जमानियां के ऊपरी ढांचे का देखकर आप उसकी पौराणिकता और ऐतिहासिकता का अनुमान नहीं लगा सकते हैं। आप यह भी नहीं जान सकते कि इस नगर की इतिहास से परे भी एक सत्ता और इयत्ता है और यह काल से परे कालातीत कस्बाई नगर है। कस्बों की जैसी नियति होती है, उस नियति से यह कस्बा भी अछूता नहीं है। उपेक्षा और उपहास से जब-तब दो-चार होता ही रहता है। पर, उसके प्रति एकदम निरपेक्ष और तटस्थ। पिछले साठ सालों से नेताओं की घोषणाएं सुन-सुन इसके कान पक गए हैं। अब कोई भी नेता आए या जाए, यह किसी की परवाह नहीं करता। वैसे भी पता नहीं क्यों, नेताओं से इसकी घोर वितृष्णा है। दरअसल, इसे न नीति से मतलब है न नीतिधारकों से और न नेताओं से। यह इसके स्वभाव के प्रतिकूल है। इसका मन तो धर्म-अध्यात्म में ही अटकता है, संस्कृति की सनातनता में ही रमता है। यही इसका मूल स्वभाव है और इसके चरित्र की विशेषता भी। इसकी भौतिक काया की बात करें तो यह उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े जिले गाजीपुर की एक तहसील है। जिला मुख्यालय से 25 किमी दक्षिण में इसका स्थायी पड़ाव है। ‘दक्षिण’ का मतलब तो आप समझते ही हैं। यह दिशा सूचक ही नहीं दरिद्र और दंश का सूचक भी हैै। ‘दक्षिण’ के दंश से तो अपना हिंदी पट्टड्ढी खूब परिचित है। गांवों में दक्षिण टोले का जो हश्र होता है, उस हश्र से जमानियां भी मुक्त नहीं है। वैसे लोग कहते हैं कि यह जमाने से आगे है, पर मुझे लगता है यह जमाने से आगे नहीं, बल्कि जमाने के ठीक उल्टा है। इसलिए नहीं कि यह अंगरेजी के अंतिम अक्षर ‘जेड’ से प्रारंभ होकर उसके शुरुआती अक्षर ‘ए’ पर खतम होता है। बल्कि इसलिए भी कि समय-समाज को देखने का इसका अपना नजरियाड्ढ है। जमाने के साथ चलने में इसे कोई अड़चन नहीं है, लेकिन जमाने को अपने साथ रखने में भी इसको कोई परेशानी नहीं हैै।
इसकी धारणा है कि जमाना भले ही भौतिक रूप से तरक्की कर ले, जब मन-मस्तिष्क जमाने के साथ कदमताल नहीं करता, तब तक उसका कोई महत्व नहीं है। खैर, गाजीपुर का यह जमानियां जमाने से आगे हो या जमाने से उल्टा, मगर है बड़ा मस्त। कहते हैं इसी जमीं पर ऋषि जगदग्रि ने अपनी कुटिया बनाई थी और उनकी इसी कुटिया में भगवान परशुराम का जन्मे थे। जनप्रवाद है कि जब गंगा का धरती पर अवरतण हुआ और वे भगीरथ के पीछे-पीछे चलने लगीं तो भगीरथ का रथ जमानियां पहुंचकर फंस गया। रथ के अश्वों ने आगे बढने से इनकार कर दिया। रथ तो खड़ा हो गया लेकिन गंगा क्या करतीं? वह वहीं चक्राकार घूमने लगीं। पता चला, आगे ऋषि जमदग्रि का आश्रम है। तो, क्या गंगा आश्रम को डूबोकर आगे बढ़ सकती हैं? भगीरथ को एक उपाय सूझी और उन्होंने वहीं से पूरब की ओर न जाकर उत्तर की ओर मुख कर लिया, यानी यहीं से गंगा उत्तरवाहिनी हो गईं। जमदग्नि का आश्रम भी बच गया और गंगा ने इस जगह को महान तीर्थ भी बना दिया। पुराणों पर विश्वास करें तो गंगा जहां-जहां उत्तरवाहिनी होती हंै, वहां-वहां तीर्थ बन जाता है। जमानियां तब से एक तीर्थ की संज्ञा का वाहक है। आप इन पौराणिक कथाओं पर विश्वास करें न करें, लेकिन गंगा आज भी वहां चक्राकार घूमती हैं और उसी के निकट एक गांव का नाम ही पड़ गया है चक्काबांध।
जमदग्नि का कोई चिह्नड्ढ अवशेष तो नहीं, लेकिन परशुराम से जुड़ा एक मंदिर हरपुर में स्थापित है। यह मंदिर जमानियां-गाजीपुर मार्ग पर स्थित है। वैसे, मुंबई के गणेशपुरी में भी एक मंदिर देखा था, जिसमें भगवान परशुराम और रेणुका का विग्रह मौजूद है। पता नहीं, भगवान परशुराम वहां कैसे पहुंच गए? लेकिन शास्त्र के पंडित कहते हैं कि वे यायावर थे, और गुजरात के भड़ौंच से लेकर चीन, अफगानिस्तान तक न जाने कहां-कहां की भूरी-भूरी खाक धूल छानते रहते थे। पर, एक बात से सभी सहमत हैं कि वे जितना शास्त्र में निपुण थे उतना ही शस्त्र में। परशु तो उनके हाथ में रहता ही था। असल नाम तो उनका राम ही था, ‘परशु’ के कारण ही वे परशुराम कहलाए।
अब अपने मंदिर पर लौटें, इस मंदिर के बारे में जो जानकारी मिलती है, वह यह कि इस मंदिर का निर्माण सकलडीहा (अब चंदौली जिले का एक नगर) कोट के निरूसंतान राजा वत्स सिंह ने 18वीं सदी में कराया था। राजा वत्स सिंह ने अपने समय में चार मंदिरों का निर्माण कराया था-सकलडीहा रेलवे स्टेशन के ठीक पास महाकालेश्वर का मंदिर, जो अब काशी विश्वनाथ मंदिर, बनारस के अधीन है, दूसरा धानापुर (चंदौली जिला) के धरहरा गांव में शिव मंदिर, तीसरा सकलडीहा बाजार में पोखरे के पास शिव मंदिर और चैथा हरपुर में परशुराम का मंदिर। जमदग्नि ऋषि का कोई मंदिर तो नहीं है, लेकिन वे यहां के जन-मन में रचे बसेे हैं। जमानियां नामकरण के पीछे कुछ लोग यही मानते हैं कि इसका नामकरण ऋषि जमदग्नि के नाम पर ही हुआ है। हालांकि कुछ लोग मानते हैं जमानियां का नाम अली कुली खां ‘जमन’ के नाम पर पड़ा है। अली कुली खां ‘जमन’ अकबर का सिपहसालार था। उन दिनों, आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार जमानियां मुगलिया सल्तनत का सीमांत क्षेत्र था। उसने कस्बे में गंगा के पूर्वी तट पर अपना कोट बनवाया था और यहीं से वह इस क्षेत्र की देखभाल किया करता था। उसके स्थानीय दरबार में अनेक शायर थे। वह खुद भी अच्छी शायरी किया करता था लेकिन वह बहुत की महत्वाकांक्षी था। इतना कि वह सम्राट बनने का ख्वाब देखने लगा और दिल्लीश्वर अकबर से ही विद्रोह कर बैठा। लेकिन उसे यह पता नहीं था कि अकबर जैसे शासक से विद्रोह करने का नतीजा क्या होगा? शायद महत्वाकांक्षा आदमी को अंधा बना देती है। खैर, जब अलीकुली खां ने विद्रोह कर ही दिया तो उसकी सजा तो उसे मिलनी ही थी, उसे पता नहीं था कि अकबर जौनपुर आया हुआ है। अकबर को जब विद्रोह की खबर मिली तो वह जमानियां के लिए कूच कर गया। जब अकबर जमानियां पहुंचा तो अलीकुली खां की स्थिति नाजुक हो गई और उसने माफी मांगकर अपनी जान बचाई। अकबर ने उस समय उसकी पहली गलती को माफ कर दिया और आश्वस्त हो गया, लेकिन महत्वाकांक्षा ने फिर सर उठाई। इस बार अकबर ने उसके विद्रोह को तो कुचला ही, उसकी जान को भी नहीं बख्शा। इस तरह अलीकुली खां ‘जमन’ का अंत हुआ। पर, अलीकुली खां तो इतिहास के पन्नों में सिमट गया, लेकिन ‘जमन’ इस स्थान से चिपक गया और कहते हैं ‘जमानियां’ हो गया।
गौर करने की बात है कि अकबर के दादा बाबर (26 मार्च, 1526)भी जमानियां होते हुए गाजीपुर गए थे। वे नदी मार्ग से यात्रा कर रहा थे। जमानियां की घनी अमरांइयां और जंगल उन्हें भा गया और दो दिनों तक यहां अपने लाव-लश्कर के साथ विश्राम किए और शिकार भी खेले। उन्होंने अपने ‘बाबरनामा’ में इस जगह को ‘मदन बनारस’ के नाम से चिह्निड्ढत किया है। यानी अकबर के पूर्व इस जगह का नाम ‘मदन बनारस’ था। ‘मदन बनारस’ नाम कैसे पड़ा, इसकी कहानी भी कम रोचक नहीं है। यदि आप बोरियत महसूस न कर रहें तो यह कथा भी सुन ही लीजिए, लेकिन हम इस कथा को ले आगे बढ़े, एक छोटा सा क्षेपक भी जरूरी है।
पौराणिक काल से सीधे हम ऐतिहासिक काल में आते हैं तो कुछ-कुछ इसके इतिहास की जानकारी मिलने लगती है। इसका सबसे प्रमाणिक इतिहास बौद्ध युग और गुप्तकाल से शुरू होता है। जमानियां में इसकी पौराणिक और धार्मिक महत्ता को देखते हुए अशोक ने बिना शिलालेख की लाट स्थापित करवाई, जिसका पहली बार उल्लेख कनिंघम ने अपनी रिपोर्ट ‘आर्कियालोजी सर्वे आफ इंडिया’ में किया था। उसने 1870 में इस क्षेत्र का दौरा किया था। (आज के गांवों के नाम उस दौर की याद दिलाते हैं, मसलन, बुढ़ाडीह, (बुद्धाडीह), बघरी(बाघ), लटिया आदि गांवों के नाम बुद्ध की स्मृतियों से जुड़े हैं)इसके बाद गुप्त काल में समुद्रगुप्त, कुमार गुप्त और स्कंदगुप्त के समय गाजीपुर एक प्रमुख प्रशासनिक क्षेत्र के रूप में जाना गया। हूणों की लड़ाई भी गाजीपुर के सैदपुर कस्बे में हुई थी। इस युद्ध की स्मृति में वहां मंदिर और शिलालेख स्थापित हैं। इस युग में पूरा जनपद ही खुशहाल के दौर में था। देवैथा (जमानियां-दिलदानगर) में गुप्त काल की कुछ मुद्राएं मिली हैं। दिलदानगर में 300 फीट लंबा और 250 चैड़ा टीला मिला है। इस टीले पर गुप्तकालीन मंदिर के अवशेष जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। इसका भी जिक्र उक्त रिपोर्ट में कनिंघम ने किया गया है। कनिघंम लिखता है कि ‘भग्नावशेष का पूरा टीला 300 फीट लंबा और 250 फीट चैड़ा है। इसके सिरे पर मंदिर और दूसरे भवनों के अवशेष समानुपातिक स्थान घेरे हैं।’ कनिंघम ने दो मंदिरों का भी उल्लेख करता है, एक शिव मंदिर का दूसरे लक्ष्मी नारायण मंदिर का। वह कयास लगाता है, ‘निश्चित तौर पर शिव मंदिर था, उसमें काले पत्थर का लिंग अभी भी अपनी जगह पर है, यद्यपि अर्घे अर्थात भूरे पत्थर के जलपात्र का आधा भाग गायब है।’ कनिंघम ने जिस मंदिर का उल्लेख किया है, वह अष्टड्ढकोणीय है। उसका सिरा जरूर गोलाकार है। इस मंदिर के आस-पास उसके पुराने अवशेष बिखरे पड़े हैं। कुछ तो गायब भी हो गए हैं। पर चिंताजनक यह है कि कनिंघम के बाद आजाद भारत में कोई भी पुराविद् उस टीले को देखने नहीं गया। कई बहुमूल्य मूर्तियां तो विलुप्त हो गईं, कुछ इधर-उधर बिखरी हैं। लेकिन एक काले पत्थर का अष्टड्ढकोणीय शिवलिंग वहां मौजूद है। गांव वाले वहां एक मंदिर बनाकर उसकी पूजा-अर्चना करते हैं। अभी हाल में अरंगी गांव(दिलदारनगर)में चार फीट की काले पत्थर की एक मूर्ति मिली है, जिसे लोग बुद्ध की कहते है। संभवतरू यह गांधार शैली में बनी बतायी जाती है। इस तरह जमानियां-दिलदारनगर क्षेत्र अपने पौराणिक युग से लेकर बौद्ध-गुप्तकाल से होते हुए मुगलकाल तक अपनी खास पहचान के कारण ध्यान खींचते हंै। और, इसी पहचान के कारण यहां शासक से लेकर धर्मगुरु आते रहे और इसके महत्व को बढ़ाते रहे। मदन भी एक शासक थे, जिनके नाम पर इसका नाम मदन बनारस हुआ। मदन कौन थे, क्यों पड़ा उनके नाम पर ‘मदन बनारस’, यह कथा यहीं से शुरू होती है। मदन गाहड़वाल वंश के राजा थे। इन्हें एक बीमारी के कारण स्वास्थ्य लाभ के लिए अब के जमानियां में शरण लेनी पड़ी। यहां की जलवायु स्वास्थ्यप्रद थी। अपने वैद्य की सलाह पर यहां आकर इन्होंने ‘मदन बनारस’ को नए सिरे से बसाने का प्रयत्न किया और इसे अपनी राजधानी बनाने की भी सोच रहे थे, लेकिन वे अपनी सोच को अमली जामा नहीं पहना सके। अपनी बीमारी से वे जल्दी ही हार गए और चल बसे, लेकिन उनका नाम जमानियां के साथ जुड़ गया। मोतीचंद्र ने ‘काशी का इतिहास’ में चार काशियों का उल्लेख किया है, 1-देव काशी, दक्षिण की ओर बने वाराणसी की ओर संकेत है। 2-काशी-आदमपुर-जैतपुरा के मुहल्ले, 3- मदनकाशी-यह वाराणसी खास बनारस शहर का भाग न होकर गाजीपुर जमानियां तहसील में थी। 4-विजय काशी भी खास बनारस का भाग न होकर संभव है मिर्जापुर के विजयगढ़ का नाम विजयकाशी रहा हो। और इसे गोविंदचंद्र के पुत्र विजयचंद ने बसाया हो। इस तरह इसकी प्रामाणिकता संदेह से परे है। चूंकि जमानियां में गंगा उत्तरवाहिनी हैं, इसलिए शायद राजा मदन ने इसके साथ ‘बनारस’ नत्थी कर दिया हो। वैसे, जमानियां की एक संज्ञा ‘लहुरी काशी’ भी है। डा. शिव प्रसाद सिंह ने भी 13 वीं के एक जैन काव्य के हवाले से इसे ‘मदन काशी’ कहा है। गौर करने की बात है इसकी आध्यात्मिकता कभी खत्म नहीं हुई। चाहे वह बौद्धकाल रहा हो या गुप्तकाल या मुगल काल। जमानियां की उत्तरवाहिनी गंगा ने सबको आकर्षित किया, सबको प्यार दिया और अपने आंचल में सबको स्थान दिया। शायद इसी कारण यहां गुरुनानक के सबद की अनुगूंज अब भी सुनाई पड़ती है। जमानियां की संघतों के नाम गुरु गोविंद सिंह की पत्नी का हुक्मनामा भी इसकी धार्मिक सत्ता की महत्ता को चरितार्थ करता है।
गुरुनानक देव के पुत्र श्रीचंद महाराज के आने और संघतों की स्थापना करने का भी जिक्र मिलता है। संघत में हस्तलिखित श्रीगुरुग्रंथ साहिब की दो प्रतियां तथा दशमग्रंथ की एक प्रति असुरक्षित दशा में रखी गई है। इन्हें प्रेमदास ने बड़े आकार के सफेद आर्ट पेपर पर काली स्याही से लिखा है। करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व लिखित इस ग्रंथ के स्याही की चमक अब भी बरकरार है। जमानियां में मस्जिदें भी कम नहीं हैं। कुछ शाहजहां के काल की हैं तो कुछ हाल की। हुमायूं और शेरशाह सूरी के बीच हुए युद्ध में मारे गए सैनिकों की कब्र भी कम नहीं है और अफगानी पठानों द्वारा एक तालाब में जल को मीठा करने की गरज से शकर डालने की कथाएं भी हवा में खूब तैरती हैं। अब तो वह शकर तालाब के नाम से जाना भी जाता है। यही है जमानियां। जमाने से आगे रहे या जमाने से पीछे, की फरक पेंदा।
इसकी धारणा है कि जमाना भले ही भौतिक रूप से तरक्की कर ले, जब मन-मस्तिष्क जमाने के साथ कदमताल नहीं करता, तब तक उसका कोई महत्व नहीं है। खैर, गाजीपुर का यह जमानियां जमाने से आगे हो या जमाने से उल्टा, मगर है बड़ा मस्त। कहते हैं इसी जमीं पर ऋषि जगदग्रि ने अपनी कुटिया बनाई थी और उनकी इसी कुटिया में भगवान परशुराम का जन्मे थे। जनप्रवाद है कि जब गंगा का धरती पर अवरतण हुआ और वे भगीरथ के पीछे-पीछे चलने लगीं तो भगीरथ का रथ जमानियां पहुंचकर फंस गया। रथ के अश्वों ने आगे बढने से इनकार कर दिया। रथ तो खड़ा हो गया लेकिन गंगा क्या करतीं? वह वहीं चक्राकार घूमने लगीं। पता चला, आगे ऋषि जमदग्रि का आश्रम है। तो, क्या गंगा आश्रम को डूबोकर आगे बढ़ सकती हैं? भगीरथ को एक उपाय सूझी और उन्होंने वहीं से पूरब की ओर न जाकर उत्तर की ओर मुख कर लिया, यानी यहीं से गंगा उत्तरवाहिनी हो गईं। जमदग्नि का आश्रम भी बच गया और गंगा ने इस जगह को महान तीर्थ भी बना दिया। पुराणों पर विश्वास करें तो गंगा जहां-जहां उत्तरवाहिनी होती हंै, वहां-वहां तीर्थ बन जाता है। जमानियां तब से एक तीर्थ की संज्ञा का वाहक है। आप इन पौराणिक कथाओं पर विश्वास करें न करें, लेकिन गंगा आज भी वहां चक्राकार घूमती हैं और उसी के निकट एक गांव का नाम ही पड़ गया है चक्काबांध।
जमदग्नि का कोई चिह्नड्ढ अवशेष तो नहीं, लेकिन परशुराम से जुड़ा एक मंदिर हरपुर में स्थापित है। यह मंदिर जमानियां-गाजीपुर मार्ग पर स्थित है। वैसे, मुंबई के गणेशपुरी में भी एक मंदिर देखा था, जिसमें भगवान परशुराम और रेणुका का विग्रह मौजूद है। पता नहीं, भगवान परशुराम वहां कैसे पहुंच गए? लेकिन शास्त्र के पंडित कहते हैं कि वे यायावर थे, और गुजरात के भड़ौंच से लेकर चीन, अफगानिस्तान तक न जाने कहां-कहां की भूरी-भूरी खाक धूल छानते रहते थे। पर, एक बात से सभी सहमत हैं कि वे जितना शास्त्र में निपुण थे उतना ही शस्त्र में। परशु तो उनके हाथ में रहता ही था। असल नाम तो उनका राम ही था, ‘परशु’ के कारण ही वे परशुराम कहलाए।
अब अपने मंदिर पर लौटें, इस मंदिर के बारे में जो जानकारी मिलती है, वह यह कि इस मंदिर का निर्माण सकलडीहा (अब चंदौली जिले का एक नगर) कोट के निरूसंतान राजा वत्स सिंह ने 18वीं सदी में कराया था। राजा वत्स सिंह ने अपने समय में चार मंदिरों का निर्माण कराया था-सकलडीहा रेलवे स्टेशन के ठीक पास महाकालेश्वर का मंदिर, जो अब काशी विश्वनाथ मंदिर, बनारस के अधीन है, दूसरा धानापुर (चंदौली जिला) के धरहरा गांव में शिव मंदिर, तीसरा सकलडीहा बाजार में पोखरे के पास शिव मंदिर और चैथा हरपुर में परशुराम का मंदिर। जमदग्नि ऋषि का कोई मंदिर तो नहीं है, लेकिन वे यहां के जन-मन में रचे बसेे हैं। जमानियां नामकरण के पीछे कुछ लोग यही मानते हैं कि इसका नामकरण ऋषि जमदग्नि के नाम पर ही हुआ है। हालांकि कुछ लोग मानते हैं जमानियां का नाम अली कुली खां ‘जमन’ के नाम पर पड़ा है। अली कुली खां ‘जमन’ अकबर का सिपहसालार था। उन दिनों, आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव के अनुसार जमानियां मुगलिया सल्तनत का सीमांत क्षेत्र था। उसने कस्बे में गंगा के पूर्वी तट पर अपना कोट बनवाया था और यहीं से वह इस क्षेत्र की देखभाल किया करता था। उसके स्थानीय दरबार में अनेक शायर थे। वह खुद भी अच्छी शायरी किया करता था लेकिन वह बहुत की महत्वाकांक्षी था। इतना कि वह सम्राट बनने का ख्वाब देखने लगा और दिल्लीश्वर अकबर से ही विद्रोह कर बैठा। लेकिन उसे यह पता नहीं था कि अकबर जैसे शासक से विद्रोह करने का नतीजा क्या होगा? शायद महत्वाकांक्षा आदमी को अंधा बना देती है। खैर, जब अलीकुली खां ने विद्रोह कर ही दिया तो उसकी सजा तो उसे मिलनी ही थी, उसे पता नहीं था कि अकबर जौनपुर आया हुआ है। अकबर को जब विद्रोह की खबर मिली तो वह जमानियां के लिए कूच कर गया। जब अकबर जमानियां पहुंचा तो अलीकुली खां की स्थिति नाजुक हो गई और उसने माफी मांगकर अपनी जान बचाई। अकबर ने उस समय उसकी पहली गलती को माफ कर दिया और आश्वस्त हो गया, लेकिन महत्वाकांक्षा ने फिर सर उठाई। इस बार अकबर ने उसके विद्रोह को तो कुचला ही, उसकी जान को भी नहीं बख्शा। इस तरह अलीकुली खां ‘जमन’ का अंत हुआ। पर, अलीकुली खां तो इतिहास के पन्नों में सिमट गया, लेकिन ‘जमन’ इस स्थान से चिपक गया और कहते हैं ‘जमानियां’ हो गया।
गौर करने की बात है कि अकबर के दादा बाबर (26 मार्च, 1526)भी जमानियां होते हुए गाजीपुर गए थे। वे नदी मार्ग से यात्रा कर रहा थे। जमानियां की घनी अमरांइयां और जंगल उन्हें भा गया और दो दिनों तक यहां अपने लाव-लश्कर के साथ विश्राम किए और शिकार भी खेले। उन्होंने अपने ‘बाबरनामा’ में इस जगह को ‘मदन बनारस’ के नाम से चिह्निड्ढत किया है। यानी अकबर के पूर्व इस जगह का नाम ‘मदन बनारस’ था। ‘मदन बनारस’ नाम कैसे पड़ा, इसकी कहानी भी कम रोचक नहीं है। यदि आप बोरियत महसूस न कर रहें तो यह कथा भी सुन ही लीजिए, लेकिन हम इस कथा को ले आगे बढ़े, एक छोटा सा क्षेपक भी जरूरी है।
पौराणिक काल से सीधे हम ऐतिहासिक काल में आते हैं तो कुछ-कुछ इसके इतिहास की जानकारी मिलने लगती है। इसका सबसे प्रमाणिक इतिहास बौद्ध युग और गुप्तकाल से शुरू होता है। जमानियां में इसकी पौराणिक और धार्मिक महत्ता को देखते हुए अशोक ने बिना शिलालेख की लाट स्थापित करवाई, जिसका पहली बार उल्लेख कनिंघम ने अपनी रिपोर्ट ‘आर्कियालोजी सर्वे आफ इंडिया’ में किया था। उसने 1870 में इस क्षेत्र का दौरा किया था। (आज के गांवों के नाम उस दौर की याद दिलाते हैं, मसलन, बुढ़ाडीह, (बुद्धाडीह), बघरी(बाघ), लटिया आदि गांवों के नाम बुद्ध की स्मृतियों से जुड़े हैं)इसके बाद गुप्त काल में समुद्रगुप्त, कुमार गुप्त और स्कंदगुप्त के समय गाजीपुर एक प्रमुख प्रशासनिक क्षेत्र के रूप में जाना गया। हूणों की लड़ाई भी गाजीपुर के सैदपुर कस्बे में हुई थी। इस युद्ध की स्मृति में वहां मंदिर और शिलालेख स्थापित हैं। इस युग में पूरा जनपद ही खुशहाल के दौर में था। देवैथा (जमानियां-दिलदानगर) में गुप्त काल की कुछ मुद्राएं मिली हैं। दिलदानगर में 300 फीट लंबा और 250 चैड़ा टीला मिला है। इस टीले पर गुप्तकालीन मंदिर के अवशेष जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। इसका भी जिक्र उक्त रिपोर्ट में कनिंघम ने किया गया है। कनिघंम लिखता है कि ‘भग्नावशेष का पूरा टीला 300 फीट लंबा और 250 फीट चैड़ा है। इसके सिरे पर मंदिर और दूसरे भवनों के अवशेष समानुपातिक स्थान घेरे हैं।’ कनिंघम ने दो मंदिरों का भी उल्लेख करता है, एक शिव मंदिर का दूसरे लक्ष्मी नारायण मंदिर का। वह कयास लगाता है, ‘निश्चित तौर पर शिव मंदिर था, उसमें काले पत्थर का लिंग अभी भी अपनी जगह पर है, यद्यपि अर्घे अर्थात भूरे पत्थर के जलपात्र का आधा भाग गायब है।’ कनिंघम ने जिस मंदिर का उल्लेख किया है, वह अष्टड्ढकोणीय है। उसका सिरा जरूर गोलाकार है। इस मंदिर के आस-पास उसके पुराने अवशेष बिखरे पड़े हैं। कुछ तो गायब भी हो गए हैं। पर चिंताजनक यह है कि कनिंघम के बाद आजाद भारत में कोई भी पुराविद् उस टीले को देखने नहीं गया। कई बहुमूल्य मूर्तियां तो विलुप्त हो गईं, कुछ इधर-उधर बिखरी हैं। लेकिन एक काले पत्थर का अष्टड्ढकोणीय शिवलिंग वहां मौजूद है। गांव वाले वहां एक मंदिर बनाकर उसकी पूजा-अर्चना करते हैं। अभी हाल में अरंगी गांव(दिलदारनगर)में चार फीट की काले पत्थर की एक मूर्ति मिली है, जिसे लोग बुद्ध की कहते है। संभवतरू यह गांधार शैली में बनी बतायी जाती है। इस तरह जमानियां-दिलदारनगर क्षेत्र अपने पौराणिक युग से लेकर बौद्ध-गुप्तकाल से होते हुए मुगलकाल तक अपनी खास पहचान के कारण ध्यान खींचते हंै। और, इसी पहचान के कारण यहां शासक से लेकर धर्मगुरु आते रहे और इसके महत्व को बढ़ाते रहे। मदन भी एक शासक थे, जिनके नाम पर इसका नाम मदन बनारस हुआ। मदन कौन थे, क्यों पड़ा उनके नाम पर ‘मदन बनारस’, यह कथा यहीं से शुरू होती है। मदन गाहड़वाल वंश के राजा थे। इन्हें एक बीमारी के कारण स्वास्थ्य लाभ के लिए अब के जमानियां में शरण लेनी पड़ी। यहां की जलवायु स्वास्थ्यप्रद थी। अपने वैद्य की सलाह पर यहां आकर इन्होंने ‘मदन बनारस’ को नए सिरे से बसाने का प्रयत्न किया और इसे अपनी राजधानी बनाने की भी सोच रहे थे, लेकिन वे अपनी सोच को अमली जामा नहीं पहना सके। अपनी बीमारी से वे जल्दी ही हार गए और चल बसे, लेकिन उनका नाम जमानियां के साथ जुड़ गया। मोतीचंद्र ने ‘काशी का इतिहास’ में चार काशियों का उल्लेख किया है, 1-देव काशी, दक्षिण की ओर बने वाराणसी की ओर संकेत है। 2-काशी-आदमपुर-जैतपुरा के मुहल्ले, 3- मदनकाशी-यह वाराणसी खास बनारस शहर का भाग न होकर गाजीपुर जमानियां तहसील में थी। 4-विजय काशी भी खास बनारस का भाग न होकर संभव है मिर्जापुर के विजयगढ़ का नाम विजयकाशी रहा हो। और इसे गोविंदचंद्र के पुत्र विजयचंद ने बसाया हो। इस तरह इसकी प्रामाणिकता संदेह से परे है। चूंकि जमानियां में गंगा उत्तरवाहिनी हैं, इसलिए शायद राजा मदन ने इसके साथ ‘बनारस’ नत्थी कर दिया हो। वैसे, जमानियां की एक संज्ञा ‘लहुरी काशी’ भी है। डा. शिव प्रसाद सिंह ने भी 13 वीं के एक जैन काव्य के हवाले से इसे ‘मदन काशी’ कहा है। गौर करने की बात है इसकी आध्यात्मिकता कभी खत्म नहीं हुई। चाहे वह बौद्धकाल रहा हो या गुप्तकाल या मुगल काल। जमानियां की उत्तरवाहिनी गंगा ने सबको आकर्षित किया, सबको प्यार दिया और अपने आंचल में सबको स्थान दिया। शायद इसी कारण यहां गुरुनानक के सबद की अनुगूंज अब भी सुनाई पड़ती है। जमानियां की संघतों के नाम गुरु गोविंद सिंह की पत्नी का हुक्मनामा भी इसकी धार्मिक सत्ता की महत्ता को चरितार्थ करता है।
गुरुनानक देव के पुत्र श्रीचंद महाराज के आने और संघतों की स्थापना करने का भी जिक्र मिलता है। संघत में हस्तलिखित श्रीगुरुग्रंथ साहिब की दो प्रतियां तथा दशमग्रंथ की एक प्रति असुरक्षित दशा में रखी गई है। इन्हें प्रेमदास ने बड़े आकार के सफेद आर्ट पेपर पर काली स्याही से लिखा है। करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व लिखित इस ग्रंथ के स्याही की चमक अब भी बरकरार है। जमानियां में मस्जिदें भी कम नहीं हैं। कुछ शाहजहां के काल की हैं तो कुछ हाल की। हुमायूं और शेरशाह सूरी के बीच हुए युद्ध में मारे गए सैनिकों की कब्र भी कम नहीं है और अफगानी पठानों द्वारा एक तालाब में जल को मीठा करने की गरज से शकर डालने की कथाएं भी हवा में खूब तैरती हैं। अब तो वह शकर तालाब के नाम से जाना भी जाता है। यही है जमानियां। जमाने से आगे रहे या जमाने से पीछे, की फरक पेंदा।
विचारपूर्ण टिप्पणी। धन्यवाद कि आपने इस विषय पर अच्छा समाधान प्रस्तुत किया। मेरा यह लेख पढ़ें गाजीपुर में घूमने की जगह
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