलन जमींदारों और अंगरेजों के खिलाफ शुरू हो गया। गांधीजी से इनकी 1920 में मुलाकात ऐसी रही कि ये फिर गांधी के ही हो गए और पूर्ण अहिंसक भी। महात्मा गांधी 1920 में असहयोग आंदोलन को लेकर देश का दौरा कर रहे थे। उस दौरान वे रांची भी आए। गांधीजी के आने के बाद ही रांची में जिला कांग्रेस कमेटी का गठन किया गया। डॉ राजेंद्र प्रसाद ने ही टाना भगतों को गांधीजी से मिलवाया। गांधीजी से ये खासे प्रभावित हुए और अहिंसा की बात इनकी जंच गई। ये अपना वस्त्रा खुद चरखे पर बुनने लगे। सफेद कुर्ता और गांधी टोपी इनका डेस कोड हो गया। चरखा छाप तिरंगा इनका भगवान। चंवर व घड़ी घंट इनका संकेत चि बन गया। 1922 के गया कांग्रेस में करीब तीन सौ टाना भगतों ने भाग लिया। ये रांची से पैदल चलकर गया पहुंचे थे। 1940 में रामगढ़ कांग्रेस में इनकी संख्या तो पूछनी ही नहीं थी।
    पांच अक्टूबर, 1926 को रांची में राजेंद्र बाबू के नेतृत्व में आर्य समाज मंदिर में खादी की प्रदर्शनी लगी थी तो टाना भगतों ने इसमें भी भाग लिया। 1934 में महात्मा गांधी हरिजन-उत्थान-आंदोलन के सिलसिले में चार दिनों तक रांची में थे। इस समय भी टाना भगत उनके पास रहते थे। 1927 में साइमन कमीशन के बॉयकाट में टाना भगत भी शामिल थे। सन् 1942 के आंदोलन में तो टाना भगतों ने रांची पहाड़ी पर तिरंगा ही फहरा दिया था। टाना भगतों की जमीन तो अंगरेजी सरकार ने पहले ही नीलाम कर दी थी, फिर भी वे आजादी के आंदोलन से पीछे नहीं हटे, मार खाई, सड़कों पर घसीटे गए, जेल की यातनाएं सही, फिर भी गांधीजी की जय बोलते रहे, अंतिम दम तक। देश जब आजाद हुआ तो टाना भगतांे ने अपनी तुलसी चौरा के पास तिरंगा लहराया, खुशियां मनाईं, भजन गाए। आज भी टाना भगतों के लिए 26 जनवरी, 15 अगस्त व दो अक्टूबर पर्व के समान है। हरवंश भगत ने ‘पंद्रह अगस्त और टाना भगत’ लेख मंे बताया है कि ‘15 अगस्त को टाना भगत पवित्रा त्यौहार के रूप में मनाते हैं। इस दिन टाना भगत किसी प्रकार खेती वारी आदि का काम नहीं करते। प्रातः उठकर ग्राम की साफ-सफाई करते हैं। महिलाएं घर-आंगन की पूरी सफाई करती हैं। स्नानादि के बाद समूह रूप में वे राष्टीय गीत गाकर राष्ट-ध्वज फहराते हैं। अभिवादन करते हैं। स्वतंत्रा भारत की जय, महात्मा गांधी की जय, राजेंद्र बाबू की जय, जवाहर लाल नेहरू की जय तथा सभी टाना भगतों की जय का नारा लगाते हैं। गांव में जुलूस निकालते हैं। प्रसाद वितरण भी करते हैं। अपराह्न आम सभा होती है। सूत काता जाता है और आपस में प्रेम और संगठन को दृढ़ करने की चर्चा होती है।’
   महात्मा गांधी के अहिंसा का प्रभाव टाना भगतों पर कितना था, इसे सिर्फ एक घटना से समझा जा सकता है। सोंधी बरवा टोली, रांची के निवासी थे विश्वामित्रा टाना भगत। वे गांधी के प्रति अटूट श्रद्धा रखते थे। उनकी धारणा थी कि गांधीजीकी अहिंसा का प्रताप जब है, तो सांप हिंसा पर उतारू नहीं हो सकते। और, अपने इसी विश्वास के बल पर उन्हांेने अपने घर में डेढ़ सौ विषधर सांपों को पाल रखा था। वे सांपों को अपने मकान में टोकरी के अंदर रखते थे। इन्होंने आजादी की लड़ाई में भाग लिया और जेल की सजा भी काटी थी। डॉ राजेंद्र प्रसाद के साथ भी जेल में थे। 1961 में काफी वृद्धावस्था में इनका निधन हो गया।
  श्री नारायणजी ने अपने एक लेख ‘महात्मा गांधी और आदिवासी’ में भी इस बात की पुष्टि की है। लिखा है, ‘टाना भगत महात्मा गांधी के अनन्य भक्त बन गए। गांधीजी के आह्वान पर देश की आजादी के वे प्रथम श्रेणी के सिपाही बने। आजादी की लड़ाई में टाना भगतांे ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। कितने जेल गए, हजारों की जमीन नीलाम हुई, कितने जेल में खेत आए। स्वराज्य की लड़ाई में अहिंसा का व्रत लेकर जिस प्रकार टाना भगतों के समूह ने आहुति दी, उस प्रकार का उदाहरण भारत में कहीं और नहीं मिलता है। दस हजार परिवार करीब टाना भगतों का है। परिवार के सब के सब व्रतधारी बन गए और स्वराज्य का संवाद सुनने के लिए कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिए सैकड़ों पांव पैदल गया, कानपुर, बेलगांव और कोकोनाडा गए। महात्मा गांधी इनकी अटूट आस्था से मुग्ध थे। वे दिल खोलकर मिलते। जब भेंट होती थी, इनसे गले मिलते थे। गांधीजी इनकी दयनीय दशा देखकर परेशान होते थे।’ उन्होंने आगे लिखा है, ‘महात्मा गांधी की आदत थी कि जब वे देश की किसी समस्या को व्यापक मानते थे, तो उसके हल के लिए पग उठाते थे। आंदोलन खड़ाकर अथवा सरकार का ध्यान आकृष्ट कर ही वे संतुुष्ट नहीं होते थे। अपनी शक्ति भर वे उस समस्या का हल करने के लिए रास्ता निकालते थे। स्वभावतः आदिवासी समस्या को जब देखा तो इसके हल के लिए उन्होंने विशेषकर ठक्कर बापा को उत्साहित किया और उनके इशारे पर ठक्कर बापा के साथ सैकड़ों कार्यकर्ता गुजरात, बिहार, मध्यप्रदेश, उड़ीसा आदि स्थानों मंे, आदिवासियों की सेवा कार्य में जुट गए। इस कार्य के लिए पहली संस्था गुजरात में भील सेवा मंडल बनी। फिर बिहार में आदिम जाति सेवा मंडल की स्थापना हुई। बापू इतने से ही संतुष्ट नहीं हुए। रचनात्मक कार्यकर्ताओं के लिए 14 सूत्राीय कार्यक्रम बना। उसमें भी आदिवासी सेवा को स्थान दिया गया। इस प्रकार यह महात्मा गांधी के प्रयत्न का ही परिणाम है कि आदिवासी समस्या की गणना भारत की समस्याओं में होने लगी। भारत के संविधान में उनको प्रमुख स्थान मिला।’
  श्री छोटानागपुरी ने अपने लेख ‘महात्मा गांधी और टाना भगत’ में बताया कि गांधीजी टाना भगतों के लिए क्या महत्व रखते थे, गांधी के बारे में उनके क्या विचार और आस्था थी, गीतों के माध्यम से इसे रखा है। जैसे तिरंगा, टाना भगतों के लिए महज तीन रंगों का झंडा नहीं था, तिरंगा उनके लिए सत्य, अहिंसा और दया का मंत्रा था। तिरंगा उनके लिए गांधी जी था। हरिवंश टाना भगत ने कुड़ुख में यह गीत लिखा है। यह गीत अब मंत्रा बन गया है...
                ‘तिरंगा झंडा भैरो नम्है राजी गही झंडा,
                तिरंगा झंडा नू, सत, दया अहिंसा, धरमदीस रादस
                तिरंगा झंडा नू, मा गांधीस दीम रादस।

देश की सामाजिक बुराइयों पर भी टाना भगतों ने गीत लिखे। अपने समाज में जागरूकता पैदा की...
              
                भारत छुआछूत नू कलंक मंजकी रहचा
                जाति-रीति गही भेद फैलार ही रहचा...
               प्रिस्थिति गही कारण महात्मा गांधी में ध्यान बरचा
               गीता रामायण नीति याद बरचा
               भारत उद्धार गीता रामायण बरचा
               महात्मा गांधीस कही कर्णधार बनचा
               सत, प्रेम, अहिंसा, राजनीतिक शास्त्रा बनचा
               असहयोग, सत्याग्रह स्वतंत्राता युद्ध गही अस्त्रा बनचा...

भावार्थ है, भारत छुआछूत के भेद से कलंकित हो गया था। जाति-पांति और रीति-नीति का भेदभाव फैला था...। परस्थिति के कारण महात्मा गांधी को ज्ञात हुआ, गीत और रामायण की नीति याद आई। भारत के उद्धारक गीता-रामायण ही हुआ और महात्मा गांधी देश के कर्णधार बने। सत्य, प्रेम, अहिंसा, राजनीतिक शास्त्रा बना और असहयोग सत्याग्रह स्वतंत्राता की लड़ाई अस्त्रा...।
एक गीत और है। इसमें गांधीकी लीला का वर्णन किया..
               गांधी बाबास बड़ा लीला धारेस
               चरेखा ले ले मेरे ओजदस
               अंग्रेज सरकार बड़ा पापी रहचा
               गांधी बाबासीन कैदी नंजा
               कैदी नंजा बरा लाबागे लागिया
               मं गांधीस अंग्रेजन खेचस चिचस...

अर्थ है, महात्मा गांधी बहुत लीला वाले महापुरुष थे। वे चरखा द्वारा सूत काते थे। अंगरेज बहुत आततायी थे। गांधी बाबा को कैद कर लिया था और मारना चाहा था, परंतु अंत में अंगरेज को भागना पड़ा।
             
   गांधी आज भी इनके दिल में बसे हैं

और अहिंसक तरीके से आज भी अपनी जमीन वापसी के लिए लड़ रहे हैं। यह लड़ाई वैसे तो आजादी के तुरंत बाद ही शुरू हो गई थी। सरकार ने इनकी जमीन वापसी की प्रक्रिया भी शुरू कर दी थी, लेकिन बहुतों को जमीन का आज भी इंतजार है। आजादी के तत्काल बाद, 1947 में ही इनकी जमीन वापसी का कानून बना। बिहार राज्य सरकार ने रांची जिला टाना भगत रैयत कृषि  प्रत्यावर्तन अधिनियम पारित किया, जिसके अनुसार सन् 1913 से 1942 तक स्वतंत्राता संग्राम के दौरान लगान नहीं देने पर नीलाम कर दी गई उनकी जमीन वापसी का प्रावधान है। इस अधिनियम के अनुसार प्रारंभ से अब तक का कुल 358 टाना भगतों को कुल 3722.26 एकड़ जमीन वापस की जा चुकी है एवं जमीन पर दखलकार विपक्षियों को कुल 13,05,669 रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में भुगतान किया गया है। ‘स्वतंत्राता दिवस विशेषांक, 12 अगस्त, 1976, अंक 28 । उक्त कानून में इनमें कुछ कमियां थीं। यह रांची तक ही सीमित था, जबकि कई अन्य जिलों के टाना भगतों को इससे लाभ नहीं मिलता था। फिर इस कानून को 1961-62 में संशोधित किया गया। 1970 के आदिवासी अंक ‘गणतंत्रा विशेषांक, अंक 50, 22 जनवरी, 1970 में जमीन वापसी के बारे में जानकारी दी गई थी। यह 1968-69 में जो जमीन वापसी की गई थी, उस बारे में जानकारी थी। उस समय कुल 1,200 मुकदमे दायर हुए। 232 परिवारों को लाभ मिला। 7,38,98 रुपये खर्च हुआ। 88 मामले लंबित दिखाया गया और 2,808 एकड़ 80 डिसमिल जमीन वापस की गई।  इसी अंक मंे यह सूचना भी थी कि 1966 में टाना भगत बोर्ड का गठन किया गया, जिसमें 14 टाना भगत इसके सदस्य थे। यह बोर्ड कल्याण विभाग के अधीन था। प्रत्येक महीने इसकी बैठक होने की बात कही गई थी, लेकिन चार-पांच महीने बाद ही बंद कर दी गई।
    ‘12 अगस्त, 1976, अंक 28 के स्वतंत्राता दिवस विशेषांक’ में ही एक टाना भगत पदाधिकारी ने लिखा है कि ‘टाना भगतों को सिर्फ जमीन वापस करा देना ही पर्याप्त नहीं था। इसलिए इनकी जमीन में कृषि की सुविधा प्रदान करने के लिए कल्याण विभाग से मिलने वाली सुविधाओं में भी कृषि अनुदान आदि में बैल एवं बीज आदि के वितरण में इन्हें प्राथमिकता दी जाती है। जमीन वापसी कानून से लाभान्वित टाना भगतों के अतिरिक्त कुछ वैसे टाना भगतों को वर्ष 1972 में सरकारी जमीन दी गई है। कुल 389 टाना भगतों को कुल 827.06 एकड़ जमीन सरकार से बंदोबस्त की गई है। इस प्रकार बंदोबस्त की गई जमीन में अच्छी किस्म की जमीन नहीं रहने पर भूमि कर्षण विभाग से कृषि योग्य बनाने के लिए संपर्क किया जा रहा है।’ इस पदाधिकारी ने यह भी बताया है कि ‘समय-समय पर किए गए सर्वेक्षण के आधार पर ये रांची के सदर अनुमंडल के रमांडर, बुड़मू, बेड़ो, लापुंग, लोहरदगा के कुड़ु, किस्को, लोहरदगा, सेन्हा व गुमला के घाघरा, बिशुनपुर, सिसई, पालकोट, चैनपुर, डुमरी, बसिया आदि क्षेत्रों में बसते हैं। टाना भगत परिवारों की संख्या कुल 2,356 है तथा इनकी जनसंख्या लगभग 13,000 है।’
    जमीन वापसी का संघर्ष आज भी चल रहा है। रह-रहकर टाना भगत राजभवन के समक्ष धरना देते आए हैं। फिर भी इनकी मांग और बात अनसुनी रह जाती है। कई संगठन और कई लोगों ने भी टाना भगतों की मदद की है। संघर्ष का उनका लंबा इतिहास है। इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी और राहुल गांधी तक अपनी बात रख चुके हैं। फिर भी इनकी मांग पूरी नहीं हो सकी। टाना भगतों को न्याय दिलाने के लिए परमेशचंद्र सिंह ने अखिल भारतीय टाना विकास परिषद् नामक संस्था का गठन किया था। उन्होंने टाना भगतों को इंदिरा गांधी व राजीव गांधी से मिलवाया। ‘आदिवासी’ के गणतंत्रा दिवस विशेषांक, 1988 अंक, 51-52 में परमेशचंद्र सिंह ने एक लेख लिखा, ‘स्वदेश प्रेमी जन जातीय टाना भगत इतिहास के परिवेश में।’ उन्होंने अपने नेतृत्व में 28 दिसंबर, 1983 को तत्कालीन प्रधानमंत्राी इंदिरा गांधी से कलकत्ता में हो रहे अखिल भारतीय कांग्रेस अधिवेशन में मिलवाया और अपनी बात सुनाई। प्रधानमंत्राी ने इन्हें पूर्ण आश्वासन दिया। यही नहीं, उन्हांेने इनके एक प्रतिनिधि को राज्यसभा में तथा प्रांतीय स्तर पर एक प्रतिनिधि को कौंसिल में भी मनोनीत करने का आश्वासन दिया। इसके बाद 3 जनवरी, 1984 को रांची के मेसरा में अखिल भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन के मौके पर भी परमेशचंद्र सिंह ने टाना भगतों को फिर प्रधानमंत्राी इंदिरा गांधी से मिलवाया। पर, इसी साल अक्टूबर में उनकी हत्या कर दी गई और आश्वासन भी उन्हीें के साथ दफन हो गया। पर, टाना भगतों ने हिम्मत नहीं हारी। परमेशचंद्र सिंह ने फिर इन्हें प्रधानमंत्राी राजीव गांधी से मिलवाया। यह दिसंबर 1985 की बात है। टाना भगतों ने राजीव गांधी को सम्मानित कर रस्म पगड़ी और मान पत्रा भेंट किया। प्रधानमंत्राी ने मार्च 1986 में इनकी नीलाम जमीन की वापसी के लिए बिहार के मुख्यमंत्राी बिंदेश्वरी दुबे को आदेश दिया। आदेश के बाद काफी लोगों को जमीनें मिलीं लेकिन फिर भी बहुतेरे टाना भगत आज भी नीलाम जमीन की वापसी के लिए धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं।
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आदिवासी लोक कथाओं में बादलों की कड़क और बिजली

डॉ वेरियर ऐल्विन
भारतीय आदिवासियों के अधिकांश सृष्टि-संबंधी विश्वासों की पृष्ठभूमि में लोकप्रिय हिंदू-धर्म की परंपरा है और इंद्र, राम, भीम और कभी-कभी अर्जुन भी शास्त्र के महान पृष्ठों से आदिवासियों की गृह निर्मित पौराणिक-कथाओं को प्रेरणा देने तथा विविधता प्रदान करने के लिए चले आते हैं। बिजली मारुति के कतिपय अस्त्रों में से है और वज्र को तो पर्जन्य ने ही प्रयोग किया था।
कहा जाता है कि प्रथम पुरुष कीे आत्मा, बिजली रूप में, सबसे पहले
ऐन्थोवन ने, पश्चिमी भारत में प्रचलित विविध विश्वासों का अच्छा वर्णन किया है। बादलों की कड़क कभी इंद्र का रुष्ट स्वर है, तो कभी उसका अट्टहास। यह वह होहल्ला है, जो वह बादलों में 'गुल्ली-डंडाÓ या 'फुटबालÓ खेलते समय करता है। उसका विवाह होता है, वह युद्ध करता है, वर्षा लाने को अपना बाण चलाता है, या अपने हंटर से बादलों की पिटाई करता है। कभी बादलों की कड़क भगवान के रथ के आकाश में चलने से उत्पन्न हुई कही जाती है और यह उन नक्कारों की ध्वनि है, जो देवगण वर्षा के आने पर बजाते हैं, या यह किसी बूढ़े खूसट द्वारा आकाश में पत्थर लुढ़काने या पीसने की आवाज है।
पृथ्वी पर आई। महाभारत में कहा गया कि बिजली दधीचि की अस्थियों से निकली, पर एक और भी प्राचीन विश्वास है कि बिजली शेषनाग की फुंकार है, जो सांपों का राजा है। जिस प्रकार अग्नि काष्ठ का भक्षण करती है, उसी प्रकार बिजली जल का भक्षण कर लेती है। यह उस पर प्रहार करती है, जिसने 'बज्र-पापÓ या ब्रह्म-हत्या किया हो।

इस विषय की आदिवासी परंपराओं के अध्ययन से लेखन योग्य विविधता दृष्टिगोचर होती है और कम से कम छह अभिप्राय अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। प्रथम और सबसे लोकप्रिय है कि बिजली एक लड़की है, जो विवाह-दिवस पर आकाश में भागी फिरती है और बादलों की कड़क उसके दुष्ट स्वामी का शोर है, जो उसके पीछे दौड़ रहा है। एक बैगा कथा वर्णन करती है कि किस प्रकार लक्ष्मण ने 'बीजलदाई कन्याÓ के लिए बारह वर्ष बिताए, जो दर्पण की भांति सुंदर थी, जिस पर एक युवक सूर्य की किरणों की प्रतिच्छाया डालता है। वह प्रकाश की भांति ही विलीन हो जानेवाली है। इस समय (12वर्ष) की समाप्ति पर उसके श्वसुर ने एक घड़ा, जिसमें उसी का रक्त भरा था, दिया और घर ले जाने और भीतर न देखने के लिए कहा। पर लक्ष्मण उसे अपने कक्ष में ले गया और खोल डाला। भीतर से उसकी वधू इतनी शक्तिशाली निकली कि छत को तोड़कर आकाश में जाकर बिजली बन गई। लक्ष्मण ने अपना धनुष-बाण संभाला ओर उसकी पीछा किया, घनगर्जन बादलों को चीरते हुए उसके बाणों का रव है।
 इसी प्रकार एक 'देवारÓ कथा में एक युवा नेता 'बेल कुंवरÓ का विवाह बीजल कन्या से होता है। वह एक बांस की नाल में छिप जाती है और उस नाल को बेल कुंवर के धनुष-बाण के साथ विवाह-स्तंभ के चारों ओर घुमाया जाता है। लड़का बांस को घर ले जाता है, पर रास्ते में-कितनी ही बार मना करने पर भी इसे मत खोलना-वह भीतर देखता है, उसकी वधू उछलकर बाहर निकल आती है ओर एक खोखले वृक्ष में छिप जाती है। बेल कुंवर उस पर बाण चलाता है, वह चरका देती है, बाण बांस के झुरमुट में लगता है। बेल कुंवर बार-बार बाण चलाता है, पर वह एक गांठ से दूसरी गांठ सरकती रहती है और अन्त में आकाश पर पहुंच जाती है। इस प्रकार बिजली अभी तक कुंवारी ही है और बादलों की कड़क सदा के लिए उसकी रुष्ट आवाज है, जब भी वह उसे देखता है, चिल्लाता है।
'कोंडÓ और 'सावराÓ कथाओं का अभिप्राय वही है। एक लड़की जो अग्नि सदृश सुंदर है, किसी लोहार के आसोत्र में ज्वालामय लोहे से उत्पन्न होती है। वह इतनी सुंदर है कि सभी लोहार उससे प्रेम करते हैं और एक ईष्र्यालु पत्नी उसे शाप देती है कि विवाह होने पर भी उसे अपने पति से सदा अलग रहना पड़ेगा। इस प्रकार जब उसका विवाह होता है तो पतिगृह जाते समय रास्ते में ही उसके कंधों में पंख निकल आते हैं और वह उड़कर आकाश चली जाती है।
ये मनोरंजक विचार हैं, पर कार्य-रूप में परिणित नहीं हुए। बिजली गिर जाना भयंकर तथा बुरी बात है। प्राय: यह पाप का दंड माना जाता है या किसी जातीय टैबू का तोडऩा। जिस वृक्ष या घर पर बिजली गिर जाती है, उसे भारी जादू से भरा समझा जाता है और वह बड़े विचार से स्पर्श या व्यवहार किया जाता है। 'सावराÓ लोगों का कहना है कि बिजली से मरने वालों की आत्मा पृथ्वी पर जुगनू बनकर लौट आती है और अपने अन्य जीवन को सदा जल-जलकर कष्ट में बिताती है।
                                                                                                                  (1959, विशाल भारत)

भवानी दयाल संन्‍यासी और उनकी किताब महात्‍मा गांधी

आज यहां हम ऐसी ही किताब की चर्चा करने जा रहे हैं, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है। यह किताब, जो आपके हाथों में सौ साल बाद दुबारा प्रकाशित हो रही है। पुस्तक का नाम है-'सत्याग्रही महात्मा गान्धी अर्थात् मोहनदास कर्मचन्द गांधीÓ। लेखक हैं भवानी दयाल। लेखक तब दक्षिण अफ्रिका के डरबन, नेटाल में रहते थे। जन्म भी वहीं हुआ था, लेकिन मूल भारत था। भवानी दयाल ने यह पुस्तक 1916 में लिखी थी, क्योंकि प्रकाशन की तिथि 1917 है। जो
पुस्तक के लेखक, भवानी दयाल को भी जानना चाहिए, जो बाद में आर्य समाज से दीक्षा लेकर संन्यास धारण कर भवानी दयाल संन्यासी कहलाए और जिनके बारे में हमारी पीढ़ी बहुत कुछ नहीं जानती और वह प्रदेश भी, जहां से उनका वास्ता रहा।
भवानी दयाल संन्यासी का पैतृक गांव बहुआरा है। यह बिहार के सासाराम जिले में है। कुदरा से 10-12 किलोमीटर की दूरी पर। पहले यह आरा जिले में था। 'प्रवासी की कहानीÓ में भवानी दयाल संन्यासी अपने माता-पिता के बारे में जानकारी देते हैं- 'मेरी माता का नाम मोहिनी देवी था। उनका जन्म अवध में हुआ था। एक अच्छे जमींदार की बेटी थीं।...मेरे पिता का नाम जयराम सिंह था। वे बिहार के रहने वाले थे। बचपन में ही उनके मां-बाप मर गए थे।Ó मां-पिता के मिलने की कहानी किसी नाटक से कम नहीं। एब बार सरयू स्नान के मेले में संन्यासी की मां घर और गांव वालों के साथ स्नान करने अयोध्या गईं। वहां अचानक साथियों से विलग हो जाने के कारण वह भटक गईं। परिजनों को तलाशने की कोशिश की, लेकिन विफल रहीं। लाचार, मेले में एक किनारे बैठ रोने लगीं। इसी बीच एक ब्राह्मण वेशधारी आरकाटी उसके पास पहुंचा और अपने लोभ में फंसा दिया कि वह उनके परिजन से मिला देगा, लेकिन वह उसे कलकत्ते के डीपो पहुंचा दिया, जहां से जहाज लोगों को बेहतर जिंदगी का लालच देकर गोरे दक्षिण अफ्रिका ले जाते थे। इधर, जयराम सिंह भी गांव में बनियारी करते हुए काफी डांट-फटकार पाते थे। जमींदार से डांट सुनकर एक बार वे भी अपना गांव छोड़ नौकरी की आस में काशी पहुंचे और फिर यहां से वे भी आरकाटी के फंदे में फंस गए। पर, यहां का जीवन देख वह यहां से भागना चाहते थे। आरकाटी ने कहा, पांच रुपये तुम पर खर्च हुए हैं, वह दे दो, तो चले जाओ। न पांच रुपया हुआ न वे भाग सके और अंतत: वे भी उसी जहाज पर सवार कर दिए गए। इसी जहाज पर दोनों साथ आए और शादी हो गई। नेटाल में दोनों ने पांच साल किसी तरह गुजारे और किसी तरह कुछ पैसा भी बचा लिए। पता चला कि नेटाल के पास ट्रांसवाल सुंदर शहर है। यहां सोने की खान है। इसलिए नेटाल से ट्रांसवाल चले आए। यहां आकर जोहान्सबर्ग में डेरा डाला और व्यापार करने लगे। इससे आर्थिक स्थिति काफी सुधर गई। वे यहां हिंदुस्थानियों के बीच बाबूजी के नाम से ख्यात हो गए। जब यहां ट्रांसवाल इंडियन एसोसिएशन की स्थापना हुई तो जयराम सिंह प्रधान चुने गए। यहीं ट्रांसवाल के जोहान्सबर्ग में दस सितंबर, 1892 को भवानी दयाल का जन्म हुआ। हालांकि दुखद यह रहा कि सात साल बाद उनकी माता का 1899 में निधन हो गया। इसी समय यहां अंग्रेज और बोअरों के बीच युद्ध छिड़ गया था। गांधीजी ने अंग्रेेजों की इस युद्ध में बहुत मदद की। 1904 में भवानी दयाल परिवार संग पहली बार अपनी जन्मभूमि से मातृभूमि भारत आए। यहां रहने के बाद 1907 में भवानी दयाल का विवाह हुआ। पिता ने भी यहां अपनी दूसरी शादी कर ली थी। पिताजी का जब 1911 में देहांत हुआ तो घर में कलह भी शुरू हो गया। विमाता का व्यवहार भी अनुकूल नहीं था। इसलिए 1912 मेंं साढ़े आठ साल व्यतीत कर अपनी जन्मभूमि लौट गए। अपने पत्नी, छह महीने के पुत्र, छोटे भाई देवीदयाल और उनकी पत्नी के साथ। जिस दिन वहां पहुंचे तो वहां उन्हें जहाज से उतरने ही नहीं दिया गया। कानूनी अड़चन सामने आ गया। इसके बाद गांधीजी ने हस्तक्षेप किया और उनके वकील मित्र पोलक मामले को कोर्ट ले गए। किसी तरह जहाज से उतरे तो वे सीधे गांधी के आश्रम पहुंचे। पिताजी के रहते ही गांधीजी से परिचय हो गया था। पिताजी भी गांधी के आंदोलन में साथ रहे। हर स्तर पर मदद की। यहां संन्यासी ने धोबी का भी काम किया। वे गांधीजी को मजदूरों की तरह काम करते हुए देख चुके थे। इसलिए इस काम को करने में उन्हें कोई हिचक नहीं हुई। वे बाबू लालबहादुर सिंह के धोबीखाने यानी लांड्री में काम करते थे। बाबू साहब ट्रांसवाल के प्रसिद्ध सत्याग्रही थे। कई बार उन्होंने जेल की यात्रा की। संन्यासी यहां कुछ दिनों में ही पक्का धोबी बन गए, लेकिन यह काम टिकाऊ न हो सका, क्योंकि 1913 के सितंबर में महात्मा गांधी ने सत्याग्रह का शंख फूंक दिया। सत्याग्रह में केवल भवानी दयाल ही शामिल नहीं हुए, पत्नी जगरानी देवी ने भी साथ दिया। संग्राम तेज हो गया। जेल भी जाना पड़ा। जेल से छूटे तो गांधीजी ने पत्र लिखकर कहा, फिनिक्स जाकर इंडियन ओपिनियन के हिंदी अंश का संपादन करें। यहां आकर संपादन किया। फिर सोने की खान में मजदूरी की। काम करते हुए हिंदी प्रचारिणी सभा, हिंदी रात्रि पाठशाला और हिंदी फुटबाल क्लब की स्थापना भी की। इसी समय 1914 में उन्होंने 'दक्षिण अफ्रिका के सत्याग्रह का इतिहासÓ लिखा। दो साल बाद 1916 में यह प्रकाशित हुआ। हिंदी प्रचार का काम भी चलता रहा। 1915 में जब नेटाल आए तो यहां दो साल तक हिंदी की सेवा करते रहे। इसके बाद दक्षिण अफ्रिका हिंदी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन भी संन्यासी ने कराया। डरबन से धर्मवीर का सम्पादन किया। इसी बीच संन्यासी ने हमारी कारावास की कहानी, महात्मा गांधी का जीवन-चरित्र, वैदिक धर्म और आर्य सभ्यता, शिक्षित और किसान और नेटाली हिंदू नामक पुस्तकें लिख डालीं। संन्यासी ने अपने परिवार के भविष्य के लिए यहां 1919 में गन्ने की खेती शुरू कर दी थी। उस समय उनके दो पुत्र थे। यह सब काम करते हुए भवानी दयाल संन्यासी उन चंद भारतीयों में शामिल थे, जिन्होंने महात्मा गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में चलाए गए सत्याग्रह आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभायी थी। उन्होंने भारत ही नहीं दक्षिण अफ्रीका के इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी से पहले सत्याग्रह का इतिहास लिखा। वहीं अपनी पत्नी के साथ मिल कर 'जगरानी प्रेसÓ स्थापित किया और 'हिंदीÓ नाम से पत्रिका निकाल कर हिंदी का प्रसार-प्रचार किया। 1919 में वे दूसरी बार भारत आए और अपने बच्चों को वृंदावन के गुरुकुल में प्रवेश करा दिया। यह सब हो गया तो उनकी भेंट पं बनारसी दास चतुर्वेदी से हुई। यहां रहते हुए अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन दिसंबर में हुआ तो वे अफ्रिका के हिंदुस्तानियों के प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। इसके बाद राजेंद्र प्रसाद से परिचय हुआ। 1920 के अगस्त में संन्यासी जी दक्षिण अफ्रिका चले गए। जिस दिन वे दक्षिण अफ्रिका पहुंचे, उसी दिन उन्हें तिलक के देहावसान व गांधीजी के असहयोग आंदोलन के श्रीगणेश का समाचार मिला। दक्षिण अफ्रिका में गांधीजी ने 1894 में नेटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की थी। यह 1913 तक हिंदुस्तानियों की सेवा करती रही। जब 1914 में दक्षिण अफ्रिका से गांधीजी सदा के लिए विदा हो गए कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने सुप्रीम कौंसिल में दरख्वास्त देकर उसकी सारी जायदाद जब्त करा दी। इसके बाद लंबी लड़ाई के बाद 1921 को उसे पुनर्जीवित किया गया। तब भवानी दयाल को उसका प्रधान चुना गया। इस पद पर वे 18 साल तक रहे।
भवानी दयाल ने 1922 में छापाखाना खोला। इसमें उनकी पत्नी जगरानी देवी की बड़ी भूमिका रही। यहां से हिंदी समाचार पत्र का प्रकाशन हुआ। दुर्भाग्य यह रहा कि जगरानी देवी का अप्रैल के दूसरे सप्ताह में निधन हो गया। अखबार का पहला अंक मई में आना था। अंक तो निश्चित समय पर आया, लेकिन जगरानी देवी जग से विदा ले चुकी थीं। भवानी दयाली ने उनकी स्मृति में छापेखाने का नाम 'जगरानी प्रेसÓ रखा। अभी पत्नी के देहांत से उबरे नहीं थे कि मातृभूमि से भी खबर आई कि विमाता और उनका इकलौता पुत्र भी अब दुनिया में नहीं रहे। फिर वे भारत आए। यहां फिर 1922 के दिसंबर में होने वाले गया कांग्रेस में भाग लिया। 1926 में अपने गांव बहुअरा में प्रवासी भवन बनवाया। 1927 के चैत्र की रामनवमी पर इस भवन का वार्षिकोत्सव हुआ और इसी अवसर पर भवानी दयाल आर्य समाज से दीक्षित होकर संन्यासी बन गए। आर्य समाज का प्रचार के साथ-साथ देश की आजादी के आंदोलन का काम भी साथ-साथ चलता रहा। मातृभूमि से जन्मभूमि की यात्रा भी होती रही। आजादी का आंदोलन भी। इसी क्रम में 1929 नमक कानून तोडऩे और जनता को भड़काने के एवज में गिरफ्तार कर लिए गए और आरा से इन्हें में 11 अप्रैल की शाम को उन्हें हजारीबाग जेल के लिए रवाना कर दिया गया। 12 को जेल में दाखिल हुए। यहां पर रहते हुए उन्होंने हस्तलिखित पत्रिका निकाली। प्रारंभ में रामवृक्ष बेनीपुरी ने 'कैदीÓ निकाला। बाद में 'कारागारÓ नाम की पत्रिका निकाली। उसके संपादन का भार उन्हें सौंपा गया। बिहार के सभी नेता कारागार के लिए लेख लिखकर देते थे। कारागार का प्रथमांक 'कृष्णांकÓ था, जो जन्माष्टमी के समय प्रकाशित हुआ थाा। दूसरा अंक दीपावली अंक था और तीसरा सत्याग्रह अंक। प्रवासी की यह अधूरी कहानी है। 'प्रवासी की कहानीÓ की भूमिका में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने लिखा है- ''स्वामी भवानी दयाल संन्यासी से मेरी मुलाकात कई बरसों से है। मुलाकात के पहले ही जब मुझे दक्षिण अफ्रिका के भारतियों इतिहास से कुछ परिचय हुआ, स्वामीजी के नाम और काम से परिचय हो चुका था। साक्षात् से वह परिचय और भी गहरा हो गया, और जैसे-जैसे परिचय बढ़ता गया उनके गुणों और कार्रवाइयों से अभिज्ञता होती गई; आदर और स्नेह बढ़ते गए। जब स्वामीजी 1930 में हिंदुस्तान आये और यहां के सत्याग्रह में आरा जिला में काम करने लगे, तो उनकी कार्यशक्ति, और अस्वस्थ शरीर से भी कितना परिश्रम वह कर सकते थे, इसका भी पता चला। यों तो स्वामीजी प्रवासियों की ओर से भेजे हुए डेपुटेशन में भारत आते-जाते रहते हैं और वहां दक्षिण अफ्रिका में भी बराबर उनकी सेवा में ही लगे रहते हैं। पर हमको, जब-जब वह देश में आते हैं, अपने प्रेम और सहृदयता से बाधित करते हैं। वहां पर राजनीतिक और सामाजिक सेवा के अलावे स्वामीजी ने हिंदी प्रचार में भी बहुत बड़ा काम किया है। हम बिहारियों को इसका गौरव है कि वह हमारे ही प्रदेश के हैं और वह भारतीय होते हुए भी प्रान्त को नहीं भूले हैं। मैं समझता हूं कि ऐसे सज्जन की जीवनी से नवयुवकों को अपने जीवन बनाने में सहायता मिलेगी और स्वामीजी का त्याग, उनकी कार्यदक्षता और देश प्रेम उनके लिये एक आदर्श उपस्थित करके उनके लिए पथ-प्रदर्शक बनेगी। -राजेंद्र प्रसाद।ÓÓ
प्रसाद ने अपनी आत्मकथा में भी जिक्र किया है, 'जेल में कुछ बातों में आपस में सुखद प्रतिद्वंद्विता हुई। कुछ लोगों ने 'बन्दीÓ या 'कैदीÓ नाम का एक हस्तलिखित मासिक पत्र निकाला। दूसरों ने 'कारागारÓ नाम का दूसरा मासिक निकाला, जिसमें यह लिखा कि कैदी या बन्दी तो आते-जाते रहते हैं, बदलते रहते हैं़, पर कारागार तो स्थायी रूप से चलता रहता है! इन पत्रों में राष्ट्रीय आन्दोलन-सम्बंधी लेख लिखे जाते थे। एक विशेषांक में सभी जिलों के प्रमुख कार्यकर्ताओं से, अपने-अपने जिले में आन्दोलन की प्रगति पर, लेख लिखवाये जाते थे। मेरा ख्याल है कि उससे बहुत कुछ मसाला मिलता, जिससे आन्दोलन का इतिहास लिखा जा सकता। याद नहीं, वह विशेषांक कहां है। इन पत्रिकाओं के मुख्य प्रबन्धक और लेखकों में सर्वश्री भवानीदयाल, गया के बाबू मथुराप्रसाद सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी और उत्साही युवक महामायाप्रसाद थे।Ó
संस्करण है, उस पर लिखा है, द्वितीयबार। यानी दूसरा संस्करण। संभव है, एक साल में इसका दूसरा संस्करण निकला हो। यह भी संभव है कि गांधी पर हिंदी में यह पहली पुस्तक हो। क्योंकि गांधी भारत 1915 में आते हैं। एक साल तक देश का भ्रमण करते हैं। किसी भारतवासी ने इतनी तत्परता दिखाते हुए उस समय कोई किताब लिख दी हो, मुश्किल लगता है। एक तीसरी उल्लेखनीय बात यह है कि भवानी दयाल ने 1916 में ही उन्हें महात्मा का नाम दे दिया था। चूंकि भवानी दयाल दक्षिण अफ्रिका में उनके साथ रहे। काम किया। उनके पिता जयराम सिंह का गांधी के प्रति अपूर्व प्रेम था। इसलिए गांधी के कर्म और चिंतन से भवानी दयाल काफी प्रभावित हुए। इतने प्रभावित कि अपनी इस पुस्तक में उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है-''महात्मा गान्धी का चरित्र लिखकर वास्तव में मैंने अनधिकार चेष्टा की है। उस महान पुरुष के जीवन का सच्चा चित्र खींचना मेरे लिये कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है। तो भी जो कुछ अपनी तुच्छातितुच्छ बुद्धि के अनुसार लिखा है, वह हिन्दी प्रेमियों की सेवा में सादर समर्पित है।...थोड़े दिनों तक महात्मा गान्धी के साथ रहकर उनके राजनैतिक सिद्धान्तों के जानने में जो कुछ सफलता प्राप्त की है, उसे मैंने 'दक्षिण अफ्रिका के सत्याग्रह का इतिहासÓ, 'हमारी कारावास की कहानीÓ और इस पुस्तक में दर्शाने का प्रयास किया है।ÓÓ
संन्यासी ने देश सेवा के साथ समाज की भी सेवा की। 1937 में लारेंस मारक्बिस में वेद मंदिर की आधारशिला रखी। 1944 में उन्हें काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्वर्णजयंती का अध्यक्ष चुना गया। उसी समय अजमेर से प्रकाशित 'प्रवासीÓ पत्रिका का संचालन और सम्पादन किया। इसके पहले 1931 में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के दसवें देवघर अधिवेशन में अपना अध्यक्षीय भाषण देते हुए, बिहार की चिंत्य स्थिति पर बड़ा मार्मिक प्रकाश डाला था। उन्होंने कहा था, 'बिहार में न लेखकों की कमी है न पाठकों की, न सम्पादकों की, न सुकवियों की और साहित्यसेवियों की। अन्य क्षेत्रों की पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें बिहार में ही अधिक खपती हैं। फिर भी हमारी यह दीन दशा क्यों? कारण यह है कि हममें कल्पना और कार्यशक्ति का अभाव हो गया है। हमारी दिमागी उड़ान एवं बुद्धि गुलाम हो गई है तथा हम अपनी राष्ट्रभाषा के उज्ज्वल भविष्य में अविश्वास करने लगे हैं।Ó
प्रवासीजी का देहान्त 9 मई 1950 को प्रवासी भवन अजमेर, में हुआ। गांधीजी की जब यह जीवनी लिखी, तब उनकी उम्र मात्रा 24 साल की थी। आप उनकी प्रतिभा, सोच और संस्कार का अनुमान लगा सकते हैं। प्रवासी की यह कहानी हम इसलिए अधूरी छोड़ रहे हैं कि आप उनके बारे में जानने के लिए कुछ और देखें और पढ़ें। आजादी के आंदोलन में इनकी महती भूमिका रही। विदेश में हिंदी के प्रचार में इनका सबसे बड़ा योगदान रहा है। हिंदी के इस सेवक के नाम पर अपने देश में न कोई पुरस्कार है न किसी मार्ग का नाम। देश तो भूला ही चुका है, बिहार ने भी कहां उन्हें मान-सम्मान और याद किया। बिहार शताब्दी के सौ नायकों में भी नहीं। कम से कम गांधी की 150वीं जयंती के मौके पर तो हम उन्हें याद कर ही सकते हैं।

भारतेंदु ने की थी तदीय समाज की स्थापना

भारतेंदु हरिश्चंद्र की आज जयंती है। वह एक कवि, नाटककार, घुमंतू, इतिहास लेखक, संपादक और न जाने क्या-क्या थे। साहित्य की हर विधाओं में लिखा। उम्र कम पाई, लेकिन काम कई उम्र का कर गए। उनके हर रूप, रस, गंध, विचार की चर्चा होती है, लेकिन एक चीज की चर्चा प्राय: नहीं होती। न होने के पीछे क्या कारण है, पता नहीं। लेकिन भारतेंदु का यह उल्लेखनीय और अलहदा पहलू है, जिसकी चर्चा होनी चाहिए। तब, हम एक नए भारतेंदु से मुखातिब हो सकते हैं।
यह था तदीय समाज की स्थापना। भारतेंदु ने सं 1930 में इसकी स्थापना की थी। इसका उद्देश्य था धर्म तथा ईश्वर के प्रति अनुराग। इसके साथ गोवध रोकने के लिए इस समाज ने साठ हजार हस्ताक्षर के साथ एक प्रार्थना पत्र दिल्ली दरबार में भेजा गया

था। गो महिमा आदि लेख लिखकर बराबर आंदोलन चलाते रहे। यही कारण है कि उसी समय अनेक स्थानों पर गोरक्षिणी सभाएं एवं गोशालाएं खुलने लगीं। मंदिरा, मांस सेवन रोकने के लिए कई प्रयत्न किए गए। इस समाज ने देशी वस्तुओं के व्यवहार करने की प्रतिज्ञाएं भी लोगों से कराई थी। समाज से एक मासिक पत्रिका भगवद भक्ति तोषिणी नाम की निकली थी, जो कुछ दिन बाद बंद होि गई। इसका अधिवेशन या बैठक प्रत्येक बुधवार को होता था और इसमें गीता तथा भागवत का पाठ होता था।
भारतेंदु ने स्वयं तदीय नामांकित अनन्य वीर वैष्णव, की पदवी लेते समय निम्नलिखित नियमों को आजन्म निबाहने की प्रतिज्ञा की थी।
यह इस प्रकार थी-
हम हरिश्चंद्र अगरवाले श्रीगोपालचंद्र के पुत्र काशी चौखंभा महल्ले के निवासी तदीय समाज के सामने परम सत्य ईश्वर को मध्यस्थ मानकर तदीय निम्मांकित अनन्य वीर वैष्णव का पद स्वीकार करते हैं और नीचे लिखे हुए नियमों का आजन्म मानना स्वीकार करते हैं।
यह था नियम-
1-हम केवल परम प्रेममय भगवान श्रीराधिकारमण का ही भजन करेंगे।
2-बड़ी से बड़ी आपत्ति में भी अन्याश्रय न करेंगे।
3-हम भगवान से किसी कामना हेतु प्रार्थना न करेंगे और न किसी देवता से कोई कामना चाहेंगे।
4-जुगल स्वरूप में हम भेद दृष्टि न देखेंगे।
5-वैष्णव में हम जाति बुद्धि न करेंगे।
6-वैष्णव के सब आचार्यों में से एक पर पूर्ण विश्वास रखेंगे परंतु दूसरे आचार्य के मत-विषय में कभी निंदा वा खंडन न करेंगे।
7-किसी प्रकार की हिंसा वा मांस भक्षण न करेंगे।
8-किसी प्रकार की मादक वस्तु न खाएंगे न पीएंगे।
9-श्रीमद भागवतगीता और श्रीभागवत की सत्यशास्त्र-मानकर नित्य मनन-शीलन करेंगे।
10-महाप्रसाद में अन्य बुद्धि न करेंगे।
11-हम आमरणांत अपने प्रभु और आचार्य पर दृढ़ विश्वास रख कर शुद्ध भक्ति के फैलाने का उपाय करेंगे।
12-वैष्णव मार्ग के अविरुद्ध सब कर्म करेंगे और इस मार्ग के विरुद्ध श्रौत स्मार्त वा लौकिक कोई कर्म न करेंगे।
13-यथा शक्ति सत्यशौचदायादिक का सर्वदा पालन करेंगे।
14-कभी कोई बात जिससे रहसय उद्घाटन होता हो अनिधकारी के सामने न कहेंगे। और न कभी ऐसी बात अवलंब करेंगे जिससे आस्तिकता की हानि हो।
15-चिन्ह की भांति तुलसी की माला और कोई पीत वस्त्र धारण करेंगे।
16-यदि ऊपर लिखे नियमों को हम भंग करेंगे तो जो अपराध बन पड़ेगा हम समाज के सामने कहेंगे और उसकी क्षमा चाहेंगे और उसकी घृणा करेंगे।
इसके बाद भारतेंदु का हस्ताक्षर है। तिथि है-मित्ती भाद्रपद शुक्ल 11 संवत 1930।
इसके साक्षी थे-
पं बेचनराम तिवारी
प्र ब्रह्मदत्त
चिंतामणि
दामोदर शर्मा
शुकदेव
नारायण राव
माणिक्यलाल जोशी शर्मा।
पर, भारतेंदु के इस प्रयास की कोई चर्चा नहीं होती। भारतेंदु ने इस छोटी सी उम्र में भी एक नए समाज की परिकल्पना की थी।