इतिहास से टकराता एक उपन्यास बनाम कई बहुश्रुत चरित्रों की छवियां बदलती एक कथा

‘भारतीय किसान प्रायरू लाभ और प्रतिफल के लिए नहीं, वरन जीवन निर्वाह के लिए खटता था। भूमि की अतिसंकुलता और जीवन निर्वाह के वैकल्पिक साधनों एवं दुर्दशा से बचने के उपायों की कमी-इन सबके कारण कहीं भी, किसी भी शर्त पर फसल उगाने को किसान लाचार था। खाद्य सामग्री के लिए उसे जमीन की जरूरत है और जमीन के लिए उसे महाजन की मिन्नत चिरौरी करनी पड़ती है। यद्यपि जितनी उसकी चल-अचल संपत्ति है उससे अधिक उस पर महाजन का ऋण है, जहां उसकी जमीन महाजन के हाथ में चली गई है, वहां किसी भी कायदे कानून से उसकी जरूरतें पूरी नहीं हो सकतीं, काश्तकारी का कोई भी कानून उसकी रक्षा नहीं कर सकता।’                                                                                                                                   -रायल कमीशन की रिपोर्ट, (1926)

किसान की हालत जिस तरह दिन-पर-दिन गिरती जा रही है, उससे किसान क्रांति की आशंका होती है।  -राधाकमल मुखर्जी  (हिंदुस्तान की भूमि समस्या-1933)

‘अच्छा यह बताओ पदारथ, जो बिसार नहीं पाएंगे वो बोएंगे कहां से, और बोएंगे नहीं तो पहले का बकाया कैसे वापस करेंगे?’
‘जरा धीरे बोलो साधू। ...सब ससुरे जोत-बो लेंगे और लगान भर देंगे तो बेदखल कैसे होंगे? बेदखल नहीं होंगे तो हमारे-तुम्हारे यहां मजूरी कौन करेगा? फिर बेदखल होंगे तो आखिर खेतवा कहां जाएगा। राय साहब किसी को तो देंगे, खुद तो यहां काश्त करने आएंगे नहीं।’   
            
                                                                                               -(बेदखल-कमलाकांत त्रिपाठी, पेज 13-14)

भारतीय किसान की यही है त्रासदी। कबीर की बानी से लेकर प्रेमचंद के ‘गोदान’, श्याम बिहारी ‘श्यामल’ की ‘धपेल’ शिवमूर्ति के ‘आखिरी छलांग’ और कमलाकांत त्रिपाठी के ‘बेदखल’ तक किसानों के पोर-पोर दर्द को महसूस किया जा सकता हैं। रेणु की परती परिकथा को भी भूला नहीं जा सकता है। फेहरिश्त और लंबी हो सकती है, पर यहां उसे बढ़ाना उद्देश्य नहीं हैै। जब हम इन रचनाओं पर नजर डालते हैं तो यही लगता है कि पंद्रहवीं शताब्दी (समय और पीछे भी धकेला जा सकता है) से लेकर अब तक किसानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। किसान तब भी बेहाल थे, जब सिंचाई के साधन नहीं थे। प्रकृति पर उनकी निर्भरता थी। किसान अब भी परेशान हैं, जब आधुनिक मशीनों ने गाय-बैलों को खूंटे तक ही सीमित कर दिया है। पहले वह आत्महत्या नहीं करता था। रो-धोकर उसकी ‘जिनगी’ की गाड़ी पार लग जाती थी। पहले महाजन थे, साहुकार थे, जमींदार थे, जिनसे वह कर्ज लेता था, खेती करता था। इसके अलावा तरह-तरह के लगान थे-
‘एक बात नहीं सुने होंगे। दवाई और भंडारा में जितना खर्च हुआ, सब रिआया से वसूल होगा। लगान की अगली किस्त के साथ फोड़ावन भी लगेगा।’ झिंगुरी सिंह ने बड़े शांत स्वर में कहा और सुंघनी की डिबिया निकालने लगे।

‘ई फोड़ावन क्या बला है बाबू साहेब?’ फर्श पर्र इंट का टुकड़ा रखकर बैठे भगवान दीन ने पूछा।
‘अरे, जैसे हथियावन, घोड़ावन, मोटरावन, लटियावन वगैरह दिए थे न, वैसे अब फोड़ावन भी देना।’ (पेज 16)
अब वह बैंकों से कर्ज लेता है। हालांकि सूदखोरों की प्रजाति अब भी नष्ट नहीं हुई है। इसलिए वह सूदखोर और बंैक दोनों पर निर्भर हैं किसानी के लिए। यह अलग बात है कि जब फसल पक कर तैयार होती है तो दाम नहीं मिलते या उसके दाम गिर जाते हैं। कर्ज में डूबे किसान के पास कोई विकल्प नहीं बचता सिवाय आत्महत्या के। आत्महत्या के बाद वह आंकड़ों का हिस्सा हो जाता है। अखबारों में थोड़ी जगह पा जाता है। इसके बाद सब कुछ शांत-स्थिर...। सरकार थोड़ी राहत की घोषणा करती है, पर यह राहत भी दलालों और साहुकारों के पेट में समा जाता है। यह हाल है अपने गणतंत्र का। गणतंत्र देश के ‘गण’ इसी मनोदशा में जी रहे हैं। कोई पूछने वाला नहीं है कि कृषि प्रधान देश में किसान क्यों मर रहे हैं, क्यों आत्महत्या कर रहे हैं?
किसानों की यह स्थिति क्यों हुई, कैसे हुई? क्यों किसान आत्महत्या को मजबूर हैं? क्यों उसके सिर पर बेदखली की तलवार हमेशा लटकती रहती है? क्यों विकास के नाम पर उसे ही बार-बार विस्थापित होना पड़ता है? विकास के नाम पर क्या आज तक किसी उद्योगपति या व्यवसायी के विस्थापित होने का मामला प्रकाश में आया है? आखिर, दुख, दर्द, पीड़ा किसानों के हिस्से ही क्यों आती है? आधुनिकीकरण और उद्योग के नाम पर किसानों-ग्रामीणों को ही क्यों बेदखल होना पड़ता है? इसका जवाब कौन देगा? जाहिर है, विस्थापन और बेदखली के अलावा किसानों के पास कोई चारा नहीं होता तब वह आंदोलन की राह पकड़ता है। उत्तरप्रदेश, झारखंड, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, पं बंगाल में किसानों के भीतर चेतना और अपने अधिकारों को लेकर जो विस्फोट हुआ है, वह इसी का परिणाम है। स्पष्टड्ढतरू इस संघर्ष-आंदोलन के पीछे सैकड़ों सालों की वह अनकही पीड़ा है जो एक साथ फूंट पड़ी है। सरकार में बैठे अंधे नेताओं और नौकरशाहों को यह भले न दिखाई दे, पर इसकी पृष्ठड्ढभूमि गहरी है।

 तमाम औद्योगिक फलसफे के बावजदू यह मानना ही पड़ता है कि किसान ही यहां की अर्थव्यवस्था के मजबूत रीढ़ हैं। (इस मंदी के दौर में अब अर्थशास्त्री कृषि पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह ेदे रहे हैं)इन्हें तोडने का प्रयास औपनिवेशिक काल में ही शुरू हो गया था। इसके बाद भी यह सिलसिला रुका नहीं। आजादी के बाद नौकरशाहों का जो मध्यवर्ग उभरा, वह भले ही भारत में पैदा हुआ था, लेकिन बोल-चाल और सोच में अंग्रेज ही था। यही लोग निति-नियंता थे। कानून बनाने से लेकर उसको पालन कराने में इनकी भूमिका थी। उनकी इस नीति में किसान हाशिए पर थे। उनका संबंध था भी तो इतना ही कि कैसे उससे लगान वसूला जा सके। इसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकते थे। जाते भी थे, क्योंकि उनका बनाया हुआ कानून उनके पास था। इस मानसिकता के लोग आजाद भारत में भी हावी हैं। यही लोग एयरकंडिशन कमरों में बैठकर किसानों की चिंता में दुबले होते हैं। यही लोग उनके उबरने की नीतियां बनाते हैं। इन नीतियों से किसान भले न उबरे, पर अधिकारी जरूर अपनी ‘गरीबी’ से उबर जाते हैं।
    किसानों के दुख-दर्द की कहानी उसी परपीडक दौर से शुरू होती है। जो गांव कभी आत्मनिर्भर थे, उन्हें दूसरों पर निर्भर बना दिया गया। ऐसा अंगरेजों ने बहुत सोच-समझकर किया। ए आर देसाई ने ‘भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि’ में लिखा हैै-
‘आदिम हल और बैल से खेती और साधारण औजार की मदद से दस्तकारी की भित्ति पर टिका आत्मनिर्भर गांव, यही अंगरेजों के आने के पहले की भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल सत्य है। ये स्वपर्याप्त गांव सदियों से भारतीय जीवन की मूल आर्थिक इकाई थे। इनमें न्यूनाधिक परिशोधन हुए थे, लेकिन राजनीतिक हलचल, धार्मिक उथल-पुथल और विनाशकारी युद्धों के बावजूद अंगरेजों के आगमन के पहले तक गांवों की चिरंतन प्रकृति लगभग अक्षुण्ण रही। विदेशी आक्रमण हुए, राजवंश बदले, आपसी लड़ाइयों के बाद विभिन्न राज्यों के भूभागों का नया बंटवारा हुआ, नए राज्य बने और बिगड़े, लेकिन आर्थिक इकाई के रूप में गांवों की हैसियत ज्यों की त्यों रही।’
 गांवोंकी इस हैसियत से छेड़छाड़ अंगरेजों ने शुरू की। यह जानी हुई बात है कि पुराने समय में भूमि पर किसी का अधिकार नहीं था। वह ग्राम समुदाय की होती थी। इसे कभी राजा की संपत्ति नहीं माना गया। हां, जमीन की पैदावार के अंशमात्र पर ही उसका अधिकार था। उसी तरह जैसे जंगलों पर आदिवासियों का अधिकार था, लेकिन गोरे साहबों ने जंगल को अपने अधीन कर लिया और आदिवासी जंगलों के अपने परंपरागत अधिकार से कानूनी रूप से बेदखल कर दिए गए। झारखंड सहित आदिवासी क्षेत्रों में जो भी हूल हुए, वह जमीन और जंगल को लेकर ही हुए। यह लड़ाई आजादी के बाद भी खत्म नहीं हुई है, आज भी चल रही है, आगे बढ़ रही है। वन अधिकार कानून भी बना तो उसमें इतनें पेंच हैं कि आदिवासी उसी में उलझकर रह गए हैं। इसे लागू कराने को लेकर अलग से संघर्ष झारखंड के गांवों में चल रहा है। जाहिर, सत्ता में जो बैठे हैं, कानून बन जाने के बाद भी कई तरह की अड़चने पैदा करते हैं। उनका वर्गीय चरित्र ऐसे मामलों में रह-रह कर उजागर होता है। बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। आजादी के तत्काल बाद जमींदारी प्रथा को खत्म करने वाला कानून बना, पर कानून क्या इस प्रथा को खत्म कर पाया? मैदानी इलाकों में किसान अपनी जमीन बचाने के लिए लड़ रहा है तो पहाड़ी क्षेत्रों में आदिवासी जंगल पर अपने परंपरागत अधिकार के लिए...। लड़ाई हर जगह है।
 झिंगुरी सिंह भी लड़ रहे हैं। अपने लोगों को समझा रहे हैं। एकजुटता का पाठ पढ़ा रहे हैं। शोषण-दमन की परतदार प्रवृत्तियों को उघाड़ रहे हैं, अपने देशी जबान में- ‘मोरे भइया किसानो, तोहरी कमाई पर तालुकेदारन की धोती आकाश में झुराय रही है और तोहार दुख तकलीफ सुनै वाला कोई नहीं।...पहली बारिश के बाद किसान उछाह के साथ हल-बैल लिए खेत की ओर दौड़ता है। मगर खेत उसका नहीं। तालुकेदार जब चाहे उसे बेदखल कर दे। जिस ड्ढिमट्टी को पालते-पोसते बाप-दादे मिड्ढट्टी में मिल गए वह मिट्टड्ढी उसकी नहीं। दूर अपने आलीशान कोट में बैठा तालुकेदार उसका मालिक है और अंगरेज बहादुर उसका रखवाला। दोनों ने मिलकर रिआया को तबाह करने की कैसी रचना रची है। यही तालुकेदार जब सत्तावन के गदर में अंगरेजों के खिलाफ खड़े हुए तो रिआया ने आगे बढकर उनका साथ दिया। उनके साथ लड़-मरी। बाद में दोनों मिलकर एक हो गए और रिआया को मक्खी की तरह निकाल फेंका। उसका कोई हक नहीं, कोई अख्तियार नहीं। बस वह तालुकेदार का मुंह जोहे। उसके यहां हारी-बेगारी करे, नजराना दे और खुद दाने-दाने को मोहताज रहे। मोरे भैया किसानो, आप कब तक चुपचाप सहते रहोगे?...’ (पेज 8-9)
 किसानों की ऐसी स्थिति मुगल काल के साथ शुरू हुई, जो आज तक विभिन्न स्वरूपों में चल रही है। जबकि अतीत में किसान ऐसे विपर्यय में नहीं जीते थे। पुरा काल में भूमि पर गांव की जनता के परंपरागत अधिकार थे। उसके इस अधिकार को किसी ने चुनौती नहीं दी थी। न राजा न उसका कोई कारिंदा। कृषि का एकमात्र लक्ष्य था गांव के लोगों की जरूरतों को पूरा करना। गांव की अधिरचना इस तरह होती थी कि सभी जातियों के लिए कोई न कोई व्यवस्था रहती थी। हर जाति के लिए काम। हर के  लिए रोटी की व्यवस्था। गांव एक तरह से पूरी तरह आत्मनिर्भर थे, लेकिन गतिहीन नहीं। आगे चलकर, जब अंगरेज यहां मजबूत होते गए, उन्होंने कृषि व्यवस्था पर प्रहार करना शुरू किया। कहते हैं कि भारतीय समाज के इस रीढ़ पर सबसे पहले कार्नवालिस ने प्रहार किया। सन् 1793 में इसने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में जमीन के स्थाई बंदोबस्त के जरिए भारत में जमींदारों का सृजन किया। इनमें से अधिकतर वे थे, जिसे अंगरेजों के पूर्व राजनीतिक अधिकारियों ने तहसीलदारों को कमीशन के आधार पर भूमिकर की वसूली के लिए नियुक्त किया था वही आगे चलकर स्थाई बंदोबस्त में जमींदार हो गए। इस वर्ग को पैदा करने के पीछे अंगरेजों का एक मकसद तो यह था कि उन्हें सामाजिक और राजनीतिक समर्थन मिले, ताकि उनके शासन को वैधता मिल सके। यह भी वह अच्छी तरह जानते थे कि उनकी रक्षा तभी हो सकती थी जब उन्हें इन नवजात जमींदारों का समर्थन हासिल हो। इतिहास बताता है कि इन जमींदारों ने अंगरेजों का हर कदम पर साथ दिया। आजादी का पूरा आंदोलन ही जमींदारों के इस चरित्र को उजागर कर देता है। ये अंगरेजों का तब तक साथ देते रहे, जब तक इनके स्वार्थ पर उनने चोट नहीं की। ‘तब रिआया ने आगे बढकर उनका साथ दिया। उनके साथ लड़-मरी।’ लेकिन उसके बाद क्या हुआ? फिर वे अपने पुराने तेवर में आ गए। देश में बार-बार किसानों के आंदोलन जमींदारों और दमनकारी कानूनों के कारण ही खड़े होते रहे।
‘बेदखल’ की कहानी भी एक आंदोलन की कहानी है। इस कहानी के केंद्र में हैं अवध के किसान। वे अपनी ही जमीन से बेदखल कर दिए जाते हैं। इस अन्याय का प्रतिकार करने के लिए ही किसान सभा का गठन किया जाता है। गठन एक  बाबा करते हैं। बाबा रामचंद्र। बाबाके इस चरित्र को देखकर सहज ही सहजानंद सरस्वती की याद हो आती है। यह बाबा महाराष्ट्र के हैं। पारिवारिक कलह के कारण अपने युवा काल में घर से निकल भागते हैं तो घर की राह ही भूल जाते हैं। वह सोचते हैं, कहां ग्वालियर राज्य का वह छोटा सा गांव जीरनपुर, कहां रत्नागिरि, कहां बंबई कहां मद्रास और कहां फीजी। और यह अब अवध का देहाती इलाका। घर छूटा, जाति-बिरादरी छूटी, अपनी मिट्टड्ढी, अपना देश छूटा। यहां, इस अनजान देश में दर-दर भटक रहे हैं। एकदम अकेले और निरूसंग। लोग मिलते हैं, छूटते हैं। फिर मिलते हैं और छूट जाते हैं। और यह क्रम चलता रहता है...पैर कहीं थिर नहीं होते। जिस गांव में बाबा डेरा डालते हैं, वह कसईपुर नामक गांव है। कसईपुर प्रतापगढ़, सुल्तानपुर और जौनपुर तीनों जिलों की सरहद पर बसा है। बाबा का अतीत बार-बार परेशान करता है। बीती यादें और बातें उन्हें सोने नहीं देतीं। वह मुक्ति के लिए छटपटाने लगते हैं। वे गांव-गांव कथा कहते हैं लेकिन कथा कहते हुए लगता है इससे कुछ बनने वाला नहीं हैै। यह पाप-पुण्य, आत्मा-परमात्मा, इहलोक-परलोक की बातें तो तमाम साधू-संत, रामायणी कथावाचक हमेशा से करते आए हैं। इससे कहीं कुछ बदला है? लोगों की जिंदगी वैसे ही घिसटती चली आ रही है। वह सोचते हैं....यहां के किसान गरीब हैं, कमजोर हैं, सताए हुए हैं। तालुकेदारों के मुलाजिम बात-बात पर उनसे अकड़ते हैं, आंखें दिखाते हैं। जब चाहे बेगार के लिए हांक ले जाते हैं। लगान वसूल लेते हैं, रसीद नहीं देते। बेदखली का भूत हमेशा सिर पर सवार रहता हैै।....क्या कुछ हो नहीं सकता?....बाबा जितना सोचते हैं, मन उलझता जाता हैै।
यह उलझन दूर हुई। एक रास्ता सूझा। जैसे प्रकृति ने पहले से ही तैयार कर रखा हो। यह रास्ता गोमती किनारे बसे गांव महडौरा से होकर गुजरता था। वहां एक मंदिर निर्माण की बात चल रही थी। लेकिन उसके निर्माण में कई अड़चने थी। बाबा वहां पहुंचते हैं। रास्ता सुझाते हैं। कहते हैं, एक पंचायत बनाइए। उसके कार्यकर्ता चुनिए। वे बैठकर तय करें कि कैसा मंदिर बनेगा और कितना खर्च आएगा।....समस्या का हल निकल आता हैै। यह पंचायत दरअसल किसान आंदोलन का बीज था। इस पंचायत ने एक और काम किया। मंदिर निर्माण पूरा होने के बाद दीवानी और फौजदारी के मामले भी इसी पंचायत में सुलझने लगे। लोगों का थाना-कचेहरी जाना बंद हो गया। तालुकेदार के गुमाश्ते भी अब उस गांव में घुसने से डरने लगे। देखा-देखी आस-पास के गांवों में भी पंचायतें बनने लगीं। यह एक प्रयोग था, एक पृष्ठभूमि थी, एक नींव थी, जिस पर किसान आंदोलन की ईमारत बननी थी।
 आंदोलन के पीछे 1868 में लागू हुआ अवध का लगान कानून था। 1857 के  बाद अंगरेजों ने नए-नए कानून बनाए। तरह-तरह से जनता को तंग करने के हथकंडे अपनाए जाने लगे। जब विरोध के स्वर मुखर होने लगे तो धूर्त अंगरेजों ने कानून में कुछ तब्दिलियां भी कीं। इस कानून में भी 1886 में थोड़ा परिर्वतन किया गया और किसानों को सात साला हक मिला। लेकिन, जैसा कि अंगरेजों का चरित्र था, यह महज दिखावा ही साबित हुआ। 
 1857 के बाद अंगरेज अब फूंक-फूंक कर कदम रख रहे थे। इस लड़ाई के बाद राजाओं, जमींदारों, ग्रामीणों और शहरी अभिजात वर्ग के साथ नए सिरे से अपने संबंधों को मजबूत कर रहे थे। लेकिन यही वह दौर है जब अखिल भारतीय स्तर पर किसानों के विद्रोह शुरू हुए। इस विद्रोह के पीछे लगान, नई भू राजस्व नीति और तरह-तरह के फरमान थे। अंगरेजों की इस दमनकारी नीति से दक्षिण, पश्चिम और उत्तर भारत के गांव सुलग उठे। गांव से उठे धुएं ने शहरों को भी अपने आगोश में ले लिया। वहीं, 1870 और 1890 के के दशक में बार-बार पडने वाला अकाल भी इस आग में घी का काम किया। केवल झारखंड की बात करें तो यहां 1765 से शुरू हुआ जमीन और जंगल का आंदोलन 1900 तक और उसके बाद भी चलता रहा। 1767 में ढाल विद्रोह, इसके बाद 1769 से 1805 तक चुआड़ विद्रोह हुआ। यह लगान नहीं देने के कारण पंचेत राज्य को नीलाम कर दिए जाने के कारण शुरू हुआ। इनके विद्रोह के कारण कंपनी सरकार को इसे वापस लेना पड़ा। बांग्ला शब्दकोश में चुआड़ का शब्द है-दुर्वत्त और नीच जाति। यह शब्द गाली के रूप में आदिवासी किसानों और योद्धाओं के लिए प्रयुक्त होता रहा है। इसके बाद पलामू में 1770-71 चेरो विद्रोह, 1770-71 भोगता विद्रोह, 1771-73 घटवाल विद्रोह, 1773 से 1785 तिलका माझी आंदोलन, 1772 से 1780 तक पहाडिया विद्रोह, 1782 से 1807 तक तमाड़ विद्रोह, 1793 से 1832 तक मुंडा विद्रोह, 1820 से 1821 सिंहभूम का हो विद्रोह, 1831 से 1832 तक कोल विद्रोह, 1832 से 1833 तक भूमिज विद्रोह, 1855 से 1857 संथाल विद्रोह होते रहे और औपनिवेशिक सत्ता को लगातार चुनौती देते रहे। देश के पहले स्वाधीनता संग्राम से दो वर्ष पूर्व 1855 में संथाल हूल ने अंगरेजी सत्ता को जबरदस्त चुनौती दी। 1870 के दशक का खेरवाड़ आंदोलन उठा। पहले तो यह सामाजिक सुधारों तक  ही सीमित था, लेकिन जल्द ही राजस्व बंदोबस्ती की गतिवधियों के विरुद्ध एक अभियान में तब्दील हो गया। इसके बाद बिरसा का आंदोलन चला। इसी तरह गोदावारी एजेंसियां की पहाडियां (1879-80) भी शक्तिशाली विद्रोह की साक्षी रहीं। महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फडके सक्रिय थे। मलाबार में हिंदू और मुस्लिम दोनों सक्रिय थे। मोपला विद्रोह के पीछे किसानों का असंतोष ही था, जिसके मूल में कृषि व्यवस्था थी।  दकन में दंगे तक हुए। बंगाल के पबना में दंगे तो नहीं हुए लेकिन अंगरेजों को किसानों के व्यापक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। दक्षिण तमिलनाडु में भी जातिगत विद्रोहों के साथ किसानों ने भी विद्रोह का आवाजें बुलंद कीं। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में चंपारन, खेड़ा और अहमदाबाद के आंदोलन हुए। पंजाब में गदर पार्टी के नेतृत्व में किसानों के हितों को ले आंदोलन शुरू हुआ और ‘पगड़ी संभाल ओ जट्टड्ढ’ के नारे गली-गली सुनाई देने लगे, राजस्थान भी पीछे नहीं था। वहां शेखावती किसानों ने झंडा बुलंद किया। मारवाड़ क्षेत्र के किसान अपने हक के लिए उठ खड़े हुए। इन सभी आंदोलनों की विशेषता यह थी कि ये सभी ‘नीचे से आने वाले दबाव’ के प्रतिफल थे। इस दौर में जो भी किसानों के नेता बनकर उभरे, उसमें से अधिकांश ‘नीचे के दबाव के कारण’ ही उभरे। सरदार हरलाल सिंह, राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा, पटेल आदि के उभार में किसान ही थे। यहां तक कि नेहरू भी प्रतापगढ़ में जिस किसान सभा को संबोधित कर किसान नेता बने, वह वहां किसानों के कारण ही संभव हुआ। यह अलग बात है कि नेहरू और उनकी कांग्रेस ने किसानों के साथ विश्वासघात किया। उपन्यासकार ने इस बात को बड़ी शिद्दत से उठाया है।          
    उल्लेखनीय है कि 1920 के दशक में किसानों के जो आंदोलन उठ खड़े हुए उनमें साधु-संतों की अग्रणी भूमिका रही। रूरे के बाबा रामचंद्र हों, उत्तरी बिहार में स्वामी विद्यानंद हों या राजस्थान में स्वामी कुमारानंद या महाराष्ट्र में आनंदस्वामी। 1939 के आस-पास स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसानों को लेकर जो आंदोलन चलाया, उसकी अखिल भारतीय स्तर उसकी पहचान बनी। उसके साथ सुभाषचंद्र बोस जैसे नेता भी जुड़ गए थे। इन संतों ने धर्म-कर्म को हाशिए पर छोड़ किसानों के साथ खड़ा होने में अपनी आध्यात्मिक ऊंचाई को देखा। इस कारण किसानों का आंदोलन अखिल भारतीय विद्रोह की शक्ल ले पाया। 
  कमलाकांत त्रिपाठी ने उपन्यास के नायक बाबा रामचंद्र की जो मूर्ति गढ़ी है, वह काल्पनिक नहीं, ऐतिहासिक है।बाबा रामचंद्र के बारे में इतिहासकार सुमित सरकार ने लिखा है, ‘बाबा रामचंद्र नाम के एक संन्यासी जो फिजी में अनुबंधित श्रमिक रह चुकने के बाद उस जिले में आए थे। बाबा रामचंद्र के आंदोलन की विशेषता यह थी कि इसमें किसानों की एकजुटता की अभ्यर्थना के साथ ही रामायण का और जातिगत नारों का प्रयोग किया जाता। प्रतापगढ़ के रूर गांव को पहली किसान सभा का स्थल चुना गया, स्पष्टतरू इस कारण से कि रामचरित मानस में इसका उल्लेख मिलता है। हाल ही में प्राप्त बाबा रामचंद्र के निजी कागजात में एक ‘कुर्मी क्षत्रिय सभा’ का उल्लेख मिलता है, जिसकी उन्होंने बाद में स्थापना की। इस सभा की मांगें और तरीके पर्याप्त सामान्य थे-महसूलों एवं बेगार की समाप्ति, बेदखल की गई भूमि पर काश्त करने से इनकार, दमनकारी जमींदारों का सामाजिक बहिष्कार (नाई-धोबी बंद)जिसे पंचायतों के माध्यम से लागू किया जाता था। किंतु इस किसान आंदोलन की वास्तविक शक्ति तो सितंबर 1920 में ज्ञात हुई जब किसानों ने एक शांतिपूर्ण किंतु विशाल प्रदर्शन करके बाबा रामचंद्र को जेल से रिहा करा लिया जिन्हें झूठे मामले में फंसाकर गिरफ्तार कर लिया था। इस बीच आंदोलनकारियों ने गौरीशंकर मिश्र, जवाहरलाल नेहरू से संपर्क स्थापित कर लिया था। जून 1920 में बाबा रामचंद्र सैकड़ों किसानों को लेकर इलाहाबाद गए थे और यहीं से आरंभ हुआ था जवाहरलाल नेहरू का ‘किसानों के बीच भ्रमण’ जिसका आगे चलकर उन्होंने अपनी आत्मकथा में अत्यंत सजीव चित्रण किया।’ किसान आंदोलन पर जब गांधीवादी कांग्रेस का प्रभुत्व आंरभ हुआ तो किसान आंदोलन प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। प्रायरू किसानों के इस आंदोलन को कांग्रेस के नेता समर्थन नहीं देते। उपन्यासकार ने आरंभ में ही इस पर संदेह व्यक्त किया है-
‘ऐसा नहीं है गया, बात समझा करो।’ जवाब झिंगुरी सिंह ने दिया, ‘दोनों काम जरूरी है। जब जिसकी तरक आ पड़े।...तुम कह रहे थे गांधी बाबा को लिखो। वह भी किया जाएगा। लेकिन मेरी समझ में उससे कुछ होने वाला नहीं है। उनके सामने हजारों काम हैं। है कोई राजकुमार सुकुल जैसा जो उन्हें घेरकर यहां लाए?...चंपारन की बात और थी। वहां अंग्रेजों की जमींदारी थी। मुझे तो नहीं लगता, देशी तालुकेदारों के खिलाफ कांग्रेस उस तरह खुलकर सामने आएगी।’ सुमित सरकार की माने तो ‘किसानों की मांग उठाने में कांग्रेस स्पष्ट रूप से बार-बार असफल रही थी जिससे उनका मोहभंग हुआ और 1920 के मध्य दशक में उन्होंने नई विचारधाराओं की खोज आरंभ कर दी थी। 1922 में स्वामी विद्यानंद ने जमींदारी समाप्त करने की मांग उठाई और बाबा रामचंद्र ने नवंबर 1925 में लेनिन को ‘किसानों का प्यारा नेता’ बतलाते हुए कहा कि ‘रूस के अतिरिक्त किसान अब भी सर्वत्र दास हैं’।...किसान चाहे स्वराजी हो या अपरिवर्तनवादी, उनके जमींदारों अथवा मंझोले जोतधारियों के साथ दृढ़ संबंध होते थेे, और इस कारण वे किसानों की मांगों के प्रति प्रायरू उदासीन रहते थे।’
हेरोल्ड ए गोल्ड ने ‘बाबा एंड नान-कोआपरेशन   रू कांग्रेस-को-आप्शन आफ अग्रेरियन अनरेस्ट इन नार्थ इंडिया इन द 1920 एंड 1930’ में लिखा है, ‘असहयोग आंदोलन ने अपने प्रारंभिक काल में कृषक आंदोलन को उत्प्रेरित किया ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि गांधी से प्रभावित कांग्रेस उनके साथ वैचारिक सहमति के स्तर पर थी बल्कि किसानों की नजर में गांधी ही खुद कांग्रेस थे। आम जनता की नजर में गांधी खुद ही एक संदेश थे। वह एक विशिष्टड्ढ राजनीतिक संत के रूप में स्वीकृत थे, जिनके दर्शन से लोग आध्यात्मिक शक्ति महसूस करते थे।’ उसी लेख में ज्ञानेंद्र पांडे यह उद्धरण भी देखें- ‘1921-22 तक अवध का किसान आंदोलन एक निश्चित मुकाम अपनी पारंपरिक सीमाओं के बावजूद प्राप्त कर सका था। हालांकि यह स्थानीय स्तर पर बना रहा और पूरे देश दुनिया से अलग-थलग रहा। इससे उबरने के  लिए एक साम्राज्यविरोधी शक्ति की जरूरत थी। कांग्रेस इस भूमिका के अनुकूल थी लेकिन इसके बढ़ते शहरी और ग्रामीण बुर्जुआ आधार के कारण पार्टी ने पहले ही किसान आंदोलन की ओर पीठ कर लिया था।’ यहां यह भी ध्यान रखें कि गांधी की छवि अजीब थी। एक तरफ वह किसानों के दिलों में बसे हुए थे। वहीं इनसे संबंधित अफवाहों को किसान जमींदार विरोधी मोड़ दे रहे थे। किंतु साथ ही स्वयं वे अपनी उपलब्धियों का श्रेय भी गांधीजी को दे रहे थे। कारण कि प्रतापगढ़ में बेदखली पर जो राके लगी थी वह बाबा रामचंद्र जैसे स्थानीय नेताओं के नेतृत्व में किसानों के संघर्ष का ही परिणाम था।’ (सुमित सरकार, आधुनिक भारत, पेज 202)
उपन्यास के राजनीतिक आशयों के मद्देनजर देखें तो कांग्रेस और नेहरू की जो छवि उभरती है, वह किसानों के विरोध में जाती है। पवन कुमार वर्मा (भारत में मध्य वर्ग की अजीब दास्तान) ने नेहरू के हवाले से लिखा है, ‘मेरी राजनीति मेरे वर्ग यानी पूंजीपति वर्ग की राजनीति थी।’ जाहिर है, नेहरू का यह चरित्र बार-बार उजागर हुआ है। आजादी के बाद नेहरू की छवि को गढने का काम कई लोगों ने किया। उदयन शर्मा, रामचंद्र गुहा, एम जे अकबर, सुनील खिलनानी जैसे लोगों के साथ इतिहासकारों का एक वर्ग में इस काम को बड़े प्रोफेशनल ढंग से अंजाम दिया। फिर भी, नेहरू के अंदर कुछ साफगोई थी। व्यावहारिक स्तर पर जो भी रहा हो, पर सैद्धांतिक स्तर पर वे अपने समकालीन साथियों से किसानों और मजदूरों के मामले में आगे थे। जैसा कि पवन कुमार वर्मा कहते हैं-
‘अगर गांधी ने अपने राजनीतिक मुहारवरे का इस्तेमाल करके जनता की भागीदारी सुनिश्चित की, तो नेहरू सैद्धांतिक स्तर पर अपने साथियों से किसानों और मजदूरों के काम-काज में महत्व देने पर जोर देने के मामले में बहुत आगे थे। अपने राजनीतिक जीवन के काफी शुरुआती दौर में ही वे गरीब कृषक वर्ग की खस्ता हालत से परिचित हो गए थे। उस वक्त भी वे यह एहसास कर सकते थे कि शहरवासी खेतिहर हालात से कितने नावाकिफ हैं, अखबारों में देहाती क्षेत्रों के विकास के बारे में एक भी पंक्ति नहीं छपती है और अगर छपती भी है तो जमींदारों के हितों की बात कहती हुई सुनाई देती है।’ विडंबना यह है कि जिस व्यक्ति ने इन्हें किसानों के दुख-दर्द से परिचित कराया, उसके साथ ही नेहरू विश्वासघात करते हैं। वह व्यक्ति और कोई नहीं, बाबा रामचंद्र थे। वह इस बात से आतंकित थे कि बाबा का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। उपन्यासकार ने लिखा है, बाबा रामचंद्र का प्रतापगढ़, रायबरेली, बाराबंकी जिलों में प्रभाव बढ़ता जा रहा था। सभाओं की धूम मच गई थी। उनके बढ़ते प्रभाव से आतंकित तालुकेदारों और सरकारी हाकिमों में खलबली मच गई। जगह-जगह बाबा के भाषण किसानों में ओज भर देते। बाबा के भाषणों की खबर पढकर हाकिमों के होश गुम हो जाते। सीआईडी की रपट के अनुसार बाबा पर सीधे राजद्रोह का मुकदमा बनता हैै। लेकिन उन्हें पकडने की हिम्मत किसी में नहीं। प्रतापगढ़ में जब वे गिरफ्तार हुए तो किसानों को इतना हुजूम इक ऋा हुआ कि अंततरू प्रशासन को छोडना पड़ा। उनकी ऊंचाहार में होने वाली सभा को लेकर प्रशासन की नींद हराम है। उन्हे ऊंचाहार की सभा में न जाने देने की योजना बनने लगी। इस योजना में कांग्रेस और सरकार दोनों शामिल थे। उन्हें बिना बताए पहले लखनऊ ले जाया गया और उन्हें नजरबंद कर दिया गया। इसके बाद उन्हें खिलाफत दफ्तर ले जाया गया। वहां बाबा के चीख पुकार मचाने के बाद मौलाना बारी आए। उनके हाथ में एक तार था। उसे दिखाकर बोले-शौकत अली और महात्मा गांधी ने संदेश भिजवाया है कि बाबा रामचंद्र को वहां से कहीं न जाने दिया जाए। सुनकर बाबा सन्न रह गए।
लेखक लिखता हैै, ‘इलाहाबाद में बैठे कांग्रेसी नेता, जैसे भी हो, किसानों को असहयोग के रास्ते पर खींचना चाहते थे। पर असहयोग आंदोलन के तालुकेदारों के खिलाफ विद्रोह के लिए कोई जगह नहीं थी।...लेकिन बाबा रामचंद्र और उनके साथियों की मुख्य लड़ाई तो तालुकेदारों से ही थी। इसलिए वे कांग्रेसियों की आंख में गडने लगे थे।’ इसके बाद अंधेरे में ट्रेन से बाबा को बुरके में इलाहाबाद लाया गया और आनंद भवन में कैद कर दिया गया। दिन में मोतीलाल नेहरू और गौरी शंकर मिश्रा से मुलाकात हुई। मोतीलाल ने हाल चाल पूछा और फिर जोर देकर कहा कि ‘किसानों को असहयोग आंदोलन में कांग्रेस का साथ देना चाहिए।’ बाबा आनंद भवन की गतिविधियों को देख रहे थे। दोनों नेहरूओं की दिनचर्या को भी भांप रहे थे। बाबा बाहर जाने की बात करते तो उन्हें गिरफ्तारी का भय दिखाकर चुप करा दिया जाता। कुछ दिनों बाद अंततरू बाबा झिंगुरी सिंह, सहदेव सिंह व उनके साथियों के सहयोग से रात के अंधेरे में आनंद भवन की कैद से मुक्त हो गए। मुक्ति के बाद एक-एक कर रायबरेली और दूसरी जगहों की घटनाओं से वाकिफ  हुए। लूट-पाट से लेकर आंदोलन के दौरान किसानों पर चली गोली की घटनाएं बाबा ने तफ्सील से सुनी। बाबा की छवि गांधी की तरह बन गई थी। किसान उन्हें त्राता समझता। गांधी दूर-देहात गांवों में भी बेहद लोकप्रिय थे। जैसा कि ज्ञानेंद्र पांडेय ने ऊपर लिखा भी है। पर, दुख यह था कि गांधी ने किसानों की समस्याओं से अपने को दूर ही रखा। जो वर्ग इन्हें अपना मुक्तिदाता समझ रहा था, वह वर्ग गांधी की चिंतन की परिधि से बाहर था। उपन्यासकार ने लिखा है,
‘असहयोग के काम के सिलसिले में गांधीजी इलाहाबद आए थे। उन्तीस नवंबर को उनका प्रतापगढ़ दौरा हुआ। साथ में मोतीलाल नेहरू, अबुल कलाम आजाद और शौकत अली भी थे। कचेहरी से लगे खेल के मैदान में उनकी सभा हुई। गांधीजी ने भाषण दिया। लेकिन उसें किसानों और तालुकेदारों के झगड़े का कोई जिक्र नहीं था। उन्होंने बाबा रामचंद्र का नाम तक नहीं लिया। किसान नेताओं से मिलने, उनकी समस्याओं को समझने की उन्होंने कोई जहमत नहीं उठाई। हां, राजा प्रतापगढ़ के महल में तालुकेदारों के साथ उनकी गुफ्तगू जरूर हुई। बाद में इलाहाबाद में किसानों के नाम जो संदेश जारी किया उससे जाहिर था कि तालुकेदारों की शिकायतों को उन्होंने कितनी तरजीह दी थी।’
गांधी का एक रूप यह भी था। जबकि वहां के डिप्टी कमीश्नर ‘वीएन मेहता ने गांव-गांव घूमकर किसानों की शिकायतें सुनी। कुल सत्रह सौ किसानों के बयान दर्ज किए। ढेरो दस्तावेज एकत्रित किए। बाबा ने पूरा सहयोग दिया।’ नतीजा सिफर रहा। क्योंकि किसानों के हितैषी इस अधिकारी का वहां से स्थानांतरण कर दिया गया। गांधी चुप हैं, नेहरू चुप हैं। सारी बस्ती जलाकर खाक कर देने वाले तालुकेदारों के प्रति गांधीजी मेहरबान हैं। लेकिन किसान, जो केवल पेट भर खाना, तन ढकने को कपड़ा और वाजिब मालगुजारी अदा करने की सुविधा मांगते हैं, गलत थे। इस परिप्रेक्ष्य में रजनीपाम दत्त के विचारों को भी देखा जा सकता है। ‘आज का भारत’ के द्वितीय संस्करण की भूमिका में वे लिखते हैं- ‘गांधी ने अहिंसा के नाम पर हमेशा जमींदारों और जमीन-जायदाद वालों के हितों की हिफाजत की। उनका सामाजिक नजरिया घोर रूढि़वादी था। उन्होंने जिस भी जनसंघर्ष की शुरुआत की, उसे ठीक उसी समय रोक दिया जब वह जमीन जायदाद वालों और साम्राज्यवाद के हितों के खिलाफ क्रांतिकारी तेवर अपनाने लगा था।’                              (पेज-4)
बेशक रजनीपाम दत्त से पूरी तरह सहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन उनकी बातों की इस सचाई को यह उपन्यास ताकीद तो करता ही है।
उपन्यासकार ने इतिहास से पात्रों को उठाकर जिस कथा की सृष्टिड्ढ की है, वह अपने किस्सागोई में सफल है। अवध के किसान आंदोलन को केंद्र में रखकर लिखा गया यह उपन्यास अपनी प्रामाणिकता के कारण दस्तावेज बन जाता है। वहीं वह आजादी के चर्चित ‘नायकों’ की बहुप्रचारित-स्थापित छवियों की वास्तविकता से परिचित भी कराता है। उनकी भूमिका और प्रतिबद्धता किसके साथ जुड़ी थी, उनकी प्राथमिकता में पहले कौन थे, कौन सा वर्ग था आदि-आदि के बारे में बहुत ही स्पष्ट ढंग से उपन्यास में बात की गई है। यहां धर्म की निस्सारता भी है तो जाति-पांति की घातक प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने की छटपटाहट भी। इसी कारण बाबा रामचंद्र, जो महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण हैं, कुर्मी बिरादरी में घर जोड़ते हैं और वहीं अंततरू रह जाते हैं। अब इलाके वाले बाबा की खिडकी से ही बाहर की दुनिया देखते हैं। कारण, बाबा अक्सर कभी इलाहाबाद, कभी प्रतापगढ़ तो कभी लखनऊ की यात्रा करते और आने के बाद  राजनीतिक हलचलों से गांव वालों को अवगत कराते।
 कमलाकांत त्रिपाठी ने बहुत ही मनोयोग और शोध करके इस उपन्यास का सृजन किया है। यदि उपन्यास की अपनी भाषा नहीं होती तो यह कृति उतनी प्रामाणिक सिद्ध नहीं होती, जितनी है। कृति में भाषा अपनी संवेदना और देशज अंदाज के साथ मौजूद है। ऐसे-ऐसे शब्द यहां मौजूद हैं, जो अब शायद ही सुनने को मिलते हैं-देश-पवस्त और नाते-रिश्तेदारियों में नेवहड़ छौंकता, गप्पे मारता घूमता था, (पेज6), ऐसे ही मेल्हते रहे तो खेत तक पहुंचते दिन लटक जाएगा देबीदीन (पेज 10), किसान खरमिटाव करके उठ खड़ हुए (पेज 18), पर कुर्मियों के बारे में धारणा थी कि वे बाहर से फटेहाल दिखते थे पर अंदर से पोढ़े थे (पेज 19)। 
उपन्यास का सार्थक शीर्षक भी ध्यान खींचता है। आज बेदखली की चर्चा दूसरे रूपों में होने लगी है। औद्यागिक क्रांति ने एक नया शब्द दिया है ‘विस्थापन’। अब किसानों को सरकार बेदखल कर रही उनकी जमीनों से ही नहीं, उनके अपने घरों से भी। पहले उनकी जमीन ही जाती थी, अब तो वे बेघर भी होते जा रहे हैं। यह दोहरी पीड़ा आज के उत्तर आधुनिक युग में लोग झेल रहे हैं। झारखंड का काठीकुंठ हो या बंगाल का सिंगूर या नंदीग्राम, उत्तरप्रदेश का दादरी हो या उड़ीसा का कलिंगा। हम फिर से इतिहास को दुहारने के लिए खड़े हैं। नई औपनिवेशिक सत्ता अपने खूनी पंजे पसार रही है, जहां सिवाय आत्महत्या के कोई दूसरा विकल्प नहीं है। किसानों की आत्महत्या को पढने की जरूरत है। आज किसान फंस रहा है तो कल दूसरे लोग भी इस पंजे में फंस सकते हैं....।

ेतू मुखिवा को मारकर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे

हिंदी सिनेमा में कलात्मक फिल्मों को समानांतर सिनेमा, कला फिल्में या क्लासिक फिल्मों के खाते में डाल दी जाती हैं। प्रकाश झा की जब दामुल आई तो इसे भी क्लासिक फिल्मों के खाते में डाल दिया गया। भारत में मुख्यधारा की जो फिल्में बनती हैं और जिसे बहुसंख्यक दर्शक देखना पसंद करते हैं, वह ऐसी फिल्में होती हैं, जहां हल्के-फुल्के विषय होते हैं, मधुर संगीत होता है, नाच-गाने होते हैं। यही मुख्यधारा का सिनेमा है और इसी के बूते हमारा हिंदी फिल्मों का उद्योग चल रहा है। इससे इतर जो निर्देशक थोड़ा गंभीर विषय का चुनाव करते हैं और ऐसी फिल्में, जो विशिष्ट दर्शकों की अपेक्षा करती हैं, इन्हें सार्थक या कला फिल्मों की कतार में खड़ा कर दिया जाता है। जब 1984 में प्रकाश झा की दामुल आई तो हिंदी सिनेमा की एकरसता में टूटन हुई। इसे कला समीक्षकों ने समानांतर सिनेमा के रूप में दर्ज किया। प्रकाश झा की ऐसी मंशा हो, चाहे न हो, लेकिन समीक्षकों ने इसे इसी रूप में लिया और दर्शकों के बीच भी यह फिल्म पसंद की गई। यशस्वी कथाकार शैवाल की कहानी दामुल की कथा पर बनी यह फिल्म अपने कहानीपन, अभिनय क्षमता, अद्भुत पृष्ठभूमि के रचाव से जो कलात्मकता का दर्शन कराती है, उससे दर्शक प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। कहीं नामवर सिंह ने लिखा है कि साधारण लिखना बहुत कठिन होता है। उसी तरह रोजमर्रें की जिंदगी के फलसफे को पर्दे पर उतारना अपेक्षाकृत जबरदस्त हुनर की मांग करता है। हुनर ही नहीं, उस समझ की भी मांग करता है, जो फिल्म की कथा चाहती है। बिहार के इस प्रतिभावान निर्देशक ने कुछ ऐसा ही शास्त्रीय रचाव पैदा किया। शैवाल ने कहानी की पृष्ठभूमि में जहानाबाद को लिया है। (हालांकि फिल्म में मोतिहारी है) यह जहानाबाद बिहार की राजधानी से पचपन किमी दूर है। यह वही जहानाबाद है, जहां नक्सली प्रयोग से लेकर जेलब्रेक की घटनाओं ने देश के लोगों का ध्यान खींचा। इसी जिले के एक गांव की यह कथा है। गांवों में जैसा कि अमूमन होता है, दलित और पिछड़ों का भाग्य उन पर निर्भर करता है, जिसे माक्र्सवादी भाषा में सामंत कहते हैं और देशज भाषा में जमींदार। इस गांव का जमींदार परंपरा के विपरीत ठाकुर (राजपूत) नहीं, ब्राह्म्ण होता है और यही खलनायक है। बेकारी कराते-कराते छोटे जोतदारों की जमीने कैसे इस जमींदार की हो जाती है, यह उन किसानों को नहीं पता।
  मध्यकाल में जब जमींदारों का उदय हुआ तो खेतों के ये रखवाले हो गए। कुछ ऐसे लोगों के पास परंपरागत जमीन थी। कुछ लोगों ने जंगल साफ करके खेती लायक जमीन बनाई। यह उतनी ही जमीन होती, जितनी उसकी उपज से परिवार का निर्वहन हो सके। बाद में जब मुगल बादशाहों ने जमींदारों को पैदा किया तो किसानी पर ध्यान न
 अजीब लगता है कि एक ओर हम कहते हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है और दूसरी ओर रोज किसानों की आत्महत्या की खबर पढ़ते हैं। अभी शिवमूर्ति का नया उपन्यास आखिरी छलांग इसी समस्या को गंभीरता से उठाता है। कथा साहित्य में इस समस्या पर कई लोगों ने अपनी कलम चलाई है। प्रेमचंद के गोदान से लेकर रेणु की परती परिकथा और मिथिलेश्वर के माटी कहे कुम्हार से तक की औपन्यासिक यात्रा में किसान, गांव, खेत-खलिहान देखे जा सकते हैं। जमींदारी के कारण कैसे उग्रवाद ने पांव जमाया, मिथिलेश्वर ने अपने इस उपन्यास में दर्ज किया है। फिल्मों में भी यह विषय अछूता नहीं रहा। मदर इंडिया से लेकर  विमल राय की दो बीघा जमीन में आखिर एक किसान का ही दर्द छलकता है। विमल राय ने जमींदारों के उत्पीडन को बड़ी बारीकी से उभारा है। जमींदारों की क्रूरता हिंदी फिल्मों का मसाला रहा है। किसान के लिए धरती माता है। इसलिए वह अपने खेत से उसी तरह जुड़ता है, जिस तरह एक बेटा अपनी मां से। लेकिन जब कोई उसके इस खेत को अपनी मिल्कियत बना लेता है तो वह बर्दाश्त नहीं कर पाता। कम से कम भारत में जितने आंदोलन हुए हैं, उनके पीछे कहीं न कहीं जमीन के सवाल ही जुड़े रहे हैं। झारखंड के आदिवासी अपनी जमीन को लेकर 1831-32 से ही लड़ते आ रहे हैं। तब अंग्रेजों से लड़ते थे। आज अपने लोगों से लड़ रहे हंै। यह भी ध्यान रखें के सत्तर के दशक में नक्सलवाद के पैदा होने के पीछेे जमीन ही मुख्य कारण रहा। जमीन के टुकड़ों ने ही नक्सलवाद को पैदा किया है। जमीन का मामला अपने देश में कितना क्रिटिकल है यह इस बात से जाहिर होता है कि विनोबा भावे को भूदान यज्ञ जैसे दीर्घजीवी कार्यक्रम चलाने पड़े। इस यज्ञ में जमींदारों ने अपनी जमीनों की आहुति तो दी, लेकिन उनकी दबंगई कम नहीं हुई और जमीन उनके हाथ में ही पड़ी रही। जिनके नाम जमीन दी गई उन्हें कभी जमीन पर कब्जा दिलाया ही नहीं गया। कारण स्पष्ट था। सत्ता, सरकार, प्रशासन में दलितों-भूमिहीनों की कोई आवाज सुनने वाला नहीं था न उनका कोई प्रतिनिधित्व। लिहाजा उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर दम तोड़ गई। इन स्थितियों ने ही वर्ग संघर्ष का रास्ता तैयार किया। बिहार में इसका सबसे पहला शिकार मुजफ्फरपुर का मुसहरी गांव बना। इसके बाद तो भोजपुर का इलाका वर्ग संघर्ष की आग में धधक उठा। फिर दूसरे इलाकों में इसने पांव पसारे। इसी में से एक जिला जहानाबाद भी था। इस जिले में कई बड़े नरसंहार हुए, जिसने पूरे देश का ध्यान खींचा। इन सबके बीच असल मसला जमीन का ही था। आज भी यह क्षेत्र रह-रह कर धधक उठता है।
  आजादी के बाद भूमि सुधार कानून बनाने वाला बिहार पहला राज्य था। लेकिन इकसठ सालों बाद भी यह कानून प्रभावी नहीं हो सका। क्योंकि नौकरशाही में इसी वर्ग का हस्तक्षेप थाध् है। न्याय भी उनके लिए दुर्लभ था। पुलिस-थाना-कचहरी इस वर्ग के लिए नहीं थी। यही कारण है कि बिहार में सबसे अधिक किसानों के आंदोलन खड़े हुए। स्वामी सहजानंद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन, कार्यानंद शर्मा जैसे लोगों ने किसान आंदोलन चलाए। भूमिहीन एवं गरीब किसानों को अपनी शक्ति बनाया। बावजूद इसके यह समस्या खत्म नहीं हुई। आज एक ओर नक्सली खड़े हैं तो दूसरी रणवीर सेना खड़ी है। आखिर यह कौन पूछेगा कि जब 1952 में जमींदारी खत्म कर दी गई तो उसका अस्तित्व क्यों और कैसे बचा हुआ है?
   सत्तर और अस्सी के दशक में जब जमीन की कीमतों के भाव बढने लगे तो गांव भी इससे अछूता नहीं रह सके। गांव में जमीनों को लेकर संघर्ष की नई इबारतें लिखी जाने लगीं। इन संघर्षों को दबाने के लिए सरकारी और गैरसरकारी प्रयास भी खूब हुए, लेकिन ये सारे प्रयास व्यर्थ साबित हुए। प्रधान हरिशंकर प्रसाद ने लिखा है कि भूस्वामियों और पुलिस के गठजोड़ ने निर्ममता से हमला बोला और यह सुनिश्चित किया कि इन हमलों की खबर बुर्जुआ अखबारों तक नहीं पहुंचे। लेकिन कुछ घटनाएं इतनी जघन्य थीं कि वे दबाई नहीं जा सकीं। इन घटनाओं ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। खास तौर पर विधानसभा के भूतपूर्व स्पीकर द्वारा 1971 में रूपसपुर-चंदवा में कराए गए जनसंहार और गहलौर तथा चैरी की घटनाओं ने।...श्री प्रसाद ने माना कि यह टकराव गहन होते शोषण और साथ ही उसके तेज होते प्रतिरोध की अभिव्यक्ति थी। (खेतिहर समाजरू प्रधान हरिशंकर प्रसाद, पेज 115)                                                   
  इस तरह बिहार के भूमिहीन किसान या छोटे किसान सामंतों की चंगुल से निकलने के लिए छटपटाने लगे। इसी दौर में नक्सलवादियों का प्रभाव विस्तार पाता है। प्रकाश झा ने इस समस्या का जिस बारीकी से पर्दे पर उकेरा है, वह समस्या को समग्रता में देखने की उनकी परिपक्व दृष्टि का उम्दा उदाहरण साबित होता है।
  श्याम बेनेगल अपने एक साक्षात्कार में बताते हैं कि हिंदी में 1970 के आस पास नए सिनेमा का दौर शुरू हुआ था और उस सिनेमा ने कई मायनों में एक आर्टिकुलेट मध्यम वर्ग, जो बहुसंख्यक नहीं बल्कि अल्पसंख्यक था, की रुचि को दर्शाया, उसकी जो सामाजिक चिंताएं थीं, वो फिल्मों में प्रतिबिंबित होने लगीं। अब उस मध्यम वर्ग की चिंताएं, उसके सरोकार ही बदल गए हैं। इसीलिए इस किस्म की फिल्मों को कोई देखने नहीं आता है। हालांकि वह यह भी जोड़ते हैं कि अब भी सामाजिक सरोकारों की फिल्में बनती हैं, लेकिन वो सामाजिक सरोकार ही बदल गए हैं। दूसरी बात यह है कि पहले ग्रामीण भारत में हम लोग बहुसंख्यक थे यानी ज्यादा ग्रामीण क्षेत्रों में कमाते खाते थे पर अब वह संतुलन भी बदल रहा है। तो स्वाभाविक है कि फिल्म उस बदलते संतुलन को दर्शाएगी।
श्याम बेनेगल अपने इसी साक्षात्कार में मानते हैं कि फिल्म का उद्देश्य सामाजिक बदलाव नहीं है, लेकिन वह आईना जरूरत बताते हैं। जैसा ऊपर उन्होंने कहा है। यह कहने में संकोच नहीं कि फिल्म भले समाज को बदलने का दंभ न भरे, लेकिन वह समाज का आईना बनती है और वह एक सीमा तक समाज को प्रभावित भी करती है। इधर की तमाम आतंक पर बनी फिल्मों में उस सच को पकडने की कोशिश की गई है। ए वेडनेस्डे, शूट आन साइट, मुुंबई मेरी जान...।
दामुल भी आईना है बिहार का। यह बिहार के सामाजार्थिक स्थितियों का खुलासा करती है। वर्गीय चरित्र को परत दर परत उघाड़ती है। राजनीतिक भ्रष्टाचार से जूझते और जातिवाद का दंश झेलते उन दलितों की असहायता को बिना किसी तर्क और लाग-लपेट के परोसती है, जिसे देखकर हिंदू समाज की उस जड़ता को समझ सकते हैं, जहां आदमी जनावर होने के लिए अभिशप्त है। प्रकाश झा इनसे बचने की कोशिश नहीं करते। समाज में जो घटित हो रहा था, उसे ही वे पर्दे पर पूरे कौशल के साथ उतार देते हैं। यह वही समय था जब केरल के अडूर गोपालकृष्णन मुखामुखम (1984) बनाकर आजादी के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के अंतरविरोध, बिखराव और अस्मिता के संकट को दर्शा रहे थे। यही वह समय है जब प्रकाश झा दामुल के जरिए बिहार के खदबदाते समाज की बेचैनी को अपनी कल्पनाशीलता के साथ समझने की कोशिश कर रहे थे। प्रकाश झा की एक खूबी यह है कि वह किसी भी समस्या को समग्रता में देखते हैं। इसी क्रम में देखें तो वे अपने अभिनेताओं का चयन भी बहुत सोच समझकर करते हैं। मनोहर सिंह, अन्नू कपूर, दीप्ति नवल, सीमा मजूमदार, रंजन कामथ, प्यारे मोहन सहाय जैसे मजे हुए कलाकार फिल्म को प्रभावी बनाते हैं। कलाकारों ने जो अभिनय किया है, वह फिल्म को जीवंत बना देता है। उनकी दूसरी खूबी यह है कि वे अपने ऊपर तकनीक को हावी होने नहीं देते। तकनीक को अपने अनुकूल इस्तेमाल करते हैं। उनकी इस विशेषता को भी ओझल नहीं किया जा सकता कि वे फिल्म में बिहार के समाज, संस्कृति, परंपरा सभी कुछ का इस्तेमाल कर बिहार को पर्दे पर जीवंत करने की कोशिश करते हैं। उनकी दृष्टि मुंबइया निर्देशन पद्धति से अलग और अलहदा कही जा सकती है। शायद इसके पीछे उनका बिहारी होना भी हो सकता है। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वे फिल्म निर्माण के क्रम में किसी परंपरा या परिपाटी की लीक पर कभी नहीं चले। कथानक की संवेदना के भीतर से निर्देशन का कौशल फूंटता है। वह कभी कथानक पर निर्देशन के व्यक्तित्व को थोपते नहीं। उनके कथानक में एक केंद्रीय समस्या होती और उससे जुड़े सारे संबंद्ध सूत्रों को वे निर्देशन के क्रम में माला की मोती की भांति पिरो देते हैं। दामुल है तो बंधुआ मजदूर की कहानी, लेकिन कोई बंधुआ मजदूर कैसे बनता है, उसे किन-किन नारकीय परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है, न चाहते हुए भी उसे वह काम करना पड़ता है, जो वह नहीं चाहता, वैसे समाजों का वर्गीय चरित्र क्या है, पुलिस-सिपाही-कानून किसके इशारे पर नाचते हैं, ठेकेदारी और राजनीति के क्या अंतर्संबंध हैं, ओवसियर बाबू कैसे ठेका पास करते हैं, मजूदरों का शोषण कैसे होता है...ऐसे तमाम बिंदु हैं, जिसे प्रकाश झा अपनी अंतर्दृष्टि से देखते हैं, उकेरते हैं। ब्राह्मण और राजपूत के आपसी वर्चस्व में हरिजन और दलित कैसे पिसते हैं, यह प्रकाश झा की आंख देखती है। सोचना पड़ता है कि जिस प्रदेश में जगजीवन राम और कर्पूरी ठाकुर जैसे हरिजन-दलित राजनेता राजनीति के सर्वोच्च शिखर पर विराजते हैं, उस प्रदेश में उस समय तक कोई राजनीतिक जागरूकता पैदा क्यों नहीं हो सकी।              
सन 1990 के बाद मंडल आंदोलन के बाद ्रपिछड़ों के साथ दलितों में भी राजनीतिक चेतना विकसित हुई। पास का पड़ोस यानी उत्तर प्रदेश इस मामले में आगे रहा। कांशीराम ने उप्र में दलितों के भीतर राजनीतिक चेतना का प्रचार जरूर किया और वे अपने मताधिकार को लेकर बेहद जागरूक हुए। उनकी आर्थिक स्थिति में भले कोई क्रांतिकारी बदलाव के लक्षण न दिखते हों, राजनीतिक रूप में उनमें विलक्षण जागरूकता पैदा हुई है। कभी तिलक, तराजू और तलवार को जूते मारने वाली उनकी पार्टी अब तिलक के साथ सत्ता का सुख भोग रही है। सत्ता का अपना गणित होता है। वह अपने ढंग से आदमी को ढाल लेती है। मायावती भी अब ढल गई हैं। उनका दलित एजेंडा पीछे छूट गया है। पर, दामुल में दलितों के भीतर इतनी जागरूकता नहीं आई थी कि वे अपने शोषण का प्रतिकार कर सकते। बच्चा सिंह की खुन्नस यह है कि परधानी में माधो पाड़े ही जीतते आ रहे हैं। उन्हें हराने के लिए वे एक चाल चलते हैं और हरिजन टोले के गोकुल को चुनाव में खड़ा कर देते हैं। बच्चा सिंह हरिजन टोले में जाकर माधो पाड़े का कच्चा चिऋा खोलते हैं। कहते हैं छुआछूत, भेदभाव इ बाभन लोग का बनाया हुआ है। बच्चा सिंह अपनी चाल में सफल तो हो जाते हैं, लेकिन गोकुल चुनाव नहीं जीत पाता, क्योंकि बच्चा सिंह को छोडकर सभी राजपूत टोले के लोग अपने मत का प्रयोग करने नहीं जाते। बच्चा सिंह का तर्क भी कि, खड़ा किए हम, जिताएंगे हम तो राज कौन करेगा, चमार? कोई असर नहीं करता। उधर, बोगस वोट के जरिए माधो पाड़े चुनाव जीत जाते हैं। बाहर के गुंडों को बुलाकर हरिजनों को उन्हीं के एक अहाते में बंधक बना देने वाले माधो पाड़े अपनी चाल में सफल हो जाते हैं। पर, लंबे समय से चुनाव जितने की  तैयारी कर रहे बच्चा सिंह अपने ही लोगों से हार जाते हैं। मेले में उनका हरिजनों के साथ उठना-बैठना, उनकी बस्तियों में आना-जाना, उनके साथ अपनापन पैदा करना सब कुछ बेकार चला जाता है। गांव की परतदार राजनीति में जातियां कैसे मोहरा बनती हैं, यह छिपा नहीं रहता। कहना न होगा कि जाति की राजनीति से छोटी पंचायत से लेकर बड़ी पंचायत तक आज भी मुक्त नहीं हो सकी है।
  गोकुल की वह आशंका भी सच साबित होती है कि इस चुनाव में बहुत खून खराबा होगा। उनका तो कुछ नहीं बिगड़ता। लेकिन हरिजन टोला मातमी माहौल में बदल जाता है। इस फिल्म में इतना सब कुछ होने के बावजूद भी हरिजन टोले में जमींदारों के प्रति कोई आक्रोश पैदा नहीं होता। माधो पाड़े ऐसा कोई कुकर्म नहीं, जो नहीं करते। महत्माइन (जो जवानी में ही विधवा बन जाती हैं) की जर-जमीन ही नहीं उसकी देह को भी नोचता है। जब माधो पाड़े के भाई राधो पाड़े के लोग हरिजन बस्ती में इस बात के लिए आग लगा देते हैं कि मजदूर पंजाब जा रहे थे कमाने के लिए। आग लगने और दर्जनों की हत्या करने के बाद माधो पाड़े बच्चा सिंह से मिलते हैं और गिला-शिकवा दूर कर साथ देने की बात करते हैं। बच्चा सिंह माधो पाड़े से मिल जाते हैं। इसके बाद तो फिर पुलिस, नेता, कानून हरिजनों के दर्द को कैसे समझते? लेकिन जब यही महत्माइन माधो पाड़े के खिलाफ उठ खड़ा होती हैं तो माधो पाड़े रात में उनकी हत्या करा देता है और संजीवना को उसकी हत्या में फंसा देता है। यह संजीवना उनका बंधुआ है। उनके लिए, अपने बाप का कर्ज चुकाने की एवज में गाय-बैल चोरी करने के लिए विवश होता है। सादे कागज पर अंगूठा लगवाया जाता है। उसके सामने कोई विकल्प नहीं बचता। उसकी भलमनसाहत कि बाप का कर्ज हम नहीं चुकाएंगे तो कौन चुकाएगा? पता नहीं बाप ने कर्ज लिया भी था या नहीं। लेकिन माधो पाड़े का बही-खाता तो यही बोलता है।
   कानून तो उनके लिए है जो ताकतवर हैं।  संजीवना तो बंधुआ था। जिस जाल में माधो संजीवना को फंसा देते हैं वह उसके लिए दामुल साबित होता है। उसे महत्माइन की हत्या में फांसी हो जाती है। माधो एक तीर से दो शिकार करते हैं। गरीब आदमी कैसे अपना केस लड़ सकता है। लड़ भी जाए तो कैसे वह जीत सकता है। सभी तो उसी जात और जमात के लोग हैं। 
  प्रकाश झा ने कानून की नब्ज को पकडने की कोशिश की है। न्यायपालिका पर अब भी लोगों का भरोसा है, लेकिन इसी न्यायपालिका पर गरीबों की आस क्यों नहीं जगती। इस पर हमारी न्यायपालिका बहुत संजीदा नहीं है। बड़े लोग कानून की मार से बच निकलते हैं। अपवाद ही होता है कि कोई रसूख वाला सजा का हकदार हो जाए। सवाल है, क्या कानून सचमुच अंधा होता है? आखिर, उसकी आंख की पट्टी कब खुलेगी? 
  प्रकाश झा दामुल से लेकर अपहरण की यात्रा को बिहार की राजनीतिक यात्रा के बतौर देखते हैं। वह कहते हैं कि मेेरी फिल्में समाज के वर्तमान बदलते परिदृश्य और उभरते समीकरण को रेखांकित करती हैं। दामुल से लेकर मृत्युदंड, गंगाजल से लेकर अपरहण तक बिहार के तीन दशकों की राजनीतिक यात्रा को दर्शाती हैं। प्रकाश झा इन फिल्मों को किसी खास श्रेणी में रखने की अपेक्षा नहीं करते। उनकी फिल्मों को किसी खांचें में नहीं रखा जा सकता है। क्योंकि उनकी कोई भी फिल्म भले की किसी खास विषय पर केंद्रित हो, लेकिन वह अपनी पूरी समग्रता में रूपायित होती है। यह प्रकाश झा की विशेषता है। दामुल के बारे में उनके शब्द हैं, दामुल फिल्म इसलिए बन पाई कि मैं मूलतरू गांव का हूं और गांव की सामाजिक व्यवस्था और उसके पीछे की राजनीति को समझ सकता हूं। गांव की यह समझ ही गांव को उसकी समग्रता में पर्दे पर उतार पाने में प्रकाश झा सक्षम होते हैं। गांव में हाट-बाजार के दृश्य, संजीवना का पहनावा, हरिजन टोले की बस्ती और उनके लोगों का रहन-सहन, खेत-खलिहान, बोली-बानी इतना सजीव को उठता है तो यह उनकी गंवई मन मिजाज के कारण। लोकेशन, संवाद अदायगी, ग्रामीण समाज की जो झलक फिल्म में देखने को मिलती हैं, कहीं से बनावटीपन का अहसास नहीं होता। संपादन कला में निष्णात प्रकाश झा की यह फिल्म बहुस्तरीयता को व्याख्यायित करती है और कथानक चमत्कारिक ढंग से आगे बढ़ता है। गीत के नाम पर महज दो गाने और वह भी पारंपरिक। एक लौंडा नाच दूसरा कीर्तन। और ये गीत भी कथानक को आगे बढ़ाते हैं। संवाद भी आंचलिकता की महक से गमक उठते हैं-
-हमरा इज्जत डौन करना चाहता है।
-यहां बाभन लोग सबका खून चूस लेगा।
-तो का इन सालों से मीठा-मीठा बात करते।
-महत्माइन बहुत उड़ रही हैं मालिक।
-हमरा बात सुनेगा तो जिनगी भर कौनो तकलीफ नहीं होगी। बाप की जिम्मेदारी संभाल ले।
   गौर करने की बात यह है कि जो हरिजन बस्ती जमींदारों के शोषण-उत्पीडन के खिलाफ उठ खड़ा नहीं होता, उस समाज की एक औरत प्रतिकार करती है। जब माधो पाड़े ठंड की रात में अपने गुर्गों के साथ अलाव ताप रहे थे, रजुली (संजीवना की पत्नी)गंड़ासा लेकर आती है और सीधे माधो पाड़े के गले पर प्रहार कर देती है। माधो कुर्सी से गिर कर छटपटाने लगता है और अंततरू दम तोड़ देता है। रजुली को लोग पकड़ लेते हैं, रजुली तीव्र आक्रोश में फूट पड़ती है...तू मुखिवा को मारकर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे...।
 प्रकाश झा अपनी इस फिल्म में, जिसने कई अवार्र्ड जीते, ऐसा प्रयोग नहीं करते, जिससे लगे कि यह फिल्म में अनावश्यक और अप्रासंगिक है। वे सिनेमा की औपचारिक युक्तियों के साथ गांव के वृत्तांत को जिस ढंग से खोलते हैं, उसे सिनेमाई अभिव्यक्ति में एक मिसाल कही जा सकती हैै। संपादन, कैमरे का कोण, सूर्य के उदय और अस्त होते बिंबों के जरिए अपनी बात कहने की कला फिल्म को पूर्णता और सार्थकता प्रदान करते हैं। वे सीमाओं को तोड़ते भी हंैं, गढ़ते भी हैं। ऐसा इसलिए संभव हो पाया कि वे सीखने में विश्वास करते हैं। घूमना और समझना और उस समझ को पर्दे पर उतारना यही उनका शगल है। दामुल देखकर ऐसा महसूस किया जा सकता है।


रंगों की बारिश में उड़ती कटी पतंगें

कला और कलाकार एक दूसरे के पूरक हैं। कलाकार है तो कला है। कला है तो कलाकार हैं। रांची में कला का एक माहौल विकसित हो रहा है। तमाम युवा कलाकार सक्रिय हैं। राज्य की सरकार भी 14 सालों के बाद सक्रिय हुई है। हालांकि अभी तक यहां कोई आर्ट कालेज नहीं खुल सका है, जिसकी मांग यहां के कलाकार सालों से करते आ रहे हैं। फिर भी अपने स्तर से कलाकार एक माहौल तो बना ही रहे हैं। समय-समय पर मेकॉन जैसी संस्थाएं भी आगे बढ़कर कलाकारों की मदद करती हैं। इन्हीं कलाकारों में एक नाम कृष्णा प्रसाद का है।  
1975 में जन्मे कृष्णा प्रसाद कला के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनाई है। वैसे, वे डीएवी गांधी नगर, सीसीएल में वरिष्ठ कला शिक्षक हैं। पर यह किसी कलाकार की कोई बड़ी खासियत नहीं होती है। खासियत उनकी अपनी कला है। रंग वही, ब्रश वही, लेकिन काम करने का तरीका उनका अपना अलग है। वे अपने कैनवस पर रंगों की बारिश करते हैं। बारिश के बाद जैसे रंग ऊपर से नीचे एक लय में गिरते हैं और फिर जैसे बूंद सागर मे मिल जाती है, अंत भी कुछ ऐसा ही होता है। लाल, हरा, गुलाबी, पीला...ये चटख रंग हैं, लेकिन जल मिलाकर उसे हल्का कर लेते हैं। पूरा कैनवस एक अलग रंग में रंग जाता है। वह अपनी पृष्ठभूमि ऐसे ही बनाते हैं। इसके बाद आकृतियां आकार लेने लगती हैं। चेहरे से बाहर होती खुली एकटक निहारती आंखें। गोल, अंडाकार चेहरे। चटख रंग के कपड़े। कुछ तस्वीरों में वह आदिवासी संस्कृति को जीवंत करते हैं। मकानों पर पारंपरिक चित्रकारी, गांव का वातावरण, आस-पास झूलते पेड़। पहनावे में आदिवासी संस्कृति के साथ बांग्ला संस्कृति की छाप। इस तरह वह अपने समकालीन यथार्थ से मुठभेड़ करते हैं। रंग भी अपना प्रतिरोध दर्ज करते हैं। कृष्णा के काम का देखकर यह कह सकते हैं।
    कृष्णा की दूसरी पहचान भी है। वे थोड़ा समय चुराकर झारखंड के ग्रामीण अंचलों में घूमकर कला के प्रति बच्चों में जाग्रति भी पैदा कर रहे हैं। खुद के साथ बच्चों को भी कला के बारे में प्रशिक्षण देकर उन्हें आगे बढ़ाते हुए कला की समझ बढ़ा रहे हैं। वे फिलहाल, समकालीन कला पर काम कर रहे हैं। अपने गुरु जयपाल प्रसाद से प्रेरणा लेकर। पटना विश्वविद्यालय से कला में स्नातक कृष्णा ने खादी मेले में राज्य सरकार द्वारा आयोजित कला प्रदर्शनी में अहम भूमिका निभाई। इस तरह वे अपने सामाजिक सरोकारों को भी निभाते हैं।

'घेरे के बाहरÓ ही रहे द्वारका प्रसाद

     आज की पीढ़ी द्वारका   प्रसाद नाम के किसी रचनाकार से परिचित नहीं होगी, जबकि उन्हें दिवंगत हुए महज एक दशक ही बीते हैं। झारखंड का एक छोटा सा जिला है लोहरदगा। कभी रांची लोहरदगा में थी। अब रांची भी अलग जिला बन गई। इसी लोहरदगा में नौ अप्रैल, 1917 को द्वारिका प्रसाद का जन्म हुआ था और रांची में 21 जुलाई, 2005 को अंतिम सांस ली। उनकी पढ़ाई लोहरदगा, पटना और कोलकाता में हुई। घर से काफी संपन्न रहे। कोलकाता विश्वविद्यालय से उस समय उन्होंने मनोविज्ञान में एमए में टॉप किया और खूब चर्चा बटोरी थी। लिखने की लत बचपन से ही लग गई थी। महज 12 साल की उम्र में, जब बच्चे खेलते हुए बड़े होते हैं। उस समय की उनकी बालोपयोगी रचनाएं स्व. रामनरेश त्रिपाठी की पत्रिका 'बानरÓ में छपा करती थीं। बालकों के लिए लिखी गई उनकी कहानियां आगे चलकर 'परियों की कहानीÓ नाम से प्रकाशित हुईं। आगे चलकर 'जागरणÓ में भी छपे।
 प्रतिभा का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि 30 साल की उम्र में महज एक महीने में भारी-भरकम उपन्यास 'घेरे के बाहर लिखाÓ। छपते ही तहलका मच गया और रातोंरात चर्चा में आ गए। यह उपन्यास 1948 में छपा। मेरे पास जो संस्करण है, वह 1976 का है। यह पांचवां संस्करण है। लेखक ने इसका रचनाकाल भी बताया है। कब शुरू हुआ और कब खत्म। सूचना दी है, प्रारंभ 23-9-1947 और समाप्ति 20-10-1947। यानी, 617 पेज के उपन्यास को लिखने में महज एक महीने लगे। हालांकि हिंदी जगत में रातोंरात अपनी जगह बनाने वाली इस रचना को साहित्य के शुचितावादी पंडित पचा नहीं सके। शायद हिंदी में यह समय से बहुत पहले लिख दी गई थी। एक अजीब प्रेम कहानी। मन की परतों और सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ती हुई। आज की भाषा में इसे बोल्ड और बिंदास कह सकते हैं। ऐसा उपन्यास, जिसे आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने इसे हिंदी के दस सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में रखा तो शिवचंद्र शर्मा के दृष्किोण द्वारा आयोजित गैलपपोल में में इसे तत्कालीन उपन्यासों में चौथा स्थान हासिल हुआ। मजा यह कि दूसरी तरफ ऐसे आलोचकों का भी एक वर्ग था, जो घोर दुराग्रही, हठी और अपने ही संस्कारों का गुलाम था और इसे बहुत ही तंग नजरिये से देखता था। उसे यह उपन्यास भी यौनकुंठा ही लगा। इनका पलड़ा भारी रहा। इनकी वाचलता का असर यह हुआ कि तब के केंद्रीय शिक्षा मंत्राी अबुल कलाम आजाद ने उसे शिक्षण संस्थाओं और सार्वजनिक पुस्तकालयों के लिए प्रतिबंधित कर दिया और उस समय के बिहार के तत्कालीन शिक्षा सचिव जगदीश चंद्र माथुर ने 'आपत्तिजनक प्रेस सामग्री अधिनियमÓ के तहत जब्ती का आदेश दे दिया। तत्कालीन बिहार, तब झारखंड भी उसमें था, किताब दुकानों से उपन्यास को जब्त कर लिया गया या फिर जब्ती की भनक लगते ही दुकानदारों ने खुद ही अपनी दुकानों से इसे हटा दिया। आलोचकों की बात छोड़ दें तो हिंदी के किसी साहित्य के इतिहासकारों ने उनकी रचनाओं की चर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझा। वैसे हिंदी का जो घेरा था, वह आज भी बहुत संकीर्ण ही है, जहां झारखंड जैसे इलाके के मौलिक रचनाकार उनके घेरे से बाहर ही हैं। राधाकृष्ण को कहां वह स्थान मिला, जिसके वे हकदार रहे।
बहरहाल, 'घेरे के बाहरÓ उनकी आपबीती थी या जगबीती, कहना मुश्किल है, लेकिन यह यथार्थ से परे नहीं थी। रांची के मशहूर पुस्तक विक्रेता इंदुजी ने पुराने बंडलों में से इसे खोज निकाला। प्रतिबंध के बाद सालों से बंडल में ही पड़ी रही, जिसमें से अधिकांश को दीमक ने अपना ग्रास बना लिया था, किसी तरह एकाध प्रति ऐसी मिली, जिसे दीमक निवाला बनाने जा रहे थे। 'घेरे के बाहरÓ पाठकों द्वारा खूब पढ़ी गई और एक बार राजेंद्र यादव ने अपने हंस के संपादकीय में इसका जिक्र किया कि कैसे इस उपन्यास को तकिए के नीचे छिपाकर लोग पढ़ा करते थे।
 जाने-माने लेखक डॉ. श्रवणकुमार गोस्वामी से एक बार उनके आवास पर जब  द्वारका  प्रसाद के बारे में चर्चा छेड़ी तो उनकी दूसरी महत्वपूर्ण कृति 'पहिएÓ अपने बुकशेल्फ से ले आए। 'घेरे के बाहरÓ ने ऐसी मानसिकता पैदा की कि उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति 'पहिएÓ भी चर्चा से वंचित ही रही। जबकि पहली बार रांची से यह 1963 में प्रकाशित हुई और बाद में 1967 में दिल्ली से। द्वारिका प्रसाद अपने मुंबई प्रवास के दौरान एक बड़े अखबार समूह टाइम्स आफ इंडिया में काम किया था। वहां जो देखा, महसूस किया, उसे ही अपने इस उपन्यास में उतार दिया। किसी प्रकाशन समूह के अंदर लोगों के पिसने की कहानी पहली बार हिंदी में आई थी, लेकिन हिंदीवालों ने इसे कोई तवज्जो दिया ही नहीं जबकि 1967 में द्वारिका प्रसाद को लिखे पत्र में यशपाल ने इसकी खूब तारीफ की थी। यही नहीं, कुल डेढ़ दर्जन से अधिक उनके उपन्यास हें। दर्जनों कहानियां हैं। नाटक, ललित निबंध हैं। फिर भी हिंदी साहित्य समाज के घेरे से बाहर ही रहे। जब उनकी रचनाएं समाज, परिवार के भीतर दोहरे मापदंड के नकाब को उतारती हैं। कई कहानियां तो रांची से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'आदिवासीÓ में भी दिखीं।
अपने एक लेख, 'मैं उपन्यास कैसे लिखता हूं, में  द्वारका  प्रसाद अपने मन की गांठ खोलते हैं, 'प्रारंभिक परियों की कहानियों और शिकार कथाओं के लेखन की अवस्था से गुजरने के बाद मैंने हर प्रकार के अन्याय, अत्याचार, पांखड, चाहे वे सामाजिक थे, आर्थिक थे अथवा धार्मिक आदि के विरोध के उद्देश्य से लिखा। मैंने हमेशा व्यक्ति की महत्ता को सामने रखा। मैंने देखा था कि समाज के नाम पर समूह व्यक्ति को लगातार पीस रहा है। जो संपन्न थे, वे गरीबों को कुचल रहे हैं। सबसे अधिक पुरुष स्त्रियों का शोषण कर रहे हैं। पुरुष और स्त्री के आचरणों के दो अलग-अलग एक दूसरे के विपरीत मापदंड हैं। यह डबल स्टैंडर्ड मुझे हमेशा से कचोटता रहता हैै।Ó दरअसल, द्वारिका प्रसाद की रचनाओं का यही मूल स्वर है, जिसे वह अपने उपन्यासों में विन्यस्त करते रहे। पर यह घेरेबंदी वाले आलोचकों को नागवार लगता, जिसका खामियाजा इस लेखक को भुगतना पड़ा। हालांकि एक कमी भी उनमें थी। वह अपनी रचनाओं को दुबारा नहीं पढ़ते थे। एक बार लिख दिया सो लिख दिया। 
 द्वारका  प्रसाद का एक दूसरा पक्ष भी था। वह साइको थेरेपिस्ट थे। दिल्ली, मुंबई, मसूरी आदि स्थानों में रहे और चिकित्सालय चलाई। मनोविज्ञान पर पर कई पुस्तकें लिखीं और उनकी कई पुस्तकें देश के कई विश्वविद्यालयों के पढ़ाई जाती थीं। अपने समय की सर्वाधिक चर्चित पत्रिका 'नर नारीÓ का लंबे समय तक संपादन किया। बाद में 'हमारा मनÓ और 'हमदोनोंÓ का भी संपादन किया। इसी दरम्यान 1943 से 1947 के बीच लखनऊ से पचास खंडों प्रकाशित प्रथम विश्वकोश विश्वभारती के मनोविज्ञान खंड का संपादन भी किया और लिखा भी। वे मन के चिकित्सक थे। कई तरह के 'मनÓ के मरीज उनसे मिलते और उन्हें अपनी रचनाओं के लिए आधार सामग्री मिल जाती। इसलिए, उनकी रचनाओं का बड़ा हिस्सा स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंधों और वर्जनाओं के निषेध से जुड़ा हुआ है। ...सुनील एक असफल आदमी, गुनाह बेलज्जत, मौत और जिन्दगी, हत्या, मम्मी बिगड़ेंगी, हथौड़े और चोट, देवियां, प्यार, संबंध, जरूरत, किसकी प्रिया, मुक्ति, अनामी, कांता जैसी रचनाएं हमें आईना दिखाती हैं। पर, डर के मारे में हम आईना देखना नहीं चाहते क्योंकि आईना झूठ नहीं बोलता।  
  एक तीसरा पक्ष यह था कि वे अपने जीवन के उत्तराद्र्ध में फादर कामिल बुल्के से प्रेरणा लेकर शब्दकोश तैयार करने लगे। एस चंद कंपनी व राजकमल ने उनके कई कोशों को छापा। 2000 में उनका पहला कोश हिंदी-हिंदी शब्दकोश एंच चंद  एंड कंपनी से आया। दूसरा कोश हिंदी-इंगलिश-हिंदी कोश आया। यह बहुरंगी कोश है। राजकमल ने भी हिंदी-अंग्रेजी कोश व अंग्रेजी-हिंदी कोश को छापा। इतना काम करने के बावजूद भी वे हिंदी में अछूत करार दिए गए। इनके सारे कामों को दरकिनार भी कर दें तो श्रवणकुमार गोस्वामी के शब्दों में, घेरे से बाहर और पहिए जैसी रचना हिंदी में कतई नहीं हैं और उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। हालांकि छिटपुट काली किंकर एवं विद्याभूषण ने अपने लेखों में उनको स्मरण किया है।    
 द्वारका जी का पारिवारिक पक्ष भी जान लेना जरूरी है। उन्होंने दो शादियां की थीं। पहली शादी 1940 में सत्यम्वदा के साथ और दूसरी शादी जब वे दिल्ली में रहते थे, संतोष के साथ 1955 में। दोनों पत्नी जीवित हैं। संतोष जी दिल्ली में रहती हैं। इनसे कोई संतान नहीं। सत्यम्वदा रांची में रहती हैं। इनके दो पुत्र हैं, बड़ा बेटा किरण कुमार अपने पुश्तैनी घर लोहरदगा में रहते हैं। अवकाशप्राप्त हैं। दूसरा मनोज कुमार रांची में व्यवसाय करते हैं। घेरे के बाहर को अपनी पहली पत्नी सत्यम्वदा को ही समर्पित की है। हमें घेरे से बाहर निकलकर एक बार फिर इसका पुनर्पाठ करना चाहिए।

कैनवस पर झांकते बुद़ध

पायल सोनी संकोची हैं। अपने बारे में कुछ नहीं बतातीं। पर उनका काम बोलता है। कोमल उंगलियां जब ब्रश पकड़ती हैं तब कोई जीवंत आकृति कैनवस पर उभर जाती है। पेंटिंग बचपन की आदत है। घर का माहौल भी कुछ कला-कला जैसा था। सो, स्कूल में मौका मिला। जब अवार्ड मिला तो हौसला भी बढ़ा। तब, प्रशिक्षण की चिंता हुई। रांची के ही मनोज सिन्हा से कला का प्रशिक्षण लिया। रंग और रेखाओं के महत्व को समझा। हर रंग अपना दर्शन है, उसकी पहचान है, इसे बखूबी जाना। इसी के साथ बीए भी पूरा किया। पिता के आकस्मिक निधन से मन को और मजबूत किया। परिस्थितियों से लडऩा सीखा। हिम्मत नहीं हारी। पिता ऊंचाइयों पर देखना चाहते थे। लेकिन मां ने साथ दिया। आर्थिक तंगी तो थी ही फिर भी पुणे से एनिमेशन का कोर्स किया। कोर्स करने के बाद वहीं जॉब भी मिल गया। बतौर कैरेक्टर डिजाइन काम करना शुरू कर दिया। काम आगे बढ़ा तो खुद प्रोडक्शन हाउस खोल दिया। कई उतार-चढ़ाव भी आए। संघर्ष जारी रहा। बहन ने भी साथ दिया। इसके बाद कई प्रोजेक्ट मिले। काम किया। महाभारत, रामायण, हनुमान आदि के एनिमेशन बने। पर परिस्थितियां एक जैसी नहीं रहती। समय भी परीक्षा लेता है। सो, एक बार फिर रांची आना पड़ा। पेंटिंग का सफर फिर शुरू हुआ। कई प्रदर्शनियों और कार्यशालाओं में भाग लिया। रांची, जमशेदपुर, एसपीटीएन, कला-संस्कृति विभाग, पलाश आदि की कार्यशालाओं में भाग लिया। बुद्ध की एक चर्चित पेंटिंग बनाई, जिसे मुख्यमंत्री रघुवर दास ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को भेंट किया। रांची के ही मशहूर कलाकार प्रवीण कर्मकार से भी सीखा। सीखने का क्रम जारी है। 
पर, पायल की पेंटिंग देखने से लगता है हम किसी परिपक्व कलाकार के काम को देख रहे हैं। आयल, वाटर और एक्रेलिक। तीनों में काम करती हैं। हालांकि अभी एक्रेलिक पर काम कर रही हैं। पायल अमूर्त में विश्वास नहीं करती। इसलिए, वह मूर्त काम करती हैं। बुद्ध प्रिय हैं। इसलिए, बुद्ध कहीं न कहीं उनके कैनवस से झांकते हैं। उनकी ध्यानस्थ मुद्राएं ध्यान खिंचती हैं। इसी तरह, इसे संयोग ही माने, बुद्ध के बाद देश में मूर्ति निर्माण शुरू हुआ, सो, पायल मूर्तियों को भी कैनवस पर साकार करती हैं। हजार-डेढ़ हजार साल पुरानी प्रतिमाएं कैनवस पर आकार ग्रहण करने के बाद सजीव लगने लगती हैं। काम में भी सजीवता दिखाई पड़ती है। एक-एक बारीकी देख सकते हैं। यदि प्रतिमाओं में कोई खरोंच है, दरार पड़ गई है, तो भी बहुत खूबी के साथ दर्शाती हैं। इधर, मध्यप्रदेश में होने वाली कला प्रदर्शनी की तैयारी कर रही हैं। वहां राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शनी होनी है। निमंत्रण आ चुका है। सो, पेंटिंग बनाने में लगी हैं। पायल को प्राचीन प्रतिमाओं के साथ आदिवासी जीवन भी प्रिय है। सो, आदिवासी जीवन भी कागजों पर उतरता है।

ग्लोबल गांव की अंतर्कथाएं


 -संजय कृण :
 
  सन् 1840 में, संताल हूल और 1857 की कथित आजादी की पहली लड़ाई से डेढ़ दशक पहले एक ब्रिटिश अधिकारी ने नगाओं पर टिप्पणी करते हुए लिखा था, ‘ये आदिवासी पूरी ताकत से महज अपनी हिफाजत ही नहीं करते बल्कि ये अपने दुश्मनों पर बहुत हिम्मत से वार भी करते हैं...किसी तरह का खतरा और भय उन्हें नहीं सताता।’

   इस टिप्पणी से जाहिर है, उस ब्रिटिश अधिकारी ने आदिवासियों के रहन-सहन और उनके संघर्ा को काफी नजदीक से देखा
  गायब होता देश इसी साल आया और आते ही देश की साहित्यिक पत्रिकाओं में इस पर समीक्षाआंे की बाढ़ सी आ गई। अंतरजाल पर भी यह खूब प्रचारित हुआ। ‘बाबा रामदयाल मुंडा की स्मृति एवं दीदी दयामनी बारला और इरोम शर्मिला चानू के संघर्ा के जज्बे को समर्पित’ इस उपन्यास में डाॅ. रामदयाल मुंडा भी हैं और दयामनी बरला भी। इसके साथ ही इसकी कुछ और बातें हैं, वह है हिंदी के महान लेखकांे की टिप्पणियां। पुस्तक की पीठ पर मैत्रौयी पुपा और प्रसन्न कुमार चैधरी की टिप्पणी है और अंदर संजीव की। इन्हें देखना भी दिलचस्प होगा, इससे उपन्यास को समझने में आसानी होगी। मैत्रोयीजी ने लिखा है, आधुनिक विकास की तमीज के हिसाब से रातों रात गुम हो जाती बस्तियों के बाशिंदों की दर्दनाक दास्तान...जिनपर कागजी खजाना तो बरसाया गया लेकिन पांव तले की धरती छीन ली...यह उपन्यास साहित्य में अपनी मुकम्मल जगह बनाएगा, ऐसी मुझे उम्मीद है।’ उम्मीद उनकी बेमानी नहीं है। अब प्रसन्न की टिप्पणी देखें, यह एक प्रेम कथा भी है और थ्रिलर भी...लगभग कोई पात्रा एक आयामी नहीं है, सभी पात्रों के अपने-अपने ग्रे शेड्स हैं।’ संजीव ने तो कलम ही तोड़ दी है, जादुई यथार्थवाद को खोजने के लिए लैटिन अमेरिका और स्पेनिश भाााओं में भटकने की जरूरत नहीं। अपना देश और अपने लोग ही पर्याप्त हैं। इस लिहाज से भी यह उपन्यास हिंदी को समृद्ध करता है।’ हालांकि रमेश उपाध्याय का माथा ठनग गया संजीव के विशेाण से.. संजीव के शब्दों में यह पढ़कर कि यह जादुई यथार्थवाद का उपन्यास है, माथा ठनक गयाः यह क्या? अपने पहले उपन्यास‘ ग्लोबल गांव का देवता’ में रणेंद्र ने भूमंडलीय यथार्थवाद को जो नया रास्ता पकड़ा था, उसे छोड़कर वे जादुई यथार्थवाद के उस पुराने रास्ते पर क्यांे चले गए, जिस पर मार्केज के असंख्य नकलनवीस पहले ही चल चुके हैं?’ खैर, रमेशजी ने इसे भूमंडलीय यथार्थवाद का उत्कृट उदाहरण माना है। अब साहित्य के इतने धुरंधर, मूर्धन्य और लब्ध प्रतिठ लेखकांे की टिप्पणी के बाद भी भला कुछ रह जाता है! 
  लेकिन बात सिर्फ इतनी भर होती तो हम भी राम-राम कहकर आगे बढ़ जाते। पर, ऐसा है नहीं। लेखक ने अपने पूर्व कथन में इस उपन्यास की कैफियत दी है। सोना लेकन दिसुम यानी सोने जैसा देश। यह देश था मुंडाओं का, जो अब गायब हो रहा है। थोड़ा इतिहास भी है कि मुंडा झारखंड में कब आए? लेकिन सवाल है, क्या यह वास्तव में मुंडाओं पर लिखा गया उपन्यास है? जिसके लिए यह खूब प्रचारित किया गया है और किया जा रहा है? 318 पेज के इस उपन्यास को पढ़ने पर ऐसा लगता है कि यह मुंडा के गायब होते देश की नहीं, उस मैथिल पत्राकार किशन विद्रोही के जीवन की कहानी है, जो यहां पत्राकारिता करने आया था, कुछ क्रांतिकारी टाइप लोगांे की सोहबत में क्रांतिकारी हो गया और अंततः कारपोरेट होती पत्राकारिता में उलझकर दम तोड़ दिया। उसकी हत्या हुई या उसने आत्महत्या की, इसकी खोज है या उपन्यास। एक युवा पत्राकार ही इस गुत्थी या रहस्य को सुलझाने के लिए निकलता है और फिर कहानी आगे बढ़ती है। कई पात्रा आते हैं, पत्राकारिता की सड़ांध भी आती है। डाॅ रामदयाल मुंडा डाॅ सोमेश्वर सिंह मंुडा के रूप में मौजूद हैं और सोनामनी के रूप में दयामनी बारला और उनका आंदोलन। आंदोलन के बिकने की कहानी भी यहां हैं। अनुजा के रूप में एक आदिवासी महिला पत्राकार है और उस पर एकतरफा मोहित किशन विद्रोही। है तो यह विद्रोही पर रसिक भी कम नहीं। अनुजा पाहन के बैंजनी रंग पर वह इस कदर मोहित होता है तो उसके सौंदर्य का बखान करने में वह कालिदास, विद्यापति और बिहारी को भी पीछे छोड़ देता है। सारी उपमाएं जूठी लगती हैं उर्दू शायरों की भी। पांच पेजों तक उसके सौंदर्य का बखान करता उपन्यास का चैतीसवां अध्याय का शीर्ाक है नैनां अंतरि आव तू। एकाध टुकड़ा देखें तो हमें लेखक के सौंदर्य बोध का पता चल जाता है-‘...दूधिया-बैंजनी दूध में नहा कर जब तुम निकलने लगी तो मेरी आंखें...मेरा वजूद...आंखों की पुतलियां बनकर रह गया।...तुम्हारी सफेद चुनर ढलक कर वक्षस्थल पर आ टिकी। जहां दो चांद हाफ रहे थे या उड़ने को बेताब पंख फड़फड़ाते दो कबूतर।...मैंने सोचा, मैं कालिदास बन जां...या विद्यापति...या बिहारी।...क्या मैं पुरुरवा नहीं बन सकता...या कनु...अंधकार में...। यहां तक आते-आते धर्मवीर भारती भी याद आने लगते हैं। लेखक उसके सौंदर्य का चित्राण करते समय हकलाने लगता है। सो, डाॅट डाॅट डाॅट से काम चलाता है। संस्कृत के पद से भी उसका पेट नहीं भरता तो उर्दू का आंचल थाम लेता है। परीचश्म-परीजमाल, नूरे मुजस्सम, नूरानी वजूद जैसे भारी भरकम शब्द पाठकांे की परीक्षा लेने लगते हैं। हालांकि उपन्यास में ऐसे ढेरों शब्द बिखरे पड़े हैं, जिसे डिक्शनरी में ही उसके अर्थ की तलाश की जा सकती है। हालांकि लेखक ने एकदम टटका बिंब या उपमा दी है...हाफते चांद या फड़फड़ाते दो कबूतर। एक अलग सौंदर्यशास्त्रा, जिसके लिए हिंदी समाज को लेखक का ऋणी होना पड़ेगा।
   उपन्यास के पन्ने दर पन्ने पढ़ते हुए जब आगे बढ़ते हैं तो यह भी एहसास होता है कि लेखक ने काफी अध्ययन किया है। हर पन्ना और अध्यायों के शीर्ाक इसकी चुगली करते हैं। लेखक की यह विशेाता है कि वह अब तक जो पढ़ा है, इतिहास, पुराण, शेरों-शायरी, मानव विज्ञान...। वह सब कुछ अपने इस महान उपन्यास में विन्यस्त कर देना चाहता है। मेगालिथ की पूरी कहानी यहां हैं। लेमुरिया तो है ही। यह सब ज्ञान उसे सोमेश्वर सर से प्राप्त होता है। लेखक बताता है कि ‘लेमुरिया भी आठ लाख वर्ा ईसा पूर्व से 9654 वर्ा ईसा पूर्व की अवधि में धीरे-धीरे डूब गया। मेडागास्कर, मारीशस, मालदीव, लक्षद्वीप उसी लेमुरिया महाद्वीप के अवशेा हैं।’ यह भूमि 12 नस्लों की मूल भूमि थी। यह सवाल तो आप नहीं उठा सकते हैं कि क्या उस समय तक जातियांे का निर्धारण हो चुका था या इतने लाख साल पहले वे आदिम रूप में ही मौजूद थीं? लाखों साल से यह जाति इस घटना को कैसे अपने लोक गीतों के माध्यम से याद करती आ रही है? सचमुच, इस परिघटना के जरिए लेखक मुंडा जनजाति का अतीत बताता है। फिर वर्तमान में उसकी त्रासदी। सोमेश्वर मुंडा के जरिए मुंडा के जरिए ही वह अतीत की यात्रा पर निकलता है और वहां से जब फारिग होता है कि सोनामनी के जरिए अपने वर्तमान को पकड़ने की कोशिश करता है, जहां देश या दिसुम गायब हो रहा है।
  जहां तक जमीन का सवाल है, वह झारखंड में हर आदिवासी के हाथ से छीनी जा रही है। कहीं विकास के नाम पर, कहीं खनिज के नाम पर। यह सिर्फ मुंडा जनजाति के साथ ही नहीं हो रहा है। आजादी से पहले अंग्रेजों से आदिवासियों ने जमीन के लिए ही सालों साल संघर्ा किया और आज अपनी चुनी हुई सरकार से। कारपोरेट की दुनिया कैसे तंत्रा पर हावी है और विकास के नाम पर कैसे यहां के लोगों को विस्थापित करती है, यह कोई नहीं बात नहीं। बड़ी-बड़ी कंपनियां यही कर रही हैं। कुछ आंदोलनों ने कंपनियों के काम को भी रोक रखा है। यहां कुछ आंदोलन ऐसे है, जिन्हें कारपोरेट ही मदद करता है। प्रतिद्वंद्विता उसके साथ भी है। वह नहीं चाहता कि दूसरी कोई कंपनी यहां आए। ऐसे में यहां चल रहे आंदोलन उसके काम के होते हैं। आंदोलनों के अपने फायदे तो हैं हीं। देश-दुनिया में पहचान और पुरस्कार तो मिलेगा ही, जो इस उपन्यास में सिरे से नदारद है। जहां तक पूंजीवादी व्यवस्था की बात है, उससे तो हर समाज त्रास्त है। केवल मुंडा ही नहीं। यहां रहने वाली सभी आदिवासी-मूलवासी इसके शिकार हो रहे हैं। नौकरशाही की मिलीभगत से रांची में अचानक अपार्टमेंटों की बाढ़ से लेखक तो परिचित होगा ही। शहर से लेकर गांव तक आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल हो रहा है। राज्य बनने के बाद भी। सौ साल पहले बना कानून भी कोई मदद नहीं कर पा रहा। लेखक इन अंतरविरोधों को भी सामने लाता है। इतना सब कुछ होने के बाद भी, यह उपन्यास हमारे भीतर कोई संवेदना नहीं जगाता। हम किसी पात्रा को याद नहीं कर पाते। डायरी की शक्ल में लिखे इस पूरे उपन्यास में कोई मुंडा पात्रा उभरकर नहीं आता। न उनकी लोककथाएं, न उनका जीवंत जीवन। कुछ जमीनी सच्चाइयां जरूर हैं। नक्सली संगठनों का अपराधी गिरोहों में बदलना। विवरण बहुत है। विवरण उपन्यास नहीं होता। कहीं-कहीं अरण्यरोदन भी है। एक पत्राकार की डायरी में जितना समाया, वह आया। बाकी तो दूर से बैठकर देखने का सुख और खुशफहमी है। हां, एक सवाल यह जरूर उठाता है, यदि लुटियन की दिल्ली के नीेचे खनिज संपदा निकल जाए तो क्या सरकार उन अमीरों को वहां से बेदखल करेगी? 
  लेकिन ऐसा महुआ माजी के साथ नहीं होता। महुआ का उपन्यास ‘हो’ आदिवासी जीवन पर है: ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’। यह उपन्यास भी छपने से पहले ही पुरस्कृत हो गया था। बहुत हद तक लेखिका अपने कहन में सफल होती है। यह कहानी भी कोल्हान के उस क्षेत्रा की है, जहां के आदिवासी पिछले कई दशकों से यूरेनियम के कचरे का शिकार होकर जवानी में ही दम तोड़ रहे हैं। यह एक भयावह समस्या है। कई तरह की बीमारियां, गर्भपात की समस्या और चर्म रोग से यहां के बाशिंदे परेशानहाल हैं। लेकिन यहां भी वही समस्या और देखने का वही नजरिया। 402 पेज के इस भारी भरकम उपन्यास में लेखिका 167 पेज तक तो अपनी आंखों से मरंग गोड़ा को देखने की कोशिश करती है, लेकिन आगे वह कैमरे से देखती हैं। कैमरामैन हैं आदित्यश्री। इन्हें आप श्रीप्रकाश भी पढ़ सकते हैं और मरंगगोड़ा को जादूगोड़ा। इत्तेफाक से ये भी किशन विद्रोही ही तरह पत्राकार हैं पर अलग ढंग के। यहां सगेन जैसा जीवंत पात्रा है। शुरुआत के 167 पेज तक एक दम काव्यात्मक भााा से साक्षात्कार होता है। इसके बाद हो आदिवासी जीवन पसरने लगता है। महाश्वेता देवी तरह ही लेखिका जैसे अपने पात्रों में उतर गई हो। हो जीवन की छोटी-छोटी कहानियां, उनका अतीत और त्रासद वर्तमान सब कुछ को नोट करती है। उनके पर्व, त्योहार, परंपरा, अखड़ा, लोकगीत सब मुखर होता है। इसके बाद कहानी अपने मूल पर आती हैः ‘विकिरण, प्रदूाण व विस्थापन से जूझते आदिवासियों की गाथा।’ सगेन उपन्यास का नायक है। सगेन के ततंग यानी उसके दादा पत्थरों का डाक्टर बनाना चाहते थे, लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, उसे जादूगोड़ा का सच दिखाई देने लगता है। फिर लोगांे को जागरूक करने और एकजुट करने के लिए कमर कस लेता है। सगेन की भेंट आदित्यश्री से होती है और आदित्यश्री अपने वृत्तचित्रा के माध्यम से यूरेनियम से हो रही जानलेवा परेशानियों से दुनिया को रूबरू कराता है। आदित्यश्री एनजीओ के माध्यम से यह काम करता है। जापान में भी वह जाते हैं और यहां के हालात को दिखाता है। फिर वहां से एक टीम यहां आती है। यहां अध्ययन करती है और अपनी रिपोर्ट देती है। इतना कुछ होने के बाद यूरेनियम कंपनी वाले थोड़ा नरम रुख अपनाते हैं। यह सब कुछ बहुत प्रामाणिक ढंग से कही गई है। इसे पर इंटरनेट पर भी खोज-देख-पढ़ सकते हैं।
  मरंगगोड़ा के साथ ही सारंडा की कहानी भी कही गई है। साल बनाम सागवान की लड़ाई को भी उठाया गया है, लेकिन उस समय के एक बहुत बड़े आंदोलन कोल्हान विद्रोह को छोड़ दिया गया है। 1977 में केसी हेम्ब्रम और उस समय के मानकी मंुडा के प्रमुख नारायण जोंको ने कोल्हान रक्षा संघ का गठन किया था। आंदोलन की लपटें बहुत दिनों तक उठती रहीं। 1981 में अलग कोल्हान की मांग उठी थी। यहां तक कि काॅमनवेल्थ सचिव के सामने इसकी मांग रख दी गई। यही नहीं, यूएनओ में भी इस मामले को उठा दिया गया। इसके बाद तो केसी पर राटद्रोह का मुकदमा चला। आरंभ में इस संगठन के लोगों ने ही जादूगोड़ा में विकिरण के प्रभावों को सामने लाया था। आंदोलन को वैचारिक धार देने के लिए ही संघ का गठन किया गया था। लेकिन इसका कहीं जिक्र नहीं है। लेखिका ने आदित्यश्री के माध्यम से ही जितना जाना, समझा, उसे हिंदी पाठकांे के बीच परोस दिया। हिंदी पाठकों के लिए यह नया विाय हो सकता है। यह उपन्यास भी आधा मरंगगोड़ा की कथा कहता है और आधा आदित्य श्री की। लगता है, हम उसकी जीवनी पढ़ रहे हों। किसी ने कहा है कि जिस परिवेश में आपने जन्म नहीं लिया हो, उसकी कथा नहीं कहनी चाहिए। इसके लिए प्रतिभा की भी दरकार होती है। राधाकृण की इंसान का जन्म पढ़ने के बाद लगता है कि वह बंगलादेश की हर गली से वाकिफ है। बंगलादेश में युद्ध की पृठभूमि पर लिखी इस कहानी को पढ़कर आप कथाकार के साथ बहते जाते हैं। पर, यहां ऐसा कुछ नहीं होता। कम से कम ये दोनों उपन्यास न्याय तो नहीं करते। आदिवासी जीवन की विसंगतियां को राधाकृण ने अपनी कई कहानियों में उठाया है। कानूनी-गैरकानूनी से लेकर मूल्य तक। राधाकृण को गुजरे चालीस साल हो गए लेकिन यहां के कथाकार, अभी तीसरे-चैथे दशक में ही ठिठके हैं रचना के स्तर पर। फिर भी, मरंगगोड़ा हमें यूरेनियम के खतरे से आगाह करता है।
   एक तीसरा उपन्यास है, राकेश कुमार सिंह का ‘हुल पहाडि़या’। राकेश पलामू के हैं और आरा, बिहार में रह रहे हैं। शरीर वहां और मन यहां के जंगलों में भटकता रहता है। इसलिए, उन्होंने झारखंड पर कई उपन्यास रचे हैं। जहां खिले हैं रक्तपलाश, पठार पर कोहरा, जो इतिहास में नहीं है, यह सब झारखंड केंद्रित उपन्यास हैं। जो इतिहास में नहीं है, संताल हूल पर केंद्रित है। हुल पहाडि़या 2012 में आया। यह उपन्यास आदि विद्रोही तिलका मांझी की समरगाथा है। हमें जानना चाहिए कि अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले तीर-धनुा उठाने वाले पहाडि़या थे और उसका नायक तिलका मांझी। यह उपन्यास आदिवासियों के आंदोलनों को नजरअंदाज करने वाले मुख्यधारा के इतिहास की कई भूलों को ठीक करता है सप्रमाण।
  हम अभी तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि देश का पहला आजादी का आंदोलन 1857 को माने, या झारखंड में हुए 1855 में हूल को या फिर 1785 को, जब राजमहल की पहाडि़यों से निकलकर तिलका मांझी ने भागलपुर के पहले कलक्टर क्लीवलैंड को मौत के घाट उतार दिया था। यद्यपि 1857 को हमने प्रचारित-प्रसारित किया है। हमें यही पढ़ाया जाता रहा है, जा रहा है। लेकिन इस पाठ में आदिवासियों के आंदोलनों को हाशिए पर ही रखा गया है। यह उपन्यास दरअसल, इतिहास को ठीक करने की कोशिश भी है। राकेश कुमार सिंह ने काफी खोजबीन और शोध के बाद इसकी रचना की है, लेकिन खेमेबाज आलोचकांे ने इस पर बहुत कुछ नहीं बोला। जनसंपर्क भी एक कारण हो सकता है। हर लेखक अपनी मार्केटिंग करना नहीं जानता। बाजार के इस युग में यह एक महान कला के रूप में स्थापित हो रही है। आखिर, मनमोहन पाठक के उपन्यास ‘गगन घटा घहरानी’ पर किसी को बोलते-लिखते सुना है। यह उपन्यास भी 1991 में आया था और पलामू पर केंद्रित है। इसमें उरांव आदिवासियों को केंद्र मंे रखा गया है। लेखक अपने गांव-जवार, आदिवासियों और पलामू से किस तरह तल्लीन है, उपन्यास का एक-एक शब्द बताता है। पर इसकी चर्चा नहीं होती।
  बहरहाल। राकेश कुमार सिंह का यह उपन्यास एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति करता है। हमारे इतिहास को दुरुस्त करता है। हम सब जानते हैं कि अंग्रेजांे ने पहाडि़या जनजाति के इस महान विद्रोह को कुचलने का हर संभव प्रयास किया। इसके साथ ही अभिलेखों में भी एक सोची-समझी साजिश के तहत दर्ज भी होने नहीं दिया। पर स्थलीय साक्ष्यों ने कुछ इतिहासकारों को तिलका मांझी के जीवन और आंदोलन में झांकने को जरूर विवश किया। दूसरे, यह भी सवाल परेशान करता रहा कि तिलका संताली है या पहाडि़या। महाश्वेता देवी ने अपने उपन्यास ‘शाल गिरह की पुकार’ में तथ्यों के साथ खिलवाड़ करने की काफी छूट लेकर कई भ्रांतियों को जन्म दे दिया। बंगाली बौद्धिकों के साथ यह परेशानी है कि वह हर आदिवासी को संताली ही कहते हैं। रवींद्रनाथ टैगोर भी संताली कहते हैं और कविता रचते हैं। सत्यजीत राॅय भी पलामू के आदिवासियों को संताली ही समझते हैं। राकेश इसे भी दुरुस्त करते हैं। वह प्रमाण सहित बताते हैं कि तिलका संताली नहीं, पहाडि़या था और उसका एक नाम जवरा पहाडि़या भी था। इसे अंग्रेजों ने अपने अभिलेख में डाकू के तौर पर दर्ज किया है और हिल रेंजर्स का कमांडर के तौर पर भी। इन दोनांे नामों में एक की तलाश में काफी मेहनत करनी पड़ी। साक्ष्य तो चाहिए ही। राकेश सिंह इससे गुरेज भी नहीं करते। सबसे पहले तो हमें यह भी जानना चाहिए कि जब पहाडि़या विद्रोह राजमहल की जंगलतराई में फैला था, तब वहां संतालों का कोई अस्तित्व नहीं था। संतालों को अंग्रेजों ने पहाडि़यों पर अंकुश लगाने के लिए 1790 से 1810 के बीच बसाया। दामिन-इ-कोह में तब 429 गांव इनके बस चुके थे। 1851 आते-आते गांवों की संख्या 1473 तक पहुंच गई। जबकि पहाडि़यां यहां महाभारत काल से बसे हुए हैं। उन्हांेने न राजा कर्ण की अधीनता स्वीकार की न आने वाले बाद के राजाओं की। पहाडि़या खुद भी राजा थे। पर कालक्रम में इनका राजपाट खत्म हो गया और ये रंक बन गए। जंगलों पर निर्भरता इनकी बढ़ गई। अंग्रेजों ने जब इस क्षेत्रा में अपना कदम रखा तो उनके खिलाफ तीर-धनुा लेकर खड़े हो गए। 1772 में पहाडि़यों ने सशस्त्रा विद्रोह किया। इसके बाद 1778 में और 1783 में एक बड़ी चीख के रूप में उभरा। 320 पेज का यह उपन्यास इतिहास के गर्द-गुबार के भी झाड़ता है। उपन्यास बताता है कि तिलका पहाडि़या थे। पहाडि़या युवाओं ने 1942 के आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर भाग लिया था। तिलका मांझी ने भागलपुर में जाकर क्लीवलैंड की हत्या कर दी थी। अंग्रेजों ने उसे वहीं से पकड़ लिया और 11 फरवरी, 1785 को उसे फांसी दे दी। राकेश सिंह ने जबरा से तिलका के रूपांतरण की कथा कह अटकलों पर विराम लगा दिया। इतिहास भी बताता है और यह उपन्यास भी कि पहाडि़या विद्रोह को शांत रखने के लिए क्लीवलैंड ने हिल रेंजर्स का गठन किया था। यह पहाडि़या युवकों की तीर-धनुा वाली बटालियन थी। इसका सही नाम हिल आर्चरर्स कोर था। इसमें 1300 पहाडि़या शामिल थे, जिसका कमांडर जवरा या जौराहा पहाडि़या था। जब वह रामगढ़ में हुए विद्रोह को कुचलने के लिए आया हुआ था, तभी उसे खबर मिली कि अंग्रेजोंने रानी सर्वेश्वरी को उनके किले में ही नजरबंद कर दिया है। जौराहा या जवरा को नागवार लगा। क्लीवलैंड ने उसके साथ धोखा किया। जवरा ने अपला चोला उतार फेंका और बन गया तिलका मांझी। रानी की नजरबंदी के बाद तिलका ने पूरे जंगलतराई में अंग्रेजों, साहूकारों, दलालों के साथ मारकाट शुरू कर दिया। नजरबंदी के छह महीने के बाद वह भागलपुर गया और 29 साल के भागलपुर के पहले कलेक्टर क्लीवलैंड को जहर बूझे तीर से मौत के घाट उतार दिया। गजेटियर इस पर मौन है। वह यह नहीं बताता कि 29 साल का कलेक्टर अपनी मौत कैसे मर गया? यह भी अचरज है कि जवरा उर्फ तिलका के मारे जाने के सौ साल बाद 1894 में ब्रिटिश सरकार ने उसके नाम पर काॅपर का सिक्का निकाला, क्यों?
  पहाडि़या विद्रोह के बहाने इस उपन्यास में पहाडि़या को भी जान पाते हैं। उनकी प्रथाएं, संघर्ा, गगन दमामा बाजे की स्वर भी। उपन्यास में और भी बहुत कुछ है, एक अरब साठ करोड़ वर्ा पुरानी राजमहल की पहाडि़यां और इस पर वास करते पहाडि़या। इसके साथ ही संतालों और पहाडि़या के बीच युद्ध और आपसी समझौते की कहानियां भी हैं। अंग्रेजों की कुटिलता और आदिवासियों की सादगी भी है। उस दौर का पूरा आंदोलन यहां फैला हुआ है। हमारे सामने वह पूरा काल-खंड घूमने लगता है। तिलका मांझी से तिलका बाबा और राजमहल की पहाडि़यों में बजता हूल का दमामा। राकेश का यह उपन्यास बोझिल नहीं हैं। उबाने वाली भााा नहीं है न परेशान करने वाले संवाद। रचना की पहली शर्त पठनीयता होती है। यह उपन्यास इस कसौटी पर भी खरा उतरता है। एक सवाल यह जरूर है कि कुछ संवाद भोजपुरी में हैं। शायद, वृहत्तर हिंदी समाज को देखते हुए ऐसा किया हो। पर, यहां आदिवासी भाााएं और गीत भी हैं। हूल के गीत, जो उत्प्रेरित करते हैं। एक शोधार्थी और एक प्रोफेसर भी है, जो इतिहास को सही करने और देखने के लिए वार्तालाप करते हैं। उनका वार्तालाप हमें इतिहास की ओर ले जाता है। इन तीनों उपन्यासों में एक कोई जरूर है, जो हमें अतीत की ओर ले जाता है। यह जरूरी इसलिए है कि हम बहुत कुछ आदिवासियों के बारे में नहीं जानते। खैर, ये तीनांे उपन्यास झारखंड के तीन जातियों का दिग्दर्शन कराते हैं। 
 



गाजीपुर में विवेकानंद


 संजय कृष्ण -   योद्धा संन्यासी स्वामी विवेकानंद पूर्वी उत्तरप्रदेश के गाजीपुर में चार महीने तक प्रवास किया। गाजीपुर में उनके बचपन के एक मित्रा रहते थे सतीश चंद्र मुखर्जी। वे गाजीपुर के गोराबाजार में रहते थे। विवेकानंद यहीं ठहरे थे। एक दूसरे मित्रा, रायबहादुर गगनचंद्र, जो अफीम कंपनी में अधिकारी थे, के द्वारा ही उन्हें यहां के संत पवहारी बाबा के बारे में जानकारी मिली थी। उनसे मिलने ही वे आए थे। उन दिनों विवेकानंद इधर ही भ्रमण कर रहे थे। प्रयाग, बनारस होते हुए गाजीपुर पहुंचे थे। बनारस में मलेरिया ने पकड़ा। कमर दर्द से वे पहले से ही परेशान थे। गाजीपुर आए तो लंबी प्रतीक्षा के बाद उन्हें पवहारी बाबा के दर्शन हुए, बीच-बीच में उनसे वार्तालाप भी हुई और शंका का समाधान भी। आए तो थे दो चार दिन के लिए ही लेकिन यहां की स्वास्थ्यप्रद जलवायु और पवहारी बाबा के आग्रह ने उन्हें रोक लिया। पवहारी बाबा से मिलने के लंबे समय बाद उन्होंने एक छोटी सी पुस्तिक ‘पवहारी बाबा’ लिखी। तब तक पवहारी बाबा दुनिया से विदा ले चुके थे क्योंकि पुस्तक में उनके समाधिस्थ होने का भी समाचार है। विवेकानंद 27 की उम्र में उनसे मिले और वे 13 साल और जीवित रहे। 40 की अवस्था में 1903 में विवेकानंद भी देश-दुनिया में अपने गुरु का विचार पहंुचा और मठों की स्थापना कर इस लोक से विदा हुए। विवेकानंद ने यह पुस्तिक 1903 से पहले ही लिखी होगी। तब तक पवहारी बाबा भी संसार छोड़ चुके थे। स्पष्ट है कि वे पवहारी बाबा की खोज खबर लेते रहे।
    विवेकानंद ने पुस्तिका अंग्रेजी में लिखी थी। हिंदी में यह पहली बार 1950 में आई। पुस्तक के कारण देश-दुनिया में लोग पवहारी बाबा को जानने लगे। वैसे, पवहारी बाबा का न नया धर्म चलाने में विश्वास था न मठ बनाने में और न शिष्य बना ने में। इसलिए वे कुर्था से बाहर कहीं गए नहीं। जो लोग इस संत के बारे में सुनते वे यहां आते। बाबा गुफा से बाहर होते तो दर्शन हो जाता, नहीं तो गुफा द्वार को ही प्रणाम कर चले जाते। बाबा योगी भी थे और भक्त भी। उनके बारे में कई तरह की किंवदंतियां उनके जीते जी प्रचलित हो गई थीं। आश्रम में ही उन्होंने एक गुफा बनवा रखी थी और उसी में वे साधनारत रहते थे। उनके बाहर निकलने की तिथि कोई निश्चित नहीं रहती, लेकिन पूर्णिमा से लेकर संक्रांति तक हवन होता था। इस बीच वे गुुफा में नहीं जाते थे। कुछ दिनों तक विवेकानंद आश्रम में ही रहे। आश्रम के भीतर एक बगीचा था, तरह-तरह के पेड़-पौधे लगे थे। नींबू के पेड़ों की भी बहुतायत उस समय थी, जिसका सेवन विवेकानंद खूब करते थे। विवेकानंद यदि पवहारी बाबा से न मिले होते और उनपर पुस्तिका न लिखी होती तो वे एक स्थानीय संत ही बनकर रह जाते। हालांकि पवहारी बाबा चाहते भी नहीं थे  कि वे जगप्रसिद्ध हों। ऐसी लोकेषणा उनमें नहीं थीं।  
    विवेकानंद जनवरी 1890 से लेकर अप्रैल तक गाजीपुर में रहे। उनके पहले रवींद्रनाथ टैगोर गाजीपुर में प्रवास कर चुके थे। गुरुदेव भी यहां करीब छह मास रहे। सन् 1888 के मार्च से लेकर जुलाई तक। विवेकानंद यहां उनके जाने के 2 साल बाद आए। वैसे दोनों के जन्म में दो साल का ही अंतर भी है। रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को हुआ था और विवेकानंद का 12 जनवरी 1863 को। दोनों समकालीन थे। दोनों कलकत्ते के ही दो नजदीकी मुहल्लों शिमला और जोड़ासांकों में पले-बढ़े थे। पर दोनों में कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था न कोई वार्तालाप। रवींद्रनाथ टेगोर ने गाजीपुर में जब प्रवास किया तो उस समय उनकी उम्र 27 साल थी और कैसा संयोग कि जब विवेकानंद गाजीपुर में आए तो उस समय उनकी भी उम्र 27 साल ही थी। पर, विवेकानंद ने इसका कोई जिक्र नहीं किया। जाहिर है, गाजीपुर के भद्र बंगालियों से रवींद्रनाथ के प्रवास की चर्चा तो विवेकानंद ने सुनी ही होगी। पर, किसी पत्रा में इसका जिक्र नहीं है।
    विवेकानंद अपने गाजीपुर प्रवास के दौरान मित्रों, गुरु भाइयों एवं अग्रजों को करीब 15 पत्रा लिखे और संत और गाजीपुर की आबोहवा के बारे में जानकारी दी। पत्रों में कहीं विवेकानंद लिखा तो कहीं नरेंद्र तो कहीं नरेंद्रनाथ। पहला पत्रा उन्होंने शुक्रवार, 24 जनवरी, 1890 को प्रमदादास को लिखा। पता था, बाबू सतीशचंद्र मुखर्जी, गोरा बाजार, गाजीपुर। वे यहां तीन दिन पहले पहुंचे थे यानी 21 जनवरी को। पत्रा देखिए, ‘मैं तीन दिन हुए सकुशल गाजीपुर पहुंच गया। यहां मैं अपने एक बालसखा बाबू सतीशचंद्र मुखर्जी के यहां ठहरा हूं। गंगाजी पास में ही बहती हैं, परंतु उसमें स्नान करना कष्टसाध्य है, क्योंकि कोई सीधा रास्ता वहां तक नहीं जाता है रेत में चलना बहुत कठिन है।’....आगे लिखा है, ‘मेरी बड़ी इच्छा थी कि मैं वाराणसी आता, परंतु अभी तक बाबाजी पवहारी बाबा के दर्शन नहीं हुए। यही मेरे आने का अभिप्राय है। इसलिए कुछ दिनों का विलंब होना अनिवार्य है।’ 
    दूसरा पत्रा 30 जनवरी, 1890 को बलराम बोस को लिखा और गाजीपुर के स्वास्थ्यप्रद जलवायु का उल्लेख किया। लिखा कि, ‘...वैद्यनाथ का जल अत्यंत खराब है, हजम नहीं होता। इलाहाबाद अत्यंत घनी बस्ती है-वाराणसी में जब तक रहा, हर समय ज्वर बना रहा, वहां इतना ‘मलेरिया’ है। गाजीपुर में, खासकर जहां मैं रहता हूं, वहां की जलवायु स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभदायक है।’ आगे सूचना दी कि ‘ पवहारी बाबा का निवासस्थान देख आया हूं। चारों तरफ ंची दीवारें हैं, देखने मंे साहबों का बंगला जैसा है, अंदर बगीचा है।’ पुनश्च के अंतर्गत विवेकानंद वहां की आर्थिक स्थिति का जिक्र करते हैं। बताते हैं कि यहां मकान का किराया 15 से 20 रुपये है, चावल महंगा है, दूध रुपये में 16 से 20 सेर है, अन्यान्य वस्तुएं सस्ती हैं। और हां, यह भी कि ‘वाराणसी अत्यंत मलेरियाप्रधान शहर है।’ दरअसल, यह पत्रा बलराम बोस को लिखा गया और उन्हें गाजीपुर में रहने के लिए सारी बातें बताई गईं कि गाजीपुर कैसा है, कितना महंगा है या सस्ता है। दरअसल, बलराम बोस भी गाजीपुर आना चाहते थे, इसलिए विवेकानंद ने पत्रा के माध्यम से ये सब जानकारी मुहैया कराई। विवेकानंद ने भी लिखा कि आप यदि कुछ दिन गाजीपुर में रहें तो अच्छा है। आपने रहने के निए बंगले की व्यवस्था सतीश कर सकेगा और गगनचंद्र राय नामक एक और व्यक्ति, जो आबकारी कार्यालय में बड़े बाबू हैं, अत्यंत ही सज्जन, परोपकारी तथा मिलनसार हैं। ये लोग सबकुछ व्यवस्था कर देंगे। दरअसल, बलराम भी किसी बीमारी से ग्रस्त थे। स्वास्थ्य लाभ के लिए ही उन्हें गाजीपुर आमंत्रित कर रहे थे, पर ऐसा हो न सका। जुलाई के एक पत्रा में विवेकांनद बलराम के असामयिक निधन पर गहरा शोक जताते हैं। जब बलराम के निधन की खबर मिली तो विवेकानंद भागे-भागे कलकत्ता गए।
   अगले दिन, 31 जनवरी को वे प्रमदादास मित्रा को फिर पत्रा लिखते हैं,  ‘बाबाजी से भेंट होना अत्यंत कठिन है, वे मकान से बाहर नहीं निकलते, अपनी इच्छानुसार दरवाजेे पर आकर भीतर से ही बातें करते हैं। ...लोगों का कहना है कि भीतर गुुफा यानी तहखाना जैसी एक कोठरी है, जिसमें वे रहते हैं, वे क्या करते हैं, यह वे ही जानते हैं क्योंकि कभी किसी ने देखा नहीं है। एक दिन मैं वहां जाकर बैठाबैठा कड़ी सर्दी की मार खाकर लौटा था।...रविवार को वाराणसी धाम के लिए प्रस्थान करूंगा- यहां के लोग मुझे नहीं छोड़ रहे हैं, नहीं तो बाबाजी के दर्शन की अभिलाषा मेरी समाप्त हो चुकी है।....फिर लिखते हैं, यह स्थान अत्यंत स्वास्थ्यप्रद है, बस इतनी ही इसकी विशेषता है।-नरेंद्र।
    स्वामी विवेकानंद बाबा का दर्शन न होने से उकता गए थे। गाजीपुर से कुर्था का आश्रम थोड़ी दूर है। आने-जाने में परेशानी संभव है। कुछ दिन बाद ही बाबा का दर्शन होता है। उनसे खासे प्रभावित भी होते हैं। 7 फरवरी के पत्रा में लिखते हैं, बाबाजी देखने में वैष्णव प्रतीत होते हैं। उन्हेें, योग, भक्ति, विनय की प्रतिमा कहनी चाहिए।...किसी को मालूम नहीं कि वे क्या खाते-पीते हैं। इसीलिए लोग उन्हें पवहारी बाबा कहते हैं। एक बार जब वे पांच साल तक गुफा से बाहर नहीं निकले तो लोगांे ने समझ लिया कि उन्होंने शरीर त्याग दिया है। किंतु वे फिर उठ आए। पर इस बार वे लोगों के सामने निकलते नहीं और बातचीत भी द्वार के भीतर से ही करते हैं। इतनी मीठी वाणी मैंने कहीं नहीं सुनी, वे प्रश्नों का सीधा उत्तर नहीं देते, बल्कि कहते हैं, ‘दास क्या जाने।’ अगले दिन, 8 फरवरी के पत्रा में बाबा जी से मिलने का जिक्र काफी उल्लास के साथ विवेकानंद करते हैं। ‘...बड़े भाग्य से बाबाजी से साक्षात्कार हुआ। वास्तव में वे एक महापुरुष हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि इस नास्तिकता के युग में भक्ति एवं योग की अद्भुत क्षमता के वे अलौकिक प्रतीक हैं। मैं उनकी शरण में गया और उन्हांेने मुझे आश्वासन दिया है, जो हरएक के भाग्य में नहीं। बाबाजी की इच्छा है कि मैं कुछ दिन यहां ठहरूं, वे मेरा कल्याण करेंगे।’
   पवहारी बाबा विवेकानंद से 23 साल बड़े थे। यानी जब वे मिले तो उनकी उम्र 40 की रही होगी। इस उम्र तक बाबा काफी लोकप्रिय हो गए थे। एक बार स्वामी विवेकानंद ने पवहारी बाबा से पूछा कि संसार की सहायता करने के लिए अपनी गुफा से बाहर क्यों नहीं आते। बाबा ने एक नकटे साधु की एक कहानी सुनाई और कहा कि तुम्हारी क्या ऐसी इच्छा है कि मैं भी इसी प्रकार के एक और संप्रदाय की स्थापना करूं? विवेकानंद तार्किक थे और पवहारी बाबा ज्ञानी। एक बार फिर इसी प्रश्न को घुमाकर जब विवेकानंद ने पूछा तो कहा कि तुम्हारी क्या ऐसी धारणा है कि केवल स्थूल शरीर द्वारा ही दूसरों की सहायता की जा सकती है? क्या शरीर के क्रियाशील हुए बिना केवल मन ही दूसरों के मन की सहायता नहीं कर सकता?
    एक दूसरे अवसर पर जब विवेकानंद ने पूछा कि ऐसे श्रेष्ठ योगी होते हुए भी होमाद्रि क्रिया तथा रघुनाथजी की पूजा आदि कर्म जो साधना की केवल प्रारंभिक अवस्था के लिए समझे जाते हैं-क्यों करते हैं? बाबा ने बहुत ही सहज ढंग से विवेकानंद की इस शंका का समाधान किया, तुम यही क्यों समझ लेते हो कि प्रत्येक व्यक्ति अपने निज के कल्याण के लिए ही कर्म करता है? क्या एक मनुष्य दूसरों के लिए कर्म नहीं कर सकता? विवेकानंद ने बाबा के कई चमत्कारों का भी जिक्र किया है।
   विवेकानंद यहां कुछ दिनों के लिए आए थे और दर्शन की अभिलाषा के कारण वे यहां चार महीने तक टिके रहे। मार्च 1890 को उन्होंने स्वामी अखंडानंद को पत्रा लिखा। पत्रा से जाहिर होता है वे गाजीपुर शहर छोड़ बाबा के यहां ही ठहरे थे। लिखा है, मैं इस समय यहां के अद्भुत योगी और भक्त पवहारीजी के पास ठहरा हूं। वे अपने कमरे से कभी बाहर नहीं आते। दरवाजे के भीतर से ही बातचीत करते हैं। कमरे के अंदर एक गुफा में वे रहते हैं। कहा जाता है कि वे महीनों समाधिस्थ रहते हैं।...अपना बंग देश भक्ति और ज्ञान प्रधान है, वहां योग की चर्चा तक नहीं होती। जो कुछ है वह केवल विचित्रा श्वास साधन इत्यादि का हठयोग, वह तो केवल एक प्रकार का व्यायाम है। इसीलिए मैं इस अद्भुत राजयोगी के पास ठहरा हूं।’ दूसरे पैराग्राफ में अपने कुछ गुरु भाइयों की शंका का समाधान किया है। उन्हें लगा कि ये अब रामकृष्ण परमहंस को छोड़ कोई और गुरु कर रहे हैं। स्वामीजी ने शंका निवारण करते हुए लिखा है, ‘मेरा मूलमंत्रा है कि जहां जो कुछ अच्छा मिले, सीखना चाहिए। इसके कारण मेरे बहुत से गुरुभाई सोचते हैं कि मेरी गुरुभक्ति कम हो जाएगी। इन्हें मैं पागलों तथा कट्टरपंथियों के विचार समझता हंू, क्योंकि जितने गुरु हैं वे सब एक उसी जगद्गुरु के अंश तथा आभासस्वरूप हैं। यदि तुम गाजीपुर आओ तो गोराबाजार में सतीश बाबू या गगनबाबू से मेरा ठिकाना पूछ लो। अथवा पवहारी बाबा को तो यहां का बच्चा-बच्चा जानता है। उनके आश्रम में जाकर पूछ लेना कि परमहंस कहां रहते हैं। लोग तुम्हें मेरा स्थान बता देंगे। मुगलसराय के पास दिलदारनगर नामक एक स्टेशन है जहां से तुम्हें ब्रांच रेलवे द्वारा तारीघाट तक जाना होगा। तारीघाट से गंगा पार करके तुम गाजीपुर पहंुचोगे। अभी तो मैं कुछ दिन गाजीपुर ठहरूंगा।’
    विवेकानंद बाबा से दीक्षा भी लेना चाहते थे लेकिन स्थितियां ऐसी आ जातीं कि संकल्प को स्थगित करना पड़ता। वे बाबा से हठयोग सीखना चाहते थे ताकि उनकी कमर का दर्द दूर हो सके। यह अभिलाषा भी उनकी पूरी नहीं हुई। दूसरी इच्छा थी कि बाबा से कुछ आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करें। यह भी पूरी नहीं हुई। इससे विवेकानंद काफी निराश हो गए। निराशा इस स्तर तक पहुंच गई कि उन्होंने संकल्प ही ले लिया कि अब किसी बाबा से नहीं मिलना है। विवेकानंद का मोटो दूसरा था और पवहारी बाबा का दूसरा। विवेकानंद ने खुद अपनी ही पुस्तिका में उनके बारे में लिखा है, ‘भारत के अन्य अनेक संतों के सदृश पवहारी बाबा के जीवन में भी कोई विशेष बाह्य क्रियाशीलता नहीं दीख पड़ती थी। ‘शब्द द्वारा नहीं बल्कि जीवन द्वारा ही शिक्षा देनी चाहिए, और जो व्यक्ति सत्य धारण करने के योग्य हैं, उन्हीं के जीवन में वह प्रतिफलित होता है।’-उनकी जीवन इसी भारतीय आदर्श का एक और उदाहरण है। इस श्रेणी के संत, जो कुछ वे जानते हैं, उसका प्रचार करने में पूर्णतया उदासीन रहते हैं, क्योंकि उनकी यह दृढ़ धारणा होती है कि शब्द द्वारा नहीं, वरन केवल भीतर की साधना द्वारा ही सत्य की प्राप्ति हो सकती है। उनके निकट धर्म सामाजिक कर्तव्यों की प्रेरकशक्ति नहीं है, वरन इसी जीवन में सत्य का प्रखर अनुसंधान एवं सत्य की उपलब्धि है। वे काल के किसी एक क्षण मंे अन्यान्य क्षणों की अपेक्षा अधिक क्षमता स्वीकार नहीं करते। अतएव अनंत काल के प्रत्येक क्षण के एक समान होने के कारण वे इस बात पर जोर देते हैं कि मृत्यु की बाट न जोहकर इसी लोक में तथा प्रस्तुत क्षण में ही आध्यात्मिक सत्यों का साक्षात्कार कर लेना चाहिए।’....‘उनकी एक विशेषता यह थी कि वे जिस समय जो काम हाथ में लेते थे, वह चाहे कितना ही तुच्छ क्यों न हो, उसमें पूर्णतया तल्लीन हो जाते थे। वे जिस प्रकार पूर्ण अंतःकरण से श्रीरघुनाथजी की पूजा करते थे, उसी एकाग्रता तथा लगन के साथ एक तांबे का लोटा भी मांजते थे। उन्हांेने हमें कर्म रहस्य के संबंध में यह दीक्षा दी थी कि जौन साधन तौन सिद्धि, अर्थात् ध्येयप्राप्ति के साधनों से वैसा ही प्रेम रखना चाहिए, मानो वे स्वयं में ध्येय हों, और वे स्वयं इस महान सत्य के उत्कृष्ट उदाहरण थे।’ ...‘ वे प्रत्यक्ष रूप से कभी उपदेश नहीं देते थे, क्योंकि ऐसा करना तो मानो आचार्यपद ग्रहण करने तथा स्वयं को मानो दूसरों की अपेक्षा उच्चतर आसन पर आरूढ़ कर लेने के सदृश हो जाता।  परंतु एक बार जब उनके हृदय का स्रोत खुल जाता था तब उसमें से अनंत ज्ञान की धारा निकल पड़ती थी। पर फिर भी उनके उत्तर सीधे न होकर संकेतात्मक ही हुआ करते थे।...उनके एक ही आंख थीं और अपनी वास्तविक उम्र से वे बहुत कम प्रतीत होते थे। उनकी आवाज इतनी मधुर थी कि हमने वैसी आवाज अभी तक नहीं सुनी।’
   विवेकानंद ने उनकी एक और विशेषता का उल्लेख नहीं किया है। पवहारी बाबा की लिखावट बहुत सुंदर थी। उनके हस्तलिखित ग्रंथ उनके आश्रम में पड़े हैं। इस तुच्छ लेखक को वह ग्रंथ देखने का मौका मिला। ग्रंथ में खूबसूरत डिजाइनदार किनारे और प्रसंगानुसार चित्रा सजे हुए हैं। चित्रा भी बाबा ने खुद ही बनाए थे। उन्हें देखकर उनके कलाबोध को समझ सकते हैं और एक संत के भीतर कितना उम्दा कलाकार भी था, चित्र इसकी चुगली करते हैं।


पीएन विद्यार्थी की याद में

डा. प्रभु नारायण विद्यार्थी से पहली बार परिचय डा. गिरिधारी राम गौंझू ने कराया। इसके बाद तो यह परिचय धीरे-धीरे प्रगाढ़ होता गया। इसी क्रम में पहली बार गौंझूजी के साथ उनके हरमू स्थिति घर गया। घर के ग्राउंड फ्लोर पर ही उनका कार्यालय और पुस्तकालय है। इसी में दसों आलमीरा पुस्तकें भरी पड़ी हैं। घर में कुछ कुर्सियों को छोड़कर किताबों का अखंड साम्राज्य स्थापित है। उनका यह समृद्ध पुस्तकालय और राहुल की समग्र पुस्तकों को देखकर चकित ही हुआ जा सकता है। राहुल के प्रति उनमें विशेष अनुराग था। यही कारण था कि वे राहुल की किताबों तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि उनकी पत्नी और पुत्रों के साथ भी उनका आत्मीय रिश्ता कायम हो गया था। संभव है, उनको घूमने की प्रेरणा राहुल सांकृत्यायन से ही मिली हो! 'अथातो घुम्मकड़ जिज्ञासाÓ को चरितार्थ करता उनका चरित्र और बौद्ध धर्म के प्रति विशेष लगाव के कारण ही तो नहीं श्रीलंका में उनका निधन हुआ। श्रीलंका में सम्राट अशोक के पुत्र ने बौद्ध धर्म का बिरवा रोपा था, जो आज वट वृक्ष बनकर लहलहा रहा है। श्रीलंका में उनके निधन के कुछ तो निहितार्थ होंगे ही।
प्रशासनिक सेवा से मुक्त होने के बाद तो उनका एकमात्र काम घूमना रह गया था। कभी बोधगया, कभी श्रीलंका, कभी कनाडा, कभी अमेरिका। हमेशा यात्रा पर ही रहे। फोन मिलाइए तो उधर जवाब आता, अभी तो शिमला में हैं। पेंशन का पैसा घूमने और किताबों में ही खर्च होता। जहां जाते, किताबों का ग_ïर ले आते। अंगरेजी, बांग्ला, अरबी, मगही जैसी आधा दर्जन भाषाओं के जानकार विद्यार्थीजी ने कोई पचास किताबें लिखी हैं। इनमें क्षेत्रीय इतिहास से लेेकर कविता, कहानी, संस्मरण, लेख आदि शामिल हैं। अभी-अभी दिल्ली से छपकर उनकी नई किताब आई है 'सत्ता की साजिश और पाखंड का मकडज़ाल।Ó तीन सौ पृष्ठï की इस पुस्तक में बौद्ध धर्म से लेकर दलित विमर्श और जातियों के जंगल से गुजरते हुए अगड़ी-पिछड़ी राजनीति तक को समेटा है। यह पुस्तक उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और पक्षधरता को रेखांकित करती है।
विद्यार्थीजी की सरलता व्यक्तिगत रूप से मुझे आकर्षित करती रही है। संयुक्त सचिव से अवकाश प्राप्त करने वाले इस अधिकारी में अकड़ या दंभ नाम की कोई चीज नहीं थी। इतनी सरलता और सहजता विरले लोगों में होती है। हो सकता है, यह बुद्ध के दर्शन का प्रभाव हो!  यह भी हो सकता है कि झारखंड के आदिवासियों के बीच रहने के कारण यह गुण उनमें सहज आ गया हो। जब अधिकारी थे, जंगलों की खाक छानते और उनके दुख-दर्द को देखते और जितना संभव होता, उनकी मदद करते। आज के अधिकारियों की ओर नजर दौड़ाइए तो पता चलेगा कि भारत को भुखमरी को ओर ले जाने वाले ये ही नौकरशाह हैं। नितांत असंवेदनशील और बेईमान। झारखंड में जो भी योजनाएं गरीबों-आदिवासियों के लिए चलाई जा रही हैं, उन पर ये अधिकारी कुंडली मारकर बैठे हैं।
ऐसे समय में इनकी याद स्वाभाविक है। अवकाश प्राप्ति के बाद तो उनके पास दो ही शगल थे, लिखना और घूमना। इसके अलावा उन्हें एक और शौक था। इसे प्राय: कम लोग ही जानते हैं। पुराने-नए सिक्कों, नोटों और डाक टिकटों का संग्रह। उनके पास दुनिया भर के सिक्के, नोट और डाक टिकटों के कई एलबम भरे हुए हैं। जहां जाते, जिस देश जाते वहां के नोट, सिक्के और डाक टिकट ले आते और अपने एलबम को समृद्ध करते।
उनने एक महत्वपूर्ण काम यह किया है कि जहां-जहां वे अधिकारी रहे, उस क्षेत्र के अज्ञात इतिहास से पर्दा उठाया। रोमिला थापर ने अपने एक लेख में क्षेत्रीय इतिहास पर बल दिया था। क्षेत्रीय इतिहास की कडिय़ों को जोड़कर ही भारत का समग्र इतिहास लिखा जा सकता है। यह काम बड़ी ईमानदारी से विद्यार्थीजी ने किया। जब वे देवघर में पदस्थापित थे, वहां के एक मराठी ब्राह्मïण के बारे में लिखा। इस ब्राह्मïण सखाराम देउस्कर ने 'देेशेरकथाÓ लिखी थी। इस पुस्तक का उन्होंने पुनरुद्धार ही नहीं किया, बल्कि स्थानीय लोगों के सहयोग से उनकी मूर्ति भी स्थापित की। यह पुस्तक आजादी के आंदोलन की चश्मदीद कहानी है। लेखक ने महाराष्ट्र से अपने परिवार के आने की कहानी के साथ आजादी को लेकर चले संघर्ष की कहानी को भी लिखा है। अभी हाल में हिंदी के ख्यात आलोचक डा. मैनेजर पांडेय ने इस पुस्तक का संपादन किया है और यह नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक की भूमिका डा. पांडेय ने विद्यार्थी की महत्ता को रेखांकित किया है।
विद्यार्थीजी के काम का मूल्यांकन होना बाकी है। लोगों ने उनके कामों को रेखांकित करने से परहेज किया है। कारण, वे किसी गुट के आदमी नहीं थे। इधर, रांची में जो ट्रेंड चला है, तू मुझे सराहो, मैं तुझे सराहूं, इससे वे मुक्त ही रहे। इसलिए, लोग उन पर कम ही ध्यान देते हैैं। वैसे, राधाकृष्ण जैसे सिद्धहस्त कथाकार को जब रांची के कथाकार याद नहीं करते, तो विद्यार्थीजी को कैसे याद कर सकते हैं। अपने-अपने वैचारिक खूंटे में बंधे लोगों से बहुत अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। जब वह नहीं हैं, उनकी यादें, मुस्कुराता हुआ चेहरा बार-बार याद आता है।