चुपके से जाना लोक कलाकारों की नियति


  • संजय कृष्ण
  • झारखंड में चलना ही नृत्य, बोलना ही गीत का मुहावरा बहुत पुराना है और प्राय: यहां की हरेक आदिवासी भाषाओं में मिल जाता है। पर, यहां लोक कलाकारों का वह मान-सम्मान नहीं, जो दूसरे प्रदेशों के कलाकारों को मिलता है। राज्य बने बीस साल हो गए, लेकिन यहां गांव-गांव जन्मजात कलाकारों के लिए रोजगार का कोई स्थायी साधन सरकार मुहैया नहीं करा पाई है। बस, उसे यहां प्रदर्शन की वस्तु बना दिया गया है। कोई अतिथि आया, उसके स्वागत-सत्कार के लिए दर्जनों कलाकार भूखे-प्यासे खड़े रहते हैं। इस लॉकडाउन में झारखंड का एक उम्दा कलाकार बिछड़ गया। पिछले साल दिसंबर में गोपीचंद्र प्रमाणिक से मुलाकात हुई थी। तभी जाना कि उनकी आंखों में रोशनी बहुत कम है। वे बासुंरी बजाते थे। इस विधा में उनका नाम भी था। हालांकि उन्होंने बैंजों से ही अपनी शुरुआत की थी। आज दोपहर यह मनहूस खबर मिली कि वे अब नहीं रहे। रिम्स में अंतिम सांस ली। अब गोपीचंद्र की बांसुरी से अब सुरीली, मधुर और कर्णप्रिय स्वर अब सुनाई नहीं देगी। यह भी अजब संयोग है, मई में ही जन्में और मई में ही दुनिया को अलविदा कह गए। गोपी खेलगांव स्थित झारखंड कला मंदिर में बतौर प्रशिक्षक पिछले दस सालों से जुड़े थे। उन्हें सप्ताह में तीन प्रशिक्षण देना होता था। इस तरह उन्हें महीने में करीब 12 हजार की राशि मिलती थी। उनके निधन से लोकजगत मर्माहत है। 6 मई 1976 को जन्मे गोपी ने 24 सितंबर 2005 को पहली बार एक बांसुरी वादक के रूप में सुर सिंगार म्यूजिकल ग्रुप के साथ स्टेज कार्यक्रम में शिरकत की थी। कहते हैं कि इसके पहले वे आजाद अंसारी के साथ बैंजो वादक के रूप में संगत करते थे। उन्हेंं बांसुरी वादक के रूप में झारखंड संगीत-जगत में लाने का श्रेय सुर सिंगार म्यूजिकल ग्रुप के आनंद कुमार राम, शिव शंकर महली एवं मनपूरन नायक को जाता है। पिछले दो सालों में तीन बांसुरी वादकों को झारखंड ने खोया है। 

गोपी के आंखों की रोशनी कम थी, लेकिन अंत:चक्षु से वे चीजों को देखते-समझते थे। वे लोक कलाकारों के प्रति चिंतित रहते। वे चाहते थे, सरकार यहां के कलाकारों के लिए स्थायी व्यवस्था करे। आखिर, कला और कलाकारों का संरक्षण भी सरकारों को अहम दायित्व होता है। पर, हमारी सरकारें खुद में इतनी उलझी हुई होती हैं कि उन्हें तिकड़मों के अलावा साहित्य, कला, संस्कृति पर बात करना नागवार गुजरता है। इसलिए, 20 सालों में यहां सरकारें तो खूब बनीं, लेकिन कला-संस्कृति के लिए कोई जगह नहीं बन पाई। जबकि झारखंड कई मायनों में कुछ कला-प्रविधि का जन्मदाता है। बीस सालों में अभी-अभी जियो टैग सोहराय-कोहबर को मिला। लेकिन इसमें किसी सरकार की कोई भूमिका नहीं है। यह यहां के कलाकारों की जीवटता और अथक प्रयास से संभव हुआ है।

गोपी अब सुर का संधान नहीं कर पाएंगे। मधुमेह ने उनकी आंखों की रोशनी छीनी, उच्च रक्तचाप ने उनकी जिंदगी। जब शंकर नेत्रालय में दिखाया तो डॉक्टरों ने रोशनी लौटने की शर्त आपरेशन रखी थी। वहां कोलकाता में चिकित्सा के लिए संस्थाओं ने मदद भी की थी। अपना शुगर कंट्रोल करने के लिए वे रांची आ गए थे। 15 दिन पहले जब सांस लेने में परेशानी हुई तो रिम्स में भर्ती कराया गया था। जब सुधार हुआ तो सप्ताह भर पहले उन्हें छुट्टी दे दी गई थी। लेकिन अचानक फिर तबीयत बिगड़ी तो रिम्स में ही शरण लेनी पड़ी और फिर 24 मई को सांस भी थम गई। इसके बाद दोपहर बाद ही उनका अंतिम संस्कार भी पुंदाग नदी के पास कर दिया गया।  झारखंड कल्चरल आर्टिस्ट एसोसिएशन ने उनकी भरपूर मदद की, लेकिन बचाया नहीं जा सका। पिछले दो सालों में तीन बांसुरी वादक चुपके से चले गए। अब गोपी नहीं रहे। एक पुत्र और चार पुत्रियों को छोड़ गए। डा. जयंत इंदवार बताते हैं कि इनमें एक पुत्री का विवाह कर चुके थे। कलाकारों को भी, और सरकार को भी उनके परिवार की चिंता करनी चाहिए।

आदिवासी इतिहास के अध्‍येता अश्विनी कुमार पंकज

  भारतीय मानचित्र पर लंबे संघर्ष के बाद झारखंड  अस्तित्वमान हुआ। वह तारीख थी 15 नवंबर, 2000। 15 नवंबर की तारीख को इसलिए चुना गया, क्योंकि इसी तारीख को झारखंड के एक प्रमुख आंदोलनकारी, जिसे ‘धरती आबा’ कहा गया, बिरसा मुुंडा का जन्म हुआ था। बिरसा मुंडा ने कुल 25 साल की उम्र पाई थी और 1900 में वह शहीद हो गया। सरदार भगत सिंह भी 25 के भीतर ही शहीद हो गए थे, लेकिन एक बात साफ थी कि भगत सिंह को देश-दुनिया ने याद रखा और उन पर पर्याप्त लिखा गया और लिखा जा रहा है। भगत सिंह ने खुद भी बहुत लिखा, जो आज उपलब्ध है। पर, भगत सिंह से थोड़ा पहले   1875 में बिरसा का जन्म हुआ था और 22-23 की उम्र में बिरसा का आंदोलन अंग्रेजों के लिए मुसीबत बन गया था। यह आंदोलन 1967 के बाद इतिहास में दर्ज किया गया। 1940 में जब कांग्रेस का रामगढ़ में सम्मेलन हुआ तब बिरसा की याद थी। उसके नाम से यहां द्वार भी बना और छपने वाली स्मारिका में भी   बिरसा को जगह दी गई थी। पर, हम जिसे मुख्यधारा का इतिहास कहते हैं, उसमें बिरसा नहीं हैं। एक बड़ा आंदोलन, जो अंग्रेजों के खिलाफ था, सचमुच वह आजादी का आंदोलन था, हमारे इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया। यह बात केवल बिरसा के संदर्भ में ही सही नहीं हैं। आजादी की जो पहली चिनगारी उठी, वह जंगलों से उठी और उसमें आज का झारखंड प्रमुख था। अंग्रेजों के यहां पांव पसारने के साथ ही उनके खिलाफ तीर-धनुष कमान से निकलने लगे थे। उन्हें हमने आदिवासी विद्रोह, जनजातीय विद्रोह और हद तो यह हो गई कि उसे स्थानीय विद्रोह कहकर आंदोलन को सीमित करने का प्रयास किया गया। यह उपेक्षा और नजरअंदाज करने की प्रवृत्ति केवल इतिहास लेखन में ही नहीं दिखाई देती, साहित्य, संस्कृति, कला के विविध क्षेत्रों में भी  परिलक्षित होती है।  

  जो यहां अध्ययन हुए, वह मानवशास्त्राीय दृष्टिकोण से या फिर बहुत हद तक सांस्कृतिक या लोकगाथा के तौर पर। देश का एक भाग, सौ सालों से अलग होने के लिए आंदोलनरत रहा, उसकी चर्चा प्रायः हमने नहीं की। जैसे, आज गोरखालैंड क्यों सुलग रहा है, क्या कारण है, उसकी क्या मांगें हैं और वहां लगातार हिंसा और स्थानीय लोगों और सेना-पुलिस के बीच टकराव क्यों हो रहे हैं, मैदानी इलाका नहीं जानता। तब, जब झारखंड की मां्रग उठ रही थी, तब भी यहां के लोगों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया था। पर, राज्य  बना। समय लगा और आज 17 साल हो गए, लेकिन एक बड़ा सवाल जरूर खड़ा हो सकता है कि जिस सपने को लेकर यह राज्य बना, वह पूरा हुआ? जवाब मिलेगा-नहीं! बस एक बात हुई, राज्य का खूब दोहन हुआ, खनिज की लूट हुई, विस्थापन हुआ...। राज्य इसके लिए नहीं बना था। 17 सालों में साहित्यिक अकादमिक पीठ का गठन नहीं हो सका। इनके साथ अलग हुआ छततीसगढ़ इन मामलों में बेहतर रहा। इसमें दोष के केवल सत्ता में बैठे रहने वालों का हीं हैं, उनका भी है, जो विपक्ष की राजनीति करते रहे और उनकी भी जो झारखंड आंदोलन के लिए लड़ते रहे, लेकिन उनमें से कुछ अब एनजीओ बनाकर अपने त्याग की कीमत वसूल कर रहे हैं।
  एक बड़ा कर्म या काम जो होना चाहिए था, वह पीछे छूट गया। वह थे अपने नायकों के बारे में जानकारी। उनके आंदोलन में योगदान। यह सब काम संस्थाओं को करना चाहिए था। वह नहीं कर पाईं। आजादी के बाद यहां रांची विश्वविद्यालय खुला, अस्सी के दशक में जनजातीय एवं क्षेत्राीय भाषा विभाग खुला, लेकिन वे काम नहीं कर सकीं। यहां तक कि जनजातीय शोध संस्थान भी, बिहार के समय तक अच्छा काम करता रहा, राज्य बनने के बाद यह महत्वपूर्ण संस्था ध्वस्त हो गई। सरकार यहां ऐसे-ऐसे को निदेशक बनाती रही है, जिनका उस विषय और रुचि से दू-दूर तक का संबंध नहीं है। 17 सालों के इस विकास को देखकर यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है, हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। तभी, हम श्री एके पंकज के काम को भी देख-समझ सकते हैं।
  साहित्य की बात करें तो यहां रांची में ही कई मूर्धन्य आलोचक हैं-हिंदी में। पर, कभी भूलकर भी उन्होंने यहां के आदिवासी लेखन और यहां के स्थानीय साहित्यकारों पर लिखा हो, वह भी उन्हीं पर लिखते रहे, कागद कारे करते रहे, जिन पर देश का हर हिंदी का विभाग और आलोचक कागद कारे कर रहे हैं। इतना संकुचित दृष्टि का एक कारण यह भी हैं, कि उनकी जड़ कहीं और है। वे खास विचारधारा से संबंद्ध जो, हाशिया, दलित, आदिवासी की चिंता में सर्वाधिक दुबली हुई जाती है, कभी आदिवासी सवाल पर ढंग लिखा ही नहीं। एक प्रख्यात आलोचक को असुर पर लिखते समय पता चला कि असुर आज भी हैं! ऐसे-ऐसे आलोचक हिंदी में, हिंदी का मान बढ़ा रहे हैं। तब, उन्हें राधाकृष्ण क्यों याद आते? वे आदिवासी रचनाकार उनके केंद्र में क्यों होते?
 हिंदी का आलोचक लोकल नहीं, ग्लोबल होता दिखना चाहता है। उसके पास अपने आस-पास के जमीनी लेखकों की, जो निश्चित रूप से अपनी भाषा में लिखते हैं, पता नहीं होता, लेकिन उन्हें सात समंदर पार की रचना और रचनाकार के बारे में पूरा पता होता है। इसलिए, वह पूर्वोत्तर के साहित्य-समाज के बारे में कुछ नहीं जानता। उसकी पूरी बौद्धिकता हिंदी के चार-पांच लेखकों पर ही केंद्रित होती है। वह उन पर भी नजर नहीं दौड़ाता या साजिशन वह उन लेखकों के बारे में नहीं बताता, जिन्होंने हिंदी के निर्माण में महती भूमिका निभाई। एक कारण यह भी कि वह शोध की बात करता है, लेकिन शोध के नाम पर कुछ पश्चिमी किताबें और कुछ इधर-उधर के साथ अपनी बौद्धिक दुकान चलाता है।
  इसलिए, जब एके पंकज का शोधपूर्ण उपन्यास माटी-माटी अरकाटी आया तो कथित रूप से किसी समर्थ आलोचक ने, जो खुद को प्रगतिशील, मूर्धन्य, जनवादी कहते नहीं थकते हैं, लिखना भी जरूरी नहीं समझा, लेकिन अंग्रेजी की अर$ंधति रॉय के उपन्यास का ऐसे लोग बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं, पढ़ने और लिखने के लिए। यह हिंदी का नया-नया आलोचना में एलीट पैदा हो रहा है। यह उपन्यास इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि यह आदिवासियों के प्रवासन की पीड़ादायक कहानी है, जो 1800 के बाद, भोजपुरी भाषी लोगों से पहले मॉरीशस ले जाए गए थे। यह उपन्यास शोध का नतीजा है और इसमें काफी सहयोग गुगुल और दुनिया की लाइब्रेरियों ने किया, जिनमें इस तरह की कथाएं कैंद थीं। हम तो भवानी दयाल संन्यासी की चर्चा नहीं करते, जिन्होंने अरकाटी शब्द का प्रयोग अपनी आत्मकथा में किया। यह उपन्यास हिंदी में एक नया विमर्श खड़ा करता है, जिसकी ओर हिंदी वाले पीठ खड़ा किए हुए हैं। यह एक बड़ा काम है, जिसके बारे में हम नहीं जानते। कैसे आदिवासी-बिहारी ले जाए गए, यह उपन्यास बखूबी दर्शाता है। हिंदी में, कमरे में बैठकर उपन्यास-कहानी लिखने की प्रवृत्ति ने आलोचकों को भी आलसी बना दिया है। वे अब केवल शब्दाडंबर से ही काम चलाते हैं।  
    साहित्य से थोड़ा इतर बात करें तो अभी अभी ‘आदिवासीडम’ किताब अंग्रेजी में संपादित की है। 70 साल बाद जयपाल सिंह मुंडा के लेखों और भाषणों का यह महत्वपूर्ण संकलन है। यह काम भी अकेले ही किया। बिहार-झारखंड की लाइब्रेरियों एवं संसद एवं डिजिटल लाइब्रेरियों से खोजकर यह काम किया। इसके पहले मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा नामक हिंदी में किताब लिखी, जो एक तरह से उनकी जीवनी है। यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था, लेकिन अब हो रहा है। झारखंड के संदर्भ में ही नहीं, भारत के आदिवासियों के संदर्भ में जयपाल सिंह वैचारिक प्रस्थान बिंदु हैं। झारखंड आंदोलन में सक्रिय तो रहे, आजादी के बाद संविधान सभा के सदस्य भी रहे और कई बार विधायक व सांसद भी। जयपाल सिंह पर छिटपुट काम हुए, लेकिन जो होना चाहिए, नहीं हुआ। हिंदी व अंग्रेजी में आईं ये दो किताबें प्रतिबद्धता का प्रतिफल हैं।
   लीक से हटकर, भीड़ से अलग और एक व्यापक दृष्टिकोण के साथ काम करना श्रीपंकज की प्रवृत्ति है। अलग सोच के साथ। कहानी लेखन हो, रंगमंच हो, फिल्म हो, कविता हो या पत्रिकाओं का संपादन हो। हमारे कथित विद्वानों की दृष्टि वहां तक नहीं जाती, या वे इतने गहरे सोच ही नहीं पाते, लेकिन उन्होंने अपना एक आभा मंडल बना रखा है। एक बार एक रवींद्रनाथ टैगोर के अध्येता से, जो खुद को रवींद्र ज्ञाता के तौर पर प्रचारित कर रखे थे, गीतांजलि का अनुवाद भी किया था, कला के मर्मज्ञ के तौर पर पहचान भी बना रखी है-पूछा कि क्या रवींद्र नाथ टैगोर गाजीपुर में रहे और उन्होंने आपनी आरंभिक कविताएं, नौका डूबी  के कुछ अंश वहीं लिखे, तो उन्हें पता ही नहीं था। ऐसे ही ज्ञाता हैं। ऐसे लोगों की बात क्या करिए, जो आदिवासी क्षेत्रा को समझ सकतें। ये तो कुबेरनाथ राय को भी नहीं पढ़ते। इनकी प्रगतिशीलता और जनवाद की चौहद्दी इतनी संकीर्ण है कि अपने गुट के अलावे दूसरे लेखक और रचनाकार को जानना-समझना-पढ़ना जरूरी नहीं समझते। नारेबाजी से ये खूब करते हैं।
  फिर ऐसे लोग एके पंकज के काम पर क्यों लिखें, क्यों जाने, क्यों समझें? एके पंकज की चिंता में झारखंड के आदिवासी लेखक है। यहां की भाषा और संस्कृति है। बाहरी लोग अपने पूर्वग्रह से इस संस्कृति-समाज को देखने के अभ्यस्त हैं, उन्हें बताना जरूरी है। चूंकि इन्होंने अपना एक सौंदर्य शास्त्रा बना रखा है। वही पढ़ते-पढ़ाते आ रहे हैं। उसी की कसौटी पर सबको देखने की आदत उनकी बन चुकी है। जबकि हर समाज -जाति का अपना सौंदर्य शास्त्रा होता है, वह खुद को अपने ढंग से देखने की मांग करता है, उस दृष्टि से नहीं, जो आपने ने किसी और समाज के लिए बना रखे हैं। कबीर और तुलसी की कविता को समझने के लिए ही एक ही सौंदर्य शास्त्रा से काम नहीं चलेगा। दोनों की जमीन अलग है। तो दोनों को समझने के लिए अलग-अलग दृष्टि की अपेक्षा होती है। इसी तरह आदिवासी समाज को लेकर भी है। यहां का साहित्य मौखिक रहा है। लेखन और लिपि की परंपरा नहीं रही है। इनकी जीवन दृष्टि, समाज और समय को देखने का नजरिया, देव और दानव, सृश्ष्टि चक्र सब कुछ अलग है। और, सभी आदिवासी को एक ही खांचे में रखने की भूल भी नहीं कर सकते। हर आदिवासी समूह की अपनी सृष्टि कथाएं हैं, मौखिक कहानियां हैं, प्रवासन  का इतिहास है। तो, उन लिखते समय, इनका ध्यान रखना जरूरी है। आदिवासी सौंदर्य के लिए कालिदास की उपमा देना, आपकी मूर्खता के लिए कुछ नहीं है, जैसा एक उपन्यासकार ने अपने उपन्यास में किया है। इसलिए, एके पंकज आदिवासी के संदर्भ में इसी सौंदर्यशास्त्रा की वकालत करते हैं। शास्त्राीय सौंदर्यशास्त्रा की नहीं।
  साहित्य और इतिहास में बहुत बारीक अंतर होता है। साहित्य में भी निकट इतिहास होता है, पर उसमें जीवन धड़कता प्रतीत होता है। इतिहास में घटनाओं का घटाटोप होता है। हमारे इतिहास पर विचारधारा का ऐसा असर रहा है कि सब कुछ उसी चश्मे में देखने की कोशिश करते हैं। दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों इसके शिकार रहे हैं, जबकि इतिहास और समाज इतना इकहरा नहीं होता; जितना हम समझते हैं। इसलिए किसी भी चीज को समग्रता में देखना चाहिए। मार्क ब्लाख इतिहास को इसी व्यापक और समग्र रूप से देखने की बात करते हैं-‘‘इतिहास कोई पंथ नहीं, अपने मूल अर्थों के अनुसार यह हमें ‘अनुसंधान’ के अलावा किसी अन्य चीज से प्रतिबद्ध रहने की शर्त नहीं पेश करता।’’ मगर, हमारे पेशेवर इतिहासकार अनुसंधान के बजाय अपनी विचारधारा का घालमेल करते रहे।
    मार्क ब्लाख जिस अनुसंधान की बात करते हैं, वह अनुसंधान एके पंकज में दिखता है। 1855 के हूल पर अंग्रेजी में एकत्रित सामग्री, जिसकी पांडुलिपि तैयार है, वह अनुसंधान का ही नतीजा है, जो इस पर एक नई रोशनी डालता है। हूल को लेकर हम यह नहीं बता पाए हैं कि देश का पहला स्वतंत्राता आंदोलन 1857 नहीं, 1855 का हूल है। इसी तरह अभी तक किसी ने यह कहने का साहस नहीं किया कि गांधी के सत्याग्रह से पहले यहां के आदिवासी सत्याग्रह से परिचित हो चुके थे और अंग्रेजों के खिलाफ इसका उपयोग भी करते थे। टाना भगत और उसके पहले बिरसा के अनुयायियों ने भी सत्याग्रह किया था, लेकिन इसकी चर्चा नहीं होती। देश में आज भी टाना भगत ऐसे हैं, जो गांधी को देवता की तरह मानते हैं। वे खद्दर पहनते हैं। चरखा वाले झंडा की पूजा करते हैं। यह देश के दूसरे हिस्सों को टाना भगतों के बारे में पता ही नहीं। झारखंड जैसे प्रदेश के बारे में हम बहुत कम जानते हैं। पूर्वोत्तर के बारे में पता ही नहीं। यह स्थानीय लेखन अत्यंत जरूरी है, जिसके एके पंकज बड़ी शिद्दत से कर रहे हैं। हर रचनात्मक विधा में। इतिहास और साहित्य में भी। जो काम किसी संस्था को करना चाहिए, वह अकेले ही कर रहे हैं। यह कम बड़ी बात नहीं। झारखंड के आदिवासी रचनाकारों को भी आगे बढ़ाने, उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने, उनकी रचनाओं के प्रकाशन की दिशा में भी वह सक्रिय हैं।     
 

कोरोना का डर पहुंचा रहा झारखंड के पर्यावरण को फायदा

डॉ  नितीश प्रियदर्शी
पर्यावरणविद

24 मार्च से भारत में लागू देशव्यापी लॉकडाउन के कारण देश के कई हिस्सों में भी इंसानी गतिविधियों की रफ्तार थमी है और इस दौरान प्रकृति अपनी मरम्मत खुद करती नजर आ रही है।  गाड़ियों की आवाजाही पर रोक लगने और ज्यादातर कारखानें बंद होने के बाद दुनिया समेत देश के कई शहरों की हवा की क्वालिटी में जबरदस्त सुधार देखने को मिला है। जिन शहरों की एयर क्वालिटी इंडेक्स यानी AQI खतरे के निशान से ऊपर होते थे। वहां आसमान गहरा नीला दिखने लगा है।
झारखण्ड के भी  शहरों में इस लॉक डाउन का प्रभाव दिखा रहा है। अगर रांची की बात ले तो लगता है शायद इसी मौसम के चलते अंग्रेजों ने रांची को बिहार झारखण्ड का उस वक़्त ग्रीष्म कालीन राजधानी बनाया था। ऐसा लगता है मौसम के हिसाब से रांची आज से ५० साल पीछे चला गया है। तापमान ज्यादा होने पे भी उतनी गर्मी नहीं लग रही है जितनी पिछले साल थी। बता दें कि कई महीनों से झारखण्ड  में वाहन प्रदूषण के खिलाफ जांच अभियान चलाया जा रहा था।  जगह-जगह दोपहिये एवं चार पहिये वाहन,  मिनी बस और टेंपू समेत विभिन्न कॉमर्शियल वाहनों के प्रदूषण स्तर को चेक किया जा रहा था और निर्धारित मात्रा से अधिक प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों पर कार्रवाई की जा रही थी।  इसके बाद भी न तो वाहनों द्वारा छोड़े जा रहे प्रदूषणकारी गैसों की मात्रा कम हो रही थी और न ही वायु प्रदूषण में कमी आ रही थी।  लेकिन, कोरोना के भय से सड़क पर चलने वाले वाहनों की संख्या में आयी भारी गिरावट आने के कारण पिछले एक महीने  से इसमें काफी सुधार दिखता है।  वाहनों की आवाजाही न होने से सड़कों से अब धूल के गुबार नहीं उठ रहे हैं। झारखण्ड का एयर क्वालिटी इंडेक्स वायु प्रदुषण के कम हो जाने से  ५० - ७० के बीच आ गया है जो पिछले साल १५० से २५० तक रहता था।  ये हवा मनुष्य के स्वस्थ लिए फायदेमंद है।  वायु और धुल प्रदुषण के काफी कम हो जाने से आसमान  में रात को सारे तारे दिख रहे हैं जो पहले नहीं दीखते थे। ध्वनि प्रदुषण तो इतना कम है की आपकी आवाज दूर तक सुनाई दे रही है। चिड़ियों का चहचहाना सुबह से ही शुरू हो जा रहा है।  कुछ ऐसी भी चिड़ियाँ नज़र आ रही हैं जो पहले कम दिखती थीं। जहाँ पहले झारखण्ड में फ़रवरी से ही भूमिगत जल नीचे चला जाता था और चापाकल सूखने लगते थे इस वर्ष स्थिति काफी अच्छी है।  कम तापमान होने की वजह से मिट्टी से वाष्पीकरण काफी कम है वहीं बीच बीच में बारिश हो जाने से मिट्टी में नमी बनी  हुई है। लॉक डाउन की वजह से बड़े बड़े मॉल और होटल्स बंद हैं जिसकी वजह से भूमिगत जल का दोहन भी कम हो रहा है। भूमिगत जल का दुरुपयोग कम हो रहा है।  अगर अभी भूमिगत जल नीचे चला जाता तो स्थिति और भी भयावह हो जाती।  लोग पानी के लिए सड़कों पे उतरते।  इस लॉक डाउन से एक और बड़ा फायदा नदियों को होगा।  हर साल प्रदूषित रहने वाली नदियां अब खुल के सांस ले पा रही होंगी।  पेड़ एवं फूल पौधे भी खुल के सांस ले रहे होंगे क्योंकि उनके पत्तों पे अब कोई धुल कण नहीं बैठ रहा होगा। आने वाले मौसम पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा।  तापमान हो सकता है की औसत से कम रहे ।  गाड़ियों और फैक्टरियों के बंद होने से ग्रीन हाउस गैस जो ग्लोबल वार्मिंग का प्रमुख कारण है का उत्सर्जन भी नहीं के बराबर होगा।  इसमें दो राय नहीं की इस लॉक  डाउन की वजह से गरीब मजदूरों को मृत्यु तुल्य कष्ट  हो रहा है और बहुत लोग अवसाद में हैं लेकिन अगर पर्यावरण को देखे तो ये हमे अभी सुकून ही दे रही है।

झारखंड की सराक जाति

बंगाल, बिहार, ओडिशा और झारखंड में सराक जाति भी रहती है। झारखंड के आदिवासी क्षेत्र में सराकों के कई गांव हैं। 1996 में प्रकाशित एक पुस्तक के हवाले से सिंहभूम जिले में छह गांव, रांची में 49 गांव, दुमका में 29 गांव, वीरभूम में तीन गांव, धनबाद में 12 गांव, संताल परगना में 29 गांव हैं। डाल्टन एवं एचएच रिसले ने बंगाल-पुरी गजेटियर में लिखा है-सराकगण झारखंड में बसने वाले पहले आए हैं। ये अहिंसा धर्म में आस्था रखते हैं। सराक एक ऐसी जाति की संतान हैं जो भूमिजों के आने से पूर्व बहुत प्राचीन काल से यहां बसी हुई है, इनके पूर्वजों ने पहले अनेक स्थानों पर मंदिर बनवाए थे। यह अब भी एक शांतिमयी जाति है, जो भूमिजों के साथ बहुत मेलजोल से रहती है। इनके कुल देवता पाश्र्वनाथ हैं। सराक को श्रावक का अपभ्रंश भी कहा जाता है। बंगाल डिस्ट्रिक गजेटियर में बताया गया कि सरावक, सरोक, सराक श्रावक का अपभ्रंश रूप है। यह संस्कृत में सुनने वाले के लिए कहा जाता है। उस समय जैन धर्म में परिवर्तित व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता था। ये श्रावक जैन धर्म प्रवर्तत यति, मुनि, संन्यासी से भिन्न होते थे। डाल्टन लिखता है, सराकगण झारखंड में बसने वाले पहले आर्य हैं, वे अहिंसा धर्म में आस्था रखते हैं। सिंहभूम में तांबे की खानें व मकान हैं, जिनका काम प्राचीन लोग करते थे। ये लोग श्रावक थे। पहाडिय़ों के ऊपर घाटी में व बस्ती में बहुत प्राचीन चिह्न हैं। यह श्रावकों के हाथ में था। सिंहभूम श्रावकों के हाथ में था जो अब करीब-करीब नहीं रहे हैं। परंतु तब वे बहुत अधिक थे।
------------------
महावीर का एक नाम वीर भी था। तो क्या वीरभूमि उनके नाम पर ही है। इतना तो तय है कि झारखंड जैन धर्म के लिए पवित्र क्षेत्र रहा है। 24 में से 20 तीर्थंकर यहां निर्वाण को प्राप्त हुए। पं बंगाल का बर्धमान जिला भी भगवान महावीर के नाम पर ही है।

सौ साल पहले महज दो हजार आबादी का शहर था रांची

#रांची की आबादी #1905 में दो हजार थी। #जालान,#मोदी, #खेमका, #रूइया, #बुधिया, #पोद्दार आदि जाति के दो-दो-चार-चार परिवार ही थे। #जैनियों में #जोखीराम का परिवार और रतनलालजी का परिवार था। रांची समुद्रतल से #2500 फीट ऊंचा होने के कारण यहां का मौसम गर्मियों में भी ठंडा रहता था। बिहार की राजधानी #पटना में रहने वाले अंग्रेज #गवर्नर महोदय के लिए गर्मी से बचने के लिए यहां कोठियां, बंगले आदि बनाए गए थे। साथ ही #रांची के चारों तरफ जंगल होने के कारण #आदिवासी रहा करते थे। उस समय मजदूरी #राजमिस्त्री की पांच आने रोज, कुली का काम करने वाले की तीन आने रोज और काम करने वाली औरतों की दो आना रोज थी। रांची में जो #आदिवासी काम करने आते उनकी वेश-भूषा विचित्र होती थी। पुरुषों के बड़े बाल, जिन्हें वे घुंघराले कर सजाते थे। #कानों में बड़े छेद जिसमें बांस की पेंसिलनुमा लकड़ी छोटी-बड़ी-मोटी-पतली शौक के अनुसार पहने रहते थे। #गले और हाथ में कौडी, मूंगा या कांसे आदि के गहने बने होते थे। #कमर में एक फुट चौड़ी सूती पट्टी चार-पांच हाथों का लंगोटनुमा पहनते थे। ऊपर चद्दर से बदन ढंके रहते थे जो बच जाता आगे-पीछे या बगल में लटका लेते। आत्मरक्षा के लिए साथ में एक लकड़ी रखते। कोई-कोई तीर-कमान भी रखता। काम के समय उतार कर अलग रख देते। वे बड़े मेहनती होते थे। सुबह सात-आठ बजे ही काम पर आ जाते थे और संध्या पांच-छह बजे तक काम करते थे। #सुबह वे अपने घर से खाकर आते और काम पर से जाने के बाद अपने घर पर भोजन करते। #दोपहर टिफिन के समय अपने साथ लाया सत्तू पानी में घोलकर पीते या सत्तू में हरी मिर्च और कच्चा आम या इमली डालकर उसके लड्डू बनाकर खाते। त्योंहारों और छुट्टी के समय #मनोरंजन और अपनी स्फूर्ति के लिए अपने घर में चावल #हांड़ी में सड़ाकर बनाई हुई शराब पिया करते थे जिसे वे #हडिय़ा कहते थे। काम करते समय जब भूल होती तो आपस में एक दूसरे को ताना देते कि आज #हडिय़ा पीकर आया है। इनके नाम भी हमलोगों के दिनों के नाम पर होते जैसे सोमरा, मंगला, बुधवा, शुक्रा, शनीचरा इत्यादि। इनकी स्त्रियां काम पर आती वे भी काफी मेहनती होती थीं। नाम भी उसी तरह होते केवल पुलिंग की जगह स्त्रीलिंग हो जाते यानी सोमरी, मंगली, बुधनी, शनिचरी इत्यादि। 

रांची में सिनेमा और सर्कस का खेल
रांची में उस जमाने में मुसलमानों के साथ जैसे स्कूल में बच्चे पढ़ते थे, वैसे ही मुहर्रम पर निकलने वाले ताजियों में सम्मिलित होते। मुसलमान घरों में भी काम-काज के लिए रखे जाते थे। घोड़ा गाड़ी में कोचवान, सईस मुसलमान रहते। घरों में भी आदिवासी स्त्रियां बहुत सस्ते में काम के लिए मिल जाया करती थीं। बीच-बीच में नटों के खेल देखने को मिलते। सर्कस भी साल में एक दो बार आया करते थे। आंध्र प्रदेश का राममूर्ति भी रांची आया और उसने लोहे की सांकल तोड़ी और अपनी छाती पर से हाथी गुरवाया।
रांची में जब पहली बार सिनेमा आया तो जनता को मुफ्त दिखाया गया था-यह एक आश्चर्य की बात थी। पीठिया टांड़ जहां हर बुधवार और शनिवार को बाजार लगता था, उसमें ही चार बासों को खड़ा कर सफेद कपड़ा बांधा गया और चलते-फिरते दृश्य दिखाए गए। ये रंगीन भी नहीं थे और बोलते भी नहीं थे फिर भी जनता के लिए आश्चर्य की चीज थी, जिसे देखने के लिए बहुत भीड़ इक_ी हुई। 


#एक #मारवाड़ी की #जीवनी का एक अंश।
तस्‍वीर सौ साल पुरानी, रांची का मेन रो
सौजन्‍य, #
एके पंकजजी
#ranchinama
#रांचीनामा

पटना से निकला था महावीर, पहली बार बिहार के सत्‍या‍ग्रहियों की छापी गई थी सूची

साप्ताहिक ‘महावीर’ का सत्याग्रह अंक

बिहार से प्रकाशित साप्ताहिक ‘महावीर’ के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं मिलती है। इसका एक विशेषांक सत्याग्रह पर आया था। 21 जून, 1931 में यह अंक निकला था। इस अंक के बारे में संपादक ने लिखा है, ‘इन पंक्तियों में उन्हीं घटनाओं का संक्षिप्त विवरण देने का प्रयत्न किया गया है। हम जानते हैं कि सत्याग्रह आंदोलन का ठीक ठीक वर्णन करने में हजारों हजार पृष्ठों को रंगना पड़ेगा, और आज की अपेक्षा कहीं अधिक खोज ढूंढ और जांच पड़ताल करनी पड़ेगी और उसके लिए तो महान साधनों की आवश्यकता है, जिसका हमारे पास सर्वथा अभाव है। इन्हीं बातों और कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए हम ने इस अंक में सत्याग्रह सिद्धांतों के संक्षिप्त विवेचन के साथ भारतीय सत्याग्रह का थोड़ा वर्णन करते हुए बिहार प्रांत में होने वाली घटनाओं पर अधिक जोर दिया है।’
साधनों के अभाव और समय पर लेखकों के सहयोग नहीं मिल पाने के बावजूद भी जो अंक निकला, जो कम महत्वपूर्ण नहीं है। दुर्भाग्य से, महावीर का यही ‘सत्याग्रह’ विशेषांक ही उपलब्ध है। डबल डिमाई आकार में यह पत्रिका छपी है। अंक के मुख्य पृष्ठ पर गांधीजी लाठी लिए हुए हैं और उनके पीछे सत्याग्रहियों की ‘एस’ आकार में कतार है। नीचे मध्य में विजय-यात्रा लिखा हुआ है और फिर उसके नीचे सम्पादक का नाम -विश्वनाथ सहाय वर्मा। सबसे उ$पर बाएं संस्थापक श्री जगतनारायण लाल और दाहिने में पंजीयन-नं पी-186।
इस पत्रिका के बारे में इतिहास भी मौन है। कुछ-कुछ ही जानकारी मिलती है। सत्याग्रह अंक रांची के संतुलाल पुस्तकालय में ही मिला। यह दुर्लभ अंक है। हो सकता है, कहीं कोई और पुराने पुस्तकालयों में एकाध फाइलें पड़ी हों, लेकिन ऐसा कम ही जान पड़ता है, क्योंकि बिहार की पत्रा-पत्रिकाओं पर शोधपूर्ण काम करने वाले पं रामजी मिश्र ‘मनोहर’ अपनी शोधपूर्ण कृति ‘बिहार में हिंदी-पत्राकारिता का विकास’ में बस एक पैराग्राफ की संक्षिप्त जानकारी ही दे पाते हैं-‘‘सन् 1926-27 में बाबू जगत नारायण लाल ने साप्ताहिक ‘महावीर’ निकाला, जिसके वे स्वयं संपादक भी थे। यह अपने समय का बड़ा ही संदर्भपूर्ण एवं सुसंपादित पत्रा था। जगत बाबू राजनीति से सक्रिय रूप से जुड़े थे, अतः समयाभाव तथा अर्थाभाव के कारण यह मुश्किल से पांच-छह वर्ष ही चल सका। इसके कई महत्वपूर्ण विशेषांक निकले, जिनमें बिहार के राजनीतिक आंदोलन का महत्वपूर्ण छिपा पड़ा है। दुर्भाग्यवश इसकी फाइलें न तो जगत बाबू के परिवार वालों के पास है और न कहीं पुस्तकालयों में ही सुरक्षित हैं।’’ मनोहर जी ने काफी श्रम के साथ काम किया है, लेकिन उन्हें महावीर का कोई अंक सुलभ नहीं हो सका, जबकि यह पटना से ही प्रकाशित होता था। इस संक्षिप्त जानकारी से पता चलता है कि इसे संपादक जगत नारायण लाल थे। जगत नारायण लाल के बारे मंे भी बहुत जानकारी नहीं मिलती है। पता चलता है कि ये उत्तर प्रदेश के थे। इनका जन्म उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। उनके पिता भगवती प्रसाद वहां स्टेशन मास्टर थे। जगत नारायण ने इलाहाबाद से एम.ए. और कानून की शिक्षा पूरी की और पटना को अपना कार्यक्षेत्रा बनाया था। ओम प्रकाश प्रसाद ने ‘बिहार: एक ऐतिहासिक अध्ययन’ में कुछ प्रकाश डाला है। लिखते हैं, जगत नारायण लाल राजेंद्र प्रसाद के कारण वे स्वतंत्राता संग्राम में शामिल हुए और मालवीय जी के कारण हिंदू महासभा से उनकी निकटता हुई। 1937 के निर्वाचन के बाद लाल बिहार मंत्रिमंडल में सभा सचिव बने। 1940-42 की लंबी जेल यात्राओं के बाद 1957 में वे बिहार सरकार में मंत्राी बनाए गए। सामाजिक क्षेत्रा में काम करने के लिए उन्होंने बिहार सेवा समिति का गठन किया। 1926 में उन्हें अखिल भारतीय हिंदू महासभा का महामंत्राी चुना गया। वे सांप्रदायिक सौहार्द के समर्थक थे। छुआछूत का निवारण और महिलाओं के उत्थान के कार्यों में भी उनकी रुचि थी। वे प्रबुद्ध वक्ता और श्रोताओं को घंटों अपनी वाणी से मुग्ध रख सकते थे। अपने समय में बिहार के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में उनका महत्चपूर्ण स्थान था। 1966 में उनका देहांत हुआ।’
जगत नारायण का लिखा हो सकता है कहीं सुरक्षित हो, लेकिन उनकी एक पुस्तक की लिखी भूमिका मिलती है। इस पुस्तक के लेखक रांची के गुलाब नारायण तिवारी थे। पुस्तक का नाम है-‘हिंदू जाति के भयंकर संहार अर्थात् छोटानागपुर में ईसाई धर्म्म’। इसे बिहार प्रांतीय हिंदू सभा, पटना ने प्रकाशित किया था। रामेश्वर प्रसाद, श्रीकृष्ण प्रेस, मुरादपुर, पटना से छपी थी। उसमें संक्षिप्त भूमिका उनके नाम से प्रकाशित है।
मोहम्मद साजिद ने ‘मुस्लिम पालिटिक्स इन बिहारः चेंचिंग कंटूर’ में जरूर इस पत्रिका के बारे में कुछ पर्याप्त जानकारी मिलती है। लिखते हैं, जगत नारायण लाल बिहार में हिंदू सभा और आल इंडिया हिंदू महासभा के जनरल सेक्रेटरी बने। इसके बाद 1926 में महावीर नामक साप्ताहिक पत्रा की शुरुआत की। संपादन भी खुद ही करते थे। इसमें सांप्रदयिक लेख काफी प्रमुखता से प्रकाशित होते थे। वे 1922 से 28 तक बिहार कांग्रेस के सहायक सचिव भी रहे। 1930 में पटना जिला कांग्रेस के सचिव रहे। इसी के साथ सेवा समिति से भी जुड़े रहे। इसी साल उन्हांेने हिन्दुस्थान सेवा संघ की स्थापना की। 1934 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। 1937 में मदन मोहन मालवीय की इडीपेंडेंट पार्टी के साथ जुड़े। जगत नारायण लाल ने अपने संस्मरण में लिखा है कि ‘महावीर’ हिंदू विचारधारा का समर्थक पत्रा है। 1926 में यह पत्रा साप्ताहिक शुरू हुआ। 1932 में यह दैनिक हो गया और 1932 में ही सरकारी विरोध के कारण बंद हो गया। लेखक ने लिखा है कि पहले वह ईसाइयों को संकट के तौर पर देख रहे थे। बाद में मुसलमानों के विरोधी हो गए।’
खैर, ‘महावीर’ के इस सत्याग्रह अंक में कुल 49 लेख शामिल हैं। अंतिम 49 वां लेख नहीं, बल्कि ‘बिहार के रणबांकुरे’ नाम से पूरे प्रदेश के राजबंदियों की 12 पेज में सूची है। पूरी नहीं। जितनी मिल सकी। संपादक ने इस बारे में पहले ही संपादकीय में आगाह कर दिया, ‘हम अपनी त्राुटियों और साधनाभावों से सजग हैं। जिस थोड़े समय में और प्रतिकूल परिस्थिति में हमें इसका प्रकाशन करना पड़ा, उसे ख्याल कर घबराहट होती है और अपनी उन त्राुटियों के लिए हम पाठकों से क्षमा चाहते हैं। लेखों के चुनाव में भी हमें बहुत से विद्वानों के लेख और कवितायें अपनी इच्छा के विपरीत इसलिए रख छोड़नी पड़ी कि हमारे पास अधिक स्थान ही न था। हम उन सज्जनों से क्षमा चाहते हैं। इसी प्रकार चित्रों के चुनाव में भी कई प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं के चित्रा हमें अभाग्यवश कोशिश करने पर भी नहीं मिल सके, जिसका हमें हार्दिक खेद है और यह अभाव ऐसा है जो हमें सदा खटकता रहेगा और उसके लिये भी हम क्षमा-प्रार्थी हैं। उसी तरह बिहार के राजबंदियों की नामावली भी अधूरी रह गई है। कई जिलों से तो राजबंदियों की सूची मिली ही नहीं, और कई जगहों की लिस्ट आने पर भी वह अधूरी निकली। इस कारण उन त्राुटियों का ख्याल हमें दुःखित कर रहे हैं।’
अंक के विषय सूची से कुछ अनुमान लगा सकते हैं। सबसे पहले भारतीय नेताओं के दिव्य संदेश है। उस समय के बड़े नेताओं के संदेश प्रकाशित हैं। महात्मा गांधी के तीन लेख कष्ट सहन का नियम, स्वराज्य का एक लक्षण एवं अहिंसा प्रकाशित है। राजेंद्र प्रसाद का सत्य और सत्याग्रह शामिल किया गया है। सत्याग्रह का खतरा-श्री प्रकाश, राजबंदी जीवन व सत्याग्रह की मीमांसा-श्री जगत नारायण लाल, स्वामी सहजानंद सरस्वती का लेख सत्याग्रह की कमजोरियां और उनके नेवारण के उपाय आदि शामिल किए गए हैं। कविताओं में श्री अरविंद का माता का संदेश, रामधारी सिंह दिनकर की कविता भव, बेगूसराय गोली कांड-श्री कपिलदेव नारायण सिंह सुहृद, बिस्मिल इलाहाबादी की फरियादे बिस्मिल आदि कविताएं प्रकाशित हैं। इसके अलावा सत्याग्रह और महिलाएं, बिहार में सत्याग्रह, बिहार में चौकीदारी कर बंदी, बिहार के शहीद आदि महत्वपूर्ण लेख हैं। सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि जिलों के सत्याग्रह की रिपोर्ट है। तब झारखंड भी बिहार का हिस्सा था। कुछ जिलों की रिपोर्ट प्रकाशित है- सारन में फपुर में सत्याग्रह, चम्पारण में सत्याग्रह, दरभंगा मेंसत्याग्रह, मुज सत्याग्रह, शाहाबाद में सत्याग्रह, भागलपुर में सत्याग्रह, प्रांत के कुल जेलयात्राी, बीहपुर सत्याग्रह, मुंगेर के सत्याग्रह, पटना नगर में सत्याग्रह, पटना जिला में सत्याग्रह, गया में सत्याग्रह, पूर्णिया में सत्याग्रह, रांची में सत्याग्रह, तामिलनाडु में सत्याग्रह आदि। उस समय के कई महत्वपूर्ण लेखकों ने इस अंक में योगदान दिया। इन लेखों से जिलों के सत्याग्रह के बारे में जानकारी मिलती है। प्रांत के कुल जेलयात्राी के अलावा बिहार के वीर बांकुडे़ 12 पेज में दिया गया है। इसमें वृहद बिहार के जिलों के सत्याग्रह और राजबंदियों की सूची है। यह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए, महावीर के इस अंक का महत्व बढ़ जाता है। इसके अलावा इसमें उस समय के कई बड़े नेताओं की तस्वीरें भी हैं। डॉ मोख्तार अहमद अंसारी, फार खान, पुरुलिया के जिमूत वाहन सेन,डॉ सैयद महमूद, अब्दुल ग हजारीबाग की सरस्वती देवी एवं मीरा देवी, प्रो अब्दुल बारी, जेएम सेनगुप्ता के साथ जगत नारायण लाल एवं उनकी पत्नी की भी। उस समय के प्रमुख सत्याग्रहियों की तस्वीरें, जो सुलभ हो सकीं, दी गई हैं।
रामवृक्ष बेनीपुरी अपने संस्मरण ‘पत्रकार जीवन के पैंतीस वर्ष’ में दो पंक्तियों में पत्रिका के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी है-‘‘बाबू जगतनारायण लाल ने महावीर नाम का साप्ताहिक पत्रा निकाला था, जिसके संपादकीय विभाग में श्री विश्वनाथ सहाय और राधाकृष्ण सुप्रसिद्ध कहानी लेखक-रांची थे। यह हिंदू संगठन का हिमायती था।’’ रांची के रहने वाले राधाकृष्ण ने एक तरह से पत्रकारिता जीवन की शुरुआत इसी पत्रिका से की। फिर कहानी लेखन की ओर मुड़ गए। कहानी के साथ-साथ व्यंग्य भी लिखा। प्रेमचंद के निकट हुए। उनके निधन पर कुछ दिनों तक हंस भी संभाला। फिल्म लेखन भी किया। फिर रांची में ‘आदिवासी’ पत्रिका का संपादन किया। ‘महावीर’ के बारे में अब तक कुल जमा यही जानकारी मिलती है।
---