थाक-थाक तोमार घोड़ागाड़ी आमरा हेंटे इ जाबो

-डॉ शिवप्रसाद सिंह

 बंगलादेश में चलने वाले स्वाधीनता-संघर्ष में हंसते-हंसते मरने वाले लोगों के बारे में मैं जब भी कोई बयान पढ़ता हूं, मुझे रवि बाबू का गीत याद आने लगता है-
कोन कानने जानिने फूल
गंधे एत करे आकुल
कांन गगने उठे रे चांद
एमन हांसि हंसे
ओ मां आंखि मेलि तोमा आलो
देखे आमार चोख जुड़ालो
ए आलोके नयन रेखे
मुंदबा नयन शेषे
सार्थक जनम आमार
जन्मेछि ए देशे।
  नहीं जानता कि किसी और कानन में ऐसे फूल होते हैं, जिनकी गंध प्राणों का ऐसा आकुल कर सकती है। मुझे नहीं मालूूम कि किसी और गगन में ऐसा चां
द होता है, जो इस तरह खिल खिलाकर हंसता है। हे मां, तुम्हारा इस आलोक को देख कर मेरे नयन जुड़ाते हैं। इसी आलोक को आंखों में लिए चयन बंद कर लूं, यही कामना है। मैं ऐसे देश में जन्मा कि जीवन सार्थक हो गया।
  लाखों लाख व्यक्तियों का यह जोश न तो गद्दारी है न देशद्रोह। इन्हें राज्य और शासन की मर्यादा का ढोल पीटकर दबाया नहीं जा सकता। शासन उस वक्त शैतान बन जाता है, जब वह जनता की इच्छाओं को, जीने और जीते रहने की मामूली ख्वाहिशों को संगीनों की नोंक पर उछालने की कोशिश करता है और आदमी के मामूली सपनों को अपने भद्दे बूटों से कुचल देने की बहशियापाना हरकत करता है। ऐसे शासन को लानत है। पाकिस्तानी फौजी शासन ने खुलेआम इस क्रांति को शरारतपसंदों की छेड़छाड़ कहा और फौजी छावनियों में घोषण की गई कि मुजीब कहता है कि बंगाली बहुमत में हैं इसलिए वे पाकिस्तान पर हुकूमत करेंगे, हमें इन्हें अल्पमत में बदल देना है ताकि ये पंजाबी और पठानों पर शासन का मनसूबा न रख सकंे।
  उसने खुले चौराहे पर लोगों की भीड़ को संबोधित करते हुए कहा-‘सुनो लोगो, संसार के तमाम खूंखार दरिंदों से कहीं बदतर एक जानवर होता है जिसे शासन कहा जाता है। यह निहायत बदसूरत और गलीज झूठ बोलता है। ये अल्फाज सिर्फ इसी की जुबान से निकलते है कि, मैं यानी शासन ही जनता है। हां...हां...हां। यह झूठ है। सरासर झूठ है। निर्माता वह है जिसने जनता को बनाया। उसने इनके उ$पर मुहब्बत और विश्वास की छांव डाली और हुकूमत? हुकूमत वह ध्वंसकारी गिरोह है जो बहुमत को हिकारत से देखती है और जनता पर तलवार और संगीनों की छाया तानती हैै।’ इस तरह बोला जरथुस्ट। नीत्से का यह पागल दार्शनिक आज जाने क्यों बार-बार याद आता है। साढ़े सात करोड़ जनता ने अपने सपनों और अरमानों को पूरा करने के लिए जिस आदमी को चुना, जिसे उन्होंने खुलेआम अपना एकमात्रा रहनुमा और नेता करार दिया, वह देशद्रोही और गद्दार है, जबकि दुनिया भर से भीख मांगकर बटोरे हुए जंगी सामानों की ढेरी पर खड़ा याहिया खान पाकिस्तान का सदर है और वह मुल्क की एकता और हुकूमत की मर्यादा को बचाने के नाम पर जो कुछ कर रहा है, वह पाकिस्तान का अंदरुनी मामला है। कैसी बदसूरत होती है, हुकूमतों के नाम पर बनाई गई यह संवैधानिक साजिश। इसने दुनिया को छोटे-बड़े तमाम हुकूमतों के मुंह सिल दिए हैं। असल में हुकूमतों की भी एक अंतरराष्टीय गिरोहगर्दी होती है, जहां एक दूसरे के जुल्म और अमानवीय कार्य को ढंकना-तोपना गिरोहस्वार्थ की संहिता का परम पवित्रा उद्देश्य होता है।
  हमारे देश के लोग परेशान हैं कि यदि ऐसी घटनाओं का समर्थन दें तो एक दिन नागालैंड, कश्मीर, तमिलनाडु आदि का भी देश से अलग होने से बचाया न जा सकेेगा। कुछ लोग कहते हैं क्या दोनो बंगाल मिलकर एक हो जाएं। पता नहीं इस शंका पर पागल दार्शनिक जरथुष्ट क्या कहता पर एक मामूली बौद्धिक भी आसानी से कह सकता है कि क्या पूर्वी पाकिस्तान की घटनाओं से इतना भी नहीं सीख पाए कि मुहब्बत और विश्वास की छाया के नीचे ही एकता होती है, संगीनें और तलवारें एकता नहीं पैदा कर सकतीं।
  हुकूमत हमेशा झूठ बोलती है। जनता एक न एक दिन अपने खून का हिसाब मांगती है, उसे जिस दिन यह विश्वास हो जाएगा कि अलगाव की बात करने वाले गिरोह-स्वार्थ की संहिता का पालन कर रहे हैं, वह उन हुकूमतों को इसी तरह दफना देगी, जैसे बांगलादेश में हो रहा है। एकता एक दूसरे की मदद से बेहतर जीवन जीने के बुनियादी प्रश्न पर टिक सकती है। यदि ऐसा नहीं है तो वह नकली एकता है। सवाल इस या उस हिस्से का नहीं, सवाल इंसान का है, जनता का है। आप जनता के नाम पर कुछ ही समय तक अपना उल्लू सीधा कर सकते हैं। कागज की नाव हमेशा नहीं चला करती। इसलिए हमें बांगलादेश की घटनाओं पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है। बहुत बरसों के बाद इस उप महाद्वीप की जनता और नेताओं के सामने ऐसा अवसर आया है कि हम स्वार्थ और संकुचित सीमाओं से बाहर निकल कर कठोर यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर सही ढंग से सोचना शुरू करें। इस नव चिंतन में बहुत-सी चीजें टूटेंगी, जिन से हमारा मोह भी हो सकता है, पर मोहविद्ध स्थिति से छूटकारा पाने का सुअवसर भी जातियों को कभी-कभी ही मिलता है।
   स्वतंत्राता जन्मसिद्ध अधिकार है, कहने वाला मांडले के जेल में बंद कर दिया गया। यह स्वतंत्राता शब्द भी खूब छलावा है। स्वतंत्राता के नाम पर आज कल एक-से-एक नारे प्रज्ज्वलित हो गए हैं। हम इसीलिए असली और नकली स्वतंत्राता में भेद करना होगा। असली स्वतंत्राता विश्वव्यापी मानवता की जरूरत है, नकली स्वतंत्राता गिरोहस्वार्थ वालों की सत्तालिप्सा का आवरण होती है। मैं कम्युनिस्ट शासन मंे व्यक्ति की सत्ता और स्वतंत्राता को नकारने वाली हुकूमत की लफ्फाजी का सख्त विरोधी हूं, पर मुझे फ्रेडरिक एंजिल्स का यह कथन हमेशा ही सही और सार्थक लगता रहा है कि ‘स्वतंत्राता प्राकृतिक नियमों को इन्कार करने की काल्पनिक स्थिति का नाम नहीं है, बल्कि मनुष्य की जरूरयात को पूरा करने की छूट की स्वीकृति है।’ मनुष्य की मामूली जरूरतें पूरी करने की भी जहां छूट नहीं होती, वहीं असली स्वाधीनता संघर्ष जन्म लेता है। यह असली स्वाधीनता मनुष्यता की स्वाभाविक अस्तित्वमूलक विशेषता है। यह कभी विभाजित नहीं होती। कभी धर्म, राष्ट, संस्कृति आदि की मामूली सीमाओं से घेरी नहीं जा सकती। इस स्वाधीनता के सैलाब को मजहब या राष्टीय एकता के नाम पर कुचला नहीं जा सकता और इसीलिए हर मनुष्य का यह स्वधर्म है कि मनुष्यता की इस अविभाज्य आत्मिक मांग को पूरा समर्थन दे। बांगलादेश की स्वाधीनता का संघर्ष असली स्वाधीनता संघर्ष है क्योंकि वह संघर्ष वहां की जनता के जीवन की मामूली जरूरतों को पूरी न हो सकने की स्थिति से जन्मा है, इसलिए यह एक आंतरिक असली और बुनियादी स्वाधीनता-संग्राम है। इसे स्वीकार करने में धर्म, संविधान, राष्टीयता, अंतरराष्टीय तौर-तरीकों की दुहाई देकर हिचकना अमानवीय और मानवधर्म के विपरीत है।
 असली स्वाधीनता संग्राम एक प्रकाश स्तंभ होता है जो न केवल अपने मूल स्थान में अंधकार और तमस की जड़ता से टकराता और उस का विनाश करता है, बल्कि अपनी ओर सहानुभूति और मानवधर्मिता के भाव से देखने वालों को भी नया प्रकाश और उत्साह प्रदान करता है। असली स्वाधीनता संग्राम को राजनीतिक मतवादों की घुसपैठ से धूमिल और निरर्थक बनाने की कोशिशें भी कम नहीं होतीं, बल्कि प्रायः इन से बच पाना असंभव नहीं तो कठिन तो अवश्य ही रहा है, पर कभी-कभी प्रकृति मनुष्यता को सही दिशा-निर्देश्श देने के लिए शुद्ध स्वाधीनता-आंदोलन को जन्म देकर उदाहरण भी पेश करने का काम करती रहती है। आज यदि   मुजीब अमेरिकी, चीनी या रूसी मतवाद का पिट्ठू होता तो उसे बिना मांगें अतुल सहायता मिल जाती पर तब यह भी खतरा होता कि एक नया वियतनाम पैदा हो जाता, जहां सत्य और असत्य का ऐसा गड़बड़झाला खड़ा कर दिया जाता कि पता ही नहीं चलता कि जनता और फौज की आवाज में फर्क क्या होता है। मुजीब इस दृष्टि से प्रकृति का निर्वाचित ऐसा प्रतिनिधि है जो मनुष्यता को ही अपना नारा और उद्देश्य बनाकर चला है किसी मतवाद और झंडे को नहीं। इसी कारण उसकी लड़ाई अमानवीयता के खिलाफ मानवता की लड़ाई बन गई है। इसी वजह से इस लड़ाई की जोखिम भी बढ़ गई है। मानवीयता को वरीयता देने के कारण मुजीब ने क्रांति में करुणा को जोड़ने की कोशिश की है। यानी लोहिया की शब्दावली में ‘क्रांति में करुणा का मेल सिविल नाफरमानी है।’ सिविल नाफरमानी के सब से बड़े उस्ताद लोहिया ने शायद यह नहीं सोचा कि दुर्दांत सत्ता सहित नाजीवाद की पुनरावृत्ति भी कर सकती हैै। लोहिया को शायद विश्वास था कि दुनिया आगे बढ़ रही है, इसलिए नाजीवाद का गड़ा मुर्दा क्यों कर खड़ा हो सकता है, पर हुआ और यह मानना पड़ेगा कि सिविल नाफरमानी के फलसफे में इस लड़ाई के बाद थोड़ी तरमीम करनी पड़ेगी। सिविल नारफरमानी कत्लेआम के सामने अहिंसक नहीं रहेगी, यह जोड़ना लाजिमी हो गया है। लोगों का पुराना शक फिर सिर उठा रहा है यानी गांधी का सत्याग्रह अपेक्षाकृत सभ्य अंग्रेजों के सामने और लोहिया की सिविल नारफरमानी देशी सत्ता के खिलाफ ही कारगर हो सकती है।
  वस्तुतः मुजीब का स्वाधीनता-संग्राम एक ऐसी घटना है जो कई तरह के मुद्दे उभारेगी। इस लड़ाई ने या क्रांति ने कई चीजों पर सोचने के लिए विवश किया है। यह पहली विरथी क्रांति है अर्थात् इस लड़ाई के सामने मजहब, मतवाद या क्रांति के परिचित स्कूलों अर्थात माओ, चेग्वारा अथवा लेनिन आदि की क्रांतियों के नक्शे बेकार हो गए हैं। क्रांति कोई सिक्का नहीं कि उसे किसी न किसी छापे के बिना ढाला ही नहीं जा सकता। क्रांति जनता की आत्मा का आक्रोश है, रुद्रभाव है, जो अपनी अभिव्यक्ति की शक्ल खुद तलाश कर लेता है। मुजीब का स्वाधीनता संग्राम क्रांतियों की नई-नई पोशाकांे या लबादों के बिना सहज स्वाभाविक गति से पांव-प्यादे सामने आया है, जो कि मनुष्यता के भविष्यत संघर्षों को एक नया मोड़ देने का कार्य करेगा। अन्याय से जूझने का यह नया प्रयोग और इतने शहीदों का खून बेकार नहीं जाएगा। इसमें सफलता-असफलता के प्रश्न का कोई खास मतलब नहीं। सभी जानते हैं कि असफल क्रांतियां देशद्रोह बन जाती हैं। सवाल क्रांति के उसूलों और उसको चलाने के तरीकों का है। सफल होने या असफल होने का उतना नहीं।
  इस तरह की क्रांतियां हमेशा आंतरिक और बौद्धिक चेतना से खाद और खुराक ग्रहण करती हैं। बुद्धि को गिरवी रखकर क्रांति का फल संभवतः आसानी से या कम दिक्कत से पाया जा सकता है। पर बिना गिरवी रखी बुद्धि को क्रांति के दौर में जिन खूनी घाटियों से गुजरना होता है, उसे भुक्तभोगी ही जान सकता है। इसका सच से कड़वा स्वाद बांगलादेश के बौद्धिकों को चखना पड़ा है। अपनी बुद्धि पर विश्वास करना स्वाभिमान भले लगे खतरनाक कम नहीं होता। मुजीब और उसके साथी इसे जानते थे। इसका परिणाम भी सामने है। बांगलादेश को सामूहिक बौद्धिक चेतना को बंदूकों से उड़ा देने का प्रयत्न शैतान की बेइंतहा अक्लमंदी का प्रमाण है, पर शैतान हमेशा ही यह गलती करता है, शायद यही उसकी विशेषता भी है कि वह असली स्वतंत्राता की तरह असली बौद्धिकता को भी क्षेत्राीय वस्तु मान लेता है। बांगलादेश के बौद्धिक, जो अब नहीं है, अपनी चेतना की विरासत, विश्व के उन तमाम बौद्धिकों के नाम छोड़ गए हैं, जो बुद्धि को गिरवी रखना मृत्यु से बदतर मानते हैं। बांगलादेश की यह विरथी क्रांति वस्तुतः विश्व के बौद्धिकों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।
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डॉ शिवप्रसाद सिंह हिंदी के जाने-माने लेखक। ललित निबंधकार, उपन्यासकार। यह लेख साप्ताहिक हिंदुस्तान, एक मई, 1971 के अंक में प्रकाशित हुआ था
           

अपने अपने जयपाल सिंह

प्रो गिरिधारी राम गौंझू

गोपाल दास मुंजाल और बलवीर दत्त दोनों जन्मना पंजाब (अब पाकिस्तान) के पंजाबी भारतीय लेखक, संपादक, पत्रकार, साहित्यकार और राँची निवासी हैं। दोनों जयपाल सिंह से गहरे रूप से जुड़े हुए हैं। गोपाल दास मुंजाल की 16 जनवरी 1955 अंक 3 ‘अबुआ झारखण्ड’ जयपाल सिंह विशेषांक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुई। इसमें आवरण पृष्ठ पर लिखा है - ‘मुण्डा जाति का अनमोल रत्न’ - ‘लाखों लाख झारखण्डियों के मरङ गोमके श्री जयपाल सिंह जिन्होंने राजनीतिक महारथियों को विस्मय चकित सा कर रखा है।’
और बलबीर दत्त की पुस्तक आयी झारखण्ड निर्माण के 17 वर्षों की तपस्या के उपरान्त अप्रेल 2017 में - ‘जयपाल सिंह एक रोमांचक अनकही कहानी (जीवनी, संस्मरण एवं ऐतिहासिक दस्तावेज)’ इसके अनुक्रम के कुछ प्रकरण देखिए वे जयपाल सिंह को किस नजरिए से देखते रहे हैं -
“1. जयपाल सिंह एक रोमांचक अनकही कहानी,
2. एक जीनियस का दिशाहीन सफर
3. जयपाल सिंह का रहस्मय जीवन
4. इतिहास की निष्ठुर शक्ति
5. राँची के लोगों से जयपाल सिंह की शिकायत
6. अनमोल प्रतिभा का दुरूपयोग
7. निष्ठा और साहसपूर्ण प्रतिबद्धता की कमी
8. पुस्तक में बहुत ही कड़वीं सच्चाइयाँ
9. धर्म परिवर्त्तन का डर
10. फाइनल (अमस्टरडम ओलम्पिक हॉकी 1928) में नहीं खेले जयपाल
11. क्यों नहीं बन सके आई. सी. एस. अफसर?
12. ब्रिटेन के प्रति वफादारी
13. मुख्य मंत्री (श्री कृष्ण सिंह-बिहार) से तीखी तकरार-नतीजा सिफर
14. बेकार की कसरत
15. गांधी जी की राँची यात्रा पर हड़ताल का विचित्र आह्वान
   (जयपाल सिंह का)
16. कहाँ गाँधी कहाँ जयपाल ?
17. दोनों नावों पर सवार
18. सुभाष बाबू मुझे जेल जाने से डर लगता है!
19. डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद से जयपाल सिंह की लंबी रंजिश
20. बिहारी विरोधी रवैया
21. जयपाल सिंह का मुसलिम लीग का फंड
22. सहयोगियोें की किनाराकशी
23. राँची में जयपाल सिंह के विरूद्ध विशाल भंडा फोड़ रैली।
24. आदिवासियों के विदोहन का आरोप
25. किस्मत की रोटी
26. झारखण्ड या नागपुरी प्रदेश
27. चुनाव में हारते हारते बचे जयपाल सिंह
28. तन कांग्रेस में मन झारखण्ड पार्टी में
29. भूमि अधिग्रहण व विस्थापन - कहाँ थी झारखण्ड पार्टी
30. जयपाल बनाम कार्तिक
31. जिंदगी की दो महागलतियाँ
32. मदिरा प्रेम का अनर्थ
33. नायक पूजा एक अभिशाप
34. जवानी का बुढ़ापा बनाम बुढ़ापे की जवानी
35. नेहरू ने धोखा दिया कितना सच कितना झूठ?
36. जयपाल सिंह को चुनौती: कार्यकर्त्ताओं के नाम हरमन लकड़ा का    
   खुला-पत्र।
37. झारखण्ड आन्दोलन के साथ विश्वास घात आदि“
लहलहाते धान के खेतों से कोई घास काटता है कोई धान। इन प्रकरणों से लेखक पाठकों को क्या बताना चाहते हैं?
श्री गोपाल दास मुंजाल ने - मरङ गोमके जयपाल सिंह : एक महान व्यक्तित्व की भूमिका में किन-किन विशेषणों का प्रयोग किया है देखिए --
“- नेतृत्व की अदभुत क्षमता
- महान आदिवासी
- मुण्डा जाति का वीर पुत्र
- महान व्यक्तित्व का केवल रेखा चित्र
श्री मुंजाल ने इस छोटी पुस्तक के आरंभ में जयपाल सिंह के ओलम्पिक हॉकी खेल के वर्णन से किया है --
“सन् 1928 के अमस्टरडम में होने वाले नवें ओलम्पिक में श्री जयपाल सिंह ने हॉकी खेलने में अपने जिस अद्भुत कौशल का प्रदर्शन किया था उसे देख कर खिलाड़ियों का सारा संसार बिस्मित तथा मुग्ध हो उठा था। उस दिन विश्व के महान खिलाड़ियों ने 25 वर्षीय जयपाल को एक स्वर से सारे संसार का सर्वश्रेष्ठ हॉकी खेलने वाला स्वीकार किया। जयपाल भारतीय हॉकी टीम के कैप्टन थे। इनके नेतृत्व में ही उस वर्ष भारत ने हॉकी का विश्व चैम्पियनशिप प्राप्त किया था। उस दिन प्रथम बार सारी दुनिया ने जयपाल सिंह मुण्डा को अद्भुत क्षमता के दर्शन किये थे।“(पृ0 1)
- जिस जाति ने बिरसा भगवान जैसे देश भक्त, वीर तथा त्यागी नेता को जन्म दिया था, आप उसी मुण्डा जाति के अनमोल रत्न हैं। (पृ01)
- दृढ़ चरित्र
- नेतृत्व क्षमता
- पढ़ने-लिखने की विलक्षण प्रतिभा
- छात्र-गुरु जन विस्मय भरी प्रशंसा करते थे
- अपने क्लास में सदा प्रथम आता था
- फुटबॉल का कुशल खिलाड़ी
- स्कूली हॉकी टीम का कैप्टन
- सभी हिन्दू मुसलमान ईसाई छात्र अपना नेता मानते थे।
- समाज कल्याण
- जन्म सिद्ध नेता
- दृष्टिकोण विस्तृत
- संेट पॉल राँची के प्राचार्य का कथन - प्रत्येक दृष्टिकोण से उसके
  चरित्र की श्रेष्ठता एवं दृढ़ता का मैं आरंभ से ही प्रशंसक रहा हूँ।(पृ02)
- रेव. केनोन कौसग्रेभ जयपाल सिंह की प्रतिभा से इतने अधिक
  प्रभावित तथा मुग्ध हुए कि सन् 1919 में उन्हें उच्च शिक्षा दिलाने के लिए अपने साथ ही इंग्लैण्ड ले गए।(पृ0 2)
- इंग्लैण्ड के ब्रिटिश शिक्षक एच.ए. जेम्स ने  17-6-1924 के पत्र में लिखा - “जयपाल एक अन्य  श्रेष्ठ विद्याभ्यासी  तथा दृढ़ चरित्र का युवक है। मेरा यह विश्वास है कि यह युवक जीवन के जिस क्षेत्र में भी प्रवेश करेगा, उसी क्षेत्र में यह असाधारण   सफलता प्राप्त करेगा। जयपाल में एक दीप्ति है जो इसे हर कहीं प्रकाशमान रखेगी।“(पृ02)
- इनके कॉलेज के एक प्रो0 जे. एल. स्टोक्स ने अपने 18-6-1924 के पत्र में लिखा है वह  (जयपाल सिंह)  - जब भाषण देता है तो श्रोताओं को जैसे किसी मंत्रवल से मुगध सा कर लेता है। जयपाल के वक्तव्य, श्रोताओं में एक अविचल  तथा  अखण्ड  विश्वास की सृष्टि करने की क्षमता से भरे  होते  हैं।  इसके  बोलने  का   ढंग  श्रोताओं को इस पर भरोसा रखने के लिए सशक्त रूप से प्रेरित करता है।(पृ0 3)
- श्री ध्यानचंद, श्री मैनेजर तथा श्री शौकत अली आदि भारत के प्रसिद्ध खिलाड़ी इस टीम में सम्मिलित हुए थे, श्री एलेन गोलकीपर थे। एक महान खिलाड़ी तथा कैप्टन के रूप में हमारे मरङ गोमके श्री जयपाल सिंह ने ही इस (1928 अमस्टरडम ओलम्पिक में) टीम का नेतृत्व किया था। (पृ04)
- सन् 1932 में आपको  (जयपाल सिंह को)  लोसएजेंल्स में  होने वाले ओलियम्पिक में पुनः भारतीय टीम का कैप्टन बनकर जाने का  आमंत्रण दिया गया। किन्तु  कम्पनी के  कार्यों से अवकाश  नहीं मिल पाने के कारण आप उसमें सम्मिलित नहीं हो सके। (पृ04)
गोल्डकोस्ट कोलोनी के गवर्नर श्री रोन्टोन थोमस को लिखे 4-12-1933 के एक पत्र में रेव. ए. जी. फ्रेजर एम.ए., सी.बी.ई. ने लिखा है - “यह युवक, जयपाल सिंह शिक्षा देने की अदम्य भावना तथा योग्यता से ओत-प्रोत है। यह एक श्रेष्ठ खिलाड़ी, श्रेष्ठ व्यवस्थापक, सुसंस्कृत तथा अनेक भाषाओं का विद्वान है। शिक्षक के कार्य की इसकी दक्षता असाधारण है। अपनी शिक्षा संस्था में व्यापारिक शिक्षा देने के लिए जयपाल सिंह से और अधिक योग्य शिक्षक मिलने की आशा मुझे तनिक भी नहीं है। इसकी विद्वता बहु-प्रशंसित तथा व्यक्तित्व आकर्षक है।(पृ05)
एलेक पेटरसन ने रेव. ए. जी. फ्रेजर को बधाई देते हुए लिखा - आप बड़े ही भाग्यवान हैं जो आपको अपने कॉलेज के लिए श्री जयपाल सिंह जैसे योग्य तथा विद्वान व्यक्ति प्राप्त हुए हैं। (पृ0 5)
- जयपाल सिंह के प्राचार्य रेव. केनोन कौसग्रेभ ने लिखा है - मैं भारत के अपने दस वर्षों के आवास  में जयपाल से  अधिक दृढ़ चरित्र तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व के व्यक्ति से नहीं मिला हूँ।(पृ05)
- कलकत्ता हाई कोर्ट के जज श्री टोरिक अमीर  अली ने 27-8-1936 के एक पत्र में लिखा है - ‘जयपाल  सिंह के   व्यक्तित्व में एक ऐसा शक्तिशाली चुम्बक है कि जो  व्यक्ति  एक   बार उनसे मिल लेता है फिर वह उनसे भागने की अपनी सारी शक्ति खो बैठता है।’ (पृ0 6)
- बिहार के तत्कालीन गवर्नर ने 22-3-1937 के पत्र में लिखा - ‘मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि आप राजकुमार कॉलेज, रायपुर में सिनियर असिस्टेंट मास्टर के पद पर नियुक्त हो कर भारत पधार रहे हैं।’ (पृ0 6)
- राजकुमार कॉलेज रायपुर के प्रिन्सिपल ने एक पत्र में लिखा है - “मैं अपने कॉलेज के शिक्षक पद के लिए जैसे व्यक्तित्व की कामना करता था उसे मैंने आप के (जयपाल सिंह के) रूप में पा लिया है। आप का अध्ययन तथा चरित्र असाधारण है।  अध्यापन के  आपके अनुभव भी अद्वितीय हैं। छात्रों पर  पड़ने वाली  आप  के व्यक्तित्व के प्रभाव की मात्रा को देख कर तो विस्मय सा होता है।(पृ0 6)
- चारों ओर एक नयी आशा की लहर नाच रही। इस विचार से कि वीर बिरसा मुण्डा के 40 वर्षों की लम्बी अवधि के बाद आज उन्हें पुनः एक दृढ़, वीर, तेजस्वी तथा विद्वान मुण्डा (जयपाल सिंह के) का ही नेतृत्व प्राप्त होगा। जनता उत्साह तथा उल्लास से भर आयी। (पृ0 8)
- जनता  ने  जयपाल  के  दर्शन  किये - गोल  चेहरे पर अन्याय के सम्मुख  कभी  नहीं  झुकने  वाली विशिष्ट मुण्डा - रेखाएँ,  सहज ही अपनी ओर खींचने वाली आकर्षक  मुद्रा,   जनता के मन में एक क्षण को भी यह नहीं आया  कि विलायती शिक्षा तथा वेश-भूषा के कारण जयपाल मुण्डा उनसे कुछ  भिन्न हो  गया है। जयपाल आदिवासियों का था और आदिवासी जयपाल के थे। (पृ0 9)
- ऐसे विलक्षण जयपाल सिंह को उसके समस्त पृथक-पृथक गुणों की विस्तृत नाप-जोख के साथ रखने के लिए मैं शीघ्र ही पृथक से एक मोटा ग्रंथ लिखूँगा। (पृ0 11)
- हम अपने उन समस्त आदिवासी भाइयों के प्रति जो देशी राज्यों, ब्रिटिश-भारत तथा संसार के अन्य  भागों  में  बस  रहे  हैं अपनी सहानुभूति प्रकट करते हैं। हम उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के संघर्ष में हम सब एक हैं तथा एक ही रहेंगे। (पृ0 12)
आदिवासीस्थान के विरोध में जयपाल सिंह ने कहा था - “मुझे भय है कि अपने आप को इस तरह पृथक रखने की कोई भी चेष्टा अन्ततः हम आदिवासियों के लिए घातक सिद्ध होगा। हमें भारत के सम्पूर्ण राष्ट्रीय जीवन में (उसके एक अंग की तरह) अपने लिए एक पृथक प्रान्त चाहिए। जिसका प्रशासन हमारे हाथ में हों तथा हम अपनी संस्कृति के अनुरूप ही जिस प्रशासन के द्वारा अपनी आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक स्थिति को अपने ढंग से उन्नत कर सकें।“ (पृ0 12)
- इग्नेस बेक का कहना  है -  मेरा  विश्वास  है  कि आदिवासियों में जयपाल के अतिरिक्त अन्य कोई भी  व्यक्ति  सच्चाई  तथा निर्भीकता का प्रदर्शन  इतने उच्च स्तर पर नहीं  कर  सकता   था।“ (पृ0 13 - मुख्यमंत्री बिहार श्री कृष्ण सिंह  के  बंगले  में   जयपाल के उद्गार के संबंध में)।
मरङ गोमके जयपाल सिंह के विरोधियों के उदृगार को भी श्री गोपाल दास मुंजाल ने इस प्रकार रखा है -- “सारे बिहार में राजनैतिक विरोध  जितना  जयपाल सिंह का हुआ है, उतना अन्य किसी  भी दूसरे  नेता का  नहीं  हुआ  है।  -  विरोधी राजनैतिक संस्थाओं के समाचार  पत्र  इन्हें अपने मन पसंद की, तरह तरह की उपाधियाँ  (गालियाँ)  देते  रहे हैं - 1. जयपाल प्रतिक्रियावादी हैं, 2. जयपाल बिहार  का  राजनैतिक  शत्रु  न  एक,  3.  जयपाल  बिहार  का राहू,
4. राजनैतिक खिलाड़ी  इत्यादि।  किन्तु जयपाल ने कभी इस ओर ध्यान  भी  नहीं दिया, वह अन्धड़ और तूफान की गति से अपने रास्ते चलते चला। उसका विचार  है कि जो लोग जान बूझ कर आदिवासियों  की  उन्नति के  मार्ग में रोड़े अटकाए हुए हैं वे ही प्रतिक्रियावादी हैं,  वे ही  मानवता  के राहू हैं वे बिहार का सत्यानाश करने पर तुले हुए हैं तथा भारत के सबसे बड़े शत्रु भी वे ही हैं।“
आदिवासियों को झारखण्ड में आदिवासियों की तरह रहने तथा जीने का पूर्ण अधिकार है। “वे बिहार के गुलाम बन कर नहीं रहेंगे।“ श्रीजयपाल सिंह का यही नारा है - वे यही चाहते हैं क्या दुनियाँ का कोई भी न्याय पसन्द व्यक्ति यह कह सकता है कि जयपाल की यह मांग, आदिवासी महासभा का यह सिद्धान्त, झारखण्ड पार्टी का यह नारा अनुचित है। क्या देश के स्वतंत्र नागरिक की तरह जीने के अधिकार की चाहना प्रतिक्रियावादिता है। क्या अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाना देश की शत्रुता हैं यही वे प्रश्न हैं जो श्री जयपाल सिंह बार-बार अपने उन भाइयों के सम्मुख रखते हैं जो उन्हें प्रतिक्रियावादी, राहु तथा देश का शत्रु नम्बर एक कहते हैं।(पृ0 13)
- निकट रहने  वाले  साथियों  का  कहना है  -  समय आया है जब जयपाल लगातार तीन-तीन दिनों तक भूखे  रह  गए हैं।   चने फांक कर पानी पी लिया है।  किसी को कहा  तक नहीं और अपनी तूफानी गति से कार्य करते रहे हैं।  आज  झारखण्ड  क्षेत्र के प्रत्येक घर में जिस राजनीतिक चेतना का स्फुरण दिखलायी  दे   रहा है वह सब केवल जयपाल सिंह के महान व्यक्तित्व अथक   श्रम  तथा इनके राजनीति की अद्भुत सूझ-बूझ के द्वारा ही संभव हो पाया है। (पृ0 14)
- पंडित जवाहर लाल नेहरू  को  संबोधित  करते  19-12-1946   के संविधान सभा में जयपाल सिंह ने कहा था - “हम चाहते हैं कि हमारे साथ ठीक वैसा ही वर्त्ताव किया जाए जैसा कि अन्य   किसी भी दूसरे भारतीय  के  साथ  किया  जाता  है। ----   भारत  के गैर आदिवासियों के द्वारा  परिचालित  विद्रोहों तथा   अराजकता के  द्वारा निरंतर शोषित तथा विस्थापित किए  जाना   ही मेरे  लोगों का सम्पूर्ण इतिहास है। फिर भी  मैं  पंडित जवाहर लाल नेहरू  के  वचन  पर विश्वास करता हूँ ----- अब  हम   अपने  जीवन का एक नया अध्याय आरंभ करने जा रहे हैं -   स्वतंत्र भारत का एक नया अध्याय, जहाँ सब लोगों को समान सुअवसर है,  जहाँ कोई  भी  उपेक्षित नहीं रहने पाएगा। मेरे समाज में जाति भेद का कोई प्रश्न नहीं हैं। हम सब बराबर हैं। (पृ0 14-15) आइए हम सब देश की  स्वतंत्रता  के  लिए साथ ही जूझें, साथ-साथ बैठे तथा साथ ही साथ काम करें। तभी हम वास्तविक स्वतंत्रता को प्राप्त करेंगे। (पृ0 15)
- झारखण्ड पार्टी  की  स्थापना  ने  झारखण्ड  क्षेत्र के  जन  जन में राजनैतिक चेतना की भेरी फूँक दी। --- प्रत्येक व्यक्ति   ‘झारखण्ड एक पृथक प्रान्त’  के  नारे से  गुंजायमान हो  रहा है।   इस  सम्पूर्ण जागृत, चेतना तथा उल्लास के पीछे जो शक्ति है,   वह  शक्ति  इस महान मुण्डा जयपाल सिंह के जादू भरे व्यक्तित्व की  ही है। (पृ0 15)
- भारत के प्रधान मंत्री  पंडित जवाहर लाल नेहरू  आप  के (जयपाल सिंह के) गुणों पर मुग्ध हैं तथा आप  का  बहुत  सम्मान   करते  हैं। दिल्ली के राजनैतिक तथा  सरकारी क्षेत्रों में किसी   महत्वपूर्ण पद पर कार्य करने वाला शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो   जो  इन्हें (जयपाल सिंह को) नहीं जानता हो तथा इनसे प्रभावित नहीं हो। (पृ0 15)
भारत स्थित विदेशी राजदूतों में से प्रायः सब के सब इनके प्रशंसक तथा मित्र हैं। हमारे मरङ गोमके दिल्ली के राजकुमार हैं। (पृ0 16)
ये कुछ उद्गार है जयपाल सिंह विशेषांक अबुआ झारखण्ड पत्र के जो श्री गोपाल दास मुंजाल द्वारा लिखे तथा संकलित किए गए हैं। दूसरी ओर बलबीर दत्त की जयपाल सिंह पर 54 वर्षों के कठिन अन्वेषण के बाद (37$17 वर्ष) प्रकाशित हुआ है। दोनों एक पंजाब (पाकिस्तान) के संपादक, पत्रकार तथा साहित्यकार हैं। दोनों तराजू के पलड़े पर तौल कर देखे मरङ गोमके जयपाल सिंह क्या हैं।





बिरसा का गांव

सरवदा चर्च पर पहला तीर चलाया गया
खूंटी गांव कांप उठा।
डिप्टी कमिश्नर आए।
वह बिरसा का पीछा कर रहे थे।
बुद्धिमान लोग (बिरसा के अनुयायी) डोम्बारी पहाड़ पर चले गए।
उन लोगों ने  (ब्रिटिश सैनिकों का) मुंह बनाया
और चुनौती दी।
फौजों (ब्रिटिश) ने उन पर गोलियां चलाईं।
एक मुंडा बच्चा जमीन पर गिरी अपनी मृत मां का दूध पीने की 
कोशिश कर रहा था।
 (अंग्रेज) महिला (डिप्टी कमिश्नर की पत्नी) बहुत द्रवित हुई।
बच्चे का क्या हुआ?
यह कोई खुशी की बात न थी।
रांची से जब मुरहू प्रखंड होते हुए सुदूर उस सरवदा गांव में पहुंचे, जहां 1881 से विशाल चर्च खड़ा हुआ था, तो अचानक 117 साल पहले रचित यह गीत कानों में गूंजने लगा। बिरसा की बहादुरी में रचित यह गीत अपने समय का इतिहास भी दर्ज करता है। जब यह चर्च बना, तब खूंटी जिला नहीं बना था। वह रांची का अनुमंडल भर था। आज जरूर ताज्ज्बुब करेंगे, जब यह चर्च बना। उस समय इतनी आबादी भी नहीं रही होगी और जाने का रास्ता तो अब बना है। उस समय, मिशनरियों के विश्वास और धैर्य को याद कीजिए। यहीं पर जर्मन के विद्वान फादर हाफमैन रहते थे, जहां दो बार बिरसा के अनुयायियों ने हमला किया था। चर्च के पीछे ही वह ऐतिहासिक पहाड़ी सिंबुआ है, जहां बिरसा की बैठकें भी होती थीं। यहां रह रहे फादर जेवियर केरकेट्टा कहते हैं कि इसे बनाने के लिए कलकत्ते से बैलगाड़ी से लादकर सामान यहां आया था। करीब सौ फीट से ऊंची इसकी मीनार होगी, जो दूर से ही दिखाई देती है। सरवदा का चर्च आज भी खड़ा है और उसके परिसर में कई पत्थगड़ी में वहां का इतिहास भी दर्ज है। यहीं पर उसी समय का एक स्कूल भी है, जहां के बच्चे नंगे पैर हॉकी स्टीक लेकर दो मैदानों में एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ते हुए एक दूसरे को हराने के लिए पसीना बहाते हैं। फादर बाद में जर्मनी चले गए, लेकिन जाने से पहले उनका तीन महत्वपूर्ण योगदान को याद करना चाहिए। पहला, बिरसा की शहादत के बाद अंग्रेजों ने जो कानून बनाया, छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम-1908। इसमें फादर का ही मुख्य काम है। दूसरा, उन्होंने छोटानागपुर काथलिक मिशन कॉपरेटिव क्रेडिट सोसाइटी की स्थापना 1909 में की और 1928 में मुंडारी विश्वकोश तैयार किया। सरवदा चर्च के एक कमरे में उनकी किताबें धूल फांकती मिल जाएंगी और उनकी तस्वीर भी, जिसे दीमक अपना निवाला बनाने का आतुर दिखे।
खैर, यहां बच्चों का उत्साह चरम पर था। उनका खेल देखने लायक था, लेकिन हमारे राज्य के खेल विभाग को इन गांवों में देखने को फुर्सत नहीं है। खेल विभाग का पैसा कहां खर्च होता है, वह विभाग ही जानता है। यह वह इलाका है, जहां अपराधियों का बोलबाला है। नक्सली हैं, माओवादी हैं। युवाओं के पास कोई काम नहीं है।
यह नजारा सरवदा से लेकर उलिहातू और डोंबारी गांव तक दिखा। सरवदा से जब बिरसा मुंडा की जन्मस्थली उलिहातू पहुंचे तो यहां भी युवा ताश के पत्ते फेंट रहे थे। जन्म स्थली पर ताला लटका हुआ था और बाहर बिना ड्राइवर एक एंबुलेंस खड़ी थी। सरकार का पूरा विकास यहीं दिखता है। बिरसा के वंशजों का घर पक्का का बन गया है और खूंटी से उलिहातू तक की सड़क तेजी से फोरलेन बन रही है। बाकी गांव, अपनी किस्मत पर जी रहा है। बकरियां सुस्त पड़ी थीं। एक महिला धान ओसा रही थी। एक बच्ची एक बच्चे को चुप करा रही थी। गांव में बना बिरसा मुंडा परिसर चमक रहा था। यहां बिरसा की प्रतिमा को सोने की चमक दे दी गई थी। सूरज की किरण पड़ते ही प्रतिमा की आभा देखते बनती थी। सरकार ने यहीं विकास किया है।
लेकिन उलिहातू से जब डोंबारी बुरू जाएं तो फिर विकास दूर-दूर तक नजर नहीं आता। यहां डॉ रामदयाल मुंडा व जगदीश त्रिगुणायत के प्रयास से डोंबारी बुरू पर 100 फीट का एक स्मारक बनाया गया है। यहां पहाड़ तक एक पतली सड़क जाती है। यह उसी समय की बनी है। इसके बाद सरकार ने ध्यान नहीं दिया। यहीं पर सौ बेड का अस्पताल भी बनना था, लेकिन आज तक नहीं बना। मुख्य सड़क से डोंबारी बुरू की दूरी करीब दस किमी है, लेकिन इस दस किमी में विकास कैसा हुआ, कहां हुआ, यह दिख जाता है। जैसे, यह इलाका अभी भी सौ साल पहले की अवस्था में जी रहा है। गांव से लौटते हुए फिर एक गीत याद आने लगा-

डोंबारी पहाड़ी पर बिरसा के अनुयायी इक_े हुए
नीचे घाटी में गोरे सिपाही बड़ी तादाद में जमा थे।
बिरसा के अनुयायी उनकी खिल्ली उड़ा रहे थे, उन्हें चुनौती दे रहे थे, 
गोरे सिपाहियों ने हड़बड़ी में गोली चलाई...। 

खैर, लोग उनके शहादत दिवस नौ जून और 15 नवंबर, उनके जन्म दिवस पर यहां मेला लगाते हैं। नौ जनवरी को भी यहां भारी संख्या में लोग जुटते हैं, क्योंकि अंग्रेजों ने नौ जनवरी 1900 को हजारों मुंडाओं का बेरहमी से नरसंहार कर दिया था। इसमें महिलाएं और बच्चे काफी संख्या में कत्ल किए गए थे। इस पहाड़ी पर बिरसा मुंडा अपने प्रमुख 12 शिष्यों सहित हजारों मुंडाओं को जल-जंगल-जमीन बचाने को लेकर संबोधित कर रहे थे। आस-पास के दर्जनों गांवों से लोग एकत्रित होकर भगवान बिरसा को सुनने गए थे। बात अभी शुरू ही हुई थी कि अंगरेजों ने डोम्बारी बुरु को घेर लिया। हथियार डालने के लिए अंगरेज मुंडाओं को ललकारने लगे। लेकिन मुंडाओं ने हथियार डालने की बजाय शहीद होने का रास्ता चुना। यहां डोंबारी बुरु की तलहटी में एक मंच बना है। इसके साथ पत्थलगड़ी भी की गई है। पत्थलगड़ी नौ जनवरी 2014 को किया गया है। इस पर नौ जनवरी 1900 को शहीद हुए लोगों के नाम की सूची है-
हाथीराम मुंडा, गांव गुटुहातु, मुरहू
हाड़ी मुंडी,  गांव गुटुहातु, मुरहू
सिंगराय मुंडा, बरटोली, मुरहू
बंकन मुंडा की पत्नी जिउरी, मुरहू
मझिया मुंडा की पत्नी, मुरहू
डुन्डुन्ग मुंडा की पत्नी, मुरहू।
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