और जिंदगी चलती रही

राधाकृष्ण सिंगबोंगा है, वह मरंगबुरु पर रहता है। बिरबोंगा जंगल में रहता है। हातुबोंगा गांव की रक्षा करता है। देसाउली, गांवादेउती, दरहा कितना गिनाएं, बहुत बोंगा हैं। सारा जगत बोंगाओं से भरा हुआ है। धरती और आसमान और हवा, सब जगह उनकी गति है। अंधकार और प्रकाश, दोनों में वे समान रूप से देखते हैं। हवा और पानी, दोनों में समान रूप से विचरण करते हैं। पहाड़ से फूट निकलने वाले सोतों में वे पानी लाते हैं, खेतों को वे अच्छी फसल देते हैं। सिरगुजिया के फूलों में जो पीलापन है उसे भी सिगबोंगा ने दिया है। उसी की कृपा से चिड़ियां पेड़ों की टहनी पर रात बिताती हैं और जंगली जानवर पहाड़ की गुफाओं में रहते हैं। मगर अब ऐसा जमाना आया है कि अच्छे बोंगाओं की कम चलती है। बरेंदा बोंगा ही आजकल प्रमुख हो रहे हैं। वे न जाने कहां से रोग लिए चले बाते हैं! शरीर की गांठ-गांठ में घुसकर दर्द उत्पन्न कर देते हैं और आदमी को गठिया हो जाती है। वे बूड़े और बूढ़ियों की छाती के भीतर चले जाते हैं और खांसी और दमा उत्पन्न कर देते हैं। बुरे बोंगाओं की अदृश्य हंसी के हिलकोरों से शरीर दलदलाने लगता है और मलेरिया बुखार उत्पन्न हो जाता है। बरेंदा बोंगा बुरे-बुरे सपने भेजते हैं और उन्हीं सपनों के पीछे-पीछे छिपकर आते हैं। वे खेतों में अच्छी उपज नहीं होने देते। बादलों को बरसने से रोक लेते हैं। धान की खेती में पसरा फूट जाता है। अगहन के महीने में घास भी पुआल की तरह सूख जाती है। जानवरों को चारा नहीं मिलता। गर्मी में चुआं-डाडी सब सूख जाती है। तब प्यास के मारे जानवर मरने लगते हैं और भूख के मारे आदमी का बुरा हाल हो जाता है। बोंगाओं को प्रसन्न करने के लिए बकरा और मुर्गे-मुर्गियों की बलि दी जाती है, सुअर का रक्त चढ़ाया जाता है। उन्हें इतनी बलि दी गयी कि बकरे तो मिलते ही नहीं, सुअर मंहगे हो गये और गांव में मुर्गे-मुर्गी भी कम पड़ गये हैं। लीटा गांव का भगत है। वह मांस नहीं खाता, मदिरा नहीं पीता, हंडियां से भी अलग रहता है। वह दिन और रात अपनी भक्ति में मस्त रहता है। उसकी लाल-लाल आंखें सोये हुए मंत्रों को जगाती हैं। वे मंत्र जागते हैं और दुनिया को देखते हैं। लीटा भगत की जटाएं झूलती हैं। वह अपनी झूलती हुई जटाओं को झटकारा देकर कांपने लगता है। वह थर-थर कांपता है और उन्मत्त होकर नाचता है और सिर हिलाता है। सिर हिलाता है और कहता है- 'अरे नागपुरवालो, कहां गया हमारा कंचन और हीरे का नागपुर! कंचन माटी हो गया और हीरे ओस की तरह बिला गये। नागापुर देश के अंग मैले पड़ गये। इस नागपुर की आंखों से रत-रत आंसू बहते हैं। धरती में सत नहीं रहा, आसमान में मेघ नहीं रहे, जंगल में बूटियां नहीं रहीं। भंडारकोने की हवा चलती है तब भी पानी नहीं बरसाता, तब भी धरती की तृप्ति नहीं होती, नागपुर में जान रही हो नहीं। आदिवासियों के मन में खटाई पड़ गयी है। उनका दिल फट गया है। जो उन्हे जैसा चाहता है वैसा समझता है और भेड़ की तरह हांकता है। भागो रे भैया, यहां से भागो! रे भैया, यहां से भागो! अब यहां नागपुर में जीना मुश्किल है।' और लोग परिस्थितियों से विवश, आत्मविश्वास से हीन होकर जहां-तहां कमाने के लिए चले जाते हैं। असम, भूटान, बंगाल, जहां जिसका जो आया, जहां जिसे सुविधा मिली, भाग निकलता है। लगातार वर्षों से ऐसा चला आ रहा है। खेतों में उपज घटती जाती है और गांव के आदमी भी घटते जाते हैं। सारा गांव सूना-सूना लगता है। जो लोग गांव में हैं वे भी आपस में मिलते नहीं। मिलते हैं तो बोलते नहीं। बोलते हैं तो कम बोलते हैं और अपने अभाग्य के बारे में ही बोलते हैं। सबके चेहरों पर बरेंदा बोंगा का आतंक दिखलायी देता है। लगता है जैसे वे थकावट, भूख और परेशानी से चूर हैं। आंखें थकीं, चिन्ता से चूर। ऐसा मालूम होता है जैसे वे वास्तविकता को नहीं देखते, सपना देख रहे हैं। इस गांव में सन्नाटा नहीं हो तो क्या हो? रात के समय जंगल से पिशाच के रोने की साफ आवाज आती है। एक ओर वह रोता है, दूसरी ओर सियारों की भीड़ रोती है। सुनने वाले भय से सिहर उठते हैं और उनके शरीर से पसीना छूटने लगता है। अजीब हालत है। अजीब दुनिया हो गयी है। कभी-कभी रात को तारे आंसू की तरह टपक जाते हैं। रेंपा उरांव की स्त्री बीमार है। वह करवट बदलती है और पानी मांगती है। रेंपा चुपचाप पानी दे देता है। उसकी छाती में बात अटकी हुई है। वह बात बाहर नहीं निकल पाती। वह कहने लगता है-'कुछ नहीं है। सब ठीक हो जायेगा। रात मुझे सपना आया था। फिर परसों काली रात में भी मुझे कुछ दिखलायी दे गया था। रोशनी की एक चमक थी। आयी और चली गयी।' रेंपा की स्त्री कराहती हुई अपना सिर उठाती है, पानी पीती है और फिर लेट जाती है। वह अपनी क्षीण आवाज में बोलती है- 'सपना तो मुझे भी आया था। कोई मुझसे कहता है, चरका मुर्गा दो, तपावन दो। फिर मैंने फिटफिट उजली साड़ी पहने एक औरत को देखा। उसके सिर में टेटन था। वह कहती थी कि मुर्गा तो देना ही पड़ेगा, चरका मुर्गा देना पड़ेगा।.... तुम नहीं रहते तो मैं किसी की आवाज भी सुनती है। वह झींगुर की तरह बोलता है और एक ही सुर में अपनी बात कहता जाता है। रे-रे कहता वह न जाने क्या कहता है। नदी किनारे से कोई उसे बगुले की आवाज में टोकता है; मगर वह सुनता नहीं । अपनी बात कहता चला जाता है। न जाने क्या बात है ।' और उसके मन का आतंक उसकी आंखों में उभर आता है। उसकी आंखें पथरा जाती हैं। वह ज्यादा कुछ कहना चाहती है। चाहती है कि अपने मन की गांठ खोल दे; मगर बोल नहीं पाती। वह चुप रह जाती है और लेटी-लेटी ऊपर छप्पर की ओर देखने लगती है वहां काले काले झोल झूल रहे हैं और लौकी के तीन पुराने तूंबे लटके हुए हैं। और रेंपा सोच में पड़ जाता है। वह जानता है कि रांगी ने कम कहा है। बात इससे बहुत ज्यादा है। मगर क्या हो? न चरका मुर्गा है और न होने की उम्मीद है। धान इस साल कम हुआ। चने के खेत को पाला मार गया। सोंस या इटकी में, या नरकोपी के बाजार में उजला मुर्गा मिल भी जाय; शायद जरूर ही मिल जाय। मगर पैसे कहां? इन मुर्गे-मुर्गियों का दाम भी बहुत चढ़ गया है। पहले पांच आने में एक मुर्गा मिलता था। अब पांच रुपयों में भी एक जोड़ा नहीं हो पाता। एक बार मिलीटरी वाले आकर सारे राज्य का मुर्गा खा गये थे, अब हटिया में कारखाना खुल रहा है। रेंपा सोच में पड़ा डूबता उतराता है। आंखों के सामने जो दुनिया है वह शायद उसके लिए नहीं है। उसकी दुनिया भयानक पिशाचों से भरी है जहां सफेद मुर्गे दिखलायी नहीं पड़ते। रेंपा की स्त्री रांगी सिर उठाकर पानी मांगती है, रेंपा फिर उसे पानी दे देता है। रांगी पानी पीने लगती है और रेंपा गंभीरता के साथ कहता है-'बबराने की बात नहीं। उस दिन मैंने सपना देखा था। सपने में तुम अपने जुड़े में सफेद पंख खोंसकर बाजार जा रही थी।' रांगी एक लम्बी सांस लेती है। कहती है-'मगर सफेद मुर्गा कहां मिलेगा?' और रेंपा फिर सोच में पड़ जाता है। सफेद मुर्गा कहां मिलेगा? क्या सारे संसार में कहीं भी सफेद मुर्गा नहीं है? उसकी कल्पना की आंखों के सामने एक सफेद मुर्गा दिखलायी देता है जो पंख फड़फड़ा रहा है। रेंपा उसे पकड़ लेना चाहता है। मगर कैसे पकड़े? फिर भी रांगी के लिए उसे पकड़ना ही होगा, सफेद मुर्गा लाना ही होगा। लीटा को आप जानते हैं। लीटा गांव का भगत है। बीती हुई बातें उससे होने वाली बातें बतला देती है। वह सब जानता है। कोई भी बात ऐसी नहीं जो वह न जानता हो। उसके ऊपर बोंगाओं की कृपा है। न जाने कितने बोंगा उसने वश में करके रखे हैं। उसके अच्छे बोंगा बुरे बोंगाओं के उत्पात को दबाते हैं। जब वह बोंगा को बुलाता है तो कभी-कभी उसका बोंगा बवंडर पर चढ़कर उसके पास तक आता है। उस बोंगा को दूसरे देख नहीं पाते, सिर्फ लीटा देखता है। वे लीटा की बात सुनते हैं और चुपके से उसके कान में बहुत-सी बातें कह जाते हैं। जब बोंगा उसके तन-मन पर छा आता है तो उसके मुंह से 'फेचकुर' निकलने लगता है। वह कांपता है और चिल्लाता है और ऊपर-नीचे सिर हिला हिलाकर अपनी जटाओं को पटकता है। उस समय लीटा की जीभ सो जाती है और उसके मुंह से बोंगा बोलने लगता है। बोंगा बहुत-सी बातें बोलता है। होनेवाली बातें, न होनेवाली बातें। कुछ बात समझ में आती है, बहुत कुछ समझ में नहीं आतीं। बहुत देर तक बोंगा उसके शरीर से खेलता रहता है, फिर वहां से चला जाता है। लीटा भगत जब जमीन पर औंधे-मुंह गिरकर बेहोश हो जाता है। वह देर तक बेहोश पड़ा रहता है और जमीन पर अपनी एड़ियां रगड़ता है। जब उसे होश होता है तब वह बहुत ही शिथिल, खिन्न और मलीन मालूम होता है। वह यह भी नहीं जानता कि वैसी हालत में उसने क्या-क्या बातें कहीं। जिस समय रेंपा उसके पास गया वह अपने घर के सामने वाले महुए के पेड़ के नीचे फटी हुई खजूर की चटाई पर फटा कंबल ओड़े बैठा-बैठा यों ही झूम रहा था। आंखें उसकी बंद थीं। उसके सामने तीन शिष्य सूप लेकर चावल बीनते हुए मंत्र गुनगुना रहे थे। रेंपा दूरी पर बैठा हुआा हाथ जोड़े इस बात की राह देख रहा था कि लीटा आंख खोले तो उससे कुछ कहूं। लीटा ने आंखें खोलीं। उसकी आंखें लाल थीं। वह रेंपा को अपने सामने हाथ जोड़े देखकर मुस्कराया। जैसे वह सब जानता है, सब समझता है। उसकी मुस्कराहट भयानक थी। रेंपा सिहर उठा । 'भगत बाबा !'- रेंपा ने दीनता से गिड़गिड़ा कर सम्बोधन किया । 'कहो !' लीटा ने इस तरह कहा मानों वह सब जानता है, फिर भी तुम कह दो। कह दो कि जो कुछ वह जानता है वह ठीक है या नहीं। रेंपा ने कहा- 'भगत बाबा, रांगी दस दिन से बीमार है। रांगी को अच्छा कर दो। वह तुम्हारा आंगन लीप देगी, तुम्हारे खेत में गोबर ढो देगी। रांगी बहुत बीमार है। लीटा भगत एकबारगी चिल्ला उठा-'बीमार नहीं होगी तो क्या होगी। वह सिदुनार की झाड़ी के पास से निकली होगी और भूत ने उसे छू लिया होगा। उसने सपना देखा था?' 'देखा था।' 'तुमने भी सपना देखा?' 'देखा बाबा! तुम सच कहते हो।' 'सपना क्या कहता है?' 'चरका मुर्गा!' लीटा भगत चिल्लाया-'तो दे-दे उसे चरका मुर्गा। तेरे लिए और उपाय की क्या है। जाकर उसके नाम पर चरका मुर्गा दे दे।....नहीं-नहीं, सुन। मुर्गा मेरे पास लेते आना। हम अपने सामने मुर्गा दिलावेंगे। फिर वह रक्त के साथ बेईमानी नहीं कर सकेगा। पाजी ने रांगी को छू दिया। कितनी अच्छी लड़की है रांगी! मेरे सामने मुर्गा देगा, तो वह बेईमानी नहीं कर सकेगा। तू फिकर न कर। सब ठीक हो जायेगा।' रेंपा कुछ कहना चाहता है, लेकिन उसके मुंह से बात निकल नहीं पाती। ज्यादा झंझट अब नहीं रही। सिर्फ मुर्गा देना है। मुर्गा लेकर वह भूत चला जायगा। लीटा भगत की बात सदा सच्ची उतरती है। यह बात भी सच्ची निकलेगी। रांगी अच्छी हो जायेगी। मंगर... रेंपा के मुंह से बात नहीं निकल पाती। लीटा आप ही आप बड़बड़ाने लगा और शिष्यों के सूप से चावल उठा-उठा कर फेंकने लगा। वह बोलता जा रहा था-'जा रे रेंपा, उसे चरका मुर्गा वे देना, वह फिर नहीं आयेगा। रांगी बिचारी अच्छी हो जायेगी। रांगी को अब कुछ नहीं हो सकता। इन पाजी भूतों को मैं क्या कहूं। हजार बार समझाया कि हमारे गांव में किसी को तंग मत करो। मगर... अच्छा, अब जरा फागुन बीत जाय तो उन हरामजादों से समझूंगा। सबको सेमर के पेड़ में पत्तों से बांध दूंगा। जरा पूरब की धूप तीखी हो जाय और दक्खिन से हवा आने लगे। फिर तो एक-एक की नाक पकड़कर नाथ दूंगा।' रेंपा अभी तक चुपचाप खड़ा था। लीटा भगत ने कहा- 'जा यहां से। तू जाता क्यों नहीं?' रेंपा ने कहा- 'भगत बाबा, इस साल धान की फसल अच्छी नहीं हुई। जहां पचास काठ होता था, वहां पंद्रह काठ मिला। फिर चने के खेत को पाला मार गया। न पास में पैसे हैं और न गांव में मजूरी। चरका मुर्गा कहां से लाऊं, कैसे दूं। मेरे पास कोई उपाय नहीं है।' लीटा का चेहरा कठोर हो गया। उसने अपनी चुभने वाली नजर डालकर कहा, 'तेरे पास उपाय नहीं तो मेरे पास भी उपाय नहीं है। जो मुर्गा मांगता है उससे कह।' 'वह जानता है मगर समझता नहीं मैंने रो-रोकर कहा।' 'तो मैं क्या करू? वह तो पाजी है। बिना मुर्गा नहीं मानेगा।' 'अगले साल तक मना लो।' 'वह मेरी बात मानता तो रांगी को छूता ही नहीं। वह दुष्ट है, दुष्ट। वह नहीं समझेगा। मुर्गे के लिए तुम्हें कोई उपाय करना ही होगा।' रेंपा उदास वहां से चल पड़ा। उसने समझा था कि लीटा मंत्र पढ़कर पानी छींट देगा और सब ठीक हो जायगा। हो सकता है वह बहेरा का पल्लव लेकर उसे मंत्र से सिंचित कर दे और उसे दे दे। मगर उसने यह सब कुछ भी नहीं किया। उसने भी कह दिया चरका मुर्गा !... मगर मुर्गा कहां से आये। पास पैसे नहीं; घर में अनाज नहीं।.... तीन दिन बीत गये। रेंपा की स्त्री बीमारी से कातर है। अब तो उसकी आवाज भी क्षीण हो गयी है। मांड़ या भात कुछ भी तो नहीं मिलता। शरीर में ताकत कहां से हो। अगर एक बार के लिए भी बुखार उतर जाता तो भात के साथ बथुआ का साग दे दिया जरा। फिर रोग भी ठीक हो जाता और ताकत भो आ जाती। मगर बुखार ऐसा था जो जाने का नाम ही नहीं लेता था। आज रेंपा सफेद मुर्गे की खोज में निकला है। चाहे जहां से हो, एक सफेद मुर्गा लाना ही होगा। गांववालों ने उधार नहीं दिया तो इससे क्या। दूसरे गांव में मिल जायगा। दूसरे में न मिला तो तीसरे गांव में मिलेगा। चाहे जहां से हो, आज एक मुर्गा खोजना ही है। दोपहर हो चुकी है। आसमान में उजले बादल उड़ते आये और एक जगह स्थिर हो गये। रेंपा ने पतरा पार किया, खेतों को पार किया और ढ़ोंढ़ा लांघता हुआ दूसरे गांव में पहुंच गया। खोजने पर भी सफेद मुर्गा मिलता नहीं। यह भी भाग्य की बात है। भाग्य ही खोटे हैं तब तो रांगी बीमार पड़ी। सो बीमार भी पड़ी तो ऐसे समय जब घर में कुछ भी नहीं। सब किस्मत का खेल है। जिसकी किस्मत खराब होती है उसी को भूत सताता है, उसी को बीमारी होती है। सफेद मुर्गा दिये बिना कोई चारा नहीं। सामने गांव था। छोटे-छोटे मिट्टी के दस-पांच घर। उधर सूअर की टोली दौड़ती हुई चली जा रही है। रेंपा ने देखा कि गोबर के ढेर पर एक सफेद मुर्गा चुग रहा है। ऐसा उजला जैसे बगुला। रेंपा का मन ललक उठा। वह जैसा बौर जितना बड़ा मुर्गा चाहता था यह वैसा ही था। वह अपने आप को रोक नहीं सका। लो, मुर्गा आखिर मिल ही गया। वह मुर्गा अब उसकी गोद में था। रेंपा सोच ही रहा था कि इसके मालिक की तलाश करू कि पीछे से किसी ने कहा- 'अरे रेंपा, मुझे यह पता नहीं था कि तुम परले सिरे के चोर भी हो।' रेंपा के तन-बदन में आग लग गयी। वह चिल्ला उठा-'जबान सम्हाल लो। मेरे सात पुरखों में आज तक किसी ने चोरी नहीं की। चोर कहोगे तो सिर उतार लूंगा।' 'मगर यह सरासर चोरी है। तुम चोर हो ।' रेंपा ने फिर चिल्लाया-'तुम साबित करो कि मैं चोर हूं। कोई नहीं कह सकता कि मैंने कभी चोरी की है।' उस आदमी ने कहा- 'मगर मुर्गा मेरा है। तुम इसे चुराकर भागना चाहते थे।' रेंपा ने कहा- 'नहीं, मैं इसे लेकर तुम्हारे पास आना चाहता था। मेरी रांगी बीमार है और भूत सपने देता है। चरका मुर्गा उसी के लिए है।' उस आदमी ने कहा-'तब इसका दाम? इसके दाम का क्या होगा?' रेंपा ने कहा- 'इस साल मेरी खेती खराब हो गयी है। अगले साल फसल अच्छी होगी तो ले लेना।' उस आदमी ने कहा- 'तुम चोर ही नहीं, जालसाज भी हो मुर्गा चुराकर भाग रहे थे। पकड़ लिए गये तो बात बनाते हो।' 'मैं कसम खाता हूं।' 'चोर की कसम का कोई विश्वास नहीं !' 'मैं चोर हूं? - रेंपा की आंखें लाल अंगार हो गयीं। सारी धरती उसे घूमती हुई-सी मालूम हो रही थी। यह आदमी मुझे चोर कह रहा है! वह क्रोध से थर-थर कांप रहा था। उसने चिल्लाकर कहा-'मैं चोर हूं?' उस आदमी ने कहा- 'जरूर कहूंगा। एक बार नहीं, हजार बार-तुम चोर हो। चोर! चोर!! चोर!!!' इतना सुनना था कि रेंपा ने जमीन पर रखा अपना फरसा उठा लिया और उसकी गर्दन को ताककर इतने जोर से चलाया कि उसका सिर कटकर जमीन पर गिर पड़ा। कब उसकी गोद से मुर्गा उड़कर चिल्लाता हुआ भाग गया इसकी उसे याद भी नहीं रही। कटे हुए गले से खून की धारा उबल पड़ी और रेंपा का सारा चेहरा खून से भर गया। बिना सिर का शरीर एक बार लड़खड़ाया, फिर धरती पर कटे पेड़ की तरह गिर पड़ा। रेंपा अपने चेहरे का खून पोंछता जा रहा था और पागल की तरह चिल्ला रहा था- 'चोर कहेगा! मुझे चोर कहेगा?' मुकदमा साफ था। नीचे की अदालत में, सेशन में, हर जगह रेंपा ने स्वीकार किया था कि मुझे चोर कहेगा तो मैं उसे क्यों नहीं मारूंगा! महीनों मुकदमा चलता रहा। बयान लिये गये, जिरह की गयी, फिर जज ने फांसी की सजा सुना दी। रेंपा ने सजा का हुक्म इस तरह सुना जैसे बाजार में कोई खरीदार सामान का दाम सुनता है। उसकी आंखें निर्विकार थी, जैसे वह इन सारी बातों से अलग है। कल रेंपा को फांसी दी जायगी। वह चुपचाप निर्विकार बैठा हुआ है। उसके चेहरे पर शांति झलक रही है। वह जानता है कि कल उसे फांसी होगी, मगर फिर भी वह शांत है। वार्डन हरिलाल उससे कभी-कभी दयावश बात कर लेता था। उसे फांसी हो जायगी। कल वह इस दुनिया में जीता नहीं रहेगा। यह दुनिया रहेगी मगर वह नहीं रहेगा। उसने धीरे से पुकारा-'रेंपा!' रेंपा ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा । हरिलाल ने कहा- 'तुम्हारे लिए बहुत अफसोस है।' रेंपा ने कहा- 'अदालतवाले बात समझते नहीं, सचाई पर भरोसा नहीं करते, सिर्फ गवाही-साखी सुनते हैं। अफसोस करने से क्या होगा।' फिर रेंपा चुप हो गया। हरिलाल के मुंह से भी कोई बात नहीं निकली। रेंपा क्या सोच रहा है? हरिलाल ने कहा- 'खबर तो भेज दी गयी थी; लेकिन तुम्हारी औरत आयी नहीं। कोई नहीं आया।' रेंपा ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। फिर कहने लगा-'आदमियों की अदालत और जेल-घर में वह क्यों आवेगी। वह नहीं आवेगी। जब भगवान के यहां इंसाफ होगा तो वह मेरी गवाही देगी। लीटा भगत भी मेरी साखी देगा। यह आदमी क्या सोचता है? किस तरह सोचता है? हरिलाल चुप हो गया । रेंपा उसकी ओर घूरकर देखता हुआ कहने लगा-'जरूरत होने पर कोई की चीज लेना चोरी नहीं होती। हम उरांव आदिवासी जगह-जमीन और चीज को जुदा करके नहीं देखते। मगर आज का जमाना खराब है। सच बात कोई सुनता नहीं।' हरिलाल ने कहा- 'तुम्हारी औरत आ जाती तो एक बार उससे मुलाकात तो हो जाती।' रेंपा ने कहा-'मैं कल ही उसके पास जाऊंगा। तुम नहीं जानते। मैं बवंडर बनकर उसके पास जाऊंगा। यह शरीर है और तुम लोग हो जो मुझे उसके पास जाने से रोकते हो।' हरिलाल कहने लगा-'मैंने पता लिया है। तुम्हारी औरत मजे में है। मौका मिला तो किसी एतवार को तुम्हारे गांव जाऊंगा। वहां तुम्हारी औरत से सारी बातें बतलाऊंगा। टांगरबंसुली स्टेशन पर उतरकर तुम्हारे गांव में जाना पड़ता है न?' रेंपा ने कहा- 'हां, टांगरबंसुली उतरकर पश्चिम की ओर जाना। आगे बिरगोड़ा नदी है। उस नदी को पार करने के बाद ही मेरा गांव मिल जायगा। वहां रांगी को पूछ लेना।' हरिलाल ने कहा- 'तुम अपनी औरत से कुछ कहना चाहते हो तो कह दो। मैं उसे सुना दूंगा।' रेंपा ने उसकी ओर इस तरह देखा जैसे कोई ज्ञानी किसी अबोध को देखता है। बोला- 'मैं तुमसे क्या कहूं। मेरी बात तुम नहीं समझोगे। मैं सपने में उससे मिलूंगा। उसी समय जो कहने की बात होगी, कहूंगा। और आज हरिलाल रेंपा के गांव जा रहा है। वह टांगरबंसुली स्टेशन पर उतरा और पश्चिम की ओर की पगडंडी पकड़कर चला। बिरगोड़ा नदी पार करके वह रेंपा के गांव में पहुंचा। रांगी का पता मिलने में देर नहीं हुई। वह सिर झुकाकर उसकी झोपड़ी में घुसा जिसके दरवाजे पर एक बकरी बंधी हुई थी। पास ही एक हल रखा हुआ था। उसने रांगी को देखा। उसकी गोद में एक तीन साल का बच्चा था। पास ही दस और आठ साल के दो लड़के पालथी लगाकर मांड़-भात खा रहे थे। रेंपा ने तो कहा था कि उसके बाल-बच्चे नहीं हैं। हरिलाल रांगी से बातें करने लगा। उसने रेंपा का हाल सुनाया। रांगी सुनती रही और उसकी आंखों से आंसू बहते रहे। अंत में हरिलाल ने कहा-'मगर तुम कभी रेंपा से मिलने नहीं गयी। आ जाती तो कम से कम भेंट हो जाती।' रांगी ने कहा- 'ये बच्चे ! इन्हें छोड़कर कैसे जा पाती? जब जाने का नाम लेती कि ये पैर पकड़कर लटक जाते, रोने लगते। इन्हीं लड़कों के मारे मैं नहीं जा पायी।' उसकी आंखों के आंसू गाल पर फिसल रहे थे। उसने स्नेह के साथ उन तीन बच्चों को देखा। गोदवाले बच्चे को उसने कलेजे से लगाकर चूम लिया, फिर आंखों के आंसू पोंछने लगी। हरिलाल ने पूछा- 'ये बच्चे?' 'ये बच्चे जवरा के हैं।' 'जवरा कौन है?' 'जवरा कौन?- रांगी अचम्भे के साथ बोली- 'जवरा को तुम नहीं जानते? रेंपा ने उसी जवरा को जान से मार दिया था। उसी के ये तीन बच्चे है। इनकी मां पहले ही मर चुकी थी। इन्हें मैं नहीं देखती तो कौन देखता? अब मेरा है ही कौन। ये ही तीन बच्चे हैं।' उसके चेहरे पर मातृत्व का गौरव झलक आया। ---- यह कहानी 1960 में छपी थी। इसके बाद राधाकृष्ण की प्रतिनिधि कहानियां में संकलित है। जयभारती प्रकाशन, प्रयागराज यह संकलन 1993 में आया था। इसी से साभार प्रकाशित।

शोषण दमन के खिलाफ हूल




 30 जून  झारखंड के इतिहास के लिए ऐतिहासिक दिन है। हालांकि यह झारखंड के लिए नहीं, देश के लिए ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण दिन है। आज ही के दिन संताल परगना के साहिबगंज जिले के भोगनाडीह में हूल का ऐलान हुआ था। चार भाइयों सिदो, कान्हू, चांद, भैरव ने हूल का शंखनाद किया था। तीर, कमान, टांगी, तलवार, मांदर और धमसा के साथ सीधे-सादे संतालों ने शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ 30 जून, 1855 गुरुवार के दिन हजारों संताल एकत्रित हो गए थे। मैकफेल ने लिखा है कि सिदो-कानू के साथ न सिर्फ दामिन इ कोह से, बल्कि बीरभूम, भागलपुर, हजारीबाग, मानभूम से हजारों की संख्या में संतालों ने शिरकत की। उस समय इतनी बड़ी संख्या में एकत्रित होना, सामान्य बात नहीं थी, जब आबादी की तुलना करेंगे।  


कहते हैं, उस दिन यानी, 30 जून को भोगनाडीह में एक विशाल सभा हुई। बैठक की कार्यवाही शुरू हुई। चहुं ओर चुप्पी का आलम था। सिदो व कानू ने संतालों के यशस्वी इतिहास के बारे में बताया कि 'उन्होंने हिहिरि-पिपिरि, चाइ चंपा, सत भूईं, शिकारभूईं आदि जगहों पर राज किया था। उनके शासन में चहुंओर शांति व्याप्त थी। हजारीबाग पार करने के बाद उनके पूर्वजों ने दामिन-इ-कोह में प्रवेश किया और यहीं रहकर पत्थरों को तोड़ कर, जंगलों को साफ करते हुए खेती की शुरुआत की। उन्होंने हाड़-तोड़ परिश्रम किया, लेकिन जमींदारों और सूदखोर महाजनों ने उनकी जमीनें गिरवी रख लीं। पैसे के लालच में जमींदारों ने संतालों पर अमानवीय अत्याचार किये। उन्हें गुलाम बना दिया गया। ब्रिटिश सरकार के पुलिस अधिकारियों ने भी उन पर अत्याचार किये। ग्राम प्रमुख मांझी बिना किसी कारण के मारे-पीटे जाते थे। '


यह बताना आवश्यक है कि इसी समय बंगाल, बिहार और ओड़िशा को मिला लिया गया और तब फ्रेडरिक हालीडे बंगाल का गवर्नर था। उसका लक्ष्य था-ब्रिटिश साम्राज्य को और मजबूत करना और इसके लिए उसने संताली भूमि को शोषण के लिए मुख्य आधार माना। ब्रिटिश सरकार के अतिरिक्त, जमींदारों और सूदखोर महाजनों का कहर भी उन पर टूटता था। ब्रिटिश प्रशासन यह सब जानते हुए आंखें मूंदे रखता था। परिणामस्वरूप संतालों में असंतोष उपजने लगा। 

जान मर्समैन अपनी किताब हिस्ट्री आफ इंडिया- भाग एक (पृष्ठ 720) में लिखते हैं-'डलहौजी के कार्यकाल के अंतिम दिनों में संतालों के उपद्रव के कारण क्षेत्र की शांति भंग हो गयी। ये संताल राजमहल की पहाड़ियों में निवास करते थे।' अंतत: शांतिप्रिय आदिवासियों के सामने अब कोई विकल्प नहीं था, सिवाय तीर-कमान उठाने का। इस तरह लंबे समय से चले आ रहे असंतोष के खिलाफ संतालों ने एक खूनी लड़ाई का चुनाव किया। हालांकि 1851 में कैप्टन शेरविल लिखते हैं-'सामान्यतः संताल शांतिप्रिय व अनुशासित लोग थे। शासकों को राजस्व वसूलने के लिए प्रभुत्व जमाने के बदले दूसरे तरीकों पर ध्यान देना चाहिए।' बरसात के दिनों में सूदखोर महाजन संतालों को चावल और रुपया उधार पर देते थे। जल्द ही वे संतालों के मालिक बन बैठे। ये सूदखोर महाजन इतने लालची थे कि मूलधन का दस गुना लौटा देने के बाद भी वे संतालों को छोड़ते नहीं थे। वे संतालों के साथ गुलामों सरीखा व्यवहार करते थे। ऋण उगाहने के लिए ये महाजन उनके मवेशी आदि जबरन उठा ले जाते थे। स्थिति इतनी बदतर थी कि संताली लड़कियों का भी ये खूब शोषण करते थे। जमींदारों व महाजनों के अतिरिक्त ब्रिटिश पुलिस और व्यापारी भी अत्याचार ढाते थे। परिणामस्वरूप तिलका मांझी के विद्रोह (1784-85) के करीब सौ साल बाद एक नया विद्रोह (1855-56) अपनी जमीन तलाशने लगा। संताल परगना के असिस्टटेंट कमिश्नर रहे ईजी मैन लिखते हैं, विद्रोह होने के पूर्व ही संतालों के असंतुष्ट होने के अपशकुन लक्षण स्पष्ट होने लगे थे। संतालों ने कंपनी के अधिकारियों को अपनी शिकायतों को दूर करने के लिए कई आवेदन दिये। उनके विशाल जमाव को महज गैरकानूनी समा के रूप में देखा गया और कोई कार्रवाई नहीं की गई। आवश्यक जांच की व्यवस्था नहीं की गई। आम लोगों में असंतोष की भावना या उनपर होने वाले उत्पीड़न और अत्याचार की सूचना भी सरकार को नहीं दी गई। इसके लिए मैन ने उत्तरदायी अधिकारियों के निंदनीय उपेक्षा को उत्तरदायी बताया जो आमलोगों से काफी दूर थे और इसलिए उन्हें उनकी भाषा की जानकारी नहीं थी। इसलिए उन्हें उस ज्वालामुखी की कोई जानकारी नहीं थी जिसमें विस्फोट होने वाला था। 

इस दमन की पृष्ठभूमि में, इस तरह, वह ऐतिहासिक दिन आ धमका। 

30 जून, 1855 को विशाल सभा में सिदो और कान्हू ने काफी उत्तेजित भाषण दिया। यह सभा गांव के दक्षिण-पूर्व कोने में आयोजित की गई। शोषणविहिन गरीबों का स्वराज स्थापित करने के लिए चार सौ गांवों का प्रतिनिधित्व करने वाले दस हजार संतालों ने शपथ लिया और सिदो और कान्हू को एकमत से अपना नायक घोषित किया। उनके साथ सिर्फ संताल ही नहीं थे, उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार इलाके के प्रमुख संताल बुजुर्गों, सरदारों और पहाड़िया, अहीर, लुहार आदि अन्य स्थानीय कारीगर एवं खेतीहर समुदायों ने भी उनका साथ दिया था। ऐतिहासिक सभा के पूर्व चारों भाइयों ने इसकी पूरी तैयारी की थी। सैन्य दल, छापामार टुकड़ियां, सैन्य भर्ती-प्रशिक्षण दल, गुप्तचर दल, आर्थिक संसाधन जुटाव दल, रसद दल, प्रचार दल, मदद दल आदि का गठन किया गया था। तब 30 जून को विशाल सभा बुला कर अंग्रेजों को देश छोड़ने का ‘समन’ जारी कर दिया। इस समन यानी ‘ठाकुर का परवाना’ को सिदो परगना के निर्देश पर किरता, भादू और सुन्नो मांझी ने लिखा था। एके पंकज ने लिखा है कि गौर करने वाली बात है कि हूल संबंधी समन और अन्य प्रचार सामग्रियां तीन भाषाओं और अलग-अलग लिपियों में लिखी गई थी। हिंदी, बांग्ला, संताली भाषा तथा कैथी और बांग्ला लिपि में। 

इस सभा की खबर आग की तरह फैलने लगी, लेकिन इस आग में कितना ताप है, इसका अंदाजा ब्रिटिश अधिकारियों को नहीं था। एक दारोगा को संतालों के एकत्रित होने की सूचना मिली तो वह सिपाहियों के साथ चारों भाइयों को गिरफ्तार करने के लिए प्रस्थान किया। ब्रिटिश अधिकारी मैली ने लिखा है, कुछ महाजनों ने दारोगा को भाइयों के खिलाफ डकैती के झूठे मुकदमों का आरोप लगाने के लिए रिश्वत दी थी। दारोगा बरहेट से कुछ ही दूरी पर उत्तर की ओर पंचकठिया में एकत्रित संतालों से मिला। पर संतालों ने अलग होने से इन्कार कर दिया और उसे आसपास के प्रत्येक बंगाली परिवार पर पांच रुपये का टैक्स लगाने का निर्देश दिया। दारोगा द्वारा उन्हें गिरफ्तार करने के आदेश से आक्रोशित संताल उस पर टूट पड़े और अपनी कुल्हाड़ी से उसका सिर काट डाला। इस हत्या के बाद संताल युद्ध के लिए प्रस्थान कर गये। इस समय भागलपुर के क्लेक्टर और पोन्टेट राजमहल में थे, जहां उन्होंने पुराने सिंधी दालान में शरण ली, जो उस समय रेलवे इंजीनियर का निवास स्थान था। उन्होंने इसकी सुरक्षा की व्यवस्था की, इसकी किलेबंदी की और उन्होंने और रेलवे कर्मचारियों ने इसे विद्रोहियों के आक्रमण से सेना के आने तक बचाया। जब विद्रोह की सूचना भागलपुर पहुंची, हिल रेंजर्स बुलाए गए लेकिन संतालों ने उन्हें पराजित कर दिया जबकि संताल केवल तीर और धनुष जैसे पारंपरिक हथियारों से ही लैस थे। पूरा इलका इनके कब्जे में आ गया। उन्होंने पश्चिम में कहलगांव से लेकर पूर्व में राजमहल और निकटवर्ती दक्षिण की और रानीगंज और सैंथिया तक के क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया। 

मैली लिखता है- रेलवे कार्यों को नष्ट और पाकुड़ को लूटते हुए संताल आगे बढ़े और वीरभूम में पलसा पर टूट पड़े। संतालों द्वारा छोड़ने के शीघ्र ही कदमसायर में सेना पहुंच गई और पलसा तक उसका पीछा किया और किसी तरह संतालों द्वारा वहां लूटपाट करने से इसे बचाया। वे महेशपुर की ओर बढ़े और 15 जुलाई 1855 को विद्रोहियों को करारी शिकस्त दी। सिदो, कानू और भैरव घायल हो गये। अब तक 200 संताल मारे गए। रघुनाथपुर में सेना ने चांद और कानू को पराजित किया। सातवीं नेटिव इनफैन्ट्री की एक सेना महेशपुर पहुंच गई थी, इसलिए संताल राजा के घर पर आक्रमण करने में असफल हो गए जिसे वे संताल सूबा का रेजिडेंस बनाना चाहते थे। कुछ दिनों बाद सेना मामूली विरोध के बाद पहाड़ियों की ओर बढ़ी और 24 जुलाई को बरहेट पर कब्जा कर लिया। जून से लेकर 1856 की जनवरी तक चारों तरफ बस विद्रोह ही विद्रोह था। घात, प्रतिघात और विश्वासघात से संताल परगना से उठी चिंगारी की आग धीरे-धीरे शांत होने लगी। 23 जनवरी 1856-भोगनाडीह में कान्हू को फांसी दे दी गई। 14,15 और 16 जनवरी, 1856 को स्पेशल कमिश्नर इलियट के इजलास में कान्हू पर विचार किया गया और विचारोपरान्त उन्हें मृत्युदंड दिया गया। इस प्रकार संताल विद्रोह के नायक सिदो और कान्हू शहीद हो गये। उनके छोटे दोनों भाई चांद और भैरव भागलपुर के निकट कंपनी सैनिकों के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हुए।

संताल हूल के अज्ञात नायक

पर, उनके बलिदान के बाद हूल समाप्त नहीं हो गया। 1856 तक सुलगता रहा। क्योंकि चारों भाइयों के लिए इसने अनेक क्षेत्रीय नायक भी पैदा किए। इसी तरह छोटानागपुर में एक नायक थे अर्जुन मांझी। ब्रिटिश रिकार्ड में इनका नाम उर्जुन मांझी है। ये रामगढ़ के संताल थे और इन पर पचास रुपये का पहली बार इनाम घोषित किया गया और फिर सौ रुपये और अंत में दो सौ रुपये का इनाम घोषित किया गया। इससे इस क्रांतिकार अगुवा के महत्व को समझ सकते हैं। इसके बारे में हजारीबाग से लेकर रांची के प्रशासनिक कार्यालयों और आकाईव में भी ब्रिटिश अधिकारियों ने खोजबीन की लेकिन कुछ हाथ नहीं लगा। ब्रिटिश अधिकारी मान रहे थे कि इन गड़बड़ियों में अर्जुन मांझी का प्रमुख हाथ था। 26 सितंबर, 1857 को लिखे एक पत्र में कैप्टन डाल्टन ने मेजर सिम्पसन को उसकी गिरफ्तारी के लिए 200 रु इनाम के लिए बंगाल सरकार को पत्र लिखा। ब्रिटिश सरकार के लिए ये क्रांतिकारी लुटेरे, बदमाश, हत्यारे, विद्रोही ही थे। पत्रों में वे इन क्रांतिकारियों के लिए इन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हैं। इसी तरह 1856 में हजारीबाग के संतालों का एक भीषण विद्रोह हुआ था। इस विद्रोह के नेता लुबिया मांझी और बैरू मांझी थे। इनमें कई ऐसे संताल थे जो 1855 के विद्रोह में भी शामिल थे। तब संतालों ने हजारीबाग, खड़गडीहा, बेरमो के आसपास विद्रोह कर दिया था। इस संताल विद्रोह के नेता थे रुपु मांझी, अर्जुन मांझी। यह विद्रोह गोला, चितरपुर, पेटरवार और पुरुलिया तक फैल गया था। अंग्रेजों ने रुपु मांझी के घर को फूंक दिया था। हूल विद्रोह के समय वीरभूम जिले के कातना गांव लूटने के आरोप में कुरान मांझी, विसु मांझी, रूसो मांझी, मोहन मांझी, बागुद मांझी, कालू मांझी, कांचन मांझी, धुनाय मांझी, सिंगराय मांझी और लुकुन मांझी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था। इस तरह संताल विद्रोह के बहुत से नायक गुमनाम हैं या फिर ब्रिटिश अभिलेखों में कैद हैं।


आखिर, इस हूल का हासिल क्या रहा

इस महान आंदोलन का हासिल यह रहा कि 22 दिसंबर 1855 ई. को संताल परगना अस्तित्व में आया तथा अधिनियम (37) 1855 के तहत बीरभूम और भागलपुर क्षेत्र को काटकर संताल परगना जिला बना। इसी तरह संताल हूल के बाद आदिवासियों की सामाजिक सांस्कृतिक परंपरा और उनकी भूमि की रक्षा के लिए संताल परगना टेनेंसी (सप्लीमेंट्री प्रोविजन) 1949 भी अस्तित्व में आया। 


दो साल तक चले इस विद्रोह के बाद 1857 की महान क्रांति से देश हिल उठा। लेकिन दो साल पहले उठे झारखंड के इस हूल को भारतीय इतिहास में वह स्थान नहीं मिला, जिसका वह हकदार है। 1857 से पहले यहां पहाड़िया विद्रोह हुआ और यह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ भी एक संगठित विद्रोह था। इसके बाद 1855 का हूल आता है। हालांकि झारखंड में ब्रिटिश सरकार जीतकर भी हारती रही। लेकिन हमारे मुख्यधारा के इतिहासकारों ने इसे बस क्षेत्रीय सीमाओं में ही कैद रखा। आज जरूरत है, इस महान हूल को देश जाने कि कैसे आदिवासियों ने अपने पारंपरिक हथियारों से उस सत्ता से लड़ा, जिसके साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता था।

कुआं लाशों से भर गया था, चारों तरफ खौफ का माहौल था


बालकराम मिढा की उम्र 97 को छू रही है। स्मृति अभी ताजा है, पर सुनने में थोड़ी कठिनाई होती है। पाकिस्तान के बहावलपुर इस्टेट से भारत आने के सफर की कहानी रोंगटे खड़ी कर देती है। अचानक बसी-बसाई गृहस्थी उजड़ गई। आजादी का जश्न मातम में बदल गया था।

 बालक राम उस भयानक दौर को याद करना नहीं चाहते। बहुत कुरेदने पर बात आगे बढ़ाते हैं, आजादी से पहले शादी हुई थी। बंटवारे का दंश लेकर रांची आए। पिता के साथ यहां आए। उम्र थी बीस साल। सब कुछ ठीक चल रहा था। लंबे संघर्ष के बाद देश ने आजादी में सांस ली, लेकिन क्या पता था, इस आजादी से हजारों की सांसें असमय थम जाएंगी? आजादी का सपना था। पूरा हुआ। इसकी चारों तरफ खुशी थी। लेकिन चारों तरफ यह भी शोर था कि एक नया देश जन्म लेगा। भारत आजाद तो होगा, पर उसके दो हिस्से हो जाएंगे। बहावलपुर में बंटवारे को लेकर चारों तरफ वातावरण में एक डर और खौफ तारी था। 

बालक राम कुछ सोचते हैं, फिर आगे बढ़ते हैं, अचानक एक दिन फरमान आया, गांव छोड़ दो। हमें मोहलत दी गई, लेकिन मोहलत से दो दिन पहले गुरुद्वारे में शरण लिए लोगों पर हमला कर दिया गया। बहुत से लोग मारे गए। चारों तरफ लाशें। एक कुआं तो लाशों से पट गया था। डर, भय, आशंका...पता नहीं, जीवन बचेगा कि नहीं। गिद्ध आसमान में मंडरा रहे थे। एक अनहोनी, एक आशंका दिलो दिमाग में बैठ गई थी। न रात को नींद दिन में चैन। सिर्फ बेचैनी। पर अंग्रेज आर्मी अफसर ने किसी तरह बचाया। गांव के पास वाले शहर में तैनात थे अंग्रेज अफसर मून। उस अंग्रेज अफसर ने वहां के मुसलमानों को हिंदुओं की गिनती कर संख्या बता दी और उन्हें धमकाया कि इनमें से अगर एक भी हिंदू घटा तो आप लोगों के लिए अच्छा नहीं होगा। उसकी धमकी का असर दिखा। सभी शरणार्थी वहां दो रात तक सुरक्षित रहे। उसने लोगों को निकालना शुरू किया। जो भी साधन संभव था। किसी तरह पाकिस्तान के बार्डर पर स्थित हिंदूमल कोट स्टेशन आए तो सांस में सांस आई। हम सब भारत आ गए थे। यहां से राजस्थान के गीदड़वाह स्टेशन पहुंचे फिर वहां से कुछ लोग रांची रोड स्टेशन होते हुए रांची पहुंच गए। हिंदूमल पहुंचे तो बस, शरीर था, सांसें थीं और कुछ नहीं था और थीं पीछे छोड़ आए अपना गांव-घर। हिंदूमल से यहां से हरियाण के भिवानी आए। यहां एक मोहल्ले में चार महीने रहे। किसी तरह मजदूरी की। इसके बाद रोहतक में रहे। वहां भी ईंटा-बालू ढोने का काम किया। 

अंतत: फिर रांची आए। रांची आकर क्लब रोड स्थित खजुरिया तालाब के पास भारत सरकार द्वारा लगाए गए शरणार्थी शिविर में आश्रय लिया। यहीं पर बहावलपुर से आए लोग शरण लिए थे। यहां रहकर मजदूरी की। दूध बेचा। इस बीच मेरी पत्नी का निधन हो गया। एक बेटी थी। फिर दूसरी शादी रांची में ही हुई। तीन बेटे-तीन बेटियां हैं। पत्नी का निधन भी 2008 में हो गया। भरा-पूरा परिवार है। बेटे सब काम करते हैं। अपनी किस्मत अपनी मेहनत से अपनी तकदीर लिखी। बंटवारे में इतना जख्म दिया है कि उसे याद करते ही दुख हरा हो जाता है। बालम राम अकेले नहीं हैं। उनके आगे-पीछे करीब ढाई सौ लोग रांची आए और यहां बस गए। रांची की आर्थिक उन्नति में इनका अहम योगदान है। रातू रोड में एक कालोनी ही बस गई। शहर के बीच में रिफ्यूजी मार्केट है, जिसे अब शास्त्री मार्केट कहा जाता है।

रांची लोकसभा में जाति का नहीं रहा है बोलबाला

संजय कृष्ण, रांची

बिना जातीय गणित के चुनाव जीतना मुश्किल है। यह पहले भी सच था और यह आज का भी सच है। बहुधा सीटों पर पार्टियां भी टिकट देने से पहले जाति ही देखती हैं। इसके बाद ही फैसला लेती हैं। उम्मीदवारों की योग्यता बहुत मायने नहीं रखती। 75 साल की आजादी में भी हमारा समाज इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि वह जाति के बदले योग्य व्यक्ति को संसद भेजे। पर कुछ अपवाद होता है। इसी अपवाद में रांची की लोकसभा सीट भी है। रांची लोकसभा सीट पर जाति कभी हावी नहीं रही। हां, पार्टी का बोलबाला जरूर रहा है। पिछली बार ही जब भाजपा से पांच बार रांची सीट से सांसद रहे रामटहल चौधरी को जब टिकट नहीं मिला तो उन्हें अपनी जाति पर भरोसा था और वे निर्दल ही मैदान में कूद गए, लेकिन दो प्रतिशत से अधिक मत मिला। रांची के पहले सांसद अब्दुल इब्राहिम मुस्लिम थे। वे मूल रूप से गया के शेरघाटी के रहने वाले थे। कांग्रेस के टिकट से मैदान में उतरे और विजयी रहे। इसके बाद वे कई बार प्रयास किए, लेकिन रांची की जनता ने फिर उन्हें संसद में नहीं भेजा। दूसरे आमसभा चुनाव में तो मुंबई से आकर एमआर मसानी उर्फ मीनू मसानी चुनाव जीत गए। वह भी झारखंड पार्टी से थे। जयपाल सिंह मुंडा ने अपनी पार्टी से उन्हें 1957 में प्रत्याशी बनाया। वह पारसी समुदाय से थे। मसानी जीतकर गए थे तो लौटे ही नहीं। इसके बाद आया 1962 का चुनाव। इब्राहिम अंसारी को कांग्रेस ने तीसरी बार अपना टिकट दिया, लेकिन रांची की जनता का कांग्रेस से दूसरे आमचुनाव में ही मोहभंग हो गया। इसलिए तीसरी बार 1962 में उसने स्वतंत्र पार्टी से मैदान में उतरे भद्र बंगाली प्रशांत कुमार घोष को संसद भेजा। ये पीके घोष के नाम से प्रसिद्ध थे। वे फारवर्ड ब्लाक के सदस्य थे। लेकिन स्वतंत्र पार्टी के अध्यक्ष के आग्रह पर चुनाव लड़े। इसके बाद वे कांग्रेस में शामिल हो गए और 1967 में वे कांग्रेस से जीतकर संसद पहुंचे। 1971 में भी रांची की जनता ने उन्हें संसद भेजा। शहर में बंगालियों की आबादी अच्छी खासी है। बहुत सी गलियों के नाम देख सकते हैं। डेढ़ सौ साल पुराना यहां यूनियन क्लब है। फिर भी, इनकी इतनी संख्या नहीं है कि वे किसी को जीता सकें। इसके बाद भारतीय राजनीति में काफी उथल-पुथल रहा। इसी समय बांग्लादेश युद्ध भी हुआ। इमरजेंसी भी लगी। इंदिरा गांधी के खिलाफ पूरे देश में हवा बह रही थी। यह दूसरा अवसर था, जब एक बार फिर एक बाहरी व्यक्ति को रांची से टिकट दिया गया। प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा के परिवार के रवींद्र वर्मा को रांची से टिकट दिया गया। वे आए, यहां रहे और चुनाव जीतकर चले गए। ये भी दुबारा नहीं आए। इनका प्रचार करने के लिए लालकृष्ण आडवाणी भी रांची आए थे। कांग्रेस से यहां शिव प्रसाद साहू को टिकट मिला था, लेकिन वे हार गए। लेकिन 1980 के चुनाव में कांग्रेस से शिव प्रसाद साहू जीतकर संसद पहुंच गए। इसके बाद 1984 में भी इनकी किस्मत ने साथ दिया। इसके बाद देश की राजनीति की हवा बदल गई। पलामू के रहने वाले सुबोधकांत सहाय 1989 में पहली पर जनता दल से चुनावी मैदान में कूदे और संसद पहुंच गए। यहां भाजपा से रामटहल चौधरी दूसरे स्थान पर थे। लेकिन अगली बार रामटहल चौधरी की किस्मत ने साथ दिया और 1991 में संसद पहुंच गए। इसके बाद वे 1996, 1998, 1999, 2014 में भी भाजपा से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। सुबोधकांत सहाय इसके बाद कांग्रेस में शामिल हो गए और वे 2004 व 2009 में भी विजयी रहे। लेकिन अगली बार 2014 में रामटहल ने उनसे सीट छीन ली। 2019 में भाजपा ने रामटहल को टहला दिया और संजय सेठ को टिकट दे दिया। संजय सेठ भारी मतों से जीतकर संसद पहुंचे। दूसरे स्थान पर कांग्रेस से सुबोधकांत सहाय रहे। रामटहल को टिकट नहीं मिला तो पार्टी ही छोड़ दी और निर्दलीय लड़े। इस बार सुबोधकांत सहाय ने अपनी बेटी को टिकट दिलवा दिया है। संजय सेठ दुबारा मैदान में हैं। अब इन्हीं दोनों के बीच मुख्य मुकाबला है। इस तरह देखें तो रांची की जनता ने सिर्फ एक बार ही मुस्लिम को संसद भेजा है। अपनी जाति के आधार पर कोई प्रत्याशी जीत का दावा नहीं कर सकता।  

मुस्लिम एक बार

पारसी एक बार

बंगाली तीन बार

क्षत्रिय एक बार

साहू  दो बार

कायस्थ तीन बार

महतो पांच बार

वैश्य एक बार

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रांची संसदीय लोकसभा कब कौन जीता

1952 अब्दुल इब्राहिम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

1957 मीनू मसानी झारखंड पार्टी

1962     प्रशांत कुमार घोष स्वतंत्र पार्टी

1967     प्रशांत कुमार घोष             भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

1971     प्रशांत कुमार घोष             भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

1977 रवीन्द्र वर्मा जनता पार्टी

1980 शिव प्रसाद साहू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई)

1984 शिव प्रसाद साहू                भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

1989 सुबोधकांत सहाय जनता दल

1991 रामटहल चौधरी भारतीय जनता पार्टी

1996       रामटहल चौधरी भारतीय जनता पार्टी

1998       रामटहल चौधरी भारतीय जनता पार्टी

1999       रामटहल चौधरी भारतीय जनता पार्टी

2004 सुबोधकांत सहाय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

2009        सुबोधकांत सहाय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

2014 रामटहल चौधरी भारतीय जनता पार्टी

2019 संजय सेठ                 भारतीय जनता पार्टी

पहली बार हार, फिर दो बार जीते शिव प्रसाद साहू

1980 में रामटहल चौधरी स्वतंत्र लड़े थे और 1984 में थाम लिया भाजपा का दामन

संजय कृष्ण, रांची

लोहरदगा के प्रसिद्ध व्यवसायी और समाजसेवी कांग्रेस के नेता शिव प्रसाद साहू ने रांची से दो बार लोकसभा का प्रतिनिधित्व किया। पहली बार 1980 में और दूसरी बार 1984 में। 1977 की हवा में जीतकर गए रवींद्र वर्मा फिर दुबारा रांची आए नहीं। यहां की जनता की कोई खोज-खबर ली नहीं, जबकि वे मोरारजी देसाई के बहुत खास थे। वे बड़े नेता थे और राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय पहचान भी थी, लेकिन रांची की जनता के काम न आ सके। जनता ने भी अब कांग्रेस को वोट देने का मन बना लिया था। तब कांग्रेस आई बन गई थी। कांग्रेस आई अर्थात इंदिरा गांधी की कांग्रेस। कांग्रेस आई ने दुबारा शिव प्रसाद साहु को अपना उम्मीदवार रांची से बनाया और इस बार उन्होंने निराश नहीं किया। 1977 की हवा में उड़े शिव प्रसाद साहू को इस बार उन्हें 38.66 प्रतिशत मत मिला था और जीतकर पहली बार संसद पहुंचे। 1980 के इस चुनाव में रांची से 17 लोग मैदान में थे। रामटहल चौधरी इस चुनाव में स्वतंत्र लड़े थे और पांचवें नंबर थे। अगली बार 1984 में रामटहल चौधरी भाजपा से चुनाव लड़े और इस बार वे दूसरे स्थान पर रहे। 1980 में उन्हें 8.86 प्रतिशत मत मिला था और 1984 में इनका मत प्रतिशत दोगुना हो गया। यानी 16.51 प्रतिशत। इस चुनाव में कुल 23 उम्मीदवार मैदान में थे। 1984 में ही सुबोधकांत सहाय पहली बार रांची से जनता पार्टी से चुनाव लड़े और तीसरे स्थान पर रहे और उन्हें 15.42 प्रतिशत मत मिला। इस बार रोशनलाल भाटिया लोकदल के बैनर तले खड़े हुए। वे चौथे स्थान पर थे और उन्हें 5.61 प्रतिशत मत मिला था।


1984 में साहू को मिला था 49.47 प्रतिशत मत

वर्तमान राज्यसभा सदस्य धीरज साहू के बड़े भाई थे शिव प्रसाद साहू। लोहरदगा में उनका जन्म सात जनवरी 1934 को हुआ था और निधन 23 जनवरी 2001 को। वे छोटा नागपुर बाक्साइट वर्कर्स यूनियन, रांची जिला बाक्साइट और चाइना क्ले माइंस कर्मचारी संघ के महासचिव थे। वह कई कालेजों व स्कूलों के अध्यक्ष और लोहरदगा नगर पालिका के भी अध्यक्ष रहे। 1980 में वे लोकसभा पहुंचे और फिर अगली बार भी रांची की जनता ने उन्हें संसद भेज दिया। 1984 में उन्हें 49.47 प्रतिशत मत मिला। यानी, इस बार उनका मत प्रतिशत भी बढ़ गया। 1980 में 38.66 मत मिला था। सीधे दस प्रतिशत का इजाफा हुआ था। इन्हें 162945 मत मिला। इसमें कुल 23 लोग मैदान में थे और अंतिम नंबर पर दीनबंधु गोप थे, जिन्हें मात्र 412 मत मिला। कुल 17 लोग स्वतंत्र लड़े थे। निर्मल महतो झारखंड मुक्ति मोर्चा से लड़े थे। उन्हें रांची की जनता ने 10113 वोट दिया। नृपेंद्र कृष्ण महतो आल इंडिया फारवर्ड ब्लाक से लड़े थे और 5085 मत मिले।

रवींद्र वर्मा के प्रचार में आचार्य कृपलानी व आडवाणी आए थे रांची



संजय कृष्ण, रांची : 


कहा जाता है कि 1977 का चुनाव न पार्टी लड़ रही थी न नेता लड़ रहे थे। यह चुनाव देश की जनता लड़ रही थी। आपातकाल के बाद छठवें लोकसभा चुनाव में रांची ने भी अहम भूमिका निभाई। यहां से इस बार चुनाव में रांची का कोई नेता नहीं, मोरारजी देसाई के विश्वासपात्र रवींद्र वर्मा चुनाव लड़े। वे प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा के परिवार से थे।

रांची आकर उन्होंने नामांकन किया और पूरा चुनाव प्रचार कार्य रांची के प्रसिद्ध उद्योगपति हनुमान प्रसाद सरावगी के घर से ही किया। उनके प्रचार में लालकृष्ण आडवाणी और आचार्य कृपलानी आए थे। आडवाणी की सभा हटिया में हुई थी और तब उन्होंने कहा था, विदेशी मामलों में रवींद्र वर्मा मेरे गुरु हैं। हनुमान प्रसाद सरावगी के पुत्र विनय सरावगी बताते हैं, तब मैं मैट्रिक में पढ़ता था। उन्होंने यहां नामांकन करते समय किसी से पूछा कि कोई हनुमान प्रसाद सरावगी को जानता है? एक सज्जन उनको लेकर मेरे घर आए और यहीं से उनका प्रचार अभियान शुरू हुआ। पिता जी से उनकी मुलाकात मुंबई में यूथ कांग्रेस के अधिवेशन में हुई थी। वे यहां महीने भर से ऊपर रहे। सप्ताह में दो दिन मोरारजी देसाई का फोन आता था। सुबह वे चुरुवाला चौक पर एक चाय की दुकान होती थी, वहीं चाय पीते थे। भोजन की व्यवस्था ऐसी थी कि उनके लिए टिफिन उनके कमरे में रख दिया जाता। वे 16 भाषाओं के विद्वान थे। भारतीय लोक दल से वे चुनाव लड़े थे। रांची, खूंटी व लोहरदगा का चुनाव प्रचार का अभियान मेरे घर से ही संचालित होता था। उस समय करीब 70-80 हजार रुपये खर्च हुए थे। रांची लोकसभा वे जीतकर संसद में पहुंचे। हालांकि वे फिर कभी रांची नहीं आए और 1980 का चुनाव मुंबई से लड़े और मृणाल गोरे को हराया था। 2002 में जरूर वे रांची आए तो हनुमान प्रसाद सरावगी और उनके परिवार से मिले।


13 लोग थे चुनाव मैदान में

1977 के चुनाव में रांची लोकसभा से 13 लोग मैदान में थे। कांग्रेस से शिव प्रसाद साहू मैदान में थे और उन्हें मात्र 25.54 प्रतिशत ही मत मिले। अंतिम प्रत्याशी अहमद आजाद को मात्र 0.14 प्रतिशत मत मिला था। इस चुनाव में 47.73 प्रतिशत ही मतदान हुआ था। यानी, इंदिरा के खिलाफ चली आंधी और इमरजेंसी को भुगतने के बाद भी रांची की जनता वोट देने के लिए आधे से भी कम संख्या में निकली। इस चुनाव में सीपीएम ने भी भाग्य आजमाया लेकिन उसे चौथे स्थान से ही संतोष करना पड़ा। रोशनलाल भाटिया कहते हैं, नामांकन करने के बाद प्रचार किया नहीं। वहीं, लेखानंद झा कहते हैं कि आज धर्म और जाति की राजनीति हो रही है। तब वैसा नहीं था।


किसे कितना मिला मत


नाम दल मत प्रतिशत

रवींद्र वर्मा भालोद 130938 -49.02 प्रतिशत

शिव प्रसाद साहू कांग्रेस 68222 -25.54 प्रतिशत

घनश्याम महतो स्वतंत्र 22721 -8.51 प्रतिशत

राजेंद्र सिंह सीपीएम 13626-5.10 प्रतिशत

रोशन लाल भाटिया स्वतंत्र 10146-3.80 प्रतिशत

अबरारुल हुदा स्वतंत्र 7223 -2.70 प्रतिशत

ऋषिकेश महतो स्वतंत्र 3704-1.39 प्रतिशत

बीरेंद्र कुमार पांडेय झारखंड पार्टी 2640-0.99 प्रतिशत

लेखानंद झा स्वतंत्र 2372 -0.89 प्रतिशत

मथुरा प्रसाद स्वतंत्र 2149-0.80 प्रतिशत

मोएस गुड़िया स्वतंत्र 2143 0.80 प्रतिशत

गिरजा नंदन प्रसाद सिन्हा स्वतंत्र 833-0.31 प्रतिशत

अहमद आजाद स्वतंत्र 375-0.14 प्रतिशत

1962 में पीके घोष बने रांची के सांसद


संजय कृष्ण, रांची

रांची पूर्वी से 1952 में कांग्रेस ने जीत दर्ज की, लेकिन दूसरे और तीसरे चुनाव में उसे हार का मुंह देखना पड़ा। पहले आमचुनाव में कांग्रेस से इब्राहिम  अंसारी ने जीत दर्ज की थी, लेकिन इसके बाद हुए दोनों आमचुनाव में जनता ने अपना मत उन्हें नहीं दिया। दूसरी बार मुंबई से आए और झारखंड पार्टी के बैनर से चुनाव लड़े मीनू मसानी को संसद में भेज दिया और तीसरी बार भी उसने कांग्रेस के प्रत्याशी इब्राहिम अंसारी के बजाय स्वतंत्र पार्टी से पहली बार चुनाव में खड़े प्रशांत कुमार घोष यानी पीके घोष को संसद में भेज दिया। स चुनाव में प्रशांत घोष को 43256 मत मिले और इब्राहिम अंसारी को 38233 मत। रांची ईस्ट से कुल आठ लोग चुनाव मैदान में थे। पहली बार मारवाड़ी अर्जुन अग्रवाल भी मैदान में थे और वे जयपाल सिंह की पार्टी से चुनाव मैदान में थे। इनके अलावा गोपाल महतो, अनंग मोहन मुखर्जी, चामू सिंह मुंडा, शशिराय सिंह और एमएच बजराय मुंडा। वहीं, रांची वेस्ट आरक्षित सीट थी। यहां से तीसरी बार जयपाल सिंह जीतकर संसद पहुंचे। यहां जोसेफ तिग्गा को दूसरे स्थान से संतोष करना पड़ा। तीसरे प्रत्याशी थे लाल सिंह मुनारी। कुल तीन ग ही यहां से मैदान में थे। तीन बार रहे सांसदप्रशांत कुमार घोष रांची से तीन बार सांसद रहे। 20 दिसंबर, 1926 को जन्म हुआ। 11 दिसंबर, 1962 में शादी हुई और 25 दिसंबर 2013 में रांची में निधन। पहली बार वे स्वतंत्र पार्टी से चुनाव लड़े थे। हालांकि छात्र जीवन से वे फारवर्ड ब्लाक के सदस्य रहे, लेकिन स्वतंत्र पार्टी के अध्यक्ष के आग्रह पर रांची पूर्वी लोकसभा से मैदान में खड़े हो गए और जीत दर्ज की। डा. रामरंजन सेन ने लिखा है कि उनकी जीत के पीछे उनके पिता तारा प्रसन्न घोष की अहम भूमिका थी। वे एक सामाजिक आदमी थे। समाज के लिए काफी काम किया। इस काम का ही असर था कि वे झारखंड पार्टी व कांग्रेस प्रत्याशी को हरा सके। बाद में वे दीप नारायण सिंह के आग्रह पर कांग्रेस में शामिल हो गए। इसके बाद 1967 में कांग्रेस के नर पर चुनाव लड़े और विजयी हुए। इसके बाद 1971 में रांची से ही चुनाव लड़े और संसद पहुंचे। बाद में उनकी जगह पर शिवप्रसाद साहू को टिकट दिया गया, लेकिन वह चुनाव हार गए। दूसरी बार शिव प्रसाद साहू जीत दर्ज की। पीके घोष 1980 से 84 तक छोटानागपुर व संताल परगना के कांग्रेस महासचिव भी रहे। 1965 में एचइसीकर्मियों के विस्थापित लोगों के हर परिवार से एक-एक सदस्य को नौकरी दिलाने के लिए भी संसद का ध्यान आकृष्ट कराया। बहुत हद तक सफल रहे। इसके बाद इसी साल एचइसी कारखाना व क्वार्टर का काम पूरा हो गया तो एक हजार सिविल इंजीनियर तथा अन्य कर्मचारियों के बर्खास्त की नौबत आ गई। पीके घोष ने 80 सांसदों के हस्ताक्षर करवाकर संसद में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव पेश किया। तब केंद्र सरकार ने बर्खास्ती का प्रस्ताव स्थगित कर दिया गया इन्हें मैकेनिकल एवं स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग का अल्पकालीन प्रशिक्षण दिलाकर एचइसी में ही रखा गया। 1971 में उन्हों रेलवे कुली की बात संसद में उठाई। उनके अथक प्रयास से रेलवे कुली की स्थिति में कुछ सुधार हुआ। उनके पुत्र सिद्धार्थ घोष कहते हैं कि पिताजी ने हम लोगों को राजनीति से दूर ही रखा। वे नहीं चाहते थे कि उनका कोई बेटा राजनीति में कदम रखे।

नाम दल मत प्रतिशत

प्रशांत कुमार घोष स्वतंत्र पार्टी 43256 32.29 प्रतिशत

इब्राहिम अंसारी कांग्रेस 38233 28.54 प्रतिशत

अर्जुन अग्रवाल झारखंड पार्टी 29482 22.01 प्रतिशत

गोपाल महतो स्वतंत्र 10234 7.64 प्रतिशत

अनंग मोहन मुखर्जी स्वतंत्र 7118 5.31 प्रतिशत

चामू सिंह मुंडा स्वतंत्र 1981 1.84 प्रतिशत

शशि राय सिंह स्वतंत्र 1865 1.39 प्रतिशत

एमएच बजराय मुंडा स्वतंत्र 1790 1.34 प्रतिशत

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रांची वेस्ट एसटी

जयपाल सिंह झारखंड पार्टी 103310 -52.56 प्रतिशत

जोसेफ तिग्गा स्वतंत्र पार्टी 52432 26.67 प्रतिशत

लाल सिंह मुनरी कांग्रेस 40828 20.77 प्रतिशत

मुर्गे ने दी बांग, पंजा हो गया साफ


1957 में मीनू मसानी रांची से पहुंचे संसद, जयपाल सिंह ने अपने टिकट से लड़ाया था चुनाव


देश में जब दूसरी लोकसभा चुनाव की बयार बह रही थी तो रांची ने कई परिवर्तन देखे। अब तक झारखंड पार्टी का प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों में था, इस चुनाव में उसकी धमक शहर में भी दिखाई दी। पहले आम चुनाव में विजयी हुए कांग्रेस अब्दुल इब्राहिम को हार का मुंह देखना पड़ा। अब्दुल इब्राहिम दूसरे नंबर पर रहे और उन्हें. 32.59 प्रतिशत ही मत मिले। 1950 में गठित झारखंड पार्टी के प्रमुख जयपाल सिंह ने मुंबई के मेयर रहे मिनोचर रुस्तम मसानी (मीनू मसानी) को अपनी पार्टी से चुनाव लड़ा दिया और राष्ट्रीय आंदोलन में अग्रणी रही कांग्रेस हार गई। इब्राहिम को 36785 मत मिले। पहले चुनाव में इनका नाम अब्दुल इब्राहिम था और दूसरे आमचुनाव में इनका नाम इब्राहिम अंसारी हो गया। यही नहीं, रांची सीट भी इस बार रांची ईस्ट हो गई। पहले रांची नार्थ ईस्ट थी। जयपाल सिंह ने अपनी पुरानी सीट रांची वेस्ट से ही लड़े और लोकसभा में पहुंचे। यह सीट आरक्षित थी और रांची ईस्ट सामान्य थी। 1500 किमी दूर से आकर मीनू मसानी जयपाल सिंह की कृपा से संसद बन गए। हालांकि जयपाल के इस निर्णय पर पार्टी के अंदर और बाहर तीखी प्रतिक्रिया हुई, लेकिन तब जयपाल सिंह का प्रभाव कम नहीं था। झारखंड पार्टी का चुनाव मुर्गा था और कांग्रेस का पंजा। पर, आगे चलकर इसी पंजे की गिरफ्त में मुर्गा आ गया।


देश की आजादी में निभाई भूमिका

मीनू मसानी का जन्म मुंबई में 20 नवंबर 1905 को हुआ था और निधन 27 मई 1998 को। उन्होंने लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर और लिंकन इन्न से कानून की पढ़ाई की थी। 1929 में भारत वापस आने के बाद बंबई उच्च न्यायालय में वकालत शुरू की। लेकिन देश की आजादी में भाग लेने के कारण वकालत छोड़ दी। जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, युसुफ मेहर अली एवं अन्य नेताओं के साथ मिलकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की, लेकिन पार्टी में कम्युनिस्ट सदस्यों के बढ़ते प्रभाव के चलते वर्ष 1939 में लोहिया, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से त्यागपत्र दे दिया और मसानी ने राजनीति छोड़कर टाटा कंपनी में काम करना शुरू कर दिया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत होने पर मीनू मसानी वापस सक्रिय राजनीति में लौट आए और आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल भेज दिया गया। जेल से छूटने पर वर्ष 1943 में मीनू मसानी बंबई के महापौर बने। बाद में भारत के संविधान सभा के लिए चुने गए और भारत के नए संविधान निर्माण में नागरिकों के मूल अधिकारों से संबंधित समिति के सदस्य बने। संविधान सभा में मीनू मसानी ने भारत में समान नागरिक संहिता लागू किए जाने का प्रस्ताव दिया था लेकिन उसे नामंजूर कर दिया गया। 1978 में जनता पार्टी की सरकार में ये मंत्री बने। उन्होंने अवर इंडिया नामक पुस्तक भी लिखी थी, जिसका अनुवाद हमारा इंडिया से 1942 में छपा था। 1950 तक इसके सात संस्करण छप चुके थे।


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1957 के चुनाव में रांची ईस्ट से कुल सात उम्मीदवार मैदान में थे। एक झारखंड पार्टी से और दूसरे कांग्रेस से। बाकी स्वतंत्र चुनाव लड़े थे।


नाम दल मत प्रतिशत

एमआर मसानी झारखंड पार्टी 39025- 34.58 प्रतिशत

एमडी इब्राहिम अंसारी कांग्रेस 36785- 32.59 प्रतिशत

रवींद्रनाथ चौधरी स्वतंत्र 13605 - 12.05 प्रतिशत

रामेश्वर महतो स्वतंत्र 12332 -10.93 प्रतिशत

जेसी हावर्ड स्वतंत्र 4311 -3.82 प्रतिशत

जान डेविड मैक्सवेल हैमिल्टन बजराज स्वतंत्र-3.06 प्रतिशत

मुनजीनी डेविड स्वतंत्र-3353-2.97 प्रतिशत

मदन काशी

 : डॉ शिवप्रसाद सिंह


कहते हैं कि एक बार जब श्रवणकुमार अपने माँ-बाप की बहेंगी उठाए सकल तीर्थ-यात्रा पर जा रहे थे, तब वह जमानियाँ पहुँचे। उन्होंने कस्वे के पास एक घनी अमराई देखकर बहँगी उतार दी। बेचारे गर्मी से परेशान थके-थकाए बहाँ पहुँचे थे। आम्रकुंज की शीतल छाया में उन्होंने राहत की साँस ली। गंगाजल पीकर स्वस्थ हुए। माँ-बाप की बेटे से पूरी सहानुभूति थी। उन्होंने उन्हें अच्छी तरह सुस्ता लेने का मौका दिया ।


'ऐ बुड्ढे, ऐ बुड्ढी !!"


श्रवणकुमार ने कहा- "मैं तुम लोगों का ताबूत ढोते रहने के लिए नहीं जन्मा हूँ।"


सम्बोधन मात्र से ही अन्धा-अन्धी भौंचक थे। आगे की बात सुनकर तो उन्हें लकवा ही मार गया हो जैसे। दोनों साँस रोके लड़के की बात पर कान अड़ाए बैठे रहे ।


"मारा कि जीवन चौपट करके रख दिया। कांवड़ ढोते ढोते कन्धों पर घट्टे पड़ गए। जो होना था हो चुका। बड़ी भक्ति निबाही। अब यह भार मुझसे चलने का नहीं। बाज आया ऐसे सुपूत के खिताब से !" वह गुस्से में पैर पटकते अमराई से बाहर की ओर चले। जाते हुए लड़के के पैरों की धमक सुनकर अन्धे ने कहा - "बेटा! तुमने जो कुछ कहा वह बिलकुल ठीक है। बस जाते-जाते एक विनती सुनता जा ।"


श्रवणकुमार ने पास आकर पूछा- "क्या है ?"


"बात यह है बेटे कि अमराई घनी है। इसमें से निकलने का हम रास्ता भी


नहीं ढूंढ़ पाएंगे। वस काँवड़ उठाकर थोड़ी दूर आगे ठीक सड़क पर रख देना। हम वहीं किसी राहगीर से पूछ-पाछकर रास्ता पा लेंगे। आगे जैसी प्रभु की मर्जी ।"


श्रवणकुमार को यह विनती कतई पसन्द नहीं आई; पर 'स्वभावो हि अति- रिच्यते' - सो उन्होंने पुराने घट्ठ पर फिर बहेंगी रख ली और कस्बे को पार


करके कुछ दूर सड़क पर आ गए । "बस बेटे, बस, यहीं रख दे हमें।" बुड्ढा बोला। उसकी आवाज में न दहशत थी, न निराशा ।


श्रवणकुमार ने बहेंगी उतार दी और फूट-फूटकर रोने लगे। उनकी हिचकियों का ताँता टूटता ही न था। अन्धे की आँखों से भी आंसू गिर रहे थे।


"पिताजी," श्रवणकुमार बोले- "मैं कितना अधम हूँ। पता नहीं कैसे मेरे मुँह से वैसी बातें निकल गईं। आप मुझे क्षमा कर दें पिताजी ।" बुड्ढे ने मुस- कराते हुए कहा - "बेटे, इसमें तेरी कोई गलती नहीं है। दोष जमीन का है।"


"जमीन का ?"


"हाँ बेटे, तूने जिस अमराई में कांवड़ उतारी थी, वह मातृहन्ता परशुराम का स्थल है। वहीं उन्होंने परशु से अपनी माँ की गर्दन उतार दी थी।"


श्रवणकुमार आत्मग्लानि से मुक्त हो गए ।


मगर हजार-हजार श्रवणकुमार जो इस अंचल में बसते हैं, चाहकर भी जमीन के दोष से मुक्ति नहीं पा सकते। वे कांवड़ उतार दें तो भी, चढ़ाए घूमते रहें तो भी, जमीन अपनी अन्तनिहित विशेषता से उन्हें लांछित करने में कभी नहीं चूकती ।


आपको शायद मालूम नहीं, जमनियाँ को मदन काशी भी कहते हैं। तेरहवीं शती के एक जैन काव्य में काशी से पूर्व में बीस कोस की दूरी पर अवस्थित मदन काशी की चर्चा की गई है। यहाँ भी गंगा की धारा उत्तरवाहिनी है। कहते हैं कि बटेश्वर के चक्रवन में पड़कर कोई बच नहीं पाता। मुझे मालूम नहीं कि वर्तुल लहरों का ऐसा जाल गंगा या किसी भी नदी में कहीं फैला है, पर मैंने अक्सर बरसात के दिनों में बटेसर के खोंचे में सड़ी हुई लाशों को चक्र की तरह गोलाई में घूमते देखा है। वह वही स्थान है जहाँ से गंगा उत्तरवाहिनी होती है, वह वही स्थान है जहाँ की थाह लेने के लिए गाजीपुर के कलक्टर ने बहुत कोशिश की; पर असफल हुए। हमारे ग्राम के पुरोहित चक्रवन या चक्कावन की कोई और भी व्युत्पत्ति बताते थे। भगीरथ के रथ के पीछे-पीछे गंगा चल रही थीं। अचानक रथ यहीं आकर रुक गया था। सारथी ने घोड़ों पर चाबुकों की बौछार की; पर घोड़े अड़ गए। घोड़े आदमी से ज्यादा विकसित स्वयंप्रकाश ज्ञान रखते हैं। वे जानते थे कि आगे मर्दोष जमदग्नि का आश्रम है। जमदग्नि यानी जमनिया । गंगा आश्रम डुबाकर बची रह जाएँगी क्या ? सो घोड़ों ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। राजा ने खुद बागडोर संभाली और घोड़ों को बढ़ाया। घोड़े आगे बढ़ने की बजाय चक्र में घूम गए। एक बार नहीं, दो बार नहीं, पाँच बार यानी वाण - 5 और वे मोड़ लेकर उत्तर की ओर बरजोरी रथ लेकर भागे । सो पाँच यानी वाण और चक्र माने गोलाई में घूमना । सो बन गया चक्कावान । पर मुझे तो यहाँ अथाह जल के भीतर पड़े अदृश्य परशुराम के इष्टदेव बटेश्वर शिव के ज्योतिलिंग पर घूमती मुण्डमाला ही दिखाई पड़ती है।


जाने दीजिए वे पुरानी बातें। न वह 'पर्वतो इव दुर्धयः कालाग्नीव दुःसहः' व्यक्तित्व रहा, कुण्ठित कुठार इसी खोंचे में धँस गया, जमदग्नि का आश्रम उजड़ गया। जिन गायों को छीनने में सहस्रबाहु की भुजाएँ टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गई थीं, उसी इलाके में मरियल अस्थि-पंजरावशेष ढोर यह भी क्या दृश्य है। संसद में विश्वनार्थासह गहमरी ने कहा था कि पूर्वांचल कितना उपे- क्षित है। वहाँ प्रतिवर्ष अकाल की जयन्ती मनाई जाती है। मरियल ढोरों के गोबर से काढ़े हुए अन्न पर हजारों लोग पेट पालते हैं, सुना तो पण्डित नेहरू की आँखें भर आई थीं। इस दास्तान को अलाव के आसपास बैठे बुड्ढे दुहरा- दुहराकर नेहरू जी की सहानुभूति के प्रति आँसू ढुलकाते थे—हाय-हाय, हमारी दुर्दशा सुनकर बेचारे की आँखें भर आईं । बुड्ढे नेहरू जी के दुःख से रो पड़ते थे। पर जब मैंने अपने ही ग्रामवासी एक श्रवणकुमार को गद्गद होते गलदश्रु भावुकता के साथ नेहरू के प्रति आभार व्यक्त करते पाया, तब मुझे अचानक बटेश्वर के चक्रवन में डूबे परशु का ध्यान हो भाया। कहाँ गया वह तेवर, कहाँ गया वह अन्याय को न सहने वाला वर्चस्व । इसीलिए कहा कि इस सूअर-बाड़े में आकर प्राचीन अतीत को सोचना गोबर के सड़े ढेर पर बुक्के की परत बिछाना है। मुझे तब बड़ी खुशी होती है जब देखता हूँ कि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने भगवान् परशुराम को जमानियाँ से हटाकर भंड़ोच में खींच लिया है। मैं तो खुश होता यदि वह बटेश्वर के शिर्वालंग को, मदन काशी के पूरे इतिहास को व्याघ्रसर (बक्सर) और भृगुक्षेत्र (बलिया) को भी हमसे छीनकर किसी समृद्ध स्थान में प्रतिष्ठित कर देते। हमें नहीं चाहिए पुरखों का वह इतिहास, जिसकी मादकता और प्रकाश दोनों की यादें केवल रिसते घावों से छेड़छाड़ करती


हैं। अब न तो मादन रहा, न प्रकाश, फिर काहे को रहे यह मदन काशी । "कहिए सभापति जी, अब कितने छोकरे जाते हैं अपने गाँव से जमानियाँ डिग्री कालेज में पढ़ने ?"


सभापति बाबू केदारसिंह गर्व से कहते हैं- "चौबीस-पच्चीस । इससे कम नहीं।"


"पर इसमें से कहीं बाहर जाकर नौकरी-चाकरी करके बूढ़े-बूढ़ियों की सहायता के लिए अकाल की जयन्ती पर कलदार भेजने वाले एक भी नहीं।"


सभापति निराश हो चले। उन्हें लगता है कि जमीन बंझा हो रही है। न तो ये छोकरे काँवड़ पटक पा रहे हैं, न ढो हो पा रहे हैं।


मेरी कपसिया चाची सारे गाँव में 'चकचालन' यानी चक्र या चक्कर लगाने वाली के शाश्वत खिताब से विभूषित है। जाने कितनी इन्साइक्लोपीडिया उनके दिमाग में परत-दर-परत गड़ी पड़ी है। कुछ आँखों देखी, ढेर सारी कानों सुनी । "चाची, ठीक-ठाक है न ?"


"ठीक का है बचवा, 'मुआ सुराज' क्या हुआ खाने के लाले पड़ गए।" मैं चाची को इन्दिरा-समाजवाद पर भाषण दूँ या डाँगे, नम्बुद्रीपाद पर, कोई असर नहीं होने का । क्योंकि उनके चेहरे पर कुछ इस तरह की अनजानी झुरियों का ताना-बाना खिचा है जो दुःखों की इन्तहा से उत्पन्न उदासीनता के तागे से बना है, इसे भेदकर सातवें फाटक की लड़ाई लड़ने का साहस मुझ जैसे बौद्धिक में नहीं आ सकता जो सुविधापसन्द जिन्दगी से समझौता करके जबानी जगा- खर्च की मुद्रा में इनका हाल-चाल जानना चाहता है। आप गलियों में घुसिए- घुस नहीं पाएंगे क्योंकि वे गैरकानूनी ढंग से मकानों के भीतर या दीवालों के बगल के पुश्ते में ले ली गई हैं। आप घरों में घुसने की कोशिश कीजिए, असफल होंगे क्योंकि हर दरवाजे और निकसार पर ढेर सारी मक्खियों से छूल-ठुलैया खेलते अपरम्पार मरियल छोरों की भीड़ चोकठ पर ही बैठी मिलेगी, इन्हें दूसरी जगह कोई सूखी जमीन खेलने-बैठने के लिए नसीब ही नहीं होती। आप नई पीढ़ी के दिल में घुसने की कोशिश कीजिए, असफल होंगे क्योंकि वहाँ केवल दिशाहीन थक्के-थक्के कुहासे के अलावा कुछ है ही नहीं। आप बुजुर्गों के दिमाग में घुसने की कोशिश कीजिए, असफल होंगे, क्योंकि उनका दिमाग इस तरह उस है कि उसमें सिर्फ एक चीज कशमकश भरी है- "हुँह, ई पढ़वैया लोग खाली गप्प मारते हैं।" मैं सोचता हूँ कि क्या ये गलियाँ, ये घर, ये दिल, दिमाग कभी खुलेंगे भी ? कभी इनमें मादन या प्राण सचमुच उतरेगा।

 सुना; पटेल-आयोग ने पूर्वांचल के विकास के लिए एक लम्बी-चौड़ी रपट तैयार की। बड़ी कसरत, उठक-बैठक, ऊटक-नाटक के बाद रपट सरकार के हवाले की गई कि यह नितान्त व्यावहारिक और कम खर्च वाली योजना है, पर कुतुबमीनार हो या मेरुस्तम्भ, उसमें इतनी मंजिलें हैं कि रिपोर्ट का बुर्जी तक चढ़ पाना और वहाँ से उतरकर कपसिया चाची की झुर्रियों के सामने खुल पाना कतई सम्भव नहीं लगता। त्रिभुवननारायण सिंह और कमलापति त्रिपाठी या इसी तरह के दूसरे लोगों का इसमें क्या दोष । उन्हें सिर्फ जनता की गरीबी और हायतोबा में फंसकर जिन्दगी खराब करनी तो है नहीं। बड़े-बड़े काम हैं, कितनी उलझी हुई समस्याएँ हैं। फिर कुर्सी की हरकत से भी वे अच्छी तरह वाकिफ हैं, इसलिए वे उस कुर्सी को स्थिर खड़ी रखने में ज्यादा ध्यान दें तो इसे मामूली बढ़ई भी कमअक्ली कभी न कह पाएगा। हमारी आपकी तो विसात ही क्या !


उस दिन जमानियाँ के लाटफरेम पर दिहात के एक नामी-गरामी आदमी मिल गए । बोले- "बेटा, यह इलाका तो अब आने-जाने लायक भी नहीं रहा । बाल-बच्चों को लेकर कभी आना हो तो रात में गाँव के लिए न चल पड़ना।"


हमने मासूमियत से पूछा- "काहे काका !"


"अरे भइया, कल रात डेढ़गाँवा के दो जने कहीं रिश्तेदारी में नेवता लेकर जा रहे थे। वह तलासपुर की आढ़त है न ?"


मेरे सामने तलासपुर की आढ़त खड़ी हो गई। मेरा अंचल कश्मीर नहीं है, केरल नहीं है, और तो और मिर्जापुर और चुनार भी नहीं है, पर तलासपुर की आढ़त पता नहीं क्यों मुझे बेतरह खींचती है। किसी जमाने में यह गल्ले का विशाल गोदाम थी। जमानियाँ की गल्लामण्डी का 'पलैग पोस्ट' कह लीजिए । उन दिनों गल्ला व्यापारियों को इतना भी सन नहीं था कि वे देहात से खरीदा गल्ला एक मील दूर स्टेशन की मण्डी में रख आएँ । रखेंगे, ले जाएँगे वहाँ; पर पहले गल्ला उठा तो लें। अनाज के बोरों से लदी बैलगाड़ियाँ, बर- साती पानी से बचने के लिए तिरपाल या सरपत की छाजनों से डॅकी, लद्द टटुओं की कतारें, घंटी टुनटुनाते लद्दू बैल- सभी इस आढ़त के सामने आकर इकट्ठे हो जाते । गोदाम के कमरे व्यापारियों को अनाज रखने के लिए किराये पर उठा दिए जाते । सुबह से दूसरी सुबह तक सिर्फ एक कार्य-अनाज उता- रना और गोदाम में पहुंचाना। रात के धुंधलके में गाड़ीवानों के जलते हुए चूल्हे या अहरे, सिकती हुई बाटियों की महक, व्यापारी, मुनीम और गाड़ी- वानों की तकझक-क्या रौनक थी ! उस वक्त आढ़त के आँगन में पारिजात के दो पेड़ थे। वे फूलते तब थे, जब अनाज-गाड़ियों की भीड़ शुरू न होती थी। हम लोग पकते धानों के बीच से सुगापंखी खेतों की मेड़ों से गुजरते हुए इस आढ़त से पारिजात फूल बटोरने के लिए वहाँ पहुँच जाते ।


अब वहाँ सिर्फ खण्डहर हैं। आसपास के किसी गाँव के छोटे-से बनिये ने राहगीरों के लिए गुड़ पट्टी, रेवड़ी-लकठे की छोटी-सी दूकान खोल ली है, एक खण्डहर की दीवार पर फूस की मड़ई डालकर ।


"तो बेटा, उस रात हल्की बारिश होने लगी। वे दोनों जन उसी मड़ई में घुस आए। तुम जानते ही हो रात को बनिया वहाँ रहता नहीं। सारा सामान बटोरकर गाँव चला जाता है।"


"हाँ काका !" मैं कहता हूँ; पर स्मृति में पारिजात के ललछौहे अण्ठल बाले नाजुक फूल बहते-उतराते चले जा रहे हैं।


"बस एक आदमी ने सड़क से उन पर टाचं से रोशनी फेंकी। उसका चेहरा गमछे से ढंका था। बगल से वैसे ही दो और नकाबपोश निकले । सभी के हाथों में भाले थे। उन लोगों ने सामान छीनने की कोशिश की। एक से हाथापाई शुरू हुई, तब तक दूसरे ने पीठ में भाला मारा। और सामान लेकर चलते बने। मुश्किल से आठ-आठ रुपयों की दो साड़ियाँ, पचिक के मिठाई- खाजे-यही न ? इत्तेभर के लिए यह सब हो गया। राह चलना मुश्किल है, बेटा। अब जमनियाँ वह जमनियाँ नहीं रहा। जिस किसी को देखो कि थोड़ा नटवर है, बदन पर बुशटं और पतलून है, बिना कहे जान लो कि उसके पास पिस्तौल है, या बिजली का हण्टर है या और कुछ नहीं तो रामपुरी चाकू है। सारा इलाके का इलाका गुण्डों की जमींदारी हो गया।"


गाड़ी आ गई थी। वे चले गए। में सोचता रहा कि क्या सचमुच इधरती में ही दोष है ? पर नक्सलबाड़ी में तो परशुराम नहीं हुए। मुशहरी में कोई ऐतिहासिक अमराई नहीं है। श्रीकाकुलम बहुत दूर है भूगुक्षेत्र से-फिर; फिर, इसे क्या कहा जाए ? आखिर दोष किसमें है ?


कोई मेरे कानों में भुनभुनाता है- "तुम भी अन्धों की तरह धरती को दोषी कहकर मौन हो जाओ। इसी में लाभ है। इसी में खैरियत है। क्योंकि भ्रष्ट व्यवस्था में कभी भी आदमी दोषी नहीं होता, निर्जीव पदार्थों के सिर दोष मढ़कर अपना सिर बचाना ही बुद्धिमानी है, राजनीति है, सफलता की कुंजी है।"


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छोटानागपुर में संताल हूल के नायक थे अर्जुन मांझी

 

सिदो, कान्हू, चांद, भैरव ने 30 जून 1855 को हूल का जो शंखनाद संताल परगना में किया था, उसकी गूंज छोटानागपुर तक थीं। चारों भाइयों के अलावा हर क्षेत्र में क्षेत्रीय नायक थे। यह लड़ाई 1855 में ही खत्म नहीं हो गई थी। 1858 तक विद्रोह की आग सुलगती रही। इसी तरह छोटानागपुर में एक नायक थे अर्जुन मांझी। ब्रिटिश रिकार्ड में इनका नाम उर्जुन मांझी है। ये रामगढ़ के संताल थे और इन पर पचास रुपये का पहली बार इनाम घोषित किया गया और फिर सौ रुपये और अंत में दो सौ रुपये का इनाम घोषित किया गया। इससे इस क्रांतिकार अगुवा के महत्व को समझ सकते हैं। इसके बारे में हजारीबाग से लेकर रांची के प्रशासनिक कार्यालयों और आकाईव में भी ब्रिटिश अधिकारियों ने खोजबीन की लेकिन कुछ हाथ नहीं लगा।


1855 से 1858 तक विद्रोह के दौरान छोटानागपुर असंतोष और उपद्रव से परेशान था। ब्रिटिश अधिकारियों ने लिखा, संतालों ने देश की अस्थिर स्थिति का लाभ उठाया और अशांति फैलाई। कुछ जंगली जनजातियों ने भी अपनी शिकारी प्रवृत्ति को खुली छूट दे दी। मेजर सिम्पसन, प्रधान सहायक आयुक्त, हजारीबाग ने सात सितंबर, 1857 को कैप्टन ई.जे. डाल्टन, आयुक्त छोटानागपुर डिवीजन को एक पत्र लिखा, कि 300 बदमाश और संतालों ने मांडू के कृष्णा महतो के घर को घेर लिया और हमला किया। पुलिस के एक दल के आने पर वे पीछे हट गए। 11 सितंबर, 1857 को लिखे एक पत्र में कैप्टन डाल्टन ने बंगाल सरकार के सचिव को सूचित किया कि गोला और गोमिया में संतालों और अन्य लोगों के एक मिश्रित समूह ने नृशंस अपराध किए और पुलिस के अधिकार की अवहेलना की। 17 सितंबर को लिखे एक पत्र में मेजर सिम्पसन ने कैप्टन डाल्टन को सूचित किया कि गोमिया और रघुर के थानों की पुलिस रिपोर्ट उनके जिले के दक्षिण पूर्व हिस्से में देश की शांति का प्रतिकूल विवरण देती है। संतालों ने कई अन्य बदमाश, चुआड़, घाटवालों और अन्य लोगों के साथ हजारों की संख्या में एकत्र होकर गोला से दस मील से कुछ अधिक दूरी में कई गांवों को लूटा और कसमार और जंगी गांवों में हत्याएं कीं। लेफ्टिनेंट ग्राहम और अर्ल के नेतृत्व में रामगढ़ बटालियन 14 सितंबर को लुटेरों की नेता रूपो मांझी के गांव की ओर बढ़ी और पाया कि उसका घर लूटी गई संपत्ति से भरा हुआ है। 16 सितंबर को कैप्टन डाल्टन ने मेजर सिम्पसन को पत्र लिखकर रुपये का इनाम मंजूर किया। रूपा मांझी की गिरफ्तारी के लिए 100 रु का इनाम मंजूर किया। ब्रिटिश अधिकारी मान रहे थे कि इन गड़बड़ियों में अर्जुन मांझी का प्रमुख हाथ था। 26 सितंबर, 1857 को लिखे एक पत्र में कैप्टन डाल्टन ने मेजर सिम्पसन को उसकी गिरफ्तारी के लिए 200 रु इनाम के लिए बंगाल सरकार को पत्र लिखा। ब्रिटिश सरकार के लिए ये क्रांतिकारी लुटेरे, बदमाश, हत्यारे, विद्रोही ही थे। पत्रों में वे इन क्रांतिकारियों के लिए इन्हीं शब्दों का प्रयोग करते हैं। संताल विद्रोह के बहुत से नायक गुमनाम हैं या फिर ब्रिटिश अभिलेखों में कैद हैं।