बाजारवाद का मिला है लाभ


संजय कृष्ण : प्रो श्यौराज सिंह बेचैन दलित चिंतन का एक महत्वपूर्ण नाम है। दिल्ली विवि में प्रोफेसर हैं। 'मेरा बचपन मेरे कंधों परÓ आत्मकथा से चर्चित बेचैन रांची में दलित सम्मेलन में भाग लेने आए हुए थे। जागरण संवाददाता से कई मुद्दों पर उनसे बातचीत की। प्रमुख अंश।
-हिंदी में दलित साहित्य किस मुकाम तक पहुंचा है?
दलित साहित्य ने अपनी पहचान बना ली है। भूमंडलीकरण और बाजारवाद का लाभ भी दलित साहित्य और चेतना को मिला। पूरी दुनिया में दलित लेखन की परंपरा विकसित हुई है। रिसर्च सेंटर बने हैं। अनुवादों का दायरा बढ़ा है। अंग्रेजी, मराठी, मलयालम, उर्दू आदि में दलित साहित्य के अनुवाद हो रहे हैं।
-दलित आत्मकथाएं काफी आ रही हैं। इनका स्वागत भी हो रहा है? इसे किस रूप में देखते हैं।
कहानी-उपन्यास आदि में दलित समाज उपस्थित रहा है। चरित्र भी रहे हैं। लेकिन उसमें कल्पना की छौंक होती है। पठनीयता के लिहाज से यह जरूरी भी है। पर आत्मकथा में कल्पना की गुजांइश नहीं होती। जो सच है, जो भोगा है, उसे ही अभिव्यक्त करना है। सो, वहां यथार्थ है। दूसरे, दलित लेखकों को जन्म से लेकर बचपन और युवा होने तक तिरस्कार, अपमान और घृणा के साथ जीना पड़ता है। किस परिवेश में कैसे वह बड़ा होता है, यह वही जान सकता है, जो दलित है। इसलिए दलित आत्मकथाएं बड़े चाव से पढ़ी जा रही हैं।
-दलित चिंतक प्रेमचंद को भी कठघरे में खड़ा करते हैं। उसके पीछे क्या उद्देश्य है?
प्रेमचंद की कहानियां या उपन्यास में घिसू, माधव या बुधिया जैसे पात्र दयनीय स्थिति में दिखाए गए हैं। वे याचक की भूमिका में हैं। बेशक, उनकी सहानुभूति थी लेकिन सवाल है कि जब प्रेमचंद लिख रहे थे, उसी समय स्वामी अछूतानंद भी लिख रहे थे, पत्रिका निकाल रहे थे, लेकिन उनकी उनसे कोई बातचीत नहीं। जब दलितों के प्रति उनकी सहानुभूति थी, वे अछूतानंद से कैसे दूर रहे?
-डा. धर्मवीर अंबेडकर की चिंतन को खारिज करते हैं, जबकि दलित साहित्य और चेतना के वे स्तंभ हैं?
धर्मवीर अंबेडकर को पूना पैक्ट तक मानते हैं। उसके बाद उनसे दूर हो जाते हैं। वस्तुत : धर्म के बिंदु पर उनसे अलगाव है। बुद्ध, मक्खली गोशाल और महावीर तीनों मित्र थे। गोशाल कुम्हार थे, लेकिन गोशाल बाद में हाशिए पर चले गए और इनका धर्म मार्ग चल निकला। बुद्ध राज परिवार से थे, सो लोगों ने उन्हें हाथों हाथ लिया। जबकि सारे मौलिक विचार गोशाल के थे। पहली बार मानवता की बात गोशाल करते हैं। दूसरे, अंबेडकर पुनर्जन्म को मानते हैं, जबकि बुद्ध भी नहीं इसे मानते थे। अंबेडकर में बुद्ध गहरे जड़ जमाए हैं। बुद्ध भी बराबरी की बात करते हैं, लेकिन संघ में। और संघ में भी नाई गया तो वहीं काम कर रहा है, धोबी गया तो वही काम कर रहा है। फिर समानता कहां है? बराबरी कहां थीं।
-दलित चेतना के विकास में अखबारों की भूमिका को किस नजर से देखते हैं?
दलित चेतना के विकास में अखबारों ने महती भूमिका निभाई है। शिक्षा, राजनीतिक चेतना के विकास में इनका योगदान महत्वपूर्ण है?
-हिंदी पत्रिकाओं का योगदान कहां तक मानते हैं?
हिंदी में तीन सौ लघु पत्रिकाएं निकलती हैं। कानपुर से भीम, सारिका ने भी दलित अंक निकाले, हंस का भी दलित पर विशेषांक आया, जिसका संपादन खुद मैंने किया था। विमलकीर्ति का अंगुत्तर, जबलपुर का तीसरा पक्षधर आदि पत्रिकाओं ने योगदान दिया। अब कई पत्रिकाएं दलित पर विशेषांक निकाल रही हैं। यह शुभ संकेत है।

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