रेलवे गार्ड बनना चाहते थे प्रेमंचद

राधाकृष्ण
प्रेमचंद का जो व्यक्तित्व था वह न सूरज की तरह चमकता हुआ था न चांद की तरह दमकता हुआ। वह बनारस जिले के ठेठ किसान की तरह था, जिसे आप कहीं ऊंख के खेत के भीतर से निकलते हुए देख सकते हैं, जो किसान उर्द और मटर के खेतों के बीच से कुछ सोचता हुआ जा रहा हो, जो किसान रहट के पास बैठा हुआ हो और कुछ विचार कर रहा हो। उस सीधे-साधे निष्कपट व्यक्तित्व के भीतर साहित्य की बड़ी-बड़ी बातें हैं, यह पता ही नहीं चल सकता था। लमही गांव के किसानों के लिए वह 'भैयाजीÓ था, मुंशी नवाब राय था। वह उन्हीं की तरह बातें करता था, उन्हीं की तरह रहता था। वे तो यह भी जाने थे कि अपने घर में बैठकर यह क्या लिखा करते हैं? सोचते थे कि अरे भाई मुंशी है, लिख रहा होगा कुछ। खेवट-खतियान की नकल उतार रहा होगा, जमीनों की चौहद्दी लिख रहा होगा, अर्जी तैयार कर रहा होगा। हां, बेचारे गांव के किसान क्या जानें कि इस कागज और उस ब्लाटिंग-पेपर में क्या फर्क है। यह आदमी, और साहित्य! मगर जो जानता था वह ताज्जुब करता था। 
होली का हुरदंग हो रहा है? कबीरा गाए जा रहे हैं। चल जोगीड़ा-तीन ताल पर! कहिन कि अररर कबीर, कहिन कि सररर कबीर। भीड़ की बोली में अश्लीलता बरस रही है और हाव-भाव में उमंग। क्या यहां सात्विक साहित्य का अमरस्रष्टा प्रेमचंद हो सकता है? उसे इस अटपटी बानी से उबकाई आने लगेगी, जी मितला जाएगा। मगर नहीं, वह देखिए उन अलमस्तों की टोली के पीछे प्रेमचंद भी चला जा रहा है, इस तरह चला जा रहा है मानो वह उस भीड़ की एक अनिवार्य इकाई हो। वाक्य के साथ-साथ जैसे अल्प विराम चलता है, उसी प्रकार प्रेमचंद भी उस टोली के साथ चला जा रहा है। उस समय वह एक औसत बनारसी मुंशी की तरह दिखलाई देता था, जिसके शरीर पर ढीली-ढाली धोती है, साधारण खादी का कुरता है, माथे पर एक टोपी। आप कह नहीं सकते कि यह हिंदी साहित्य का उपन्यास सम्राट चला जा रहा है। बनारस की सार्वजनिक जिंदगी से वह अभिन्न नहीं। उस जन-जीवन में वह दूध और पानी की तरह इस तरह घुला-मिला हुआ है कि समझ में नहीं आता कि कहां बनारस का लोक मानस, कहां प्रेमचंद हैं और कहां साहित्य है। वह उक लेदिस की रेखा की तरह था, जिस अनाकर्षक देखा के द्वारा धरती की बड़ी-बड़ी आकर्षक समस्याएं हल की जाती हैं। कुल मिलाकर वह व्यक्तित्व बहुत खास नहीं था। 
उनके पात्र आर चरित्र भी तो वैसे ही हैं बहुत खास या ऐबनार्मल नहीं। वह प्रेमशंकर और ज्ञानशंकर, कादिर मियां अपनी बूढ़ी और फटी-फटी आंखों से देख रहा है, ताहिर जिल्दसाजी के काम में लगा हुआ है और पे्रमचंद की कलम चलती जा रही है। वह कलम इस तरह चल रही है जैसे जिंदगी चलती हो, जैसे सरिता की धारा बहती हो, जैसे हरसिंगार के फूल बरसते हों। उसी कलम से वह राजकुमार विनय सूरज की तरह निकल निकला और कांच की तरह टूट गया, सोफिया लहरों की तरह उठी और दीपक की तरह बुझ गई, वह अंधा भिखभंगा सूरदास चेतना में पत्थर की लकीर बनकर रह गया। प्रेमचंद के साहित्य में चरित्र और पात्रों की विविधता का बाहुल्य है। साहित्य की उन घाटियों में घूमते हुए हम उन जिंदगियों को देखते हैं जो मोमबत्ती की तरह जल रही है और घुल रही है, आग की लपटों की तरह धधक रही है, बर्फ की तरह गल रही है, फूल की तरह खिल रही है और भूसे की तरह उड़ रही है। विविधताओं से भरे उस साहित्य का स्रष्टा अपने अंदर किसी प्रकार की विविधता नहीं रखता था। 
उसमें मजदूर की आत्मा थी। वह लगन के साथ परिश्रम पर विश्वास करता था। वह 'आइडियाÓ और 'इंसपिरेशनÓ के पीछे नहीं पड़ता था, मूड आने की राह देखता हुआ बैठा नहीं रह जाता था। वह उसी तरह अपनी कलम को उठाता था, जिस तरह मजदूर अपना फावड़ा उठाता है। वह लिखना शुरू कर देते थे और जिस प्रकार नदी अपने बहाव का मार्ग बना लेती है, उसी प्रकार उनकी कलम भी अपनी राह खोज लेती थी। उनकी कलम से निकली हुई साहित्य-सरिता शब्दों और वाक्यों की लहरे लहराती हुई उस ओर से निकलती थी, जहां गांव की जिंदगी है, जहां मटमैले हरे और भूरे खेत हैं, जहां होरी धनिया से बातचीत कर रहा है, जहां सोना-रूपा दोनों बहनें खेल रही हैं, जहां दूर से प्रेमशंकर का प्रेमाश्रम दिखलाई दे रहा है। वह सरिता उन शहरों से गुजरती थी जहां बनी बनाई जिंदगी और बने-बनाए घाट हैं। और प्रेमचंद की कलम चलती चली जा रही है। प्रेमचंद स्वयं थक गए, परंतु उनकी कलम कभी नहीं। वह कलम हमेशा-हमेशा ताजी बनी रही। प्रेमचंद को देखकर कहा जा सकता था कि मजदूर ही ताजमहल का निर्माण कर सकते हैं।
शायद वह अपने को मजदूर समझते भी थे। इलाहाबाद से बच्चनजी आए हुए हैं। प्रेमचंदजी से बातें हो रही हैं। बच्चन जी कहते हैं-बाबूजी, मैं आपका एक  फोटो लेना चाहता हूं।
प्रेमचंद जी उनकी ओर अजीब दृष्टि से देखते हैं।
बच्चनजी कहते हैं-बेनियाबाग में आप और प्रसाद जी टहलते रहें, उस समय मैं आपका फोटो लेना चाहता हूं।
प्रेमचंद जी हंसते हैं और कहते हैं-अरे भाई, तुमने कहीं मजदूरों को भी हवाखोरी के लिए निकलते देखा है? हम तो मजदूर हैं टहलने-घूमने की कहां फुर्सत।
परंतु बच्चनजी की अदम्य आकांक्षा। प्रसादजी को आना पड़ा, प्रेमचंद जी को आना पड़ा। बच्चनजी ने फोटो ली, परंतु याद नही कि उस फोटो को मैंने कहीं छपा देखा हो।
प्रेमचंद जी की सरलता ही उनकी महानता थी। उनकी सादगी में ही उनका विराट रूप छिपा हुआ था। अपने को उन्होंने कभी भूल से भी जनसाधारण से न बड़ा लगाया न बड़ा समझा। बड़े आदमियों से मिलते हुए उन्हें स्वाभाविक रूप से संकोच होता था। साधारण आदमियों से वह उसी प्रकार मिलते-बोलते, मानों वे उन्हीं में से एक हैं। प्रेमचंद जी उर्दू और हिंदी तो लिखते ही थे, अंग्रेजी भी बड़ी अच्छी लिखते थे। मैंने उनके लिखे हुए अंग्रेजी के पत्र देखे हैं, जो उन्होंने अपने बड़े लड़के श्रीपतराय को लिखे थे, जब कि वह इलाहाबाद में पढ़ा करते थे। उनके पत्रों में सादा जीवन और उच्च विचार का पूरा जोर रहता था। प्रेमचंद आदर्श के बड़े हिमायती थे। एक बार उन्होंने कहा था-उपन्यासों की अपेक्षा महापुरुषों की जीवनियां पढऩे में मेरा बड़ा मन लगता है।
 वह 'हंसÓ निकालते थे। बोले, हंस में मैं  प्रतिमास किसी आदर्श पुरुष की संक्षिप्त जीवनी छापना चाहता हूं, मगर मिलती नहीं।
 प्रेमंचद की जिंदगी और साहित्य में व्यापक रूप से फैले हुए आदर्शवाद को देखकर लगता है कि जैसे वह बड़े ईश्वरभक्त होंगे, पूजा-पाठ में उनकी आस्था होगी। परंतु यह जानकार आश्चर्य होता है कि प्रेमचंद आसमान पर रहने वाले किसी ईश्वर पर विश्वास नहीं करते थे। वह मानव के उस देवत्व पर विश्वास करते थे, जो उसके अंत:करण में रहता है। मनुष्य के अंत:करण में बसने वाली मानवता की चेतना के अतिरिक्त वह किसी भगवान पर विश्वास नहीं करते थे। परंतु क्या ऐसा है भी? नर को नराधम होते हुए देखा, मगर नराधम के भीतर से देवत्व का प्रकाश फूटते हुए नहीं देखा। यहां तक कि प्रेमचंद भी उल्का की तरह टूट कर विलीन हो गए, मगर मानव के अंतर में बैठा देवत्व कहां जागा? जीवित देवता की पूजा यहां कहां? कोई मर जाए तो मरने वाले का बड़ी श्रद्धाभक्ति से श्राद्ध होता है, कोई मर जाए तो उसकी कब्र पर चादर चढ़ाई जाती है, उर्स लगाए जाते हैं, मेला जुड़ता है, कव्वालियां होती हैं।
 प्रेमचंद की एक चि_ी की याद आती है, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मैं जवानी के दिनों में रेलवे-गार्ड होना चाहता था, इससे जगह-जगह घूमने का मौका मिलता, तरह-तरह के पात्रों से भेंट होती, न जाने कितनी कहानियों के प्लाट मिलते।
 वह गोरे-चिट्टे प्रेमचंद, मानो नर्मदा के किनारे के श्वेत संग-मरमर को तराश कर उस सीधे-सादे व्यक्ति की सीधी-सादी मूर्ति बनाई गई हो। हंसने के समय वह मुस्कराता नहीं, ठहाका लगता था, इतने जोर का ठहाका, जैसे दीवार में दरारें पड़ जाएंगी। वह निर्लिप्त उन्मुक्त ठहाका अब कहां? जिस सीधे-सादे ढंग से वह आया था, उसी सीधे-सादे ढंग से स्वर्ग का दरवाजा खेलकर संसार की आंखों से आगे चला गया। वह मर गया, मगर हिंदी साहित्य को जिला गया। अछूत और उपेक्षित हिंदी साहित्य को उसने इतना
ऊंचा उठाया कि देखने वालों ने स्वीकार किया कि हां, हिंदी में भी कुछ है। पुस्तकों के रूप में उनके सपने बराबर बने हुए हैं और हीरे और मोती की तरह चमकते हुए और मजबूत सपने। वे बने हुए हैं और बने रहेंगे। अपने सपनों में प्रेमचंद अमर हैैं और अमर रहेंगे।


हैलो, हैलो माइक टेस्टिंग, एआइआर रांची

 हैलो, हैलो माइक टेस्टिंग। एआइआर रांची...। 1957 में आकाशवाणी से इसी तरह कार्यक्रम प्रसारित होते थे। लोग इस आवाज को भी सुनते। इसके



बाद तो समाचार की शुरुआत ही इस लहजे से होती थी...यह आकाशवाणी है, अब आप...से समाचार सुनिए। एक दौर में सूचना का एक मात्र स्रोत रेडियो हुआ करते थे। समाचार पत्र तो सुबह-सुबह आ जाते, लेकिन कोई दोपहर की घटना हो, संध्या की घटना हो तो उसके लिए आकाशवाणी ही एकमात्र माध्यम हुआ करता था। समाचार का समय निर्धारित था। सो, लोग ध्यान से समाचार सुनते। सिर्फ समाचार ही नहीं, मनोरंजन का भी स्रोत यही था। नाटक, रेडियो वार्ता, कहानियों का पाठ, कृषि से लेकर अन्य क्षेत्रीय कार्यक्रम भी प्रसारित होते। क्षेत्रीय भाषा में गीत-संगीत का प्रसारण भी होता।
रांची में 27 जुलाई, 1957 को आकाशवाणी केंद्र की स्थापना की गई। इसी साल इसका नाम आकाशवाणी रखा गया। इसके पहले इसका नाम भारती प्रसारण सेवा हुआ करता था। 1936 में इसका नाम ऑल इंडिया रेडियो था 1957 में आकाशवाणी।
रांची में केंद्र खुलने से छोटानागपुर को विशेष लाभ हुआ। यहां की स्थानीय भाषाओं में कार्यक्रम प्रसारित होने लगे। नागपुरी, मुंडारी, उरांव, हो, संताली भाषाओं की रचनाएं, गीत आदि का प्रसारण होता। डा. श्रवणकुमार गोस्वामी कहते हैं पहले केवल पटना में था। यहां के कलाकारों को मौका ही नहीं मिलता। जब खुलने की बात आई तो लोगों में काफी उत्साह देखा गया। जब उद्घाटन की तिथि आई तो कलाकारों के उत्साह का पूछना ही नहीं था। तब वेलफेयर सेंटर में इसका उद्घाटन हुआ। उद्घाटन आकाशवाणी के महानिदेशक जगदीश चंद्र माथुर एवं बिहार के राज्यपाल डा. जाकिर हुसैन ने किया था। शुरुआत में यहीं से इसका प्रसारण होता था। 
गोस्वामीजी कहते हैं आकाशवाणी केंद्र की स्थापना से यहां की बोलियों को एक नई शक्ति प्राप्त हुई। छोटानागपुर लोक साहित्य की दृष्टि से संपन्न क्षेत्र है। पर, लोगों ने छोटानागपुर की इस विशिष्टता की ओर ध्यान नहीं दिया। आकाशवाणी ने सभी बोलियों की सेवा की। बोलियों और लोक साहित्य का भी उद्धार होने लगा।
साहित्यकार डा. अशोक प्रियदर्शी कहते हैं कि उस समय हिंदी के प्रमुख साहित्यकार राधाकृष्ण यहां विशिष्ट अधिकारी थे। उस समय लाइव रिकार्डिंग होती थी। जब रिकार्डिंग के लिए लोग पहुंचते तो कह दिया जाता, खांसना है, खांस लीजिए, स्टूडियो में कोई आवाज नहीं होगी। आकाशवाणी से प्रसारण का मतलब था कि आप अमर हो गए। एक बार दो कहानियां भेजी। पर कोई जवाब नहीं आया। एक दिन सुना कि श्रवणकुमार गोस्वामी की कहानी प्रसारित हो गई। लगा, वे तो अमर हो गए। इसके बाद में एक पत्र लिखा लाल बाबू को। राधाकृष्ण लाल बाबू के नाम से ही चर्चित थे। उन्होंने पोस्टकार्ड लिखा और बुलाया। बाद में मेरी कहानी रिकार्ड की गई। उस समय मुझे 15 रुपये पारिश्रमिक मिला था। तब से आज तक आकावाणी से जुड़ा हूं।
आकाशवाणी ने रोजलिन लकड़ा को एक नई पहचान दी। उन्हें लोग सुगिया बहन के नाम से जानने लगे। 1964 से वह आकाशवाणी से जुड़ीं। वह यादों को साझा करती हुई कहती हैं कि उन दिनों हम लोगों की बातचीत, हम लोगों का हंसना, बोलना, हमारे श्रोताओं को बहुत अच्छा लगता था। उनके बहुत सारे प्रशंसा भरे पत्र आते थे। श्रोता हमारे कार्यक्रमों को सुनते थे और तारीफ करते थे। बातचीत की भाषा नागपुरी होती थी। वह बताती हैं कि कार्यक्रम को रोचक बनाने के लिए मगन भाई बहिरा का रोल करते थे। जब बाजार भाव में बताते थे कि आटे का यह भाव है तो मगन भाई जान बूझकर बहिरा बनकर वो आटे को भाटा समझ जाते और कहते, हां-हां सुगिया बहिन, हमके भाटा कर भाव बढिय़ा से बताय देउ, कालेकि हमके भाटा कर भरता बहुते सवाद लागेला। 

पालकी पर पलामू की यात्रा

संजीब चट्टोपाध्याय
   अरसा पहले मैं एक बार पलामू गया था। उद्देश्य था लौटकर उस क्षेत्र के बारे में लिख्ंाूगा। एक दो दोस्त मुझे बार-बार इस बारे में कहते, पर तब मैं उनका मजाक उड़ाता। आजकल कोई नहीं कहता पर मैं अपना भ्रमण वृत्तांत लिखने बैठा हूँ। मतलब इस उम्र में कहानियां सुनाना वाकई इस उम्र की बीमारी होती है। कोई सुने या ना सुने, बूढ़ा आदमी अपनी कहानी कहे जाता है।
कहानी आज की नहीं, बहुत पहले की है। वही कहानी सुना रहा हूं। इस उम्र में सब कुछ याद भी नहीं। ऐसा भी नहीं कि पहले लिखने से लिखा जाता। आज भी नहीं लिखा जा रहा है। तब, बात यह है कि जिन आँँखों से वीरान पहाड़ और खिले वन को देखा था, आज वे नहीं हैं। आज के पहाड़ मात्र पत्थरों के ढेर और जंगल केवल काँँँटे भरे लगते हैं और वहाँँँ के रहने वाले लोग प्रवंचक। इसलिए, उस लिहाज से जो लोग केवल शोभा और सौंदर्य ही देखना पसंद करते हैं, इस वृद्ध के लेख में उन्हें तृप्ति नहीं मिलेगी।
जब मेरा पलामू जाना तय हुआ, तब पता नहीं था, वह स्थान कहां है? कितनी दूरी पर है और किस दिशा में है? लिहाजा, नक्शे के सहारे पथ-निर्देश प्राप्त किया। हजारीबाग के रास्ते जाना था, इसलिए इनलैंड ट्रªªांजिट कंपनी की डाकगाड़ी किराये पर लेकर रात के दूसरे पहर में रानीगंज से प्रस्थान किया। सबेरे जाकर बराकर नदी के पूर्वी तट पर गाड़ी रुकी। छोटी सी नदी। उन दिनों पानी बहुत कम था। लोगबाग पैदल ही पार हो रहे थे। गाड़ी को ठेलकर पार ले जाना था, इसलिए गाड़ीवान मजदूर बुलाने गया।
   पूर्वी तट से मैंने देखा कि उस घाट पर ही साहब अपने बंगले में बैठा वाइन पी रहा है। सामने चपरासी-जैसा एक आदमी हाथ में गेरुवा रंग की मिट्टी लिए खड़ा है। जो व्यक्ति पार होने के लिए घाट पर आ रहा है, चपरासी उसी मिट्टी से उसकी देह में एक अंक लिख देता है। पार जाने वालों में जंगली किस्म के लोग ही अधिक हैं, उनकी युवतियां मिट्टी से रंगे अपने-अपने हाथों की ओर तिरछी नजर डाल रही हैं और खिलखिला रही हैं। फिर दूसरों के हाथों में कैसे दिख रहा है, उसे भी कभी-कभार देख ले रही हैं। अंत में युवतियां दौड़ती हुई नदी पार कर जा रही हैं। उनकी खिलखिलाहट से नदी के पानी में उछाल आ जाता है।
   मैं अनमना-सा इस तमाशे को देखे जा रहा था कि कहीं से कुछ बच्चों ने आकर मेरी गाड़ी को घेर लिया। कहने लगे-साहब, एक पैसा दो, एक पैसा दो न! धोती चादर वाले मूक निरीह बंगाली को देखकर साहब कहकर क्यों पुकार रहे हैं, यह जानने के लिए मैंने कहा- मैं साहब नहीं हूं। इस पर नाक में उंगली जैसा गहना पहने एक बच्ची ने गहने पर नख चुभोकर कहा- तब तुम कौन हो! मैंने कहा- मैं तो एक बंगाली हूं। उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने कहा- नहीं, तुम साहब हो। लगता है, उन्हें बस इतना ही मालूम है कि जो गाड़ी पर चढ़ता है, वह साहब जरूर होगा।
   इतने में डेढ़-दो साल का बच्चा आकर आसमान की ओर मुँँह किए मेरे आगे हाथ पसारकर खड़ा हो गया। उसे नहीं पता, उसने क्यों हाथ पसारा। मैंने उसकी हंथेली में एक पैसे का सिक्का दिया, उसने उसे गिरा दिया। और फिर से हाथ पसारा। एक दूसरे बच्चे ने उसे उठा लिया तो उसकी बहन उससे लड़ गई। इन सबके बीच मेरी गाड़ी उस पार जा लगी।
बराकर से एक ऊंची छोटी-मोटी पहाड़ी दिखती है। बंगाली लोग केवल मिट्टी देखने के आदी होते हैं, मिट्टी के ढेर देखने से ही उसका मन नाचने लगता है। अतः इन छोटी-छोटी पहाड़ियों को देखकर मेरे मन में खुशियों की लहरें उठने लगीं, इसमें आश्चर्य क्या? बचपन में पहाड़ों के बारे में काफी कुछ सुना था। एक बार एक बैरागी के अखाड़े में चूना-पुते एक गिरि गोवर्धन को देखकर उसे ही पहाड़ समझ लिया था। किसानों की लड़कियां सूखे गोबर का जो ढेर लगाती हैं, गोवर्धन उससे बस थोड़ा सा बड़ा था। उसी के आस-पास चार-पांच ईंटें जोड़कर एक-एक बुर्ज तैयार कर लिया गया था। फिर सबसे ऊंचे बुर्ज के पास सांप का एक फन बनाकर उसे हरे-पीले रंगों से रंग दिया गया था। फन कहीं लोगों की आंखों के सामने उजागर न हो, इसलिए उसका आकार कुछ बड़ा कर दिया था। फलस्वरूप पहाड़ी की चोटी से ज्यादा बड़ा वह फन ही हो गया था। उसमें कारीगर की कोई बहादुरी नहीं है। बैरागी का भी कोई दोष नहीं। सांप है। कृष्ण कन्हैया का कालियादमन का सांप है। अतः उसका फन पहाड़ी की चोटी से थोड़ा बड़ा होता, उसमें आश्चर्य की कौन सी बात है! बैरागी के इस गिरि गोवर्धन को देखकर ही मुझे बचपन में पहाड़ का अहसास हुआ था। बराकर के समीप उन पहाड़ियों को देखकर मेरे बचपन में बने संस्कार में कुछ परिवर्तन होना शुरू हुआ। चलते-चलते अपराह्न बेला में देखा, गाड़ी एक सुदृश्य पर्वत के पास से गुजर रही है। इतने करीब कि पहाड़ के छोटे-छोटे पत्थरों के साये भी दिख रहे हैं। मैंने गाड़ीवान से कहा- गाड़ी रोको। मैं उतर गया। उसने पूछा- साहब कहां जाएंगे? मैंने कहा, उस पहाड़ी के पास जाउंगा। उसने हंसकर कहा- हुजूर पहाड़ी यहां से काफी दूर है। शाम से पहले वहां पहुंच नहीं पायेंगे। मुझे उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। मैं तो देख रहा था कि वह मात्र पांच मिनट से ज्यादा का रास्ता नहीं है। उसकी बातों को अनसुना करके मैं पहाड़ की ओर चल पड़ा। लंबी डेगें भरते हुए मैं पांच की जगह पंद्रह मिनट तक चलता रहा। पहाड़ तब भी उसी पांच मिनट के रास्ते के फासले पर खड़ा था। मेरा भ्रम टूट गया। मैं वापस गाड़ी के पास आ गया। पहाड़ों की दूरियों को ठीक से नापना बंगालियों के बस की बात नहीं है, इसे मैंने पलामू जाकर बार-बार अनुभव किया।
  दूसरे दिन दोपहर के आस-पास मैं हजारीबाग पहुंचा। वहां जाकर सुना कि वहां के किसी संभ्रांत व्यक्ति के घर में मेरे खाने का बंदोबस्त था। करीब दो दिनों से कुछ खाया भी नहीं था। अतः भोजन के नाम पर भूख ने जोर मारना शुरू कर दिया। जिन सज्जन ने मेरे खाने का बीड़ा उठाया था, उन्हें मेरे आने की सूचना कैसे मिली, इसे जानने का मौका ही नहीं मिला। गाड़ी लेकर तुरंत उनके यहां पहुंचाने का फरमान जारी कर दिया। मैं जिनके घर जा रहा हूं, उन्हें मैंने कभी देखा तक नहीं। मैंने उनका नाम सुना था, ख्याति भी सुनी थी। वे सज्जन हैं, इसलिए सब लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। पर मैंने उन प्रशंसाओं पर विशेष ध्यान नहीं दिया था क्योंकि मैं जानता हूं कि बंगाली मात्र ही सज्जन होते हैं। बंगाल में केवल पड़ोसी ही दुर्जन होते हंै। जो भी शिकायतें सुनने को मिलती हैं, वे उनके बारे में ही। पड़ोसी दूसरों की भलाई सहन नहीं कर पाते, वे झगड़ालू, अहंकारी, लालची, कंजूस और दूसरांे की चीजें हड़पने की फिराक में रहने वाले होते हैं। वे अपने बच्चों को अच्छे-अच्छे कपड़े इसलिए पहनाते हैं ताकि हमारे बच्चे उन्हें देखकर रोएं, अपनी बहुओें को वस्त्र अलंकार आदि से सुसज्जित इसलिए करते हैं, ताकि हमारी बहुएं मुंह लटकाएं फिरें। पड़ोसी पापी होते हैं। जिनके पड़ोसी नहीं होते, उन्हंे क्रोध भी नहीं होता। वे ही ऋषि कहलाते हैं। ऋषि केवल वही गृहस्थ होते हैं, जिन्होंने पड़ोसियों को त्याग दिया है। आप किसी भी ऋषि के आश्रम में जाएं और बगल में किसी पड़ोसी को बसायें, तीन दिन में ही ऋषि का ऋषित्व खत्म हो जाएगा। पहले दिन पड़ोसी की बकरी ऋषि के फूलों को कुड़ देगी, दूसरे दिन उसकी गाय आकर ऋषि का कमंडल तोड़ डालेगी। तीसरे दिन पड़ोसी की पत्नी आकर ऋषि-पत्नी को अपने जेवरात दिखाएगी। इसके बाद ऋषि को या तो वकालत की परीक्षा में शामिल होना पड़ेगा या डिप्टी मजिस्टेªट बनने के लिए दरख्वास्त देनी होगी।

रांची से मारीशस यात्रा की दारुण गाथा है 'माटी माटी अरकाटीÓ

रांची से मारीशस की यात्रा वाकई में दारुण थी। 1850 के समय में यहां के आदिवासियों-मूलवासियों को जबरन मारीशस ले जाया गया, लेकिन
उपन्यास का उपशीर्षक है-हिल कुली की कहानी। तो यह भी जानिए कि हिल कुली का मतलब क्या है? पंकज जी भूमिका में लिखते हैं, 'भारत में ब्रिटिश उपनिवेश द्वारा यहां से बाहर ले जाए गए मजदूरों को तत्कालीन कंपनियां और उनके एजेंट उन्हें दो नामों से पुकारते थे। दक्षिण भारत, बिहार और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के गैर आदिवासियों को वे कुली जबकि झारखंड के सदान और आदिवासियों को हिल कुली, धांगर और कोल संबोधन का इस्तेमाल करते थे।Ó
'गिरमिटियाÓ शब्द भी वस्तुत: एग्रीमेंट का बिगड़ा रूप है क्योंकि यहां से मजदूर एक एग्रीमेंट के जरिए ही मारीशस, गयाना, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद आदि कैरैबियन देशों में भेजे गए थे। इन देशों में गए कई भोजपुरी भाषी ने अपनी व्यवथा-कथा को कई बार लिखा है। वीएस नायपाल सबसे महत्वपूर्ण लेखकों में शुमार हैं, जिन्हें साहित्य का नोबेल मिल चुका है। लेकिन इन सबके बावजूद आदिवासी कहीं नहीं थे। जबकि इंटरनेट पर भरपूर सामग्री मौजूद है।  जाहिर है, इस शोध और खोजपरक उपन्यास को रचने में समाज के प्रति एक जवाबदेही तो लेखक की बनती है। इस अर्थ में अपने समाज और पुरखों को याद करने और ऋण चुकाने की बानगी के तौर पर भी इसे देख सकते हैं। हालांकि पंकजजी ने इसे 2008 में लिखने का मन बनाया था, लेकिन जितनी जानकारियां चाहिए थी, नहीं थी। पर न हार मानी न हिम्मत। जैसे एक लंबी यातना सहते हुए यहां के हिलकुली मारीशस गए, कुछ ऐसा ही उस मनोभाव और रेचन की प्रक्रिया से गुजरते हुए इस उपन्यास को रचा गया है। पुस्तक के अंत में करीब-करीब 142 संदर्भों का हवाला दिया गया है, जिससे आप समझ सकते हैं यह उपन्यास कैसे और किस शिद्दत से रचा गया है। कोंता और कुंती के बहाने हम रांची, झारखंड से मारीशस की यात्रा करते हैं। यह उपन्यास कई सवाल खड़े करता है और आंखों में पड़े हमारे पर्दे को भी हटाता है। सवाल यह है कि कैसे और कब गिरमिटिया कुलियों की नवनिर्मित भोजपुरी दुनिया से हिल कुली गायब हो गए? ऐसा क्यों हुआ कि गिरिमिटिया कुली खुद तो आजादी पा गए, लेकिन उनकी आजादी हिल कुलियों को चुपचाप गड़प कर गई। सवाल कई हैं? सभ्यता के इस संघर्ष में आदिवासी नजरिए और आदिवासियों की व्यथा-कथा को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ इस उपन्यास में उकेरा गया है, जिसे अभी-अभी राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है।   
ङ्क्षहदी की विशाल पट्टी के लेखकों ने इस कथा को विषय नहीं बनाया। गिरिराज किशोर ने गांधी को केंद्र में जरूर 'पहला गिरमिटियाÓ लिखा, लेकिन गांधी नहीं, आदिवासी पहले गिरमिटिया थे। इस विषय पर पहली बार रांची के अश्विनी कुमार पंकज ने कलम चलाई और उन्होंने 'माटी माटी अरकाटीÓ में इस यात्रा का वर्णन किया है। माटी का मतलब तो माटी सभी जानते हैं। अरकाटी का मतलब दलाल होता है। ये दलाल ही यहां के भोले-भाले लोगों को कंपनी के एजेंटों के हवाले कर देते थे।

आंजन गांव के रहस्य से पर्दा उठाता है 'द इटर्नल मिस्ट्रीÓ


संतोष किड़ो पेशे से पत्रकार रहे हैं और अब सेंट जेवियर्स कालेज में पत्रकारिता पढ़ाते हैं। पेश के दौरान भी वे खालिस पत्रकार नहीं रहे। उनमें एक रचनाकार भी था। एक कथाकार भी। अभी उनका पहला उपन्यास 'द इटर्नल मिस्ट्रीÓ छपकर आया है
दर असल, यह उपन्यास उनके दिमाग में लंबे समय से पक रहा था। गाहे-बेगाहे जब मिलते तो इसका जिक्र जरूर करते। इस उपन्यास के लिए उन्होंने काफी मेहनत की। शोध किया और आंजन गांव में हफ्तों रहे। उस मिथ और उस कथा सूत्र को पकडऩे की कोशिश की, जो हजारों सालों से कही जा रही थी। 
आंजन, आप सब जानते हैं, यह गुमला जिले में पड़ता है और यह हनुमान की जन्मस्थली मानी जाती है। यहां जो प्राचीन प्रतिमा है, वह देश के दूसरे हिस्सों में नहीं मिलती है। यहां वह अपनी मां अंजनी की गोंद में विराजमान है। भारत के गांव-गांव में स्थापित उनकी प्रतिमा से सब परिचित हैं, लेकिन यह प्रतिमा भी दुर्लभ मानी जाती है। देश का बड़ा हिस्सा नहीं जानता कि हनुमान की जन्मस्थली झारखंड में है। इस उपन्यास से लोग इस गांव के बारे में भी जानेंगे।   यह उपन्यास इस अर्थ में अलग है कि यह मिथ से विज्ञान और विज्ञान से मिथ की यात्रा करता है और इस यात्रा के दौरान कई रहस्यात्मक चीजों से साबका पड़ता है। मुंबई से एक वैज्ञानिक कुछ शोध करने के लिए सिलसिले में आंजन गांव आता है और इस दौरान उसे कुछ अजीब-अजीब एहसास होते हैं। शोध का काम पूरा करने के बाद वह रिपोर्ट भेज देता है और उसकी यात्रा शुरू होती है। उसे एहसास होता है, जीवन के बारे में, मृत्यु के बारे में और उस नदी के बारे में, जो कल-कल बहती है। जीवन और रहस्य भी इन तीनों के इर्द-गिर्द घूमता है। अंजनी सुत के साथ शिवलिंग के मिथ से भी पर्दा उठता है। एक अलग दुनिया खुलती है, जो अब तक अनजान रही। इस बीच कथा पहाड़ी नदी के प्रवाह की तरह आगे बढ़ती है। उबड़-खाबड़ और हजारों-लाखों साल पुराने पठारों-पहाड़ों से टकराती हुई। इस उपन्यास की खासियत यह है कि इसमें मिथ भी है, इतिहास भी, पुरातत्व और लोक का संसार भी। इसलिए यह उपन्यास जितना कल्पना है, उससे कहीं ज्यादा हकीकत। एक आदिवासी परिप्रेक्ष्य में भी आंजन गांव को देखने की कोशिश की गई है। दूसरे शब्दों में इसे रामकथा से भी जोड़ सकते हैं। संतोष ने अपने इस पहले उपन्यास से प्रकाशन जगत में भी कदम बढ़ा दिया है। प्रकाशन का नाम 'चेरो एंड साल बुक्सÓ है। आइआइएम रांची से निकले देवाशीष मिश्र के साथ इसकी स्थापना पिछले साल की थी। इस प्रकाशन की यह पहली पुस्तक है।