दो साल में भी नहीं बन सका अलबर्ट एक्‍का का स्‍मारक

बड़े ताम-झाम के साथ रांची राजधानी से 175 किमी दूर परमवीर अलबर्ट के गांव जारी में उनकी जमीन पर मुख्यमंत्री रघुवर दास ने स्मारक समाधि-शौर्य स्थल का शिलान्यास किया था। यह तारीख थी, तीन दिसबंर, 2015। तीन दिसंबर को ही अलबर्ट देश के लिए शहीद हो गए थे। साल था 1971। जारी गांव में शिलान्यास के 22 महीने बीत जाने के बाद आज तक वहां एक ईंट भी नहीं रखी गई।
यह तब है, जब अलबर्ट एक्का के शहीद होने के 44 साल बाद उनके गांव को उनकी मिट्टी नसीब हुई थी, जिस मिट्टी में खेलकूद कर बड़े हुए थे। उनकी मिट्टी त्रिपुरा से ले आई गई। मिट्टी आई तो रांची से लेकर गुमला-जारी तक उत्सव का माहौल था और इस उत्सव के दौरान ही शौर्य स्थल की नींव रखी गई और आज तक वहां एक ईंट भी नसीब नहीं हुई। सरकार शिलान्यास कर जारी गांव को भूल गई। भूली न होती तो कम से कम चैनपुर से उस गांव तक एक बेहतर सड़क बना सकती थी। चैनपुर से जारी गांव का 12 किमी का सफर तय करना किसी पथरीली चढ़ाई से कम नहीं है। जारी गांव अब प्रखंड बन गया है, लेकिन विकास से अब भी कोसों दूर है।
एक ओर भारतीय सैनिकों के प्रति पाकिस्तान की बर्बरता को लेकर लोगों के मन में आक्रोश और दुख है। आक्रोश पाक के प्रति और दुख शहीद सैनिकों के परिवारों के प्रति। हम सैनिकों को लेकर भी राजनीति करने से बाज नहीं आते। सरकार की घोषणाएं कागजों पर ही सिमट गई है। समाधि स्थल की चारदीवारी भी नहीं की गई है। समाधि पर एक छोटा सा क्रास है। मैदान में चारों तरफ गोबर फैला रहता है। गाय-भैंसों की आवाजाही मैदान में होती रहती है।
पुश्तैनी मकान भी ढह गया
अलबर्ट जिस खपरैल के मकान में पैदा हुए थे, वह मकान भी ढह रहा है। यहां कोई नहीं रहता। कुछ गांव में ही 1994 में बने मकान में रहते थे। अब उस पुश्तैनी मकान को देखने वाला कोई नहीं। अलबर्ट एक्का की पत्नी बलमदीना एक्का रुआंसे गले से गुहार लगाती हैं कि उनका वह पैतृक खपरैल का मकान बन जाए। वह कहती हैं, उस मकान से मेरी भी यादें जुड़ी हैं। इसी मकान में अलबर्ट जवान हुए और सेना में भर्ती हुए। इसी घर में खेलते-कूदते बड़े हुए। उनकी यह निशानी है। सरकार ध्यान दे तो यह निशानी बच सकती है और यहां एक स्मारक बन सकता है।
2013 में बेटे को लगी नौकरी
अलबर्ट एक्का के एकलौते बेटे विनसेंट एक्का अपनी मां एवं अपने परिवार के साथ चैनपुर में रहते हैं। यहीं पर अपने बेटों को पढ़ाते हैं। सरकार ने बस दस क_ा जमीन दे दी। उनके बेटे ने खुद ही यहां एसबेस्टस का मकान बनाकर रहते हैं। चैनपुर में 2013 में लिपिक की नौकरी सरकार ने दी।    

थाक-थाक तोमार घोड़ागाड़ी आमरा हेंटे इ जाबो

-डॉ शिवप्रसाद सिंह

 बंगलादेश में चलने वाले स्वाधीनता-संघर्ष में हंसते-हंसते मरने वाले लोगों के बारे में मैं जब भी कोई बयान पढ़ता हूं, मुझे रवि बाबू का गीत याद आने लगता है-
कोन कानने जानिने फूल
गंधे एत करे आकुल
कांन गगने उठे रे चांद
एमन हांसि हंसे
ओ मां आंखि मेलि तोमा आलो
देखे आमार चोख जुड़ालो
ए आलोके नयन रेखे
मुंदबा नयन शेषे
सार्थक जनम आमार
जन्मेछि ए देशे।
  नहीं जानता कि किसी और कानन में ऐसे फूल होते हैं, जिनकी गंध प्राणों का ऐसा आकुल कर सकती है। मुझे नहीं मालूूम कि किसी और गगन में ऐसा चां
द होता है, जो इस तरह खिल खिलाकर हंसता है। हे मां, तुम्हारा इस आलोक को देख कर मेरे नयन जुड़ाते हैं। इसी आलोक को आंखों में लिए चयन बंद कर लूं, यही कामना है। मैं ऐसे देश में जन्मा कि जीवन सार्थक हो गया।
  लाखों लाख व्यक्तियों का यह जोश न तो गद्दारी है न देशद्रोह। इन्हें राज्य और शासन की मर्यादा का ढोल पीटकर दबाया नहीं जा सकता। शासन उस वक्त शैतान बन जाता है, जब वह जनता की इच्छाओं को, जीने और जीते रहने की मामूली ख्वाहिशों को संगीनों की नोंक पर उछालने की कोशिश करता है और आदमी के मामूली सपनों को अपने भद्दे बूटों से कुचल देने की बहशियापाना हरकत करता है। ऐसे शासन को लानत है। पाकिस्तानी फौजी शासन ने खुलेआम इस क्रांति को शरारतपसंदों की छेड़छाड़ कहा और फौजी छावनियों में घोषण की गई कि मुजीब कहता है कि बंगाली बहुमत में हैं इसलिए वे पाकिस्तान पर हुकूमत करेंगे, हमें इन्हें अल्पमत में बदल देना है ताकि ये पंजाबी और पठानों पर शासन का मनसूबा न रख सकंे।
  उसने खुले चौराहे पर लोगों की भीड़ को संबोधित करते हुए कहा-‘सुनो लोगो, संसार के तमाम खूंखार दरिंदों से कहीं बदतर एक जानवर होता है जिसे शासन कहा जाता है। यह निहायत बदसूरत और गलीज झूठ बोलता है। ये अल्फाज सिर्फ इसी की जुबान से निकलते है कि, मैं यानी शासन ही जनता है। हां...हां...हां। यह झूठ है। सरासर झूठ है। निर्माता वह है जिसने जनता को बनाया। उसने इनके उ$पर मुहब्बत और विश्वास की छांव डाली और हुकूमत? हुकूमत वह ध्वंसकारी गिरोह है जो बहुमत को हिकारत से देखती है और जनता पर तलवार और संगीनों की छाया तानती हैै।’ इस तरह बोला जरथुस्ट। नीत्से का यह पागल दार्शनिक आज जाने क्यों बार-बार याद आता है। साढ़े सात करोड़ जनता ने अपने सपनों और अरमानों को पूरा करने के लिए जिस आदमी को चुना, जिसे उन्होंने खुलेआम अपना एकमात्रा रहनुमा और नेता करार दिया, वह देशद्रोही और गद्दार है, जबकि दुनिया भर से भीख मांगकर बटोरे हुए जंगी सामानों की ढेरी पर खड़ा याहिया खान पाकिस्तान का सदर है और वह मुल्क की एकता और हुकूमत की मर्यादा को बचाने के नाम पर जो कुछ कर रहा है, वह पाकिस्तान का अंदरुनी मामला है। कैसी बदसूरत होती है, हुकूमतों के नाम पर बनाई गई यह संवैधानिक साजिश। इसने दुनिया को छोटे-बड़े तमाम हुकूमतों के मुंह सिल दिए हैं। असल में हुकूमतों की भी एक अंतरराष्टीय गिरोहगर्दी होती है, जहां एक दूसरे के जुल्म और अमानवीय कार्य को ढंकना-तोपना गिरोहस्वार्थ की संहिता का परम पवित्रा उद्देश्य होता है।
  हमारे देश के लोग परेशान हैं कि यदि ऐसी घटनाओं का समर्थन दें तो एक दिन नागालैंड, कश्मीर, तमिलनाडु आदि का भी देश से अलग होने से बचाया न जा सकेेगा। कुछ लोग कहते हैं क्या दोनो बंगाल मिलकर एक हो जाएं। पता नहीं इस शंका पर पागल दार्शनिक जरथुष्ट क्या कहता पर एक मामूली बौद्धिक भी आसानी से कह सकता है कि क्या पूर्वी पाकिस्तान की घटनाओं से इतना भी नहीं सीख पाए कि मुहब्बत और विश्वास की छाया के नीचे ही एकता होती है, संगीनें और तलवारें एकता नहीं पैदा कर सकतीं।
  हुकूमत हमेशा झूठ बोलती है। जनता एक न एक दिन अपने खून का हिसाब मांगती है, उसे जिस दिन यह विश्वास हो जाएगा कि अलगाव की बात करने वाले गिरोह-स्वार्थ की संहिता का पालन कर रहे हैं, वह उन हुकूमतों को इसी तरह दफना देगी, जैसे बांगलादेश में हो रहा है। एकता एक दूसरे की मदद से बेहतर जीवन जीने के बुनियादी प्रश्न पर टिक सकती है। यदि ऐसा नहीं है तो वह नकली एकता है। सवाल इस या उस हिस्से का नहीं, सवाल इंसान का है, जनता का है। आप जनता के नाम पर कुछ ही समय तक अपना उल्लू सीधा कर सकते हैं। कागज की नाव हमेशा नहीं चला करती। इसलिए हमें बांगलादेश की घटनाओं पर नए सिरे से सोचने की जरूरत है। बहुत बरसों के बाद इस उप महाद्वीप की जनता और नेताओं के सामने ऐसा अवसर आया है कि हम स्वार्थ और संकुचित सीमाओं से बाहर निकल कर कठोर यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर सही ढंग से सोचना शुरू करें। इस नव चिंतन में बहुत-सी चीजें टूटेंगी, जिन से हमारा मोह भी हो सकता है, पर मोहविद्ध स्थिति से छूटकारा पाने का सुअवसर भी जातियों को कभी-कभी ही मिलता है।
   स्वतंत्राता जन्मसिद्ध अधिकार है, कहने वाला मांडले के जेल में बंद कर दिया गया। यह स्वतंत्राता शब्द भी खूब छलावा है। स्वतंत्राता के नाम पर आज कल एक-से-एक नारे प्रज्ज्वलित हो गए हैं। हम इसीलिए असली और नकली स्वतंत्राता में भेद करना होगा। असली स्वतंत्राता विश्वव्यापी मानवता की जरूरत है, नकली स्वतंत्राता गिरोहस्वार्थ वालों की सत्तालिप्सा का आवरण होती है। मैं कम्युनिस्ट शासन मंे व्यक्ति की सत्ता और स्वतंत्राता को नकारने वाली हुकूमत की लफ्फाजी का सख्त विरोधी हूं, पर मुझे फ्रेडरिक एंजिल्स का यह कथन हमेशा ही सही और सार्थक लगता रहा है कि ‘स्वतंत्राता प्राकृतिक नियमों को इन्कार करने की काल्पनिक स्थिति का नाम नहीं है, बल्कि मनुष्य की जरूरयात को पूरा करने की छूट की स्वीकृति है।’ मनुष्य की मामूली जरूरतें पूरी करने की भी जहां छूट नहीं होती, वहीं असली स्वाधीनता संघर्ष जन्म लेता है। यह असली स्वाधीनता मनुष्यता की स्वाभाविक अस्तित्वमूलक विशेषता है। यह कभी विभाजित नहीं होती। कभी धर्म, राष्ट, संस्कृति आदि की मामूली सीमाओं से घेरी नहीं जा सकती। इस स्वाधीनता के सैलाब को मजहब या राष्टीय एकता के नाम पर कुचला नहीं जा सकता और इसीलिए हर मनुष्य का यह स्वधर्म है कि मनुष्यता की इस अविभाज्य आत्मिक मांग को पूरा समर्थन दे। बांगलादेश की स्वाधीनता का संघर्ष असली स्वाधीनता संघर्ष है क्योंकि वह संघर्ष वहां की जनता के जीवन की मामूली जरूरतों को पूरी न हो सकने की स्थिति से जन्मा है, इसलिए यह एक आंतरिक असली और बुनियादी स्वाधीनता-संग्राम है। इसे स्वीकार करने में धर्म, संविधान, राष्टीयता, अंतरराष्टीय तौर-तरीकों की दुहाई देकर हिचकना अमानवीय और मानवधर्म के विपरीत है।
 असली स्वाधीनता संग्राम एक प्रकाश स्तंभ होता है जो न केवल अपने मूल स्थान में अंधकार और तमस की जड़ता से टकराता और उस का विनाश करता है, बल्कि अपनी ओर सहानुभूति और मानवधर्मिता के भाव से देखने वालों को भी नया प्रकाश और उत्साह प्रदान करता है। असली स्वाधीनता संग्राम को राजनीतिक मतवादों की घुसपैठ से धूमिल और निरर्थक बनाने की कोशिशें भी कम नहीं होतीं, बल्कि प्रायः इन से बच पाना असंभव नहीं तो कठिन तो अवश्य ही रहा है, पर कभी-कभी प्रकृति मनुष्यता को सही दिशा-निर्देश्श देने के लिए शुद्ध स्वाधीनता-आंदोलन को जन्म देकर उदाहरण भी पेश करने का काम करती रहती है। आज यदि   मुजीब अमेरिकी, चीनी या रूसी मतवाद का पिट्ठू होता तो उसे बिना मांगें अतुल सहायता मिल जाती पर तब यह भी खतरा होता कि एक नया वियतनाम पैदा हो जाता, जहां सत्य और असत्य का ऐसा गड़बड़झाला खड़ा कर दिया जाता कि पता ही नहीं चलता कि जनता और फौज की आवाज में फर्क क्या होता है। मुजीब इस दृष्टि से प्रकृति का निर्वाचित ऐसा प्रतिनिधि है जो मनुष्यता को ही अपना नारा और उद्देश्य बनाकर चला है किसी मतवाद और झंडे को नहीं। इसी कारण उसकी लड़ाई अमानवीयता के खिलाफ मानवता की लड़ाई बन गई है। इसी वजह से इस लड़ाई की जोखिम भी बढ़ गई है। मानवीयता को वरीयता देने के कारण मुजीब ने क्रांति में करुणा को जोड़ने की कोशिश की है। यानी लोहिया की शब्दावली में ‘क्रांति में करुणा का मेल सिविल नाफरमानी है।’ सिविल नाफरमानी के सब से बड़े उस्ताद लोहिया ने शायद यह नहीं सोचा कि दुर्दांत सत्ता सहित नाजीवाद की पुनरावृत्ति भी कर सकती हैै। लोहिया को शायद विश्वास था कि दुनिया आगे बढ़ रही है, इसलिए नाजीवाद का गड़ा मुर्दा क्यों कर खड़ा हो सकता है, पर हुआ और यह मानना पड़ेगा कि सिविल नाफरमानी के फलसफे में इस लड़ाई के बाद थोड़ी तरमीम करनी पड़ेगी। सिविल नारफरमानी कत्लेआम के सामने अहिंसक नहीं रहेगी, यह जोड़ना लाजिमी हो गया है। लोगों का पुराना शक फिर सिर उठा रहा है यानी गांधी का सत्याग्रह अपेक्षाकृत सभ्य अंग्रेजों के सामने और लोहिया की सिविल नारफरमानी देशी सत्ता के खिलाफ ही कारगर हो सकती है।
  वस्तुतः मुजीब का स्वाधीनता-संग्राम एक ऐसी घटना है जो कई तरह के मुद्दे उभारेगी। इस लड़ाई ने या क्रांति ने कई चीजों पर सोचने के लिए विवश किया है। यह पहली विरथी क्रांति है अर्थात् इस लड़ाई के सामने मजहब, मतवाद या क्रांति के परिचित स्कूलों अर्थात माओ, चेग्वारा अथवा लेनिन आदि की क्रांतियों के नक्शे बेकार हो गए हैं। क्रांति कोई सिक्का नहीं कि उसे किसी न किसी छापे के बिना ढाला ही नहीं जा सकता। क्रांति जनता की आत्मा का आक्रोश है, रुद्रभाव है, जो अपनी अभिव्यक्ति की शक्ल खुद तलाश कर लेता है। मुजीब का स्वाधीनता संग्राम क्रांतियों की नई-नई पोशाकांे या लबादों के बिना सहज स्वाभाविक गति से पांव-प्यादे सामने आया है, जो कि मनुष्यता के भविष्यत संघर्षों को एक नया मोड़ देने का कार्य करेगा। अन्याय से जूझने का यह नया प्रयोग और इतने शहीदों का खून बेकार नहीं जाएगा। इसमें सफलता-असफलता के प्रश्न का कोई खास मतलब नहीं। सभी जानते हैं कि असफल क्रांतियां देशद्रोह बन जाती हैं। सवाल क्रांति के उसूलों और उसको चलाने के तरीकों का है। सफल होने या असफल होने का उतना नहीं।
  इस तरह की क्रांतियां हमेशा आंतरिक और बौद्धिक चेतना से खाद और खुराक ग्रहण करती हैं। बुद्धि को गिरवी रखकर क्रांति का फल संभवतः आसानी से या कम दिक्कत से पाया जा सकता है। पर बिना गिरवी रखी बुद्धि को क्रांति के दौर में जिन खूनी घाटियों से गुजरना होता है, उसे भुक्तभोगी ही जान सकता है। इसका सच से कड़वा स्वाद बांगलादेश के बौद्धिकों को चखना पड़ा है। अपनी बुद्धि पर विश्वास करना स्वाभिमान भले लगे खतरनाक कम नहीं होता। मुजीब और उसके साथी इसे जानते थे। इसका परिणाम भी सामने है। बांगलादेश को सामूहिक बौद्धिक चेतना को बंदूकों से उड़ा देने का प्रयत्न शैतान की बेइंतहा अक्लमंदी का प्रमाण है, पर शैतान हमेशा ही यह गलती करता है, शायद यही उसकी विशेषता भी है कि वह असली स्वतंत्राता की तरह असली बौद्धिकता को भी क्षेत्राीय वस्तु मान लेता है। बांगलादेश के बौद्धिक, जो अब नहीं है, अपनी चेतना की विरासत, विश्व के उन तमाम बौद्धिकों के नाम छोड़ गए हैं, जो बुद्धि को गिरवी रखना मृत्यु से बदतर मानते हैं। बांगलादेश की यह विरथी क्रांति वस्तुतः विश्व के बौद्धिकों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है।
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डॉ शिवप्रसाद सिंह हिंदी के जाने-माने लेखक। ललित निबंधकार, उपन्यासकार। यह लेख साप्ताहिक हिंदुस्तान, एक मई, 1971 के अंक में प्रकाशित हुआ था
           

अपने अपने जयपाल सिंह

प्रो गिरिधारी राम गौंझू

गोपाल दास मुंजाल और बलवीर दत्त दोनों जन्मना पंजाब (अब पाकिस्तान) के पंजाबी भारतीय लेखक, संपादक, पत्रकार, साहित्यकार और राँची निवासी हैं। दोनों जयपाल सिंह से गहरे रूप से जुड़े हुए हैं। गोपाल दास मुंजाल की 16 जनवरी 1955 अंक 3 ‘अबुआ झारखण्ड’ जयपाल सिंह विशेषांक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुई। इसमें आवरण पृष्ठ पर लिखा है - ‘मुण्डा जाति का अनमोल रत्न’ - ‘लाखों लाख झारखण्डियों के मरङ गोमके श्री जयपाल सिंह जिन्होंने राजनीतिक महारथियों को विस्मय चकित सा कर रखा है।’
और बलबीर दत्त की पुस्तक आयी झारखण्ड निर्माण के 17 वर्षों की तपस्या के उपरान्त अप्रेल 2017 में - ‘जयपाल सिंह एक रोमांचक अनकही कहानी (जीवनी, संस्मरण एवं ऐतिहासिक दस्तावेज)’ इसके अनुक्रम के कुछ प्रकरण देखिए वे जयपाल सिंह को किस नजरिए से देखते रहे हैं -
“1. जयपाल सिंह एक रोमांचक अनकही कहानी,
2. एक जीनियस का दिशाहीन सफर
3. जयपाल सिंह का रहस्मय जीवन
4. इतिहास की निष्ठुर शक्ति
5. राँची के लोगों से जयपाल सिंह की शिकायत
6. अनमोल प्रतिभा का दुरूपयोग
7. निष्ठा और साहसपूर्ण प्रतिबद्धता की कमी
8. पुस्तक में बहुत ही कड़वीं सच्चाइयाँ
9. धर्म परिवर्त्तन का डर
10. फाइनल (अमस्टरडम ओलम्पिक हॉकी 1928) में नहीं खेले जयपाल
11. क्यों नहीं बन सके आई. सी. एस. अफसर?
12. ब्रिटेन के प्रति वफादारी
13. मुख्य मंत्री (श्री कृष्ण सिंह-बिहार) से तीखी तकरार-नतीजा सिफर
14. बेकार की कसरत
15. गांधी जी की राँची यात्रा पर हड़ताल का विचित्र आह्वान
   (जयपाल सिंह का)
16. कहाँ गाँधी कहाँ जयपाल ?
17. दोनों नावों पर सवार
18. सुभाष बाबू मुझे जेल जाने से डर लगता है!
19. डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद से जयपाल सिंह की लंबी रंजिश
20. बिहारी विरोधी रवैया
21. जयपाल सिंह का मुसलिम लीग का फंड
22. सहयोगियोें की किनाराकशी
23. राँची में जयपाल सिंह के विरूद्ध विशाल भंडा फोड़ रैली।
24. आदिवासियों के विदोहन का आरोप
25. किस्मत की रोटी
26. झारखण्ड या नागपुरी प्रदेश
27. चुनाव में हारते हारते बचे जयपाल सिंह
28. तन कांग्रेस में मन झारखण्ड पार्टी में
29. भूमि अधिग्रहण व विस्थापन - कहाँ थी झारखण्ड पार्टी
30. जयपाल बनाम कार्तिक
31. जिंदगी की दो महागलतियाँ
32. मदिरा प्रेम का अनर्थ
33. नायक पूजा एक अभिशाप
34. जवानी का बुढ़ापा बनाम बुढ़ापे की जवानी
35. नेहरू ने धोखा दिया कितना सच कितना झूठ?
36. जयपाल सिंह को चुनौती: कार्यकर्त्ताओं के नाम हरमन लकड़ा का    
   खुला-पत्र।
37. झारखण्ड आन्दोलन के साथ विश्वास घात आदि“
लहलहाते धान के खेतों से कोई घास काटता है कोई धान। इन प्रकरणों से लेखक पाठकों को क्या बताना चाहते हैं?
श्री गोपाल दास मुंजाल ने - मरङ गोमके जयपाल सिंह : एक महान व्यक्तित्व की भूमिका में किन-किन विशेषणों का प्रयोग किया है देखिए --
“- नेतृत्व की अदभुत क्षमता
- महान आदिवासी
- मुण्डा जाति का वीर पुत्र
- महान व्यक्तित्व का केवल रेखा चित्र
श्री मुंजाल ने इस छोटी पुस्तक के आरंभ में जयपाल सिंह के ओलम्पिक हॉकी खेल के वर्णन से किया है --
“सन् 1928 के अमस्टरडम में होने वाले नवें ओलम्पिक में श्री जयपाल सिंह ने हॉकी खेलने में अपने जिस अद्भुत कौशल का प्रदर्शन किया था उसे देख कर खिलाड़ियों का सारा संसार बिस्मित तथा मुग्ध हो उठा था। उस दिन विश्व के महान खिलाड़ियों ने 25 वर्षीय जयपाल को एक स्वर से सारे संसार का सर्वश्रेष्ठ हॉकी खेलने वाला स्वीकार किया। जयपाल भारतीय हॉकी टीम के कैप्टन थे। इनके नेतृत्व में ही उस वर्ष भारत ने हॉकी का विश्व चैम्पियनशिप प्राप्त किया था। उस दिन प्रथम बार सारी दुनिया ने जयपाल सिंह मुण्डा को अद्भुत क्षमता के दर्शन किये थे।“(पृ0 1)
- जिस जाति ने बिरसा भगवान जैसे देश भक्त, वीर तथा त्यागी नेता को जन्म दिया था, आप उसी मुण्डा जाति के अनमोल रत्न हैं। (पृ01)
- दृढ़ चरित्र
- नेतृत्व क्षमता
- पढ़ने-लिखने की विलक्षण प्रतिभा
- छात्र-गुरु जन विस्मय भरी प्रशंसा करते थे
- अपने क्लास में सदा प्रथम आता था
- फुटबॉल का कुशल खिलाड़ी
- स्कूली हॉकी टीम का कैप्टन
- सभी हिन्दू मुसलमान ईसाई छात्र अपना नेता मानते थे।
- समाज कल्याण
- जन्म सिद्ध नेता
- दृष्टिकोण विस्तृत
- संेट पॉल राँची के प्राचार्य का कथन - प्रत्येक दृष्टिकोण से उसके
  चरित्र की श्रेष्ठता एवं दृढ़ता का मैं आरंभ से ही प्रशंसक रहा हूँ।(पृ02)
- रेव. केनोन कौसग्रेभ जयपाल सिंह की प्रतिभा से इतने अधिक
  प्रभावित तथा मुग्ध हुए कि सन् 1919 में उन्हें उच्च शिक्षा दिलाने के लिए अपने साथ ही इंग्लैण्ड ले गए।(पृ0 2)
- इंग्लैण्ड के ब्रिटिश शिक्षक एच.ए. जेम्स ने  17-6-1924 के पत्र में लिखा - “जयपाल एक अन्य  श्रेष्ठ विद्याभ्यासी  तथा दृढ़ चरित्र का युवक है। मेरा यह विश्वास है कि यह युवक जीवन के जिस क्षेत्र में भी प्रवेश करेगा, उसी क्षेत्र में यह असाधारण   सफलता प्राप्त करेगा। जयपाल में एक दीप्ति है जो इसे हर कहीं प्रकाशमान रखेगी।“(पृ02)
- इनके कॉलेज के एक प्रो0 जे. एल. स्टोक्स ने अपने 18-6-1924 के पत्र में लिखा है वह  (जयपाल सिंह)  - जब भाषण देता है तो श्रोताओं को जैसे किसी मंत्रवल से मुगध सा कर लेता है। जयपाल के वक्तव्य, श्रोताओं में एक अविचल  तथा  अखण्ड  विश्वास की सृष्टि करने की क्षमता से भरे  होते  हैं।  इसके  बोलने  का   ढंग  श्रोताओं को इस पर भरोसा रखने के लिए सशक्त रूप से प्रेरित करता है।(पृ0 3)
- श्री ध्यानचंद, श्री मैनेजर तथा श्री शौकत अली आदि भारत के प्रसिद्ध खिलाड़ी इस टीम में सम्मिलित हुए थे, श्री एलेन गोलकीपर थे। एक महान खिलाड़ी तथा कैप्टन के रूप में हमारे मरङ गोमके श्री जयपाल सिंह ने ही इस (1928 अमस्टरडम ओलम्पिक में) टीम का नेतृत्व किया था। (पृ04)
- सन् 1932 में आपको  (जयपाल सिंह को)  लोसएजेंल्स में  होने वाले ओलियम्पिक में पुनः भारतीय टीम का कैप्टन बनकर जाने का  आमंत्रण दिया गया। किन्तु  कम्पनी के  कार्यों से अवकाश  नहीं मिल पाने के कारण आप उसमें सम्मिलित नहीं हो सके। (पृ04)
गोल्डकोस्ट कोलोनी के गवर्नर श्री रोन्टोन थोमस को लिखे 4-12-1933 के एक पत्र में रेव. ए. जी. फ्रेजर एम.ए., सी.बी.ई. ने लिखा है - “यह युवक, जयपाल सिंह शिक्षा देने की अदम्य भावना तथा योग्यता से ओत-प्रोत है। यह एक श्रेष्ठ खिलाड़ी, श्रेष्ठ व्यवस्थापक, सुसंस्कृत तथा अनेक भाषाओं का विद्वान है। शिक्षक के कार्य की इसकी दक्षता असाधारण है। अपनी शिक्षा संस्था में व्यापारिक शिक्षा देने के लिए जयपाल सिंह से और अधिक योग्य शिक्षक मिलने की आशा मुझे तनिक भी नहीं है। इसकी विद्वता बहु-प्रशंसित तथा व्यक्तित्व आकर्षक है।(पृ05)
एलेक पेटरसन ने रेव. ए. जी. फ्रेजर को बधाई देते हुए लिखा - आप बड़े ही भाग्यवान हैं जो आपको अपने कॉलेज के लिए श्री जयपाल सिंह जैसे योग्य तथा विद्वान व्यक्ति प्राप्त हुए हैं। (पृ0 5)
- जयपाल सिंह के प्राचार्य रेव. केनोन कौसग्रेभ ने लिखा है - मैं भारत के अपने दस वर्षों के आवास  में जयपाल से  अधिक दृढ़ चरित्र तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व के व्यक्ति से नहीं मिला हूँ।(पृ05)
- कलकत्ता हाई कोर्ट के जज श्री टोरिक अमीर  अली ने 27-8-1936 के एक पत्र में लिखा है - ‘जयपाल  सिंह के   व्यक्तित्व में एक ऐसा शक्तिशाली चुम्बक है कि जो  व्यक्ति  एक   बार उनसे मिल लेता है फिर वह उनसे भागने की अपनी सारी शक्ति खो बैठता है।’ (पृ0 6)
- बिहार के तत्कालीन गवर्नर ने 22-3-1937 के पत्र में लिखा - ‘मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि आप राजकुमार कॉलेज, रायपुर में सिनियर असिस्टेंट मास्टर के पद पर नियुक्त हो कर भारत पधार रहे हैं।’ (पृ0 6)
- राजकुमार कॉलेज रायपुर के प्रिन्सिपल ने एक पत्र में लिखा है - “मैं अपने कॉलेज के शिक्षक पद के लिए जैसे व्यक्तित्व की कामना करता था उसे मैंने आप के (जयपाल सिंह के) रूप में पा लिया है। आप का अध्ययन तथा चरित्र असाधारण है।  अध्यापन के  आपके अनुभव भी अद्वितीय हैं। छात्रों पर  पड़ने वाली  आप  के व्यक्तित्व के प्रभाव की मात्रा को देख कर तो विस्मय सा होता है।(पृ0 6)
- चारों ओर एक नयी आशा की लहर नाच रही। इस विचार से कि वीर बिरसा मुण्डा के 40 वर्षों की लम्बी अवधि के बाद आज उन्हें पुनः एक दृढ़, वीर, तेजस्वी तथा विद्वान मुण्डा (जयपाल सिंह के) का ही नेतृत्व प्राप्त होगा। जनता उत्साह तथा उल्लास से भर आयी। (पृ0 8)
- जनता  ने  जयपाल  के  दर्शन  किये - गोल  चेहरे पर अन्याय के सम्मुख  कभी  नहीं  झुकने  वाली विशिष्ट मुण्डा - रेखाएँ,  सहज ही अपनी ओर खींचने वाली आकर्षक  मुद्रा,   जनता के मन में एक क्षण को भी यह नहीं आया  कि विलायती शिक्षा तथा वेश-भूषा के कारण जयपाल मुण्डा उनसे कुछ  भिन्न हो  गया है। जयपाल आदिवासियों का था और आदिवासी जयपाल के थे। (पृ0 9)
- ऐसे विलक्षण जयपाल सिंह को उसके समस्त पृथक-पृथक गुणों की विस्तृत नाप-जोख के साथ रखने के लिए मैं शीघ्र ही पृथक से एक मोटा ग्रंथ लिखूँगा। (पृ0 11)
- हम अपने उन समस्त आदिवासी भाइयों के प्रति जो देशी राज्यों, ब्रिटिश-भारत तथा संसार के अन्य  भागों  में  बस  रहे  हैं अपनी सहानुभूति प्रकट करते हैं। हम उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के संघर्ष में हम सब एक हैं तथा एक ही रहेंगे। (पृ0 12)
आदिवासीस्थान के विरोध में जयपाल सिंह ने कहा था - “मुझे भय है कि अपने आप को इस तरह पृथक रखने की कोई भी चेष्टा अन्ततः हम आदिवासियों के लिए घातक सिद्ध होगा। हमें भारत के सम्पूर्ण राष्ट्रीय जीवन में (उसके एक अंग की तरह) अपने लिए एक पृथक प्रान्त चाहिए। जिसका प्रशासन हमारे हाथ में हों तथा हम अपनी संस्कृति के अनुरूप ही जिस प्रशासन के द्वारा अपनी आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक स्थिति को अपने ढंग से उन्नत कर सकें।“ (पृ0 12)
- इग्नेस बेक का कहना  है -  मेरा  विश्वास  है  कि आदिवासियों में जयपाल के अतिरिक्त अन्य कोई भी  व्यक्ति  सच्चाई  तथा निर्भीकता का प्रदर्शन  इतने उच्च स्तर पर नहीं  कर  सकता   था।“ (पृ0 13 - मुख्यमंत्री बिहार श्री कृष्ण सिंह  के  बंगले  में   जयपाल के उद्गार के संबंध में)।
मरङ गोमके जयपाल सिंह के विरोधियों के उदृगार को भी श्री गोपाल दास मुंजाल ने इस प्रकार रखा है -- “सारे बिहार में राजनैतिक विरोध  जितना  जयपाल सिंह का हुआ है, उतना अन्य किसी  भी दूसरे  नेता का  नहीं  हुआ  है।  -  विरोधी राजनैतिक संस्थाओं के समाचार  पत्र  इन्हें अपने मन पसंद की, तरह तरह की उपाधियाँ  (गालियाँ)  देते  रहे हैं - 1. जयपाल प्रतिक्रियावादी हैं, 2. जयपाल बिहार  का  राजनैतिक  शत्रु  न  एक,  3.  जयपाल  बिहार  का राहू,
4. राजनैतिक खिलाड़ी  इत्यादि।  किन्तु जयपाल ने कभी इस ओर ध्यान  भी  नहीं दिया, वह अन्धड़ और तूफान की गति से अपने रास्ते चलते चला। उसका विचार  है कि जो लोग जान बूझ कर आदिवासियों  की  उन्नति के  मार्ग में रोड़े अटकाए हुए हैं वे ही प्रतिक्रियावादी हैं,  वे ही  मानवता  के राहू हैं वे बिहार का सत्यानाश करने पर तुले हुए हैं तथा भारत के सबसे बड़े शत्रु भी वे ही हैं।“
आदिवासियों को झारखण्ड में आदिवासियों की तरह रहने तथा जीने का पूर्ण अधिकार है। “वे बिहार के गुलाम बन कर नहीं रहेंगे।“ श्रीजयपाल सिंह का यही नारा है - वे यही चाहते हैं क्या दुनियाँ का कोई भी न्याय पसन्द व्यक्ति यह कह सकता है कि जयपाल की यह मांग, आदिवासी महासभा का यह सिद्धान्त, झारखण्ड पार्टी का यह नारा अनुचित है। क्या देश के स्वतंत्र नागरिक की तरह जीने के अधिकार की चाहना प्रतिक्रियावादिता है। क्या अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाना देश की शत्रुता हैं यही वे प्रश्न हैं जो श्री जयपाल सिंह बार-बार अपने उन भाइयों के सम्मुख रखते हैं जो उन्हें प्रतिक्रियावादी, राहु तथा देश का शत्रु नम्बर एक कहते हैं।(पृ0 13)
- निकट रहने  वाले  साथियों  का  कहना है  -  समय आया है जब जयपाल लगातार तीन-तीन दिनों तक भूखे  रह  गए हैं।   चने फांक कर पानी पी लिया है।  किसी को कहा  तक नहीं और अपनी तूफानी गति से कार्य करते रहे हैं।  आज  झारखण्ड  क्षेत्र के प्रत्येक घर में जिस राजनीतिक चेतना का स्फुरण दिखलायी  दे   रहा है वह सब केवल जयपाल सिंह के महान व्यक्तित्व अथक   श्रम  तथा इनके राजनीति की अद्भुत सूझ-बूझ के द्वारा ही संभव हो पाया है। (पृ0 14)
- पंडित जवाहर लाल नेहरू  को  संबोधित  करते  19-12-1946   के संविधान सभा में जयपाल सिंह ने कहा था - “हम चाहते हैं कि हमारे साथ ठीक वैसा ही वर्त्ताव किया जाए जैसा कि अन्य   किसी भी दूसरे भारतीय  के  साथ  किया  जाता  है। ----   भारत  के गैर आदिवासियों के द्वारा  परिचालित  विद्रोहों तथा   अराजकता के  द्वारा निरंतर शोषित तथा विस्थापित किए  जाना   ही मेरे  लोगों का सम्पूर्ण इतिहास है। फिर भी  मैं  पंडित जवाहर लाल नेहरू  के  वचन  पर विश्वास करता हूँ ----- अब  हम   अपने  जीवन का एक नया अध्याय आरंभ करने जा रहे हैं -   स्वतंत्र भारत का एक नया अध्याय, जहाँ सब लोगों को समान सुअवसर है,  जहाँ कोई  भी  उपेक्षित नहीं रहने पाएगा। मेरे समाज में जाति भेद का कोई प्रश्न नहीं हैं। हम सब बराबर हैं। (पृ0 14-15) आइए हम सब देश की  स्वतंत्रता  के  लिए साथ ही जूझें, साथ-साथ बैठे तथा साथ ही साथ काम करें। तभी हम वास्तविक स्वतंत्रता को प्राप्त करेंगे। (पृ0 15)
- झारखण्ड पार्टी  की  स्थापना  ने  झारखण्ड  क्षेत्र के  जन  जन में राजनैतिक चेतना की भेरी फूँक दी। --- प्रत्येक व्यक्ति   ‘झारखण्ड एक पृथक प्रान्त’  के  नारे से  गुंजायमान हो  रहा है।   इस  सम्पूर्ण जागृत, चेतना तथा उल्लास के पीछे जो शक्ति है,   वह  शक्ति  इस महान मुण्डा जयपाल सिंह के जादू भरे व्यक्तित्व की  ही है। (पृ0 15)
- भारत के प्रधान मंत्री  पंडित जवाहर लाल नेहरू  आप  के (जयपाल सिंह के) गुणों पर मुग्ध हैं तथा आप  का  बहुत  सम्मान   करते  हैं। दिल्ली के राजनैतिक तथा  सरकारी क्षेत्रों में किसी   महत्वपूर्ण पद पर कार्य करने वाला शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो   जो  इन्हें (जयपाल सिंह को) नहीं जानता हो तथा इनसे प्रभावित नहीं हो। (पृ0 15)
भारत स्थित विदेशी राजदूतों में से प्रायः सब के सब इनके प्रशंसक तथा मित्र हैं। हमारे मरङ गोमके दिल्ली के राजकुमार हैं। (पृ0 16)
ये कुछ उद्गार है जयपाल सिंह विशेषांक अबुआ झारखण्ड पत्र के जो श्री गोपाल दास मुंजाल द्वारा लिखे तथा संकलित किए गए हैं। दूसरी ओर बलबीर दत्त की जयपाल सिंह पर 54 वर्षों के कठिन अन्वेषण के बाद (37$17 वर्ष) प्रकाशित हुआ है। दोनों एक पंजाब (पाकिस्तान) के संपादक, पत्रकार तथा साहित्यकार हैं। दोनों तराजू के पलड़े पर तौल कर देखे मरङ गोमके जयपाल सिंह क्या हैं।





बिरसा का गांव

सरवदा चर्च पर पहला तीर चलाया गया
खूंटी गांव कांप उठा।
डिप्टी कमिश्नर आए।
वह बिरसा का पीछा कर रहे थे।
बुद्धिमान लोग (बिरसा के अनुयायी) डोम्बारी पहाड़ पर चले गए।
उन लोगों ने  (ब्रिटिश सैनिकों का) मुंह बनाया
और चुनौती दी।
फौजों (ब्रिटिश) ने उन पर गोलियां चलाईं।
एक मुंडा बच्चा जमीन पर गिरी अपनी मृत मां का दूध पीने की 
कोशिश कर रहा था।
 (अंग्रेज) महिला (डिप्टी कमिश्नर की पत्नी) बहुत द्रवित हुई।
बच्चे का क्या हुआ?
यह कोई खुशी की बात न थी।
रांची से जब मुरहू प्रखंड होते हुए सुदूर उस सरवदा गांव में पहुंचे, जहां 1881 से विशाल चर्च खड़ा हुआ था, तो अचानक 117 साल पहले रचित यह गीत कानों में गूंजने लगा। बिरसा की बहादुरी में रचित यह गीत अपने समय का इतिहास भी दर्ज करता है। जब यह चर्च बना, तब खूंटी जिला नहीं बना था। वह रांची का अनुमंडल भर था। आज जरूर ताज्ज्बुब करेंगे, जब यह चर्च बना। उस समय इतनी आबादी भी नहीं रही होगी और जाने का रास्ता तो अब बना है। उस समय, मिशनरियों के विश्वास और धैर्य को याद कीजिए। यहीं पर जर्मन के विद्वान फादर हाफमैन रहते थे, जहां दो बार बिरसा के अनुयायियों ने हमला किया था। चर्च के पीछे ही वह ऐतिहासिक पहाड़ी सिंबुआ है, जहां बिरसा की बैठकें भी होती थीं। यहां रह रहे फादर जेवियर केरकेट्टा कहते हैं कि इसे बनाने के लिए कलकत्ते से बैलगाड़ी से लादकर सामान यहां आया था। करीब सौ फीट से ऊंची इसकी मीनार होगी, जो दूर से ही दिखाई देती है। सरवदा का चर्च आज भी खड़ा है और उसके परिसर में कई पत्थगड़ी में वहां का इतिहास भी दर्ज है। यहीं पर उसी समय का एक स्कूल भी है, जहां के बच्चे नंगे पैर हॉकी स्टीक लेकर दो मैदानों में एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ते हुए एक दूसरे को हराने के लिए पसीना बहाते हैं। फादर बाद में जर्मनी चले गए, लेकिन जाने से पहले उनका तीन महत्वपूर्ण योगदान को याद करना चाहिए। पहला, बिरसा की शहादत के बाद अंग्रेजों ने जो कानून बनाया, छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम-1908। इसमें फादर का ही मुख्य काम है। दूसरा, उन्होंने छोटानागपुर काथलिक मिशन कॉपरेटिव क्रेडिट सोसाइटी की स्थापना 1909 में की और 1928 में मुंडारी विश्वकोश तैयार किया। सरवदा चर्च के एक कमरे में उनकी किताबें धूल फांकती मिल जाएंगी और उनकी तस्वीर भी, जिसे दीमक अपना निवाला बनाने का आतुर दिखे।
खैर, यहां बच्चों का उत्साह चरम पर था। उनका खेल देखने लायक था, लेकिन हमारे राज्य के खेल विभाग को इन गांवों में देखने को फुर्सत नहीं है। खेल विभाग का पैसा कहां खर्च होता है, वह विभाग ही जानता है। यह वह इलाका है, जहां अपराधियों का बोलबाला है। नक्सली हैं, माओवादी हैं। युवाओं के पास कोई काम नहीं है।
यह नजारा सरवदा से लेकर उलिहातू और डोंबारी गांव तक दिखा। सरवदा से जब बिरसा मुंडा की जन्मस्थली उलिहातू पहुंचे तो यहां भी युवा ताश के पत्ते फेंट रहे थे। जन्म स्थली पर ताला लटका हुआ था और बाहर बिना ड्राइवर एक एंबुलेंस खड़ी थी। सरकार का पूरा विकास यहीं दिखता है। बिरसा के वंशजों का घर पक्का का बन गया है और खूंटी से उलिहातू तक की सड़क तेजी से फोरलेन बन रही है। बाकी गांव, अपनी किस्मत पर जी रहा है। बकरियां सुस्त पड़ी थीं। एक महिला धान ओसा रही थी। एक बच्ची एक बच्चे को चुप करा रही थी। गांव में बना बिरसा मुंडा परिसर चमक रहा था। यहां बिरसा की प्रतिमा को सोने की चमक दे दी गई थी। सूरज की किरण पड़ते ही प्रतिमा की आभा देखते बनती थी। सरकार ने यहीं विकास किया है।
लेकिन उलिहातू से जब डोंबारी बुरू जाएं तो फिर विकास दूर-दूर तक नजर नहीं आता। यहां डॉ रामदयाल मुंडा व जगदीश त्रिगुणायत के प्रयास से डोंबारी बुरू पर 100 फीट का एक स्मारक बनाया गया है। यहां पहाड़ तक एक पतली सड़क जाती है। यह उसी समय की बनी है। इसके बाद सरकार ने ध्यान नहीं दिया। यहीं पर सौ बेड का अस्पताल भी बनना था, लेकिन आज तक नहीं बना। मुख्य सड़क से डोंबारी बुरू की दूरी करीब दस किमी है, लेकिन इस दस किमी में विकास कैसा हुआ, कहां हुआ, यह दिख जाता है। जैसे, यह इलाका अभी भी सौ साल पहले की अवस्था में जी रहा है। गांव से लौटते हुए फिर एक गीत याद आने लगा-

डोंबारी पहाड़ी पर बिरसा के अनुयायी इक_े हुए
नीचे घाटी में गोरे सिपाही बड़ी तादाद में जमा थे।
बिरसा के अनुयायी उनकी खिल्ली उड़ा रहे थे, उन्हें चुनौती दे रहे थे, 
गोरे सिपाहियों ने हड़बड़ी में गोली चलाई...। 

खैर, लोग उनके शहादत दिवस नौ जून और 15 नवंबर, उनके जन्म दिवस पर यहां मेला लगाते हैं। नौ जनवरी को भी यहां भारी संख्या में लोग जुटते हैं, क्योंकि अंग्रेजों ने नौ जनवरी 1900 को हजारों मुंडाओं का बेरहमी से नरसंहार कर दिया था। इसमें महिलाएं और बच्चे काफी संख्या में कत्ल किए गए थे। इस पहाड़ी पर बिरसा मुंडा अपने प्रमुख 12 शिष्यों सहित हजारों मुंडाओं को जल-जंगल-जमीन बचाने को लेकर संबोधित कर रहे थे। आस-पास के दर्जनों गांवों से लोग एकत्रित होकर भगवान बिरसा को सुनने गए थे। बात अभी शुरू ही हुई थी कि अंगरेजों ने डोम्बारी बुरु को घेर लिया। हथियार डालने के लिए अंगरेज मुंडाओं को ललकारने लगे। लेकिन मुंडाओं ने हथियार डालने की बजाय शहीद होने का रास्ता चुना। यहां डोंबारी बुरु की तलहटी में एक मंच बना है। इसके साथ पत्थलगड़ी भी की गई है। पत्थलगड़ी नौ जनवरी 2014 को किया गया है। इस पर नौ जनवरी 1900 को शहीद हुए लोगों के नाम की सूची है-
हाथीराम मुंडा, गांव गुटुहातु, मुरहू
हाड़ी मुंडी,  गांव गुटुहातु, मुरहू
सिंगराय मुंडा, बरटोली, मुरहू
बंकन मुंडा की पत्नी जिउरी, मुरहू
मझिया मुंडा की पत्नी, मुरहू
डुन्डुन्ग मुंडा की पत्नी, मुरहू।
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गांधी चबूतरा

  गांधी के आने की खबर आग की तरह फैल गई थी।
  देश में आजादी का आंदोलन चल रहा था। गांव-शहर-कस्बे इस आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने में पूरी तरह मुब्तिला थे। दिल्ली से बहुत दूर गाजीपुर जिले का जमानियां स्टेशन भी अंग्रेजों की गुलामी के जुए को उतार फेंक देना चाहता था। आंदोलन दर आंदोलन जारी था। पड़ोस में धानापुरकांड हो चुका था। आजादी के सिपाहियों ने थाने पर यूनियन जैक उतारकर तिरंगा लहरा दिया था। गरम और नरम दल दोनों अपने-अपने ढंग से देश को आजाद कराने में सक्रिय थे। गान्ही बाबा का अलग प्रभाव था। उनकी छवि ज्यादा प्रभावित कर रही था। तन पर महज एक कपड़ा। उन्हें लोग महात्मा ठीक ही कह रहे थे। लोग सोचते, असल महात्मा यही हैं। वे नहीं, जो मठों-मंदिरों मंे बैठकर रामनाम गाते हुए आडंबरपूर्ण जीवन जीते हुए अपनी तोंद बढ़ा रहे हैं। हवा में करो या मरो की अनुगूंज साफ सुनाई देने लगी थी। आंख मचियाते हुए एक सुबह जब सूरज अपनी आंखें खोल रहा था तभी जमानियां स्टेशन में उड़ती खबर कहीं से आई कि महात्मा गांधी टेन से पटना की ओर जा रहे हैं। किस टेन से, यह ठीक-ठीक पता नहीं था। लेकिन खबर पक्की थी। गान्ही बाबा के दर्शन का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा- प्यारे लाल ने सोचा। लेकिन दिक्कत यह थी कि गाड़ी रुके कैसे?
   खबर के बाद कुछ उत्साही युवाओं ने टेन को प्लेटफार्म पर रोकने की सोची ताकि महात्मा गांधी का दर्शन लाभ मिल सके। स्टेशन छोटा था, लोग छोटे थे, लेकिन सपने बड़े थे। सोचने का सिलसिला शुरू हुआ तो आखिर में गाड़ी को रोकने की तरकीब मिल ही गई। इसके बाद तो सैकड़ों लोग स्टेशन पर दर्शन करने के लिए जमा हो गए। गाड़ी के आने की सूचना घंटी द्वारा मिल चुकी थी। थोड़ी देर बाद गाड़ी की खबर होते हुए सिग्नल भी हरा हो गया। अब इसे लाल करना था ताकि गाड़ी रुक सके। कुछ उत्साही प्लेटफार्म से दूर, दक्षिणी छोर पर सिग्नल पोल के नीचे खड़े हो गए और किसी तरह तरकीब निकालकर हरा सिग्नल को लाल कर दिया। उत्साह और बढ़ गया। सिटी बजाती हुई दूर से टेन दिखाई देने लगी। सिग्नल लाल देखकर आखिरकार टेन आहिस्ते-आहिस्ते प्लेटफार्म को छूती हुई रुक गई। गान्ही बाबा की जय, महात्मा गांधी की जय से स्टेशन का प्लेटफार्म गूंजने लगा। सैकड़ों की संख्या में लोग महात्मा का दर्शन करने आए थे। उत्साह की कोई सीमा नहीं थी, लेकिन इस उत्साह में स्टेशन मास्टर के हाथ-पांव फूलने लगे। जिस गाड़ी का यहां ठहराव ही नहीं था, और जिसमें महात्मा गांधी सफर कर रहे हों, वह बिना ठहराव के प्लेटफार्म पर बिना किसी पूर्व सूचना के रुक गई थी। इधर, जयकारा और नारा और तेज होने लगा। तब किसी तरह गान्ही बाबा अपनी लाठी लिए चिरपरिचित अंदाज के साथ बोगी से बाहर आए और ‘दर्शन’ देकर फिर बोगी में समाने लगे, तभी नाटे कद के महावीर जायसवाल ने समय की नजाकत भांपते हुए गांधीजी से एक फरियाद कर दी।
 -महाराज इहां की पुलिस बहुते तंग करती है। जेहल भेजने की धमकी देती है।
गांधीजी अचानक इस फरियाद की अपेक्षा नहीं किए थे। उन्हांेने भी तुरंत सादे कागज की फरमाइश कर दी-
कागज दो-गांधी जी ने कहा।
महावीर ने तत्काल एक कागज का टुकड़ा और कलम भी मौके की नजाकत को देखते हुए थमा दिया। जैसे पहलेे से इसका अंदेशा हो...।
 गांधीजी ने लिखकर उस को वापस कर दिया।
 चीट पर बस इतना ही लिखा था, इन्हें तंग न किया जाए। नीचे संक्षित हस्ताक्षर था-‘गांधी’।
  ये महावीर जायसवाल थे, जिनका पेशा अखबार बांटना था। उस समय ‘आज’ की एकमात्रा अखबार था, जो बनारस में छपता था और 70 किमी दूर जमानियां टेन से पहुंचता था। महावीर यही काम करते थे। 1947 का समय आया और देश आजाद हुआ। आजादी के बाद महावीर जायसवाल ने जुगत भिड़ाकर सरकारी कोटे की दुकान ले ली। पर अखबार बेचने का काम भी साथ-साथ चलता रहा। कोटे के दुकान से कभी-कभी घटतौली भी जाने-अनजाने हो जाया करती थी। गरीब-गुरबा शिकायत करती तो पुलिस आती और फिर महावीर गांधीजी का वही चीट दिखा देते, फिर पुलिस कुछ नहीं बोलती और चुपचाप चली जाती। उसे लगता कि इस आदमी की पहुंच बहुत दूर तक है। गांधीजी दुनिया में नहीं थे, उनकी चीट महावीर के लिए किसी सनद से कम नहीं थी। तो महावीर का आजादी में कुल योगदान यही था, उन्होंने जमानियां वालों को गान्ही बाबा का दर्शन करा दिया था।
 इस तरह उस ऐतिहासिक घटना की याद में उस छोटे से बाजार में एक चबूतरा गांधीजी के नाम पर बन गया। चबूतरा एक तिराहे पर सड़क के किनारे बना, जिसे लोग चौक नाम देते थे। पर, रास्ता तीन ओर ही जाता था, और इन तीन के अलावा एक गली की ओर भी रास्ता खुलता है। शायद, गली को भी इसमें जोड़ दिया गया। इसलिए, लोग उसे चौक ही पुकारते हैं।
  लंबा अरसा गुजर गया। इस बीच कितने बसंत आए, चले गए। कई शरद की ऋतुएं आईं और चुपचाप चली गईं। पर 1998 का साल कुछ और था। शरद की शाम थी। दुर्गापूजा को लेकर बाजार में चहल-पहल बढ़ गई थी। स्टेशन के पास मां दुर्गा का पंडाल सजा था। सप्तमी की तिथि थी। मां का पट खुल चुका था। एक ओर महिलाओं की लाइन लगी थी और एक ओर पुरुाों की। डॉ ईश्वरचंद्र जायसवाल, जो डॉक्टरी कम, समाजसेवा ज्यादा करते थे, अग्रिम पंक्ति में खड़े मां का ध्यान कर रहे थे। हाथ जोड़े। आंख बंद। मन ही मन संस्कृत के श्लोक ओठों से बुंदबुंदा रहे थे कि  भक्तों का प्रसाद चढ़ाने वाले पंडाल के एक स्वयंसेवक सतीश ने उनके कंधे को हिलाते हुए आहिस्ते से उनके कान में बोला...ऐ डॉक्टर, डॉक्टर...;
  डॉक्टर ने अचकचाकर अचानक आंख खोली। बोला-तोहके पुलिस खोजत बा। यह सुनते ही डॉक्टर को जोर का धक्का बहुत जोर से लगा। सांस तेज हो गई और दिल जोर-जोर से धड़कने लगा।...डॉक्टर सोच रहे थे, प्रसाद देने के लिए झकझोर रहा है। पर पुलिस का नाम सुनते ही डॉक्टर के होश उड़ गए। नवरात्रा-दशहरा का समय और इधर पुलिस...। डॉक्टर के शरीर का रक्तसंचार अचानक जैसे रुक गया। चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। थोड़ी देर पहले से उत्सव का जो रौनक उनके चेहरे पर था, गायब हो गई। चेहरा जैसे पीला पड़ता जा रहा था....। आस-पास जलती हजारों झालरों की लाइटें अचानक बुझती प्रतीत हुईं। चारों ओर अंधेरा पसरने लगा। भक्तों की भीड़ का शोर भी निर्जन वन की तरह सांय-सांय करने लगा। डॉक्टर अपने बेजान पैरों से किसी तरह चुपचाप पंडाल से निकले और मुख्य मार्ग छोड़कर स्टेशन के रास्ते छिपते-छिपाते घर में समा गए। फिर घर का दरवाजा बाहर से भी बंद कर दिया। पत्नी ने बाहर से ताला लगा दिया। कोई आकर पूछता, डॉक्टर हैं, घर के भीतर से आवाज आती, नहीं...। मरीज देखने गए हैं। डॉक्टर की आंखों से नींद गायब थी। सांसें रह-रहकर धोखा दे रही थीं। सिर बहुत भारी हो रहा था। सोच रहे थे, किस मुसीबत मंे पड़ गए हैं। जो भीे काम हाथ में लेते हैं, कोई न कोई विघ्न आ ही जाता है....।      
 सन् 1997 में जब देश में आजादी की पचासवीं वर्ागांठ मनाई जा रही थी जो जमानियां में इसका भव्य आयोजन उसी चौक पर हुआ, जहां एक ओर बिना गांधी के पिरामिड आकार का पांच फीट का चबूतरा खड़ा था। बुजुर्ग लोग कहते, यह चबूतरा उसी घटना की याद में बनाया गया, लेकिन चबूतरा के बाद ऐसा कभी संयोग ही नहीं आया कि उस पर कोई गांधी की प्रतिमा स्थापित हो सके। इसी साल प्रज्ज्वलित सेवा संस्थान ने एक पत्रिका निकालने की सोची और इसी साल यह संकल्प भी लिया गया कि यहां अब गांधी लंबे समय तक वनवास नहीं भोगेंगे। अब वनवास खत्म हो गया और यहां गांधीजी की प्रतिमा स्थापित होकर रहेगी। इस तरह योजनाएं बनने लगीं। इटिंग-मीटिंग के चले लंबे दौर के बाद निर्णय हुआ कि इस नगर पालिका को भी शामिल कर लिया और पालिका के अध्यक्ष से गांधीजी की प्रतिमा ली जाए, बाकी खर्च संस्थान व्यवस्था करेगा। नगर पालिका से बातचीत हो गई। वह तैयार हो गया और इस तरह उसने गांधीजी की आवक्ष प्रतिमा बनवाकर पानी टंकी के कार्यालय में रखवा दिया। इधर, संस्थान ने चबूतरे पर संगमरमर लगवा दिया और एक संस्थान का शिलापटृ भी। नगर पालिका के शिलापटृट के लिए सबसे उ$पर जगह छोड़ दिया गया था। अब सारी तैयारियां अंतिम दौर में पहुंच गई थीं कि नगर पालिका के अध्यक्ष को किसी ने समझा दिया कि चबूतरे पर संस्थान का कोई शिलापट्ट नहीं लगेगा। नगर पालिका का लगेगा। अध्यक्ष भी बहकावे में आ गए। बहुत समझाने पर भी अध्यक्ष नहीं मानंे। पानी टंकी के कार्यालय में, जो निगम का एक तरह से उस समय अस्थायी कार्यालय हुआ करता था, उसमें संस्थान और नगर पालिका के प्रतिनिधि के अलावा मंदिर समिति के लोग साथ बैठे, लेकिन कोई हल नहीं निकला। मंदिर समिति के अंदर ही चबूतरा आता था। इसलिए वह भी एक पक्ष था। नगर पालिका के प्रतिनिधि ने संस्थान की ओर व्यंग्य मारा--नगर पालिका एक बड़ी संस्था है। टेबल पर रखे चाय का कुल्हड़ की ओर इशारा करते हुए जोड़ा, और आप इस कुल्हड़ की तरह?? यह बात मिर्ची की तरह लग गई। मामला बहुत गर्म हो गया...। नगर पालिका के प्रतिनिधि को जवाब दे दिया, आप अपनी मूर्ति अपने पास रखें। आपकी मूर्ति नहीं लगेगी। यह बात मिर्ची की तरह लगी और अध्यक्ष तक बात मिर्च-मसाला के साथ पहुंची। अहंकार को ठेस लगा और चबूतरा नपवाने की धमकी दे डाली। बात कोतवाली तक गई। वहां भी कोई समझौता नहीं हो सका और अंततः पालिका ने जमीन नपवाने की ठानी। लोगांे ने इसका भारी विरोध किया। मंदिर समिति ने जोरदार आवाज उठाई, चबूतरा मंदिर की जमीन मंे है। नगर पालिका का कोई अधिकार नहीं है! पर पालिका के अध्यक्ष की पहंुच बहुत दूर तक थी। लखनउ$ एक तरह उनका दूसरा घर था। पुलिस-थाना भी उनका। पानी टंकी में गांधी की प्रतिमा बोरे में कैद थी। एक विचार आया कि रात में उस प्रतिमा को उठाकर यहां स्थापित कर दिया। स्थापित होने के बाद कोई कुछ नहीं कर सकता? लेकिन इसे स्थगित कर दिया गया। अब इस तनातनी में गांधीकी प्रतिमा के लिए पैसा चाहिए। जो पैसा था, सब संगमरमर और मजदूरी में खत्म हो गया। लेकिन बात अब आन-बान-शान और जमानियां की थी। एक ही आसरा था, उम्मीद वहीं थीं। मिल पर पहुंचे और अनिल भैया से कहा गया कुछ मदद कीजिए। पहले तो खूब गाली दी। यह उनका अधिकार था। जब भी जरूरत होती, सामाजिक कार्यों में वे मदद करते। इस बार भी यहीं आसरा था। हम लोग पहले गाली खाए और फिर वे अंदर गए और कुछ पैसा लाकर दिए। अभी कुछ और की जरूरत थी। वहीं पर भाई जान यानी अजहर खान मिल गए। सब बात सुनाई गई तो उन्हांेने तुरंत मदद की। कुछ और लोग भी आए और फिर शाम तक मूर्ति के लिए पैसा जुट गया। अब बनारस के लिए गाड़ी की जरूरत थी। एक मित्रा की वैन मिल गई और इस तरह बनारस से गांधीजी की प्रतिमा तत्काल खरीदकर लाई गई। बनारस से नौ बजे रात को चले और 11 बजे तक जमानियां के बाहरी अलंग पर गाड़ी को रोक दिए। चांदनी छिटक रही थी और खेत दुधिया रोशनी से नहाए हुए थे। रात को हवा भी बहुत सुंदर बह रही थी। प्रकृति का यह नजारा देख सारी थकान मिट गई थी। आधी रात के बाद वैन आगे बढ़ी और फिर गांधी चौक पहंुची। यहां पांच-छह साथी पहले से तैयार थे। प्रतिमा को चिपकाने वाला मसाला भी तैयार था। चुपचाप चौक पर संगमरमर की भारी प्रतिमा को बोरे से आजाद किया गया और फिर किसी तरह उसे चबूतरे पर स्थापित की गई। स्थापित करने में पसीने छूट रहे थे। एक तो भय। कोई देख न ले। कोई पुलिस वाला गश्ती करते हुए यहां न पहुंच जाए। अन्यथा सब खेल गुड़-गोबर। इसे पूरी तरह गोपनीय रखा गया था। कुछ लोगों को ही यह बात पता थी। जल्दी-जल्दी प्रतिमा को चबूतरे पर स्थापित करने के बाद जिसे बोरे से उन्हें आजाद किया गया था, उसी बोरे से फिर गांधीजी को ढंक दिया गया। पूरी तसल्ली के बाद उस रात सभी अपने-अपने घर गए और लंबे समय के बाद चैन की नींद सोए।
   सुबह जब सूरज ने आंखें खोली तो लोगों की आंखें चौंधिया गई। अचानक चबूतरे पर उन्हें कुछ भारी-भरकम चीज दिखी। समझने में देर नहीं लगी कि यह गांधीजी की प्रतिमा है। फिर तो सामने चाय की दुकान पर काना-फूंसी होने लगी। तरह-तरह की चर्चा। गांधीजी स्थापित हो चुके थे और यह बात जमानियां से 14 किमी दूर नगर पालिका अध्यक्ष के कान में पहंुचने में देर नहीं लगी। काटो तो खून नहीं। लौंडों ने नगर पालिका को चुनौती दे दी थीं। यह हंसी का खेल नहीं था। लेकिन गांधीजी तो गांधीजी ठहरे। टस से मस नहीं हुए। उनकी प्रतिमा को वहां से हटाना मतलब राटद्रोह...। बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले...। अब जब नगर पालिक थक-हार गई तो मंदिर समिति को न जाने कहां से सद्बुद्धि आ गई और उसने दांवा ठोंक दिया। मंदिर के पुजारी आकर शिलापट्ट ही उखाड़ने लगे। उन्हें पता नहीं था कि जहां गांधी बाबा स्थापित हो गए, वहां की एक ईंट भी उखाड़ना कानून की नजर में अपराध था। पुजारी बाबा छेनी-हथौड़ा लेकर उखाड़ने जा ही रहे थे कि सामने पान की दुकान में पान खा रहे थानेदार ने उन्हंे ऐसा डपटा कि तेजी से वहां भागे। इसके बाद तो यहां पुलिस वालों का पहरा भी लग गया। पुलिस वालों तक बात पहुंची। उन्हें नगर पालिका ने बरगलाया और वह संस्थान के लोगांे को खोजने लगा। अब क्या था? दशहर के पर्व और पुलिस की खोजबीन....पुलिस हम सबको तलाश रही थी। उसी पान की दुकान पर भाजपा के नेता और व्यवसायी दारोगा सेठ ने थानेदार से कहा कि एक भी लड़के को गिरफ्तार किया तो परिणाम बुरा होगा। पर्व-त्योहार चल रहा है। यह बात पता चला किसी तो पुलिस चौकी नहीं बचेगी। अब पुलिस वाले भी इस पचड़े में नहीं पड़ना मुनासिब समझा। त्योहार के समय कुछ उ$ंच-नीच हो गया तो मामला दूसरा रंग भी ले सकता है। लेकिन यह खबर तो फैल ही गई थी कि लोगांे को पुलिस खोज रही है। डॉक्टर तक यह बात पहुंची तो वे तेजी से घर की ओर लपके...।
  दिन बीते, रात आई। इस तरह दिसंबर का महीना आ गया। दिसंबर की एक सांझ, भव्य समारोह में बोरे से महात्मा गांधीजी आजाद कर दिए गए। गांधीजी आज भी चौक पर अपनी निगाह गड़ाए हैं।

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सर अली इमाम ने बनवाया था अपनी बेगम के लिए अनीस महल


हजारीबाग रोड पर कोकर चौक से आधा किमी दूरी पर दाहिने एक मजार है। आने-जाने वाले इस मजार को जरूर देखते हैं, लेकिन यह मजार किसकी है, पता नहीं। यहां हर दिन अकीदतमंदों की भीड़ भी लगी रहती है। गुरुवार को यह भीड़ और बढ़ जाती है। पर, यह किसी सूफी की मजार नहीं। बल्कि यह मजार एक जज और नेता की है, वह नेता, जिसने पहली बार बंगाल से बिहार को अलग करने की मांग की थी और बाद में भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली ले जाने का प्रस्ताव दिया था। 



यह मजार, अली इमाम की है। 11 फरवरी 1869 को पटना जिले के नियोरा गांव में नवाब सैयद इमदाद इमाम के घर उनका जन्म हुआ था और 31 अक्टूबर, 1932 की रात रांची में उनका देहांत। मौत से चंद घंटे पहले अपने बेटे नकी इमाम को अपने बाग के एक गोशे में ले गए और छड़ी से जमीन के एक हिस्से पर निशान बनाया और कहा, इसी जगह मेरी कब्र बनेगी। उसी रात जब उन्हें दिल का दौरा पड़ा तो तमाम मलाजिमों को अपने पास बुलाया और सभी से माफी मांगी। उस सुबह


वे ठेकेदार पर बहुत गुस्सा हो गए थे, उसको भी बुलाकर माफी मांगी और बेटे नकी इमाम को का कि मेरे तमाम अजीजों, दोस्तों, रिश्तेदारों को मेरा सलाम कहना और कहना कि मेरी जात से अगर कोई तकलीफ पहुंची है तो मुझे माफ करें। इसी दौरान उन्होंने आखिरी सांस ली। सर अली इमाम के परदादा, खान बहादुर सैयद इमदाद अली पटना के सब ऑडिनेट जज के पद से रिटायर हुए। उनके बेटे, खान बहादुर शम्स-उल-उलेमा सैयद वाहिद-उद दीन पहले हिंदुस्तानी थे, जिन्हें जिला मजिस्ट्रेट बनाया गया था। अली इमाम के पिता सैयद इमदाद इमाम असर पटना कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर के साथ एक शायर भी थे। इनके बड़े भाई सैयद हसन इमाम भी जज रहे और उनका निधन 19 अप्रैल, 1933 को 61 साल की उम्र में जपला, पलामू में हुआ।

प्रेम की गवाह इमाम कोठी 
मजार के पीछे ही उनकी एक कोठी है। लाल ईंटों और सूर्खी से बनी। इसे लोग इमाम कोठी आज भी कहते हैं, लेकिन अब यह बिक गई है। इसे मालिक अब दूसरे हैं। पर सौ साल से ज्यादा पुरानी यह कोठी उसी तरह बुलंद है, जो स्कॉटिश कैसल स्टाइल में बनी है। लोग कहते हैं, यह कोठी प्रेम का प्रतीक है। अंग्रेजी हुकूमत के पहले बिहारी बैरिस्टर अली इमाम हैदराबाद डेक्कन के प्रधानमंत्री भी थे। अपनी बेगम अनीस फातिमा के लिए इसे बनवाया था। अनीस बेगम सर सैयद अली इमाम की तीसरी बेगम थी और उन्हीं के लिए उन्होंने रांची में यह इमारत बनवाई थी। उनकी चाहत तो यह थी कि मरने के बाद उनकी और उनकी बेगम की कब्र साथ रहे, जिससे वे मरकर भी जुदा न हों। लेकिन उनकी यह चाहत पूरी न हो सकी। उनकी मजार तो यहां बन गई। उन्हें यहां दफन भी कर दिया गया, लेकिन जब बेगम का निधन हुआ तो उस समय वे पटना में थीं और उन्हें पटना में ही दफन कर दिया गया, लेकिन आज भी एक मजार खाली है।

कोठी को बनने में लगे बीस साल 
इमाम कोठी को बनने में 20 साल लगे थे। इसका निर्माण सन् 1913 में शुरू हुआ था और 1932 में यह पूर्ण हुआ। उस समय इसे बनाने में 20-30 लाख रुपए लगे थे। यह कोठी, जिसे अनीस कैसल भी कहा जाता है, 21 एकड़ में था और यहां 500 लीची और आम के पेड़ थे, लेकिन आज यह जगह सिमट गई है। तीन तल्ले वाली इस कोठी में 120 कमरे हैं। इसमें प्रवेश करने के लिए छह दिशाओं से दरवाजे बने हुए हैं। उनके समय में इस कोठी में अंग्रेज ऑफिसर्स भी आया-जाया करते थे। जिस साल उनके सपनों का यह महल बनकर तैयार हुआ, दुर्भाग्य से उसी साल 1932 में उनका निधन हो गया। इसके बाद तो कोठी बेरौनक होने लगी।

पहली पत्नी के निधन के बाद ईसाई महिला से की शादी
अपनी पहली पत्नी नईमा खातून के निधन के बाद 1916 में उन्होंने एक ईसाई महिला रोज मैरी से शादी की। शादी के बाद रोज मैरी, मरियम बनी। अली इमाम ने मरियम के लिए अनीसाबाद में मरियम मंजिल बनवाया। यह जब तक बन कर तैयार हुआ, मरियम का निधन हो गया। अली इमाम को इस बात का दु:ख हमेशा रहा कि इस इमारत के बनने के बाद मरियम ज्यादा दिनों तक उनके साथ नही रह सकीं। इसके बाद अली इमाम ने तीसरी शादी अनीस फातिमा से की। जो लेडी अनीस के नाम से मशहूर हुईं। उनके लिए रांची में एक बेहद खूबसूरत ईमारत बनवाया जो अनीस कैसल के नाम से जाना गया और बाद में इमाम कोठी।

बेगम ने बनवाई मजार
रांची में इस मजार को उनकी विधवा बेगम ने बनवाया। मजार के अंदर एक पत्थर पर इसका जिक्र भी है। 1932 में सर अली इमाम का देहांत हुआ और तीन साल में यानी 1935 बनकर तैयार हो गया। फर्श संगमरमर का है और दीवारें लाल पत्थर की हैं।

एक हिदू कर रहे हैं मजार की देखभाल
सत्रह सालों से एक ङ्क्षहदू मजार की देखभाल कर रहे हैं। पहले काफी उपेक्षित था। घास-फूस जमा हो गए थे, लेकिन फिर इसकी देखभाल शुरू हुई। आफ यह मजार साफ-सुथरा है और हर सुबह लोग यहां आते हैं। गुरुवार को भीड़ ज्यादा रहती है। यहां लोग आते हैं, मत्था टेकते हैं, दुआ मांगते हैं।


1917 में पटना हाई कोर्ट के बने जज
अली इमाम बैरिस्ट्री की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए। वहां से वे जून, 1890 में पटना वापस आए और नवंबर 1890 से कलकत्ता हाई कोर्ट में प्रैक्टिस शुरू कर दी। बाद में वे पटना हाई कोर्ट में 1917 में जज बने। वकालत के साथ-साथ राजनीति में भी सक्रिय रहे। 1906 में जब मुस्लिम लीग की स्थापना हुई तो अली इमाम की प्रमुख भूमिका रही। अप्रैल 1908 में पहला बिहार राज्य सम्मेलन हुआ तो इसकी अध्यक्षता अली इमाम ने की। जिसकी पूरी जिम्मेदारी सच्चिदानंद सिन्हा और मजहरुल हक के कंधों पर थी। 30 दिसंबर 1908 को अली इमाम की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग का दूसरा सत्र अमृतसर में हुआ। इसी साल उन्हें सर की उपाधि प्रदान की गई। 1911 में वे भारत के गवर्नर जनरल के एग्जीक्यूटिव कौंसिल के सदस्य बने और फिर इसके उपाध्यक्ष। 25 अगस्त 1911 को सर अली ईमाम ने ङ्क्षहदुस्तान की राजधानी कलकत्ता को बदल कर नई दिल्ली करने का पूरा खाका उस समय भारत के वायसराय लार्ड हार्डिंग के सामने पेश किया, जिसे स्वीकारते हुए अंग्रेजों ने भारत की राजधानी कलकत्ता को बदल कर नई दिल्ली करने का एलान कर दिया।
बांकीपुर पटना की एक सभा में देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रासाद ने सर अली इमाम को आधुनिक बिहार के निर्माता की संज्ञा दी। 1910 से 1913 के बीच वक्फ बिल उनकी निगरानी में तैयार हुआ। 1914 मे उन्हे नाईट कमांडर (के.सी.एस.आई) के खिताब से नवाज गया। 1915 मे लॉ मेंबर के पद से रिटायर हुए। 3 फरवरी 1916 को पटना हाई कोर्ट की स्थापना जब हुई तो उसके बाद सितंबर 1917 मे सर अली ईमाम को पटना हाई कोर्ट का जज बना दिया गया। वे दो साल तक रहे। अगस्त 1919 में निजाम हैदरबाद के प्रधानमंत्री बने। वे 1922 तक रहे। 1923 में फिर से पटना हाई कोर्ट वकालत शुरू की और साथ ही देश की आजादी के लिए खुल कर हिस्सा लेने लगे। कांग्रेस की कई नीतियों का खुल कर समर्थन किया। स्वराज और स्वादेशी की पैरवी की। 1927 में सर अली ईमाम ने साइमन कमीशन का जमकर विरोध किया। 1931 में सर अली ईमाम ने गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया और अगले साल ही इनका निधन हो गया।  

तत्रभवान् राजा रामपाल सिंह

गोपालराम गहमरी
  राजा रामपाल सिंह हिन्दी के प्रमियों मे थे। उन्होंने विलायत में 14 वर्ष प्रवास किया था। वहां से हिन्दी और अंगरेजी में एक साप्ताहिक पत्रा ‘हिन्दोस्थान’ निकालते थे। आपने स्वदेश लौटकर हिन्दी में पहले पहल ‘ हिन्दोस्थान’ दैनिक निकाला था उसके पहले कानपुर से ‘भारतोदय’ कुछ दिनों तक उदय होकर अस्त हो गया था। स्थायी रूप से कालाकांकर ‘हिन्दोस्था
न’ ही हिन्दी रसिकों को रोज दर्शन देने वाला हुआ।
   राजा रामपाल सिंह देशी नरेशों में उस समय एक हो कांग्रेसी थे। हम बात सन् 1888 ई की कहना चाहते हैं जिन दिनों मिल्टर जार्ज यूलके सभापतित्व में कांग्रेस का चौथा अधिवेशन करने के लिए प्रयाग के सुयशवान कांग्रेसी श्री अयोध्या नाथ महोदय अथक परिश्रम कर रहे थे। उस अधिवेशन के हम इसलिए प्रशंसक हैं कि उसी अधिवेशन में पहले पहल कांग्रेस के सभापति का अभिभाषण हिन्दी भाषा में प्रकाशित हुआ था। उसका प्रकाशन करने वाले कालाकांकर नरेश राजा रामपाल सिंह ही थे। कालाकांकर हनुमत् प्रेस की एक शाखा प्रयाग स्टेशन के पास ग्रेट ईस्टर्न होटल में थी जिसके मैनेजर श्री गुरुदा शुक्ल थे। उन्हीं शुक्ल जी ने जार्ज यूल साहब की स्पीच को हिन्दी में छापकर कांग्रेस के अधिवेेशन में वितरित कराया था। उस होटल को राजा साहब ने खरीदकर उसका नाम राजा-होटल रखा था जब आप प्रयाग पधारते तब उसी में ठहरते थे। उस समय के प्रसिद्ध कांग्रेस महारथी श्री अयोध्या नाथ जी ने राजपूताने में कांग्रेस प्रचार आदि का कार्य-भार कालाकांकर नरेश राजा रामपाल सिंह को ही सौंप दिया था। राजा साहब अपना अधिक समय कांग्रेस कार्य में व्यतीत होता था। जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर आदि रजवाड़े में जाकर इस कार्य के लिए उस साल राजा रामपाल सिंह ने अनेक व्याख्यान दिये।
   राजा साहब कोट, पैंट और हैटधारी थे। एकबार महाराजा उदयपुर से इसी अवसर पर जब मिलने गये और समय निश्चय करने के बाद महलों में पहुंचे तब भी भीतर बूट पहने ही चले जा रहे थे। उदयपुरीधीश के यहां जब यह खबर पहुंची तो आपने कोई निश्चित मखमली बहुमूल्य कालीन अगले कमरे में बिछा देने की आज्ञा दी। उसी समय उसकी तामीली हुई।
   राजा रामपाल सिंह जब अगले कमरे में जाने के लिए चौखट पर पहुंचे तब उस फर्श को देखकर वह स्वयं एक ब एक रुक गये और झट आपने अपने नौकर को बूट खोलने का इशारा किया। बिना किसी के निवेदन के ही राजा साहब बूट उतार कर अंदर गये। उस कमरे में जो कारचोबी की सजावट से भरा अनमोल कालीन बिछा देखा, उसपर मुग्ध होकर राजा साहब ने स्वयं बूट छोड़ कर ही भीतर जाना उचित समझा। वहां महाराज उदयपुर से राजा रामपाल सिंह की राजनीतिक विषयों पर बहुत बातें हुई। महाराजा साहब को आपने कांग्रेस कार्य उसके उद्देश्य अच्छी तरह समझाये और देशी राज्यों का कांग्रेस के प्रति कर्ाव्य बतलाया।
  महाराजा साहब ने सब बातें सहानुभूतिपूर्वक सुनी और कांग्रेस कार्यकर्ााओं से देशभक्तिपूर्ण कार्यों की सराहना की थी।
   कांग्रेस का जब प्रयाग में चौैथा अधिवेशन हुआ तब एंटी कांग्रेस कहलाने वाले दो नामी आदमी कांग्रेस के स्टेज पर व्याख्यान देने के लिए उतावले थे एक राजा शिव प्रसाद सितारेहिन्द और दूसरे थे लखनउ$ के मुंशी नवल किशोर साहब, जिनका पुस्तक प्रकाशन कार्य में आज भी प्रांत में सुनाम है।
   लेकिन ज्योंही ये दोनों महाशय मंच पर बारी बारी से बोलने गये। कांग्रेस पंडाल में विरोध की आवाज बुलंद हुई कि कुछ भी बोलने से पहले असमर्थ होकर उन्हें लौट जाना पड़ा। विरोधी की बात सुनने की शक्ति या सामर्थ्य उस समय कांग्रेस में नहीं थी।
   व्याख्यान वाचस्पति दीनदयाल शर्मा जी उन दिनों भारत वर्ष में सुप्रसिद्ध हिन्दी वक्ता थे, जिनके व्याख्यानों की भारत भर में धूम मची हुई थी। कांग्रेस मंच पर उन्हें व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। यह सदुद्योग महामना पूज्य पंडित मदनमोहन मालवीय जी द्वारा हुआ था। व्याख्यान वाचस्पति जी ने सहर्ष स्वीकार करके यह अभिप्राय प्रकट किया कि वह व्याख्यान हिन्दी में देंगे और विषय दो में से एक कोई हो। पहला गोरक्षा हो या हिन्दी भाषा हो।
   उस कांग्रेस अधिकारियों को यह स्वीकार नहीं हुआ।
   जब विरोध और हो-हल्ले के मारे राजा शिव प्रसाद और सितारे-हिन्द मुंशी नवलकिशोर महोदय कांग्रेस मंच पर बोलने से वंचित होकर लौटे तब बड़ी छीछालेदर हुई। लेकिन ससम्मान दोनों महाशय पंडाल से विदा हुए।
   प्रयाग में कालविन साहब बैरिस्टर कांग्रेस के पक्ष में थे और लेिटनेंट गर्वनर सर कालविन सरकार के। सरकार का जो भाव कांग्रेस के प्रति था और है, वही भाव उनका था। सुना दोनों भाई-भाई थे। मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्नाका उदाहरण वहां साक्षात् वर्ामान था। कांग्रेस का काम उनदिनों बहुत जोरों पर था। सर्व श्री डब्ल्यू. सी. बनर्जी., दादाभाई नौरोजी, बदरूीन तैयबजी, के.टी. तैलंग जी, लोकमान्य तिलक जी, सर फिरोज शाह मेहता, आनन्दाचार्य, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, हसन इमाम, सर सत्येंद्र प्रसाद सिंह, रहमतुल्ला-सयानी, सी. शंकर नायर आनंद-मोहन बसु, सर रमेशचंद्र दा, दिनशा एदलजी बाचा, लालमोहन घोष, गोपाल कृष्ण गोखले, रासविहारी घोष, अंबिका चरण मजूमदार, विशन नारायण दर, भूपेंद्रनाथ बोस, एनी बेसेंट, सर बिलभाई पटेल, मोतीलाल नेहरू, विजयराघवाचार्य, सुब्रण्यम अयर, लाला लाजपतराय, विपिन चन्द्र पाल और विदेशी सज्जन सर्वश्री हेनरी काटन, बेब साहब, बेव वर्न हू ब्राडला आदि जीवित थे।
   राजा रामपाल कहा करते थे कि जो भारतीय श्वेतांगों से मार खाकर या अपमानित होकर अपनी मान मरम्मत के लिए अदालत की शरण में जाते हैं वे कायर ही नहीं भारतीय वीरों के मुंह पर दाग लगाने वाले हैं। श्वेतांग इस कायरपन को बहुत हेय समझते हैं। उनसे अपमानित होने पर जो भारतीय ‘फेस टू फेस’ लड़ जाते हैं, ‘फूट टू फूट’ भिड़ जाते हैं, उनकी वीरता से वे लोग नाखुश नहीं होते। मार खानेपर हिंदुस्तानी श्वेतांगों पर मानहानि की नालिश करते हैं पर श्वेतांग इस व्यहार को इतना नीच समझते हैं कि मार खानेपर किसी से उसका जिक्र भी नहीं करते।
   एक बार राजा साहब बंबई जा रहे थे। इन पंियों का लेखक भी उनके साथ था। इलाहाबाद स्टेशन पर अपना सामान फर्स्ट क्लास में रखवा कर वे प्लेटफार्म पर टहल रहे थे। उस कंपार्टमंेट पर ‘यूरोपवालों’ के वास्ते, लिखा था। इतने में जल्दी जल्दी एक साहब वहां पहुंचा और कोई हिंदुस्तानी सवार है सुन कर नौकरों से उनका सामान प्लेटफार्म पर फेंका कर आप उसमें सवार हुए। गाड़ी खुलने के समय जब राजा साहब अपने बर्थ पर पहुंचे तब सामान प्लेटफार्म पर देखकर झल्लाये, साहब से बातें हुई। उन्होंने अपने हाथ की छड़ी से राजा साहब को वहो देखने का इशारा किया जहां ‘फॉर यूरोपियन’ लिखा था। राजा साहब ने छड़ी छीन कर साहब को इतना मारा कि वे गाड़ी से गिर गये। तब उन्हें उठाकर प्लेटफार्म पर रखा दिया। नौकरों ने उनका सामान उतार अपना सामान लादा। गाड़ी सीटी देकर चलने लगी। स्टेशन मास्टर यूरोपियन थे। खबर पाकर पहुंचे लेकिन गाड़ी चल चुकी थी। जब आपने सब हाल सुना और मालूम किया कि राजा रामपाल सिंह थे, वे चुप हो रहे। साहब ने भी कहीं कुछ फरयाद नहीं की। मैंने राजा साहब से ही सुना वह कोई हिन्दुस्तान में रहने वाले साहब थे। उसकी मां प्रसव के समय विलायत गयी और वहां उनके पैदा होने पर फिर भारत लौट आयी। राजा साहब उन्हें मारते वक्त कह रहे थे कि तेरी मां जन्म के समय विलायत गयी तो तू यूरोपियन हो गया। हम चौदह वर्ष तक विलायत में रहकर यूरोपियन नहीं हुए?
  एक बार राजा साहब अपने राज्य होटल के कमरे में ठहरे थे। राजा साहब का रात को जगने और दिन को सोने का अभ्यास था। उस रात को गानवाद्य हो रहा था। राजा साहब के किसी नौकर ने आधीरात को खबर दी कि बगल वाले कमरे के द्वार पर कोेई श्वतांग कुछ बक रहा है। राजा साहब ने बाहर आकर सुना तो वह गालियां बक रहा था। वहीं पटक कर बड़ी मार दी। फिर नौकर उन्हें बेहोशी में उनके बिछौने पर कर आये। उनकी इच्छा न होने पर भी मामला अदालत गया।
    अदालत में साहब ने जिरह में कह दिया कि जिसने हमको मारा उसके मुंह से शराब की बू आ रही थी। अदालत में राजा साहब के वकील ने कहा कि हमारे राजा साहब कालकांकर नरेश कभी शराब नहीं पीते। इस बयान पर मुकदमा खारिज हो गया। लेकिन दो सिपाही छः महीने के वास्ते मुकर्रर हुए कि देखे राजा साहब शराब पीते हैं या नहीं। राजा साहब ने छः महीने तक शराब की एक बूंद भी ग्रहण नहीं की, यद्यपि निरीक्षण करने वाले सिपाही कालकांकर से बहुत दूर रहते थे लेकिन राजा साहब में ऐसी इच्छा शक्ति थी कि छः महीने तक छुई तक नहीं। राजा साहब जुल्फ रखते थे। जुल्फ के बाल खिचड़ी थे। हमने स्वयं देखा था, वे कभी जुल्फ में तेल नहीं लगाते थे। उनके यहां मिस्टर मेेल्हर नामक एक श्वेतांग उनकी सर्विस में थे। उनको हम उर्दू पढ़ाया करते थे। उस समय उनके दो भाई श्रीमान लाल राम प्रसाद सिंह और श्री नारायण सिंह जी बहादुर थे। राजा साहब की मृत्यु लकवा से हो गयी। उनके पश्चात् श्री मान लाल राम प्रसाद सिंह के माननीय पुत्रा अधिकार हुए। उन्हीं के वंशज कालाकांकर नरेश हैं।

प्रेमचंद परिवार में मेरे वे दिन

 श्यामा देवी

बात बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक की है, जब विदेश यात्रा से लौटने वाला अथवा विधवा-विवाह करने वाला व्यक्ति समाज में बहिष्कृत कर दिया जाता था। मेरे पिता मुंशी गुलहजारी लाल एक कट्टर आर्य समाजी थे-सामाजिक कुरीतियों और ढकोसलों के घोर विरोधी। ऐसी अनर्गल बातों और रीति-रिवाजों के विरुद्ध संघर्ष करने में सदैव अग्रणी रहे। उनका प्रतिरोध केवल मौखिक तर्कों तक ही सीमित न रहा, बल्कि उन्होंने उसे कार्यरूप में भी परिणत कर दिखाया। अपनी ज्येष्ठ पुत्री के विवाह के लिए उन्होंने चुना उस समय के लखनऊ के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ महेश चरण सिन्हा को, जो वर्षों तक सारी दुनिया रौंद कर तथा विदेशों से विज्ञान की उच्च डिग्रियां लेकर स्वदेश लौटे थे। उन्हीं डा. महेश चरण सिन्हा की सुयोग्य ज्येष्ठ पुत्री हैं, हिंदी की सुप्रसिद्ध कवयित्री श्रीमती सुमित्रा कुमारी सिन्हा। उक्त संबंध की उस समय समाज में काफी चर्चा रही और बड़ी-बड़ी आलोचनाएं हुईं। किंतु मेरे पिता अडिग एवं अविचल रहे। मैं उनकी दूसरी संतान थी और मेरे लिए उन्होंने वर चुना उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के अनुज, स्व महताब राय को। यह सर्व विदित है कि प्रेमचंद ने भी उस समय शिवरानी देवी से विधवा-विवाह कर समाज में एक उथल-पुथल सी मचा दी थी। अत: मेरे पिता ने सामाजिक कुरीतियों से इस प्रकार डट कर संघर्ष करने वाले साहसी व्यक्ति के अनुज से मेरा संबंध जोडऩे का उचित ही निर्णय किया। यहां इस बात का उल्लेख कर देना भी असंगत न होगा कि मेरी कनिष्ठ भगिनी सावित्री का विवाह स्व डा. संपूर्णानंद के साथ हुआ था। 

सन् 1919 में मैं प्रेमचंद की अनुज वधू बनकर लमही ग्राम में आयी। प्रेमचंद (जिन्हें में आगे भाई के नाम से संबोधित करुंगी) मेरे पतिदेव स्व महताब राय (जिन्हें आगे की पंक्तियों में बाबूजी से संबोधित करुंगी) के न केवल अग्रज बल्कि पिता तुल्य भी थे। बाबूजी जब तुतलाना सीख रहे थे, उसी समय उनके पिता गोलोकवासी हो गए और उनके भरण-पोषण का सारा भार आ पड़ा भाई जी पर। भाई जी के ही संरक्षण में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और उन्होंने ही बाबूजी का विवाह भी किया। बाबूजी का भी अपने बड़े भाई के प्रति अगाध स्नेह था और वे उनका अत्यधिक आदर और सम्मान करते थे। अतीत के कुछ संस्मरण सुनाते हुए एक बार बाबूजी ने बतलाया कि उन्हें शहर से गांव (लमही) लौटने में रात्रि के लगभग 12 बज गए। डरते-डरते उन्होंने धीरे से द्वार की सांकल खटखटायी। चाहते थे कि उनके आने की खबर भैया को बिल्कुल न लगे और मां अथवा भावज द्वार खोल दें किंतु आशा के विपरीत भैया ने ही आकर द्वार खोला। देखकर बाबूजी के होश उड़ गये और पैरों तले से धरती जैसे खिसक गयी। धड़कते हृदय से चुपचाप अपने कमरे में दाखिल हो गये। सुबह जब बाबू जी सोकर उठे तो लोटा उठाकर शौच के लिए चले, तो भाईजी ने पूछा-क्यों छोटक, रात जब तुम आये तो कोई चार बजा रहा होगा? इतनी देर कहां कर दी तुमने?
बाबूजी ने सहमते हुए उत्तर दिया, 'नहीं भैया, बारह बजे थे। कुछ काम में फंस गया, जिससे देर हो गयी।Ó 
'अरे, मैंने तो समझा कि सवेरा हो चला है। तभी से बैठा लिख रहा था।Ó
ऐसी थी बाबू जी की भाई जी के प्रति आदर भावना और ऐसी थी भाई जी की तन्मयता कि सारी रात बैठे लिखते रहे और उन्हें समय का भी पता नहीं चल सका।
यों तो भाई जी के प्रति बाबूजी का स्नेह तथा आदर भाव कभी कम नहीं हुआ और मेरी ज्येष्ठानी श्रीमती शिवरानी देवी का भी मेरे प्रति बराबर स्नेह बना रहा, लेकिन नौकरी के सिलसिले में दोनों भाइयों को पृथक जिलों में रहना पड़ा और छठे-छमासे भेंट मुलाकात हो जाती। बाबूजी ने गांव में अपने पैतृक मकान के सामने एक पुख्ता बैठक बनवायी। कुछ दिनों पश्चात जब भाईजी सरकारी नौकरी  पर लात मारकर लमही आये, तो उन्होंने उस बैठक का विस्तार कर मकान का रूप दे दिया और अपने परिवार के साथ उसी में रहने लगे। बाबूजी तथा हमलोग जब कभी गांव आते तो पैतृक मकान में रहते। इस प्रकार बिना किसी कानूनी बंटवारे के ही गांव में एक के स्थान पर आमने-सामने दो घर हो गये और रहना-सहना भी अलग होने लगा।

सन् 1921-22 में बाबूजी कलकत्ता में श्री महावीर प्रसाद पोद्दार के प्रेस के व्यवस्थापक थे। उन्हीं दिनों वाराणसी में बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने ज्ञान मंडल यंत्रालय की स्थापना की थी और हिंदी दैनिक 'आजÓ तथा अंग्रेजी दैनिक 'टुडेÓ के संपादक थे बाबू संपूर्णानंद। बाबू शिवप्रसाद गुप्त तथा श्री श्रीप्रकाश जी बाबूजी को कलकत्ता से खींचकर वाराणसी लाये और ज्ञानमंडल यंत्रालय का व्यवस्थापक बनाया। मुश्किल से दो वर्ष वहां बीते थे कि भाईजी ने बाबूजी के समक्ष अपना निजी प्रेस खोलने तथा नौकरी छोड़कर उसकी व्यवस्था का भार संभालने का प्रस्ताव रखा। आज्ञाकारी अनुज ने भाई की आज्ञा शिरोधार्य कर नौकरी से इस्तीफा दे दिया। बाबू शिवप्रसाद गुप्त तथा श्रीप्रकाश जी ने बहुत समझाया, किंतु वे टस से मस न हुए। साझे में अपना सरस्वती प्रेस खोला और बाबूजी उसकी व्यवस्था देखने लगे। किंतु उन दिनों छापेखानों की दशा आज जैसी न थी। बड़ी मुश्किल से खर्च चलता था और आय बहुत थोड़ी होती थी।
और इस तरह कुछ समय तक काम करने के बाद जरूरी हो गया कि सरस्वती प्रेस से पृथक होकर कुछ और कार्य किया जाये। बाबूजी मिर्जापुर में राजा साहब विजयपुर के कलित प्रेस के व्यवस्थापक तथा यहीं से प्रकाशित होने वाले मिर्जापुर गजट के संपादक होकर चले गये। सरस्वती प्रेस से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका हंस तथा साप्ताहिक जागरण, जिनका संपादन प्रेमचंद जी करते थे, की प्रतियां वे नियमित रूप से बाबूजी के पास मिर्जापुर भेजा करते थे तथा साथ ही अपनी सभी नव प्रकाशित कृतियों की प्रतियां भी बाबू को। वे लभभग 12 वर्ष मिर्जापुर में गुजारे, जिनमें से कुछ दिन तो रांची में व्यतीत हुए। किंतु उन्होंने कभी माथे पर शिकन न पडऩे दी। आर्थिक कशमकश के बीच भी वे टेनिस, क्रिकेट तथा शतरंज के खेलों में रमे रहते। इसी बीच उन्होंने कलित प्रेस की नौकरी छोड़ कर मिर्जापुर में ही अपना एक छोटा सा प्रेस चलाया। जो व्यक्ति उस समय के बड़े से बड़े प्रेसों की व्यवस्था का भार संभाल चुका था, उसे समय के थपेड़ों में पड़कर अपने छोटे से प्रेस में स्वयं काम भी करना पड़ा। परंतु इसके लिए उन्होंने कभी भाईजी को  नहीं कहा और न उनके प्रति स्नेह और आदर भाव में ही कोई कम आयी। सन् 1936 के मध्य में भाई के गंभीर रूप से बीमार होने की सूचना पाकर बाबूजी विक्षिप्त से हो उठे और अचानक बारह साल की जमी-जमायी गृहस्थी उजाड़कर मिर्जापुर को सदैव के लिए त्याग दिया और लमही चले आये। प्रेस मिर्जापुर में ही अपने एक मित्र को सुपुर्द कर आये कि उसे वाराणसी भिजवाने की व्यवस्था कर दें, किंतु मित्र महोदय ने काफी दिनों तक प्रेस से होने वाली आय का भरपूर उपयोग किया।
भाईजी उन दिनों वाराणसी नगर में धूपचंडी स्थित एक महान में किराये पर रहते थे। नीचे प्रेस था और ऊपर निवास-स्थान। किंतु लंबी अवधि तक उस घर में बीमार रहने के कारण उन्होंने मृत्यु के लगभग दो माह पूर्व मकान बदल दिया और समीप ही में राम कटोरा स्थित दूसरे मकान में चले गये। बाबूजी इस बीच निरंतर शहर जाते और भाई की सेवा टहल तथा इलाज की व्यवस्था में लगे रहत, किंतु भाईजी की दशा निरंतर बिगड़ती ही गयी और अंतत: आठ अक्टूबर 1936 को उनकी इहलीला समाप्त हो गयी। बाबूजी इस बीच निरंतर उनके निकट रहे और अंत समय में भी उनके बगल में थे। बाबूजी कहते थे कि अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भाईजी एकाधिक बार उनसे कुछ आवश्यक बातें करने की इच्छा व्यक्त की। शायद वे बाबूजी जी से अकेले में कुछ बातें करना चाहते थे, किंतु अपनी यह अभिलाषा अंतर में लिये ही चल  बसे।

बाबूजी जब तक जीवित थे, प्रेमचंद पर शोधकार्य करने वाले स्कॉलर उनके पास आया करते थे और कई-कई दिनों तक उनसे प्रेमचंद के विषय में जानकारी प्राप्त किया करते थे। आकाशवाणीवालों ने भी दो-एक इंटरव्यू की टेव रिकार्डिंग की थी। सोवियत लेनिनग्राद के एक शोध स्कॉलर बलतर बालिन, जो प्रेमचंद पर शोध कार्य करने भारत आये थे, काफी समय तक बाबूजी के पास प्रेमचंद्र के पारिवारिक जीवन के संबंध में जानकारी प्राप्त करने के लिए आते रहे। 
82 वर्षीया मेरी ज्येष्ठानी शिवरानी देवी के दोनों सुयोग्य पुत्र श्रीपतराय और अमृत राय हर प्रकार से संपन्न हें। इधर कई महीनों से वे (श्रीमती शिवरानी देवी)पुन: वाराणसी में हैं। आंखों से सूझता नहीं और कान से सुनाई नहीं पड़ता। किंतु वाराणसी में ही अपने जीवन के अंतिम दिन व्यतीत करने की उनकी हार्दिक अभिलाषा है। कहती हैं-उनकी (प्रेमचंद)की आत्मा मुझे यहीं ढूंढती होगी। मेरा भी काफी समय उन्हीं के साथ व्यतीत होता है। घंटों बैठे हम लोग अतीत को याद कर दुख-सुख की बातें किया करते हैं। वे मुझे बराबर अपने साथ ही रहने को कहा करती हैं, किंतु पारिवारिक बंधन के कारण यह संभव नहीं हो पाता। जब कभी वे मुझे दुखी या खिन्न पाती हैं तो आश्वस्त करते हुए कहती हैं-तुम क्यों फिक्र करती हो श्यामा, मैं छोटक की शादी कर तुम्हें घर लायी थी और जब तक मैं जीवित हूं, तुम्हें कोई चिंता नहीं करनी चाहिए। देखना है, जीवन की इस दौड़ में हम दोनों में से कौन किसे पछाड़ता है!
समय के साथ उम्र बीत रही है। अतीत को दुहराते रहने के अतिरिक्त कोई काम भी नहीं, लेकिन इस तरह अतीत-जीवी भी तो नहीं रहा जा सकता! 
हर अगला पल अदृश्य की ओर ले जा रहा है। पता नहीं कब विराम मिलेगा !
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यह लेख धर्मयुग में एक अक्‍टूबर 1972 के अंक में प्रकाशित हुआ था। 

झारखंड के अंचल में

डॉ रामखेलावन पांडेय
देहात को मैंने प्रेमचंद की आंखों से देखा था-इसे स्वीकार करने में मुझे किसी प्रकार का संकोच नहीं, किसी प्रकार की दुविधा नहीं, अत: मोटरों की पों-पों, और कोलाहल, शहर की उड़ती धूल और गंदगी तथा कर्माकुल व्यस्त जीवन से त्राण या झारखंड के एक अंचल में-सभ्यता और कृत्रिमता से दूर देश में, जब रहने का अवसर मिला तब मुझे मालूम पड़ा जैसे सारी दुनिया पीछे छुट आयी है। यह अंचल जाना हुआ तो है, मगर पहचान नहीं। कभी पहचानने की चेष्टा भी नहीं की थी मैंने। मुझे लगा जैसे यहां की घड़ी की सुइया तक शिथिल हो गई हैं। यहां काल प्रवाह है ही नहीं, एक विचित्र आलस, एक अनुभूति निश्ंिचतता इस रहस्यमय अंचल को घेरे पड़ी है। सघन हरीतिमा की छाया में मानवता जैसे स्वप्न देख रही हो, उस युग का जिसमें संघर्ष न था, संघर्ष का उन्माद न था। नीली-नीली दूर तक फैली पहाडिय़ां धरती की छाती की भांति फूल उठी हैं और उन्हें घर कर उजले, लाल, पीले और अनेक रंगों के बादलों के टुकड़े प्रकृति का सिंगार कर रहे हैं। यह सौंदर्य अपरिचित सा ही लगा मुझे! पहाडिय़ां देखी थी मैंने, उड़ते बादलों के रंगीन पख भी देखे थे, पर जान पड़ा, ऐसा सौंदर्य तो था नहीं उनमें। ऊंचा सा टीला-पत्थरों का जमघट-एक आध लहलहाते पौधे और ऊपर आसमान में शरदपूनों का हंसता हुआ चांद बादलों की गोद में खेलता-सा, फुदकता-सा जान पड़ा। नदी के उस पार से कोई मिलन-संदेश भेज रहा हे-कितना विषादमय कितना करुण, किंतु कितना मादक!  पास में था झरता हुआ क्षीण पहाड़ी झरना, पर स्पष्ट। स्वर के इनके गीत आधी रात में भटकने पर मोहक हो उठे।
इस ऊबड़खाबड़ अंचल की काली-काली चट्टानों को देखकर मैंने सोचा था, यहां के अधिवासी भी उन्हीं पत्थरों की भांति जड़ और शिथिल हैं। यह बात भी नहीं कि वैसे लोगों का अभाव है वहां, जिनके अविराम जीवन में दिन-मास-वर्ष की कोई गणना नहीं। वे चर्चिल और हिटलर को नहीं जानते, शायद गांधी और जिन्ना को भी नहीं! स्वभाव में एक विचित्र रुखाई-मिली सरलता है। सरलता जो मूर्खता की सीमा में घुसती जान पड़ती है। सच मानों, मुझे दो ही चीजें यहां प्रचुर मात्रा में मिली-एक ठंडा पानी और दूसरी सरलता। किंतु उन चट्टानों के बीच से दबकर निकलने वाले झरने भी हैं, सुस्वादु जल से पूर्ण, पर्वत की करुणा और स्नेह के प्रतीक।
गरीबी यहां खुलकर झांकती है-लोगों के चीथड़ों से। उसे किसी प्रकार की लजा नहीं, संकोच नहीं, झिझक नहीं। और, अमीरी उस पर हंसती है, खिलखिला कर, मचल-मचलकर। शहरों की गरीबी जैसी यहां की गरीब नहीं, वह इस तरह खुल कर झांकती भी नहीं-शरमा कर चलती है, लज्जा के भार से झुकी सी। अमीरी यहां धूर्तता की अमरलता है जो गरीबी की डाल पर फैलती है, शोषण ही जिसकी नीति है।
पढ़ा करता था-पहाड़ी देशों के लोग सबल होते हैं, कारण उनका प्रकृति के साथ निरंतर संघर्ष जो चल रहा है और संघर्ष में उसी की रक्षा संभव है, जो सबल है। संघर्ष यहां का जीवन नहीं, जीवन है, सहयोग, प्रकृति के साथ निरंतर सहयोग। बादल पानी बरसाते हैं, ऊंचे-नीचे खेतों की मिट्टी खुरेद लोग धरती माता के पेट में अन्न डाल देते हैं और माता का स्नेह फूट पड़ता है हरियाली के रूप में। हवा के झोंके के चंचल हरीतिमा जैसे जीवन की लहर हो। लोग इसलिए आलसी हैं, नितांत आलसी, निष्क्रियता की सीमा तक पहुंचने वाले आलससागर में निमग्न हैं। पेट में थोड़ा अन्न हो, अंग ढंकने को मात्र आवरण, बस इतना ही पर्याप्त है। उनके लिए अतीत नहीं, भविष्य भी नहीं, केवल वर्तमान है। वर्तमान परिश्रम से चूर, अभाव से पूर्ण, किंतु अभाव उन्हें खलता नहीं, भाव यहां कभी दिखा जो नहीं। निंदा, ईष्र्या, द्वेष और कलह का मूल कारण है यही आलस। शरीर बैठा रहेगा पर मन तो नहीं। और बेकार मन की यही खुराक है। शहरों के कर्म-संकुल जीवन में इतना अवकाश कहां जो लोग दूसरों की ओर देखें। क्या अपनी ही दौड़ कम है?
मैं ऐसी भाषा सीख कर यहां आया था जो भाव छिपाना जानती है, बनावटी है, कृत्रिम है। सभ्यता आखिर अपनी प्रकृति को छिपाने का ही नाम तो है, किंतु यहां की भाषा, इसे जंगली भले न कहूं, सभ्य तो कह नहीं सकता।
बंगाल के संपर्क में आया हुआ यह प्रदेश शक्ति का उपासक है, हिंसा का, बलिदान का। दुर्गा और काली पूजा के अवसरों प मनुष्य की पशुता नाचती सी दीख पड़ी। निकट स्थित गया में आकर गौतम को बुद्धत्व मिला, किंतु मालूम होता है अहिंसा की गंध इस मिट्टी को नहीं मिली।
मनुष्य सभी को अलग-अलग कर देखने का अभ्यस्त है। ऊंच-नीच, राजा-रंक, अमीर-गरीब, काला-गोरा, सुंदर-असुंदर का भेद सर्वत्र है। शिक्षित और अशिक्षित का भेद भी इधर कम नहीं, किंतु वहां का यह भेद इतना प्रबल है कि जर्मनी में जर्मन और यहूदियों में क्या रहा होगा। भय यहां जीवन की कुंजी है, सर्वत्र ही है, किंतु भूतों का भय जैसे यहां दीख पड़ा वैसा कहीं नहीं। लड़कों और स्त्रियों की बात करें, अच्छे खासे तगड़े जवान भी भूतों की कहानी सुन अकेले आंगन में नहीं निकलते।
यह रही झारखंड के एक अंचल की झांकी-धूमिल और स्पष्ट रेखाओं में सीमित सी, किंतु वास्तव में कितनी असीम, कितनी विस्तृ।  

श्‍यामल की कहानियां -कहानी के भीतर कहानी

  कहानी की सिमटती दुनिया और सीमित अनुभव में कहानी रचाव के इस दौर में श्यामल बिहारी श्यामल अपनी कहानियों में सिर्फ एक भूगोल तक सीमित नहीं रहते। उनका दायरा किसी एक शहर तक सीमित नहीं रहता।  वैविध्यपूर्ण विषय और देखने की एक गहरी अंतरदृष्टि हमें समकाल से जोड़ती भी है और समकाल के कथाकारों से विलगाती भी है। हिंदी पाठकांे की लगातार सिमटती दुनिया में, जिसके लिए एक हद तक लेखक और उनका गिरोह  जिम्मेदार है-श्यामल इस बंद गली से निकल एक अलग और अपनी दुनिया आबाद करते हैं। इसलिए, उनकी कहानियां हमारे प्रबुद्ध आलोचकांे की नजर में नहीं चढ़ पातीं। पर जब इन कहानियों से गुजरने की ईमानदार कोशिश हो तो हम अपने समय को इसमें पाते हैं। बनारस से लेकर पलामू, रांची धनबाद की अलग-अलग संस्कृति, भाषा, समाज और उनकी रोजमर्रा की समस्याओं, चिंताआंे, फितूरों से हम रूबरू होते हैं। श्यामलजी पत्रकार हैं। इस नाते इन जगहों और यहां की गलियों, घरों, सड़कों पर घूम रहे पात्रों से बोलते-बतियाते ही इन कहानियां का जन्म हुआ है।
  बारह कहानियों के इस संग्रह में हर कहानी के भीतर एक कहानी छिपी हुई है। इसके कहने का आशय और अर्थ भी है। ‘कागज पर चिपका समय’ संग्रह की पहली कहानी है, जो बनारस पर है और अंतिम कहानी, ‘चना चबेना गंगजल भी बनारस पर। इनके भीतर पलामू, रांची और धनबाद है। पहली कहानी में हमें बनारस की वही चिरपरिचित भाषा की मिठास से साबका होता है-‘अरे भाईजान! गुरुआ ने तो नया किला भी फतह कर लिया! उसके कमरे में काफी देर से रीतिकाल छाया हुआ है। मैं एक बार आधा घंटा पहले टायलेट की तरफ से हो आया हूं, चलिए न एक बार उधर से और हो लिया जाये।’
   कहानी का यह पहला पैराग्राफ पाठक को उत्सुक बना देता है। जो बनारसी रंग को जानते हैं, वह गुरु और रीतिकाल के लक्षणार्थ से भी खूब परिचित होंगे। यह खुसूर-फुसूर बनारस के दूरदर्शन केंद्र के एक आफिस में होती है। इस कहानी में आगे क्या है, उसे आप पढि़ए, पर इसमें एक कंसेप्ट है, जो एक दूसरी कहानी को जन्म दे सकता है। दूरदर्शन के लिए एक कार्यक्रम बनाने की तैयारी चल रही है और यह कार्यक्रम भूमिहीनों और शोषितों पर कंेद्रित है। ये भूमिहीन और शोषित कौन हैं? यह आगे खुलता है-‘अरे भाई, हरहुआ के लमही गांव से लेकर पांडेयपुर और बनारस मेन सिटी में इधर जगतगंज तक का इलाका ही तो मंुशी प्रेमंचद की चौबीस घंटे सक्रियता का मूल क्षेत्रा था। लमही में जन्म और जगतगंज में निधन तो, यहां के ढेरों शोषित-दमित पात्रा उनके साहित्य में अमर हैं, ऐसे पात्रांे की दूसरी और तीसरी पीढ़ी के ज्यादातर लोग आज वैसी ही दशा में जीवन खेप रहे हैं...’
  प्रेमचंद का जब निधन हुआ तो देश गुलाम था। फिर आजादी मिली 1947 में। इसके भी हासिल किए 67 साल हो गए और प्रेमचंद के पात्रा आज भी वैसी ही दशा में हैं। यानी, दूसरी-तीसरी पीढ़ी की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ जबकि न जाने कितनी पंचवर्षीय योजनाएं आईं और चली गईं। गांव में रहने वाली 80 प्रतिशत आबादी की फिक्र देश की किसी भी सरकार ने नहीं की। नारे जरूर लगाए। एक और बात, हमने इतनी जरूर तरक्की कर ली है कि प्रेमचंद के किसानों के सामने संकट जाहे जिस रूप में आए, पर वे आत्महत्या नहीं करते थे, पर हमारी नीतियों ने इतना जरूर विकास किया कि किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है। हमारा बैंक, हमारी सरकार विजय माल्यों जैसों के प्रति बहुत उदार रहती है। कुछ ऐसे पूंजीपती भी हैं, जिनका हजारों करोड़ का कर्ज एक झटके में हमारी सरकार माफ कर देती है और जबकि चंद हजार रुपये के लिए हमारे किसान आत्महत्या कर लेते हैं। जो अन्न देता है, उसे हम भूखा मार देते हैं।
  इसके भीतर एक और कहानी उभरती है-रुखसाना महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से जुड़कर बनारस के बुनकरों पर शोध कर रही है....अखबारों मे रोज आ रहा है कि बनारस के बुनकर पलायन कर रहे हैं। रोज एक न एक की खुदकुशी की खबर दर्दनाक तस्वीर सहित छप रही है उन पर सूदखोरों के जुल्म की बातें भी सामने आती रहती हैं। यह भी शोर कि बनारसी साड़ी उद्योग मर रहा है, लेकिन इसकी मार्केटिंग करने वालों के रुतबे पर तो कोई असर नहीं।’-जो हाल किसानों की, मजदूरों की, वही हाल बुनकरों की। गर्दन में फांस यहां भी है। 67 सालों में जैसे समय ठहर गया है, कागज पर चिपक गया है।
  ‘आना पलामू’ यह संग्रह की चौथी कहानी है। पलामू श्यामलजी का घर भी है। 1998 में पलामू के सूखाड़-अकाल पर ‘घपेल’ नामक उपन्यास उनका आ चुका है। यह कहानी सुखाड़-अकाल पर नहीं है, पर इससे उपजी परिस्थितियों पर है। पलामू एक अजीब जिला है। ऐसा कि इसकी भूमि पत्राकारों की अपनी खींचती रही है-पी साईनाथ, रामशरण जोशी, महाश्वेता देवी, फणीश्वरनाथ रेणु, अज्ञेय...किसने नहीं लिखा और क्या नहीं लिखा, लेकिन पलामू नहीं बदला। 1880 में संजीब चटृोपाध्याय ने ‘पलामू’ लिखी। तब से पलामू यही है, यहां भी समय जैसे कागज पर चिपक गया है। मजा देखिए, यहां से निकले नेता झारखंड और देश में अपनी पहचान बनाए-कोई केंद्रीय मंत्राी बना, कोई राज्यपाल...पर पलामू की किस्मत नहीं बदली। आज स्थिति और भी बदतर है। यहां अकाल से निपटने के लिए चालीस-चालीस से डैम बनाए जा रहे हैं। ये आज तक पूरे नहीं हुए, लेकिन हर साल इसकी राशि बढ़ जाती है। तो पलामू यह है और इस उर्वर पलामू में नक्सलवाद नक्सलबाड़ी से चलकर पड़ाव डाला जो अब अपना घर बना लिया है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि झारखंड में नक्सलवाद का प्रवेश इसी मुहाने से हुआ और आज माओवाद के अलावा एक दर्जन संगठन सक्रिय हैं, जिसे कुछ पुलिस ने भी माओवाद से निपटने के लिए खड़ा किया है। लोहा से लोहा को काटने के लिए हमारी पुलिस के पास यही उपाय है! सो, इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ता है, जो शहर नहीं जंगलों के बीच बसे गांवों में रहते हैं। यह कहानी कुछ ऐसे ही सवाल खड़ा करती है और माओवाद को लेकर द्वंद्व को भी। एक दूसरी कहानी, इसी की पूरक है-छंद में हाहाकार। इस कहानी में बस एक ही दृश्य है-जन अदालत की। जन अदालत चरमपंथी गुट की। खुलासा नहीं किया गया है कि यह माओवादियों की है या दूसरे चरमपंथी गुट की। पलामू में एक दर्जन ऐसे संगठन सक्रिय हैं-ये भी जन अदालत लगाकर अपने दोषियों को अपने ढंग से सजा देते हैं। यहां भी औरंगा नदी के तट पर घने जंगल में जन अदालत लगी है, जिसमें चार मामले आए हैं-गोसाईडीह की पिरितिया के साथ बलात्कार का मामला, गंझू परहिया की पुलिस मुखबिरी का केस, डाकू रामसूरत यादव का मुकदमा और सरकारी संत बनकर जनता को भड़काने वाले कृषि विज्ञानी रामचंद्र मिश्रा का मुद्दा। पिरितिया के साथ बलात्कार कोई सवर्ण नहीं करता है, बल्कि पलामू में चेरो आदिवासी। वह इस तरह की कई वारदातें कर चुका है, बकौल कहानीकार। गंझू परहिया, डाकू रामसूरत। सबको सजा दी जाती है-वह सजा है मौत की, लेकिन रामचंद्र बच जाते हैं क्योंकि उन पर झूठे आरोप लगे थे। वे गांवों में कृषि का कायाकल्प कर गांव के लोगांे को रोजगार मुहैया कराते हैं। जो मजूदर पलायन करते थे, वह रुक गया है। यानी, मिश्रा जी यहां हितचिंतक के तौर पर उभरते हैं और इनका मामला जांच का विषय बन जाता है और इस तरह वे जन अदालत से छूट जाते हैं। गांव की एक महिला बताती है कि ये भले आदमी हैं- ‘ऐ बाबू्! ई सही आदमी हथ! जौना-जौना गांव में इनकर काम चलत हई, उहां के लोगन के अब शहर जाके मजूरी करे के जरूरत नइखे। गांव के जे अदमी पच्चीस-तीस रोपेया कमाये खातिर बीस कोस दूर शहर-बाजार जाइत रहन उ गांव में इनकरा साथ काम करके रोज सौ रोपेया कमात हथिन!...’ इस तरह मिश्रा जी बच जाते हैं। दरअसल दोनों कहानी आपको भी आमंत्रित करती है, आइए पलामू और फिर देखिए, ‘जन्नत’ की हकीकत।
  अंतिम कहानी ‘चना चबेना गंगजल’ है। यह खांटी बनारसी कहानी है। यहां अस्सी का चौराहा भी है और घाट भी है। छल-छद्म की चादर ओढ़े आचार्य। और उनको हर दिन गरियाता उनका एक पूर्व साथी, जिसने गाढ़े समय में उनकी मदद की थी। कहानी अस्सी चौराहे से निकलकर घाट की ओर जाती है जहां एतवारू मिलते हैं-अरे हम कौनो बाबा-फाबा नाहीं हैं! क्ेवल बंस के हैं। गंगाजी में से बूड़ल लाश खोजकर निकालते हैं। यह एतवारू ही उस आचार्य को हर संझा गरियाने जाते हैं। क्यों, इसकी एक कहानी है, जो आहिस्ता-आहिस्ता खुलता है। निश्च्छल और ईमानदार। जिस लाश को गंगाजी में से पुलिस भी नहीं ढूंढ पाती, उसे एतवारू बहुत आसानी से खोज निकालते हैं।  इस विषय पर कोई कहानी दिखाई नहीं दी, जिसने एतवारू जैसे पात्रा पर कहानी लिखी हो, जबकि बनारस से कई ख्यात कहानीकार निकले। कहते हैं, कहानी तो अपने आस-पास बिखरी होती हैं, उसे देखने वाली नजर चाहिए। घुमक्कड़ मन चाहिए। डांइग रूम में बैठकर कहानी नहीं लिखी जा सकती न खूब प्रयास से। इस कहानी में हम बनारस को महसूस कर सकते हैं, उसकी धड़कन को, उसकी संस्कृति को।
  ‘अट्टाहास काल’ हमारी छिजती संवेदना की कहानी है। मणिकर्णिका के बारे में हम सब जानते हैं यहां चिता की आग कभी ठंडी नहीं होती है। 24 घंटे चिता की लपटें उठती रहती हैं। पर, कहानी यह नहीं है। कहानी यह है कि गांव वाले एक स्वाभाविक मृत्यु को कैसे भजाते और लाश पर राजनीति करते हैं और मुआवजा वसूलते हैं। लाश की राजनीति राजनेता करते रहे हैं लेकिन गांव वाले ऐसा करें तो समझना चाहिए शहर की जो बारूदी हवा अब गांवों की ओर मुड़ गई है। गांव अपने भोलेपन के लिए जाना जाता है, लेकिन आज के समय में यह बात अब नहीं कही जा सकती है। कहानियां और भी हैं और पात्रा भी। प्रेत पाठ भी रहस्य के आवरण में लिपटी एक कौतूहल पैदा करती है। पत्तों की रात, निद्रा नदी, सीधान्त, बहुत कुछ अलग-अलग स्वाद रचती हैं। वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र राव ने व्लर्ब पर ठीक ही लिखा है, ‘ये कहानियां पाठक को लोकजीवन के नैसर्गिक प्रवाह में बड़ी कुशलता से बहा ले जाती हैं।’ इन कहानियों में कई-कई भूगोल देखते हैं। कई-कई भाषा देखते हैं और इस वैविध्यपूर्ण रोशनी में हम अपने समय और समाज को देखते हैं। हमारे लोकजीवन पर चढ़ता शहरी रंग और इस रंग में बदरंग होते मानवीय रिश्ते, स्वार्थ की परछाइयों में अपना ही बौना होता कद और थरथराती-कांपती नदियों से अपना दुखड़ा सुनाते पलामू के पहाड़-जंगल....बिना किसी लाग-लपेट और बनावटी भाषा के।    

साभार, लमही से।