डा. हितेंद्र पटेल शांति निकेतन के विश्व भारती में इतिहास के प्राध्यापक हैं। इतिहास की रूढिबद्ध अनुशासनों के साथ-साथ परंपरा और लोक को भी इतिहास में जगह देने और इनसे प्राप्त निष्कर्षों को देखने-परखने में विश्वास करते हैं। इतिहास केवल आफिशियल डाकूमेंट से ही निर्मित नहीं होता, लोक कंठों में भी उसका एक आयाम छिपा होता है। 1857 को देखें तो इतिहासकारों को इस महासंग्राम को समझने में डेढ़ सौ वर्ष लग गए, जबकि लोक में वह उसी समय अपना प्राप्य ग्रहण कर लिया था। यह बातचीत भी 1857 पर ही केंद्रित है। डा. पटेल इन दिनों इसी विषय पर अलग-अलग ढंग से सोच रहे हैं और लिख रहे हैं। 31 जुलाई के रांची प्रवास पर उनसे लिया गया यह साक्षात्कार 1857 के ही सवालों से जूझता है.....।
अभी-अभी 1857 की 150 वीं वर्षगांठ मनाई गई है। विभिन्न पत्रिकाओं ने अपने विशेषांक निकाले। आप इसे किस रूप में लेते हैं? इसकी उपलब्धि क्या रही?
इस तरह की पत्र पत्रिकाओं पर विचार करते हैं तो देखिएगा कि बहुत तरह की चीजें छपती हैं और कई नई-नई बातें सामने आती हैं। 1857 पर जो बातचीत हुई हैं या चर्चाएं हुई हैं उससे एक बात तय हो गई कि 1857 को राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में स्वीकृति मिल गई। और इसके प्रसार में बहुत सारे लोगों का इस प्रश्न से जोडने में पत्र-पत्रिकाओं की बड़ी अहम भूमिका रही। अगर आप संख्या देखेंगे तो एक बड़ी जमात इतिहासकार और साहित्यकारों की, जो इनसे परिचित नहीं थे, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से 1857 से जुड़ गईं और उन लोगों ने कुल मिलाकर के बहुत ऐसी सूचनाएं और बहुत ऐसी बातें इतिहासकारों के समक्ष रखीं कि अब पुराने तरीके से 1857 को नहीं देखा जा सकता है। इसलिए मुझे लगता है कि कुल मिलाकर पत्र पत्रिकाओं की एक बड़ी ही सकारात्मक भूमिका रही है।
1857 को वीर सावरकर ने स्वाधीनता संग्राम की संज्ञा दी थी, लेकिन उनके इस आग्रह को एक विशेष विचारधारा के लोगों ने अपेक्षित महत्व नहीं दिया। आप सावरकर की इस स्थापना से किस हद सहमत हैं?
सामान्य तौर पर कहा जाता है कि वामपंथियों केवीर सावरकर के प्रति जो पूर्वग्रह थे, उस किताब के बारे में विचार करते समय भी सावरकर को ज्यादा याद रखा। उस हद तक यह सही है लेकिन वामपंथी शोधार्थियों की तरफ से 1857 पर जो सामग्री आई है, मैंने भी कई लेख लिखें है इसके ऊपर, उन सभी ने सावरकर की जो महत्वपूर्ण भूमिका है, इसे स्वतंत्रता संग्राम के रूप में चिह्निड्ढत करने या रेखांकित करने की, उसे सभी ने किया है। यह कहना बिल्कुल सही नहीं है कि जो लोग वामपंथी विचारधारा से सहानुभूति रखते हैं उन्होंने 1857 पर वीर सावरकर की पुस्तक का अवमूल्यन किया है। कुछ लोगों ने किया होगा, लेकिन ऐसे लोग सभी विचारधारा में मिल सकते हैं। लेकिन वीर सावरकर की 1857 पुस्तक को इतिहासकारों ने बड़ा महत्व दिया है।
वामपंथी विचारधारा के लोग इस महासंग्राम को राष्ट्रीय विद्रोह मानने से परहेज करते रहे, जबकि माक्र्स ने इसे सिपाही विद्रोह की बजाय राष्ट्रीय विद्रोह के रूप में देखा। आखिर, इस दृष्टि के पीछे क्या कारण रहे?
जब हम वामपंथी विचारधारा की बात करते हैं तो ध्यान रखें कि इस धारा में बहुत तरह से लोग हैं, बहुत सारी उपधाराएं भी हैं। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि 1857 के बारे में वामपंथ की दृष्टि हमेशा नकारात्मक रही है। पीसी जोशी को स्मरण करें। पीसी जोशी ने 1857 के बारे में 1957 में जिस ढंग की सामग्री उपलब्ध कराई थी, जिस तरह से सोच को एक नई दिशा दी थी, वह सबके सामने है। अभी भी हम लोग जो विचार करते हैं, पीसी जोशी की बहुत सारी बातों को हम लोगों को गौर करना पड़ता है। खासकर, जो लोक गीतों के संग्रह की ओर उनका जोर था, लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई आदि के संदर्भ में जो लोकगीत हैं, उनका बड़ा महत्व है। मुझे नहीं लगता कि वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोगों ने इसकी अनदेखी की हैै। हां, यह जरूर है कि अन्य इतिहासकारों की तरह वामपंथी विचारधारा के लोगों को भी यह लगता रहा है 1857 की जो पहचान थी, 1857 की पहुंच थी लोगों में, वह उतनी व्यापक नहीं थी, लेकिन अब जब नए स्रोत हम लोगों के सामने उपलब्ध हो रहे हैं, लोक स्मृति की बात आई है, लोक नायकों की जो स्मृतियां हमारे यहां है, यह स्पष्ट होने लगा है कि विद्रोह के प्रति लोगों में बहुत सकारात्मक भाव था। उत्तर में था और दक्षिण में था, असम में था। नए स्रोतों के आने के बाद नए तथ्य आ रहे हैं। पहले इस बारे में बहुत स्पष्ट ढंग से कहना मुमकिन नहीं था। अब यह कुहासा छंट रहा है।
आपने लिखा है कि 1857 का विपुल इतिहास उपलब्ध है। दक्षिणपंथ से लेकर वामपंथ ने खूब बहस की, लेकिन हासिल क्या हुआ? आप क्या मानते हैं इतनी माथा पच्ची के बाद हमारे इतिहासकार किसी सर्वमान्य निष्कर्ष तक पहुंच पाए हैं, यदि नहीं तो उसके पीछे कारण क्या रहे?
विपुल इतिहास इसलिए भी विपुल दिख रहा है कि इस समय इतिहास में नए स्रोतों का स्वागत किया जा रहा है। ऐसे स्रोत, जो पारंपरिक इतिहास लेखन में सहायक नहीं माने जाते थे, अब उन स्रोतों को लेकर नए इतिहास का निर्माण किया जा रहा है। लोक स्मृति के संदर्भ में निश्चित रूप से आफिशियल डाकूमेंट पर्याप्त नहीं होते हैं, लोगों की स्मृति में लोक नायक या नायिकाओं के रूप में उनकी जो पहचान बनी है, लक्ष्मीबाई की पहचान कहिए, कुंवर सिंह की पहचान कहिए, तात्या टोपे, बहादुर शाह जफर आदि को लेकर लोक में छवियां रही हैं, उन छवियों के इतिहास को-एक इतिहास होता है, एक इतिहास की कल्पना होती है और जो इतिहास की कल्पना होती है, उसका भी एक इतिहास होता है- इस तरफ इतिहासकारों का ध्यान ज्यादा गया है, इसीलिए मुझे लगता है सकारात्मक रूप में 1857 अब अच्छी तरह समझा जाने लगा है।
1857 का आंदोलन नहीं हुआ होता तो देश को आजादी मिलती या नहीं?
देश को आजादी मिलती या नहीं, इस बात से 1857 को जोड़ा जाना ठीक नहीं है। 1857 अपने आप में एक विशद अध्याय है। मुझे तो ये लगता है कि जैसे स्वतंत्रता संग्राम गांधी के नेतृत्व में जैसे लड़ा गया उसको लेकर जो एक दृष्टि बनी है एक अलग विषय के रूप में, उसी तरह 1857 को एक विषय के रूप में मानकर नहीं, एक बहुत बड़ा विषय मानना चाहिए। इसके अंतर्गत तमाम तरह के अध्ययन के विषय हो सकते हैं। 1857 को लेकर सिर्फ 1857 पर केंद्रित पत्रिकाएं निकलनी चाहिए, 1857 केंद्रित ऐतिहासिक सामग्री का संचयन करना चाहिए, इसका अलग से संग्रहालय होना चाहिए। ताकि इतिहासकारों के बीच इसे ज्यादा स्वीकृति मिल सके। जैसे यूरोप में द्वितीय विश्व युद्धों को लेकर संग्रहालय और पुस्तकालय हैं। उसी तरह 1857 को लेकर अपने देश में होनी चाहिए, जिसमें उसके विविध आयामों को देखा जा सके। इसमें और विस्तार से जाने की लगातार संभावना है।
आप 1857 को क्या मानते हैं, सिपाही विद्रोह, गदर, स्वाधीनता आंदोलन या कुछ और?
निश्चित रूप से 1857 सिपाही विद्रोह नहीं था। गदर कहने के दिन भी लद गए हैं। यह एक महान स्वाधीनता आंदोलन था और औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ हुई दुनिया का सबसे बड़ा आंदोलन था।
1857 की लड़ाई को हिंदू और मुसलमानों ने साथ मिलकर लड़े, लेकिन कालांतर में धीरे-धीरे यह एकता विखंडित होती गई, जिसकी परिणति बंटवारे के रूप में सामने आई? आखिर वह कौन सी ताकत रही, जिसने गंगा-जमुनी तहजीब को नष्ट किया?
यह बिल्कुल सही है। मुझे लगता है 1857 की विरासत के रूप में हिंदू मुसलमानों के आपसी सौहाद्र्र को याद रखने की जरूरत है। मुझे प्रतीत होता है कि 1857 की जो गंगा जमुनी तहजीब थी, जो क्रमशरू 19वीं शताब्दी से खंडित होती गई है और उसमें औपनिवेशिक सत्ता, सरकार की तो भूमिका है ही, जो हिंदू और मुसलमानों के बीच से नया वर्ग निकलकर आया मध्यवर्ग से, उसने इस दायित्व का पालन नहीं किया और धीरे-धीरे राष्ट्रवाद के उभरने के साथ-साथ संप्रदायवाद की विचारधारा शक्तिशाली होती गई और बाद में चलकर हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई और गहरी होती गई। इसीलिए 1857 का स्मरण हमें याद दिलाता है कि 1857 के दौर तक कम से कम हिंदू और मुसलमानों के बीच बहुत ज्यादा सौहाद्र्र रहा था और इन्होंने मिलकर साथ लड़े थे बिना यह सोचे कि यह हिंदू है, यह मुसलमान है।
इस आंदोलन के दो साल पहले आज के झारखंड में 1855 में ही हूल हो चुका था। इसमें करीब दस हजार आदिवासी और गैरआदिवासी मारे गए लेकिन इतिहास की मुख्यधारा में इस हूल को अपेक्षित जगह नहीं मिली? क्यो?
ऐसा नहीं है कि 1857 के पहले जो आदिवासियों का विद्रोह हुआ था, उसको महत्व कम मिला। किताबें लिखी गई हैं और डाकूमेंट्स भी रखे गए हैं, लेकिन जैसे ही राष्ट्रीय आंदोलन की बात होती है, स्पष्ट विचारधारा और राष्ट्र की पूरी संकल्पना की बात होती है। आदिवासियों के बीच में राष्ट्र की संकल्पना जो है, उस रूप में उपस्थित नहीं थी या हम लोग इतिहासकार के रूप में नहीं रेखांकित कर पाए थे, इसलिए वे चीजें 1857 जुड़ी नहीं हैं या उतने महत्व की मालूम नहीं होती थीं, लेकिन जैसे-जैसे इतिहास का विस्तार होता जा रहा है, इतिहास को एक नए तरह से पढने का सिलसिला चल पड़ा है सारी दुनिया में, केवल भारत में ही नहीं। इतिहास के जो कई पहलू हैं, कई आयाम जो खुल रहे हैं अब ऐसे संपर्कों की तलाश की जा रही है जहां ऊपर से देखने पर कोई संपर्क दिखाई नहीं देता लेकिन भीतरी तौर पर औपनिवेशवाद के खिलाफ अलग-अलग लड़ते हुए दोनों के संपर्क आप ढूंढ भी सकते हैं और दोनों एक स्तर पर जुड़े हुए हैं।
पहले एक विदेशी कंपनी आती है, और देश को गुलाम बना लेती है। आज हजारों विदेशी कंपनियां देश में काम कर रही हैं। क्या आपको नहीं लगता है कि हम फिर से गुलामी की ओर बढ़ रहे हैं? सेज का जगह-जगह विरोध हो रहा है, पर देश की सत्ता समझौते पर समझौते कर रही है? आने वाले समय में इसके क्या परिणाम या दुष्परिणाम होंगे?
ये खतरा तो है, निश्चित रूप से यह खतरा वैश्वीकरण के साथ बढ़ा है। जिस तरह से संकेत मिल रहे हैं, उससे तो यही प्रतीत हो रहा है कि हम सावधान नहीं रहे तो हम फिर से गुलाम बन जाएंगे। और ये गुलामी उससे भी भयानक गुुलामी होगी, क्योंकि इस गुलामी की स्वीकृति हम खुद अपनी ओर से दे रहे हैं। हमारे देश के लोग ही उत्साहित होकर ऐसे चीजों से जुड़ते चले जा रहे हैं जो उनको गुलाम बना सकता है। लेकिन कुछ उत्साहबर्द्धक स्थिति भी बन रही है। प्रतिरोध भी तीव्र हो रहा है। और पूंजीवाद का संकट सिर्फ भारत में ही नहीं, वैश्विक संकट के रूप में भी उभर रहा है। इस उभरते पंूजीवाद के संकट के बीच और तमाम तरह के प्रतिरोधों के मुखर होने के बीच हम थोड़ी संभावनाएं भी तलाश सकते हैं। गुलाम होने का खतरा जरूर है, लेकिन गुलाम होना हमारी परिणति या गुलाम होने के लिए हम अभिशप्त नहीं हैं।
डैलरिंपल ने द लास्ट मुगल लिखने में 20 हजार पांडुलिपियों का उपयोग किया। हमारे देश में बहुत सी पांडुलिपियों का अध्ययन ही नहीं किया गया है। बिना समग्र अध्ययन के क्या हम किसी सर्वमान्य निष्कर्ष तक पहुंच सकते हैं?
डैलरिपंल की किताब जब बाजार में पहुंची थी तो कहा गया था कि हजारों हजार ऐसे स्रोतों को देखा है, जिसे भारतीय इतिहासकारों ने उपेक्षा की है। यह आधा सच और आधा झूठ है। सच यह है कि निश्चित रूप से उन्होंने उन स्रोतों को देखा है जिस ओर हमारा ध्यान कम गया था या गया न हो, गई भी थी तो वो चीजें स्मृति में नहीं हैं। आप रिजवी का नाम ले सकते हैं। रिजवी साहब ने डैलरिंपल के पहले बहुत सारी सामग्री का उपयोग किया था। बहुत सारी सामग्री धीरे-धीरे नष्ट हो गईं या इधर-उधर हो गईं। और इतिहासकारों के बीच वह ज्यादा प्रचलन में नहीं रह पाईं। यहां तक कि रिजवी साहब की किताब भी एक डेढ़ साल पहले तक बहुत सारे इतिहासकारों ने नहीं देख पाए थे। जरूरत इस बात की थी कि उन सारे तथ्यों को एकत्रित किया जाता, जिनके लिए सरकारी सहायता की जरूरत थी। इतिहासकारों की ओर से भी चेष्टाओं की जरूरत थी। उसमें कमी थी। लेकिन यह कहना बिल्कुल गलत है कि डैलरिंपल ही पहले वह इतिहासकार हैं, जिन्होंने विभिन्न तरह के स्रोतों का उपयोग किया। मैं कह सकता हूं कि उत्तरप्रदेश सरकार ने कई इतिहासकारों की मदद से कई ऐसे प्रयास किए हैं, जिनमें 1857 का इतिहास ज्यादा प्रामाणिक ढंग से और आइडोलाजिकली सही तरीके से पेश किया गया है। उत्तरप्रदेश सरकार की ओर संभवतरू कमलापति त्रिपाठी की मदद से वे किताबें आई थीं। उनमें बहुत सारे स्रोतों का उपयोग किया गया था। कहा जाता है कि बहुत सारे आर्काइव गायब हो गए। इन सामग्रियों की खोज की जरूरत है। इतिहासकार के हाथ बंधे होते हैं। कोई चीज तभी लिख सकता है, जब उसके पास प्रामाणिक स्रोत हों, इसलिए स्रोतों को उपलब्ध बनाए रखने के लिए सरकारी मदद की ज्यादा जरूरत होती है। और मुझे लगता है कि सरकार ने जिस तरह से 1857 को लेकर लगातार पिछले एक डेढ़ सालों में इतिहासकारों की मदद की है, वह सिलसिला चलती रहेगी तो 1857 पर इतिहासकारों को मदद मिलती रहेगी, तब धीरे-धीरे पता चल पाएगा और बहुत सारी चीजेें कहां छिपी हैं। मुझे यह लगता है कि विपुल सामग्री के आने के बाद 1857 की ज्यादा प्रमाणिक, समग्र छवि लोगों के सामने आएगी और उन सबको ध्यान में रखने के बाद 1857 का सही मूल्यांकन हो पाएगा।
अभी-अभी 1857 की 150 वीं वर्षगांठ मनाई गई है। विभिन्न पत्रिकाओं ने अपने विशेषांक निकाले। आप इसे किस रूप में लेते हैं? इसकी उपलब्धि क्या रही?
इस तरह की पत्र पत्रिकाओं पर विचार करते हैं तो देखिएगा कि बहुत तरह की चीजें छपती हैं और कई नई-नई बातें सामने आती हैं। 1857 पर जो बातचीत हुई हैं या चर्चाएं हुई हैं उससे एक बात तय हो गई कि 1857 को राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में स्वीकृति मिल गई। और इसके प्रसार में बहुत सारे लोगों का इस प्रश्न से जोडने में पत्र-पत्रिकाओं की बड़ी अहम भूमिका रही। अगर आप संख्या देखेंगे तो एक बड़ी जमात इतिहासकार और साहित्यकारों की, जो इनसे परिचित नहीं थे, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से 1857 से जुड़ गईं और उन लोगों ने कुल मिलाकर के बहुत ऐसी सूचनाएं और बहुत ऐसी बातें इतिहासकारों के समक्ष रखीं कि अब पुराने तरीके से 1857 को नहीं देखा जा सकता है। इसलिए मुझे लगता है कि कुल मिलाकर पत्र पत्रिकाओं की एक बड़ी ही सकारात्मक भूमिका रही है।
1857 को वीर सावरकर ने स्वाधीनता संग्राम की संज्ञा दी थी, लेकिन उनके इस आग्रह को एक विशेष विचारधारा के लोगों ने अपेक्षित महत्व नहीं दिया। आप सावरकर की इस स्थापना से किस हद सहमत हैं?
सामान्य तौर पर कहा जाता है कि वामपंथियों केवीर सावरकर के प्रति जो पूर्वग्रह थे, उस किताब के बारे में विचार करते समय भी सावरकर को ज्यादा याद रखा। उस हद तक यह सही है लेकिन वामपंथी शोधार्थियों की तरफ से 1857 पर जो सामग्री आई है, मैंने भी कई लेख लिखें है इसके ऊपर, उन सभी ने सावरकर की जो महत्वपूर्ण भूमिका है, इसे स्वतंत्रता संग्राम के रूप में चिह्निड्ढत करने या रेखांकित करने की, उसे सभी ने किया है। यह कहना बिल्कुल सही नहीं है कि जो लोग वामपंथी विचारधारा से सहानुभूति रखते हैं उन्होंने 1857 पर वीर सावरकर की पुस्तक का अवमूल्यन किया है। कुछ लोगों ने किया होगा, लेकिन ऐसे लोग सभी विचारधारा में मिल सकते हैं। लेकिन वीर सावरकर की 1857 पुस्तक को इतिहासकारों ने बड़ा महत्व दिया है।
वामपंथी विचारधारा के लोग इस महासंग्राम को राष्ट्रीय विद्रोह मानने से परहेज करते रहे, जबकि माक्र्स ने इसे सिपाही विद्रोह की बजाय राष्ट्रीय विद्रोह के रूप में देखा। आखिर, इस दृष्टि के पीछे क्या कारण रहे?
जब हम वामपंथी विचारधारा की बात करते हैं तो ध्यान रखें कि इस धारा में बहुत तरह से लोग हैं, बहुत सारी उपधाराएं भी हैं। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि 1857 के बारे में वामपंथ की दृष्टि हमेशा नकारात्मक रही है। पीसी जोशी को स्मरण करें। पीसी जोशी ने 1857 के बारे में 1957 में जिस ढंग की सामग्री उपलब्ध कराई थी, जिस तरह से सोच को एक नई दिशा दी थी, वह सबके सामने है। अभी भी हम लोग जो विचार करते हैं, पीसी जोशी की बहुत सारी बातों को हम लोगों को गौर करना पड़ता है। खासकर, जो लोक गीतों के संग्रह की ओर उनका जोर था, लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई आदि के संदर्भ में जो लोकगीत हैं, उनका बड़ा महत्व है। मुझे नहीं लगता कि वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोगों ने इसकी अनदेखी की हैै। हां, यह जरूर है कि अन्य इतिहासकारों की तरह वामपंथी विचारधारा के लोगों को भी यह लगता रहा है 1857 की जो पहचान थी, 1857 की पहुंच थी लोगों में, वह उतनी व्यापक नहीं थी, लेकिन अब जब नए स्रोत हम लोगों के सामने उपलब्ध हो रहे हैं, लोक स्मृति की बात आई है, लोक नायकों की जो स्मृतियां हमारे यहां है, यह स्पष्ट होने लगा है कि विद्रोह के प्रति लोगों में बहुत सकारात्मक भाव था। उत्तर में था और दक्षिण में था, असम में था। नए स्रोतों के आने के बाद नए तथ्य आ रहे हैं। पहले इस बारे में बहुत स्पष्ट ढंग से कहना मुमकिन नहीं था। अब यह कुहासा छंट रहा है।
आपने लिखा है कि 1857 का विपुल इतिहास उपलब्ध है। दक्षिणपंथ से लेकर वामपंथ ने खूब बहस की, लेकिन हासिल क्या हुआ? आप क्या मानते हैं इतनी माथा पच्ची के बाद हमारे इतिहासकार किसी सर्वमान्य निष्कर्ष तक पहुंच पाए हैं, यदि नहीं तो उसके पीछे कारण क्या रहे?
विपुल इतिहास इसलिए भी विपुल दिख रहा है कि इस समय इतिहास में नए स्रोतों का स्वागत किया जा रहा है। ऐसे स्रोत, जो पारंपरिक इतिहास लेखन में सहायक नहीं माने जाते थे, अब उन स्रोतों को लेकर नए इतिहास का निर्माण किया जा रहा है। लोक स्मृति के संदर्भ में निश्चित रूप से आफिशियल डाकूमेंट पर्याप्त नहीं होते हैं, लोगों की स्मृति में लोक नायक या नायिकाओं के रूप में उनकी जो पहचान बनी है, लक्ष्मीबाई की पहचान कहिए, कुंवर सिंह की पहचान कहिए, तात्या टोपे, बहादुर शाह जफर आदि को लेकर लोक में छवियां रही हैं, उन छवियों के इतिहास को-एक इतिहास होता है, एक इतिहास की कल्पना होती है और जो इतिहास की कल्पना होती है, उसका भी एक इतिहास होता है- इस तरफ इतिहासकारों का ध्यान ज्यादा गया है, इसीलिए मुझे लगता है सकारात्मक रूप में 1857 अब अच्छी तरह समझा जाने लगा है।
1857 का आंदोलन नहीं हुआ होता तो देश को आजादी मिलती या नहीं?
देश को आजादी मिलती या नहीं, इस बात से 1857 को जोड़ा जाना ठीक नहीं है। 1857 अपने आप में एक विशद अध्याय है। मुझे तो ये लगता है कि जैसे स्वतंत्रता संग्राम गांधी के नेतृत्व में जैसे लड़ा गया उसको लेकर जो एक दृष्टि बनी है एक अलग विषय के रूप में, उसी तरह 1857 को एक विषय के रूप में मानकर नहीं, एक बहुत बड़ा विषय मानना चाहिए। इसके अंतर्गत तमाम तरह के अध्ययन के विषय हो सकते हैं। 1857 को लेकर सिर्फ 1857 पर केंद्रित पत्रिकाएं निकलनी चाहिए, 1857 केंद्रित ऐतिहासिक सामग्री का संचयन करना चाहिए, इसका अलग से संग्रहालय होना चाहिए। ताकि इतिहासकारों के बीच इसे ज्यादा स्वीकृति मिल सके। जैसे यूरोप में द्वितीय विश्व युद्धों को लेकर संग्रहालय और पुस्तकालय हैं। उसी तरह 1857 को लेकर अपने देश में होनी चाहिए, जिसमें उसके विविध आयामों को देखा जा सके। इसमें और विस्तार से जाने की लगातार संभावना है।
आप 1857 को क्या मानते हैं, सिपाही विद्रोह, गदर, स्वाधीनता आंदोलन या कुछ और?
निश्चित रूप से 1857 सिपाही विद्रोह नहीं था। गदर कहने के दिन भी लद गए हैं। यह एक महान स्वाधीनता आंदोलन था और औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ हुई दुनिया का सबसे बड़ा आंदोलन था।
1857 की लड़ाई को हिंदू और मुसलमानों ने साथ मिलकर लड़े, लेकिन कालांतर में धीरे-धीरे यह एकता विखंडित होती गई, जिसकी परिणति बंटवारे के रूप में सामने आई? आखिर वह कौन सी ताकत रही, जिसने गंगा-जमुनी तहजीब को नष्ट किया?
यह बिल्कुल सही है। मुझे लगता है 1857 की विरासत के रूप में हिंदू मुसलमानों के आपसी सौहाद्र्र को याद रखने की जरूरत है। मुझे प्रतीत होता है कि 1857 की जो गंगा जमुनी तहजीब थी, जो क्रमशरू 19वीं शताब्दी से खंडित होती गई है और उसमें औपनिवेशिक सत्ता, सरकार की तो भूमिका है ही, जो हिंदू और मुसलमानों के बीच से नया वर्ग निकलकर आया मध्यवर्ग से, उसने इस दायित्व का पालन नहीं किया और धीरे-धीरे राष्ट्रवाद के उभरने के साथ-साथ संप्रदायवाद की विचारधारा शक्तिशाली होती गई और बाद में चलकर हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई और गहरी होती गई। इसीलिए 1857 का स्मरण हमें याद दिलाता है कि 1857 के दौर तक कम से कम हिंदू और मुसलमानों के बीच बहुत ज्यादा सौहाद्र्र रहा था और इन्होंने मिलकर साथ लड़े थे बिना यह सोचे कि यह हिंदू है, यह मुसलमान है।
इस आंदोलन के दो साल पहले आज के झारखंड में 1855 में ही हूल हो चुका था। इसमें करीब दस हजार आदिवासी और गैरआदिवासी मारे गए लेकिन इतिहास की मुख्यधारा में इस हूल को अपेक्षित जगह नहीं मिली? क्यो?
ऐसा नहीं है कि 1857 के पहले जो आदिवासियों का विद्रोह हुआ था, उसको महत्व कम मिला। किताबें लिखी गई हैं और डाकूमेंट्स भी रखे गए हैं, लेकिन जैसे ही राष्ट्रीय आंदोलन की बात होती है, स्पष्ट विचारधारा और राष्ट्र की पूरी संकल्पना की बात होती है। आदिवासियों के बीच में राष्ट्र की संकल्पना जो है, उस रूप में उपस्थित नहीं थी या हम लोग इतिहासकार के रूप में नहीं रेखांकित कर पाए थे, इसलिए वे चीजें 1857 जुड़ी नहीं हैं या उतने महत्व की मालूम नहीं होती थीं, लेकिन जैसे-जैसे इतिहास का विस्तार होता जा रहा है, इतिहास को एक नए तरह से पढने का सिलसिला चल पड़ा है सारी दुनिया में, केवल भारत में ही नहीं। इतिहास के जो कई पहलू हैं, कई आयाम जो खुल रहे हैं अब ऐसे संपर्कों की तलाश की जा रही है जहां ऊपर से देखने पर कोई संपर्क दिखाई नहीं देता लेकिन भीतरी तौर पर औपनिवेशवाद के खिलाफ अलग-अलग लड़ते हुए दोनों के संपर्क आप ढूंढ भी सकते हैं और दोनों एक स्तर पर जुड़े हुए हैं।
पहले एक विदेशी कंपनी आती है, और देश को गुलाम बना लेती है। आज हजारों विदेशी कंपनियां देश में काम कर रही हैं। क्या आपको नहीं लगता है कि हम फिर से गुलामी की ओर बढ़ रहे हैं? सेज का जगह-जगह विरोध हो रहा है, पर देश की सत्ता समझौते पर समझौते कर रही है? आने वाले समय में इसके क्या परिणाम या दुष्परिणाम होंगे?
ये खतरा तो है, निश्चित रूप से यह खतरा वैश्वीकरण के साथ बढ़ा है। जिस तरह से संकेत मिल रहे हैं, उससे तो यही प्रतीत हो रहा है कि हम सावधान नहीं रहे तो हम फिर से गुलाम बन जाएंगे। और ये गुलामी उससे भी भयानक गुुलामी होगी, क्योंकि इस गुलामी की स्वीकृति हम खुद अपनी ओर से दे रहे हैं। हमारे देश के लोग ही उत्साहित होकर ऐसे चीजों से जुड़ते चले जा रहे हैं जो उनको गुलाम बना सकता है। लेकिन कुछ उत्साहबर्द्धक स्थिति भी बन रही है। प्रतिरोध भी तीव्र हो रहा है। और पूंजीवाद का संकट सिर्फ भारत में ही नहीं, वैश्विक संकट के रूप में भी उभर रहा है। इस उभरते पंूजीवाद के संकट के बीच और तमाम तरह के प्रतिरोधों के मुखर होने के बीच हम थोड़ी संभावनाएं भी तलाश सकते हैं। गुलाम होने का खतरा जरूर है, लेकिन गुलाम होना हमारी परिणति या गुलाम होने के लिए हम अभिशप्त नहीं हैं।
डैलरिंपल ने द लास्ट मुगल लिखने में 20 हजार पांडुलिपियों का उपयोग किया। हमारे देश में बहुत सी पांडुलिपियों का अध्ययन ही नहीं किया गया है। बिना समग्र अध्ययन के क्या हम किसी सर्वमान्य निष्कर्ष तक पहुंच सकते हैं?
डैलरिपंल की किताब जब बाजार में पहुंची थी तो कहा गया था कि हजारों हजार ऐसे स्रोतों को देखा है, जिसे भारतीय इतिहासकारों ने उपेक्षा की है। यह आधा सच और आधा झूठ है। सच यह है कि निश्चित रूप से उन्होंने उन स्रोतों को देखा है जिस ओर हमारा ध्यान कम गया था या गया न हो, गई भी थी तो वो चीजें स्मृति में नहीं हैं। आप रिजवी का नाम ले सकते हैं। रिजवी साहब ने डैलरिंपल के पहले बहुत सारी सामग्री का उपयोग किया था। बहुत सारी सामग्री धीरे-धीरे नष्ट हो गईं या इधर-उधर हो गईं। और इतिहासकारों के बीच वह ज्यादा प्रचलन में नहीं रह पाईं। यहां तक कि रिजवी साहब की किताब भी एक डेढ़ साल पहले तक बहुत सारे इतिहासकारों ने नहीं देख पाए थे। जरूरत इस बात की थी कि उन सारे तथ्यों को एकत्रित किया जाता, जिनके लिए सरकारी सहायता की जरूरत थी। इतिहासकारों की ओर से भी चेष्टाओं की जरूरत थी। उसमें कमी थी। लेकिन यह कहना बिल्कुल गलत है कि डैलरिंपल ही पहले वह इतिहासकार हैं, जिन्होंने विभिन्न तरह के स्रोतों का उपयोग किया। मैं कह सकता हूं कि उत्तरप्रदेश सरकार ने कई इतिहासकारों की मदद से कई ऐसे प्रयास किए हैं, जिनमें 1857 का इतिहास ज्यादा प्रामाणिक ढंग से और आइडोलाजिकली सही तरीके से पेश किया गया है। उत्तरप्रदेश सरकार की ओर संभवतरू कमलापति त्रिपाठी की मदद से वे किताबें आई थीं। उनमें बहुत सारे स्रोतों का उपयोग किया गया था। कहा जाता है कि बहुत सारे आर्काइव गायब हो गए। इन सामग्रियों की खोज की जरूरत है। इतिहासकार के हाथ बंधे होते हैं। कोई चीज तभी लिख सकता है, जब उसके पास प्रामाणिक स्रोत हों, इसलिए स्रोतों को उपलब्ध बनाए रखने के लिए सरकारी मदद की ज्यादा जरूरत होती है। और मुझे लगता है कि सरकार ने जिस तरह से 1857 को लेकर लगातार पिछले एक डेढ़ सालों में इतिहासकारों की मदद की है, वह सिलसिला चलती रहेगी तो 1857 पर इतिहासकारों को मदद मिलती रहेगी, तब धीरे-धीरे पता चल पाएगा और बहुत सारी चीजेें कहां छिपी हैं। मुझे यह लगता है कि विपुल सामग्री के आने के बाद 1857 की ज्यादा प्रमाणिक, समग्र छवि लोगों के सामने आएगी और उन सबको ध्यान में रखने के बाद 1857 का सही मूल्यांकन हो पाएगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें