झारखंड के कण-कण में शिव की व्‍याप्ति

झारखंड का कंकर कंकर शंकर है। जहां देखिए, जहां खोदिए, वहीं कोई न कोई शिव लिंग का दर्शन हो जाता है। शिव का एक नाम झारखंडे भी है। अपने पूर्वी उत्तरप्रदेश में कई लोगों के नाम झारखंडे है। राज्य का नाम भी झारखंड। राज्य के नामकरण के पीछे शिव हैं या यहां का झाड़-झंखाड़, कहना मुश्किल है। हिंदी के महान कवि जयशंकर प्रसाद का एक नाम झारखंडे था। प्रसाद के पिता जी ने देवघर के बाबा शिव से आरजू की थी। पुत्र हुआ तो नामकरण देवघर में हुआ। देवघर शिव का घर है। वैसे, इसे देवताओं का घर भी कह सकते हैं। रांची पहाड़ी की सबसे ऊंची चोटी पर भगवान शिव विराजमान हैं। श्रद्धालु इन्हें पहाड़ी बाबा भी कहते हैं। यह मंदिर कितना प्राचीन है, कहना मुश्किल है। इस पहाड़ी की दूसरी गाथा भी है। अंग्रेजों ने कई स्वतंत्रता सेनानियों को यहीं पर फांसी पर लटकाया गया। रांची के बेड़ो महादानी शिव हैं। देवड़ी के पास हाराडीह में शिव मंदिर मिला है। आम्रेश्वर धाम विख्यात है हीं। सोनाहातू गांव में भी प्राचीन शिव मंदिर है।

360 शिवलिंग
भगवान शिव के ही एक अंश माने जानेवाले अनन्य राम भक्त हनुमान का ननिहाल झारखंड में ही है। उसे आंजन ग्राम के रूप में जानते हैं। गुमला जिले के अवस्थित आंजन ग्राम ही माता अंजनी और हनुमान का जन्मस्थल माना जाता है। गांव की सीमा पर स्थित एक पहाड़ी को आंजन पहाड़ भी कहा जाता है, जिसमें एक गुफा है। धार्मिक मान्यता के अनुसार उसी गुफा में भगवान रुद्र स्वरूप हनुमान का अवतार हुआ था। एक मान्यता के अनुसार इस गांव में प्राचीन काल में 360 तालाब व उतनी ही संख्या में शिवलिंग थे। माता अंजनी में भगवान शिव की अनन्य भक्ति थी, जो प्रतिदिन एक-एक तालाब में स्नान कर एक-एक शिवलिंग की पूजा करती थीं। अब भी गांव में सौ से अधिक शिवलिंग मौजूद हैं, जो विभिन्न आकार-प्रकार के हैं। अंजनी गुफा में प्राचीन काल से स्थापित अंजनी माता की सुंदर प्रस्तर-प्रतिमा को आंजन गांव में एक मंदिर बना कर स्थापित कर दिया गया है। साथ ही मंदिर में एक सुंदर प्रतिमा भी स्थापित की गई है। इस तीर्थ की सबसे बडी विशेषता यह है कि वहां स्थापित प्रतिमा में माता अंजनी शिशु हनुमान को स्तनपान कराती दिखाई गई हैं। कहते हैं, इस मुद्रा की प्रतिमा देश के अन्य किसी भी तीर्थ में सुलभ नहीं है। आंजन ग्राम को भगवान शिव के श्रद्धालु भक्त विशेष फलदायक तीर्थ मानते हैं। ऐसा विश्वास है कि अंजनी गुफा के अंदर ही अंदर एक सुरंग है, जो पास बहने वाली खटवा नदी तक जाती है तथा जिससे होकर अंजनी माता नदी तक स्नान करने जाती थीं। अभी भी दूर दराज से लोग अंजनी माता के दर्शन करने आते हैं तथा खटवा नदी में स्नान कर भगवान शिव की पूजा-अर्चना करते हैं। इस स्थान को सिद्ध स्थल माना गया है और ऐसा विश्वास है कि यहां मनौतियां बहुत जल्दी फलवती होती हैं। विशेष कर सुयोग्य पुत्र प्राप्त होने की मनौती। गुमला में ही टांगीनाथ मंदिर है। इसे 12 वीं शताब्दी का माना जाता है। पहाड़ की चोटी पर स्थित मंदिर के पास एक विशाल त्रिशूल है। इस पहाड़ पर हजारों शिवलिंग बिखरे पड़े हैं। जहां खुदाई कीजिए, एक शिवलिंग निकल आता है।
गुमला के ही सिसई प्रखंड के नागफेनी गांव में प्रसिद्ध शिव मंदिर है। माना जाता है कि झारखंड में शैव मत वाले सर्वाधिक थे। इसीलिए यहां पर शिव लिंग काफी संख्या में मिलते हैं।

लोहरदगा के खखपरता शिव मंदिर के परिसर में सातवीं शताब्दी की 6 मूर्तियां मिली हैं। यहां मंदिर को भव्य रूप दिया गया और इस पर ओडिया शैली का प्रभाव है। यह अब पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है।
हजारीबाग में बाराकर नदी के पास दूधपानी नाम की जगह है। वहां से 1894 में कुछ अभिलेख मिले थे। लिपि के आधर पर अभिलेख का काल 8वीं शताब्दी माना गया है। दूधपानी के पास ही दुमदुमा है। वहां पालकालीन (8वीं से 12वीं शताब्दी) मूर्तियां, पत्थर के अवशेष और शिवलिंग प्राप्त हुआ है। इसी जिले के मांडू प्रखंड के तिलैया गांव में तीन सौ साल पुराना शिव मंदिर है। विष्णुगढ़ में भी शिव का प्राचीन मंदिर है। गढ़वा के भवनाथपुर, कोडरमा, पूर्वी सिंहभूम के चित्रेश्वर मंदिर, धनबाद के झिझनी पहाड़ी पर 11 वीं शताब्दी का शिव मंदिर, राजमहल की पहाड़ी का शिव गद्दी, ढालभूम का कपिलेश्वर मंदिर अपने अतीत की याद दिलाते हैं। बेनी सागर की खुदाई में कई शिव मंदिर मिले हैं, मिल रहे हैं। बासुकी नाथ को कौन भूल सकता है।
रामगढ़ का प्राचीन कैथा मंदिर भी शिव को समर्पित है। इसी जिले में  पंद्रह सौ वर्ष पुरानी टूटी झरना मंदिर भी है। मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि मां गंगा जल अर्पित करती हैं। शिव लिंग पर एक टूटी है, जिससे पानी निकलते रहता है। लोग मानते हैं कि इसका स्रोत गंगा हैं। कोडरमा का ध्वजाधारी धाम भी प्राचीन है। यहां जिले के अलावा गिरिडीह, हजारीबाग, धनबाद, बिहार के नवादा व गया से सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। ध्वजाधारी धाम में 777 सीढ़ी चढ़कर श्रद्धालु बाबा भोले को जलाभिषेक करते हैं।

पूर्वोत्‍तर में दो ऐतिहासिक समझौते

-ए. सूर्यप्रकाश

ऐसे समय में जब नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) के बारे में भ्रामक प्रचार किया जा रहा है और कुछ लोगों की शय पर इसे वापस लेने के लिए आंदोलन चलाया जा रहा है, नरेन्‍द्र मोदी सरकार पूर्वोत्‍तर में अल्‍पसंख्‍यकों और जातीय विवादों से जुड़े लम्बित मुद्दों के समाधान के लिए शांतिपूर्वक अपना कार्य कर रही है।
हालांकि, सीएए सुर्खियों में है, केन्द्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह ने 50 वर्ष पुरानी बोडो समस्‍या और त्रिपुरा में ब्रू-रियांगों के पुनर्वास के 23 वर्ष पुराने मुद्दे को समाप्‍त करने के लिए दो महत्‍वपूर्ण समझौतों पर हस्‍ताक्षर करने का संचालन किया।
बोडो से जुड़ा जातीय विवाद अब तक 4000 से ज्‍यादा लोगों की जान ले चुका है, लेकिन हाल ही के समझौते के साथ, समस्‍या का एक स्‍थायी समाधान ढूंढ़ लिया गया है। भारत सरकार, असम सरकार और बोडो उग्रवादियों के बीच हुए एक ऐतिहासिक समझौते के अंतर्गत, केन्‍द्र ने बोडो इलाकों में कुछ विशेष परियोजनाओं के विकास के लिए 1500 करोड़ रुपये का विकास पैकेज देने की प्रतिबद्धता व्‍यक्‍त की है। बदले में, करीब 1500 सशस्‍त्र कैडर हिंसा त्‍याग देंगे और मुख्‍यधारा में शामिल हो जाएंगे। समझौते के बाद सरकार ने कहा कि बोडो द्वारा रखी गई मांगों के लिए एक विस्‍तृत और अंतिम समाधान ढूंढ़ लिया गया है। अब, अनेक वर्षों के विवाद के बाद, बोडो गुट हिंसा का रास्‍ता छोड़ देंगे, हथियार डाल देंगे और अपने संगठनों को बंद कर देंगे। केन्‍द्र और असम सरकार इन कैडरों में से 1500 के पुनर्वास के लिए कदम उठाएगी।
इस ऐतिहासिक बोडो समझौते से कुछ दिन पूर्व, गृह मंत्री श्री अमित शाह ने इन शरणार्थियों के 23 वर्ष पुराने संकट को समाप्‍त करने के लिए केन्‍द्र सरकार और त्रिपुरा तथा मिजोरम की सरकारों और ब्रू-रियांग के प्रतिनिधियों के बीच नई दिल्‍ली में समझौते पर हस्‍ताक्षर के दौरान उसका संचालन किया था। इस समझौते से त्रिपुरा में ब्रू-रियांग स्‍थायी रूप से बस सकेंगे और पुनर्वास पैकेज में 600 करोड़ रुपये की लागत आएगी।
ब्रू-रियांग शरणार्थियों की 23 वर्ष पुरानी समस्‍या नासुर बन गई थी। मिजोरम में 1997 में उत्‍पन्‍न जातीय तनाव के बीच उस वक्‍त इसकी उत्‍पत्ति हुई, जब करीब करीब 30,000 सदस्‍यों के साथ 5000 परिवार राज्‍य से भाग गए और उन्‍होंने त्रिपुरा में शरण ले ली। इन लोगों को उत्‍तरी त्रिपुरा में अस्‍थायी शिविरों में रखा गया। चूंकि विस्‍थापित जनजातियों की समस्‍या बनी हुई थी, 2010 के बाद ब्रू-रियांग के पुनर्वास के लिए कुछ प्रयास किए गए। 5000 परिवारों में से, करीब 1600 परिवारों को मिजोरम वापस भेज दिया गया और केन्‍द्र सरकार ने त्रिपुरा और मिजोरम सरकारों की सहायता की पहल की। मोदी सरकार की पहली प्रमुख पहल जुलाई, 2018 में देखने को मिली, जब सरकार ने एक समझौते पर हस्‍ताक्षर किए, जिसके परिणामस्‍वरूप इन परिवारों को दी जाने वाली सहायता बढ़ा दी गई। इसके बाद 1369 सदस्‍यों के साथ 328 परिवार मिजोरम लौट आए, लेकिन इसके बाद ब्रू आदिवासी एक ऐसा समाधान चाहते थे, जिससे वे त्रिपुरा में स्‍थायी रूप से बस सकें। उनका मानना था कि वे राज्‍य में अधिक सुरक्षित रहेंगे।
नवीनतम समझौते से करीब 34,000 ब्रू-रियांग लाभान्वित होंगे, जो त्रिपुरा में छह शिविरों में रह रहे हैं।
जनजातीय अनुसंधान और सांस्कृतिक संस्थान, त्रिपुरा के अनुसार त्रिपुरा में रियांग दूसरा सबसे बड़ा जनजातीय समुदाय है और उसे भारत के 75 आदिम आदिवासियों में से एक के रूप में मान्‍यता दी गई है। ऐसा कहा जाता है कि रियांग म्‍यांमार के शान राज्‍य से आए, चटगांव पहाड़ी क्षेत्रों और उसके बाद त्रिपुरा चले गए। एक अन्‍य समूह था, जो 18वीं शताब्‍दी के दौरान असम और मिजोरम के रास्‍ते त्रिपुरा आया।
संस्‍थान का कहना है कि रियांगों की आबादी 1.88 लाख है और वे दो प्रमुख कुटुम्‍बों मेस्‍का और मोल्‍सोई में बंटे हुए हैं। ये अभी भी खानाबदोश आदिवासी हैं और इनकी बड़ी संख्‍या पहाड़ की चोटियों में झूम खेती पर निर्भर करती है। इनकी भाषा कोबरू के नाम से जानी जाती है। इनकी एक बड़ी आबादी वैष्णव सम्‍प्रदाय की अनुयायी है। रियांग के लोक जीवन और संस्‍कृति में उत्‍कृष्‍ट सांस्‍कृतिक संघटक है। इनमें सबसे लोकप्रिय होजागिरी नृत्‍य है, जिसे बांसुरी की मधुर धुन के साथ किया जाता है।
गृह मंत्री श्री अमित शाह के अलावा इस ऐतिहासिक हस्‍ताक्षर समारोह में त्रिपुरा के मुख्‍यमंत्री बिप्‍लव कुमार देव, मिजोरम के मुख्‍यमंत्री जोरम थंगा, पूर्वोत्‍तर लोकतांत्रिक गठबंधन के अध्‍यक्ष हिमंत बिस्‍व सरमा, त्रिपुरा के शाही परिवार के वंशज प्रद्योत किशोर देव बर्मा और ब्रू प्रतिनिधि मौजूद थे।
समझौते के अनुसार त्रिपुरा में रह रहे ब्रू परिवार के प्रत्‍येक सदस्‍य को एक भूखंड, चार लाख रुपये का फिक्‍स्‍ड डिपोजिट, दो वर्ष के लिए प्रति माह 5000 रुपये, दो वर्ष के लिए मुफ्त राशन और अपना घर बनाने के लिए 1.5 लाख रुपये दिये जाएंगे। भूखंड त्रिपुरा सरकार द्वारा प्रदान किया जाएगा।
गृह मंत्रालय ने ब्रू आदिवासियों के सामने मौजूद समस्‍या को समाप्‍त करने के लिए गंभीर प्रयास शुरू कर दिए थे। गृह मंत्री श्री अमित शाह ने कुछ माह पूर्व दोनों राज्‍य सरकारों और ब्रू लोगों को एकसाथ लाने का फैसला किया। उन्‍होंने ब्रू लोगों के मिजोरम में पुनर्वास के प्रयासों की बजाय उन्‍हें त्रिपुरा में बसाने की पहल को समर्थन देने के लिए त्रिपुरा के नरेश और विभिन्‍न आदिवासी समूहों से भी बातचीत की। जैसा कि श्री शाह ने हाल ही में हस्‍ताक्षर किये गये समझौते के बाद कहा, यह प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी की ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्‍वास’ नीति और पूर्वोत्‍तर के लम्बित विषयों के समाधान पर उनके जोर देने का हिस्‍सा है।
दोनों समझौतों से नरेन्‍द्र मोदी सरकार की कुशाग्रता का पता लगता है, जो पूर्वोत्‍तर के लम्बित विषयों का समाधान करना चाहती थी और इन राज्‍यों को विकास के ऊंचे रास्‍ते पर ले जाना चाहती है।
फिर भी पूर्वोत्‍तर में इन सकारात्‍मक पहलों से बेखबर, कुछ असंतुष्‍ट अल्‍पसंख्‍यक गैर-मुद्दों पर आंदोलन जारी रखे हुए हैं।
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Chairman, Prasar Bharati

;ये लेखक के अपने निजी विचार हैं। इसके प्रकाशित तथ्‍यों के लिए वे खुद उत्‍तरदायी हैं। ब्‍लागर की सहमति जरूरी नहीं।

तेलंगा खडिय़ा के वंशजों की कौन सुध लेगा

झारखंड में शहीदों के प्रति वह सम्मान नहीं दिखता, जो दूसरे प्रदेशों में दिखता है। देश-समाज के लिए शहीद हुए वीर पुरुष यहां आदिवासी बनाम गैरआदिवासी में बंटे हुए हैं। किस-किस शहीद को याद करना है, किनकी स्मृति में सभा-गोष्ठी करनी है, यह सब कुछ हम अपने पूर्वाग्रह के हिसाब से तय करते हैं। इसलिए, झारखंड के बहुत से नायकों के जीवन के बारे में मुकम्मल व प्रामाणिक जानकारी नहीं मिल पाती। इस राज्य को बने भी अब दो दशक हो गए, लेकिन जो सरकारें यहां आती-जाती रहीं, उनकी चिंता में भी कर्मकांड से अधिक कुछ नहीं रहा। बहुत हुआ तो बेढंग की प्रतिमा लगवा दी और शहीद के गांव को आदर्श गांव का दर्जा दे दिया, लेकिन इसके बाद गांव की सुधि कोई लेता नहीं। शहीद के वंशज हैं तो उन्हें भी घोषणाओं की लड़ी थमा देना है। बस।   
रविवार को हमने अमर शहीद तेलंगा खडिय़ा का 215 वां जन्मदिन मनाया, लेकिन गुमला जिले के सिसई प्रखंड का मुरगू गांव आज भी उपेक्षित व बदहाल है। इसी गांव में 215  साल पहले तेलंगा खडिय़ा का जन्म हुआ था। 9 फरवरी 1806 को जन्म हुआ था। पिता का नाम ठुइंया खडिय़ा व माता का नाम पेटी खडिय़ा था। पत्नी का नाम रतनी खडिय़ा, दादा का नाम  सीरु खडिय़ा व दादी का नाम  बुची खडिय़ा। सुदूर गांव के इस नायक ने अंग्रेजों से लोहा लिया था, तब जब कोई साधन नहीं रहा होगा। जब आज भी गांव उपेक्षित है तो दो सौ साल पहले साधनों का क्या हाल रहा होगा, इसकी कल्पना कर सकते हैं।
पर, दुख इस बात का है कि जिसने एक सुंदर भारत का स्वप्न देख शहीदी को गले लगाया, उसके वंशज आज दर-बदर हो रहे हैं। तेलंगा खडिय़ा के परिवार और उनके वंशजों को आज भी सरकार की ओर से कोई सुविधा या काम उपलब्ध नहीं हो सका। हमारी सरकार को भी पता होना चाहिए कि तेलंगा खडिय़ा के शहीद होने के बाद अंग्रेजी हुकूमत में स्थानीय जमींदारों की मदद से खडिय़ा परिवार को मुर्गू गांव से खदेड़ दिया गया था। उनकी जमीन भी हड़प ली गई। घर को बर्बाद कर दिया गया। अब मुर्गू गांव में शहीद तेलंगा खडिय़ा की एक प्रतिमा है, जहां जयंती व पुण्यतिथि पर दो फूल लोग चढ़ा आते हैं। उनके वंशज सिसई प्रखंड के पहाड़ और जंगल से घीरे गांव घाघरा में जाकर  रहते हैं। गांव में जाने के लिए सड़क की स्वीकृति मिले सालों हो गए, लेकिन सड़क नहीं बन पाई। तेलंगा खडिय़ा के वंशज सोमरा पहान कहते हैं कि बड़ा विचित्र हाल है। उन लोगों का हाल देखने सुनने और जानने के लिए न कोई अधिकारी आता है और न ही कोई विधायक सांसद ही। सबके सब शहीद तेलंगा खडिय़ा का गुणगान करते हैं कभी मन हुआ तो धोती चादर ओढ़ाकर सम्मान करते हैं, इससे आगे कुछ नहीं। तेलंगा खडिय़ा के वंशज जरगो पाहन, सुमेश खडिय़ाइन, चामा खडिय़ा, सुका खडिय़ा, प्रधान खडिय़ा, सोहरी खडिय़ा, गंगा खडिय़ा, बिरसा खडिय़ा, शनिचरवा खडिय़ा, वासु खडिय़ा, मोना खडिय़ा, करमचंद खडिय़ा, मांगू खडिय़ा, तेवस खडिय़ा, घासी खडिय़ा, संतोष खडिय़ा,जोगिया खडिय़ा, बिनू खडिय़ा, संजु खडिय़ा की कोई खोज-खबर भी नहीं लेता।
तेलंगा ने गुरिल्ला लड़ाई लड़ी थी। कुम्हारी से गिरफ्तार हुए थे अबौर लोहरदगा में मुकदमा चला था। 14 साल की सजा हुई। सजा काटकर आए तो उनके विद्रोही तेवर और भी तल्ख हो गए। विद्रोहियों की दहाड़ से जमींदारों के बंगले कांप उठे। जोड़ी पंचैत फिर से जिन्दा हो उठा और गुरिल्ला युद्ध प्रशिक्षणों का दौर शुरू हो गया। बसिया से कोलेबिरा तक विद्रोह की लपटें फैल गईं। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, हर कोई उस विद्रोह के लिए उठ खड़ा हुआ। तेलंगा जमींदारों और सरकार के लिए एक भूखा बूढ़ा शेर बन चुके थे। दुश्मन के पास एक ही रास्ता था- तेलंगा को मार गिराया जाए। 23 अप्रैल 1880 को तेलंगा समेत कई प्रमुख विद्रोहियों को अंग्रेजी सेना ने घेर लिया। तेलंगा गरजा-हिम्मत है तो सामने आकर लड़ो। कहते हैं तेलंगा की उस दहाड़ से इलाका थर्रा गया था। युद्ध कौशल से प्रशिक्षित विद्रोहियों से सीधी टक्कर लेने की हिम्मत दुश्मन में नहीं थी। सिपाही बेधन सिंह ने झाडिय़ों में छिपकर तेलंगा की पीठ पर गोली चला दी। बेहोश तेलंगा के पास आने की भी हिम्मत दुश्मनों में नहीं थी। मौके का फायदा उठाकर विद्रोही तेलंगा को ले जंगल में गायब हो गए। तेलंगा फिर कभी नजर नहीं आए। कहते हैं कि वह तारीख 23 अप्रैल 1880 थी। उन्हें गुमला के चंदाली में दफनाया गया। खडिय़ा लोकगीतों में आज भी तेलंगा जीवित हैं। 

आदिम जनजाति कोरवा की जंगल से होती है भूख शांत


कोरवा आदिम जनजाति है। माना जाता है कि यह झारखंड में मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ से आई है। कोरवा भी मुंडा जनजाति की उपशाखा है। इनका संबंध महान कोलेरियन प्रजाति से है। गढ़वा के 12-13 गांवों में इनकी प्रमुख आबादी है। वैसे, लातेहार, पलामू, चतरा, कोडरमा, दुमका व जामताड़ा में भी कोरवा रहते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार इनकी आबादी महज 35606 है। आजादी के सात दशक बाद भी गढ़वा जिला मुख्यालय से 80 किमी दूर बडग़ड़ प्रखंड में कई पीढिय़ों से रह रहे आदिम जनजाति कोरवा की स्थिति में जस की तस है। दर्जनों योजनाएं यहां तक पहुंच ही नहीं पाती। सरकार भी सोचती है, इतनी दूर क्यों जाना? सो, योजनाओं का लाभ भी ठीक से नहीं मिल पाता। अधिकारियों की मजबूरी या फिर कोटा पूरा करने की गरज से कोई अधिकारी इधर पहुंच गया तो कुछ लाभ इन्हें मिल पाता है। वही काम करते हुए, जो उनके पुरखे करते आ रहे थे, उसी से दो जून की रोटी का जुगाड़ होता है और पेट की भूख शांत। 
जंगल व पहाड़ों में वे सदियों से जीते आ रहे हैं। जंगल ही इनका पेट पालता आ रहा है। रहन-सहन में भी कोई खास बदलाव नहीं आया है। तन ढंकने के लिए अभी भी वही फटे पुराने कपड़े व गंजी, लुंगी। अभी यह जनजाति 15 साल पहले बने बिरसा आवास में रहती है। इसकी हालत भी अब खस्ता हो चुकी है। आर्थिक उपार्जन का मुख्य स्रोत वनोत्पाद महुआ, डोरी, सत्तावर, लासा, तेंदु पत्ता, महुलाम पत्ता, पलाश फूल, सूखी लकडिय़ां ही हैं, जिन्हें बेचकर अपनी दैनिक व आवश्यक जरूरतों को पूरा करते हैं। आज भी कंदा गेठी उनका मुख्य आहार बना हुआ है।

पहाड़ी की तलहटी में आवास
कोरवा प्रखंड क्षेत्र में अधिकांशत: पहाड़ी की तलहटी में बसी है। बडग़ड़ प्रखंड क्षेत्र में आदिम जनजाति परिवार की कुल आबादी लगभग 350 है। वे वर्तमान में कोरहट्टी, कोचली, कोरवाडीह, बहेराखांड़, टोटकी, मदगडी़, संगाली, सरुअत, हेसातु आदि गांव में रह रहे हैं। सरकार द्वारा प्रदत्त सुविधाए इनके गांवों में नगण्य ही हैं। गांवों में पहुंच पथ का घोर अभाव है। आज भी लोग कच्चे रास्ते के सहारे आवागमन करते हैं। सरकारी योजनाओं में अभी तक इन्हें बिरसा आवास व खाद्यान्न योजना का ही लाभ मिल सका है।
 

महादेव-पार्वती की आराधना
 कोचली निवासी सुकन कोरवा, रामलाल कोरवा, सिकुन कोरवा, रुबी कोरईन, पार्वती देवी आदि कहती हैं कि जनवरी माह में सोहो का त्योहार मनाते हैं। इसमें वे सभी महादेव तथा पार्वती की आराधना करते हैं। पर्व के दिन गांव में सामूहिक भोज की व्यवस्था की जाती है, जिसमें आसपास के गांवों में बसे कोरवा समुदाय के लोग एकत्रित होते हैं। साथ ही सामूहिक रूप से ढोल, नगाड़ा व मांदर की थाप के बीच नृत्य-संगीत भी होता है। सरहुल व करमा भी धूमधाम से मनाते हैं। बोलचाल की भाषा कोरवा, नागपुरी या सादरी व हिंदी है। बीमार हो गए तो झोलाछाप चिकित्सकों की शरण लेनी पड़ती है। समुदाय अभी भी झाडफ़ूंक में भरोसा रखता है। कृषि के साथ मजदूरी भी करते हैं। कोरवा में शिक्षा का स्तर बहुत कम है। कोचली गांव में एक भी व्यक्ति स्नातक नहीं है और न ही सरकारी  नौकरी में। गांवों में शुद्ध पेयजल की भी व्यवस्था नहीं है। अभी भी लोग नदी-नालों के चुआंड़ी व कुआं का जल पीने को विवश हैं।

देवता का घर
कोरवा चाहे जंगल में रहे, पहाड़ की तलहटी में या मैदानी इलाकों में। उनका एक प्रमुख घर होता है, जिसे वे देवता का घर कहते हैं। वह इसलिए भी कहते हैं कि एक दीवार पर देवी-देवता का वास होता है। इसे भसार घर भी कहा जाता है, क्योंकि यहां भोजन बनाने के बाद रखा जाता है तथा यहीं से परोस कर खिलाया जाता है। इस घर को भंडार भी कहते हैं।

पर्व-त्योहार में बलि
कोरवा पर्व-त्योहार पर पाठा, बकरा, मुर्गा, सूअर, बत्तख की बलि दी जाती है। बरसात के दिनों में नदी, झरना, तालाब या खेत में मछली, केकड़ा, कछुआ तथा घोंघा पकड़कर उसे बनाकर खाते हैं। पर्व पर पीठा भी बनता है। कोरवा सामान रखने के लिए सूप, सुपली, दौरा, झापी, पैती, चटाई आदि रखते हैं। कोरवा के घरों में शिकार उपकरण के रूप में जाल, फंदा, चिलउन, बंसी, भाला, बरछा, तीर-धनुष व गुलेल रखते हैं। इनकी सहायता से ये शिकार करते हैं। 

घटती बढ़ती रही है आबादी
1872 में कोरवा जनजाति की आबादी 5,214 थी। 1911 में 13,920, 1931 में 13,021 1961 में 21,162, 1971 में 18,717, 1981 में 21,940 रही। इस तरह इनकी आबादी घटती-बढ़ती रही।

जेवर-गहना के प्रति लगाव
इस क्षेत्र में अन्य जातियों तथा जनजातियों के साथ रहने वाले कोरवाओं की स्त्रियों का भी जेवर-गहनों के प्रति लगाव है। निर्धनता के कारण ये चांदी के गहने पाने में असमर्थ हैं। इनके स्त्रियों के शरीर पर अधिकतर गिलट तथा तांबे के गहने होते हैं जो इन्हें आस-पास के साप्ताहिक बाजारों से उपलब्ध हो जाते हैं।
गोदना की परंपरा
अपना शारीरिक सौंदर्य बढ़ाने के ख्याल से अधिकांश कोरवा स्त्रियों गोदना गुदवाती है। गोदना सामान्यत: हाथ, सीने तथा घुटने से लेकर एड़ी तक गोदा जाता है। गोदने में अधिकतर हाथी, फूल तथा तारों के चित्र बनाये जाते हैं।
धार्मिक विश्वास
कोरवा विश्वास करते हैं कि उनके आवासों के आस-पास की पहाडिय़ों और वृक्षों पर देवता और आत्माएं निवास करती हैं। यदि समय पर उन्हें उचित तरीके से प्रसन्न नहीं किया गया तो पूरे गांव या परिवार पर प्राकृतिक आपदा और दैवी प्रकोप होगा। ये लोग विभिन्न धार्मिक क्रियाकलापों के माध्यम से अलौकिक शक्तियों के संपर्क में रहते हैं। सभी कोरवा अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं। सिंगबोंगा (सूरज) इनका सर्वप्रथम देवता है। अन्य देवता जिनकी ये पूजा करते हैं उनमें चांद, धरती, दिहव, गोनहल, रखसाल, सावी, सतबह्नी, करमा और सरहुल आदि शामिल है।
जोहार से साभार



झारखंड का बेदिया आदिवासी हर 12 साल पर करता है सूर्याही पूजा

सूर्य पूजा की उपासना पूरी दुनिया में लोग करते हैं। दुनिया के आदिवासी भी अलग-अलग नामों से सूर्य की उपासना करते हैं। गायत्री मंत्र वस्तुत : सविता देवता की ही उपासना का मंत्र है। झारखंड के आदिवासी समुदाय भी सिंगबोंगा नाम से भगवान सूर्य की ही उपासना करते हैं। बिहार और यूपी में छठ की उपासना में सूर्य की ही पूजा की जाती है। इस पर्व की खासियत यह है कि यहां कोई पंडित नहीं होता। पहले डूबते सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है और अगले दिन उगते सूर्य का। यह उपासना चार दिनों का होता है और पवित्रता का पूरा ख्याल रखा जाता है। लेकिन झारखंड के बेदिया आदिवासी भी सूर्य की पूजा करते हैं, लेकिन 12 साल पर। कहीं-कहीं तीन या पांच साल पर भी किया जाता है। इसे ये सूर्याही या सूरजाही पूजा कहते हैं। कहीं इसे पूर्णिमा के साथ मनाया जाता है तो कहीं कुल के पुजारी से बात करके दिन तय कर मनाया जाता है। हालांकि इसके लिए निर्धारित महीना माघ व वैशाख है। यद्यपि कभी-कभी इसका भी पालन नहीं किया जाता है। संकल्प के लिए सूर्याही स्थान पर लोग बकरा ले जाते हैं। यह स्थान गांव के बाहर होता है और यह उनकी जाति या कुल का स्थान होता है। इस स्थान पर कुल का बड़ा पुरुष, जो उपवास किए हुए होता है और पवित्रता का पालन करता है, बकरे का अभिषेक करता है। पहले पूजा के बाद बकरे को जंगलों में छोड़ दिया जाता था, लेकिन अब ऐसा देखा जाता है कि पूजा के बाद भी बकरे को बांध कर ही रख जाता है। पूजा की निर्धारित तिथि के आठ-दस दिन पहले ही जाति-बिरादरी वालों की शादी-विवाह की तरह ही न्योता देने का प्रावधान या परंपरा है। सभी लोग सूर्याही के लिए एकत्र होते हैं। बेदिया आदिवासियों द्वारा पारंपरिक रूप से सूर्याही पूजा में में बेदिया समाज के सगोत्र ही शामिल होते हैं। इसमें सगोत्र के रिश्तेदारों को भी निमंत्रण दिया जाता है। इसमें पुरोहित या पहान नहीं गोतिया के प्रमुख व परिवार की अगुवायी में ही पूजा करने की परंपरा है।
तीस घंटे का किया जाता है उपवास
छठ पूजा की तरह सूर्याही पूजा में भी लंबी उपासना व सूर्यदेव की पूजा की जाती है। सभी घरों से एक महिला व पुरुष (पति-पत्नी) 30 घंटे का उपवास रख पूजा करते हैं। उपवास से पूर्व संयोत भी करना होता है। उपासक अरवा चावल के आटा से पुआ बनाते हैं। शुरू के तीन से पांच पुआ बनाने में झंझरा का इस्तेमाल न कर हांथ से ही बनाते हैं। उसी पुआ को प्रसाद के रूप में ग्रहण कर संयोत कर उपवास करते हैं।
उगते र्सूय की होती है पूजा
पूजा के एक दिन पूर्व रात में उपासक पुजारी गांव के पूजा स्थल पर पहुंचते हैं। अरवा चावल (अक्षत) छींट कर सूर्यदेव को जगाते हैं। दीप जलाकर सुबह में पूजा करने व बलि चढ़ाने की आज्ञा लेते हैं। दूसरे दिन भोर में भगवान सूर्यदेव की पूजा व अराधना की जाती है।
बलि देने की परंपरा
सुबह भोर में पूजा करने के लिए पूजा स्थल पर जाने से पूर्व बलि देने वाले पशु को स्नान करा कर फूलमाला से संवारा जाता है। वहीं एक बच्चे को राजकुमार के रूप में तैयार कर उसे उसी पशु पर सवारी कर कर ढोल-ढाक बजाते हुए, सूर्यदेव का जय जयकारा करते पूजा स्थल ले जाया जाता है। कहीं-कहीं भगवान सूर्य को प्रसन्न करने के लिए सफेद बकरे की बलि दी जाती है, जबकि सूर्य को वैष्णव माना जाता है। जो परिवार बलि देता है, वह घर से दूर नदी किनारे चावल, सब्जी और खाना बनाने का सभी सामान, बर्तन भी ले जाता है। इसके बाद खाना वनाते औरा खाते हैं। बचे हुए मांस और खाना को जमीन में गड्ढा कर डाल देते हैं, ताकि कुत्ता भी न खा पाए।
सुख-समृद्धि की कामना
सिंदूर, धूप-धुअन, अगरबत्ती, आम पत्ता, वेलपत्र, दूध, चुका-ढकन, कसैली, अरवा चावल, सूप, टोकरी आदि जरूरी सामान से पूजा कर व पूजा स्थल में ही बलि दी गई पशु का प्रसाद सामूहिक रूप से सेवन करते हैं। आरा केरम के ग्राम प्रधान  गोपालराम बेदिया बताते हैं कि सूर्याही पूजा में सूर्यदेव की पूजा कर अपने कुटुंब व आने वाली पीढिय़ों के स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि और खुशहाली की कामना की जाती है। अमृत बेदिया कहते हैं कि अकाल मृत्यु व विपदा से बचने के लिए सूर्याही पूजा की जा रही है। यह एक अद्भुत परंपरा है, जिसे बेदिया आदिवासी करते हैं।


संथालियों का धर्मस्थल लुगूबुरू घंटाबाड़ी धोरोमगढ़

बेरमो अनुमंडल के गोमिया प्रखंड का ललपनिया इलाका। यहीं है लुगूबुरू  घंटाबाड़ी धोरोमगढ़। संथाली आदिवासियों का यहां से गौरवशाली अतीत जुड़ा है। यहीं है पहाड़ पर लुगू बाबा का मंदिर। संथाल आदिवासी मानते हैं कि लुगूबुरू पहाड़ में संत लुगू बाबा को मरांग बुरू के दर्शन हुए थे। यहीं पर संथाल आदिवासियों का पहला धर्म सम्मेलन हुआ जो 12 दिन व 12 रात चला। यहां पर ही संथालियों के सामाजिक संविधान की रचना हुई। लुगू बाबा ने संथाल आदिवासियों को अपने रीति रिवाज व पूजा पाठ की व्यवस्था से अवगत कराया। संदेश दिया कि जहां भी रहें अपनी भाषा व संस्कृति को न छोड़ें। यही वजह है कि संथाल आदिवासी दुनिया में कहीं भी रहें अपनी भाषा और संस्कृति का सहेजे हैं। लुगूबुरू घंटाबाड़ी धोरोमगढ़ के आसपास चट्टानों की भरमार है, जिन्हें इस समाज के लोग दोरबारी चट्टान कहते हैं।
पहाड़ की प्रत्येक जड़ी-बूटी करती औषधि का काम:
लुगू पहाड़ की प्रत्येक वनस्पति दवा की तरह काम करती है। मान्यता है कि सभी पौधों में लुगू बाबा की कृपा है इसलिए वह दवा की तरह फायदा करते हैं। इनका सेवन करने से लोग निरोग हो जाते हैं। यही वजह है कि यहां आने वाले लोग जड़ी-बूटी लेकर जाते हैं। पहाड़ से निकलने वाले झरना के पानी में भी औषधीय गुणों की बात कही जाती है।
मरांगबुरू हैं आराध्य :
संथाली आदिवासियों के आराध्य देव मारांगबुरू हैं। मारांग यानी बड़ा व बुरू मतलब पहाड़। बड़े पहाड़ में रहने वाले देवता। पारसनाथ पहाड़ में इनका वास माना जाता है।

जीवन में एक बार दामोदर जरूर आता है संथाल आदिवासी :

लुगू पहाड़ के साथ दामोदर नदी के साथ भी एक कथा है। संथाल समाज के लोग मानते हैं कि प्रत्येक संथाली आदिवासी को जीवनकाल में एक बार यहां आना आवश्यक है। यदि किसी कारणवश वह अपने जीवन में नहीं आ सका तो कम से कम उसकी मृत्यु के उपरांत उसके परिवार के सदस्य उसकी अस्थियां यहां दामोदर नदी में विसर्जित करें।
संथालियों के हर विधान में लुगूबुरू का जिक्र :
संतालियों के हर विधि-विधान एवं कर्मकांड में लुगूबुरू  का जिक्र है। इस समुदाय के लोकनृत्य एवं लोकगीत बिना घंटाबाड़ी के जिक्र के पूर्ण नहीं होते। जो लुगुबुरू के प्रति इनकी अटूट आस्था व विश्वास का प्रतीक है। संथाली समुदाय के दशहरा के मौके पर किए जाने वाले लोकनृत्य दशांय में भी लुगूबुरू घंटाबाड़ी धोरोमगढ़ का जिक्र आता है।

कार्तिक पूर्णिमा में होता धर्म महासम्मेलन
 लुगूबुरू घंटाबाड़ी धोरोमगढ़ में प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर संतालियों का धर्म महासम्मेलन होता है। इस सम्मेलन को राज्य सरकार ने राजकीय महोत्सव का दर्जा दिया है। वर्ष 2019 में 11-12 नवंबर को 19 वां सम्मेलन हुआ। इसमें मुख्य अतिथि झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू के अलावा देश-विदेश के लगभग 5 लाख श्रद्धालुओं ने भाग लिया था।
पेड़ की जटाओं से रिसता पानी संथालियों के लिए अमृत  :
लुगू पहाड़ की तलहटी में ही छरछरिया जलप्रपात है, वहां लगे बरगद के पेड़ की जटाओं से रिसते पानी को ये आदिवासी अमृत मानते हैं। इसलिए लुगूबुरु घंटाबाड़ी धोरोमगढ़ में पूजा-अर्चना करने के बाद बोतलों व अन्य बर्तनों में इसे भरकर ले जाते हैं। मान्यता है कि इसे पीने से असाध्य रोगों से मुक्ति मिल जाती है।
दैनिक जागरण से

राजमहल का माघी पूर्णिमा मेला

राजमहल में गंगा तट पर माघी पूर्णिमा मेला में झारखंड के अलावा बिहार, बंगाल, ओडिशा, असम एवं नेपाल के सनातन धर्म को मानने वाले सफाहोड़ समाज के अनुयायी अपने अपने जान गुरुओं के सानिध्य में मां गंगा, भगवान शिव व माता पार्वती का पूजन करने पहुंचते हैं। श्रद्धालुओं के इस महाकुंभ में आदिवासी समाज के साथ गैर आदिवासी भी शिरकत करते हैं। मेले की महत्ता इस बात से समझ सकते हैं कि 2016 में राज्य सरकार ने इसे राजकीय मेला का दर्जा दिया है।
आदिवासी सफाहोड़ समाज के श्रद्धालु गंगातट के अलावा बालू प्लाट, रेलवे मैदान, पुराना थाना परिसर, अनुमंडल कार्यालय परिसर, सिंहीदलान, अनुमंडलीय अस्पताल परिसर में भगवान शिव के लिए मांझी थान तथा मां पार्वती के लिए जाहेर थान बनाकर पूजा करते हैं। गंगा स्नान के क्रम में गंगा पूजन एवं मांझी थान व जाहेर थान में परंपरागत वाद्य यंत्रों की धुन पर पूजा की अनूठी परंपरा सभी को आश्चर्यचकित कर भारत की आदिवासी संस्कृति को अनूठे अंदाज में बयां करती है। पूजा के दौरान मरांग गुरु विशेष महत्व है। माना जाता है कि सफाहोड़ समुदाय की पूजन पद्धति हड़प्पाकालीन सभ्यता के समकक्ष है। मेला में अपने अपने अनुयायियों के साथ जान गुरुओं द्वारा अलग अलग अखाड़े भी लगते हंै। जान गुरु यहां परंपरागत तरीके से अपने शिष्यों के कष्टों के निवारण के लिए पूजा करते हैं। राजमहल के सूर्यदेव घाट, संगत घाट, काली घाट, गुदारा घाट में श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है।

आजादी के पूर्व भी लगता था माघी पूर्णिमा मेला
माघी पूर्णिमा मेला के प्रारंभ होने के वर्ष का कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं है। इस बारे में राजमहल के रहने वाले 93 वर्षीय पत्रकार हीरालाल राय बताते हैं कि आजादी के पूर्व से ही इस मेला को लगते हुए देख रहे हैं। पहले यह मेला सिर्फ आदिवासी व ग्रामीणों का माना जाता था, अब प्रशासनिक व राजनीतिक सहयोग ने इसे वृहद स्वरूप दे दिया है। मेले के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक महत्व को देखते हुए विधायक अनंत कुमार ओझा के प्रयास से इसे 2016 में राजकीय मेला का दर्जा मिला।

जब थी कबीला संस्कृति तब से हो रहा गंगा तट पर पूजन
मेले को लेकर कई किवदंती हैं। आदिवासी मानते हैं कि जब कबीला राज हुआ करता था तब विपत्तियों से बचने के लिए माघ पूर्णिमा को यहां गंगा तट पर भगवान शंकर की पूजा की जाती थी। तब से यहां श्रद्धालु पूजा करने आ रहे हैं। जान गुरुओं की मान्यता है कि भगवान श्रीराम ने भी इसी गंगातट पर आकर लंका पर विजय के लिए भगवान शिव की पूजा की थी।
दैनिक जागरण

पठार पर डूबते सूर्य और प्रेम की अमर गाथा


गीतामनी देवी ने चाय का स्टाल आज ही शुरू कर दिया। कारण, उसके पति सुनील बृजिया को पिछले नौ महीने से पर्यटन विभाग ने मानदेय नहीं दिया है। उसने सोचा कि अपने बच्चों का भरण-पोषण करने के लिए यह बेहतर विकल्प हो सकता है। नेतरहाट के इस मैग्नोलिया प्वाइंट पर प्रतिदिन आ रहे तीन सौ पर्यटकों से, बेशक, उसकी उम्मीद को उड़ान मिल सकती है।
इसमें उनका हाथ पति सुनील बृजिया भी बंटाते हैं। सुनील चाय बना रहे थे और गीतामनी पकौड़ी छान रही थीं। यह दुकान का पहला दिन था। अनुभव की कमी भले रही हो, उत्साह में नहीं। सुनील यहीं पर सफाई का काम करते हैं। सुनील ने सुना है मानदेय भी बढ़ गया है, लेकिन अब मिले तब तो पता चले। गीतामनी के सात बेटे हैं। बड़ा बेटा डाल्टनगंज में हास्टल में रहकर पढ़ता है। बाकी छोटे-छोटे बच्चे भी गीतामनी की मदद कर रहे थे।
पांचवीं तक पढ़े सुनील चुनाव को लेकर बहुत उत्साहित नहीं दिखते। उनका क्षेत्र मनिका विधानसभा में पड़ता है। उन्हें यह पता नहीं कि इस चुनाव में कौन खड़ा है और मतदान कब है? लेकिन वे उम्मीद जरूर जताते है कि जो भी सरकार बने, उनकी भी सुने। सुनील अपने टोले के बारे में कहते है कि यहां आदिवासी समुदाय के किसान और बृजिया के 60-65 घर होंगे। सुनील को पीएम आवास से पहली किश्त मिल चुकी है और पुराने घर के सामने ही नए घर की नींव रख दी गई। तीन फीट की दीवार भी खड़ी हो गई है। अब अगली किश्त का इंतजार कर रहे हैं। 
मैग्नोलिया पॉइंट के पास दो-तीन घर आदिवासियों के हैं, जहां सालों से पोचारा नहीं हुआ है। हां, यहां की फर्श पर नई टाइल्स बिछाई जा रही है। लोग आकाश की ओर टकटकी लगाए देख रह हैं, कब सूर्यास्त हो...।
इधर, गोधूलि बेला में आकाश सिंदूरी हो रहा था। दूर गायों के गले की लय में बजती घंटियां धीर-धीरे पास आती हुईं तेज हो रही थीं। गायों के गले में बंधी घंटियों और उनके खुरों की लय एक नए लोकतंत्र का राग रच रही थी। सड़क किनारे खड़े विमल 3500 फिट की ऊंचाई पर ढलती सांझ की हवा में सिहरन महसूस करते हुए कहते हैं कि इधर किसकी हवा बह रही है, कहना मुश्किल है? इस पसेरी पाट के टोले में 45 घरों में उरांव की आबादी ज्यादा है। कुछ दूसरे भी हैं। अभी सब धनकटनी में लगे हैं। नेता लोग दिन में आते है तो किसी से भेंट नहीं होती। सजग और सचेत युवा विमल विकास की बात करते हैं। वह अकेले नहीं हैं। विकास की बात रांची से 150 किमी दूर इस सुदूर पहाड़ के लोग भी करने लगे हैं। नेतरहाट तक आने वाली सड़कें पतली जरूर थीं, पर चमक रही थीं। यह चमक बनिया लकड़ा के चेहरे पर भी दिख रही थी। बनिया 68 के थे लेकिन 50 के लग रहे थे। वे 32 साल तक नेतरहाट स्कूल में क्लर्क रहे। उनकी बातों में साफगोई झलक रही थी। कहने लगे, पांच साल पहले इस सड़क पर चलना मुश्किल था। लेकिन अब रात-बिरात कोई डर नहीं। आदिवासियों का जीवन बदला है। अभी जो सोलर लाइट से सड़क उजियार दिख रही है, पांच साल पहले नहीं थी। घुप्प अंधेरे में सड़कें भी डराती थीं। महुआडांड़ के अजय उरांव कहते हैं कि लोकतंत्र में आदिवासियों का विश्वास बढ़ा है। नक्सलियों के तंत्र कमजोर हुए हैं। आदिवासी समाज तो पहले से ही लोकतांत्रिक रहा है। हमारा विश्वास समूह और समुदाय में है। यह और मजबूत हुआ है। आदिवासी अब किसी जात-पांत में नहीं बंटते। उन्हें विकास चाहिए। जो विकास करेगा, वह जितेगा। अजय यह कहना नहीं भूलते कि पहले तो नेतरहाट की घाटी में दिन में भी दो पायों से डर-भय लगता था। अब तो कभी भी गुजर सकते हैं। इसके पीछे लोकतांत्रिक चेतना ही है। अब आदिवासी समाज फिर से उस परंपरा को जीवित कर रहा है। समाज और समुदाय की आस्था भी मजबूत हुई है। सांझ गहरा गई थी... इस पहाड़ पर पार्टी का शोर सुनाई पडऩे लगा था...।