सेरेंगसिया के शहीद

सेरेंगसिया घाटी शहीदों की याद दिलाती है। यह अतीत का एक पन्ना है, जिस पर बहुत कम चर्चा होती है। यह उस आंदोलन की याद दिलाता है, जिसमें अंग्रेजों को हो आदिवासियों ने अपनी बहादुरी से पस्त कर दिया था।  
घटना सन् 1820-21 की है। अंग्रेजों के खिलाफ कोल्हान में चले विद्रोहों पर काबू पाने में ब्रिटिश अफसरों को सफलता मिल चुकी थी। कोल्हान क्षेत्र में हुए दर्जनों विद्रोहों पर काबू पाने के बाद कोल विद्रोह को शांत करना उनके लिए बड़ी उपलब्धि मानी गई। लेकिन, अंग्रेजों को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिए सत्ता हासिल करनेवाली ब्रिटिश सरकार को ही आदिवासियों से समझौता करना पड़ा। तब के कमिश्नर थामस विल्किंसन से औपचारिक समझौते के बाद विल्किंसन रूल बना। इसके तहत स्थानीय स्वशासन व्यवस्था की स्वायत्तता को संवैधानिक मान्यता मिल गई, लेकिन, उनका दमन चक्र चलता रहा। जब इस दमन का दायरा बढ़कर बच्चों और महिलाओं तक आया तो स्वभावगत लड़ाके हो आदिवासी इसे कबूल नहीं कर पाए। इसक बाद 1831-32 में विद्रोह फूट पड़ा, जिसे इतिहास में कोल विद्रोह के नाम से दर्ज किया गया। इस विद्रोह में अंग्रेजों का काफी नुकसान हुआ। हालांकि अंग्रेजों ने पूरी ताकत से इस कोल विद्रोह भी दबा दिया। 
इसके बाद 18 जनवरी 1833 को सरायकेला में हिल असेंबली बुलाई गई। इसमें कुछ मुंडा मानकी सरदारों ने कंपनी शासन की अधीनता स्वीकार कर ली। फरवरी 1837 तक अंग्रेजों ने पुलिसिया कार्रवाई की बदौलत बाकी बचे गांवों में अपनी हनक कायम कर ली। इसके बाद दक्षिण-पश्चिम सीमांत एजेंसी की स्थापना हुई और थामस विल्किंसन को एजेंसी का एजेंट बना दिया गया। इसके बाद तो विद्रोह की ज्वाला धधक उठी। इस आग ने इस घाटी को अपनी चपेट में ले लिया। 
सेरेंगसिया घाटी की कहानी यहीं से शुरू होती है। राजबासा पीड़ (इलाका) के पोटो सरदार के नेतृत्व में 22 पीड़ों के लोगों ने विद्रोह का बिगुल बजा दिया। कंपनी की सेना कई मौकों पर मुंह छिपाकर भागी। इससे हो लड़ाकों का हौसला बढ़ा। वालंडिया में गुप्त सभा हुई। इसमें सेरेंगसिया और बागलिया घाटियों को अपने अधिकार में लेने का निर्णय लिया गया। ग्राम प्रधानों को तीर भेजकर विद्रोह में शामिल होने का निमंत्रण दिया गया। बगावत हो चुकी थी। अंग्रेजों को इसका भान भी नहीं था कि हो आदिवासी इतनी मुस्तैदी से विरोध करेंगे। इससे विचलित विल्किंसन ने 12 नवंबर 1837 को चाईबासा में अपने अफसरों के साथ बैठक की। विरोध को दबाने के लिए 17 नवंबर को कैप्टन आर्मस्ट्रांग के नेतृत्व में 400 सशस्त्र सैनिक 60 घुड़सवार सिपाहियों और दो तोपों के साथ बाढपीड़ रवाना गुए। इसकी खबर पोटो सरदार को लग गई। 19 नवंबर को पोटो सरदार की विद्रोही सेना ने आर्मस्ट्रांग की टुकड़ी पर हमला बोल दिया। भीषण लड़ाई हुई और कंपनी की सेना को हार का मुंह देखना पड़ा। इसके बाद अंग्रेजों ने पोटो सरदार के गांव पर हमला कर दिया। उनके पिता को कैद कर लिया गया. तड़ागहातु, रुईया, जयपुर आदि गावों पर भी हमला किया गया। महिलाओं तक को बंदी बना लिया गया। तड़ागहातु गांव में आग लगा दी गयी। बर्बर दमन किया गया। आठ  दिसंबर को पोटो सरदार गिरफ्तार कर लिए गए। उनके सहयोगियों की भी गिरफ्तारी हुई। एक जनवरी 1838 को जगन्नाथपुर में हजारों लोगों के बीच सेरेंगसिया घाटी के लड़ाके पोटो सरदार, नारो हो और बड़ाय हो को फांसी दे दी गई। एक दिन बाद 2 जनवरी को बोड़ो हो और पंडुआ हो को सेरेंगसिया गांव में सार्वजनिक तौर पर फांसी पर लटका दिया गया। 
इतनी भीषण लड़ाई के बावजूद इतिहास के पन्नों में इन हो लड़ाकों को सम्मान देने में थोड़ी कंजूसी की गई। किसी एक इलाके के पांच-पांच लोगों को एक साथ फांसी पर चढ़ा देना कोई सामान्य घटना नहीं थी. आज भी सेरेंगसिया के लोग इस शहादत की तारीखों पर मेला लगाते हैं। एक-एक महीने तक कार्यक्रम होता है। अपने स्तर से चंदा कर यह कार्यक्रम लोग करते हैं। 
हो किसी राजतन्त्र के अधीन कभी भी नहीं रहे। इनका जीवन स्वाधीन था। इनकी पहचान पराक्रमी योद्धाओं के रूप में थी। इनके धनुष से निकला तीर का निशाना कभी नहीं चूकता था। पोड़ाहाट के राजा तथा कई अन्य राजाओं ने इन क्षेत्र को अपने अधीन करने के लिए कई-कई बार प्रयास किये पर 'होÓ समुदाय के लोगों ने इन्हें खदेड़कर इनके छक्के छुड़ा दिए तथा इन राजाओं को हमेशा मुंह की खानी पड़ी। अंग्रेजों के साथ भी ऐसा ही हुआ। हो कभी शांत नहीं हुए। बीसवीं सदी में भी इनकी लड़ाई अपनी स्वतंत्रता के लिए जारी रही। 

देश का पहला जन आंदोलन 1855 का हूल

सिदो और कान्हू पालकियों पर (हैं),
चांद और भायरो घोड़ों पर (हैं),
ऐ चांद, देखो, ऐ भायरो, देखो,
घोड़े (अब) मलिन हो रहे हैं।।
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सिर गड़ धंस (ढह) गया,
शिखर गढ उजड़ गया,
शिखर के सिपाही (सैनिक)
तितर-बितर हो गए,
वैसे ही, हे बड़ी बहन (दीदी) हमलोग भी,
माता-पिता के नहीं रहने पर तितर
बितर हो गए।


यह गीत आज भी संताल में गूंजता है। उस ऐतिहासिक हूल की याद दिलाता है, जो भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम 1857 से पहले 1855 में फूट पड़ा था। हालांकि सही अर्थों में देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम आदिवासी क्षेत्रों में ही फूटा था और 1855 का यह हूल इस अर्थ में पहला था, क्योंकि इसका क्षेत्र काफी व्यापक था। छोटानागपुर के रामगढ़ से लेकर संताल परगना तक। यह कोई एक दिन की घटना नहीं थी। महीनों की तैयारी थी। उस समय चार सौ किमी दूर तक सूचना देना और एक तिथि को एक जगह एकत्रित होना, बड़ी घटना था। इस हूल के पीछे ऐतिहासिक कारण थे और जिसके नायक थे चार भाई सिदो-कानू, चांद-भैरव। 
 कहा जाता है कि दामिन ई-कोह का निर्माण 1833 में अंग्रेजों ने किया। यही आज संताल परगना है। अंग्रेजों ने छोटानागपुर से संतालों को जंगल साफ  करने और कृषि योग्य भूमि बनाने और बाद में रेल की पटरियां बिछाने के लिए 1800 ई के आस-पास बसाना शुरू किया था। इसका मुख्य कारण संताल कठिन परिश्रमों और कठिन कार्य करने में निपुण थे। संतालों को इस क्षेत्र में बसाने का एक और प्रमुख कारण था, पहाडिय़ा जनजाति द्वारा लगातार विद्रोह। उसे भी कम करने की अपनी नीति के चलते अंग्रेजों ने संतालों को इस क्षेत्र में बसाना शुरू किया। चालीस-पचास सालों में अच्छी-खासी संख्या में संताल बस गए, लेकिन अंग्रेजों ने संतालों के साथ भी वही अत्याचार शुरू कर दिया। इसका नतीजा यह रहा कि सन् 1855 में बंगाल के मुर्शिदाबाद तथा बिहार के भागलपुर जिलों में स्थानीय जमींदार, महाजन और अंग्रेज कर्मचारियों के अन्याय अत्याचार के शिकार संताल जनता ने एकबद्ध होकर उनके विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था। इसे संताल विद्रोह या संताल हूल कहते हैं। संताली भाषा में हूल शब्द का शाब्दिक अर्थ है विद्रोह। यह अंग्रेजों के विरुद्ध पहला सशस्त्र जनसंग्राम था। सिदो-कान्हू, चांद-भैरो भाइयों और फूलो-झानो जुड़वा बहनों ने संताल हूल का नेतृत्व, शाम टुडू (परगना) के मार्गदर्शन में किया। 1852 में लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा आरम्भ किए गए स्थाई बंदोबस्त के कारण जनता के ऊपर बढ़े हुए अत्याचार इस विद्रोह का एक प्रमुख कारण था।
इसका जिक्र उस समय के एक अंग्रेज अधिकारी राबर्ट कार्टियर्स की किताब हाड़मा विलेज में भी किया है। उसने अपनी इस किताब में दो महाजनों के नाम का भी उल्लेख किया है- केनाराम भगत और बेचाराम भगत। महेशलाल दारोगा के अत्याचार से विद्रोह की शुरुआत होती है। महाजन सूदखोर शुरू में ऋण देते थे और उसका तीन सौ गुना वसूलते थे। 
संताली लोकगीत में भी देख सकते हैं-
 सिदो, तुमने ख्ूान में क्यों नहा लिया है
कान्हू तुम हूल हूल क्यों चिल्लाते हो।
अपने लोगों की खातिर हमने खून में नहाया है।
हालांकि अंग्रेजों की क्रूर नीति के कारण 1854 में असंतोष फैलने लगा था। संतालों के मुखिया इन दिकुओं को उखाड़ फेंकने का उपाय सोचने लगे। संतालों पर अत्याचार बढ़ गया। खेत बंधक रख कर अपने कब्जे में कर लेते थे। गरीब संताल खेत नहीं छुड़ा पाते थे। शोषण अत्याचार का बदला लेने के लिए संताल मांझियों ने राय सलाह कर बड़े-बड़े महाजनों के घर डाका डाला और वे पकड़े गए। इसमें संतालों को सजा दिलाने में महेश लाल दारोगा का हाथ था। संताल बदला लेना चाहते थे।
इसी बीच बरहेट के भोगनाडीह में सिदो-कान्हू, चांद, भैरव, झानो-फूलों, भाई बहनों ने संघर्ष छेड़ दिया। 30 जून 1855 को एक सभा बुलाई और जिसमें दस हजार संताल जमा हुए। जाहेर एरा ने बताया है कि सिदो तुम सूबा (राजा) हो और कान्हू सब सूबा। यह धरती तुम लोगों का है। अब तुम लगान वसूल करो। तब भोगनाडीह में मिट्टी का जाहेर थान बना कर पूजा पाठ शुरू हो गया। दूसरे दिन पंचकटिया बाजार में स्थित देवी मंदिर में पूजा की। एके पंकज ने लिखा है, 'यह कोई आकस्मिक युद्ध नहीं था, बल्कि यह ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ एक सुनियोजित हूल था, जिसकी तैयारियां भोगनाडीह गांव के सिदो मुर्मू अपने भाइयों कान्हू, चांद व भैरव, इलाके के प्रमुख संताल बुजुर्गों, सरदारों और पहाडिय़ा, अहीर, लुहार आदि अन्य स्थानीय कारीगर एवं खेतीहर समुदायों के साथ एकताबद्ध होकर कर रहे थे। जब सारी सामरिक तैयारियां पूरी हो गई, सैन्य दल, छापामार टुकडिय़ां, सैन्य भर्ती-प्रशिक्षण दल, गुप्तचर दल, आर्थिक संसाधन जुटाव दल, रसद दल, प्रचार दल, मदद दल आदि गठित कर लिए गए, रणनीतिक योजना को अंजाम दे दिया गया, तब 30 जून को विशाल सभा बुला कर अंग्रेजों को देश छोडऩे का 'सम्मनÓ जारी कर दिया गया। इस सम्मन यानी 'ठाकुर का परवानाÓ को सिदो परगना के निर्देश पर किरता, भादू और सुन्नो मांझी ने लिखा था। गौर करने वाली बात है कि हूल संबंधी सम्मन और अन्य प्रचार सामग्रियां हिंदी, बांग्ला, संताली भाषा तथा कैथी और बांग्ला लिपि में लिखी गई थी। यही नहीं, ब्रिटिश मुद्रा को अमान्य करते हुए आर्थिक गतिविधियों के लिए विशेष तौर पर हूल के लड़ाकों ने नए सिक्के जारी किए थे। भागलपुर, बीरभूम के कमिश्नर और जिला मजिस्ट्रेटों और स्थानीय पुलिस थानों व अन्य प्रमुख अधिकारियों को जो सम्मन भेजे गए, उसमें स्पष्ट कहा गया था-1. राजस्व वसूलने का अधिकार सिर्फ संतालों को है। 2. प्रत्येक भैंस-हल पर सालाना 2 रु., बैल-हल पर एक आना और गाय-हल पर आधा आना लगान लिया जाएगा। 3. सूद की दर एक रुपये पर सालाना एक पैसा होगा। 4. सूदखोरों, महाजनों और जमींदारों को तत्काल यह क्षेत्र खाली कर चले जाना होगा। 5. 'ठाकुर जिउÓ (संतालों के सर्वोच्च ईश्वर) के आदेश पर समूचे क्षेत्र पर संतालों का राज पुनस्र्थापित किया जाता है और सिदो परगना 'ठाकुर राजÓ के शासन प्रमुख नियुक्त किए गए हैं। 6. सभी ब्रिटिश अधिकारी और थानेदार को सूचित किया जाता है कि वे तत्काल आकर सिदो परगना के दरबार में हाजिरी लगाएं अन्यथा उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी।Ó
जाहिर है कि ब्रिटिश शासन इसे मानने को तैयार नहीं थी। लिहाजा जुलाई का पहला सप्ताह बीतते ही संताल और स्थानीय जनता ने युद्ध छेड़ दिया। बाजार, महाजनों-सामंतों के ठिकानों, थानों, ब्रिटिश प्रशानिक केंद्रों और थानों पर हमला बोल दिया गया। 
फोटो साभार
हूल की सूचना पाकर महेश लाल दत्ता नामक दारोगा दीघी थाना का दारोगा वहां पहुंचा। विद्रोहियों ने उस दारोगा की हत्या कर दी। यह हूल की पहली कारगर घटना थी। यह घटना सात जुलाई, 1855 की है। शीघ्र ही विद्रोहियों ने बरहेट बाजार को लूट लिया, क्योंकि यह महाजनों का गढ़ था। चारों तरफ आतंक मच गया। डाक एवं संचार व्यवस्था नष्ट हो गई। 12 जुलाई को सिदो-कानू और भैरव ने सलामपुर लूटने के बाद पाकुड़ के जमींदार को लूटा। पाकुड़ छोडऩे के बाद संतालों ने पाकुड़ की पूर्वी सीमा पर स्थित बल्लमपुर व अन्य गावों को लूटा। इसके बाद मुर्शिदाबाद जिले की सीमा पर बढ़े। वीरभूम में भी यह आग फैल चुकी थी। 13 जुलाई को पीरपैंती के निकट एक गांव में रेल कर्मचारी जख्मी हुए। 16 को पीरपैंती के निकट  हथियारबंद संतालों के एक दल के साथ मेजर बर्रोस की सैनिकों के साथ मुठभेड़ हुई। जिसमें कुछ अधिकारी समेत 25 सैनिक मारे गए। विद्रोह संताल दामिन-ए-कोह क उत्तर मुर्शिदाबाद की सीमा पर तथा गंगा के दक्षिण तट पर कहलगांव से राजमहल के बीच भी फैल गया था। 17 अगस्त को एक घोषणा की गई कि सभी विद्रोहियों को माफी दे दी जाएगी। पर विद्रोही नहीं माने। लगभग तीन हजार संतालों का जत्था भागलपुर जिले की रक्षादंगल नामक स्थान को लूटा। अक्टूबर में चारों भाइयों के नेतृत्व में दो सौ संतालों ने दुमका के दक्षिण स्थित अंबा हरना को लूटा। अंतत: दस नवंबर, 1855 को मार्शल लॉ की घोषणा कर दी गई। 30 नवम्बर 1855 को विश्वासघातियों ने सिदो को पकड़ कर भागलपुर की सेना को सौंप दिया। 20 फरवरी को कान्हू को जामताड़ा के पास ऊपर बंधा नामक स्थान पर कुजरों का घटवार सरदार ने कानू को पकड़ कर अंग्रेजों को सौपा और उसे 23 फरवरी 1856 में फांसी दी गई। चांद-भैरव सहित अन्य नेताओं की यही दशा हुई। 
हूल का क्षेत्र
संताल हूल केवल संताल तक सीमित नहीं था। एक व्यापक आंदोलन ने कई जिलों को प्रभावित किया था। ब्रिटिश शासन क्षेत्र के विद्रोह दबाने के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। कलकत्ता, बहरामपुर, सूरी, रानीगंज, देवघर, भागलपुर, पूर्णिया, मुंगेर, बाढ़ यहां तक कि पटना के अफसर, सेना को हूल पर नियंत्रण के लिए प्रयास करने पड़े। हजारीबाग के संताल संताल परगना के संताल को अपना सगा मानते थे, क्योंकि वे यहीं से ले जाए गए थे। हजारीबाग में भी संताल सक्रिय थे। वीरभूम में भी हूल का प्रभाव था। मुर्शिदाबाद के नवाब विद्रोह से परेशान था। जाहिर है कि हूल के नेताओं ने हूल को एक व्यापक क्षेत्र में फैलाने का काम किया था। इसलिए, इसके व्यापक क्षेत्र को देखते हुए इसे आसानी से देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम मानना चाहिए। यह एक जन आंदोलन था। संताल परगना के डिप्टी कमिश्नर के रिकार्ड आफिस में जो संताल कैदियों से संबंधित दस्तावेज मिले हैं, उनमें 251 कैदियों की सूची मिली है। इनमें 191 संताल, 34 नाई, पांच डोम, 6 धांगड़, सात कोल, एक ग्वाला, 6 भुइयां, एक रजवार पाए गए हैं, जो विभिन्न गांवों के रहने वाले थे। यही नहीं, एक और महत्वपूर्ण बात है। भागलपुर के कमिश्नर ने 28 जुलाई, 1855 को बंगाल सरकार के सेके्रटरी को लिखा कि ग्वाले, तेली व अन्य जातियां संतालों का नेतृत्व कर रही हैं। इससे साबित होता है कि इस आंदोलन में हर जाति सक्रिय थी। तेली, कुम्हार, लोहार, मोमिन, चमार, डोम भी सक्रिय थे। डोम गुप्तचर एवं संवाद वाहक का काम बड़ी कुशलता से करते थे। और, लोहार क्रितू व सूना नामक डोम ने परवाना लिखने का काम किया था और गुप्तचर का काम भी। इसलिए, इस हूल में सभी जातियों का योगदान था और यह एक जनक्रांति थी। 
संजय कृष्ण

जीवंत परंपरा को पुनर्जीवन की आस


चलना ही नृत्य, बोलना ही गीत। झारखंड की यह पहचान है। यही संस्कृति है। परंपरा है। गांव-गांव। एक जीवित परंपरा अखरा की, जिसे अब पुनर्जीवन की जरूरत है। झारखंड की 32 जनजातियों के अपने गीत हैं, अपने नृत्य है। नृत्य के कई भेद हैं। बंदी उरांव बोलते हैं कि उरांव नृत्य में साढ़े पांच हजार स्टेप हैं। इस तरह हर जनजातीय नृत्य में। यहां 12 महीने में 13 नृत्य हैं और हर नृत्य के अंदर भी कई-कई। यह लोक की थाती है। यहां चार कोस पर बानी ही नहीं बदलती, नृत्य और संगीत की परिभाषा भी बदल जाती है। यह धरती इतनी समृद्ध है। लेकिन आज जरूरत लोक संगीत व कला को बचाने की है। राज्य बने 19 साल से ऊपर हो गए, लेकिन यहां न संगीत अकादमी खुल सका, न भाषा अकादमी। गांव-गांव संगीत-गीत और साहित्य की पांडुलियां दीपकों का निवाला बन रही हैं। कलाकार पेट से जूझ रहे हैं। मनपूरन नायक कहते हैं अखरा तभी बचेगा, जब कलाकार बचेंगे। उनके सामने पेट की समस्या है। नागपुरी में एक कहावत है-पेट में भात ना, ड्योढ़ी पे नाच। पहले पेट की भूख मिटनी चाहिए। कलाकार ही नहीं रहेंगे, तो अखरा व कला कैसे बचेगी? झारखंड की पहचान, यहां के खनिज संपदा से नहीं, यहां की कला से है। यहां दसियों हजार पुरानी कला का दिग्दर्शन होता है, लेकिन सरकार की ओर से कोई पहल नहीं की जाती। सब बर्बाद हो रहा है। संताल के फैले जीवाश्म को भी नष्ट किया जा रहा है। यह सब अपने झारखंड में। बहुत दुखद स्थिति है। आखिर, किसी भी राजनीति दलों के घोषणा पत्र में कला-साहित्य-संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन को लेकर एक शब्द क्यों नहीं रहता, जबकि हमारे लिए यह महत्वपूर्ण है। डॉ रामदयाल मुंडा जी कहते थे-जे नाची से बाची। यह कैसे संभव होगा?
विलुप्त हो रहे वाद्य यंत्र
झारखंड की हर भाषा में गीत है। उसी तरह हर जनजातीय समुदाय के वाद्य भी हैं। कुछ वाद्य साझा हैं, लेकिन आज कुछ वाद्य तो विलुप्त हो गए, कुछ विलुप्ति के कगार पर हैं। ऐसा इसलिए कि हम इनके संरक्षण के प्रति उदासीन हैं। बंदी उरांव कहते हैं कि आज केंदरा, खोचोर, टेचका, टुहिला, मोहनबंसी, तिरियो, मुरली, भेर, बरसिंध, सरगी, पैजन, सोयको आदि वाद्य चलन से बाहर हो गए। आखिर, इनका संरक्षण कैसे होगा? इसके लिए समाज और सरकार दोनों को अपनी जवाबदेही लेनी होगी। भाषा का मरना, संस्कृति का मरना है। अब अपनी भाषा और संस्कृति से दूर हो रहे हैं, इसलिए हमारे जीवन में रस घोलने वाले वाद्य भी विलुप्ति के कगार पर खड़े हैं।

कला-संस्कृति विभाग की ओर से हर शनिवार को सनिपरब का आयोजन किया जाता था। इसके पीछे उद्देश्य यही था कि यहां के लोक कलाकारों को सप्ताह में एक न्यूनतम मानदेय दिया जाए ताकि वे अपनी कला को संरक्षित कर सकें और अगली पीढ़ी तक पहुंचा सके, लेकिन यह भी एक डेढ़ साल के बाद साल भर से बंद हो गया। इससे सरकार की अपने राज्य की कला के प्रति गंभीरता समझ सकते हैं। जब ऐसे आयोजन की यहां जरूरत है ताकि कलाकारों के पेट को भात नसीब हो सके। भूखे पेट कला का संरक्षण संभव नहीं है। कला-मर्मज्ञ डॉ गिरिधारी राम गौंझू कहते हैं, अपनी संस्कृति को बचाने के लिए कला के उपादानों को बचाना जरूरी है। नृत्य, संगीत, वाद्य का संरक्षण जरूरी है। यह काम सरकारी स्तर पर ही संभव है। दूसरे, यहां के लोक कलाकारों को बाहर भी भेजने की जरूरत है। दूसरे देशों में जब यहां के कलाकार जाते हैं तो खूब प्रभावित करते हैं। इसे बढ़ाने की जरूरत है। यहां की लोक कला काफी समृद्ध है। छऊ की अंतरराष्ट्रीय पहचान बन गई है, दूसरे कला विधाओं को भी इस पहचान तक लेना चाहिए। कलाकार मरते जा रहे हैं, उनके साथ विधा भी मरती जा रही है। यह बहुत दुखद है। बंगाल सरकार अपने कलाकारों को पेंशन दे रही है। पूर्वोत्तर अपने लोक कलाकारों को आर्थिक सहायता दे रहा है। पर, यहां नहीं है। इसकी पहल होनी चाहिए।

'तीर्थÓ की उपेक्षा का मलाल पर, लोकतंत्र में आस्था बरकरार


बिसुआ टाना भगत जतरा टाना भगत के वंशज हैं। वे चिंगरी गांव के नया टोला में रहते हैं। गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड का ऐतिहासिक गांव है। गांव कहना ठीक नहीं, यह वास्तव में तीर्थ है। मुख्य सड़क से गांव के अंदर जो पीसीसी सड़क जाती है,  सौ कदम अंदर चलने पर दाहिने ही पहला घर उनका है। घर में खेत है या खेत में घर कहना मुश्किल है। गांव के मकान मिट्टी हैं और छप्पर खपरैल के। अभी बिसुआ को पीएम आवास की कुछ राशि मिली है तो अपना नया मकान बना रहे हैं। मलाल उन्हें इस बात का है कि उन्हें भी वही राशि मिली, जो दूसरों को इस मद में मिलती है।
पर, ज्यादा दुख उन्हें इस बात का है कि राज्य सरकार ने जो पांच एकड़ जमीन दी है, उस पर किसी और का कब्जा है। आज तक उन्हें वह जमीन नसीब नहीं हो सकी। जब जमीन को अपने अधिकार में लेना चाहा तो किसी और ने दावा कर दिया और अब मामला कोर्ट में पहुंच गया। दो बार गुमला कोर्ट गया, लेकिन सुनावाई से आगे बात नहीं बढ़ पाती तो अब जाना ही बंद कर दिया।
सुबह-सुबह की बेला में, जब सूर्य की किरणें धरती को चूम रही थीं, बिसुआ के माथे की नसों में उभार दिखने लगा था। बोलने लगे, यहां गांव में उनका स्मारक भी ढंग का नहीं बना। शहीद आवास के नाम पर भी केवल खानापूर्ति की गई है। उनके बेटे श्रीचंद कहते हैं कि हमारी आस्था लोकतंत्र में हैं। हम सिर्फ मतदान ही कर सकते हैं। लेकिन जो जीतकर जाता है, मतदाता को भूल जाता है। श्रीचंद कहते हैं हमारे बच्चों को शिक्षा की भी कोई सुविधा नहीं। फीस नहीं जमा करने पर स्कूल वाले बच्चों को भगा देते हैं। सरकार कम से कम हमारे बच्चों को शिक्षा तो दे ही सकती है। परिवार की अपेक्षा है कि यहां जतरा टाना भगत के नाम पर भव्य एक स्मारक बने। यह टाना भगतों का तीर्थ है।  
युवक मनोज भगत भी यही कहते हैं। चिंगरी गांव के ही हैं। गांव के मुहाने पर ही जतरा की एक एक आदमकद प्रतिमा लगी है। चारों तरफ दीवार खड़ी कर दी गई है। मनोज दिल्ली में काम करते हैं और मतदान करने के लिए अपने गांव आए हैं। कहते हैं कि यहां हर गुरुवार को टाना भगत आते हैं, पूजा-पाठ और भजन करते हैं। अब कुछ ही बचे हैं, जिनका विश्वास जतरा टाना भगत के धर्म में हैं। चुनाव को लेकर उनमें कोई शंका नहीं। वे बताते हैं कि यहां कमल की हवा है। पर, एक दूसरे युवा बाबूलाल उरांव तीर की बात करते हैं। वे तीर की कई उपलब्धियां गिनाते हैं। कहते हैं कि दर्जन भर विद्या का मंदिर बना। आज शिक्षा बहुत जरूरी है। बाबूलाल के दो बड़े भाई बेहतर इलाज के अभाव में समय से पहले चल बसे। सो, पुलिस में लगी उनकी नौकरी को उनके पिता ने छुड़वा दिया और खेती-बारी में लगा दिया। वे खेती करते हैं। कहते हैं कि यहां खेती प्रकृति पर निर्भर है। लेकिन यहां सिंचाई की व्यवस्था हो जाए तो यह इलाका पंजाब को पीछे छोड़ सकता है। दोनों युवा एक ही गांव के हैं, आदिवासी हैं, लेकिन दोनों के विचार भिन्न हैं। दोनों साफगोई से बात करते हैं।

बांग्लादेश की आजादी, रांची और 'आदिवासीÓ

रांची से 'आदिवासीÓ साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी। इसके संपादक थे प्रसिद्ध साहित्यकार राधाकृष्ण। बांग्लादेश युद्ध पर एक विशेष अंक निकला था। हालांकि उस समय धर्मयुग व साप्ताहिक हिंदुस्तान ने भी कई-कई अंक में युद्ध पर सामग्री दी, लेकिन रांची जैसी छोटी जगह से निकलने वाली पत्रिका 'आदिवासीÓ भी इस पठार पर सुदूर पहाड़ी गांवों में फैले अपने पाठकों तक भी यह सूचना देना मुनासिब समझती थी। हालांकि इस युद्ध में रांची और आस-पास के करीब दो दर्जन लोग शहीद हुए थे। अल्बर्ट एक्का उन शहीदों में शुमार हैं, जिन्होंने अपना बलिदान देकर बांग्लादेश को पूर्वी पाकिस्तान से आजाद कराया। अल्बर्ट को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। बांग्लादेश की आजादी में अल्बर्ट अकेले नहीं थे, रांची और आस-पास के करीब 26 जवानों ने अपनी जान की आहुति दी थी। समर कुमार ने 'आदिवासीÓ के 'गणतंत्र विशेषांक में एक सूची दी है, जिसमें कुल 23 लोगों के नाम हैं। जो मुआवजा दिया गया, उनमें 26 शहीद के नाम थे। यानी, बाद में तीन के नाम और जुड़ गए।
बांग्लादेश की आजादी में भारत की बड़ी भूमिका रही। भारतीय सैनिकों की जांबाजी का ही यह नतीजा था कि पाकिस्तान की तानाशाह सैनिकों को समर्पण करना पड़ा। दो सप्ताह के घमासान युद्ध के बाद 1971 में 16 दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में पाकिस्तान के सपने जमींदोज हो गए। सात जनवरी, 1972 को रांची के रोटरी हॉल में ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने पूरी कहानी बयां की। इसे 'आदिवासीÓ ने संपादित कर छापा-'भारतीय सेना का लौह शिकंजा कसने के साथ हमारे दिलेर एवं दक्ष हवाबाजों ने ढाका में ठीक निशाने पर पाकिस्तान गवर्नर डॉ. मल्लिक के सरकारी निवास-स्थान पर बम बरसाए। हमने ढाका एवं इस्लामाबाद में हुई बातचीत भी सुन लिया। जब तीसरी बार हमारे चतुर हवाबाजों ने बम की वर्षा की तो गवर्नर के होश फाख्ता हो गए तो उसकी सरकार ने इस्तीफा दे दिया और होटल इंटर कांटिनेेंटल में उसने शरण मांगी।Ó आगे बताया, 'हमारी पहली टुकड़ी ने ढाका छावनी के करीब पहुंचकर गोलाबारी शुरू की। उस समय उनके पास चार तापें थीं, लेकिन पाकिस्तानियों का हौसला पस्त हो चुका था।Ó... '15 दिसंबर को प्रात:काल पाकिस्तानी जनरल नियाजी ने संदेश भेजा कि वह युद्ध विराम चाहते हैं, हमने जवाब दिया कि युद्ध विराम नहीं। कल सवेरे 9 बजे तक आत्मसमर्पण करें।Ó हुआ भी यही। पाकिस्तान के पास अब कोई विकल्प नहीं था। रांची के जवानों की कहानियां यहीं तक नहीं है। पाकिस्तान फौज के दुर्जेय समझे जाने वाले गढ़ जैसोर को रांची स्थित 9 वीं पैदल डिवीजन ने मुक्त कराया था। बांग्लादेश आजाद हो गया तो अपने देश में भी जश्न का माहौल था। यह जश्न पत्र-पत्रिकाओं में झलका। नए साल का स्वागत आजादी के तराने के साथ शुरू हुआ। आदिवासी के उसी अंक में रोज टेटे ने खडिय़ा में अपनी भावनाएं व्यक्त कीं, जिसे हिंदी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया गया। रोज ने लिखा, जय मिली देश को, हार गया दुश्मन। जन्मा नया देश, नया सूर्य उदित हुआ, नए वर्ष में। रामकृष्ण प्रसाद 'उन्मनÓ ने उत्साहित होकर विजय गीत लिखा, 'लोकतंत्र की विजय हो गई, हार गई है तानाशाही, हम आगे बढ़ते जाते हैं, हर पग पर है विजय हमारी।Ó
 देश में भी एक उत्साह था। सैनिकों ने देश का मस्तक ऊंचा किया था। सैनिकों के प्रति देश नतमस्तक था। रांची में शहीद परिवारों को सहयोग देने के लिए होड़ लग गई थी। 26 शहीद परिवारों को पांच-पांच हजार की मुआवजा राशि तो दी ही गई। जमीन, नौकरी आदि का आश्वासन भी सरकार की ओर से दिया गया। 21 जनवरी को रांची के बारी पार्क में एक समारोह का आयोजन किया गया। इसमें सात लाख, पांच हजार रुपयों का वितरण किया गया। तत्कालीन बिहार के राज्यपाल देवकांत बरुआ ने शहीद परिवार वालों को ये रुपये दिए। परमवीर चक्र विजेता अल्बर्ट एक्का के परिवार को राज्यपाल ने अपनी ओर से 25 हजार रुपये देने की घोषणा की। उनके गांव में पांच एकड़ भूमि भी दी गई, जिसका पर्चा 21 जनवरी को ही राज्यपाल ने अल्बर्ट एक्का के पिता को दिया। उस समय श्रीमति डेविस ने श्रीमति एक्का के लिए डेड़ सौ रुपये मासिक की नौकरी की व्यवस्था की। कहा कि जब वे चाहेंगी, उन्हें यह सुविधा मुहैय्या करा दी जाएगी। यही नहीं, अल्बर्ट एक्का की स्मृति में वेलफेयर सिनेमा के पास स्थित सरकारी भवन का नाम भी अल्बर्ट एक्का के नाम पर किए जाने की सहमति बनी। हालांकि यह आज तक नहीं हो सका। तत्कालीन डीसी ईश्वर चंद्र कुमार ने भी शहीद परिवार वालों के लिए कई योजनाओं की घोषणा की। कुमार ने बताया कि  '12 शहीदों के परिवार वालों को नौकरी देने की बात तय हो गई है। तीन लोगों ने शिक्षक बनने की चाहना की है। जिला परिषद की ओर से उन्हें शिक्षक का पद दिया जाएगा। 4 व्यक्तियों ने एचइसी में नौकरी करने की इच्छा व्यक्त की है। उन्हें टाउन प्रशासकीय विभाग में नौकरी दिलाने के लिए एचइसी के अधिकारियों से मैंने बात कर ली है। 3 व्यक्तियों को पुलिस की नौकरी में बहाल कर दिया जाएगा। घर बनाने के लिए जो खर्च पड़ेगा उसके लिए मैंने रांची नगर पालिका के अध्यक्ष शिव नारायण जायसवाल से बातें कर ली है। वे खर्च अपने पास से देने को प्रस्तुत हैं।Ó
 शहीद परिवारों की सहायता के लिए कई संगठन भी आए और आर्थिक सहायता दी। कुमार ने इसकी भी जानकारी दी, '5.51 लाख रुपये नागरिकों एवं ग्रामीणों द्वारा, 51हजार विजय मेले से आई राशि, 11 हजार विधवा कल्याण हेतु श्रीमती अरोड़ा को प्रेषित, 11 हजार श्री बागची द्वारा, 27,800 रोमन कैथोलिक द्वारा, 3,500 एक अन्य चर्च द्वारा, 2,500 छात्राओं द्वारा एकत्रा श्रीमती मेरी लकड़ा के मार्फत से प्राप्त, 12,200 बीआइटी मेसरा, पांच हजार विकास विद्यालय, 7,500 एसपी रांची द्वारा आइजी को प्रेषित, 20,000 एजी द्वारा सेंट्रल आफिस को प्रेषित।Ó कहना मुश्किल है कि इनमें से सरकारी घोषणाएं कितनी पूरी हो पाईं।
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1881 में अयोध्या की आबादी थी 11643

अयोध्या पर फैसला आ गया। फैसले के बाद तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। अभी आगे भी आती रहेंगी। पांच सौ साल पुराने इस मामले में चालीस दिनों तक चली लगातार सुनवाई के बाद यह अहम फैसला सुप्रीमकोर्ट से आया है। फैसले से अयोध्या खुश है। सरयू भी झूम रही होगी, क्योंकि वही एक ऐसी गवाह है, जो पिछले पांच सौ सालों के इतिहास को अपनी आंखों देख रही है। उसने वह दौर भी देखा जब कार सेवकों पर गोली चली। जब एक कथित विवादित ढांचा गिरा दिया गया। उसके पहले के दौर भी, जब मंदिर का ताला खुला।
पिछले महीने 19 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचे तो चारों तरफ एक अनकही उदासी पसरी थी। आशंकाओं के बादल सरयू नदी के ऊपर-ऊपर उड़ रहे थे, हालांकि सांझ होते ही जब आरती होने लगी तो मौसम का मिजाज भी बदला और लोगों के चेहरे पर एक सकून भी तारी हुआ। अयोध्या में धारा 144 लगा था, लेकिन दैनंदिन जीवन में इसका कोई पुर असर नहीं दिखा। बाजार चहक रहे थे और सड़कों का चौड़ीकरण हो रहा था। नया घाट सज-संवर रहा था और दीवाली की तैयारी का उल्लास हर मंदिर-घाट पर दिख रहा था। महंत नृत्यगोपाल दास अपनी छावनी में आश्वस्त थे कि फैसला तो उनके पक्ष में ही आएगा। जब, नौ नवंबर को यह फैसला मंदिर के पक्ष में आ ही गया तो उनके चेहरे पर खुशी और उत्साह जरूर दुगुना हो गया होगा।
पिछले हजारों सालों से बनती-उजड़ती अयोध्या की उदासी को कोई भी पढ़ सकता है। कण-कण में व्यापने वाले राम की यह अयोध्या क्यों इतनी उदास रही, पता नहीं। अलबत्ता राम मंदिर निर्माण की कार्यशाला में उन दिनों पत्थरों की तरासी का काम भी बंद ही था। राम नाम का कीर्तन चल रहा था और उसके उजड़े मुख्य द्वार को भव्य बनाने की तैयारी की जा रही थी। अयोध्या अब बदल रही होगी।
अयोध्या पर न जाने कितनों ने लिखा। अब और लिखेंगे। ह्वेनसांग से लेकर आइने अकबरी तक। उसके बाद भी। पांच सौ सालों में खूब लिखा गया। बार-बार यह भी साबित करने का प्रयास किया गया कि वहां मंदिर तोड़कर मस्जिद तामीर नहीं हुई थी। पुरातत्व विभाग ने इसे झुठला दिया। पांच शताब्दियों से लोगों के मन-मानस में यही बैठा है कि राम मंदिर को तोड़कर बाबर ने मस्जिद बनवाई। अब कुछ यह भी मानते हैं कि उसे मीर बाकी ने बनवाया था तो अब कुछ यह मानने लगे हैं कि यह काम औरंगजेब का है। लोक में बाबर ही बैठा है और इसे तथाकथित रूप से बाबरी मस्जिद ही लोग कहते-लिखते आ रहे हैं। श्रुति की भी एक परंपरा है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता।
बहरहाल, 1912 में एक किताब आई थी। 'भारत भ्रमणÓ। इसे बाबू साधुचरण प्रसाद ने लिखा था। यह पांच खंडों में प्रकाशित हुई थी और इसके मुंबई के प्रमुख प्रकाशक खेमराज श्रीकृष्णदास ने छापा था। इसके तीसरे खंड में अयोध्या का भी जिक्र है। वह लिखते हैं-'अयोध्या के सामने उत्तर सरयू के बाएं किनारे पर लकड़मंडी का रेलवे स्टेशन है। जिसके निकट वह स्थान है, जहां त्रेतायुग में राजा दशरथ ने अश्वमेघ और पुत्रेष्टि यज्ञ किय था।....अयोध्या में सन्् 1881 में मनुष्य गणना के समय 2545 मकान थे-जिनमें 864 पक्के और 11643 मनुष्य थे। अर्थात 9499 हिंदू, 2141 मुसलमान और तीन दूसरे। 96 देव मंदिर, जिनमें 63 वैष्णव मंदिर और 33 शैव मंदिर, 36 मस्जिदें थीं। लक्ष्मण घाट से थोड़ी दूर 90 फीट ऊंचे टीले पर जैनों के आदिनाथ का मंदिर है।Ó  वे आगे लिखते हैं-'कनक भवन, राजा दर्शन सिंह का शिव मंदिर और हनुमान गढ़ी यहां के मंदिरों में उत्तम हैं। अयोध्या में बैरागी वैष्णवों के बहुत से मठ हैं, जिनमें रघुनाथदास जी, मनीराम बाबा व माधोदास के मठ प्रधान हैं। रघुनाथदास नहीं हैं, उनकी गद्दी पर पूजा चढ़ती है। मनीराम बाबा के यहां सदावर्त जारी है और साधुओं की भीड़ रहती है। माधोदास नानकशाही थे, इनके मठ पर नानकशाहियों का सदावर्त है। इनके अतिरिक्त दिगंबरी अखाड़ा, रामप्रसाद जी का अखाड़ा आदि बहुतेरें मठ हैं। अयोध्या के मठों में कई एक धनवान मठ हैं।Ó

 
अयोध्या के अन्य देव मंदिरों का भी जिक्र करते हैं। इसके साथ यह भी बताते हैं-'अयोध्या में थोड़ी सौदागरी होती है। दुकानों पर यात्रियों के काम की सब वस्तु मिलती है। सवारी के लिए इक्के और ठेलागाड़ी है। यहां इमली के वृक्ष बहुत सुंदर है।...अयोध्या का प्रधान मेला चैत्र रामनवमी का होता है, जिसमें लगभग पांच लाख यात्री आते हैं। यात्रीगण सरयू के स्वर्गद्वार घाट पर स्नान-दान करते हैं। वे बताते हैं कि बाबर ने जन्मस्थान के राम मंदिर को तोड़कर सन् 1528 में उस स्थान पर मसजिद बनवा ली। अकबर के समय हिंदू लोगों ने नागेश्वरनाथ, चंदहरि आदि देवताओं के दश-पांच मंदिर बना लिए थे, जिनको औरगंजेब ने तोड़ डाला था। अवध के नवाब सफदरजंग के समय दीवान नवलराय ने नागेश्वरनाथ मंदिर बनवाया। दिल्ली की बादशाही की घटती के समय अयोध्या में मंदिर बनने लगे। साधुओं के अनेक अखाड़े आ जमें। नवाब वाजिदअली शाह के राज्य के समय अयोध्या में 30 मंदिर बन गए थे। अब छोटे-बड़े सैकड़ों मंदिर बन गए हैं।Ó अब इस अयोध्या में सात हजार मंदिर हैं।
और, अंत में, अयोध्या भगवान राम की जन्मस्थली के साथ पांच जैन तीर्र्थंकरों की भी जन्मस्थली है। पहले तीर्थंकर का जन्म यहीं हुआ था। बुद्ध भी यहां आए और उपदेश किए। इसीलिए ह्वेनसांग भी यहां आया था। तब उसने यहां के बौद्ध मठों का उल्लेख किया था लिखा था कि यहां तीन हजार बौद्ध रहते हैं। अब अयोध्या एक नई पटकथा के लिए तैयार है। अयोध्या की शांति में देश की शांति निहित है।

दस हजार साल पुराना रॉक आर्ट







 चतरा जिले के टंडवा पंचायत सतपहाड़ी के पास ठेगांगी गांव के पास जो रॉक आर्ट है, माना जाता है कि यह दस हजार साल पुराना है। यह तीन सौ फीट की ऊंची एक पहाड़ी है। अब तक सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया है। यह इलाका भी बहुत सुविधाजनक और निरापद नहीं है। हजारीबाग के जस्टिन इमाम, अलका इमाम और रांची से फैशन डिजाइनर आशीष सत्यव्रत साहु, अरविंद पांडेय, अनिता, मनीष एक्का की टीम यहां गई तो कुछ नायाब चीजें मिलीं। जस्टिन इमाम कहते हैं कि यहां गांव में एक भगत परिवार रहता है। उनके यहां भी लोग आते हैं। यहां फरवरी के महीने में चार-पांच जिलों के टाना भगत जुटते हैं और पूजा-अर्चना करते हैं। यह पहाड़ उनकी आस्था का केंद्र है। अब ये पूजा-अर्चना कब से करते आ रहे हैं, इसका अनुमान ही लगा सकते हैं। शैल चित्र के बाबत कहते हैं कि यहां अनोखा शैल चित्र हैं। परंपरागत रूप से यहां बैल, मेढक, हिरन और अन्य डिजाइन आदि का अंकन किया गया है। कुछ ऐसी चीजें हैं, जो सोहराई कला से मिलता-जुलता हैं। पाषाण काल के समय से मिट्टी के घरों की दीवारें बनती आई हैं और दीवारों पर चित्रकारी भी किया जाता रहा है। यहां आज भी इन इलाकों में इसे देखा जा सकता है। सोहराई में पशु की पूजा होती है। सोहराई कला के केंद्र में भी बैल आदि ही हैं। सोहराई कला खेती व पशु को लेकर बनाया जाता है। इसलिए हजारों साल से यह परंपरा चली आ रही है। हजारीबाग के चुरचू प्रखंड के दो गांवों में भी लोगों ने अपनी आंखों से पारंपरिक रंगों से सोहराई बनते देखा है। भेलवारा गांव की पार्वती देवी इस कला की सिद्धहस्त कलाकार हैं। विदेश तक जा चुकी हैं। इसके प्रचार-प्रसार में जुटी हैंं।
फैशन डिजाइनर आशीष खादी में सोहराई कला को प्रमोट कर रहे हैं। वे बताते हैं कि आज पहली बार अपनी आंखों से उन प्राचीन चीजों को देख रहा हूं। यह एक एक अद्भुत अनुभव है। दस हजार साल पहले लोग कितने कल्पनाशील थे। कला उनके अंदर कूट-कूट कर भरी थी। वे पत्थरों से ही रंग बनाते थे और पत्थरों पर ही अंकन। इतने सालों बाद यह रंग मिटा नहीं है। यह बड़ी बात है। हमें इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए। सरकार भी यदि इस ओर कदम बढ़ाए तो यह एक खूबसूरत पर्यटन स्थल बन सकता है। यहां आधे घंटे की चढ़ाई के बाद पहुंचना और फिर शैल चित्र को देखना सब थकान मिटा देता है। ये कला हमारी विरासत हैं। अभी तक विधिवत अध्ययन नहीं हुआ कि इनको बनाने वाले कौन थे? इस क्षेत्र में अन्य पहाडिय़ों की गुफाओं को देखना चाहिए। तब हम एक नए इतिहास लेखन की ओर बढ़ सकते हैं।

असुर : भूल गए लौह गलाना

झारखंड की सबसे प्राचीन जनजाति असुर हैं। दुनिया को लोहा गलाने की तकनीक असुर की देन है। असुर का फैलाव झारखंड में ही नहीं, छत्तीसगढ़ में भी है। दुनिया में देखें तो असीरिया को भी असुर का प्राचीन देश माना जाता है। खूंटी से लेकर गुमला-नेतरहाट की तलहटी में इनका निवास है। इनका साहित्य मौखिक ही है। हालांकि इनके इतिहास लेखन की प्रक्रिया शुरू हो रही है। खूंटी में आज भी असुरगढ़ के अवशेष देखे जा सकते हैं। 

आज असुर मानते हैं कि आज से 100 वर्ष पहले हमारे पूर्वज एकदम एकाकी जीवन व्यतीत करते थे। एक दूसरे से संपर्क नहीं था। आज संचार के साधन हैं, लेकिन असुरोंजंगल पर निर्भरता खत्म हो रही है। तरह-तरह के कानून से हम सबका सामना हो रहा है। जंगल को हमसे दूर किया जा रहा है, जो हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। असुर अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं। गांव के ङ्क्षवदेश्वर, अरङ्क्षवद, अकलू, बंधन, रंथू असुर कहते हैं कि सरकार की तमाम योजनाएं यहां तक नहीं पहुंच पातीं। सरकार को यदि ईमानदारी से असुरों का विकास करना है तो उसे कृषि, शिक्षा और स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देना चाहिए। शिक्षा और कृषि का तकनीक यहां गांव तक पहुंचे। तभी असुर जनजाति का विकास हो सकता है। हमारा एक उज्ज्वल अतीत है, लेकिन उसे अब दोहराने का कोई फायदा नहीं।


लोहा गलाने में दक्ष थे असुर  
असुर लोहा गलाने की तकनीक में दक्ष थे। सोसोबोंगा लोकगाथा में इसका विस्तार से वर्णन है। लोहा गलाकर इससे कृषि उपकरण बनाना, हथियार बनाना यही मुख्य पेशा था। लेकिन अब यह तकनीक लुप्त हो गई है। हालांकि बिशुनपुर में विकास भारती ने इस प्राचीन कला को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है। लेकिन सरकार की ओर से इस प्राचीन कला को पुनर्जीवित करने का प्रयास नहीं दिखता। लोहे ने सभ्यता को आगे बढ़ाया और एक नए युग का सूत्रपात किया। कृषि का तेजी से विकास हुआ, लेकिन इस विकास गाथा में असुर का जिक्र तक हम नहीं करते। असुर चाहते हैं कि यदि उनके लुप्त होते इस उद्योग को फिर एक बार प्रश्रय मिले तो उनकी आय बढ़ सकती है। चूंकि वन कानून की वजह से चारकोल और लौह-अयस्क आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकते हैं। असुर चाहते हैं कि इसकी उपलब्धता के लिए लोहरदगा और गुमला मेसो क्षेत्र में सरकारी देख-रेख में सहकारी समितियां के लिए क्षेत्र निर्धारित कर दिए जाने चाहिए ताकि इन समितियों को चारकोल और लौह अयस्क आसानी से उपलब्ध हो सके। असुरों का कहना हैं कि यह उनकी आवश्यकता है। इसके अलावा वे चाहते हैं कि सरकारी देख-रेख के तहत उनके लिए प्रशिक्षण सह उत्पादन केंद्र स्थापित किए जाने चाहिए ताकि जिन असुरों ने अपना यह पारंपरिक पेशा और तकनीक भूला दिया है, वे विशेषज्ञों की देख-रेख में पुन: इसे सीख सकें।
महिषासुर की करते हैं पूजा
असुर अब महिषासुर की पूजा करने लगे हैं। लातेहार जिले के दक्षिणी पूर्वी दिशा में स्थित नेतरहाट की तलहटी में बसे हुसंबू डोड़ीकोना गांव के असुर अपने प्रिय आराध्य महिषासुर की पूजा ठीक उसी प्रकार करते हैं, जिस प्रकार हर धर्म व जाति के लोग अपने आराध्य की पूजा करते हैं। यहां दुर्गा पूजा के बाद दीपावली पर्व में महिषासुर की पूजा करने की परंपरा है।
छोटा पिंड बनाकर होती है पूजा :
दीपावली पर्व की रात महिषासुर का मिट्टी का छोटा ङ्क्षपड बनाकर पूजा होती है। इस दौरान असुर जनजाति अपने पूर्वजों को भी नमन कर उन्हें याद करते हैं। असुर जनजाति के लोग बताते हैं, सुबह में मां लक्ष्मी गणेश की पूजा करते हैं। इसके बाद रात को दीया जलाने के बाद महिषासुर की पूजा की जाती है। दीपावली में गौशाला की पूजा असुर जनजाति के लोग बड़े पैमाने पर करते हैं। जिस कमरे में पशुओं को बांधकर रखा जाता है, उस कमरे की असुर लोग पूजा करते हैं। वहीं हर 12 वर्ष में एक बार महिषासुर की सवारी भैंसा (काड़ा) की भी पूजा करने की परंपरा है। गुमला जिला अंतर्गत डुमरी प्रखंड के टांगीनाथ धाम में महिषासुर का शक्ति स्थल है। असुर जनजाति मूर्ति पूजक नहीं है इसलिए महिषासुर की मूर्तियां नहीं बनाई जाती हैं। बैगा पहान सबसे पहले पूजा करते हैं, उसके बाद घरों में पूजा करने की परंपरा है।
लेयुला व एल्विन ने किया था पहला अध्ययन
असुर जनजाति पर सबसे पहले केके लेयुला व वेरियर एल्विन ने 1963 में अध्ययन किया था। एल्विन ने असुर क्षेत्र का 19 सालों के अंतराल में दो बार भ्रमण किया। उन्होंने असुर को पारंपरिक लौहकर्मी की संज्ञा दी थी। एल्विन के साथ रूबेन ने भी इन्हें भारत का प्राचीन लौहकर्मी माना है। अब एल्विन 19 साल के बाद दूसरी बार असुर क्षेत्र में गए तो पाया लौह पिघलाने की विधि समाप्ति पर है। एल्विन को भरोसा था कि यह तकनीक दुबारा पुनर्जीवित हो सकेगी, लेकिन आज तक नहीं हो पाया।
प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख
दुनिया के प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में असुर का उल्लेख मिलता है। ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद, महाभारत आदि ग्रंथों में भी असुर की चर्चा मिलती है। बनर्जी एवं शास्त्री ने असुरों के शौर्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि पूर्व वैदिक काल से वैदिक काल तक अत्यंत शक्तिशाली समुदाय के रूप में प्रतिष्ठित थे। भारत में सिंधु सभ्यता के प्रतिष्ठापक भी असुर ही माने जाते हैं।
कोरवा राजा ने खदेड़ा तो पलामू में बसे
छोटानागपुर में असुर के बसने की एक दंतकथा है। छत्तीसगढ़ के पाटन में ये असुर लोहा गलाने का काम करते थे। यह इलाका कोरवा राजा के अधीन था। एक दिन असुर व्यापक स्तर पर लोहा गला रहे थे। गलाने के क्रम में भ_ी से निकलने वाला धुआं गांवों में भर गया। संयोगवश उसी दिन कोरवा राजा के यहां कुछ कार्यक्रम था। दूर-दूर से लोग आए थे। मेहमान इस धुएं से परेशान हो उठे। इसके बाद कोरवा राजा ने अपने सिपाहियों को उन्हें राज्य से बाहर खदेडऩे का हुक्म दे दिया और फिर ये विवश होकर गुमला, पलामू, नेतरहाट, रांची में आकर शरण लिए। बाद में असुर लोग कृषि कार्य से जुड़ गए।

महादेव को जगाने का पर्व
असुर कई पर्व मनाते हैं। उनमें से एक पर्व देवठान है। यह दीपावली के नौवें दिन मनाया जाता है। इस पूजा में सोए हुए महादेव को जगाया जाता है। असुर जनजाति में यह आम धारणा है कि महादेव छह महीना सोकर जीव-जंतु की निगरानी करते हैं और छह महीना जागकर रक्षा करते हें। रथयात्रा होने पर महादेव विश्राम करते हैं। यही कारण है कि विवाह-शादी आदि शुभ कार्य रथयात्रा के बाद नहीं किया जाता है। देवठान का पर्व मनाकर एवं महादेव की पूजा कर उनको जगाया जाता है। असुर जनजाति में यह अलिखित विधान है कि विवाह संबंधी बातचीत देवठान पर्व के बाद ही शुरू होती है। इसके अनंतर ही विवाह शुरू होता है। यदि किसी कारणवश विवाह संबंधी बातचीत होने के बाद विवाह नहीं हो पाता है और महादेव सो जाते हैं तो देवठान पर्व में वर पक्ष वधू को साड़ी एवं चूड़ी देते हैं। इस पूजा में महिलाओं का विशेष हाथ होता है। महिलाएं उपवास कर कृषि के उपकरण हल, पाटा, तराजू, अस्त्र-शस्त्र, खलिहान, वृक्ष, कुआं आदि स्थानों पर पूजा कर सिंदूर का टीका लगाती हैं। इसके अलावा असुर होलिका, खड़ासी-कुटासी, सिंगबोंगा, सरहुल, कदलेटा, राइज करमा आदि पर्व मनाते हैं। 




पुस्‍तक छपते ही लग गया था प्रतिबंध

पंडित सुंदर लाल की 'भारत में अंग्रेजी राज' पुस्तक को अंग्रेजों ने खतरनाक पुस्तक माना। छपते ही पांच दिनों के अंदर इस पर अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। नौ साल बाद इस पर से प्रतिबंध हटा।  यह पुस्तक अब फिर से छपकर आई है। पुस्तक मोरहाबादी, मंडा मैदान के वीरेंद्र प्रसाद के सौजन्य से अभी-अभी इसे प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है।
प्रो वीरेंद्र प्रसाद को यह पुस्तक उनके पिता पुलिस अधिकारी हरिहर सिंह से प्राप्त हुई थी। हरिहर सिंह की दो साल पहले, 2016 में 98 साल की उम्र में रांची में ही निधन हुआ। हरिहर सिंह ब्रिटिश काल में बिहार में सीआइडी इंस्पेक्टर रहे। गांधी की हत्या को लेकर छह सदस्यों की जो जांच टीम बनी थीं, उस टीम में  इन्हें भी शामिल किया गया था और उन्होंने जेल जाकर नाथूराम गोडसे से न केवल पूछताछ की थी, बल्कि एक लंबा इंटरव्यू भी लिया था, जिसे अब पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की योजना वीरेंद्रजी बना रहे हैं। वीरेंद्र जी कहते हैं कि यह पुस्तक भी पिताजी ने भागलपुर के अमरपुर थाने से नीलामी में दो रुपये में खरीदी था, तब से मेरे पास थी। हरिहर सिंह एएसपी पद से 1977 में अवकाश ग्रहण किया।

अलग-अलग शहरों से छपी : जैसा कि हम जानते हैं, इस पुस्तक को पंडित सुंदरलाल ने लिखा है। ये बीएचयू के कुलपति भी रहे। ये ऐसे लेखक थे, जिनकी पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राजÓ ने सत्याग्रह या बम-गोली द्वारा अंग्रेजों से लडऩे वालों को सदा प्रेरणा दी। सुंदरलालजी जानते थे कि प्रकाशित होते ही शासन इसे जब्त कर लेगा। अत: उन्होंने इसे कई खंडों में बांटकर अलग-अलग शहरों में छपवाया। तैयार खंडों को प्रयाग में जोड़ा गया और अंतत: 18 मार्च, 1929 को यह पुस्तक प्रकाशित हुई। ओंकार प्रेस, इलाहाबाद से यह छपी थी।
पांच दिन के अंदर जब्त : इसका पहला संस्करण दो हजार प्रतियों का था। जब्ती की आशंका को देखते हुए 1,700 प्रतियां तीन दिन के अंदर ही ग्राहकों तक पहुंचा दी गईं। शेष 300 प्रतियां डाक या रेल द्वारा भेजी जा रही थीं कि इसी बीच अंग्रेजों ने 22 मार्च को इस पर प्रतिबंध लगा दिया और जब्त कर लिया। जो 1,700 पुस्तक जा ग्राहकों तक पहुंच चुकी थीं, अंग्रेजी शासन उसे ढूंढने लगी। इस प्रतिबंध के विरुद्ध देश भर के नेताओं और समाचार पत्रों ने आवाज उठाई। गांधीजी ने यंग इंडिया में इस जब्ती को 'दिन दहाड़े डाका बताया। दूसरी ओर सुंदरलाल प्रतिबंध के विरुद्ध न्यायालय में गए। उनके वकील तेजबहादुर सप्रू ने तर्क दिया कि इसमें एक भी तथ्य असत्य नहीं है। सरकारी वकील ने कहा, 'यह इसीलिए अधिक खतरनाक है।
नौ साल बाद हटा प्रतिबंध : इस पर सुंदरलाल ने संयुक्त प्रांत की सरकार को लिखा। गर्वनर शुरू में तो राजी नहीं हुए, पर 15 नवंबर 1937 को उन्होंने प्र्रतिबंध हटा लिया। इसके बाद अन्य प्रांतों में भी प्रतिबंध हट गया। अब नए संस्करण की तैयारी की गई। चर्चित पुस्तक होने के कारण अब कई लोग इसे छापना चाहते थे, पर सुंदरलाल ने कहा कि वे इसे वहीं छपवाएंगे, जहां से यह कम दाम में छप सके। ओंकार प्रेस, प्रयाग ने इसे केवल सात रुपए मूल्य में छापा।
पहले संस्करण का मूल्य 16 रुपये था। पुस्तक छपकर तैयार होने से पहले ही दस हजार के स्थान पर 14 हजार से ऊपर ग्राहकों के आर्डर आ चुके थे। इसलिए दूसरे संस्करण के निकलते ही तीसरे संस्करण का प्रबंध किया जाने लगा। दूसरे संस्करण की भूमिका में सुंदरलाल ने तारीख नौ सितंबर 1938 लिखा है। देश की आजादी के बाद 1960 में भारत सकार ने इसे प्रकाशित किया। हालांकि कुछ अंश हट गए थे, लेकिन अभी जो प्रकाशित हुई है, वह दूसरे संस्करण से है। इसमें किसी प्रकार का फेरबदल नहीं किया गया है न संपादित। प्रो वीरेंद्र प्रसाद कहते हैं, लंबे समय से यह किताब पड़ी थी, इसका पन्ना-पन्ना अलग हो गया था। अब छपकर आई है तो बड़ा सुकून मिल रहा है। अब दुबारा पाठकों को यह ऐतिहासिक पुस्तक सुलभ होगा।
दैनिक जागरण से साभार

बाबा कार्तिक उरांव ने आदिवासी पहचान की लड़ी थी लड़ाई


कार्तिक उरांव को याद करते समय हमें उनके कामों को भी याद करना चाहिए। व्यक्ति अपने काम से ही याद किया जाता है और वह सदा स्मृतियों में बना रहता है। आज की गलाकाट राजनीति के दौर में उन्हें इस लिहाज से भी याद करना जरूरी हो जाता है कि ऐशो आराम की जिंदगी छोड़ राजनीति में आए तो अपने लिए एक मकान भी नहीं बनवा सके। पं जवाहर लाल नेहरू उन्हें लंदन से लेकर भारत आए, जहां वे पढऩे गए थे। फिर सत्तर के दशक में चुनावी राजनीति में आए और पहली बार असफलता के बाद दूसरी बार कामयाब हुए। पर राजनीति उनके लिए अपने विकास की सीढ़ी नहीं थी। उन्होंने आदिवासियों के विकास को हमेशा ध्यान में रखा। इसलिए, 1967 में अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद की स्थापना की और उसके पहले संस्थापक अध्यक्ष बने। इसके बैनर तले रांची में सरहुल की भव्य शोभायात्रा की शुरुआत की, जो आज इतना भव्य हो गया है, लाखों लोग मांदर के साथ झूमते हुए सड़क पर निकलते हैं। पड़हा व्यवस्था को दुरुस्त किया। सरना कोड की मांग तब उठाई थी। आदिवासी पहचान को लेकर वे बेहद सजग थे। सांस्कृतिक चेतना जगाने के बाद उन्होंने अंबेडकर की तरह आदिवासियों को भी शिक्षित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए। उन्होंने करीब 57 स्कूल खोले, जिसमें अब मात्र नौ ही चल रहे हैं। पूर्व आइजी और बाबा कार्तिक उरांव के दामाद डॉ अरुण उरांव जरूरत कहते हैं कि इन स्कूलों को फिर से चलाने का उपक्रम किया जा रहा है।
गांव से लंदन की यात्रा


गांव से प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद बिहार में बीएससी पढ़ाई की। इसके बाद यहां से सीधे लंदन। एमएससी इंजी लंदन से किया। इसके बाद एआरसीएसटी ग्लास्गो। कार्तिक किसी बड़े शहर में नहीं जन्में थे। गुमला जिले के करौंदा गांव की लीलाटोली में 29 अक्टूबर, 1924 को उनका जन्म हुआ था। आठ दिसंबर, 1981 को निधन। इंजीनियङ्क्षरग के साथ ही बैरिस्ट्री की शिक्षा लिंकन्स इन लंदन से ग्रहण की। यहां आए तो 1950 से 52 तक बिहार सरकार में सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता की नौकरी की। इसके बाद फिर देश को छोड़ विदेश चले गए और 1954 से 1955 डिजाइन डिटेलर ट्विस्ट्रील रिफन्फोर्समेंट लि तथा ईबी बालगेर एंड संस लंदन में काम किया। सितंबर, 1955 से मई 1958 तक तकनीकी सहायक ब्रिटिश रेलवे तथा वरीय तकनीकी सहायक ब्रिटिश ट्रांसपोर्ट कमीशन लंदन में रहे। अगस्त 1958 से फरवरी 1961 तक असैनिक अभियंता डिजाइन, आटोमेटिक पॉवर डिपार्टमेंट, टेलर उड्रा कंस्ट्रक्शन लि मिट्रलेसेक्स यूके में काम किया। इसके बाद दिसंबर, 1961 तक एचइसी में। अगस्त 1962 से 1967 तक डिप्टी चीफ इंजीनियर। हालांकि इसकी कहानी भी दिलचस्प है। इसी दौरान लंदन में नेहरू गए थे। वहां इनकी प्रतिभा देखी तो भारत आने का न्यौता दिया। इसके बाद जब एचइसी की स्थापना होने लगी तो कार्तिक उरांव को बड़ी जिम्मेदारी सौंपी। यही कारण रहा कि इनका कांग्रेस के प्रति झुकाव हो गया। इसके बाद तो 1967 से 1970 तक, 1971 से 1977 तक लोकसभा सदस्य रहे। बिहार विधानसभा सदस्य, 28 जून 1977 से 16 जनवरी 1980 तक रहे। 1980 से आठ दिसंबर, 1981 तक मृत्युपर्यंत संचार राज्यमंत्री भारत सरकार रहे। राष्ट्रीय भाषा परिषद, बिहार के 1968 से 1975 तक सदस्य। हालांकि दर्जन भर से ऊपर राष्ट्रीय और प्रादेशिक संस्थाओं में सक्रिय रहे। मानद सदस्य रहे। उनके पैतृक गांव में जरूर एक बड़ा आयोजन होता है। लेकिन उनके काम को लिखित दस्तावेज के रूप में प्रकाशित करने की व्यवस्था होनी चाहिए।

शेरशाह की राह पर चल 'महानÓ बना अकबर


हिंदी-मैथिली की वरिष्ठ लेखिका उषाकिरण खान अपने नए उपन्यास अगनहिंडोला पर चर्चा कर रही थीं। बातचीत कर रहे थे रांची दूरदर्शन के पूर्व निदेशक प्रमोद कुमार झा। नई-नई जानकारियों के वर्क खुल रहे थे। महज पांच साल के शासन काल में शेरशाह सूरी ने क्या इतिहास रचा था? इस छोटी सी अवधि में उसने जो काम किए, जिसकी नींव रखी, उसी राह चलकर एक मुगल शासक अकबर 'महानÓ बन जाता है, लेकिन हम इस नायक को महानायक मानने से कतराते रहे।

शेरशाह की तीन इच्छाएं जो रह गईं अधूरी
उषाकिरण खान ने चर्चा के दौरान बताया कि उसकी तीन इच्छाएं अधूरी रह गईं। शेरशाह के बारे में हम यह सब जानते हैं कि उसने जीटी रोड बनवाई, सराय बनवाए, डाका चौकी स्थापित की। यह नहीं जानते कि उसने देश में पहली बार तीन गांव के बीच में स्कूल-मदरसे की स्थापना की। पंडित-मौलवियों को बकायदा वेतन की व्यवस्था की और बुढ़ापे में हर पढऩे-लिखने वाले पंडित-मौलवी के लिए वजीफे की व्यवस्था। उसकी तीन अंतिम इच्छाएं जो पूरी नहीं हो सकीं-वह यह थीं कि-वह पूरे भारत में सड़कों का जाल, पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण के साथ-साथ देश के बीच में आड़ी-तिरछी सड़कें, लाहौर के मुगल के किले और शहर को ध्वस्त करना ताकि मुगल फिर दुबारा भारत की ओर आंख उठाकर न देख सकें और भारत से मक्का के बीच समुद्र में बेड़े का निर्माण, ताकि लोग पानी के जहाज से जाते समय बाजार भी करते हुए जा सकें। जमीन की नापी भी उसने टोडरमल के सहयोग से की, बाद में टोडरमल अकबर के नवरत्नों में शामिल हुए। अकबर ने शेरशाह के सकारात्मक कामों को आगे बढ़ाकर महान बना। हालांकि शेरशाह से वह नफरत करता था। पर, शेरशाह का चरित्र ऐसा था कि हुमायूं की मां भी उसके चरित्र की तारीफ की है।
आदिवासियों के साथ बेहतर संबंध
प्रश्नों के जवाब में उषाकिरण ने कहा कि शेरशाह का आदिवासियों के साथ बेहतर संबंध था। आदिवासियों के साथ ही नहीं बंजारों के साथ भी। जो लूटपाट करते थे, सबको काम से जोड़ दिया। सबको निर्माण में लगा दिया। रोहतासगढ़ के आस-पास आदिवासियों की बड़ी आबादी थी। उसके साथ बेहतर संबंध थे। यही नहीं, पूणिया में एक शेरशाहबादी मुसलमान हैं। वे आज भी उसकी प्रतीक्षा करते हैं कि वह आएंगे तो दिल्ली ले जाएंगे। ये किसान हैं और बहुत गरीब। शेरशाह ने इनसे वादा किया था और ये मुसलमान उस वादे की प्रतीक्षा आज भी कर रहे हैं। वह सैनिकों की बहाली खुद करता था। वह आदमी की पिंडली देखकर बता सकता था कि वह किस काम के लायक है और उसी तरह वह घोड़ों की पहचान करता था। उसे इस बात की जानकारी रहती थी कि उसके पास कितने सैनिक हैं, कितने घोड़े हैं। यह सब उसकी जुबान पर रहता था। चूंकि वह एक छोटे से आदमी से देश का शहंशाह बना था और वह भी पांच साल के लिए।
अदीबों का करता था सम्मान
शेरशाह पढ़़ाकू था। वह अदीबों का सम्मान करता था। पहली बार उसने पंडित और मौलवी को वेतन देना शुरू किया। और जो बूढ़े हो चुके थे उनके लिए वजीफे की। उस समय के महान कवि मलिक मोहम्मद जायसी से उसका खासा लगाव था। जायसी शेरशाह को शहंशाह नहीं समझते थे। जब भी शेरशाह उनके पास जाता, वह नीचे जमीन पर बैठता था और जायसी अपने तख्त पर।
स्त्रियों की करता था इज्जत
उषाकिरण ने बताया कि वह स्त्रियों की इज्जत करता था। कहा कि जब हुमायूं अपना हरम छोड़कर भाग गया तो उसमें उसकी स्त्रियां, मां और बहुत सी नौकरानियां थीं। लेकिन हुमायूं के इस हरम को उसने चार महीने तक रोहतासगढ़ में रखा और युद्ध समाप्ति के बाद टोडरमल के साथ हरम को लाहौर के लिए रवाना किया। उसने बहुत शादियां की, लेकिन उसका उद्देश्य संपत्ति अर्जित करना था। नालंदा में एक मकबरा है उसकी एक पत्नी का। वह उससे उम्र में 12 साल बड़ी थीं। शादी केवल संपत्ति के लिए था। उस पत्नी से उसे खूब सोने और अन्य चीजें मिलीं। उसे इस बात का मलाल था कि शहंशाह पत्नी वाला रिश्ता नहीं रखते थे। इस तरह का उसका चरित्र था।
देश और लोकहित के काम
शेरशाह के कई पक्षों पर ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ उषाकिरण बात कर रही थीं। बता रही थीं कि उसने सबसे पहले ङ्क्षहदी में फरमान निकाला। दिल्ली के तख्त पर सिर्फ पांच साल काबिज होने वाले इस सुलतान ने जितने प्रशासनिक एवं लोकहित के कार्य किये कोई दूसरा सालों साल हुकूमत करके भी नहीं कर सका। उसने अमन चैन के लिए ही बंगाल से पंजाब तक पक्की सड़क बनवाई। उसने सड़कों के किनारे जहां सराय बनाने का हुक्म दिया था वहीं दो कोस पर डाक चौकी की स्थापना की। सभी डाक चौकियों पर दो घोड़े घुड़सवार थे। शहंशाह बंगाल में खाने बैठता तो वहां जो नगाड़ा बजता तो तुरत दूसरे पड़ाव पर मालूम हो जाता। देश में एकसा तौल हो इसके लिए मापतौल का एक महकमा ही शुरू कर दिया। छटांक से लेकर पंसेरी तक का बाट एक ही जगह ढाला जाता और बनियों,
अब और उपन्यास नहीं...
बातें केवल अगन पर नहीं रुकीं। भामती से लेकर रतनारे नयन, कहानियां, ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखन पर भी हुई। कहा कि ऐतिहासिक उपन्यास रुचते नहीं। इसमें रुढ़ हो जाना पड़ता है। उपन्यास का चरित्र बांध देता है। यह भी बताया कि पढ़ती सबको हूं, लेकिन प्रभावित हुई धर्मवीर भारती, आशापूर्णा देवी और कृष्णा सोबती से। रतनारे नयन की चर्चा की। गई झूलन टूट पर बात की। बातों का क्रम चलता रहा। लेकिन मन नहीं भरा। लोगों ने सवाल भी पूछे। उन्होंने बताया कि उनका अंतिम उपन्यास मनमोहना रे धारावाहिक छप रहा है और इसके बाद अब उपन्यास नहीं लिखना है।
किसानों को खरीदना पड़ता। ये काम कम नहीं थे।

पत्थल के बनाये हुए मकानों में रहते हैं बनारसी

रांची से घरबन्धु का प्रकाशन 1872 से हो रहा है। 1916 के एक अंक में 'बनारस पर लेख छपा। इसमें लिखा गया, 'बनारस या काशी हिन्दू लोगों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। यह शहर कलकत्ते से उत्तर पश्चिम कोने में दो सौ साढ़े दस कोस दूरी पर गंगा नदी से उत्तर पर स्थित है। यहां गंगा नदी करीब छह सौ गज चौड़ी है और इसके ऊपर रेल का पुल बनाया गया है। यह शहर नदी के किनारे दो कोस लम्बा और चौड़ाई में आधा कोस है। यहां के रास्ते सब ठेढ़े-कुबड़े हैं और गाड़ी की आमद रफत करना मुस्कील है। यहां के बासिन्दे लोग बहुत करके पत्थल के बनाये हुए मकानों में रहते हैं। कोई कोई मकान छह ताला ऊंचे हैं और कहीं-कहीं ऐसा भी देखा जाता है कि रास्ते के दो किनारे के आमने सामने मकानों पर आया जाया करने के लिए पुल बनाया गया है।Ó इस तरह की अनेक रोचक और सूचनापरक बातें इस पत्रिका में हैं, लेकिन इस पत्रिका का अध्ययन किसी ने नहीं किया।

1901 के अंकों में चीन की लड़ाई का जिक्र मिलता है। इसके साथ ही आस-पास की खबरें भी प्रकाशित होती थीं। जरूरी नहीं कि सभी खबरें चर्च की हों। 1911 में इसका एक विशेषांक आया था। कवर पर चार्ज पंचम एवं महारानी मेरी की पारंपरिक वेश में तस्वीर छपी थी। उन्हें कैसर-ए-हिंद कहा गया था। उनकी भारत यात्रा की खबर छपी थी। इसी तरह आज से सौ साल पहले 1918 के एक अंक में हो लोगों के बारे में सूचना दी। खबर का शीर्षक था-हो लोगों के बीच में एक नया धम्र्म। खबर दी गई थी-सिंहभूम जिला के कोलहन प्रगना में जिसमें चेबासा शहर है, खासकर हो लोग पाये जाते हैं। उनकी बोली वो धम्र्म वो दूसरे रीत दस्तूर मुन्डारी लोगों से बहुत मिलती हैं। ये लोग सींग बोंगा याने सूय्र्य को बड़ा देवता मानते हैं। खबर बड़ी है। उस समय पत्रिका की ङ्क्षहदी को भी देख सकते हैं। तब चाइबासा को चेबासा लिखा गया। कोल्हान को कोल्हन और परगना को प्रगना। इस तरह की अनेक रोचक बातें इसमें प्रकाशित होती थीं।

भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में रांची से प्रकाशित 'घरबन्धुÓ शायद पहली पत्रिका है, जो 1872 से अनवरत निकल रही है। 1872 में ही रांची में लिथो प्रेस लगाया गया। दो नवंबर, 1845 को ही यहां जर्मन मिशनरियों के कदम पड़े और कुछ सालों में यहां हिंदी और स्थानीय भाषा सीखकर पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर दिया।

इस पत्रिका का कहीं जिक्र नहीं होता है। चूंकि इसका मूल उद्देश्य धर्म प्रचार करना था, लेकिन इसे प्राचीन पन्ने पलटने से पता चलता है कि इसमें तार के समाचार भी प्रकाशित होते थे। एक दिसंबर, 1872 को इसका पहला अंक आया था। पहले यह पाक्षिक था। बाद में इसे मासिक कर दिया गया और अब यह मासिक ही निकल रही है। पहले इसका टैग लाइन था-चुटिया नागपुर की एवं जेलिकल मंडलियों के लिए और अब गोस्सनर चर्च की मासिक हिंदी पारिवारिक पत्रिका हो गया है। हालांकि गोस्सनर चर्च से करीब अस्सी हजार से ऊपर लोग जुड़े हैं, लेकिन चार-पांच हजार ही प्रकाशित होती है। यहां 1882 से अंक उपलब्ध हैं। इन अंकों में धर्म संबंधी प्रचार सामग्री हिंदी में प्रकाशित होती थी। इसके साथ तार के समाचार, स्थानीय समाचर प्रकाशित होते थे।

रोटरी क्लब में सुनाई थी बांग्लादेश के अभ्युदय की गाथा

रांची का फिरायालाल चौक अब अल्बर्ट एक्का चौक कहा जाता है। अल्बर्ट उन शहीदों में शुमार हैं, जिन्होंने अपना बलिदान देकर बांग्लादेश को पूर्वी पाकिस्तान से आजाद कराया। अल्बर्ट को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। बांग्लादेश की आजादी में अल्बर्ट अकेले नहीं थे, रांची और आस-पास के करीब 26 जवानों ने अपनी जान की आहुति दी थी।
बंगलादेश की आजादी में भारत की बड़ी भूमिका रही। भारती
 देश में भी एक उत्साह था। सैनिकों ने देश का मस्तक ऊंंचा किया था। सैनिकों के प्रति देश नतमस्तक था। रांची में शहीद परिवारों को सहयोग देने के लिए होड़ लग गई थी। 26 शहीद परिवारों को पांच-पांच हजार की मुआवजा राशि तो दी ही गई। जमीन, नौकरी आदि का आश्वासन भी सरकार की ओर से दिया गया। 21 जनवरी को रांची के बारी पार्क में एक समारोह का आयोजन किया गया। इसमें 7 लाख, पांच हजार रुपयों का वितरण किया गया। बिहार के राज्यपाल देवकांत बरुआ ने शहीद परिवार वालों को ये रुपये दिए। परमवीर चक्र विजेता अल्बर्ट एक्का के परिवार को राज्यपाल ने अपनी ओर से 25 हजार रुपये देने की घोषणा की। उनके गांव में पांच एकड़ भूमि भी दी गई, जिसका पर्चा 21 जनवरी को ही राज्यपाल ने अल्बर्ट एक्का के पिता को दिया। उस समय श्रीमति डेविस ने श्रीमति एक्का के लिए डेड़ सौ रुपये मासिक की नौकरी की व्यवस्था की। कहा कि जब वे चाहेंगी, उन्हें यह सुविधा मुहैय्या करा दी जाएगी। यही नहीं, अल्बर्ट एक्का की स्मृति में वेलफेयर सिनेमा के पास स्थित सरकारी भवन का नाम भी अल्बर्ट एक्का के नाम पर किए जाने की सहमति बनी।
   रांची के तत्कालीन डीसी ईश्वर चंद्र कुमार ने भी शहीद परिवार वालों के लिए कई योजनाओं की घोषणा की। कुमार ने बताया कि  '12 शहीदों के परिवार वालों को नौकरी देने की बात तय हो गई है। तीन लोगों ने शिक्षक बनने की चाहना की है। जिला परिषद की ओर से उन्हें शिक्षक का पद दिया जाएगा। 4 व्यक्तियों ने एचइसी में नौकरी करने की इच्छा व्यक्त की है। उन्हें टाउन प्रशासकीय विभाग में नौकरी दिलाने के लिए एचइसी के अधिकारियों से मैंने बात कर ली है। 3 व्यक्तियों को पुलिस की नौकरी में बहाल कर दिया जाएगा। घर बनाने के लिए जो खर्च पड़ेगा उसके लिए मैंने रांची नगर पालिका के अध्यक्ष शिव नारायण जायसवाल से बातें कर ली है। वे खर्च अपने पास से देने को प्रस्तुत हैं।Ó
शहीद परिवारों की सहायता के लिए कई संगठन भी आए और आर्थिक सहायता दी। कुमार ने इसकी भी जानकारी दी, '5.51 लाख रुपये नागरिकों एवं ग्रामीणों द्वारा, 51हजार विजय मेले से आई राशि, 11 हजार विधवा कल्याण हेतु श्रीमती अरोड़ा को प्रेषित, 11 हजार श्री बागची द्वारा, 27,800 रोमन कैथोलिक द्वारा, 3,500 एक अन्य चर्च द्वारा, 2,500 छात्राओं द्वारा एकत्र श्रीमती मेरी लकड़ा के मार्फत से प्राप्त, 12,200 बीआइटी मेसरा, पांच हजार विकास विद्यालय, 7,500 एसपी रांची द्वारा आइजी को प्रेषित, 20,000 एजी द्वारा सेंट?ल आफिस को प्रेषित।Ó इस सभा में यह भी जानकारी दी गई कि श्रीमती डेविस के अमेरीकी परिचित व्यक्ति को जब ज्ञात हुआ कि वे राष्टीय सुरक्षा कोष के लिए धन एकत्रित कर रही है तो भूतपूर्व अमेरिकी सिनेटर श्री डॉन हेवार्ड ने 40 डॉलर की सहायता श्रीमती डेविस के पास भेजी। इसके अतिरिक्त श्रीराम ग्रुप द्वारा 20 लाख रुपये तथा एसीसी ग्रुप द्वारा सात लाख रुपये का दान दिया गया।Ó डा. डेविस कांके मन:चिकित्सा केंद्र के निदेशक थे। बाद में वहीं पर उन्होंने अपना अलग अस्पताल खोल लिया था।
य सैनिकों की जांबाजी का ही यह नतीजा था कि पाकिस्तान की तानाशाह सैनिकों को समर्पण करना पड़ा। 14 दिन के घमासान युद्ध के बाद 1971 में 16 दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में पाकिस्तान के सपने जमींदोज हो गए। 7 जनवरी, 1972 को रांची के रोटरी हॉल में ले. जनरल जगदीश सिंह अरोड़ा ने पूरी कहानी बयां की। उनकी गाथा को तब 'आदिवासीÓ पत्रिका ने संपादित कर छापा था। एक अंश देखिए, 'भारतीय सेना का लौह शिकंजा कसने के साथ हमारे दिलेर एवं दक्ष हवाबाजों ने ढाका में ठीक निशाने पर पाकिस्तान गवर्नर डॉ. मल्लिक के सरकारी निवास-स्थान पर बम बरसाए। हमने ढाका एवं इस्लामाबाद में हुई बातचीत भी सुन लिया। जब तीसरी बार हमारे चतुर हवाबाजों ने बम की वर्षा की तो गवर्नर के होश फाख्ता हो गए तो उसकी सरकार ने इस्तीफा दे दिया और होटल इंटर कांटिनेेंटल में उसने शरण मांगी।Ó आगे बताया, 'हमारी पहली टुकड़ी ने ढाका छावनी के करीब पहुंचकर गोलाबारी शुरू की। उस समय उनके पास चार तोपें थीं, लेकिन पाकिस्तानियों का हौसला पस्त हो चुका था।Ó...  '15 दिसंबर को प्रात:काल पाकिस्तानी जनरल नियाजी ने संदेश भेजा कि वह युद्ध विराम चाहते हैं, हमने जवाब दिया कि युद्ध विराम नहीं। कल सवेरे 9 बजे तक आत्मसमर्पण करें।Ó हुआ भी यही। पाकिस्तान के पास अब कोई विकल्प नहीं था। रांची के जवानों की कहानियां यहीं तक नहीं है। पाकिस्तान फौज के दुर्जेय समझे जाने वाले गढ़ जैसोर को रांची स्थित 9 वीं पैदल डिवीजन ने मुक्त कराया था। बांग्लादेश आजाद हो गया तो अपने देश में भी जश्न का माहौल था। यह जश्न पत्र-पत्रिकाओं में झलका। नए साल का स्वागत आजादी के तराने के साथ शुरू हुआ। आदिवासी के उसी अंक में रोज टेटे ने खडिय़ा में अपनी भावनाएं व्यक्त कीं, जिसे हिंदी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया गया। रोज ने लिखा, जय मिली देश को, हार गया दुश्मन। जन्मा नया देश, नया सूर्य उदित हुआ, नए वर्ष में। रामकृष्ण प्रसाद 'उन्मनÓ ने उत्साहित होकर विजय गीत लिखा, 'लोकतंत्र की विजय हो गई, हार गई है तानाशाही, हम आगे बढ़ते जाते हैं, हर पग पर है विजय हमारी।Ó आचार्य शशिकर ने 'मुक्त कंठÓ से गाया, मुक्त कंठ, गाओ यह गान, धरा मुक्त है, मुक्त है आसमान। प्रो. रामचंद्र वर्मा 'विजय पर्वÓ का संदेश लेकर आए, 'वतन के सपूतों, खुशी अब मनाओ, विजय पर्व आया, विजय गीत गाओ। पराजित हुई शत्राु सेना समर में, फहरती हमारी ध्वजा अब गगन में। जहां में हमारा सुयश छा गया है, धवल कीर्ति को तुम अमर अब बनाओ।Ó
संजय कृष्ण

भारतेंदु बाबू हरिश्चन्द्र का भाषण

-गोपालराम गहमरी

                        जे सूरजते बढ़ि गये
                        गरजे सिंह समान
                        तिनकी आजु समाधि पर
                        मूतत सियरा खान
                                       -भारतेंदु
  मैं सन् 1879 ई में गहमर स्कूल से मिडिल वर्नाक्यूलर की परीक्षा पास करके चार वर्ष तक घर बैठा रहा। गाजीपुर जाकर अंगरेजी पढ़ने का खर्च मेरी माता गरीबी के कारण नहीं सम्हाल सकीं। मैं 13 वर्ष का था, इस कारण नार्मल स्कूल में भरती होने से वंचित हुआ। गहमर स्कूल में ही स्वयं हेडमास्टर से उच्च शिक्षा पाता हुआ लड़कों को भी पढ़ा रहा था। इस तरह चार वर्ष बीत गये। सन् 1883 में पटना नार्मल स्कूल में भरती हुआ। हिंदी वालों के लिए और आश्रय ही नहीं था।
   सन् 1884 में बलिया जिले का बंदोबस्त हिन्दी में हो रहा था। वहां के इंचार्ज मुंशी चेथरूलाल डिप्टी कलेक्टर थे और कलक्टर राबर्ट रोज साहब हिंदी के प्रेमी थे। कानूनगो धनपतलाल सुन्दर हिंदी लिखने वालों की खोज में पटना नार्मल स्कूल पहुंचे। वहां से चालीस छात्रों को बलिया लाये। मैं भी उन्हीं में पटने से बलिया आया। बलिया जिले में गड़वार में बंदोबस्त का दफ्तर था। हिंदी के सैकड़ांे सुलेखक उसमें काम करते थे। खसरा जमाबंदी सुबोध सुंदर देवनागरी अक्षरों में लिखने वाले मुहर्रिर सफाई कहलाते थे। सौ नम्बर खेतों का खसरा लिखने पर चार आना मिलता था, इस काम से बहुत से हिंदी के लेखक अपना उदर-भरण करते थे। मथुरा के मातादीन शुक्ल और जोरावर मिश्र उसमें सुयशभान सुलेखक थे। कलेक्टर साहब के हिंदी प्रेम का उन दिनों डंका बज गया था। मातादीन शुक्ल ने ‘देवाक्षरचरित’ नाटक लिखकर वहां स्टेज किया था।
   उसी में नदीवनी हिंदी कलक्टर साहब के द्वार पर पधारी थी और द्वारपाल के पूछने पर कहा था-
                 संस्कृत देवासुअन देवाक्षर मम नाम
                 बंगदेश आदिक रमत आइ गयों एहि ठाम
                 श्रवण सुन्यो यहि नगर को हाकिम परम उदार
                 सो पहुंचावहु तासु ढिग मनिहौं बड़ उपकार
   इस निवेदन पर द्वारपाल ने गरीबिनी हिंदी को कलक्टर साहब के सामने पहुंचा दिया। उन्होंने सम्मान से हिंदी का यर्थाथवाद और सद्गुण पर रखकर उसको स्थान दिया और हिंदी में बंदोबस्त का काम जारी हुआ। यही नाटक का दृश्य था।
   बिहार की कचहरियों में पंडित केशोराम भ, पंडित शालीग्राम त्रिपाठी ठाकुर रामदीन सिंह आदि सज्जनों के उद्योग से जो हिंदी प्रचलित हुई थी, जिसका स्थान कैथी ने अधिकृत कर लिया था। उसके पश्चात यू.पी. में ही पहले पहल हिंदी का सरकारी कागजों में यह प्रवेश पहला कदम था। नहीं तो उन दिनों हिंदी का नाम भी कोई नहीं लेता था। पाठशाला तो पंडितों की बैठक मंे थी जहां वर्षों सारस्वत कंठ करने वाले छात्रों की पढ़़ाई होती थी। जहां हम लोग पढ़ते थे वह मदरसा कहलाता था। पढ़ने की पंि या श्रेणी वहां कहां, दरजा और क्लास भी नहीं उसको सफ कहते थे। सफ में रामागति और क,ख,ग, पढ़ने वाले भरती होकर सफ 7 में जाते। उ$पर उठते-उठते सफ अव्वल मंे जाकर मिडिल वर्नाक्यूलर कहलाते थे। मास्टर या शिक्षक उन दिनों सुनने को नहीं मिलते थे-मुदर्रिस कहलाते थे। उन्हीं दिनों काशी के बाबू हरिश्चंद्र ने हिंदी को नवजीवन दान किया था। उन्हीं दिनों काशी के श्री रामशंकर व्यास महोदय के प्रस्ताव पर उन्हें भारतेंदु की सर्वमान्य उपाधि दी गयी थी। हम लोग उनकी कविता हरिश्चन्द्र चन्द्रिका और मैगजीन में कभी-कभी पढ़ने को पा जाते थे। काशी से सन् 1884 ई में ही बाबू रामकृष्ण वर्मा ने अपने जादू घर से भारत जीवन साप्ताहिक का जन्म दिया था। उसमें हर सप्ताह एक नया छप्पय श्री विजयानन्द त्रिपाठी का छपता रहा। अन्त को छप्पय बन्द करके त्रिपाठी जी ने यह दोहा ‘ भारतजीवन’ का मोटो बना कर दियाः-
              जयति ईश जाकी कृपा लेश ललित सर्वत्रा,
              ‘भारतजीवन’ हित लसत ‘भारतजीवन’ पत्रा।

  तबसे यही भारतजीवन का भाल तिलक अन्त तक रहा।
   श्री मातादीन शुक्ल रचित देवाक्षर रचित जब बलिया में अभिनीत हुआ, बहुत गणमान्य सज्जन दर्शकों में पधारे थे। नाटक में वहां बजाजों से रंगीन थान मंगाकर पर्दे बनाये गये थे। हिन्दी में पहले पहल वही नाटक वहां के हिन्दी प्रेमियों को देखने को मिला। वहां का उत्साह और सार्वजनिक भाषा स्नेह इतना उमड़ा कि श्री मातादीन शुक्ल के सुझाव और आग्रह पर मुंशी चेथरूलाल ने कलक्टर साहब को हिन्दी की ओर बहुत आकृष्ट किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र वहां आमंत्रित हुए। उनकी मंडली सब सामान से लैस वहां पहुंची। मैं उनदिनों बाबू राधा कृष्णदास से ही परिचित था। वह बच्चा बाबू कहलाते थे। उन्होंने दुःखिनीबाला नामक एक छोटा सा ग्रंथ लिखा था। मैं उन दिनों 18 वर्ष का था, हिन्दी लिखने की रुचि थी, सामर्थ्य कम। भारतेंदु की मंडली भरके दर्शन मुझे वहीं बलिया में हुए थे और भारतेंदु का दर्शन पाकर अपने तई कृतार्थ हुआ। बड़ी श्रद्धा भक्ति से वहां भारतेंदु के नाटक लोगों ने देखे। भारतेंदु ने स्वयं हरिश्चंद्र बनकर सत्य हरिश्चंद्र का नाटक स्टेज पर खेला था।
   उसके बाद भारत जननी और नील देवी नाटक भी खेला गया। भारत दुर्दशा का खेल हुआ। तीनों नाटकों में देशी विदेशी सज्जनों की आपार भीड़ थी। सत्य हरिश्चंद्र में जब डोम सरदार ने यों कहके हरिश्चंद्र को मोल लिया और अपना काम सौंपाः-
                   हम चौधरी डोम सरदार
                   अमल हमारा दोनों पार
                   सब समान पर हमारा राज
                   कफ़न मांगने का है काज
                   सो हम तुमको लेंगे मोल
                  देंगे मोहर गांठ से खोल

   साहित्य रसिक योग्य आलोचक देखें कि डोम के मुंह से निकलने वाले कैसे चुभते सरल शब्द हैं। आजकल के लेखकों के नाटकों में देखता हूं, ऐसे गंवार मुंह के पात्रों से वह संस्कृताहट के पंच से रहे शब्द निकलते हैं कि लोग अर्थ समझने के लिए कोश उलटने को बाध्य होते हैं।
   भारतेंदु जी जिस पात्रा के मुंह से जैसा शब्द चाहिए वैसा गुम्फित करके नाटकत्व की जो मर्यादा रखी है उसका अनुकरण करने वाले स्वाभाविकता दर्शाने वाले मर्म्मज्ञ उंगलियों पर गिनने योग्य सुलेखक भी हिन्दी में नहीं दीखते।
   यह चौधरी डोम सरदार के शब्द हरिश्चंद्र को उस समय मिले जब उन्होंने विश्वामित्रा के निर्मम उलाहने और तीखे विष से भरे वचन वाण से मूचर््िछत-प्राय होकर करुणार्द्र स्वर से कहा था- मुनिराज अपना शरीर बेचकर एक लाख मुहर दूंगा।
   विश्वामित्रा ने कहा- तूने अपना राज मुझे दान कर दिया, खजांची को पुकारने का तेरा अधिकार नहीं। तू शरीर बेचेगा कहां? सारा राज तो हमारा है। हरिश्चंद्र ने कहा- काशी शिव के त्रिशूल पर बसी है। उसी की भूमि में अपने तई बेचूंगा। वही डोम चौधरी सरदार ने उन्हें मोल लिया-
    कफन मांगने का काम सुचारू रूप से संपादित करते हुए एक दिन श्मशान में जब शैव्या अपने सर्पदष्ट पुत्रा रोहिताश्व का मृत शरीर लिए श्मशान में संस्कार करने आई और हरिश्चंद्र ने कफन का दान मांगा-
    शैव्या ने विलख कर कहा-
    मैं अपना आंचल फाड़ कर कुंवर का शव ढांका है। इसको आधा फाड़कर देने में तो उधार हो जायेगा नाथ? कैसे क्या करूं भगवन्!
    यही कहकर जो उसने आंसू हाथ से पोंछे तो सामने ही पसारे हुए हाथ की हथेली पर चक्रवर्ती राजा का चिन देख पहचान गई और कहने लगी-
    नाथ, यह तुम्हारा ही कुंवर रोहिताश्व है। अब कहां से मैं कफन दूं।
    आंसू रोक कर हरिश्चंद्र ने अपने तई सम्हालते हुए कहा-

    हमको अपना कर्ाव्य पालन करने दो देवी-
   उस समय कलेक्टर साहब की मेम ने अपने पति द्वारा कहलाया कि बाबू से बोलो- एक्ट आगे बढ़ावें। वहां मेमों के रुमाल भींग रहे थे। उनको कहां मालूूम था कि उसके आगे तो त्रिलोकीनाथ का आसन डोलेगा और अमिय वृष्टि नभ से होगी। नाटक का अंत होगा।
   भारतेंदु ने ओवर एक्ट उस समय किया। विलाप के मारे सब देशी विदेशी दर्शकों के अश्रु बेरोक प्रवाहित हो रहे थे। करुणा में सब विभोर थे कलक्टर साहब करुणा में अवाक् थे। स्टेज पर करुणा खड़ी थी। शैव्या रूपधारिणी बंग-महिला ने जो करुणा बरसाये, उससे सब विचलित हो गये थे ।
   भारतेंदु के श्मशान वर्णन के शब्द देखिए-
             सोई भुज जे प्रिय गर डारे
             भुज जिन रण विक्रम मारे 
             सोई सिर जहुं, निज बच टेका
            सोई दय जहुं भाव अनेका 
            तृण न बोझ हुं जिनत सम्हारे
            तिन पर काठ बोझ बहु डारे
            सिर पीड़ा जिनकी नहि हेरी
            करन कपाल क्रिया तिन केरी
            प्राणहुं से बढ़ि जाकहुं चाहै
            ता कहुं आजु सबै मिलि दाहैं।

   इस करुणा को लांघकर उस कफन मोचन का अवसर किसी से स नहीं हुआ था। उसके बाद ही तो आसन डोला, सब जी गये। करुणा बीत गयी, अमिय वृष्टि से नाटक का अंत हुआ। हेमंत की हाड़ कंपाने वाली भयंकर शीत में हम लोग बलिया से गड़वार पैदल रवाना हो गये।
    भारतेंदु जी अपनी मंडली सहित ससम्मान वहां से विदा होकर काशी लौट गये। सन् 1884 ई को अंतिम मास था। सुना काशी पहुंचने पर रुग्ण हो गये। छाती में उनके दर्द उठा। एक मित्रा से सुना कि भारतेंदु जी एकांत में योग साधन करते थे। नित्य के साधन में किसी समय कुछ भूल हो गई छाती में वेदना होने लगी। उस वेदना से ही उनका अंतिम काल आया।
   छह जनवरी सन् 1889 मंगलवार को काशी में उनका स्वर्गवास हो गया। हिन्दी का ाृंगार नस गया। भारतेंदु का अस्त हुआ। भारत जीवन सर सुधानिधि, भारतमित्रा मासिक भारतेंदु ब्राण हिन्दी प्रदीप आदि समस्त पत्रों में महीनों विषाद रहा। सब पत्रों ने काला कलेवर करके दुःख प्रकट किया।
    भारतेंदु ने एक स्थान पर लिखा है-
                   कहेंगे सबैही नयन नीर भरि-भरि
                   पाछे प्यारे हरिश्चंद्र की
                   कहानी रहि जायगी।

  अब वही रह गई है।
                                
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गोपाल राम गहमरी के संस्‍मरण पुस्‍तक से साभार।

भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी दिए जाने पर गांधी का वक्‍तव्‍य

                                                                                                                         नई दिल्ली
                                                                                                                       23 मार्च 1931
भगत सिंह और उनके साथी फांसी पाकर शहीद बन गए हैं। ऐसा लगता है मानो उनकी मृत्यु से हजारों लोगों की निजी हानि हुई है। इन नव युवक देशभक्तों की याद में प्रशंसा के जो शबद कहे जा सकते हैं, मैं उनके साथ हूं। तो भी देश के युवकों को उनके उदाहरण की नकल करने के विरुद्ध चेतावनी देता हूं। बलिदान करने की अपनी शक्ति, अपने परिश्रम और त्याग करने के अपने उत्साह का उपयोग हम उनकी तरह न करें। इस देश की मुक्ति खून करके प्राप्त नहीं की जानी चाहिए।
सरकार के बारे में मुझे ऐसे लगे बिना नहीं रहता कि उसने क्रांतिकारी पक्ष को अपने पक्ष में करने का सुनहरा अवसर गंवा दिया है। समझौते की दृष्टि में रखकर और कुछ नहीं तो फांसी की सजा को अनिश्चित काल तक अमल में न लाना उसका फर्ज था। सरकार ने अपने काम से समझौते को बड़ा धक्का पहुंचाया है और एक बार फिर लोकमत को ठुकराने और अपने अपरिमित पशुबल का प्रदर्शन करने की शक्ति को साबित किया है।
 पशुबल से काम लेने का यह आग्रह कदाचित अशुभ का सूचक है और यह बताता
है कि वह मुंह से तो शानदार और नेक इरादे जाहिर करती है, पर सत्ता नहीं छोडऩा चाहती। फिर भी प्रजा का कर्तव्य तो स्पष्ट है।
कांग्रेस को अपने निश्चित मार्ग से नहीं हटना चाहिए। मेरा मत तो यह है कि ज्यादा से ज्यादा उत्तेजना के कारण होने पर भी कांग्रेस समझौते को मान्य रखे और आशानुकूल परिणाम प्राप्त करने की शक्ति की परीक्षा होने दे।
 गुस्से में आकर हमें गलत मार्ग पर नहीं जाना चाहिए। सजा में कमी करना समझौते का भाग नहीं था, यह हमें समझ लेना चाहिए। हम सरकार पर गुंडाशाही का आरोप तो लगा सकते हैं, किंतु हम उस पर समझौते की शर्तों को भंग करने का आरोप नहीं लगा सकते। मेरा निश्चित मत है कि सरकार द्वारा की गई इस गंभीर भूल के परिणामस्वरूप स्वतंत्रा प्राप्त करने की हमारी शक्ति में वृद्धि हुई है और उसके लिए भगत सिंह और साथियों ने मृत्यु को भेंटा है।
थोड़ा भी क्रोधपूर्ण काम करके हम मौके को हाथ से न गंवा दें। सार्वजनिक हडताल होगी, यह तो निर्विवाद ही है। बिल्कुल शांत और गंभीरता के साथ जुलूस निकालने से बढ़कर और किसी दूसरे तरीके से हम मौत के मुंह में जाने वाले इन देशभक्तों का सम्मान कर भी नहीं सकते।



गांधी वांगमय से साभार