सुधा ओम ढींगरा की कहानी ‘काट दो...’

         सुधा ओम ढींगरा की कहानी ‘काट दो...’ पढ़ते-पढ़ते जब अंत तक पहुंचते हैं कि तब अनायास ही शिवमूर्ति की कहानी ‘अकाल दंड’ की याद ताजा हो जाती है। ‘काट दो’ में रेपिस्ट खुद अपने लिए सजा  मुकर्रर करता है कि उसका अंग काट दिया जाए। वह इस समस्या के निदान का उपाय यह बताता है कि दुष्कर्म करने वालांे के अंग को काट देना चाहिए, इससे इस पर अंकुश लगाया जा सकता है और दशक भर से पहले लिखी गई कहानी ‘अकाल दंड’ में यह अनायास ही घट जाता है। अकाल दंड कहानी की पात्रा सूरजी सिकेटरी बाबू का हंसुए से देह का नाजुक हिस्सा अलग कर देती है। यह अलग कर देने की घटना, वह भी उस समाज की एक औरत द्वारा, जो सदियों से उत्पीड़ित होने के लिए अभिशप्त रही है और आज भी उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, मध्यप्रदेश और राजस्थान से उसके अभिशप्त होने की खबरें आती रहती हैं, तब के लिए इसे एक क्रांतिकारी कदम ही कहा जा सकता है। 21 वीं सदी का समाज, और वह पुरातन, प्राचीन श्रेष्ठ संस्कृति, जिसकी दुहाई देने में हम तनिक नहीं थकते, जो ब्रांड में है, वही पिंड में है का दर्शन...जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं...उसी समाज में जाति के विषैले विष ने दलितों के साथ अन्याय करने का जन्मजात हक हासिल कर लिया। एक ओर नारी के प्रति पूजा का भाव और उसी परंपरा में इंद्र जैसा कामुक देवता भी! तब के और अब के साहित्य में क्या अंतर है? राजेंद्र यादव घराने की लेखिकाओं ने तो खूब कलम तोड़ा और देह की मुक्ति में नारी की मुक्ति का घालमेल कर खूब पोर्नोग्राफी साहित्य रचा। तो स्त्राी को देखने का नजरिया वही सामंती यहां भी बना रहा। अलबत्ता नारे बदल गए। बुद्धिजीवी और वामपंथी होने का तमगा अलग से। वैसे, अब तो ये दोनों पर्याय हो गए हैं। 
   हालांकि ‘काट दो’ कहानी न दलित-सवर्ण विमर्श को खड़ा करती है न इस तरह के नारे और खेमे में विश्वास करती है। इस नजरिए से यह लिखी भी नहीं गई है। कहानी के स्वाभाविक प्रवाह द्वारा यह सृजित है। इसका कोई राजनीतिक उद्देश्य भी नहीं। यहां एक अलग समाज जरूर हमारे सामने उपस्थित होता है  लेकिन समाज का आदमी, उसका मन, मस्तिष्क और सोच की बनावट में कोई अंतर नजर नहीं आता। भले शिक्षा का स्तर वहां ज्यादा हो, आदमी ज्यादा प्रैक्टिकल हो, विकसित भी ज्यादा हो, पर देह के स्तर पर सोच वही पुरातन और पोंगापंथी। यहां हम उस समाज से बावस्ता होते हैं, जहां सात जन्मों वाली रुढ़िवादी सोच नहीं हैं। यहां तो बस आज है, आज। न भूत की चिंता न भविय की परवाह। अपने को आधुनिक कहने वाले समाज ने रिश्तों को बहुत दूर छोड़ दिया है। सभ्य-सुसंस्कृत जैसे शब्द यहां बेमानी हो गए हैं-यहां भी वहां भी। इसलिए, यूएसए हो या दिल्ली-मुंबई, अचानक बलात्कार की घटनाएं बढ़ गईं हैं। हम जैसे-जैसे शिक्षित होते जा रहे हैं, लगता है हमारा विवेक पीछे छूटता चला जा रहा है। शिक्षा हमें रोजगारी तो बना रही है, संस्कारी नहीं। हम सब जानते हैं कि गांव में बलात्कार की घटनाएं कई कारणों से समाज और गांव समाज की दहलीज लांघ नहीं पाती हैं। कहीं समाज का डर, कहीं पंचायत का। किसी ने कभी मुंह खोला या रिपोर्ट लिखाने का साहस किया तो उसे दुश्चरित्रा और फिर नंगा घुमाने का फरमान। या फिर हम उस जिंदगी के ताप को महसूस नहीं कर पाते, जहां दलित स्त्रिायों की इज्जत सरेराह उछाली जाती है। शहर का चरित्रा दूसरा है। बलात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है। 16 दिसंबर के बाद तो जैसे पूरा देश ही बलात्कार की घटनाओं से चीत्कार करने लगा है। गांव-शहर का भेद भी मिट गया है। यह अलग बात है कि हमारे समाजशास्त्रिायों और चिंतकों ने इसका कोई अब तक समाजशास्त्राीय और मार्क्सवादी ढंग से अध्ययन नहीं किया है कि आखिर, बलात्कारियों का वर्ग चरित्रा क्या है?
  मृदुला गर्ग अपने एक लेख में कहती हैं कि ‘बलात्कार, स्त्राी के स्त्राी होने की अस्मिता का ही हनन नहीं करता, समाज में उसके स्तर, हैसियत व छवि पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। साथ ही उसके मन में अपने भावात्मक व मानवीय संबंधों के बारे में संशय पैदा करता है। उसे उन पर दुबारा सोच विचार करने को बाध्य करता है।’ वह आगे कहती हैं, ‘तमाम जागरूकता के बावजूद उन सामाजिक स्थितियों में बदलाव आता दिखाई नहीं देता जो स्त्राी को बलात्कार का शिकार बनाती हैं। बल्कि त्रासद सच्चाई यह है कि उसकी घटनाएं बढ़ रही हैं।’ आखिर, ऐसी घटनाएं अचानक क्यों बढ़ गईं?
   ‘काट दो’ ऐसी ही मानसिकता से उपजी कहानी है। एक त्रासद सच्चाई। पर कहा गया है, यहां रेपिस्ट खुद अपनी सजा मुकर्रर कर रहा है कि उसके अंग को काट दिया जाए। आप सोच सकते हैं कि क्या वह पागल है, सिरफिरा है या उसे अपने किए की आत्मग्लानि हो गई है, जो इस तरह की सजा अपने लिए मांग रहा है! आखिर वह पूरे होशोहवास में क्यों कह रहा है कि इस समाधान से ही बलात्कार जैसी घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सकता है। क्या यह उस पागल का बयान है? क्या ऐसा संभव है? इसी तरह की घटनाएं क्या प्रकाश में आईं हैं? हालांकि यह कहानी दिमाग की उपज भर नहीं है। इसका एक सूत्रा है, जो यथार्थ की डोर से बंधा है। वहीं से यह कथा निकली है और आगे बढ़ती है। फिर थोड़ी कल्पना के साथ कहानी की शक्ल ग्रहण कर लेती है। 
   यूएसए में रहने वाली सुधा की इस कहानी में एक अलग आस्वाद मिलता है। पर एक बात पूरब-पश्चिम के बारे में समान बात कही जा सकती है कि मर्द का चरित्रा एक होता है। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई देश कितना आधुनिक और विकास के तल पर कितना आगे बढ़ गया है। औरत के मामले में सारी आधुनिकता बहुत पीछे छूट जाती है और मानसिकता वहीं अटकी है, जहां हजारों साल से अटकी है, जब आदि ग्रंथ आकार ले रहे थे। इसलिए, मानसिकता वहां भी वही थी कि ‘मुझे बस उसे नोचना होता है। उसके अस्तित्व पर चोट पहुंचानी होती है, जिसे वह अस्मिता कहती है, उसे लूटना होता है।’ यह हर मर्द की मानसिकता होती है। ‘पीली छतरी वाली लड़की’ का नायक भी अपनी सवर्ण नायिका के साथ सहवास ही नहीं करता, हजारों साल के अपने पुरखों के साथ हुए अन्याय का बदला भी लेता है। उस क्षण उसकी अस्मिता वहां जाग जाती है। अस्मिता पद बड़ा लुभावना है। अभी हिंदी में भी खूब प्रचलित है। नारी अस्मिता, दलित अस्मिता, आदिवासी अस्मिता, पिछड़ी जाति की अस्मिता, अगड़ी जाति की अस्मिता आदि-आदि। अस्मिता को अभी यहीं स्थगित करते हैं। क्योंकि यह कहानी कोई अस्मितावादी ढांचे में ढली नहीं है। 
 कहानी के मूल पर आने से पहले यह जरूरी है कि हम कहानीकार के बारे में थोड़ा जान लें। इससे कहानी को समझने में आसानी होगी। सुधा एक साइकालॉजिस्ट हैं। फेमिली काउन्सलर हैं। रेप विक्टिम्ज के परिवारों की काउंसलिंग भी करती हैं। दरअसल इस कहानी के जन्म की भी एक कथा है। वह रेप विक्टिम्ज पर होने वाले एक कॉन्फ्रेंस में शामिल थीं कि एक रेपिस्ट ने यह सुझाया कि काट देने से रेप को काफी हद तक रोका जा सकता है।’ उसके इस सुझाव को साहस कह सकते हैं। कहानी का सूत्रा यही है। पंच लाइन यही है। आधार यही है। यहीं से यह कहानी जन्म लेती है। पर, कहानी में इतना भर नहीं है न कहानी इतनी सपाट है। कई दार्शनिक सी लगने वाली बातें हैं, ‘मेरे अलावा मेरे बारे में कोई नहीं जानता। यह भी अच्छी बात है कि मैंने स्वयं को पहचान लिया अन्यथा लोग उम्र भर स्वयं को खोज नहीं पाते। मरणासन्न पड़े हैं और सोच रहे हैं कि मैं कौन हूं।’ अक्सर हम दूसरों को जानने का दावा करते है...हां, हां, हम तो उसे जानते हैं। पर क्या कभी खुद से पूछा है कि मैं कौन हूं? जैसे ही सवाल उठता है, हम इसे छोटे से सवाल का सामना नहीं कर पाते। आंखें नहीं मिला पाते खुद से। अरे, यह तो ऋषि-मुनियों का काम है। अथवा, कोई यह दावा कर भी दे कि खुद को जान गया हंू तो उसे पागल करार देने में हमें तनिक भी वक्त नहीं लगेगा।
 इस महिला को होश क्यों नहीं आया? अब तक तो इसकी आंखें खुल जानी चाहिए थी।...चिंता है कि इसे देखकर मुझे क्या हो रहा है। मेरी उोजना मर क्यों गई। मेरा उत्साह खत्म क्यों हो गया। मेरी र्जा कहां चली गई। ऐसा मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ।...शायद यह गिड़़गिड़ा नहीं रही। महिला को गिड़गिड़ाते देखकर मैं आक्रामक हो जाता हूं फिर चाहे वह बूढ़ी हो, जवान हो, अधेड़ हो या बच्ची, किसी की मां हो, बेटी हो या पत्नी। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।’ पर यहां फर्क पड़ा। नायक स्त्राी जात से नफरत करता है। इसके पीछे एक वाजिब कारण भी है। कार्य-कारण। कई औरतों ने बचपन में जख्म दिए जो अब घाव बन गए थे।... ‘तब सत्ता उनके हाथ में थी। उन्होंने मेरा शोषण होने दिया। अब सत्ता मेरे हाथ में है। स्त्राी वर्ग से नफरत है।’ यह नफरत उसके अंदर इतना मजबूत हो जाता है कि उसके अंदर छुपे जानवर को और ताकतवर बना देता है। शिकार देखते ही झपट पड़ता है। पर आज जिस महिला को उठकार पार्क से ले आया, उसके साथ वह कुछ कर नहीं पा रहा? अचानक उसकी ताकत जैसे क्षीण हो गई हो? ‘मेरे हाथ कांप रहे हैं? मैं इस नारी को निर्वस्त्र नहीं कर पा रहा। यह तो मेरा शिकार थी। जागिंग करते हुए इसकी पिंडलियां ही तो मुझे उत्तेजित कर गई थीं।’
  वह स्त्री के दूसरे हिस्से को देख उत्तेजित नहीं होता है। वह पैर देखता है। पैर या पिंडलियां देखने का एक वाजिब कारण भी है, जो कहानी में आगे खुलती है। सुधा ने आखिर, उस अनजान स्त्री की पिंडलियां ही क्यों दिखाई? जबकि औरत के पास दिखाने को बहुत कुछ है। क्या कोई रासायनिक क्रिया हो सकती है? या फिर वह इस स्त्राी के साथ ऐसा कुछ नहीं कर पा रहा, जो अक्सर स्त्रिायों के साथ करता था? ‘यह भी सोचने का समय नहीं मिला कि उसने मुझे ‘हाय सन’ कहा था। इसका मतलब है कि यह अधेड़ उम्र की महिला है, इसके बच्चे मेरी उम्र के या मुझे से छोटे-बड़े होंगे।’ यह सब वह मन में बुदबुदाता है। अजीब रेपिस्ट है। शिकार सामने है पर, हाथ-पैर जैसे सुन्न हो गए हैं। ‘सुना है, हर इंसान के पास विवेक होता है, अंतर्मन नाम की शै भी है, पर मेरे पास ऐसा कुछ नहीं। अंधेरे में गुम हुई मेरी सोच इन सबको निगल चुकी है।’ पर यहां आकर उसकी सोच वापस जिंदा हो जाती है। पिंडलियां पर अटक जाना, हाय सन का दिमाग में घूमना बहुत अर्थपूर्ण है। अनायास नहीं। पर, कहानी में जिस तरह ये शब्द और संवाद आते हैं, वह बहुत ही स्वाभाविक ढंग से। इसलिए, पढ़ने वाले को कुछ पता नहीं चलता। वह कहानीकार के प्रवाह में बहता चला जाता है। प्रवाह, पाठक को सोचने के लिए समय नहीं देता। 
  आप सोच ही नहीं सकते कि इस रेपिस्ट को स्त्री जात से नफरत क्यों है? इसलिए रेपिस्ट खुद खुलासा करता है। एक स्त्राी ने इसकी जिंदगी को नरक बना दिया था। वह स्त्री कोई और नहीं, उसकी सौतेली मां थी, जिसे उसके पिता ने इसके प्यार में अंधा होकर पहली पत्नी, यानी उसकी मां को छोड़ दिया था। हरजाना न देना पड़े, इसलिए वकील पिता ने ऐसी तरकीब निकाली कि वह अदालत में केस जीत गया। सौतेली मां ने प्रताड़ित करना शुरू किया तो 911 पर डायल कर दिया। घर से पोषक गृह भेज दिया गया। अब बच्चे से भी छुटकारा मिल गया। ‘मां की सहेली ने ही मुझे बताया कि सौतेली मां की वजह से ही मेरे मम्मी-डैडी का तलाक हुआ था और डैड ने मम्मी को बहुत तंग किया था। वकील थे और चालाकी से कोर्ट केस जीत गए थे। अब उसे भी पता नहीं मेरी मां कहां है? उसी ने मुझे बताया था कि मुझे छोड़ते समय मेरी मां बहुत रोई थी।’ बच्चे का बचपन 18 साल की उम्र तक एक पोषक गृह में बीता। यहां भी उसे भयानक डरावने अनुभव हुए। पोषक गृह में जो हुआ, उसे पुलिस को बताया तो यहां से दूसरे पोषक गृह में भेज दिया गया। इस तरह 18 साल तक अलग-अलग पोषक गृहों में उसे रहना पड़ा। इसके बाद सेना में। एक दिन अपनी प्रेमिका के घर बिना फोन किए गया तो वह दूसरे की बाहों में थीं। एक युवक, जो लगातार यातना सह रहा था, उसे एक अदद प्रेम भी नसीब नहीं हुआ। न मां का न प्रेमिका का। अफगानिस्तान मंे तैनाती की यादें घाव में बदल गईं और घाव पागलपन की ओर ले गया। वहां की एक घटना ने भी उसे झिंझोड़कर रख दिया...‘स्त्राी गोश्त के भूखे भेड़िये उन पर झपट पड़े थे। उनकी चीख, पुकार चहुं दिशाओं में गूंज उठी थी पर सुनने वाला कोई नहीं था? आधी रात को अल्लाह, जीसस, ईश्वर सब सो रहे थे। किसी ने उनकी फरियाद नहीं सुनी और वे लुटती रहीं।’
  अब इस शब्द पर ध्यान दीजिए, आधी रात को अल्लाह, जीसस, ईश्वर सब सो रहे थे। ये भगवान किसके लिए हैं? गरीबों के लिए, मजलूमों के लिए, बेसहारों के लिए...या उन अमीरों के लिए, जो करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाते हैं कि उनकी मनौती पूरी हुई; पर किसी गरीब की कोई मनौती पूरी होते देखा है? द्वापर में तो कृष्ण ने द्रोपदी की लाज बचा दी थी, लेकिन इस कलयुग में औरतों के कातर स्वर को भगवान क्यों नहीं सुन रहा?  क्या दिल्ली की सड़कांे पर निर्भया ने भगवान को नहीं पुकारा होगा?    
 अफगानिस्तान में यह सब देख वह पागल हो गया। वहां से जब उसकी वापसी हुई और उसे पागलखाने में भर्ती कर दिया गया। दरअसल, लगता है कि यह कहानी उस रेपिस्ट की है। पर, जब वह पागलखाने में भर्ती होता है तो लगता है कि यह कहानी तो पूरे समाज की है। समाज ही रुग्ण हो गया है। मनोचिकित्सकों के साथ होती उसकी बातों में वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कुछ मनोवृत्तियां बच्चा साथ लेकर पैदा होता है। एक परिवार में चार बच्चे, अलग-अलग प्रवृत्ति के कैसे हो जाते हैं, जबकि उनकी परवरिश एक जैसी हुई होती है? इस जैसे समाज में अनेक लोग मिल जाएंगे, पर क्या वे सभी बलात्कारी हो गए? लेकिन यह तो बलात्कारी हो गया और एक दिन वह खुद अपनी मां को ही अगवा कर लेता है। बलात्कार एक ऐसा शस्त्रा है, जिसके भय से समस्त नारी जगत को दबा कर रखा जा सकता है। पर, उस महिला को देखकर कमजोर पड़ गया, ‘ नहीं सर, यह मुझे हर्ट नहीं कर सका। दीवारों पर इसके बनाए चित्रा देखें। इसकी मां के साथ मेरी शक्ल मिलती है।’ वह महिला पुलिस को बताती है। वह समझ गया कि वह मेरी मां थी।...वह महिला उसके पास आई और उसकी ओर देखकर बोली, आर यू डेविड कूपरज सन? वह एकटक उसे देखता है। गरिमामय चेहरा-‘तो यह मेरी मां है।’
  कहते हैं कि कहानी अपना शिल्प खुद ढूंढ लेती है। इस कहानी का शिल्प भी कुछ ऐसा ही है। आत्मकथात्मक शैली में यह कहानी लिखी गई है। अतीत-वर्तमान में आवाजाही करते हुए कहानी आगे बढ़ती चलती है। भाषा आडंबर से मुक्त है और कहानी अमूर्तता की शिकार नहीं है। अक्सर, आज की कहानियों के साथ ऐसी दुर्घटनाएं आम हो चली हैं। कहानी पढ़ते-पढ़ते पता नहीं चल पाता कि लिखा क्या है, कहना क्या चाहता है। तब कोई आलोचक प्रकट होता है और फिर कहानी की बारीकियों, शिल्प, उद्देश्य, भाषा पर अपना कीमती समय और दुर्लभ शब्दों से व्याख्या करते हुए उसे सदी, दशक, साल की महान कहानी घोषित कर देता है। दूसरी भाषाओं मंे ऐसा होता है या नहीं, हिंदी में खूब प्रचलित है। सुधा की कहानी आलोचकों के लिए नहीं लिखी गई है, इसलिए समझ में आ जाती है। जैसे हिंदी की किताबों के दाम देखकर आप अनुमान लगा सकते हैं कि यह पाठकों के लिए है या पुस्तकालय के लिए। बंगला में पुस्तकालय संस्करण की किताबें भी कम दामों में बेहतर छपाई के साथ मिल जाती हैं, क्योंकि किताबें पाठकों के लिए छपती हैं, पुस्तकालयों के लिए नहीं। यह कहानी भी पाठकों के लिए लिखी गई है और एक ज्वलंत और धधकते विषय पर। नारी विमर्शों के नाम पर जो कहानियां अपने यहां परोसी जा रही हैं, उससे इतर। हमारे यहां इन दिनों स्त्राी विमर्श के नाम पर मस्तराम टाइप कहानियां हैं, जो स्त्रिायों द्वारा लिखी जा रही हैं, जिसका सच से कोई ताल्लुक नहीं, पर चर्चा और पुरस्कार खूब बटोर रही हैं। और, चर्चा और पुरस्कार देने वाले वही मर्द। जो कहानी पहले मस्तराम टाइप लेखक लिखते थे, वही अब आज स्त्राी लिख रही है, बोल्ड होने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा न। नहीं तो आलोचक भला कैसे कहेगा, जबदरस्त, मील का पत्थर, घेरे से बाहर, उत्तर आधुनिक। हां, इतना तो कह सकते हैं 21 वीं सदी में कुछ तो बदला? क्या आप बदले हैं?
                                                                                                                                     -संजय कृष्ण

-धु्रब तिवारी का मकान, कोकर, नीचे मोहल्ला, रांची
 834001
मो 09835710937

भारतेंदु बाबू हरिश्चन्द्र का भाषण

    -गोपालराम गहमरी

                        जे सूरजते बढ़ि गये
                        गरजे सिंह समान
                        तिनकी आजु समाधि पर
                        मूतत सियरा खान
                                       -भारतेंदु

  मैं सन् 1879 ई में गहमर स्कूल से मिडिल वर्नाक्यूलर की परीक्षा पास करके चार वर्ष तक घर बैठा रहा। गाजीपुर जाकर अंगरेजी पढ़ने का खर्च मेरी माता गरीबी के कारण नहीं सम्हाल सकीं। मैं 13 वर्ष का था, इस कारण नार्मल स्कूल में भरती होने से वंचित हुआ। गहमर स्कूल में ही स्वयं हेडमास्टर से उच्च शिक्षा पाता हुआ लड़कों को भी पढ़ा रहा था। इस तरह चार वर्ष बीत गये। सन् 1883 में पटना नार्मल स्कूल में भरती हुआ। हिंदी वालों के लिए और आश्रय ही नहीं था।
   सन् 1884 में बलिया जिले का बंदोबस्त हिन्दी में हो रहा था। वहां के इंचार्ज मुंशी चेथरूलाल डिप्टी कलेक्टर थे और कलक्टर राबर्ट रोज साहब हिंदी के प्रेमी थे। कानूनगो धनपतलाल सुन्दर हिंदी लिखने वालों की खोज में पटना नार्मल स्कूल पहुंचे। वहां से चालीस छात्रों को बलिया लाये। मैं भी उन्हीं में पटने से बलिया आया। बलिया जिले में गड़वार में बंदोबस्त का दफ्तर था। हिंदी के सैकड़ांे सुलेखक उसमें काम करते थे। खसरा जमाबंदी सुबोध सुंदर देवनागरी अक्षरों में लिखने वाले मुहर्रिर सफाई कहलाते थे। सौ नम्बर खेतों का खसरा लिखने पर चार आना मिलता था, इस काम से बहुत से हिंदी के लेखक अपना उदर-भरण करते थे। मथुरा के मातादीन शुक्ल और जोरावर मिश्र उसमें सुयशभान सुलेखक थे। कलेक्टर साहब के हिंदी प्रेम का उन दिनों डंका बज गया था। मातादीन शुक्ल ने ‘देवाक्षरचरित’ नाटक लिखकर वहां स्टेज किया था।
   उसी में नदीवनी हिंदी कलक्टर साहब के द्वार पर पधारी थी और द्वारपाल के पूछने पर कहा था-
                 संस्कृत देवासुअन देवाक्षर मम नाम
                 बंगदेश आदिक रमत आइ गयों एहि ठाम
                 श्रवण सुन्यो यहि नगर को हाकिम परम उदार
                 सो पहुंचावहु तासु ढिग मनिहौं बड़ उपकार

   इस निवेदन पर द्वारपाल ने गरीबिनी हिंदी को कलक्टर साहब के सामने पहुंचा दिया। उन्होंने सम्मान से हिंदी का यर्थाथवाद और सद्गुण पर रखकर उसको स्थान दिया और हिंदी में बंदोबस्त का काम जारी हुआ। यही नाटक का दृश्य था।
   बिहार की कचहरियों में पंडित केशोराम भटट, पंडित शालीग्राम त्रिपाठी ठाकुर रामदीन सिंह आदि सज्जनों के उद्योग से जो हिंदी प्रचलित हुई थी, जिसका स्थान कैथी ने अधिकृत कर लिया था। उसके पश्चात यू.पी. में ही पहले पहल हिंदी का सरकारी कागजों में यह प्रवेश पहला कदम था। नहीं तो उन दिनों हिंदी का नाम भी कोई नहीं लेता था। पाठशाला तो पंडितों की बैठक मंे थी जहां वर्षों सारस्वत कंठ करने वाले छात्रों की पढ़़ाई होती थी। जहां हम लोग पढ़ते थे वह मदरसा कहलाता था। पढ़ने की पंडति या श्रेणी वहां कहां, दरजा और क्लास भी नहीं उसको सफ कहते थे। सफ में रामागति और क,ख,ग, पढ़ने वाले भरती होकर सफ 7 में जाते। उ$पर उठते-उठते सफ अव्वल मंे जाकर मिडिल वर्नाक्यूलर कहलाते थे। मास्टर या शिक्षक उन दिनों सुनने को नहीं मिलते थे-मुदर्रिस कहलाते थे। उन्हीं दिनों काशी के बाबू हरिश्चंद्र ने हिंदी को नवजीवन दान किया था। उन्हीं दिनों काशी के श्री रामशंकर व्यास महोदय के प्रस्ताव पर उन्हें भारतेंदु की सर्वमान्य उपाधि दी गयी थी। हम लोग उनकी कविता हरिश्चन्द्र चन्द्रिका और मैगजीन में कभी-कभी पढ़ने को पा जाते थे। काशी से सन् 1884 ई में ही बाबू रामकृष्ण वर्मा ने अपने जादू घर से भारत जीवन साप्ताहिक का जन्म दिया था। उसमें हर सप्ताह एक नया छप्पय श्री विजयानन्द त्रिपाठी का छपता रहा। अन्त को छप्पय बन्द करके त्रिपाठी जी ने यह दोहा ‘ भारतजीवन’ का मोटो बना कर दियाः-
              जयति ईश जाकी कृपा लेश ललित सर्वत्र,
              ‘भारतजीवन’ हित लसत ‘भारतजीवन’ पत्र।

  तबसे यही भारतजीवन का भाल तिलक अन्त तक रहा।
   श्री मातादीन शुक्ल रचित देवाक्षर रचित जब बलिया में अभिनीत हुआ, बहुत गणमान्य सज्जन दर्शकों में पधारे थे। नाटक में वहां बजाजों से रंगीन थान मंगाकर पर्दे बनाये गये थे। हिन्दी में पहले पहल वही नाटक वहां के हिन्दी प्रेमियों को देखने को मिला। वहां का उत्साह और सार्वजनिक भाषा स्नेह इतना उमड़ा कि श्री मातादीन शुक्ल के सुझाव और आग्रह पर मुंशी चेथरूलाल ने कलक्टर साहब को हिन्दी की ओर बहुत आकृष्ट किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र वहां आमंत्रित हुए। उनकी मंडली सब सामान से लैस वहां पहुंची। मैं उनदिनों बाबू राधा कृष्णदास से ही परिचित था। वह बच्चा बाबू कहलाते थे। उन्होंने दुःखिनीबाला नामक एक छोटा सा ग्रंथ लिखा था। मैं उन दिनों 18 वर्ष का था, हिन्दी लिखने की रुचि थी, सामर्थ्य कम। भारतेंदु की मंडली भरके दर्शन मुझे वहीं बलिया में हुए थे और भारतेंदु का दर्शन पाकर अपने तई कृतार्थ हुआ। बड़ी श्रद्धा भक्ति से वहां भारतेंदु के नाटक लोगों ने देखे। भारतेंदु ने स्वयं हरिश्चंद्र बनकर सत्य हरिश्चंद्र का नाटक स्टेज पर खेला था।
   उसके बाद भारत जननी और नील देवी नाटक भी खेला गया। भारत दुर्दशा का खेल हुआ। तीनों नाटकों में देशी विदेशी सज्जनों की आपार भीड़ थी। सत्य हरिश्चंद्र में जब डोम सरदार ने यों कहके हरिश्चंद्र को मोल लिया और अपना काम सौंपाः-
                   हम चौधरी डोम सरदार
                   अमल हमारा दोनों पार
                   सब समान पर हमारा राज
                   कफ़न मांगने का है काज
                   सो हम तुमको लेंगे मोल
                  देंगे मोहर गांठ से खोल

   साहित्य रसिक योग्य आलोचक देखें कि डोम के मुंह से निकलने वाले कैसे चुभते सरल शब्द हैं। आजकल के लेखकों के नाटकों में देखता हूं, ऐसे गंवार मुंह के पात्रों से वह संस्कृताहट के पंच से रहे शब्द निकलते हैं कि लोग अर्थ समझने के लिए कोश उलटने को बाध्य होते हैं।
   भारतेंदु जी जिस पात्रा के मुंह से जैसा शब्द चाहिए वैसा गुम्फित करके नाटकत्व की जो मर्यादा रखी है उसका अनुकरण करने वाले स्वाभाविकता दर्शाने वाले मर्म्मज्ञ उंगलियों पर गिनने योग्य सुलेखक भी हिन्दी में नहीं दीखते।
   यह चौधरी डोम सरदार के शब्द हरिश्चंद्र को उस समय मिले जब उन्होंने विश्वामित्रा के निर्मम उलाहने और तीखे विष से भरे वचन वाण से मूचर््िछत-प्राय होकर करुणार्द्र स्वर से कहा था- मुनिराज अपना शरीर बेचकर एक लाख मुहर दूंगा।
   विश्वामित्रा ने कहा- तूने अपना राज मुझे दान कर दिया, खजांची को पुकारने का तेरा अधिकार नहीं। तू शरीर बेचेगा कहां? सारा राज तो हमारा है। हरिश्चंद्र ने कहा- काशी शिव के त्रिशूल पर बसी है। उसी की भूमि में अपने तई बेचूंगा। वही डोम चौधरी सरदार ने उन्हें मोल लिया-
    कफन मांगने का काम सुचारू रूप से संपादित करते हुए एक दिन श्मशान में जब शैव्या अपने सर्पदष्ट पुत्रा रोहिताश्व का मृत शरीर लिए श्मशान में संस्कार करने आई और हरिश्चंद्र ने कफन का दान मांगा-
    शैव्या ने विलख कर कहा-
    मैं अपना आंचल फाड़ कर कुंवर का शव ढांका है। इसको आधा फाड़कर देने में तो उधार हो जायेगा नाथ? कैसे क्या करूं भगवन्!
    यही कहकर जो उसने आंसू हाथ से पोंछे तो सामने ही पसारे हुए हाथ की हथेली पर चक्रवर्ती राजा का चिह़न देख पहचान गई और कहने लगी-
    नाथ, यह तुम्हारा ही कुंवर रोहिताश्व है। अब कहां से मैं कफन दूं।
    आंसू रोक कर हरिश्चंद्र ने अपने तई सम्हालते हुए कहा-
    हमको अपना कर्तव्य पालन करने दो देवी-
   उस समय कलेक्टर साहब की मेम ने अपने पति द्वारा कहलाया कि बाबू से बोलो- एक्ट आगे बढ़ावें। वहां मेमों के रुमाल भींग रहे थे। उनको कहां मालूूम था कि उसके आगे तो त्रिलोकीनाथ का आसन डोलेगा और अमिय वृष्टि नभ से होगी। नाटक का अंत होगा।
   भारतेंदु ने ओवर एक्ट उस समय किया। विलाप के मारे सब देशी विदेशी दर्शकों के अश्रु बेरोक प्रवाहित हो रहे थे। करुणा में सब विभोर थे कलक्टर साहब करुणा में अवाक् थे। स्टेज पर करुणा खड़ी थी। शैव्या रूपधारिणी बंग-महिला ने जो करुणा बरसाये, उससे सब विचलित हो गये थे ।
   भारतेंदु के श्मशान वर्णन के शब्द देखिए-
             सोई भुज जे प्रिय गर डारे
             भुज जिन रण विक्रम मारे 
             सोई सिर जहुं, निज बच टेका
            सोई दय जहुं भाव अनेका 
            तृण न बोझ हुं जिनत सम्हारे
            तिन पर काठ बोझ बहु डारे
            सिर पीड़ा जिनकी नहि हेरी
            करन कपाल क्रिया तिन केरी
            प्राणहुं से बढ़ि जाकहुं चाहै
            ता कहुं आजु सबै मिलि दाहैं।

   इस करुणा को लांघकर उस कफन मोचन का अवसर किसी से सहय नहीं हुआ था। उसके बाद ही तो आसन डोला, सब जी गये। करुणा बीत गयी, अमिय वृष्टि से नाटक का अंत हुआ। हेमंत की हाड़ कंपाने वाली भयंकर शीत में हम लोग बलिया से गड़वार पैदल रवाना हो गये।
    भारतेंदु जी अपनी मंडली सहित ससम्मान वहां से विदा होकर काशी लौट गये। सन् 1884 ई को अंतिम मास था। सुना काशी पहुंचने पर रुग्ण हो गये। छाती में उनके दर्द उठा। एक मित्रा से सुना कि भारतेंदु जी एकांत में योग साधन करते थे। नित्य के साधन में किसी समय कुछ भूल हो गई छाती में वेदना होने लगी। उस वेदना से ही उनका अंतिम काल आया।
   छह जनवरी सन् 1889 मंगलवार को काशी में उनका स्वर्गवास हो गया। हिन्दी का श्रृंगार नस गया। भारतेंदु का अस्त हुआ। भारत जीवन सर सुधानिधि, भारतमित्रा मासिक भारतेंदु ब्राहमण हिन्दी प्रदीप आदि समस्त पत्रों में महीनों विषाद रहा। सब पत्रों ने काला कलेवर करके दुःख प्रकट किया।
    भारतेंदु ने एक स्थान पर लिखा है-
                   कहेंगे सबैही नयन नीर भरि-भरि
                   पाछे प्यारे हरिश्चंद्र की
                   कहानी रहि जायगी।
  अब वही रह गई है।

                                
                                                                       .........

ओ, गंगा तुम बहती हो क्यों

आज गंगा दशहरा है। गंगा के अवतरण का दिन। गंगा, न जाने कितने सालों से हमारी स्मृतियों में रची-बसी हैं। सैकड़ा, हजार-दो हजार....। पता नहीं। कहते हैं, गंगा जीवन देती हैं। सेनापति कहते हैं, पावन अधिक सब तीरथ तैं जाकी धार, जहा, मरि पापी होत सुरपुर पति है/देखत ही जाकौ भलो घाट पहचानियत, एक रूप बानी जाके पानी की रहति है...गोमुख से गंगा सागर तक 2525 किलोमीटर का सफर तय करने वाली गंगा मैया सैकड़ों शहरों की जननी भी हैं। इसी के किनारे न जाने कितने तीर्थ हैं। एक तीर्थ बनारस भी है। मोक्ष के लिए लोग काशी आते हैं। जीवन भर के पाप की गठरी लादे वे यहीं पर मुक्ति का उपाय खोजते हैं। काशी तीर्थ है तो गंगा के कारण और मुक्ति की नगरी भी है तो गंगा के कारण। सुनते हैं कि जहां-जहां गंगा उत्तराभिमुख हुईं, वहां-वहां वह क्षेत्र अनायास ही तीर्थ बन गया। यहां भी गंगा अर्धचंद्राकार है और चंद कदम उत्तर की ओर भी चलती हैं। पर, अपन का गांव या छोटा-मोटा कस्बाई शहर कह लीजिए, गंगा के किनारे ही है। उसे भी मदन बनारस या कि मदन काशी कहा गया है। अब उसका आधुनिक नाम जमानिया है। पहले-पहले हमने अपने इस नगर के बारे में 'बाबरनामाÓ में पढ़ा। वह अपने लाव-लश्कर के साथ नाव से यात्रा कर रहा था। उसका कारवां जमानियां के पास दो दिन रुका रहा। शिकार किया और फिर आगे बढ़ गया। उसने ही इस स्थान को 'मदन बनारसÓ नाम से संबोधित किया।
इसी जगह के पास जब भगीरथ गंगा को लेकर धरती पर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे कि उनके रथ का चक्का यहीं आकर फंस गया। गंगा गोल-गोल चक्कर काटने लगीं। भगीरथ को भान हुआ कि यह तो परम पावन जमदग्नि ऋषि का क्षेत्र है। सो, उन्हें प्रणाम किया तो उनका रथ पुन: गतिशील हो गया। कहते हैं, जहां उनका चक्का फंसा, वहां एक बस्ती विकसित हुई, जिसे चक्का बांध कहा गया। यहीं से गंगा उत्तर की मुड़ती हैं और करीब-करीब आठ-दस किमी तक सीधे उत्तर ही बहती हैं। गंगा, जहां गोल-गोल घूमती रहीं, वहां आज भी घूमती हैं। उसमें कोई फंसा तो फिर बाहर नहीं निकल पाता। बरसात में इसकी विकरालता देखते बनती हैं। पुराण यही कथा सुनाते हैं। आप विश्वास करें, न करें। पर, गंगा भी सच हैं, चक्का बांध भी। इसी पूरे क्षेत्र को महाश्मशान भी कहा जाता है। यह काशी से भी पवित्र है। जो मरे, सो तरे। इसीलिए, गाजीपुर को भी लहुरी काशी कहा जाता है।
गंगा हमारी सांस्कृतिक विरासत भी हैं। इसी गंगा पर रवींद्रनाथ टैगोर भी मोहित हुए थे और राही मासूम रजा ने तो गंगा के नाम वसीयत ही लिख डाली है। राही की तरह किसी हिंदू ने घोषणा नहीं कि वह तीन मांओं का बेटा है-नफीसा बेगम, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और गंगा। नफीसा बेगम मर चुकी हैं। अब साफ याद नहीं आतीं। बाकी दोनों माएं जिंदा हैं और याद भी हैं। वसीयत में लिखते हैं-
मेरा फन तो मर गया यारो
मैं नीला पड़ गया यारो
मुझे ले जाके गाजीपुर की गंगा की गोदी में सुला देना।
मगर शायद वतन से दूर मौत आए
तो मेरी वसीयत यह है
अगर उस शहर में छोटी-सी एक नदी बहती हो
तो मुझको
उसकी गोद में सुलाकर
उससे कह देना
कि यह गंगा का बेटा आज से तेरे हवाले है।
आप सुन रहे हैं न, राही क्या कह रहे हैं?
बात सिर्फ राही की नहीं। गाजीपुर की मिट्टी ही ऐसी है। गाजीपुर के उसिया जैसे बड़े गांव की पैदाइश नजीर हुसैन ने जब पहली भोजपुरी फिल्म बनाई तो उसका नाम रखा-'हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो।Ó 
आप, समझ सकते हैं, गंगा हमारे लिए एक नदी का नाम नहीं, जल की धारा नहीं। वह जीवन है, संस्कृति है, हमारी सांस है। पर, हम अब उसकी ही सांस लेने में कोई हिचक नहीं रखते। अपने मन की गंदगी, समाज की गंदगी, विकास की गंदगी, सब उसके गोद में। विकास करते-करते हम अपनी मां के आंचल को ही मैला कर डाले। कितना पहले, राजकपूर उलाहना देता हैं-राम तेरी गंगा मैली हो गई और भूपेन दो-बड़ी पीड़ा से कहते हैं-ओ गंगा तुम बहती हो क्यों...। पर, मां तो मां ही है, हम कितना ही उसे गंदा करें, वह अपना स्वभाव तो नहीं छोड़ सकती। सफाई के नाम पर कितना भी हम रुपया बहा लें, लेकिन जब मन ही स्वच्छ नहीं तो गंगा को हम कैसे स्वच्छ रख सकते हैं?
संस्कृत कवि पंडितराज जगन्नाथ तो पहले ही भांप गए थे-भवत्या हि व्रात्याऽधम पतित पाषण्डपरिष
परित्राणस्नेह श्लथयितुमशक्य खलु यथा।
ममाप्येवं प्रेमा दुरितनिवहेष्वम्ब जगति
स्वभावोऽयं सर्वैरपि खलु यतो दुष्परिहर।।
जैसे आप पतित, अधम और पाखंडियों के उद्धार का बिरद नहीं छोड़ सकती, ऐसे ही मैं भी दुष्कर्म और अधमता का त्याग नहीं कर सकता. अरे मां, कोई कैसे अपने स्वाभाव का परित्याग कर सकता है।
लेकिन अब मां को कैसे याद करूं? अब तो गंगा बेसिन ही रोग का घर हो गया है। गंगा हमारे कर्मकांड से पुनर्जीवित नहीं होंगी। न गंगा को रोज-रोज नमामि कहने से। गंगा मरीं तो यह सभ्यता भी नहीं बचेगी? फिर तो हमारे अवशेष किसी म्यूजियम में रहेंगी और हमारी कहानी किसी इतिहास के किताब में दर्ज। सिंधु घाटी की तरह गंगा घाटी....।


चुपके से जाना लोक कलाकारों की नियति


  • संजय कृष्ण
  • झारखंड में चलना ही नृत्य, बोलना ही गीत का मुहावरा बहुत पुराना है और प्राय: यहां की हरेक आदिवासी भाषाओं में मिल जाता है। पर, यहां लोक कलाकारों का वह मान-सम्मान नहीं, जो दूसरे प्रदेशों के कलाकारों को मिलता है। राज्य बने बीस साल हो गए, लेकिन यहां गांव-गांव जन्मजात कलाकारों के लिए रोजगार का कोई स्थायी साधन सरकार मुहैया नहीं करा पाई है। बस, उसे यहां प्रदर्शन की वस्तु बना दिया गया है। कोई अतिथि आया, उसके स्वागत-सत्कार के लिए दर्जनों कलाकार भूखे-प्यासे खड़े रहते हैं। इस लॉकडाउन में झारखंड का एक उम्दा कलाकार बिछड़ गया। पिछले साल दिसंबर में गोपीचंद्र प्रमाणिक से मुलाकात हुई थी। तभी जाना कि उनकी आंखों में रोशनी बहुत कम है। वे बासुंरी बजाते थे। इस विधा में उनका नाम भी था। हालांकि उन्होंने बैंजों से ही अपनी शुरुआत की थी। आज दोपहर यह मनहूस खबर मिली कि वे अब नहीं रहे। रिम्स में अंतिम सांस ली। अब गोपीचंद्र की बांसुरी से अब सुरीली, मधुर और कर्णप्रिय स्वर अब सुनाई नहीं देगी। यह भी अजब संयोग है, मई में ही जन्में और मई में ही दुनिया को अलविदा कह गए। गोपी खेलगांव स्थित झारखंड कला मंदिर में बतौर प्रशिक्षक पिछले दस सालों से जुड़े थे। उन्हें सप्ताह में तीन प्रशिक्षण देना होता था। इस तरह उन्हें महीने में करीब 12 हजार की राशि मिलती थी। उनके निधन से लोकजगत मर्माहत है। 6 मई 1976 को जन्मे गोपी ने 24 सितंबर 2005 को पहली बार एक बांसुरी वादक के रूप में सुर सिंगार म्यूजिकल ग्रुप के साथ स्टेज कार्यक्रम में शिरकत की थी। कहते हैं कि इसके पहले वे आजाद अंसारी के साथ बैंजो वादक के रूप में संगत करते थे। उन्हेंं बांसुरी वादक के रूप में झारखंड संगीत-जगत में लाने का श्रेय सुर सिंगार म्यूजिकल ग्रुप के आनंद कुमार राम, शिव शंकर महली एवं मनपूरन नायक को जाता है। पिछले दो सालों में तीन बांसुरी वादकों को झारखंड ने खोया है। 

गोपी के आंखों की रोशनी कम थी, लेकिन अंत:चक्षु से वे चीजों को देखते-समझते थे। वे लोक कलाकारों के प्रति चिंतित रहते। वे चाहते थे, सरकार यहां के कलाकारों के लिए स्थायी व्यवस्था करे। आखिर, कला और कलाकारों का संरक्षण भी सरकारों को अहम दायित्व होता है। पर, हमारी सरकारें खुद में इतनी उलझी हुई होती हैं कि उन्हें तिकड़मों के अलावा साहित्य, कला, संस्कृति पर बात करना नागवार गुजरता है। इसलिए, 20 सालों में यहां सरकारें तो खूब बनीं, लेकिन कला-संस्कृति के लिए कोई जगह नहीं बन पाई। जबकि झारखंड कई मायनों में कुछ कला-प्रविधि का जन्मदाता है। बीस सालों में अभी-अभी जियो टैग सोहराय-कोहबर को मिला। लेकिन इसमें किसी सरकार की कोई भूमिका नहीं है। यह यहां के कलाकारों की जीवटता और अथक प्रयास से संभव हुआ है।

गोपी अब सुर का संधान नहीं कर पाएंगे। मधुमेह ने उनकी आंखों की रोशनी छीनी, उच्च रक्तचाप ने उनकी जिंदगी। जब शंकर नेत्रालय में दिखाया तो डॉक्टरों ने रोशनी लौटने की शर्त आपरेशन रखी थी। वहां कोलकाता में चिकित्सा के लिए संस्थाओं ने मदद भी की थी। अपना शुगर कंट्रोल करने के लिए वे रांची आ गए थे। 15 दिन पहले जब सांस लेने में परेशानी हुई तो रिम्स में भर्ती कराया गया था। जब सुधार हुआ तो सप्ताह भर पहले उन्हें छुट्टी दे दी गई थी। लेकिन अचानक फिर तबीयत बिगड़ी तो रिम्स में ही शरण लेनी पड़ी और फिर 24 मई को सांस भी थम गई। इसके बाद दोपहर बाद ही उनका अंतिम संस्कार भी पुंदाग नदी के पास कर दिया गया।  झारखंड कल्चरल आर्टिस्ट एसोसिएशन ने उनकी भरपूर मदद की, लेकिन बचाया नहीं जा सका। पिछले दो सालों में तीन बांसुरी वादक चुपके से चले गए। अब गोपी नहीं रहे। एक पुत्र और चार पुत्रियों को छोड़ गए। डा. जयंत इंदवार बताते हैं कि इनमें एक पुत्री का विवाह कर चुके थे। कलाकारों को भी, और सरकार को भी उनके परिवार की चिंता करनी चाहिए।

आदिवासी इतिहास के अध्‍येता अश्विनी कुमार पंकज

  भारतीय मानचित्र पर लंबे संघर्ष के बाद झारखंड  अस्तित्वमान हुआ। वह तारीख थी 15 नवंबर, 2000। 15 नवंबर की तारीख को इसलिए चुना गया, क्योंकि इसी तारीख को झारखंड के एक प्रमुख आंदोलनकारी, जिसे ‘धरती आबा’ कहा गया, बिरसा मुुंडा का जन्म हुआ था। बिरसा मुंडा ने कुल 25 साल की उम्र पाई थी और 1900 में वह शहीद हो गया। सरदार भगत सिंह भी 25 के भीतर ही शहीद हो गए थे, लेकिन एक बात साफ थी कि भगत सिंह को देश-दुनिया ने याद रखा और उन पर पर्याप्त लिखा गया और लिखा जा रहा है। भगत सिंह ने खुद भी बहुत लिखा, जो आज उपलब्ध है। पर, भगत सिंह से थोड़ा पहले   1875 में बिरसा का जन्म हुआ था और 22-23 की उम्र में बिरसा का आंदोलन अंग्रेजों के लिए मुसीबत बन गया था। यह आंदोलन 1967 के बाद इतिहास में दर्ज किया गया। 1940 में जब कांग्रेस का रामगढ़ में सम्मेलन हुआ तब बिरसा की याद थी। उसके नाम से यहां द्वार भी बना और छपने वाली स्मारिका में भी   बिरसा को जगह दी गई थी। पर, हम जिसे मुख्यधारा का इतिहास कहते हैं, उसमें बिरसा नहीं हैं। एक बड़ा आंदोलन, जो अंग्रेजों के खिलाफ था, सचमुच वह आजादी का आंदोलन था, हमारे इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया। यह बात केवल बिरसा के संदर्भ में ही सही नहीं हैं। आजादी की जो पहली चिनगारी उठी, वह जंगलों से उठी और उसमें आज का झारखंड प्रमुख था। अंग्रेजों के यहां पांव पसारने के साथ ही उनके खिलाफ तीर-धनुष कमान से निकलने लगे थे। उन्हें हमने आदिवासी विद्रोह, जनजातीय विद्रोह और हद तो यह हो गई कि उसे स्थानीय विद्रोह कहकर आंदोलन को सीमित करने का प्रयास किया गया। यह उपेक्षा और नजरअंदाज करने की प्रवृत्ति केवल इतिहास लेखन में ही नहीं दिखाई देती, साहित्य, संस्कृति, कला के विविध क्षेत्रों में भी  परिलक्षित होती है।  

  जो यहां अध्ययन हुए, वह मानवशास्त्राीय दृष्टिकोण से या फिर बहुत हद तक सांस्कृतिक या लोकगाथा के तौर पर। देश का एक भाग, सौ सालों से अलग होने के लिए आंदोलनरत रहा, उसकी चर्चा प्रायः हमने नहीं की। जैसे, आज गोरखालैंड क्यों सुलग रहा है, क्या कारण है, उसकी क्या मांगें हैं और वहां लगातार हिंसा और स्थानीय लोगों और सेना-पुलिस के बीच टकराव क्यों हो रहे हैं, मैदानी इलाका नहीं जानता। तब, जब झारखंड की मां्रग उठ रही थी, तब भी यहां के लोगों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया गया था। पर, राज्य  बना। समय लगा और आज 17 साल हो गए, लेकिन एक बड़ा सवाल जरूर खड़ा हो सकता है कि जिस सपने को लेकर यह राज्य बना, वह पूरा हुआ? जवाब मिलेगा-नहीं! बस एक बात हुई, राज्य का खूब दोहन हुआ, खनिज की लूट हुई, विस्थापन हुआ...। राज्य इसके लिए नहीं बना था। 17 सालों में साहित्यिक अकादमिक पीठ का गठन नहीं हो सका। इनके साथ अलग हुआ छततीसगढ़ इन मामलों में बेहतर रहा। इसमें दोष के केवल सत्ता में बैठे रहने वालों का हीं हैं, उनका भी है, जो विपक्ष की राजनीति करते रहे और उनकी भी जो झारखंड आंदोलन के लिए लड़ते रहे, लेकिन उनमें से कुछ अब एनजीओ बनाकर अपने त्याग की कीमत वसूल कर रहे हैं।
  एक बड़ा कर्म या काम जो होना चाहिए था, वह पीछे छूट गया। वह थे अपने नायकों के बारे में जानकारी। उनके आंदोलन में योगदान। यह सब काम संस्थाओं को करना चाहिए था। वह नहीं कर पाईं। आजादी के बाद यहां रांची विश्वविद्यालय खुला, अस्सी के दशक में जनजातीय एवं क्षेत्राीय भाषा विभाग खुला, लेकिन वे काम नहीं कर सकीं। यहां तक कि जनजातीय शोध संस्थान भी, बिहार के समय तक अच्छा काम करता रहा, राज्य बनने के बाद यह महत्वपूर्ण संस्था ध्वस्त हो गई। सरकार यहां ऐसे-ऐसे को निदेशक बनाती रही है, जिनका उस विषय और रुचि से दू-दूर तक का संबंध नहीं है। 17 सालों के इस विकास को देखकर यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है, हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। तभी, हम श्री एके पंकज के काम को भी देख-समझ सकते हैं।
  साहित्य की बात करें तो यहां रांची में ही कई मूर्धन्य आलोचक हैं-हिंदी में। पर, कभी भूलकर भी उन्होंने यहां के आदिवासी लेखन और यहां के स्थानीय साहित्यकारों पर लिखा हो, वह भी उन्हीं पर लिखते रहे, कागद कारे करते रहे, जिन पर देश का हर हिंदी का विभाग और आलोचक कागद कारे कर रहे हैं। इतना संकुचित दृष्टि का एक कारण यह भी हैं, कि उनकी जड़ कहीं और है। वे खास विचारधारा से संबंद्ध जो, हाशिया, दलित, आदिवासी की चिंता में सर्वाधिक दुबली हुई जाती है, कभी आदिवासी सवाल पर ढंग लिखा ही नहीं। एक प्रख्यात आलोचक को असुर पर लिखते समय पता चला कि असुर आज भी हैं! ऐसे-ऐसे आलोचक हिंदी में, हिंदी का मान बढ़ा रहे हैं। तब, उन्हें राधाकृष्ण क्यों याद आते? वे आदिवासी रचनाकार उनके केंद्र में क्यों होते?
 हिंदी का आलोचक लोकल नहीं, ग्लोबल होता दिखना चाहता है। उसके पास अपने आस-पास के जमीनी लेखकों की, जो निश्चित रूप से अपनी भाषा में लिखते हैं, पता नहीं होता, लेकिन उन्हें सात समंदर पार की रचना और रचनाकार के बारे में पूरा पता होता है। इसलिए, वह पूर्वोत्तर के साहित्य-समाज के बारे में कुछ नहीं जानता। उसकी पूरी बौद्धिकता हिंदी के चार-पांच लेखकों पर ही केंद्रित होती है। वह उन पर भी नजर नहीं दौड़ाता या साजिशन वह उन लेखकों के बारे में नहीं बताता, जिन्होंने हिंदी के निर्माण में महती भूमिका निभाई। एक कारण यह भी कि वह शोध की बात करता है, लेकिन शोध के नाम पर कुछ पश्चिमी किताबें और कुछ इधर-उधर के साथ अपनी बौद्धिक दुकान चलाता है।
  इसलिए, जब एके पंकज का शोधपूर्ण उपन्यास माटी-माटी अरकाटी आया तो कथित रूप से किसी समर्थ आलोचक ने, जो खुद को प्रगतिशील, मूर्धन्य, जनवादी कहते नहीं थकते हैं, लिखना भी जरूरी नहीं समझा, लेकिन अंग्रेजी की अर$ंधति रॉय के उपन्यास का ऐसे लोग बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं, पढ़ने और लिखने के लिए। यह हिंदी का नया-नया आलोचना में एलीट पैदा हो रहा है। यह उपन्यास इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि यह आदिवासियों के प्रवासन की पीड़ादायक कहानी है, जो 1800 के बाद, भोजपुरी भाषी लोगों से पहले मॉरीशस ले जाए गए थे। यह उपन्यास शोध का नतीजा है और इसमें काफी सहयोग गुगुल और दुनिया की लाइब्रेरियों ने किया, जिनमें इस तरह की कथाएं कैंद थीं। हम तो भवानी दयाल संन्यासी की चर्चा नहीं करते, जिन्होंने अरकाटी शब्द का प्रयोग अपनी आत्मकथा में किया। यह उपन्यास हिंदी में एक नया विमर्श खड़ा करता है, जिसकी ओर हिंदी वाले पीठ खड़ा किए हुए हैं। यह एक बड़ा काम है, जिसके बारे में हम नहीं जानते। कैसे आदिवासी-बिहारी ले जाए गए, यह उपन्यास बखूबी दर्शाता है। हिंदी में, कमरे में बैठकर उपन्यास-कहानी लिखने की प्रवृत्ति ने आलोचकों को भी आलसी बना दिया है। वे अब केवल शब्दाडंबर से ही काम चलाते हैं।  
    साहित्य से थोड़ा इतर बात करें तो अभी अभी ‘आदिवासीडम’ किताब अंग्रेजी में संपादित की है। 70 साल बाद जयपाल सिंह मुंडा के लेखों और भाषणों का यह महत्वपूर्ण संकलन है। यह काम भी अकेले ही किया। बिहार-झारखंड की लाइब्रेरियों एवं संसद एवं डिजिटल लाइब्रेरियों से खोजकर यह काम किया। इसके पहले मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा नामक हिंदी में किताब लिखी, जो एक तरह से उनकी जीवनी है। यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था, लेकिन अब हो रहा है। झारखंड के संदर्भ में ही नहीं, भारत के आदिवासियों के संदर्भ में जयपाल सिंह वैचारिक प्रस्थान बिंदु हैं। झारखंड आंदोलन में सक्रिय तो रहे, आजादी के बाद संविधान सभा के सदस्य भी रहे और कई बार विधायक व सांसद भी। जयपाल सिंह पर छिटपुट काम हुए, लेकिन जो होना चाहिए, नहीं हुआ। हिंदी व अंग्रेजी में आईं ये दो किताबें प्रतिबद्धता का प्रतिफल हैं।
   लीक से हटकर, भीड़ से अलग और एक व्यापक दृष्टिकोण के साथ काम करना श्रीपंकज की प्रवृत्ति है। अलग सोच के साथ। कहानी लेखन हो, रंगमंच हो, फिल्म हो, कविता हो या पत्रिकाओं का संपादन हो। हमारे कथित विद्वानों की दृष्टि वहां तक नहीं जाती, या वे इतने गहरे सोच ही नहीं पाते, लेकिन उन्होंने अपना एक आभा मंडल बना रखा है। एक बार एक रवींद्रनाथ टैगोर के अध्येता से, जो खुद को रवींद्र ज्ञाता के तौर पर प्रचारित कर रखे थे, गीतांजलि का अनुवाद भी किया था, कला के मर्मज्ञ के तौर पर पहचान भी बना रखी है-पूछा कि क्या रवींद्र नाथ टैगोर गाजीपुर में रहे और उन्होंने आपनी आरंभिक कविताएं, नौका डूबी  के कुछ अंश वहीं लिखे, तो उन्हें पता ही नहीं था। ऐसे ही ज्ञाता हैं। ऐसे लोगों की बात क्या करिए, जो आदिवासी क्षेत्रा को समझ सकतें। ये तो कुबेरनाथ राय को भी नहीं पढ़ते। इनकी प्रगतिशीलता और जनवाद की चौहद्दी इतनी संकीर्ण है कि अपने गुट के अलावे दूसरे लेखक और रचनाकार को जानना-समझना-पढ़ना जरूरी नहीं समझते। नारेबाजी से ये खूब करते हैं।
  फिर ऐसे लोग एके पंकज के काम पर क्यों लिखें, क्यों जाने, क्यों समझें? एके पंकज की चिंता में झारखंड के आदिवासी लेखक है। यहां की भाषा और संस्कृति है। बाहरी लोग अपने पूर्वग्रह से इस संस्कृति-समाज को देखने के अभ्यस्त हैं, उन्हें बताना जरूरी है। चूंकि इन्होंने अपना एक सौंदर्य शास्त्रा बना रखा है। वही पढ़ते-पढ़ाते आ रहे हैं। उसी की कसौटी पर सबको देखने की आदत उनकी बन चुकी है। जबकि हर समाज -जाति का अपना सौंदर्य शास्त्रा होता है, वह खुद को अपने ढंग से देखने की मांग करता है, उस दृष्टि से नहीं, जो आपने ने किसी और समाज के लिए बना रखे हैं। कबीर और तुलसी की कविता को समझने के लिए ही एक ही सौंदर्य शास्त्रा से काम नहीं चलेगा। दोनों की जमीन अलग है। तो दोनों को समझने के लिए अलग-अलग दृष्टि की अपेक्षा होती है। इसी तरह आदिवासी समाज को लेकर भी है। यहां का साहित्य मौखिक रहा है। लेखन और लिपि की परंपरा नहीं रही है। इनकी जीवन दृष्टि, समाज और समय को देखने का नजरिया, देव और दानव, सृश्ष्टि चक्र सब कुछ अलग है। और, सभी आदिवासी को एक ही खांचे में रखने की भूल भी नहीं कर सकते। हर आदिवासी समूह की अपनी सृष्टि कथाएं हैं, मौखिक कहानियां हैं, प्रवासन  का इतिहास है। तो, उन लिखते समय, इनका ध्यान रखना जरूरी है। आदिवासी सौंदर्य के लिए कालिदास की उपमा देना, आपकी मूर्खता के लिए कुछ नहीं है, जैसा एक उपन्यासकार ने अपने उपन्यास में किया है। इसलिए, एके पंकज आदिवासी के संदर्भ में इसी सौंदर्यशास्त्रा की वकालत करते हैं। शास्त्राीय सौंदर्यशास्त्रा की नहीं।
  साहित्य और इतिहास में बहुत बारीक अंतर होता है। साहित्य में भी निकट इतिहास होता है, पर उसमें जीवन धड़कता प्रतीत होता है। इतिहास में घटनाओं का घटाटोप होता है। हमारे इतिहास पर विचारधारा का ऐसा असर रहा है कि सब कुछ उसी चश्मे में देखने की कोशिश करते हैं। दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों इसके शिकार रहे हैं, जबकि इतिहास और समाज इतना इकहरा नहीं होता; जितना हम समझते हैं। इसलिए किसी भी चीज को समग्रता में देखना चाहिए। मार्क ब्लाख इतिहास को इसी व्यापक और समग्र रूप से देखने की बात करते हैं-‘‘इतिहास कोई पंथ नहीं, अपने मूल अर्थों के अनुसार यह हमें ‘अनुसंधान’ के अलावा किसी अन्य चीज से प्रतिबद्ध रहने की शर्त नहीं पेश करता।’’ मगर, हमारे पेशेवर इतिहासकार अनुसंधान के बजाय अपनी विचारधारा का घालमेल करते रहे।
    मार्क ब्लाख जिस अनुसंधान की बात करते हैं, वह अनुसंधान एके पंकज में दिखता है। 1855 के हूल पर अंग्रेजी में एकत्रित सामग्री, जिसकी पांडुलिपि तैयार है, वह अनुसंधान का ही नतीजा है, जो इस पर एक नई रोशनी डालता है। हूल को लेकर हम यह नहीं बता पाए हैं कि देश का पहला स्वतंत्राता आंदोलन 1857 नहीं, 1855 का हूल है। इसी तरह अभी तक किसी ने यह कहने का साहस नहीं किया कि गांधी के सत्याग्रह से पहले यहां के आदिवासी सत्याग्रह से परिचित हो चुके थे और अंग्रेजों के खिलाफ इसका उपयोग भी करते थे। टाना भगत और उसके पहले बिरसा के अनुयायियों ने भी सत्याग्रह किया था, लेकिन इसकी चर्चा नहीं होती। देश में आज भी टाना भगत ऐसे हैं, जो गांधी को देवता की तरह मानते हैं। वे खद्दर पहनते हैं। चरखा वाले झंडा की पूजा करते हैं। यह देश के दूसरे हिस्सों को टाना भगतों के बारे में पता ही नहीं। झारखंड जैसे प्रदेश के बारे में हम बहुत कम जानते हैं। पूर्वोत्तर के बारे में पता ही नहीं। यह स्थानीय लेखन अत्यंत जरूरी है, जिसके एके पंकज बड़ी शिद्दत से कर रहे हैं। हर रचनात्मक विधा में। इतिहास और साहित्य में भी। जो काम किसी संस्था को करना चाहिए, वह अकेले ही कर रहे हैं। यह कम बड़ी बात नहीं। झारखंड के आदिवासी रचनाकारों को भी आगे बढ़ाने, उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने, उनकी रचनाओं के प्रकाशन की दिशा में भी वह सक्रिय हैं।     
 

कोरोना का डर पहुंचा रहा झारखंड के पर्यावरण को फायदा

डॉ  नितीश प्रियदर्शी
पर्यावरणविद

24 मार्च से भारत में लागू देशव्यापी लॉकडाउन के कारण देश के कई हिस्सों में भी इंसानी गतिविधियों की रफ्तार थमी है और इस दौरान प्रकृति अपनी मरम्मत खुद करती नजर आ रही है।  गाड़ियों की आवाजाही पर रोक लगने और ज्यादातर कारखानें बंद होने के बाद दुनिया समेत देश के कई शहरों की हवा की क्वालिटी में जबरदस्त सुधार देखने को मिला है। जिन शहरों की एयर क्वालिटी इंडेक्स यानी AQI खतरे के निशान से ऊपर होते थे। वहां आसमान गहरा नीला दिखने लगा है।
झारखण्ड के भी  शहरों में इस लॉक डाउन का प्रभाव दिखा रहा है। अगर रांची की बात ले तो लगता है शायद इसी मौसम के चलते अंग्रेजों ने रांची को बिहार झारखण्ड का उस वक़्त ग्रीष्म कालीन राजधानी बनाया था। ऐसा लगता है मौसम के हिसाब से रांची आज से ५० साल पीछे चला गया है। तापमान ज्यादा होने पे भी उतनी गर्मी नहीं लग रही है जितनी पिछले साल थी। बता दें कि कई महीनों से झारखण्ड  में वाहन प्रदूषण के खिलाफ जांच अभियान चलाया जा रहा था।  जगह-जगह दोपहिये एवं चार पहिये वाहन,  मिनी बस और टेंपू समेत विभिन्न कॉमर्शियल वाहनों के प्रदूषण स्तर को चेक किया जा रहा था और निर्धारित मात्रा से अधिक प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों पर कार्रवाई की जा रही थी।  इसके बाद भी न तो वाहनों द्वारा छोड़े जा रहे प्रदूषणकारी गैसों की मात्रा कम हो रही थी और न ही वायु प्रदूषण में कमी आ रही थी।  लेकिन, कोरोना के भय से सड़क पर चलने वाले वाहनों की संख्या में आयी भारी गिरावट आने के कारण पिछले एक महीने  से इसमें काफी सुधार दिखता है।  वाहनों की आवाजाही न होने से सड़कों से अब धूल के गुबार नहीं उठ रहे हैं। झारखण्ड का एयर क्वालिटी इंडेक्स वायु प्रदुषण के कम हो जाने से  ५० - ७० के बीच आ गया है जो पिछले साल १५० से २५० तक रहता था।  ये हवा मनुष्य के स्वस्थ लिए फायदेमंद है।  वायु और धुल प्रदुषण के काफी कम हो जाने से आसमान  में रात को सारे तारे दिख रहे हैं जो पहले नहीं दीखते थे। ध्वनि प्रदुषण तो इतना कम है की आपकी आवाज दूर तक सुनाई दे रही है। चिड़ियों का चहचहाना सुबह से ही शुरू हो जा रहा है।  कुछ ऐसी भी चिड़ियाँ नज़र आ रही हैं जो पहले कम दिखती थीं। जहाँ पहले झारखण्ड में फ़रवरी से ही भूमिगत जल नीचे चला जाता था और चापाकल सूखने लगते थे इस वर्ष स्थिति काफी अच्छी है।  कम तापमान होने की वजह से मिट्टी से वाष्पीकरण काफी कम है वहीं बीच बीच में बारिश हो जाने से मिट्टी में नमी बनी  हुई है। लॉक डाउन की वजह से बड़े बड़े मॉल और होटल्स बंद हैं जिसकी वजह से भूमिगत जल का दोहन भी कम हो रहा है। भूमिगत जल का दुरुपयोग कम हो रहा है।  अगर अभी भूमिगत जल नीचे चला जाता तो स्थिति और भी भयावह हो जाती।  लोग पानी के लिए सड़कों पे उतरते।  इस लॉक डाउन से एक और बड़ा फायदा नदियों को होगा।  हर साल प्रदूषित रहने वाली नदियां अब खुल के सांस ले पा रही होंगी।  पेड़ एवं फूल पौधे भी खुल के सांस ले रहे होंगे क्योंकि उनके पत्तों पे अब कोई धुल कण नहीं बैठ रहा होगा। आने वाले मौसम पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा।  तापमान हो सकता है की औसत से कम रहे ।  गाड़ियों और फैक्टरियों के बंद होने से ग्रीन हाउस गैस जो ग्लोबल वार्मिंग का प्रमुख कारण है का उत्सर्जन भी नहीं के बराबर होगा।  इसमें दो राय नहीं की इस लॉक  डाउन की वजह से गरीब मजदूरों को मृत्यु तुल्य कष्ट  हो रहा है और बहुत लोग अवसाद में हैं लेकिन अगर पर्यावरण को देखे तो ये हमे अभी सुकून ही दे रही है।

झारखंड की सराक जाति

बंगाल, बिहार, ओडिशा और झारखंड में सराक जाति भी रहती है। झारखंड के आदिवासी क्षेत्र में सराकों के कई गांव हैं। 1996 में प्रकाशित एक पुस्तक के हवाले से सिंहभूम जिले में छह गांव, रांची में 49 गांव, दुमका में 29 गांव, वीरभूम में तीन गांव, धनबाद में 12 गांव, संताल परगना में 29 गांव हैं। डाल्टन एवं एचएच रिसले ने बंगाल-पुरी गजेटियर में लिखा है-सराकगण झारखंड में बसने वाले पहले आए हैं। ये अहिंसा धर्म में आस्था रखते हैं। सराक एक ऐसी जाति की संतान हैं जो भूमिजों के आने से पूर्व बहुत प्राचीन काल से यहां बसी हुई है, इनके पूर्वजों ने पहले अनेक स्थानों पर मंदिर बनवाए थे। यह अब भी एक शांतिमयी जाति है, जो भूमिजों के साथ बहुत मेलजोल से रहती है। इनके कुल देवता पाश्र्वनाथ हैं। सराक को श्रावक का अपभ्रंश भी कहा जाता है। बंगाल डिस्ट्रिक गजेटियर में बताया गया कि सरावक, सरोक, सराक श्रावक का अपभ्रंश रूप है। यह संस्कृत में सुनने वाले के लिए कहा जाता है। उस समय जैन धर्म में परिवर्तित व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता था। ये श्रावक जैन धर्म प्रवर्तत यति, मुनि, संन्यासी से भिन्न होते थे। डाल्टन लिखता है, सराकगण झारखंड में बसने वाले पहले आर्य हैं, वे अहिंसा धर्म में आस्था रखते हैं। सिंहभूम में तांबे की खानें व मकान हैं, जिनका काम प्राचीन लोग करते थे। ये लोग श्रावक थे। पहाडिय़ों के ऊपर घाटी में व बस्ती में बहुत प्राचीन चिह्न हैं। यह श्रावकों के हाथ में था। सिंहभूम श्रावकों के हाथ में था जो अब करीब-करीब नहीं रहे हैं। परंतु तब वे बहुत अधिक थे।
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महावीर का एक नाम वीर भी था। तो क्या वीरभूमि उनके नाम पर ही है। इतना तो तय है कि झारखंड जैन धर्म के लिए पवित्र क्षेत्र रहा है। 24 में से 20 तीर्थंकर यहां निर्वाण को प्राप्त हुए। पं बंगाल का बर्धमान जिला भी भगवान महावीर के नाम पर ही है।

सौ साल पहले महज दो हजार आबादी का शहर था रांची

#रांची की आबादी #1905 में दो हजार थी। #जालान,#मोदी, #खेमका, #रूइया, #बुधिया, #पोद्दार आदि जाति के दो-दो-चार-चार परिवार ही थे। #जैनियों में #जोखीराम का परिवार और रतनलालजी का परिवार था। रांची समुद्रतल से #2500 फीट ऊंचा होने के कारण यहां का मौसम गर्मियों में भी ठंडा रहता था। बिहार की राजधानी #पटना में रहने वाले अंग्रेज #गवर्नर महोदय के लिए गर्मी से बचने के लिए यहां कोठियां, बंगले आदि बनाए गए थे। साथ ही #रांची के चारों तरफ जंगल होने के कारण #आदिवासी रहा करते थे। उस समय मजदूरी #राजमिस्त्री की पांच आने रोज, कुली का काम करने वाले की तीन आने रोज और काम करने वाली औरतों की दो आना रोज थी। रांची में जो #आदिवासी काम करने आते उनकी वेश-भूषा विचित्र होती थी। पुरुषों के बड़े बाल, जिन्हें वे घुंघराले कर सजाते थे। #कानों में बड़े छेद जिसमें बांस की पेंसिलनुमा लकड़ी छोटी-बड़ी-मोटी-पतली शौक के अनुसार पहने रहते थे। #गले और हाथ में कौडी, मूंगा या कांसे आदि के गहने बने होते थे। #कमर में एक फुट चौड़ी सूती पट्टी चार-पांच हाथों का लंगोटनुमा पहनते थे। ऊपर चद्दर से बदन ढंके रहते थे जो बच जाता आगे-पीछे या बगल में लटका लेते। आत्मरक्षा के लिए साथ में एक लकड़ी रखते। कोई-कोई तीर-कमान भी रखता। काम के समय उतार कर अलग रख देते। वे बड़े मेहनती होते थे। सुबह सात-आठ बजे ही काम पर आ जाते थे और संध्या पांच-छह बजे तक काम करते थे। #सुबह वे अपने घर से खाकर आते और काम पर से जाने के बाद अपने घर पर भोजन करते। #दोपहर टिफिन के समय अपने साथ लाया सत्तू पानी में घोलकर पीते या सत्तू में हरी मिर्च और कच्चा आम या इमली डालकर उसके लड्डू बनाकर खाते। त्योंहारों और छुट्टी के समय #मनोरंजन और अपनी स्फूर्ति के लिए अपने घर में चावल #हांड़ी में सड़ाकर बनाई हुई शराब पिया करते थे जिसे वे #हडिय़ा कहते थे। काम करते समय जब भूल होती तो आपस में एक दूसरे को ताना देते कि आज #हडिय़ा पीकर आया है। इनके नाम भी हमलोगों के दिनों के नाम पर होते जैसे सोमरा, मंगला, बुधवा, शुक्रा, शनीचरा इत्यादि। इनकी स्त्रियां काम पर आती वे भी काफी मेहनती होती थीं। नाम भी उसी तरह होते केवल पुलिंग की जगह स्त्रीलिंग हो जाते यानी सोमरी, मंगली, बुधनी, शनिचरी इत्यादि। 

रांची में सिनेमा और सर्कस का खेल
रांची में उस जमाने में मुसलमानों के साथ जैसे स्कूल में बच्चे पढ़ते थे, वैसे ही मुहर्रम पर निकलने वाले ताजियों में सम्मिलित होते। मुसलमान घरों में भी काम-काज के लिए रखे जाते थे। घोड़ा गाड़ी में कोचवान, सईस मुसलमान रहते। घरों में भी आदिवासी स्त्रियां बहुत सस्ते में काम के लिए मिल जाया करती थीं। बीच-बीच में नटों के खेल देखने को मिलते। सर्कस भी साल में एक दो बार आया करते थे। आंध्र प्रदेश का राममूर्ति भी रांची आया और उसने लोहे की सांकल तोड़ी और अपनी छाती पर से हाथी गुरवाया।
रांची में जब पहली बार सिनेमा आया तो जनता को मुफ्त दिखाया गया था-यह एक आश्चर्य की बात थी। पीठिया टांड़ जहां हर बुधवार और शनिवार को बाजार लगता था, उसमें ही चार बासों को खड़ा कर सफेद कपड़ा बांधा गया और चलते-फिरते दृश्य दिखाए गए। ये रंगीन भी नहीं थे और बोलते भी नहीं थे फिर भी जनता के लिए आश्चर्य की चीज थी, जिसे देखने के लिए बहुत भीड़ इक_ी हुई। 


#एक #मारवाड़ी की #जीवनी का एक अंश।
तस्‍वीर सौ साल पुरानी, रांची का मेन रो
सौजन्‍य, #
एके पंकजजी
#ranchinama
#रांचीनामा

पटना से निकला था महावीर, पहली बार बिहार के सत्‍या‍ग्रहियों की छापी गई थी सूची

साप्ताहिक ‘महावीर’ का सत्याग्रह अंक

बिहार से प्रकाशित साप्ताहिक ‘महावीर’ के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं मिलती है। इसका एक विशेषांक सत्याग्रह पर आया था। 21 जून, 1931 में यह अंक निकला था। इस अंक के बारे में संपादक ने लिखा है, ‘इन पंक्तियों में उन्हीं घटनाओं का संक्षिप्त विवरण देने का प्रयत्न किया गया है। हम जानते हैं कि सत्याग्रह आंदोलन का ठीक ठीक वर्णन करने में हजारों हजार पृष्ठों को रंगना पड़ेगा, और आज की अपेक्षा कहीं अधिक खोज ढूंढ और जांच पड़ताल करनी पड़ेगी और उसके लिए तो महान साधनों की आवश्यकता है, जिसका हमारे पास सर्वथा अभाव है। इन्हीं बातों और कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए हम ने इस अंक में सत्याग्रह सिद्धांतों के संक्षिप्त विवेचन के साथ भारतीय सत्याग्रह का थोड़ा वर्णन करते हुए बिहार प्रांत में होने वाली घटनाओं पर अधिक जोर दिया है।’
साधनों के अभाव और समय पर लेखकों के सहयोग नहीं मिल पाने के बावजूद भी जो अंक निकला, जो कम महत्वपूर्ण नहीं है। दुर्भाग्य से, महावीर का यही ‘सत्याग्रह’ विशेषांक ही उपलब्ध है। डबल डिमाई आकार में यह पत्रिका छपी है। अंक के मुख्य पृष्ठ पर गांधीजी लाठी लिए हुए हैं और उनके पीछे सत्याग्रहियों की ‘एस’ आकार में कतार है। नीचे मध्य में विजय-यात्रा लिखा हुआ है और फिर उसके नीचे सम्पादक का नाम -विश्वनाथ सहाय वर्मा। सबसे उ$पर बाएं संस्थापक श्री जगतनारायण लाल और दाहिने में पंजीयन-नं पी-186।
इस पत्रिका के बारे में इतिहास भी मौन है। कुछ-कुछ ही जानकारी मिलती है। सत्याग्रह अंक रांची के संतुलाल पुस्तकालय में ही मिला। यह दुर्लभ अंक है। हो सकता है, कहीं कोई और पुराने पुस्तकालयों में एकाध फाइलें पड़ी हों, लेकिन ऐसा कम ही जान पड़ता है, क्योंकि बिहार की पत्रा-पत्रिकाओं पर शोधपूर्ण काम करने वाले पं रामजी मिश्र ‘मनोहर’ अपनी शोधपूर्ण कृति ‘बिहार में हिंदी-पत्राकारिता का विकास’ में बस एक पैराग्राफ की संक्षिप्त जानकारी ही दे पाते हैं-‘‘सन् 1926-27 में बाबू जगत नारायण लाल ने साप्ताहिक ‘महावीर’ निकाला, जिसके वे स्वयं संपादक भी थे। यह अपने समय का बड़ा ही संदर्भपूर्ण एवं सुसंपादित पत्रा था। जगत बाबू राजनीति से सक्रिय रूप से जुड़े थे, अतः समयाभाव तथा अर्थाभाव के कारण यह मुश्किल से पांच-छह वर्ष ही चल सका। इसके कई महत्वपूर्ण विशेषांक निकले, जिनमें बिहार के राजनीतिक आंदोलन का महत्वपूर्ण छिपा पड़ा है। दुर्भाग्यवश इसकी फाइलें न तो जगत बाबू के परिवार वालों के पास है और न कहीं पुस्तकालयों में ही सुरक्षित हैं।’’ मनोहर जी ने काफी श्रम के साथ काम किया है, लेकिन उन्हें महावीर का कोई अंक सुलभ नहीं हो सका, जबकि यह पटना से ही प्रकाशित होता था। इस संक्षिप्त जानकारी से पता चलता है कि इसे संपादक जगत नारायण लाल थे। जगत नारायण लाल के बारे मंे भी बहुत जानकारी नहीं मिलती है। पता चलता है कि ये उत्तर प्रदेश के थे। इनका जन्म उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। उनके पिता भगवती प्रसाद वहां स्टेशन मास्टर थे। जगत नारायण ने इलाहाबाद से एम.ए. और कानून की शिक्षा पूरी की और पटना को अपना कार्यक्षेत्रा बनाया था। ओम प्रकाश प्रसाद ने ‘बिहार: एक ऐतिहासिक अध्ययन’ में कुछ प्रकाश डाला है। लिखते हैं, जगत नारायण लाल राजेंद्र प्रसाद के कारण वे स्वतंत्राता संग्राम में शामिल हुए और मालवीय जी के कारण हिंदू महासभा से उनकी निकटता हुई। 1937 के निर्वाचन के बाद लाल बिहार मंत्रिमंडल में सभा सचिव बने। 1940-42 की लंबी जेल यात्राओं के बाद 1957 में वे बिहार सरकार में मंत्राी बनाए गए। सामाजिक क्षेत्रा में काम करने के लिए उन्होंने बिहार सेवा समिति का गठन किया। 1926 में उन्हें अखिल भारतीय हिंदू महासभा का महामंत्राी चुना गया। वे सांप्रदायिक सौहार्द के समर्थक थे। छुआछूत का निवारण और महिलाओं के उत्थान के कार्यों में भी उनकी रुचि थी। वे प्रबुद्ध वक्ता और श्रोताओं को घंटों अपनी वाणी से मुग्ध रख सकते थे। अपने समय में बिहार के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में उनका महत्चपूर्ण स्थान था। 1966 में उनका देहांत हुआ।’
जगत नारायण का लिखा हो सकता है कहीं सुरक्षित हो, लेकिन उनकी एक पुस्तक की लिखी भूमिका मिलती है। इस पुस्तक के लेखक रांची के गुलाब नारायण तिवारी थे। पुस्तक का नाम है-‘हिंदू जाति के भयंकर संहार अर्थात् छोटानागपुर में ईसाई धर्म्म’। इसे बिहार प्रांतीय हिंदू सभा, पटना ने प्रकाशित किया था। रामेश्वर प्रसाद, श्रीकृष्ण प्रेस, मुरादपुर, पटना से छपी थी। उसमें संक्षिप्त भूमिका उनके नाम से प्रकाशित है।
मोहम्मद साजिद ने ‘मुस्लिम पालिटिक्स इन बिहारः चेंचिंग कंटूर’ में जरूर इस पत्रिका के बारे में कुछ पर्याप्त जानकारी मिलती है। लिखते हैं, जगत नारायण लाल बिहार में हिंदू सभा और आल इंडिया हिंदू महासभा के जनरल सेक्रेटरी बने। इसके बाद 1926 में महावीर नामक साप्ताहिक पत्रा की शुरुआत की। संपादन भी खुद ही करते थे। इसमें सांप्रदयिक लेख काफी प्रमुखता से प्रकाशित होते थे। वे 1922 से 28 तक बिहार कांग्रेस के सहायक सचिव भी रहे। 1930 में पटना जिला कांग्रेस के सचिव रहे। इसी के साथ सेवा समिति से भी जुड़े रहे। इसी साल उन्हांेने हिन्दुस्थान सेवा संघ की स्थापना की। 1934 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। 1937 में मदन मोहन मालवीय की इडीपेंडेंट पार्टी के साथ जुड़े। जगत नारायण लाल ने अपने संस्मरण में लिखा है कि ‘महावीर’ हिंदू विचारधारा का समर्थक पत्रा है। 1926 में यह पत्रा साप्ताहिक शुरू हुआ। 1932 में यह दैनिक हो गया और 1932 में ही सरकारी विरोध के कारण बंद हो गया। लेखक ने लिखा है कि पहले वह ईसाइयों को संकट के तौर पर देख रहे थे। बाद में मुसलमानों के विरोधी हो गए।’
खैर, ‘महावीर’ के इस सत्याग्रह अंक में कुल 49 लेख शामिल हैं। अंतिम 49 वां लेख नहीं, बल्कि ‘बिहार के रणबांकुरे’ नाम से पूरे प्रदेश के राजबंदियों की 12 पेज में सूची है। पूरी नहीं। जितनी मिल सकी। संपादक ने इस बारे में पहले ही संपादकीय में आगाह कर दिया, ‘हम अपनी त्राुटियों और साधनाभावों से सजग हैं। जिस थोड़े समय में और प्रतिकूल परिस्थिति में हमें इसका प्रकाशन करना पड़ा, उसे ख्याल कर घबराहट होती है और अपनी उन त्राुटियों के लिए हम पाठकों से क्षमा चाहते हैं। लेखों के चुनाव में भी हमें बहुत से विद्वानों के लेख और कवितायें अपनी इच्छा के विपरीत इसलिए रख छोड़नी पड़ी कि हमारे पास अधिक स्थान ही न था। हम उन सज्जनों से क्षमा चाहते हैं। इसी प्रकार चित्रों के चुनाव में भी कई प्रमुख नेताओं और कार्यकर्ताओं के चित्रा हमें अभाग्यवश कोशिश करने पर भी नहीं मिल सके, जिसका हमें हार्दिक खेद है और यह अभाव ऐसा है जो हमें सदा खटकता रहेगा और उसके लिये भी हम क्षमा-प्रार्थी हैं। उसी तरह बिहार के राजबंदियों की नामावली भी अधूरी रह गई है। कई जिलों से तो राजबंदियों की सूची मिली ही नहीं, और कई जगहों की लिस्ट आने पर भी वह अधूरी निकली। इस कारण उन त्राुटियों का ख्याल हमें दुःखित कर रहे हैं।’
अंक के विषय सूची से कुछ अनुमान लगा सकते हैं। सबसे पहले भारतीय नेताओं के दिव्य संदेश है। उस समय के बड़े नेताओं के संदेश प्रकाशित हैं। महात्मा गांधी के तीन लेख कष्ट सहन का नियम, स्वराज्य का एक लक्षण एवं अहिंसा प्रकाशित है। राजेंद्र प्रसाद का सत्य और सत्याग्रह शामिल किया गया है। सत्याग्रह का खतरा-श्री प्रकाश, राजबंदी जीवन व सत्याग्रह की मीमांसा-श्री जगत नारायण लाल, स्वामी सहजानंद सरस्वती का लेख सत्याग्रह की कमजोरियां और उनके नेवारण के उपाय आदि शामिल किए गए हैं। कविताओं में श्री अरविंद का माता का संदेश, रामधारी सिंह दिनकर की कविता भव, बेगूसराय गोली कांड-श्री कपिलदेव नारायण सिंह सुहृद, बिस्मिल इलाहाबादी की फरियादे बिस्मिल आदि कविताएं प्रकाशित हैं। इसके अलावा सत्याग्रह और महिलाएं, बिहार में सत्याग्रह, बिहार में चौकीदारी कर बंदी, बिहार के शहीद आदि महत्वपूर्ण लेख हैं। सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि जिलों के सत्याग्रह की रिपोर्ट है। तब झारखंड भी बिहार का हिस्सा था। कुछ जिलों की रिपोर्ट प्रकाशित है- सारन में फपुर में सत्याग्रह, चम्पारण में सत्याग्रह, दरभंगा मेंसत्याग्रह, मुज सत्याग्रह, शाहाबाद में सत्याग्रह, भागलपुर में सत्याग्रह, प्रांत के कुल जेलयात्राी, बीहपुर सत्याग्रह, मुंगेर के सत्याग्रह, पटना नगर में सत्याग्रह, पटना जिला में सत्याग्रह, गया में सत्याग्रह, पूर्णिया में सत्याग्रह, रांची में सत्याग्रह, तामिलनाडु में सत्याग्रह आदि। उस समय के कई महत्वपूर्ण लेखकों ने इस अंक में योगदान दिया। इन लेखों से जिलों के सत्याग्रह के बारे में जानकारी मिलती है। प्रांत के कुल जेलयात्राी के अलावा बिहार के वीर बांकुडे़ 12 पेज में दिया गया है। इसमें वृहद बिहार के जिलों के सत्याग्रह और राजबंदियों की सूची है। यह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए, महावीर के इस अंक का महत्व बढ़ जाता है। इसके अलावा इसमें उस समय के कई बड़े नेताओं की तस्वीरें भी हैं। डॉ मोख्तार अहमद अंसारी, फार खान, पुरुलिया के जिमूत वाहन सेन,डॉ सैयद महमूद, अब्दुल ग हजारीबाग की सरस्वती देवी एवं मीरा देवी, प्रो अब्दुल बारी, जेएम सेनगुप्ता के साथ जगत नारायण लाल एवं उनकी पत्नी की भी। उस समय के प्रमुख सत्याग्रहियों की तस्वीरें, जो सुलभ हो सकीं, दी गई हैं।
रामवृक्ष बेनीपुरी अपने संस्मरण ‘पत्रकार जीवन के पैंतीस वर्ष’ में दो पंक्तियों में पत्रिका के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी है-‘‘बाबू जगतनारायण लाल ने महावीर नाम का साप्ताहिक पत्रा निकाला था, जिसके संपादकीय विभाग में श्री विश्वनाथ सहाय और राधाकृष्ण सुप्रसिद्ध कहानी लेखक-रांची थे। यह हिंदू संगठन का हिमायती था।’’ रांची के रहने वाले राधाकृष्ण ने एक तरह से पत्रकारिता जीवन की शुरुआत इसी पत्रिका से की। फिर कहानी लेखन की ओर मुड़ गए। कहानी के साथ-साथ व्यंग्य भी लिखा। प्रेमचंद के निकट हुए। उनके निधन पर कुछ दिनों तक हंस भी संभाला। फिल्म लेखन भी किया। फिर रांची में ‘आदिवासी’ पत्रिका का संपादन किया। ‘महावीर’ के बारे में अब तक कुल जमा यही जानकारी मिलती है।
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रामचंद्र शुक्ल/अछूत की आह

रामचंद्र शुक्ल की यह कविता 1933 में लाहौर से प्रकाशित पुस्तक हिंदी विलास से ली गई है। इस पुस्तक के संपादक सूर्यकांत थे, जो लाहौर के डीएवी कॉलेज में पढ़ाते थे। इसे पंजाब विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया था। हालांकि यह आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल की कविता नहीं।
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रामचंद्र शुक्ल
अछूत की आह

1
एक दिन हम भी किसी के लाल थे,
आंख के तारे किसी के थे कभी।
बूंद भर गिरता पसीना देख कर,
था बहा देता घड़ों लोहू कोई।।
 2
देवता देवी अनेकों पूज कर,
निर्जला रह कर कई एकादशी।
तीरथों में जा द्विजों को दान दे,
गर्भ में पाया हमें मां ने कहीं।।
3
जन्म के दिन फूल की थाली बजी,
दु:ख की रातें कअी सुख दिन हुआ।
प्यार से मुखड़ा हमारा चूम कर,
स्वर्गमुख पाने लगे माता पिता।।
4
हाय, हमने भी कुलीनों की तरह,
जन्म पाया प्यार से पाले गये।
जी बचे फूले फले तब क्या हुआ,
कीट से भी नीचतर माने गये।।
5
जन्म पाया पूत हिंदुस्तान में,
अन्न खाया और यहीं का जल पिया।
धर्म हिंदू का हमें अभिमान है,
नित्य लेते नाम हैं भगवान का।।
6
पर अजब इस लोक का व्यवहार है,
न्याय है संसार से जाता रहा।
श्वान छूना भी जिन्हें स्वीकार है,
है उन्हें भी हम अभागों से घृणा।।
7
जिस गली से उच्च कुल वाले चलें,
उस तरफ चलना हमारा दंड्य है।
धर्म ग्रंथों की व्यवस्था है यही,
या किसी कुलवान का पाखंड है।।
8
हम अछूतों से बताते छूत हैं,
कर्म कोई खुद करें यह पूत हैं।
हैं सभों को ये पराया मानते,
क्या यही स्वामी तुम्हारें दूत हैं।।
9
शासकों से मांगते अधिकार हैं,
पर नहीं अन्याय अपना छोड़ते।
प्यार का नाता पुराना तोड़ कर,
हैं नया नाता निराला जोड़ते।।
10
नाथ तुमने ही हमें पैदा किया,
रक्त मज्जा मांस भी तुमने दिया।
ज्ञान दे मानव बनाया फिर भला,
क्यों हमें ऐसा अपावन कर दिया।।
11
जो दयानिधि कुछ तुम्हें आये दया,
तो अछूतों की उमड़ती आह का।
यह असर होवे कि हिंदुस्तान में,
पांव जम जावे परस्पर प्यार का।।

रांची और आर्यावर्त

सौ साल पहले रांची से आर्यावर्त नामक पत्र प्रकाशित होता था। देश-विदेश की खबरें भी हुआ करती थीं। रांची की खबरें भी स्थान पाती थीं और विज्ञापन भी पहले पेज से लेकर अंत के पेज तक छपते थे। चंद्रकांता संतति उपन्यास का भी एक विज्ञापन देखने में आया। नीचे रांची से जुड़ी एक खबर है। आप पढ़े और उस समय की हिंदी कैसी थी, उसे देखें। अंक हमने अंग्रेजी में दिए हैं। यह खबर अप्रैल की है।

स्थानिक और प्रान्तिक समाचार
रांची : इस सप्ताह में कई दिन वृष्टि खूब हुई है। समयानुकूल गरमी नहीं पडऩे के कारण स्वास्थ्य शहर का अच्छा नहीं है। 1 ली मइ से कचहरी प्रात:काल में होगा, परन्तु ऐसी दशा रहने से अब ही सुबह कचहरी होने का एतना आवश्यकता नहीं है। जगह ब जगह धान के लिये खेत तेयार किया जाता है और कहीं 2 धान बुनना भी आरम्भ हो गया है। मि: किश्रवो साहेब आ गये, परन्तु अभी जिलाधीश के काम का चार्ज नहीं लिये हैं। स्थानिक कुल स्कूल सुबह होने लगे। गले का भाव साबित दस्तुर है। कई यहां के कचहरी के किरानी अपने असावधानी के लिये सजा पाये थे। जिलाधीश के अज्ञा से असंतुष्ट होकर कमीश्नर साहिब के पास अपील किये थे। कमीश्नर साहिब ने उनके अपील को सुना। मि: स्लकै कमीश्नर की दयालुता सराहनीय हे। जिला स्कूल अगामी ता 6 मई को बन्द होगा। नया हेडमास्टर साहेब पढ़ाने के अतिरिक्त लड़कों के चाल-चलन पर अधिक ध्यान देते हैं और लड़कों के खेलने का अच्छा बन्दोबस्त किये हैं, जिसमें लड़के सब इधर उधर नहीं खेला करें।

दुर्गाबाटी में महिलाएं केवल एक घंटे करतीं थी मां का दर्शन

रांची में दुर्गापूजा की शुरुआत रातू राज घराने से हुई। कहा जाता कै कि 1870 में दुर्गा पूजा यहां प्रारंभ हुई। रांची का यह प्रथम दुर्गोत्सव था। रातू किले के मुख्य द्वार से थोड़ा हटकर यहां मां का मंदिर है। किले के भीतर बलि स्थान भी है। यह राजा का उत्सव था। राजा का मंदिर था। लेकिन आम जनों ने इसके 13 साल बाद श्री श्री हरिसभा और दुर्गाबाटी संस्था स्थापित हुई और 1883 में दुर्गापूजा प्रारंभ हुई। इसका आरंभ जिला स्कूल के संस्कृत शिक्षक पंडित गंगा चरण बागीश ने कुछ धर्म परायण व्यक्तियों के साथ मिलकर इसका आयोजन किया। आज जो दुर्गाबाटी का भव्य रूप दिखता है, पहले खपरैल का था और यहीं पूजा शुरू हुई। इस बाटी की कुछ खास परंपरा रहीं। जब से पूजा प्रारंभ हुई, तब से वीरभूम के मूर्तिकार ही एकचाला प्रतिमा बनाते हैं। पं बंगाल के वीरभूम जिले देवेंद्र नाथ सूत्रधार इसके पहले मूर्तिकार थे। आज भी उनके वंशज की प्रतिमा गढ़ते हैं। एक दूसरी खास बात यह है कि यहां प्रतिमा का निर्माण भी पूरे-विधान से शुरू होकर पूर्ण होता है। जन्माष्टमी के दिन प्रतिमा का निर्माण कार्य प्रारंभ होता है। रांची के इतिहास पर रोशनी डालने वाले डॉ रामरंजन सेन बताते हैं कि पहले यहां महिलाओं का प्रवेश केवल नवमी की रात आठ से नौ बजे तक होता था। सिर्फ एक घंटे ही मां का दर्शन कर सकती थीं और उस समय मंदिर से पुरुष बाहर निकल जाते थे। बाद में इसका भी विरोध शुरू हुआ। आखिर मातृशक्ति मां का दर्शन केवल एक घंटे ही क्यों करेगी? इसके बाद 1921 में महिलाओं का अबाध प्रवेश का द्वार खुल गया। अब मां का शृंगार भी महिलाएं ही करती हैं।

बलि प्रथा का था प्रचलन
बंगाली परंपरा के अनुसार पूरे विधि-विधान के साथ यहां पूजा होती थी। प्रारंभ में यहां तांत्रिक विधि से पूजा होती थी। तंत्र विधान के अनुसार ही यहां बलि प्रदान किया जाता था। बलिदान के बाद बकरे के खून का टीका लगाकर कुछ भक्त नृत्य भी करते थे। बाद में कुछ लोगों ने इस प्रथा का विरोध किया और बंद कर दिया गया। डॉ पूर्ण चंद्र मित्र इस प्रथा के कट्टर विरोधी रहे। डॉ रामरंजन सेन बताते हैं कि ऐसी प्रथा को बंद करवाने के लिए उन्होंने लोगों को अपना अभिमत लिखकर दिया और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित किया कि वे इसका विरोध करें। इसके बाद 1927 में इस कुप्रथा को बंद कर दिया गया। इसी साल मंदिर का निर्माण भी किया गया। इसके बाद यहां एक प्रेक्षागृह भी बना।
 लगता था पांच दिनों का मेला
पहले दुर्गाबाटी के सामने, आज जहां शास्त्री मार्केट है, मेला लगता था। तब खाली मैदान हुआ करता था। 1926 में मेले में आए दुकानदारों से शुल्क भी लिया जाने लगा। पांच दिनों तक मेला चलता था। तरह-तरह के झूले, बाजार। मेले में लोगों की भीड़ उमड़ती थी। छोटा शहर था, लेकिन दुर्गोत्सव में लोग आस-पास के गांवों से भी आते थे। आज भी लोग दूर-दराज के गांवों से लोग आते हैं। बाद में भीड़ बढ़ी तो मेला बंद कर दिया और आगे चलकर यहां एक स्थायी मार्केट बन गया।
रांची के कुछ और दुर्गा पूजा समितियां
एजी आफिस के कर्मचारियों ने 1912 में डोरंडा दुर्गा पूजा की शुरुआत की। इसके अगले साल 1913 में हिनू दुर्गापूजा कमेटी का गठन किया गया। 1936 में लालपुर, बर्धमान कंपाउंड में कमेटी का गठन कर पूजा शुरू की गई। आजादी के बाद 1954 में देशप्रिय क्लब का गठन कर यहां भी दुर्गा पूजा शुरू की गई। आज रांची में सौ से ऊपर दुर्गा पूजा समितियां हैं, जो लाखों खर्च कर पंडाल का निर्माण करती हैं। लोग दूर-दूर से पंडालों को देखने आते हैं। लेकिन दुर्गाबाटी का महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। यहां मां की विदाई भी कंधे पर दी जाती है।

राधाकृष्ण और उनकी ‘मूल्य’

-संजय कृष्ण
  हिंदी कथा साहित्य को बहुविध ढंग से समृद्ध करने वाले रांची के राधाकृृष्ण साहित्य की दुनिया में अब अपरिचित नाम हो गए हैं। पुरानी पीढ़ी को यह नाम याद भी हो, नई पीढ़ी तो शायद उनके नाम से भी परिचित न हो। हम प्रायः अपने पुराने लेखकों को याद नहीं करते। या याद करते हैं तो उन्हें ही, जिन्हें याद करना फायदेमंद होता है। सुदूर झारखंड के एक पठारी पर बसी रांची के इस दिवंगत लेखक को भला क्यों याद करना! पर इस लेखक ने अपने समय में साहित्य की हर विधा को साधा और अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाया। इसीलिए, कथा सम्राट प्रेमचंद ने अपने समय में कहा था कि यदि पांच कहानीकारों की सूची में बनाई जाए तो उसमें एक नाम राधाकृष्ण का भी होगा। यह थी राधाकृष्ण की खासियत।

  राधाकृष्ण जन्म: 18 सितंबर-1910-निधन-तीन फरवरी 1979 ने लेखन की शुरुआत कहानी से की और पहली कहानी सिन्हा साहब 1929 में प्रकाितश हुई। इसके बाद प्रेमचंद संपादित हंस में उनकी अनेक कहानियां छपीं। कहानी के साथ-साथ घोश्ष-बोस-बनर्जी-चटर्जी नाम से हास्य-व्यंग्य भी लिखते थे। उनके व्यंग्य का प्रभाव बाद की पीढ़ी पर भी पड़ा। पर वे मूलतः कहानीकार ही थे। अपने आत्मकथ्य में इस बात का स्पष्ट संकेत भी दिया कि उनके लेखन का उद्देश्य क्या है। वह लिखते हैं, ‘मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं इसलिए नहीं लिखता कि मुझे अपनी कहानी द्वारा किसी वाद-विशेष का प्रचार करना है। हां, कहानी लिख जाने के बाद वह किसी वाद-विशेष के अंतर्गत आ जाए तो बात दूसरी है।’ इस भित्ति पर खड़े होकर वे रचना करते हैं। उन्होंने आदिवासी जीवन पर अनेक कहानियां लिखीं, लेकिन उन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। वे किसी खास विचारधारा से संबंद्ध नहीं थे। इसलिए भी आलोचकों ने उन्हें भाव नहीं दिया। अन्यथा 40 के दशक में वे जिस तरह की आदिवासी जीवन की कहानियां लेकर आ रहे थे और जितनी प्रामाणिकता के साथ, यह आज भी विरल है। अब तो बहुतेरे कहानियां आ रही हैं, लेकिन उसमें कई तरह की विसंगति को भी देखा और महसूस किया जा सकता है, पर राधाकृष्ण की कहानियां इन दुर्गुणों से वंचित हैं।

 आदिवासी जीवन की ढेर सारी कहानियां में उनकी एक चर्चित कहानी है-मूल्य। इसे उन्हांेने 1961 में लिखा था। कहानी को लिखे पचपन साल हो गए। इन पचपन सालों में देश-दुनिया ने काफी तरक्की की है। अब दुनिया एक ग्लोब हो गई है। ग्लोब के इस छोर से उस छोर तक संपर्क करने में अब मिनट भी नहीं लगते। पर, इसी दुनिया में, इसी धरती पर एक ऐसी आबादी भी है, जो आज भी अपने आदिम संस्कारों और संस्कति को जीवित और जीवंत किए हुए है। यद्यपि तथाकथिक सभ्य दुनिया को लगता है कि ये असभ्य और जंगली हैं। पर, जब हम उनके निकट जाते हैं, तो हमें अपनी असभ्यता का भान होता है। राधाकृष्ण की यह कहानी कुछ इसी तरह के मूल्यों को उठाती है। कहानी का शीर्षक है तो महज एक शब्द का, पर इस शीर्षक एक भरी-पूरी सभ्यता की कहानी भी छिपी है। इतना ही नहीं। यह कहानी कई तरह के मूल्यों के अंतद्र्वंद्व को भी हमारे सामने रेखांकित करती है। यह कहानी आदिवासियों में प्रचलित एक परंपरा को केंद्र रखकर लिखी गई है, लेकिन लेखक का आशय सिर्फ उसकी परंपरा से हिंदी जगत को अवगत कराने तक सीमित नहीं है। वस्तुतः देखा जाए तो यह कहानी परंपरा से आगे बढ़ती हुई हमें उस आदिवासी समाज के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक पक्षों के उद्घाटन के साथ अपनी माटी और अपने जमीन से जुड़े रहने की उत्कट अभिलाषा को भी व्यंजित करती है।

  हिंदी में ऐसी कहानी कतई नहीं है, जहां परंपरा के प्रति एक अनुराग भी हो और प्रेम का उदात्त स्वरूप भी। आदिवासी समाज में एक परंपरा है मूल्य देकर विवाह करने की। वर पक्ष वाले कन्या पक्ष को मूल्य देकर विवाह करते हैं। परंपरा के तहत विवाह का प्रस्ताव लड़का पक्ष वाला ही लड़की पक्ष वाले के सामने रखता है। यदि दोनों पक्ष राजी हो गए तो वर पक्ष कन्या पक्ष को मूल्य देकर बाकी की रस्म पूरी करता है। यदि वर पक्ष मूल्य देने में असमर्थ है तो लड़का भावी ससुर के घर रहकर एक अवधि तक अपनी सेवा देता है और इसके बदले में अपनी लड़की का विवाह लडके से कर देता है। इसे सेवा विवाह कहते हैं।
  इस परंपरा को केंद्र में रखकर ही यह कहानी रची गई है। कहानी में कुल चार पात्रा हैं। एक और पात्रा है, जिसकी सिर्फ चर्चा है। वह है दूलो का भाई जगराय, जो गाय-बकरियां चराने में कुशल है। जो चार पात्रा हैं। वे हैं, दुलो, दुलो का पिता भत्तू, उसकी मां दुर्गी और उसका प्रेमी जबरा। कहानी इन्हीं चारों के इर्द-गिर्द घुमती हुई घर की चैहद्दी को तोड़ती हुई गांव, जंगल की यात्रा करती कुछ-कुछ बीते समय की ओर भी चली जाती है।
  प्रेमचंद की तरह ही कहानीकार एक दृश्यविधान रचता है। कहता है, उरांव लोगों की उस बस्ती में दूलो बड़ी प्यारी और अभिमानिनी लडकी थी। यह कहना कठिन है कि उसमें रूप ज्यादा था या अभिमान अधिक था। शौकीन भी कम नहीं थी। कान में कांच जड़ा तरपत, वक्षस्थल पर मूंगे की माला। उसके दोनों पैरों की तर्जनियों में दो-दो ढीली अंगूठियां थीं और जब वह चलती थी तो पैरों की अंगूठियां चाटुंग-चाटुंग बजने लगती थीं। उसकी सुरीली बोली गीत की तरह लहरा जाती थी और उसकी कजरारी आंखों में अनुराग भरा भोलापन लिए हुए अभिमान की छाया थी। केश उसके घुंघराले थे, जिसका उसे गर्व था। बावजूद इसके खटकने वाली बात यह थी कि वह 16 की हो गई थी। उसका विवाह नहीं हो पा रहा था-जबकि वह परिश्रमी थी। घर और बाहर का काम करती।...जब रात होती तो वह किसी टहनी की तरह झूमती हुई भृंगी की भांति गुनगुनाती हुई अखरा पहुंच जाती। वहां जाकर वह नृत्य और गीत में इस तरह खो जाती कि अपनी तन की सुध भी नहीं रहती।
 कथाकार दूलो के रूप, गुण और उसके भोलेपन की चर्चा कर पाठकों के भीतर एक सहानुभूति पैदा करता है। एक संवेदना जगाता है। इस सौंदर्य चर्चा के साथ की वह आदिवासी संस्कृति की विशेषता को भी बता जाता है। उनकी संगीतप्रियता, नृत्य के प्रति अनुराग और उन्मुक्त संस्कृति। दूलो 16 की है। शादी को तैयार है। वह रात में अखरा जाती है। कहीं कोई रोक-टोक नहीं है। अखरा वह स्थान है, जहां आदिवासी मांदर, ढोल, नगाड़े की थाप पर नाचते-गाते दिनभर की थकान मिटाते हैं। स्त्राी हो या पुरुष, युवक हों या युवतियां...सभी एक साथ सामूहिक रूप से वृत्त या अर्धवृत्त का घेरा बनाकर नृत्य करते हैं। कथाकार अखरा का जिक्र इसीलिए करता है हम उनकी संस्कृति को समझ सकें। ये कुछ ऐसी विशेषता है जो आदिवासी और गैरआदिवासी के अंतर को भी सामने रखती है।

 लेखक दो सीमांत धु्रवों की भी रचना करता है। एक है दूलो का पिता भत्तू, जो घर में निर्विकार भाव से चुप रहने वाला प्राणी है। दूसरा, उसकी मां दुर्गी, जो हमेशा हाथ चमका-चमका कर झल्लाती रहती है। भत्तू अपनी पत्नी के बातों का बुरा नहीं मानता। और, दुगी ऐसी थी कि उसके पास न जाने कितनी बातें थीं जो खत्म ही नहीं होती। खेती की बातें, जमीन की बातें, महंगी और अनैतिकता की बातें, सांप और शेरों की बातें, भूत और पिशाचों की बातें...। बातों का अंतहीन सिलसिला...। भत्तो परम संतोषी। दुलो की शादी करनी है फिर भी चेहरे पर चिंता की लकीरें नहीं। बैल मर गए हैं, खेती कैसे होगी, इसकी भी चिंता नहीं। एक दिन दूगी आकर भत्तो से कहती है, ए जी, हम लोगों का बैल तो पिछले महीने ही मर गया। अब क्या होगा? इस प्रश्न से भत्तो चैंकता तो है, लेकिन तुरत ही आश्वस्त भी हो जाता है। जैसे इस समस्या का समाधान उसके पास पहले से मौजूद हो। भत्तो कहता है, हां, बैल तो मर गया, क्या करें, जो बोंगा करते हैं, वही होता है। इस जवाब से यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि भत्तो कर्मशील प्राणी नहीं है। सब कुछ भगवान भरोसे। पर ऐसा भी नहीं है। भत्तू कहता है, गरीब की मदद कोई नहीं करता। अब तो हल भी नहीं चला सकूंगा। बैल फूट गया है जो। दूगो जोड़ती है, बैल के बिना किसान का घर सूना है। बैल तो तुम्हें खरीदना ही होगा। बैल दालान की शोभा होते हैं।
  किसानों का जीवन एक जैसा ही होता है। समस्याएं भी लगभग एक सी। चाहे वह विदर्भ का किसान हो, बुंदेलखंड का किसान हो या मैदानी इलाके का या फिर पठारी का। कहानी यही बताती है आदिवासी किसान की दशा दूसरे किसानों से कतई भिन्न नहीं है। कहानी आदिवासी और गैरआदिवासी के विभाजन को इस बिंदु पर स्वीकार नहीं करती है। बैल ही किसान की पंूजी है। मैदानी इलाकों से बैल गायब हो गए। बैलों की जगह ट्रैक्टर ने ले लिया। पूंजीवाद के प्रवेश से छोटे जोतदार मजदूर बन गए। अब वहां बड़े-बड़े किसान हैं। पर पहाड़ी इलाकों में खेती के यही सबसे सशक्त माध्यम हैं। पठारी क्षेत्रा होने के कारण यहां ट्रैक्टर से खेती आज भी संभव नहीं है। ले देकर बैल या भैंसा ही खेती के माध्यम हैं। भत्तो के सामने चिंता यह है कि वह बैल खरीदे भी कैसे? पूंजी तो है नहीं? निदान भत्तो के पास है। कहता है, क्या करेंगे, दूलो को बेच देंगे।

 इस जवाब से दूगी की दोनों हथेलियां चमकने लगीं। वह चंचल होकर बोली...तुम तो कब से कहते हो कि दूलो को बेचेंगे। जब छप्पर टूट गया था तब तुमने कहा था दूलो को बेच देंगे। फिर मालगुजारी के लिए नालिश हुई तब भी तुमने कहा कि दूलो को बेच देंगे। उसके बाद जब कुआं खोदने का सवाल आया था तब तुमने कहा था कि दूलो को बेच देंगे। मगर तुम्हारी दूलो बिकती कहां है? वह तो शाल के पेड़ की तरह दिन-दिन बढ़कर छतनार हुई जा रही है। समस्या का समाधान यह नहीं है कि दूलो बिक जाए? दूलो बिक भी गई तो जो मूल्य मिलेंगे क्या उससे बैल खरीदे जा सकेंगे? दूगी कहती है-कहीं बैल के जितना भी बेटी का दाम मिलता है? आदमी के दाम से बैल का दाम हमेशा ज्यादा रहता है। यह फर्क है। यहां आदमी की कीमत बैल से सस्ता।
  यह साठ का जमाना है। आजादी मिले चैदह साल तो हो ही गए थे। इस आजादी में आदमी सस्ता हो गया था और जानवर महंगे। राधाकृष्ण एक जगह लिखते हैं, यह चावल भी एक मुसीबत है। इन दिनों चावल का दाम बढ़ता ही जा रहा है....बाजार के इस भाव को जैसे पंख लग गए हैं। वह ऊंचे-से-ऊंचे उड़ता जा रहा है। गिद्ध की तरह बाजार भाव आसमान की ऊंचाई को नाप रहा है। जनता है, वह दिन-दिन पाताल की ओर गहराई को नापती जा चली जा रही है। तब और आज का समय। क्या महंगाई कम हुई। दिनों दिनों बढ़ती जा रही है। आदमी की कीमत जानवर से भी कम...। भत्तू अपने दिनों को याद करता है। ...कहता है जब मैंने तुमसे विवाह किया था तो दो बैल दिए थे और काठ धान दिया था। तब जाकर कहीं तुमसे मेरा ब्याह हुआ। अपनी बात को याद करती नहीं, इधर-उधर की बात ले बैठती हो। दूगी प्रतिवाद करती है। कहती है, उस समय चीजें सस्ती थीं। यानी 1920 के आस-पास की बात कर रही है। तब चीजें सस्ती थीं। अंगरेजों का जमाना था। अब अपना जमाना था, जहां आदमी सस्ता हो गया था। पर, इनकी बातों से बेफिक्र दूलो अपनी दुनिया में मस्त थी। एक दिन जब दूलो अखरा से नाचकर लौट रही थी तो एकांत पाकर उसका प्रेमी जबरा ने उसे छेड़ा। बोला-अरी दूलो, तुम्हारे जूड़े में जो यह सिरगुजिया का पीला फूल है, वह किसके लिए है?
वह कहती है, तुम्हारे लिए है?
...और तुम्हारे कानों मे जो लाल तरपत है...
तुम्हारे ही लिए है बंधु?
...और तुम्हारी चंचल चितवन, नदी की तरह उमड़ती हुई जवानी, तन और मन का प्यार-वह किसके लिए है?
दूलो सकुचाती हुई जवाब देती है अगर तुम चाहो तो वह भी तुम्हारे लिए है।
जवरा कहता है, मगर मैं तुम्हें महंगे दाम में खरीद नहीं सकता। जानती ही हो कि आज कल आदमी से ज्यादा बैल के दाम हैं?

दूलो कुछ सोचकर बोली-तो जाने दो, तुम्हें मेरा मूल्य चुकाना नहीं पड़ेगा। मैं तुम्हारे यहां ढूकू चली जाऊंगी।
जवरा ने कहा, यह तो और भी नहीं हो सकता। तुम्हारी मां मेरी मां से लड़-लडकर उसे परीशान कर देगी।
जवरा एक सलाह देता है। चलो भूटान भाग जाएं। पर दूलो दृढ़ स्वर में कहती है मगर मैं न अपने मां-बाप को छोड़ सकती हूं न इस पहाड़ी को। लेकिन वह जवरा को भी नहीं छोड़ती। कहती है, मैं भूटान भी नहीं जाऊंगी और तुम्हें भी नहीं छोड़ूगी? इतना आत्मविश्वास है दूलो को। दूलो अपना दो टूक फैसला सुना देती है। जवरा भी कहता है-तो मैं भी तुम्हें नहीं छोड़ सकता। आओ चलें, कहां। दोनों घने जंगल में भाग जाते हैं।
  अगले दिन दुगी व भत्तो सर झुकाए बैठे हैं। दुगी की आंख भीगी हुई हैं। इसी समय जवरा और दुलो दोनों आकर उनके सामने खड़े हो जाते हैं। भत्तू अपनी बेटी को देखकर शांत है। कहीं कोई उत्तेजना नहीं। वह बहुत ही शांत स्वर में कहता है, बेटा जवरा, अगर तुम्हें मेरी लड़की को ले जाना ही था तो मांगकर ले जाते। जवरा भी उसी शांत भाव से जवाब देता है। उसे भी कोई ग्लानि नहीं। कहता है, बा, मांगने की मुझमें हिम्मत कहां थी। गरीबी सबकुछ कराती है। कहां हम दूलो का दाम चुका पाते और कहां से हम बारात लाते...। भत्तू कोई जवाब नहीं देता है। कुछ देर बाद लंबी सांस लेकर कहता है-हमने सोचा था कि जब दूलो को बेचेंगे तो एक बैल खरीदेंगे।

जवरा उत्साह से कहता है-बा, तुम बैल नहीं खरीद सके तो इससे क्या? मैं जो हूं। मैं किसी भी बैल से ज्यादा काम कर सकता हूं। मेरी सारी सेवाएं तुम्हारे लिए है। मैं तब तक तुम्हारी सेवा करूंगा जब तक दूलो का दाम न चुक जाएगा। एक किसान के लिए बैल कितने महत्वपूर्ण होते हैं, यह कहानी उस ओर इशारा करती है।
 आदिवासी समाज में यह परंपरा है। पर, इस परंपरा पर ऐसी कहानी भी लिखी जा सकती है, इसपर किसी का ध्यान नहीं गया। महाश्वेता देवी ने भी आदिवासी जीवन पर कहानियां लिखीं है, पर वे सर्वेक्षणात्मक ज्यादा हैं। कहानी का कहन इससे बाधित होता है। योगेंद्र सिन्हा के उपन्यास भी इस समस्या से पीड़ित हैं। पर, राधाकृष्ण की कहानी इसका अपवाद है। ऐसा इसलिए कि वे आदिवासी समाज में पूरी तरह घुल-मिल गए थे। और उनके चित्त और संस्कार से गहरे परिचित थे। वह आदिवासी समाज को बाहर से नहीं देख रहे थे। वे समाज को अपने भीतर महसूस कर रहे थे। दूसरी बात यह कि राधाकृष्ण ने इस कहानी में आंचलिक शब्दों का प्रयोग नहीं किया है। इससे कहानी की प्रामाणिकता पर कोई फर्क नहीं पड़ता। संवाद में भी हिंदी ही है। पर, भाव और बोध में आदिवासीपन है। कहानी में मातृसत्तात्मक समाज का स्वरूप आया है। प्रेम का निष्कलुष रूप कहानी में मौजूद है। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ की याद आती है।
  कहानी में आदिवासी समाज की और भी विशेषताएं हैं। जरा कल्पना कीजिए..गैर आदिवासी परिवार की लड़की यदि घर से भाग जाए तो उसका बाप क्या यूं ही शांत रहेगा? यह समाज का खुलापन है। यहां स्त्राी परतंत्रा नहीं है। इसलिए यहां नारीवादी नारे नहीं है। वह अपना निर्णय ले सकती है। दुखद यह है कि पिछले साठ-सत्तर सालों से आदिवासी साहित्य रचा जा रहा है। पर आज तक इस साहित्य को वह हैसियत नहीं मिल सका, जिसका वह हकदार है। राधाकृष्ण के बहाने हमें पठारों की भी देखना चाहिए, जहां मूल्य और सामूहिकता अब भी बचे हुए हैं और बेहतर जीवन के लिए ये जरूरी उपादान हैं।
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होली का सपना

-गोपाल राम गहमरी

आज आंखें क्या लगीं, होनहार ही होनहार दिखाई देने लगा। ठीक जैसे पुराने जमाने का रसांजन या सिद्धांजन लगाने से धरती के गड़े खजाने लोगांे को दिखाई देते थे। वैसे ही आज नींद ने मेरी आंखें क्या बंद की, मानो होनहार देखने के लिए ज्ञान की भीतरी आंखें खोल दी। देखा तो मोटे-मोटे सोने के चिकचिकाते अक्षरों से आसमान उज्जवज हो रहा हैं इतना बड़ा विशाल आकाश उन्हीं अक्षरों के प्रकाश से अपनी नीलिमा छोड़ सुनहला हो गया है। मन में आया आंखें बंद हैं। मैं सोता हूं तो भी यह रोशनी कैसे दिखाई दे रही है? फिर आंखें गड़ा कर देखा तो कुछ लिखा है। पहले अक्षरों की चमक से चकाचौंध लगी जाती थी लेकिन मिनट दो मिनट नहीं बीते कि नयनों को ठंडक आई। चकाचौंध जाती रही ठीक जैसे सूर्य का चांद हो गया। आकाश में जो अक्षर पीले-पीले चमकते थे वे सब चांद रंग के हो गए। अब साफ पढ़ा तो देखा यही लिखा है ‘विलायती महाभारत का अंत’ वह उ$पर सबसे मोटे अक्षरों में है। उससे कम मोटे अक्षर दूसरी पांती में है, जिसमें लिखा है, ‘ब्रिटिश विजय मित्रों की गोटी लाल’।
बस इतना ही देखा था कि एक विकट रूपा राक्षसी सामने से दांत बाये हुए दौड़ती दिखाई दी। उसकी बिखरी लटों से आग निकल रही है। मुंह ज्वालामुखी का कंदरा मात करता है। नाक और कान से भी आतिशबाजी के कुजे छूट रहे हैं। सारी देह महाकाली का विकराल रूप है। लेकिन शरीर के सभी रन्ध्रों से आग फेंकती है। ज्यों-ज्यों पास आती गई त्यों-त्यों मेरे प्राण सूखते गए। बहुतेरा चाहा कि पीछे फिर कर भाग जाउ$ं। लेकिन पांव मानों धरती से ऐसे चिपके कि हिल नहीं सके। लेकिन उसके देह से निकलती हुई आग पास आने पर जलाती नहीं, देखकर तसल्ली सी हुई। अच्छी तरह देखा तो उस पूतना के कपार पर ‘होलिका’ लिखा है। मैंने होली महारानी की जय कहकर आठों अंगों से प्रमाण किया। उसने दोनों हाथ उठाकर, मुंह हिलाकर आशीर्वाद दिया, कहा ले बच्चा! पच्चास बरस तेरी आयु और बढ़ी, पूरे सौ बरस की जिंदगी अब तेरी हुई, बोल और कुछ चाहिए?
अब मैं ढीठ हो गया। ‘कहा ना माताजी आपने पच्चास बरस मुझे आयु दी है इसके लिए धन्यवाद है। यह तो आपने अपने आप ही दिया है। ठीेक जैसे पका शरीफ न्यूटन के कपार पर आप ही आप आया था। लेकिन मैं आप से कुछ और मांगना चाहता हूं। दया करके.....
बस बस बोल क्या मांगता है। नहीं तो घड़ी तो बीती जाती है। एक, दो, तीन बस तीन ही मिनट और हैं इतने में जो मांगेगा सो पावेगा। लेकिन अपने मतलब की कुछ न मांगना।
ना माताजी! मुझे अपने मतलब की कुछ नहीं चाहिए। पहली बात तो मैं यही मांगता हूं कि युरोप में जो महाभारत हो रहा है उसका अंत इसी साल जून में ठीक ब्रिटिश विजय के साथ हो आया।
दूसरी बात यह है कि हमारी ब्रिटिश सरकार को ऐसी सुमति हो कि इस साल जो नए टैक्स लगने हैं वे मेरे कहे मुताबिक लगें। उसका विवरण मैं आगे देकर अपनी याचना समाप्त करता हूं।
‘बोलता जा! बेलता जा! की आवाज सुनकर ही मैंने कहा, ‘पहला टैक्स तो उनपर लगे तो पुराने ख्याल के खूसट आज पश्चिमी रोशनी में भी व्याह शादी में नाच फांच, रंडी, भंडुए, भांड भगतियों के बिना अपनी रस्म नहीं पूरा कर सकते। उन पर टैक्स यही लगे कि जितना इन कामों में खर्च करते हैं वह बंद करके उसका आधा टैक्स देवें आधा बचत में रखें।
दूसरा टैक्स उन धनकुबेर, महंथ और पुजारियों पर लगे जो बेकामधाम के बैठे ती का माल मलीदा चाभबैठे दूसरों का मु-चाभ कर उत्तानपाद हो रहे हैं। जिनको दीन दुनिया से कुछ नेह-नाता नहीं है। संसार में आगे लगे चाहे ब्रज पड़े, मरकी माहमारी आए चाहे हैजा हो, विकराल अकाल धरती धुआंधार हो, चाहे युद्ध से संसार का संहार हो, इनकी सदा पाचों घी में हैं।
तीसरा टैक्स उनपर लगे जो अपने देश मंे बनी अच्छी चीज छोड़कर शौक से बड़े आदमी बनने के लिए विलायती चीज खरीदते हैं।
चौथा टैक्स उन ब्रज कृपण कंजूसों पर लगे जो अपना धन धरती मंे गाड़ रखते हैं। आप खाते हैं न दूसरों को खिलाते हैं। न किसी रोजगार में लगाते हैं न लोकोपकार में खर्च करते हैं। सांप की तरह फन काढ़े उस धन पर रखवार बनकर बैठे हैं। यदि कोई उनसे भलाई के काम में खर्च करने के लिए कहने आता है तो उसपर ऐसे फुफुआते हैं कि वह सिर से पांव तक झुलस का भाग जाता है।
पांचवा टैक्स नारद के उन वंशधरों पर लगे जो सदा अपना धन मुकदमें बाजी में लगाकर स्वाहा करते हैं ओर खाली हो जाने पर लोगों को आपस में लड़ाकर घर फूंक देखते हैं। उनको अदालत का दरवाजा देखे बिना रोटी हजम नहीं होती। बात-बात में मुकदमा लड़े बिना पानी नहीं पचता।
छठा टैक्स उनी धनी धनदूसरों पर लगे जो बैकुण्ठ के गुमाश्ते बनाकर काशी, मथुरा, प्रयाग, पुरी, गया, रामेश्वर, द्वारिका आदि धामों में बैठकर यात्रियों को धेनु गाय की तरह फूंका देकर दुहते हैं और लोक शिक्षा, देश शिक्षा एवं सर्वाहित के लिए कौड़ी खरच करने में जिनकी नानी मर जाती है।
सातवां टैक्स उन नादिहंद करमुंहों पर लगे जो सालभर साहूकार की तरह नियम से अषवार डकारते चले जाते हैं लेकिन दाम देने के समय लुआठ दिखाते हैं, मांगने पर किवाड़ बंद कर लेते हैं, निवेदन करने पर निबुआ नून ट हो जाते हैं और नाट नोन चाटते हें और वी पी भेजने से कभी ले या नाट क्लेम्ड का जामा पहन कर घाघरे की आर में छिप जाते हैं।
इतना कह चुकने पर ‘एवमस्तु-एवमस्तु’ की इतनी बुलंद आवाज आई कि आसमान फटने लगा मैं भी आवाज सुनकर उठ बैठा तो देखा चौकीदार जागते रहो, जागते रहो, कहकर चिल्ला रहा था। अब कहीं न होली है न होली की आग है। होश में आया तो अभी फागुन की फसल चारों ओर हरी भरी खड़ी है। लोग खेत खलिहान में एंेडे़, गौंड़े, राह, घाट सर्वत्रा होरी और कबीर बोलते है। ‘यह सपना मैं कहों विचारी, होईहें सत्य गए दिन चारी’।
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