पुस्‍तक छपते ही लग गया था प्रतिबंध

पंडित सुंदर लाल की 'भारत में अंग्रेजी राज' पुस्तक को अंग्रेजों ने खतरनाक पुस्तक माना। छपते ही पांच दिनों के अंदर इस पर अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। नौ साल बाद इस पर से प्रतिबंध हटा।  यह पुस्तक अब फिर से छपकर आई है। पुस्तक मोरहाबादी, मंडा मैदान के वीरेंद्र प्रसाद के सौजन्य से अभी-अभी इसे प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है।
प्रो वीरेंद्र प्रसाद को यह पुस्तक उनके पिता पुलिस अधिकारी हरिहर सिंह से प्राप्त हुई थी। हरिहर सिंह की दो साल पहले, 2016 में 98 साल की उम्र में रांची में ही निधन हुआ। हरिहर सिंह ब्रिटिश काल में बिहार में सीआइडी इंस्पेक्टर रहे। गांधी की हत्या को लेकर छह सदस्यों की जो जांच टीम बनी थीं, उस टीम में  इन्हें भी शामिल किया गया था और उन्होंने जेल जाकर नाथूराम गोडसे से न केवल पूछताछ की थी, बल्कि एक लंबा इंटरव्यू भी लिया था, जिसे अब पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की योजना वीरेंद्रजी बना रहे हैं। वीरेंद्र जी कहते हैं कि यह पुस्तक भी पिताजी ने भागलपुर के अमरपुर थाने से नीलामी में दो रुपये में खरीदी था, तब से मेरे पास थी। हरिहर सिंह एएसपी पद से 1977 में अवकाश ग्रहण किया।

अलग-अलग शहरों से छपी : जैसा कि हम जानते हैं, इस पुस्तक को पंडित सुंदरलाल ने लिखा है। ये बीएचयू के कुलपति भी रहे। ये ऐसे लेखक थे, जिनकी पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राजÓ ने सत्याग्रह या बम-गोली द्वारा अंग्रेजों से लडऩे वालों को सदा प्रेरणा दी। सुंदरलालजी जानते थे कि प्रकाशित होते ही शासन इसे जब्त कर लेगा। अत: उन्होंने इसे कई खंडों में बांटकर अलग-अलग शहरों में छपवाया। तैयार खंडों को प्रयाग में जोड़ा गया और अंतत: 18 मार्च, 1929 को यह पुस्तक प्रकाशित हुई। ओंकार प्रेस, इलाहाबाद से यह छपी थी।
पांच दिन के अंदर जब्त : इसका पहला संस्करण दो हजार प्रतियों का था। जब्ती की आशंका को देखते हुए 1,700 प्रतियां तीन दिन के अंदर ही ग्राहकों तक पहुंचा दी गईं। शेष 300 प्रतियां डाक या रेल द्वारा भेजी जा रही थीं कि इसी बीच अंग्रेजों ने 22 मार्च को इस पर प्रतिबंध लगा दिया और जब्त कर लिया। जो 1,700 पुस्तक जा ग्राहकों तक पहुंच चुकी थीं, अंग्रेजी शासन उसे ढूंढने लगी। इस प्रतिबंध के विरुद्ध देश भर के नेताओं और समाचार पत्रों ने आवाज उठाई। गांधीजी ने यंग इंडिया में इस जब्ती को 'दिन दहाड़े डाका बताया। दूसरी ओर सुंदरलाल प्रतिबंध के विरुद्ध न्यायालय में गए। उनके वकील तेजबहादुर सप्रू ने तर्क दिया कि इसमें एक भी तथ्य असत्य नहीं है। सरकारी वकील ने कहा, 'यह इसीलिए अधिक खतरनाक है।
नौ साल बाद हटा प्रतिबंध : इस पर सुंदरलाल ने संयुक्त प्रांत की सरकार को लिखा। गर्वनर शुरू में तो राजी नहीं हुए, पर 15 नवंबर 1937 को उन्होंने प्र्रतिबंध हटा लिया। इसके बाद अन्य प्रांतों में भी प्रतिबंध हट गया। अब नए संस्करण की तैयारी की गई। चर्चित पुस्तक होने के कारण अब कई लोग इसे छापना चाहते थे, पर सुंदरलाल ने कहा कि वे इसे वहीं छपवाएंगे, जहां से यह कम दाम में छप सके। ओंकार प्रेस, प्रयाग ने इसे केवल सात रुपए मूल्य में छापा।
पहले संस्करण का मूल्य 16 रुपये था। पुस्तक छपकर तैयार होने से पहले ही दस हजार के स्थान पर 14 हजार से ऊपर ग्राहकों के आर्डर आ चुके थे। इसलिए दूसरे संस्करण के निकलते ही तीसरे संस्करण का प्रबंध किया जाने लगा। दूसरे संस्करण की भूमिका में सुंदरलाल ने तारीख नौ सितंबर 1938 लिखा है। देश की आजादी के बाद 1960 में भारत सकार ने इसे प्रकाशित किया। हालांकि कुछ अंश हट गए थे, लेकिन अभी जो प्रकाशित हुई है, वह दूसरे संस्करण से है। इसमें किसी प्रकार का फेरबदल नहीं किया गया है न संपादित। प्रो वीरेंद्र प्रसाद कहते हैं, लंबे समय से यह किताब पड़ी थी, इसका पन्ना-पन्ना अलग हो गया था। अब छपकर आई है तो बड़ा सुकून मिल रहा है। अब दुबारा पाठकों को यह ऐतिहासिक पुस्तक सुलभ होगा।
दैनिक जागरण से साभार

बाबा कार्तिक उरांव ने आदिवासी पहचान की लड़ी थी लड़ाई


कार्तिक उरांव को याद करते समय हमें उनके कामों को भी याद करना चाहिए। व्यक्ति अपने काम से ही याद किया जाता है और वह सदा स्मृतियों में बना रहता है। आज की गलाकाट राजनीति के दौर में उन्हें इस लिहाज से भी याद करना जरूरी हो जाता है कि ऐशो आराम की जिंदगी छोड़ राजनीति में आए तो अपने लिए एक मकान भी नहीं बनवा सके। पं जवाहर लाल नेहरू उन्हें लंदन से लेकर भारत आए, जहां वे पढऩे गए थे। फिर सत्तर के दशक में चुनावी राजनीति में आए और पहली बार असफलता के बाद दूसरी बार कामयाब हुए। पर राजनीति उनके लिए अपने विकास की सीढ़ी नहीं थी। उन्होंने आदिवासियों के विकास को हमेशा ध्यान में रखा। इसलिए, 1967 में अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद की स्थापना की और उसके पहले संस्थापक अध्यक्ष बने। इसके बैनर तले रांची में सरहुल की भव्य शोभायात्रा की शुरुआत की, जो आज इतना भव्य हो गया है, लाखों लोग मांदर के साथ झूमते हुए सड़क पर निकलते हैं। पड़हा व्यवस्था को दुरुस्त किया। सरना कोड की मांग तब उठाई थी। आदिवासी पहचान को लेकर वे बेहद सजग थे। सांस्कृतिक चेतना जगाने के बाद उन्होंने अंबेडकर की तरह आदिवासियों को भी शिक्षित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए। उन्होंने करीब 57 स्कूल खोले, जिसमें अब मात्र नौ ही चल रहे हैं। पूर्व आइजी और बाबा कार्तिक उरांव के दामाद डॉ अरुण उरांव जरूरत कहते हैं कि इन स्कूलों को फिर से चलाने का उपक्रम किया जा रहा है।
गांव से लंदन की यात्रा


गांव से प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद बिहार में बीएससी पढ़ाई की। इसके बाद यहां से सीधे लंदन। एमएससी इंजी लंदन से किया। इसके बाद एआरसीएसटी ग्लास्गो। कार्तिक किसी बड़े शहर में नहीं जन्में थे। गुमला जिले के करौंदा गांव की लीलाटोली में 29 अक्टूबर, 1924 को उनका जन्म हुआ था। आठ दिसंबर, 1981 को निधन। इंजीनियङ्क्षरग के साथ ही बैरिस्ट्री की शिक्षा लिंकन्स इन लंदन से ग्रहण की। यहां आए तो 1950 से 52 तक बिहार सरकार में सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता की नौकरी की। इसके बाद फिर देश को छोड़ विदेश चले गए और 1954 से 1955 डिजाइन डिटेलर ट्विस्ट्रील रिफन्फोर्समेंट लि तथा ईबी बालगेर एंड संस लंदन में काम किया। सितंबर, 1955 से मई 1958 तक तकनीकी सहायक ब्रिटिश रेलवे तथा वरीय तकनीकी सहायक ब्रिटिश ट्रांसपोर्ट कमीशन लंदन में रहे। अगस्त 1958 से फरवरी 1961 तक असैनिक अभियंता डिजाइन, आटोमेटिक पॉवर डिपार्टमेंट, टेलर उड्रा कंस्ट्रक्शन लि मिट्रलेसेक्स यूके में काम किया। इसके बाद दिसंबर, 1961 तक एचइसी में। अगस्त 1962 से 1967 तक डिप्टी चीफ इंजीनियर। हालांकि इसकी कहानी भी दिलचस्प है। इसी दौरान लंदन में नेहरू गए थे। वहां इनकी प्रतिभा देखी तो भारत आने का न्यौता दिया। इसके बाद जब एचइसी की स्थापना होने लगी तो कार्तिक उरांव को बड़ी जिम्मेदारी सौंपी। यही कारण रहा कि इनका कांग्रेस के प्रति झुकाव हो गया। इसके बाद तो 1967 से 1970 तक, 1971 से 1977 तक लोकसभा सदस्य रहे। बिहार विधानसभा सदस्य, 28 जून 1977 से 16 जनवरी 1980 तक रहे। 1980 से आठ दिसंबर, 1981 तक मृत्युपर्यंत संचार राज्यमंत्री भारत सरकार रहे। राष्ट्रीय भाषा परिषद, बिहार के 1968 से 1975 तक सदस्य। हालांकि दर्जन भर से ऊपर राष्ट्रीय और प्रादेशिक संस्थाओं में सक्रिय रहे। मानद सदस्य रहे। उनके पैतृक गांव में जरूर एक बड़ा आयोजन होता है। लेकिन उनके काम को लिखित दस्तावेज के रूप में प्रकाशित करने की व्यवस्था होनी चाहिए।

शेरशाह की राह पर चल 'महानÓ बना अकबर


हिंदी-मैथिली की वरिष्ठ लेखिका उषाकिरण खान अपने नए उपन्यास अगनहिंडोला पर चर्चा कर रही थीं। बातचीत कर रहे थे रांची दूरदर्शन के पूर्व निदेशक प्रमोद कुमार झा। नई-नई जानकारियों के वर्क खुल रहे थे। महज पांच साल के शासन काल में शेरशाह सूरी ने क्या इतिहास रचा था? इस छोटी सी अवधि में उसने जो काम किए, जिसकी नींव रखी, उसी राह चलकर एक मुगल शासक अकबर 'महानÓ बन जाता है, लेकिन हम इस नायक को महानायक मानने से कतराते रहे।

शेरशाह की तीन इच्छाएं जो रह गईं अधूरी
उषाकिरण खान ने चर्चा के दौरान बताया कि उसकी तीन इच्छाएं अधूरी रह गईं। शेरशाह के बारे में हम यह सब जानते हैं कि उसने जीटी रोड बनवाई, सराय बनवाए, डाका चौकी स्थापित की। यह नहीं जानते कि उसने देश में पहली बार तीन गांव के बीच में स्कूल-मदरसे की स्थापना की। पंडित-मौलवियों को बकायदा वेतन की व्यवस्था की और बुढ़ापे में हर पढऩे-लिखने वाले पंडित-मौलवी के लिए वजीफे की व्यवस्था। उसकी तीन अंतिम इच्छाएं जो पूरी नहीं हो सकीं-वह यह थीं कि-वह पूरे भारत में सड़कों का जाल, पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण के साथ-साथ देश के बीच में आड़ी-तिरछी सड़कें, लाहौर के मुगल के किले और शहर को ध्वस्त करना ताकि मुगल फिर दुबारा भारत की ओर आंख उठाकर न देख सकें और भारत से मक्का के बीच समुद्र में बेड़े का निर्माण, ताकि लोग पानी के जहाज से जाते समय बाजार भी करते हुए जा सकें। जमीन की नापी भी उसने टोडरमल के सहयोग से की, बाद में टोडरमल अकबर के नवरत्नों में शामिल हुए। अकबर ने शेरशाह के सकारात्मक कामों को आगे बढ़ाकर महान बना। हालांकि शेरशाह से वह नफरत करता था। पर, शेरशाह का चरित्र ऐसा था कि हुमायूं की मां भी उसके चरित्र की तारीफ की है।
आदिवासियों के साथ बेहतर संबंध
प्रश्नों के जवाब में उषाकिरण ने कहा कि शेरशाह का आदिवासियों के साथ बेहतर संबंध था। आदिवासियों के साथ ही नहीं बंजारों के साथ भी। जो लूटपाट करते थे, सबको काम से जोड़ दिया। सबको निर्माण में लगा दिया। रोहतासगढ़ के आस-पास आदिवासियों की बड़ी आबादी थी। उसके साथ बेहतर संबंध थे। यही नहीं, पूणिया में एक शेरशाहबादी मुसलमान हैं। वे आज भी उसकी प्रतीक्षा करते हैं कि वह आएंगे तो दिल्ली ले जाएंगे। ये किसान हैं और बहुत गरीब। शेरशाह ने इनसे वादा किया था और ये मुसलमान उस वादे की प्रतीक्षा आज भी कर रहे हैं। वह सैनिकों की बहाली खुद करता था। वह आदमी की पिंडली देखकर बता सकता था कि वह किस काम के लायक है और उसी तरह वह घोड़ों की पहचान करता था। उसे इस बात की जानकारी रहती थी कि उसके पास कितने सैनिक हैं, कितने घोड़े हैं। यह सब उसकी जुबान पर रहता था। चूंकि वह एक छोटे से आदमी से देश का शहंशाह बना था और वह भी पांच साल के लिए।
अदीबों का करता था सम्मान
शेरशाह पढ़़ाकू था। वह अदीबों का सम्मान करता था। पहली बार उसने पंडित और मौलवी को वेतन देना शुरू किया। और जो बूढ़े हो चुके थे उनके लिए वजीफे की। उस समय के महान कवि मलिक मोहम्मद जायसी से उसका खासा लगाव था। जायसी शेरशाह को शहंशाह नहीं समझते थे। जब भी शेरशाह उनके पास जाता, वह नीचे जमीन पर बैठता था और जायसी अपने तख्त पर।
स्त्रियों की करता था इज्जत
उषाकिरण ने बताया कि वह स्त्रियों की इज्जत करता था। कहा कि जब हुमायूं अपना हरम छोड़कर भाग गया तो उसमें उसकी स्त्रियां, मां और बहुत सी नौकरानियां थीं। लेकिन हुमायूं के इस हरम को उसने चार महीने तक रोहतासगढ़ में रखा और युद्ध समाप्ति के बाद टोडरमल के साथ हरम को लाहौर के लिए रवाना किया। उसने बहुत शादियां की, लेकिन उसका उद्देश्य संपत्ति अर्जित करना था। नालंदा में एक मकबरा है उसकी एक पत्नी का। वह उससे उम्र में 12 साल बड़ी थीं। शादी केवल संपत्ति के लिए था। उस पत्नी से उसे खूब सोने और अन्य चीजें मिलीं। उसे इस बात का मलाल था कि शहंशाह पत्नी वाला रिश्ता नहीं रखते थे। इस तरह का उसका चरित्र था।
देश और लोकहित के काम
शेरशाह के कई पक्षों पर ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ उषाकिरण बात कर रही थीं। बता रही थीं कि उसने सबसे पहले ङ्क्षहदी में फरमान निकाला। दिल्ली के तख्त पर सिर्फ पांच साल काबिज होने वाले इस सुलतान ने जितने प्रशासनिक एवं लोकहित के कार्य किये कोई दूसरा सालों साल हुकूमत करके भी नहीं कर सका। उसने अमन चैन के लिए ही बंगाल से पंजाब तक पक्की सड़क बनवाई। उसने सड़कों के किनारे जहां सराय बनाने का हुक्म दिया था वहीं दो कोस पर डाक चौकी की स्थापना की। सभी डाक चौकियों पर दो घोड़े घुड़सवार थे। शहंशाह बंगाल में खाने बैठता तो वहां जो नगाड़ा बजता तो तुरत दूसरे पड़ाव पर मालूम हो जाता। देश में एकसा तौल हो इसके लिए मापतौल का एक महकमा ही शुरू कर दिया। छटांक से लेकर पंसेरी तक का बाट एक ही जगह ढाला जाता और बनियों,
अब और उपन्यास नहीं...
बातें केवल अगन पर नहीं रुकीं। भामती से लेकर रतनारे नयन, कहानियां, ऐतिहासिक उपन्यासों के लेखन पर भी हुई। कहा कि ऐतिहासिक उपन्यास रुचते नहीं। इसमें रुढ़ हो जाना पड़ता है। उपन्यास का चरित्र बांध देता है। यह भी बताया कि पढ़ती सबको हूं, लेकिन प्रभावित हुई धर्मवीर भारती, आशापूर्णा देवी और कृष्णा सोबती से। रतनारे नयन की चर्चा की। गई झूलन टूट पर बात की। बातों का क्रम चलता रहा। लेकिन मन नहीं भरा। लोगों ने सवाल भी पूछे। उन्होंने बताया कि उनका अंतिम उपन्यास मनमोहना रे धारावाहिक छप रहा है और इसके बाद अब उपन्यास नहीं लिखना है।
किसानों को खरीदना पड़ता। ये काम कम नहीं थे।

पत्थल के बनाये हुए मकानों में रहते हैं बनारसी

रांची से घरबन्धु का प्रकाशन 1872 से हो रहा है। 1916 के एक अंक में 'बनारस पर लेख छपा। इसमें लिखा गया, 'बनारस या काशी हिन्दू लोगों का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। यह शहर कलकत्ते से उत्तर पश्चिम कोने में दो सौ साढ़े दस कोस दूरी पर गंगा नदी से उत्तर पर स्थित है। यहां गंगा नदी करीब छह सौ गज चौड़ी है और इसके ऊपर रेल का पुल बनाया गया है। यह शहर नदी के किनारे दो कोस लम्बा और चौड़ाई में आधा कोस है। यहां के रास्ते सब ठेढ़े-कुबड़े हैं और गाड़ी की आमद रफत करना मुस्कील है। यहां के बासिन्दे लोग बहुत करके पत्थल के बनाये हुए मकानों में रहते हैं। कोई कोई मकान छह ताला ऊंचे हैं और कहीं-कहीं ऐसा भी देखा जाता है कि रास्ते के दो किनारे के आमने सामने मकानों पर आया जाया करने के लिए पुल बनाया गया है।Ó इस तरह की अनेक रोचक और सूचनापरक बातें इस पत्रिका में हैं, लेकिन इस पत्रिका का अध्ययन किसी ने नहीं किया।

1901 के अंकों में चीन की लड़ाई का जिक्र मिलता है। इसके साथ ही आस-पास की खबरें भी प्रकाशित होती थीं। जरूरी नहीं कि सभी खबरें चर्च की हों। 1911 में इसका एक विशेषांक आया था। कवर पर चार्ज पंचम एवं महारानी मेरी की पारंपरिक वेश में तस्वीर छपी थी। उन्हें कैसर-ए-हिंद कहा गया था। उनकी भारत यात्रा की खबर छपी थी। इसी तरह आज से सौ साल पहले 1918 के एक अंक में हो लोगों के बारे में सूचना दी। खबर का शीर्षक था-हो लोगों के बीच में एक नया धम्र्म। खबर दी गई थी-सिंहभूम जिला के कोलहन प्रगना में जिसमें चेबासा शहर है, खासकर हो लोग पाये जाते हैं। उनकी बोली वो धम्र्म वो दूसरे रीत दस्तूर मुन्डारी लोगों से बहुत मिलती हैं। ये लोग सींग बोंगा याने सूय्र्य को बड़ा देवता मानते हैं। खबर बड़ी है। उस समय पत्रिका की ङ्क्षहदी को भी देख सकते हैं। तब चाइबासा को चेबासा लिखा गया। कोल्हान को कोल्हन और परगना को प्रगना। इस तरह की अनेक रोचक बातें इसमें प्रकाशित होती थीं।

भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में रांची से प्रकाशित 'घरबन्धुÓ शायद पहली पत्रिका है, जो 1872 से अनवरत निकल रही है। 1872 में ही रांची में लिथो प्रेस लगाया गया। दो नवंबर, 1845 को ही यहां जर्मन मिशनरियों के कदम पड़े और कुछ सालों में यहां हिंदी और स्थानीय भाषा सीखकर पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर दिया।

इस पत्रिका का कहीं जिक्र नहीं होता है। चूंकि इसका मूल उद्देश्य धर्म प्रचार करना था, लेकिन इसे प्राचीन पन्ने पलटने से पता चलता है कि इसमें तार के समाचार भी प्रकाशित होते थे। एक दिसंबर, 1872 को इसका पहला अंक आया था। पहले यह पाक्षिक था। बाद में इसे मासिक कर दिया गया और अब यह मासिक ही निकल रही है। पहले इसका टैग लाइन था-चुटिया नागपुर की एवं जेलिकल मंडलियों के लिए और अब गोस्सनर चर्च की मासिक हिंदी पारिवारिक पत्रिका हो गया है। हालांकि गोस्सनर चर्च से करीब अस्सी हजार से ऊपर लोग जुड़े हैं, लेकिन चार-पांच हजार ही प्रकाशित होती है। यहां 1882 से अंक उपलब्ध हैं। इन अंकों में धर्म संबंधी प्रचार सामग्री हिंदी में प्रकाशित होती थी। इसके साथ तार के समाचार, स्थानीय समाचर प्रकाशित होते थे।

रोटरी क्लब में सुनाई थी बांग्लादेश के अभ्युदय की गाथा

रांची का फिरायालाल चौक अब अल्बर्ट एक्का चौक कहा जाता है। अल्बर्ट उन शहीदों में शुमार हैं, जिन्होंने अपना बलिदान देकर बांग्लादेश को पूर्वी पाकिस्तान से आजाद कराया। अल्बर्ट को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। बांग्लादेश की आजादी में अल्बर्ट अकेले नहीं थे, रांची और आस-पास के करीब 26 जवानों ने अपनी जान की आहुति दी थी।
बंगलादेश की आजादी में भारत की बड़ी भूमिका रही। भारती
 देश में भी एक उत्साह था। सैनिकों ने देश का मस्तक ऊंंचा किया था। सैनिकों के प्रति देश नतमस्तक था। रांची में शहीद परिवारों को सहयोग देने के लिए होड़ लग गई थी। 26 शहीद परिवारों को पांच-पांच हजार की मुआवजा राशि तो दी ही गई। जमीन, नौकरी आदि का आश्वासन भी सरकार की ओर से दिया गया। 21 जनवरी को रांची के बारी पार्क में एक समारोह का आयोजन किया गया। इसमें 7 लाख, पांच हजार रुपयों का वितरण किया गया। बिहार के राज्यपाल देवकांत बरुआ ने शहीद परिवार वालों को ये रुपये दिए। परमवीर चक्र विजेता अल्बर्ट एक्का के परिवार को राज्यपाल ने अपनी ओर से 25 हजार रुपये देने की घोषणा की। उनके गांव में पांच एकड़ भूमि भी दी गई, जिसका पर्चा 21 जनवरी को ही राज्यपाल ने अल्बर्ट एक्का के पिता को दिया। उस समय श्रीमति डेविस ने श्रीमति एक्का के लिए डेड़ सौ रुपये मासिक की नौकरी की व्यवस्था की। कहा कि जब वे चाहेंगी, उन्हें यह सुविधा मुहैय्या करा दी जाएगी। यही नहीं, अल्बर्ट एक्का की स्मृति में वेलफेयर सिनेमा के पास स्थित सरकारी भवन का नाम भी अल्बर्ट एक्का के नाम पर किए जाने की सहमति बनी।
   रांची के तत्कालीन डीसी ईश्वर चंद्र कुमार ने भी शहीद परिवार वालों के लिए कई योजनाओं की घोषणा की। कुमार ने बताया कि  '12 शहीदों के परिवार वालों को नौकरी देने की बात तय हो गई है। तीन लोगों ने शिक्षक बनने की चाहना की है। जिला परिषद की ओर से उन्हें शिक्षक का पद दिया जाएगा। 4 व्यक्तियों ने एचइसी में नौकरी करने की इच्छा व्यक्त की है। उन्हें टाउन प्रशासकीय विभाग में नौकरी दिलाने के लिए एचइसी के अधिकारियों से मैंने बात कर ली है। 3 व्यक्तियों को पुलिस की नौकरी में बहाल कर दिया जाएगा। घर बनाने के लिए जो खर्च पड़ेगा उसके लिए मैंने रांची नगर पालिका के अध्यक्ष शिव नारायण जायसवाल से बातें कर ली है। वे खर्च अपने पास से देने को प्रस्तुत हैं।Ó
शहीद परिवारों की सहायता के लिए कई संगठन भी आए और आर्थिक सहायता दी। कुमार ने इसकी भी जानकारी दी, '5.51 लाख रुपये नागरिकों एवं ग्रामीणों द्वारा, 51हजार विजय मेले से आई राशि, 11 हजार विधवा कल्याण हेतु श्रीमती अरोड़ा को प्रेषित, 11 हजार श्री बागची द्वारा, 27,800 रोमन कैथोलिक द्वारा, 3,500 एक अन्य चर्च द्वारा, 2,500 छात्राओं द्वारा एकत्र श्रीमती मेरी लकड़ा के मार्फत से प्राप्त, 12,200 बीआइटी मेसरा, पांच हजार विकास विद्यालय, 7,500 एसपी रांची द्वारा आइजी को प्रेषित, 20,000 एजी द्वारा सेंट?ल आफिस को प्रेषित।Ó इस सभा में यह भी जानकारी दी गई कि श्रीमती डेविस के अमेरीकी परिचित व्यक्ति को जब ज्ञात हुआ कि वे राष्टीय सुरक्षा कोष के लिए धन एकत्रित कर रही है तो भूतपूर्व अमेरिकी सिनेटर श्री डॉन हेवार्ड ने 40 डॉलर की सहायता श्रीमती डेविस के पास भेजी। इसके अतिरिक्त श्रीराम ग्रुप द्वारा 20 लाख रुपये तथा एसीसी ग्रुप द्वारा सात लाख रुपये का दान दिया गया।Ó डा. डेविस कांके मन:चिकित्सा केंद्र के निदेशक थे। बाद में वहीं पर उन्होंने अपना अलग अस्पताल खोल लिया था।
य सैनिकों की जांबाजी का ही यह नतीजा था कि पाकिस्तान की तानाशाह सैनिकों को समर्पण करना पड़ा। 14 दिन के घमासान युद्ध के बाद 1971 में 16 दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में पाकिस्तान के सपने जमींदोज हो गए। 7 जनवरी, 1972 को रांची के रोटरी हॉल में ले. जनरल जगदीश सिंह अरोड़ा ने पूरी कहानी बयां की। उनकी गाथा को तब 'आदिवासीÓ पत्रिका ने संपादित कर छापा था। एक अंश देखिए, 'भारतीय सेना का लौह शिकंजा कसने के साथ हमारे दिलेर एवं दक्ष हवाबाजों ने ढाका में ठीक निशाने पर पाकिस्तान गवर्नर डॉ. मल्लिक के सरकारी निवास-स्थान पर बम बरसाए। हमने ढाका एवं इस्लामाबाद में हुई बातचीत भी सुन लिया। जब तीसरी बार हमारे चतुर हवाबाजों ने बम की वर्षा की तो गवर्नर के होश फाख्ता हो गए तो उसकी सरकार ने इस्तीफा दे दिया और होटल इंटर कांटिनेेंटल में उसने शरण मांगी।Ó आगे बताया, 'हमारी पहली टुकड़ी ने ढाका छावनी के करीब पहुंचकर गोलाबारी शुरू की। उस समय उनके पास चार तोपें थीं, लेकिन पाकिस्तानियों का हौसला पस्त हो चुका था।Ó...  '15 दिसंबर को प्रात:काल पाकिस्तानी जनरल नियाजी ने संदेश भेजा कि वह युद्ध विराम चाहते हैं, हमने जवाब दिया कि युद्ध विराम नहीं। कल सवेरे 9 बजे तक आत्मसमर्पण करें।Ó हुआ भी यही। पाकिस्तान के पास अब कोई विकल्प नहीं था। रांची के जवानों की कहानियां यहीं तक नहीं है। पाकिस्तान फौज के दुर्जेय समझे जाने वाले गढ़ जैसोर को रांची स्थित 9 वीं पैदल डिवीजन ने मुक्त कराया था। बांग्लादेश आजाद हो गया तो अपने देश में भी जश्न का माहौल था। यह जश्न पत्र-पत्रिकाओं में झलका। नए साल का स्वागत आजादी के तराने के साथ शुरू हुआ। आदिवासी के उसी अंक में रोज टेटे ने खडिय़ा में अपनी भावनाएं व्यक्त कीं, जिसे हिंदी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया गया। रोज ने लिखा, जय मिली देश को, हार गया दुश्मन। जन्मा नया देश, नया सूर्य उदित हुआ, नए वर्ष में। रामकृष्ण प्रसाद 'उन्मनÓ ने उत्साहित होकर विजय गीत लिखा, 'लोकतंत्र की विजय हो गई, हार गई है तानाशाही, हम आगे बढ़ते जाते हैं, हर पग पर है विजय हमारी।Ó आचार्य शशिकर ने 'मुक्त कंठÓ से गाया, मुक्त कंठ, गाओ यह गान, धरा मुक्त है, मुक्त है आसमान। प्रो. रामचंद्र वर्मा 'विजय पर्वÓ का संदेश लेकर आए, 'वतन के सपूतों, खुशी अब मनाओ, विजय पर्व आया, विजय गीत गाओ। पराजित हुई शत्राु सेना समर में, फहरती हमारी ध्वजा अब गगन में। जहां में हमारा सुयश छा गया है, धवल कीर्ति को तुम अमर अब बनाओ।Ó
संजय कृष्ण

भारतेंदु बाबू हरिश्चन्द्र का भाषण

-गोपालराम गहमरी

                        जे सूरजते बढ़ि गये
                        गरजे सिंह समान
                        तिनकी आजु समाधि पर
                        मूतत सियरा खान
                                       -भारतेंदु
  मैं सन् 1879 ई में गहमर स्कूल से मिडिल वर्नाक्यूलर की परीक्षा पास करके चार वर्ष तक घर बैठा रहा। गाजीपुर जाकर अंगरेजी पढ़ने का खर्च मेरी माता गरीबी के कारण नहीं सम्हाल सकीं। मैं 13 वर्ष का था, इस कारण नार्मल स्कूल में भरती होने से वंचित हुआ। गहमर स्कूल में ही स्वयं हेडमास्टर से उच्च शिक्षा पाता हुआ लड़कों को भी पढ़ा रहा था। इस तरह चार वर्ष बीत गये। सन् 1883 में पटना नार्मल स्कूल में भरती हुआ। हिंदी वालों के लिए और आश्रय ही नहीं था।
   सन् 1884 में बलिया जिले का बंदोबस्त हिन्दी में हो रहा था। वहां के इंचार्ज मुंशी चेथरूलाल डिप्टी कलेक्टर थे और कलक्टर राबर्ट रोज साहब हिंदी के प्रेमी थे। कानूनगो धनपतलाल सुन्दर हिंदी लिखने वालों की खोज में पटना नार्मल स्कूल पहुंचे। वहां से चालीस छात्रों को बलिया लाये। मैं भी उन्हीं में पटने से बलिया आया। बलिया जिले में गड़वार में बंदोबस्त का दफ्तर था। हिंदी के सैकड़ांे सुलेखक उसमें काम करते थे। खसरा जमाबंदी सुबोध सुंदर देवनागरी अक्षरों में लिखने वाले मुहर्रिर सफाई कहलाते थे। सौ नम्बर खेतों का खसरा लिखने पर चार आना मिलता था, इस काम से बहुत से हिंदी के लेखक अपना उदर-भरण करते थे। मथुरा के मातादीन शुक्ल और जोरावर मिश्र उसमें सुयशभान सुलेखक थे। कलेक्टर साहब के हिंदी प्रेम का उन दिनों डंका बज गया था। मातादीन शुक्ल ने ‘देवाक्षरचरित’ नाटक लिखकर वहां स्टेज किया था।
   उसी में नदीवनी हिंदी कलक्टर साहब के द्वार पर पधारी थी और द्वारपाल के पूछने पर कहा था-
                 संस्कृत देवासुअन देवाक्षर मम नाम
                 बंगदेश आदिक रमत आइ गयों एहि ठाम
                 श्रवण सुन्यो यहि नगर को हाकिम परम उदार
                 सो पहुंचावहु तासु ढिग मनिहौं बड़ उपकार
   इस निवेदन पर द्वारपाल ने गरीबिनी हिंदी को कलक्टर साहब के सामने पहुंचा दिया। उन्होंने सम्मान से हिंदी का यर्थाथवाद और सद्गुण पर रखकर उसको स्थान दिया और हिंदी में बंदोबस्त का काम जारी हुआ। यही नाटक का दृश्य था।
   बिहार की कचहरियों में पंडित केशोराम भ, पंडित शालीग्राम त्रिपाठी ठाकुर रामदीन सिंह आदि सज्जनों के उद्योग से जो हिंदी प्रचलित हुई थी, जिसका स्थान कैथी ने अधिकृत कर लिया था। उसके पश्चात यू.पी. में ही पहले पहल हिंदी का सरकारी कागजों में यह प्रवेश पहला कदम था। नहीं तो उन दिनों हिंदी का नाम भी कोई नहीं लेता था। पाठशाला तो पंडितों की बैठक मंे थी जहां वर्षों सारस्वत कंठ करने वाले छात्रों की पढ़़ाई होती थी। जहां हम लोग पढ़ते थे वह मदरसा कहलाता था। पढ़ने की पंि या श्रेणी वहां कहां, दरजा और क्लास भी नहीं उसको सफ कहते थे। सफ में रामागति और क,ख,ग, पढ़ने वाले भरती होकर सफ 7 में जाते। उ$पर उठते-उठते सफ अव्वल मंे जाकर मिडिल वर्नाक्यूलर कहलाते थे। मास्टर या शिक्षक उन दिनों सुनने को नहीं मिलते थे-मुदर्रिस कहलाते थे। उन्हीं दिनों काशी के बाबू हरिश्चंद्र ने हिंदी को नवजीवन दान किया था। उन्हीं दिनों काशी के श्री रामशंकर व्यास महोदय के प्रस्ताव पर उन्हें भारतेंदु की सर्वमान्य उपाधि दी गयी थी। हम लोग उनकी कविता हरिश्चन्द्र चन्द्रिका और मैगजीन में कभी-कभी पढ़ने को पा जाते थे। काशी से सन् 1884 ई में ही बाबू रामकृष्ण वर्मा ने अपने जादू घर से भारत जीवन साप्ताहिक का जन्म दिया था। उसमें हर सप्ताह एक नया छप्पय श्री विजयानन्द त्रिपाठी का छपता रहा। अन्त को छप्पय बन्द करके त्रिपाठी जी ने यह दोहा ‘ भारतजीवन’ का मोटो बना कर दियाः-
              जयति ईश जाकी कृपा लेश ललित सर्वत्रा,
              ‘भारतजीवन’ हित लसत ‘भारतजीवन’ पत्रा।

  तबसे यही भारतजीवन का भाल तिलक अन्त तक रहा।
   श्री मातादीन शुक्ल रचित देवाक्षर रचित जब बलिया में अभिनीत हुआ, बहुत गणमान्य सज्जन दर्शकों में पधारे थे। नाटक में वहां बजाजों से रंगीन थान मंगाकर पर्दे बनाये गये थे। हिन्दी में पहले पहल वही नाटक वहां के हिन्दी प्रेमियों को देखने को मिला। वहां का उत्साह और सार्वजनिक भाषा स्नेह इतना उमड़ा कि श्री मातादीन शुक्ल के सुझाव और आग्रह पर मुंशी चेथरूलाल ने कलक्टर साहब को हिन्दी की ओर बहुत आकृष्ट किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र वहां आमंत्रित हुए। उनकी मंडली सब सामान से लैस वहां पहुंची। मैं उनदिनों बाबू राधा कृष्णदास से ही परिचित था। वह बच्चा बाबू कहलाते थे। उन्होंने दुःखिनीबाला नामक एक छोटा सा ग्रंथ लिखा था। मैं उन दिनों 18 वर्ष का था, हिन्दी लिखने की रुचि थी, सामर्थ्य कम। भारतेंदु की मंडली भरके दर्शन मुझे वहीं बलिया में हुए थे और भारतेंदु का दर्शन पाकर अपने तई कृतार्थ हुआ। बड़ी श्रद्धा भक्ति से वहां भारतेंदु के नाटक लोगों ने देखे। भारतेंदु ने स्वयं हरिश्चंद्र बनकर सत्य हरिश्चंद्र का नाटक स्टेज पर खेला था।
   उसके बाद भारत जननी और नील देवी नाटक भी खेला गया। भारत दुर्दशा का खेल हुआ। तीनों नाटकों में देशी विदेशी सज्जनों की आपार भीड़ थी। सत्य हरिश्चंद्र में जब डोम सरदार ने यों कहके हरिश्चंद्र को मोल लिया और अपना काम सौंपाः-
                   हम चौधरी डोम सरदार
                   अमल हमारा दोनों पार
                   सब समान पर हमारा राज
                   कफ़न मांगने का है काज
                   सो हम तुमको लेंगे मोल
                  देंगे मोहर गांठ से खोल

   साहित्य रसिक योग्य आलोचक देखें कि डोम के मुंह से निकलने वाले कैसे चुभते सरल शब्द हैं। आजकल के लेखकों के नाटकों में देखता हूं, ऐसे गंवार मुंह के पात्रों से वह संस्कृताहट के पंच से रहे शब्द निकलते हैं कि लोग अर्थ समझने के लिए कोश उलटने को बाध्य होते हैं।
   भारतेंदु जी जिस पात्रा के मुंह से जैसा शब्द चाहिए वैसा गुम्फित करके नाटकत्व की जो मर्यादा रखी है उसका अनुकरण करने वाले स्वाभाविकता दर्शाने वाले मर्म्मज्ञ उंगलियों पर गिनने योग्य सुलेखक भी हिन्दी में नहीं दीखते।
   यह चौधरी डोम सरदार के शब्द हरिश्चंद्र को उस समय मिले जब उन्होंने विश्वामित्रा के निर्मम उलाहने और तीखे विष से भरे वचन वाण से मूचर््िछत-प्राय होकर करुणार्द्र स्वर से कहा था- मुनिराज अपना शरीर बेचकर एक लाख मुहर दूंगा।
   विश्वामित्रा ने कहा- तूने अपना राज मुझे दान कर दिया, खजांची को पुकारने का तेरा अधिकार नहीं। तू शरीर बेचेगा कहां? सारा राज तो हमारा है। हरिश्चंद्र ने कहा- काशी शिव के त्रिशूल पर बसी है। उसी की भूमि में अपने तई बेचूंगा। वही डोम चौधरी सरदार ने उन्हें मोल लिया-
    कफन मांगने का काम सुचारू रूप से संपादित करते हुए एक दिन श्मशान में जब शैव्या अपने सर्पदष्ट पुत्रा रोहिताश्व का मृत शरीर लिए श्मशान में संस्कार करने आई और हरिश्चंद्र ने कफन का दान मांगा-
    शैव्या ने विलख कर कहा-
    मैं अपना आंचल फाड़ कर कुंवर का शव ढांका है। इसको आधा फाड़कर देने में तो उधार हो जायेगा नाथ? कैसे क्या करूं भगवन्!
    यही कहकर जो उसने आंसू हाथ से पोंछे तो सामने ही पसारे हुए हाथ की हथेली पर चक्रवर्ती राजा का चिन देख पहचान गई और कहने लगी-
    नाथ, यह तुम्हारा ही कुंवर रोहिताश्व है। अब कहां से मैं कफन दूं।
    आंसू रोक कर हरिश्चंद्र ने अपने तई सम्हालते हुए कहा-

    हमको अपना कर्ाव्य पालन करने दो देवी-
   उस समय कलेक्टर साहब की मेम ने अपने पति द्वारा कहलाया कि बाबू से बोलो- एक्ट आगे बढ़ावें। वहां मेमों के रुमाल भींग रहे थे। उनको कहां मालूूम था कि उसके आगे तो त्रिलोकीनाथ का आसन डोलेगा और अमिय वृष्टि नभ से होगी। नाटक का अंत होगा।
   भारतेंदु ने ओवर एक्ट उस समय किया। विलाप के मारे सब देशी विदेशी दर्शकों के अश्रु बेरोक प्रवाहित हो रहे थे। करुणा में सब विभोर थे कलक्टर साहब करुणा में अवाक् थे। स्टेज पर करुणा खड़ी थी। शैव्या रूपधारिणी बंग-महिला ने जो करुणा बरसाये, उससे सब विचलित हो गये थे ।
   भारतेंदु के श्मशान वर्णन के शब्द देखिए-
             सोई भुज जे प्रिय गर डारे
             भुज जिन रण विक्रम मारे 
             सोई सिर जहुं, निज बच टेका
            सोई दय जहुं भाव अनेका 
            तृण न बोझ हुं जिनत सम्हारे
            तिन पर काठ बोझ बहु डारे
            सिर पीड़ा जिनकी नहि हेरी
            करन कपाल क्रिया तिन केरी
            प्राणहुं से बढ़ि जाकहुं चाहै
            ता कहुं आजु सबै मिलि दाहैं।

   इस करुणा को लांघकर उस कफन मोचन का अवसर किसी से स नहीं हुआ था। उसके बाद ही तो आसन डोला, सब जी गये। करुणा बीत गयी, अमिय वृष्टि से नाटक का अंत हुआ। हेमंत की हाड़ कंपाने वाली भयंकर शीत में हम लोग बलिया से गड़वार पैदल रवाना हो गये।
    भारतेंदु जी अपनी मंडली सहित ससम्मान वहां से विदा होकर काशी लौट गये। सन् 1884 ई को अंतिम मास था। सुना काशी पहुंचने पर रुग्ण हो गये। छाती में उनके दर्द उठा। एक मित्रा से सुना कि भारतेंदु जी एकांत में योग साधन करते थे। नित्य के साधन में किसी समय कुछ भूल हो गई छाती में वेदना होने लगी। उस वेदना से ही उनका अंतिम काल आया।
   छह जनवरी सन् 1889 मंगलवार को काशी में उनका स्वर्गवास हो गया। हिन्दी का ाृंगार नस गया। भारतेंदु का अस्त हुआ। भारत जीवन सर सुधानिधि, भारतमित्रा मासिक भारतेंदु ब्राण हिन्दी प्रदीप आदि समस्त पत्रों में महीनों विषाद रहा। सब पत्रों ने काला कलेवर करके दुःख प्रकट किया।
    भारतेंदु ने एक स्थान पर लिखा है-
                   कहेंगे सबैही नयन नीर भरि-भरि
                   पाछे प्यारे हरिश्चंद्र की
                   कहानी रहि जायगी।

  अब वही रह गई है।
                                
                       .........
गोपाल राम गहमरी के संस्‍मरण पुस्‍तक से साभार।

भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी दिए जाने पर गांधी का वक्‍तव्‍य

                                                                                                                         नई दिल्ली
                                                                                                                       23 मार्च 1931
भगत सिंह और उनके साथी फांसी पाकर शहीद बन गए हैं। ऐसा लगता है मानो उनकी मृत्यु से हजारों लोगों की निजी हानि हुई है। इन नव युवक देशभक्तों की याद में प्रशंसा के जो शबद कहे जा सकते हैं, मैं उनके साथ हूं। तो भी देश के युवकों को उनके उदाहरण की नकल करने के विरुद्ध चेतावनी देता हूं। बलिदान करने की अपनी शक्ति, अपने परिश्रम और त्याग करने के अपने उत्साह का उपयोग हम उनकी तरह न करें। इस देश की मुक्ति खून करके प्राप्त नहीं की जानी चाहिए।
सरकार के बारे में मुझे ऐसे लगे बिना नहीं रहता कि उसने क्रांतिकारी पक्ष को अपने पक्ष में करने का सुनहरा अवसर गंवा दिया है। समझौते की दृष्टि में रखकर और कुछ नहीं तो फांसी की सजा को अनिश्चित काल तक अमल में न लाना उसका फर्ज था। सरकार ने अपने काम से समझौते को बड़ा धक्का पहुंचाया है और एक बार फिर लोकमत को ठुकराने और अपने अपरिमित पशुबल का प्रदर्शन करने की शक्ति को साबित किया है।
 पशुबल से काम लेने का यह आग्रह कदाचित अशुभ का सूचक है और यह बताता
है कि वह मुंह से तो शानदार और नेक इरादे जाहिर करती है, पर सत्ता नहीं छोडऩा चाहती। फिर भी प्रजा का कर्तव्य तो स्पष्ट है।
कांग्रेस को अपने निश्चित मार्ग से नहीं हटना चाहिए। मेरा मत तो यह है कि ज्यादा से ज्यादा उत्तेजना के कारण होने पर भी कांग्रेस समझौते को मान्य रखे और आशानुकूल परिणाम प्राप्त करने की शक्ति की परीक्षा होने दे।
 गुस्से में आकर हमें गलत मार्ग पर नहीं जाना चाहिए। सजा में कमी करना समझौते का भाग नहीं था, यह हमें समझ लेना चाहिए। हम सरकार पर गुंडाशाही का आरोप तो लगा सकते हैं, किंतु हम उस पर समझौते की शर्तों को भंग करने का आरोप नहीं लगा सकते। मेरा निश्चित मत है कि सरकार द्वारा की गई इस गंभीर भूल के परिणामस्वरूप स्वतंत्रा प्राप्त करने की हमारी शक्ति में वृद्धि हुई है और उसके लिए भगत सिंह और साथियों ने मृत्यु को भेंटा है।
थोड़ा भी क्रोधपूर्ण काम करके हम मौके को हाथ से न गंवा दें। सार्वजनिक हडताल होगी, यह तो निर्विवाद ही है। बिल्कुल शांत और गंभीरता के साथ जुलूस निकालने से बढ़कर और किसी दूसरे तरीके से हम मौत के मुंह में जाने वाले इन देशभक्तों का सम्मान कर भी नहीं सकते।



गांधी वांगमय से साभार

एक अलग आस्वाद की कहानियां ; महुआ माजी की कहानियां

   महुआ माजी ने कहीं कहा था कि ‘आज के दौर की लेखिकाएं स्त्राी विमर्श के नाम पर देह विमर्श कर रही हैं ये कथन सभी लेखिकाओं पर लागू नहीं होता। मेरे दोनों उपन्यास गंभीर विषयों पर हैं। ‘मैं बोरिशाइल्ला’ बांग्लादेश की मुक्तिगाथा पर केंद्रित है, जिसमें सांप्रदायिकता के असर की बात की गई है। दूसरा उपन्यास ‘मरंगगोड़ा नीलकंठ हुआ’ में यूरेनियम रेडिएशन के दुष्प्रभाव का चित्राण किया गया है। इस तरह के प्रसंग आए भी हैं तो वो जरूरत के हिसाब से रखे गए हैं और वो कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। बेवजह नहीं डाले गए हैं। वैसे भी अन्य लेखिकाओं ने जरूरत के हिसाब से उसे डाला है। केवल उसी के लिए कहानी का ताना-बाना नहीं बुना गया। ये कोई अछूता विषय तो है नहीं कि कहानी की जरूरत है, फिर भी बचकर चल रहे हैं। जहां तक उनकी ये बात कि आज के दौर की लेखिकाओं द्वारा किया जा रहा स्त्राी विमर्श पुरुष विरोधी है तो उसकी शुरुआत तो मैत्रोयी जी नहीं की है। सभी लेखिकाएं ऐसा नहीं करतीं। कहानी की मांग के अनुसार तथ्यों को रखा जाता है। आज उसे जो भी मानें।’ 
  महुआ माजी का यह विचार जाहिर है, किसी बहस का हिस्सा है, जिस पर वह अपना तर्क दे रही हैं। वह अपने दो गंभीर उपन्यासों की चर्चा कर रही हैं और बता रही हैं उन पर ‘ठप्पा’ नहीं लगाया जा सकता। बतौर महुआ, उनकी अब तक आठ-दस कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं। हालांकि अब तक उनका एक संग्रह आ जाना चाहिए, जो नहीं आया है। आ जाता तो उनके पाठकों को यह सुविधा जरूर होती कि एक ही जगह उनकी रचनाओं का स्वाद ले सकते। इनमें उनकी व्यस्तता भी हो सकती है। वे एक लेखिका के साथ-साथ आज राजनीति में भी सक्रिय हैं। पिछली बार रांची विधानसभा क्षेत्रा से चुनाव भी लड़ चुकी हैं और इस बार भी काफी परिश्रम कर रही हैं। तो भी, सक्रिय राजनीति की भागमभाग के बीच अपने लेखन को बचाए रखना कम बड़ी बात नहीं। फिर भी समय निकाल वे कुछ लिख ही लेती हैं। हम यहां उनकी दो कहानियां- वागर्थ के 2005 में प्रकाशित ‘रोल मॉडल’ और 2017 में लिखी ‘इलेशगुंड़ि’ की चर्चा कर सकते हैं। ये दो कहानियां इसलिए कि पहली कहानी सक्रिय राजनीति से पहले की है, जब वे सिर्फ ‘लेखिका’ हुआ करती थीं, दूसरी राजनीति में रहते हुए लिखीं। दोनों में कहानीपन है। कहन है। कथा है। दोनों के क्षेत्रा अलग हैं। बोली-बानी का भी दोनों में अलग स्वाद और आनंद है। इससे हिंदी कहानी का फलक विस्तृत होता है। गैरहिंदी समाज के बारे में भी जान पाते हैं, अन्यथा यहां तो बहुत ‘अकाल’ है।
चलिए, बात देह विमर्श से ही शुरू करते हैं। यह अपने हिंदी साहित्य की बड़ी विडंबना है कि हम स्त्राी की आजादी को उसकी देह तक ही सीमित कर देते हैं। स्त्राी जितनी उच्छृंखल होगी, वह उतनी ही आजाद-हम ऐसा ही मानने लगते हैं। जैसे उसकी आजादी बस इसी में है। उनके विचार, उनकी बौद्धिकता, उनकी प्रतिभा का कोई मोल-मतलब नहीं। स्त्राी विमर्श के नाम पर लंबे समय से यही चल रहा है और चलता रहेगा और इस तरह की लेखिकाएं इस तरह के प्रसंगों के लिए-इसी तरह के कमजोर तर्क पेश करती रहंेगी। जैसे फिल्म के निर्देशक देह राग परोसने के लिए यह तर्क करते हैं- यह कहानी की मांग थी। पर वे यह सच नहीं बोलते कि कहानी की मांग हो न हो, कमजोर कथानक की फिल्म चलाने के लिए यह जरूरी हो जाता है। इसलिए लेखिकाएं भी ‘कहानी की मांग’ के नाम पर इस तरह की छूट ले लेती हैं। पर, जिनकी कथा मजबूत होती है, वह भी इस तरह के तर्क का सहारा लेती हैं, तो समझ में आता है कि उनको खुद की कथा पर विश्वास नहीं है। यद्यपि यह छूट लेने में कोई बुराई नहीं, लेकिन ‘मांग’ के नाम पर यह सब कहने-लिखने-बताने की जरूरत नहीं। जहां तक उनके गंभीर उपन्यास मरंगगोड़ा की बात है-वहां भी अनावश्यक की इस तरह के प्रसंग हैं, जिनकी कोई जरूरत नहीं। मन हो तो इस तरह के प्रसंग को बहुत सलीके से पेश किया जा सकता है। पाठक समझ भी जाएगा कि लेखिका या लेखक क्या कहना चाहता है। बेडरूम में प्रवेश करने की जरूरत नहीं होती है। महुआ ने पहले तो अपना बचाव किया, फिर उन सभी लेखिकाओं का। यानी, वह भी उसी कतार में खड़ी हो जाती हैं। इस प्रसंग में प्रेमचंद की एक सच्ची पहली कहानी, जिसे उन्होंने माना कि-यह मेरी पहली रचना है-याद आती है। यह कहानी उन्होंने अपने मामूं पर ही लिखा था। उनका यह वर्णन देखिए-
 ‘आखिरकार एक बार उन्होंने वही किया, जो बिन ब्याहे लोग अकसर किया करते थे। एक चमारिन के नयन बाणों से घायल हो गये।...दूसरे दिन शाम को चम्पा-यानी चमारिन-मामंू साहब के घर आई, तो उन्होंने अन्दर का द्वार बंद कर दिया। महीनों के असमंजस और हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मांमू साहब ने अपने प्रेम को व्यावहारिक रूप देने का निश्चय किया था। चाहे कुछ हो जाय, कुल-मरजाद रहे या जाय, बाप दादा का नाम डूबे या उतराये! उधर चमारों का जत्था ताक में था ही। इधर किवाड़ बंद हुए, उधर खटखटाना शुरू किया। पहले तो मांमू साहब ने समझा, कोई आसामी मिलने आया होगा, किवाड़ बंद पाकर लौट जायगा, लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुना तो घबड़ाए।....’ प्रसंग काफी लंबा और रोचक है। यह कहानीकार पर निर्भर करता है कि वह कहना क्या चाहता है। जिनका अपने कथन और कहन पर भरोसा नहीं था, वह ऐसे तर्क और प्रसंग की वकालत करते हैं। वह चाहते हैं कि इस्मत आपा और मंटो की तरह ख्यात हो जाएं, लेकिन वह उस तरह का विजन नहीं ले आ पाते। 
  महुआ की कहानी ‘इलेशगुंड़ि’ में भी इस तरह के प्रसंग हैं, जिनकी कतई जरूरत नहीं। वह इसलिए कि वह खुद की कहती हैं-कहानी की मांग के अनुसार। यहां कहानी की कोई मांग नहीं। यह लेखिका का अपना मन है। वह रूपकुमारी की पीड़ा को दूसरी तरह भी व्यक्त सकती थीं। इसके लिए यह जरूरी नहीं था कि...‘‘बहुत कम लोगों को पता था कि रूपकुमारी का गर्भ उसके पति की इसी आसुरी प्रवृत्ति के कारण ही गिर गया था। रूपकुमारी के लाख मना करने के बावजूद वही पहले की तरह उठा-पटक... ऊपर-नीचे...।...प्रचंड उत्तेजना से कालीपॉदो का खून गर्म हो उठा। जब खुद को रोक पाना असंभव हो गया तब अचानक आकर पीछे से जकड़ लिया उसे। कुछ देर तक तो वह खुद को कालीपॉदो के सख्त आलिंगन से छुड़ाने की कोशिश करती रही पर उसके स्पर्श में कुछ ऐसा था कि धीरे-धीरे उसका प्रतिरोध शिथिल पड़ता चला गया। पति-सुख से वंचित उपवासी देह उसके नियंत्राण से बाहर होती चली गयी। महीनों का संयम किसी पुराने जर्जर कीले की तरह भरभराकर ढह गया। सांप की तरह लिपट गयी वह उस कामी पुरुष से... प्रश्रय पाकर कालीपॉदो का वहशीपन थोड़ा कम हुआ और बड़े इतमिनान से वह किसी जोंक की तरह उसकी गर्दन की पतली खाल को चूसने लगा। तबतक, जबतक कि वहां गहरा नीला निशान नहीं पड़ गया। उस दिन जितनी देर तक वे दोनों कदम्ब पेड़ के नीचे आलिंगनरत रहे... एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था रहे... हवा में धूलकण की जगह कदम्ब फूल के रेणु उड़ते रहे। फिर भी उनकी देह कीचड़ से ऐसे सन गयी कि घर जाने से पहले दोनों को साथ-साथ पद्म-पोखर में उतरना पड़ा।’’
  लेखिका की बेवजह सफाई के बरक्स ही इस प्रसंग को यहां रखा गया है। ‘इलेशगुंड़ि’ दरअसल, रूपकुमारी की कहानी है। ‘इलेशगुंड़ि’ यानी बारिश की महीन बूंदें। बांग्ला का यह शब्द है और इसकी अर्थध्वनियां पूरी कहानी में अंतरर्धारा की तरह मौजूद हैै। बारिश की महीन-महीन या छोटी-छोटी बूंदे। नदी की सतह पर जब यह बूंदे पड़ती हैं तो हिल्सा मछली गहरे जल से सतह पर आ जाती है। इस तरह रूपकुमारी का दर्द भी सतह पर आता है-वह दिखाई देने लगता है। कालीपॉदो एक प्रमुख पात्रा है। शादी-सुदा है। रूपकुमारी भी। लेकिन रूपकुमारी अपने पति के छल का शिकार बन जाती है। शादी कर मौज लूट वह गांव से भाग जाता है। पर, रूप उसके इस छल से असावधान ही रहती है और उसकी प्रतीक्षा करती रहती है, लेकिन वह आता नहीं। कालीपॉदो भी उसे खोजता रहा है। एक दिन सूचना देता है- वह तो शहर में किसी और स्त्राी के साथ है। इसके बाद गांव से वह शहर जाती है-उसके घर। वहां झगड़ा होता है और फिर वह अपने गांव चली आती है। काली भी इसी ताक में। अंततः उसे अपने घर में पनाह देता है और उसकी कीमत भी वसूलता है।  
 सब कुछ ठीक चल रहा होता कि गांव में बाढ़ का प्रकोप। सभी बेघर। क्या अमीर क्या गरीब। त्राण शिविर में पनाह की सबको जरूरत। पर इस त्राण शिविर में कालीपॉदो रूपकुमारी को पहचानने से ही इनकार कर देता है। शिविर के बचावकर्मी सबका नाम रजिस्टर में लिखते हैं। वह रूपकुमारी से भी पूछते हैं। रूप कुछ कहती है-लेकिन कालीपॉदो बोल उठता है-कुछ नहीं लगता। वह उससे अपने संबंध को इनकार कर देता है। रूपकुमारी जो समय की मारी दुखियारी, उसके घर सौत बनकर हर दुख सहते हुए रह रही होती है। लेकिन इस त्राण शिविर में रूपकुमारी पर पति की तरह अधिकार रखने वाला काली कह देता है-कुछ नहीं लगता। रूप की इस कथा-व्यथा को महुआ माजी ने बहुत संवेदनशीलता के साथ उभारा है। रूप की पीड़ा को यहां बस आप महसूस कर सकते हैं। बाढ़ से पराजित मानुस कितना स्वार्थी और पतित हो सकता है...‘‘क्या वाकई भरपेट भोजन-कपड़े के लिए ही उसने सोच-समझकर कालोपॉदो को फाँसा?- वह खुद ही से पूछती। यह उस़की पेट की क्षुधा थी या देह की ? या फिर मन की? क्यों प्रत्याख्यान नहीं कर पायी वह उसके प्रेम-निवेदन का... देह-आमंत्राण का...? ये कैसी पहेली है ठाकुर! ये मन की ग्रंथियां इतनी जटिल क्यों हैं? क्या एक पुरुड्ढ-मानुष के बिना जीना वाकई इतना मुष्किल था? वह सोचती। फिर सबकुछ भूलकर कालीपॉदो की गृहस्थी में मन रमाने की कोशिश करती। चूल्हा-चौका... बड़े-बुजुर्गों की सेवा... बच्चों पर लाड़ जताना... गाय-गोरू की देखभाल... रिष्तेदारों की तिमारदारी... क्या कुछ नहीं करती वह। सबका दिल जीतने का प्रयास करती। लेकिन हरेक के बर्ताव में उसके लिए हिकारत...सिर्फ हिकारत...। बड़ों की देखा-देखी मासूम बच्चे भी उसे दुत्कारना सीख गए थे। एक अछूत-सी ही हैसियत थी उस घर में उसकी।’’ बाबा तुलसी बहुत पहले लिख गए हैं-पराधीन सपनेहुं सुख नहीं। स्त्राी की यही दशा। सालों से। राजेंद्र यादव ने कहीं लिखा था-कमर के उ$पर स्त्राी देवी है, कमर के नीचे वैश्या। हमारा समाज स्त्राी को बस इसी नजर से देखता है-स्त्राी इसके सिवाय भी कुछ है-हम सोच नहीं पाते और विमर्श के नाम पर एक स्त्राी भी जब खुद स्त्राी को इसी नजरिए से पेश करती है-तो समझ में आता है-मामला लेखन का नहीं, प्रतिबद्धता का नहीं बाजार का है। बाजार हमारे चारों तरफ घुस चुका है। दिमाग में भी। वह बराबर चलता रहता है। 
  यह कहानी 2017 की है। स्थान बंगाल का कोई गांव हो सकता है। बंगाल में बहने वाली कोई नदी। कोई पद्मपोखर और उसके किनारे कदंब का विशाल गाछ। ये सब भी किसी पात्रा की तरह ही उपस्थित होते हैं। हवाएं भी यहां कुछ कहती-सुनती नजर आती हैं। कहानी सिर्फ मानुस जात की नहीं। कहानी में कदंब की भी वही भूमिका है, नदी की भी और ‘इलेशगुंड़ि’ की भी। जब कहानी बंगाल के किसी गांव की है तो जाहिर है, यहां ऐसे शब्द भी आपको मिलेंगे जिसे हम हिंदी में आढ़त कहते हैं यहां आड़ोत पाते हैं। उपमा का सौंदर्य भी कम नहीं- ‘तुझे देख, तेरा कष्ट देख मेरा मन हापुस-हुपुस करता है रे रूपकुमारी।’ हापुस-हापुस शब्द बांग्ला में प्रचलित हैं। इस कहानी में बांग्ला का प्रभाव काफी है। शब्दों पर तो है ही।
   महुआ की दूसरी कहानी है ‘रोल मॉडल’। यह वागर्थ के 2005 के सितंबर अंक में आई थी। इस कहानी में रांची का जिक्र नहीं है, उन मुहल्लों के भी नहीं, जो कहानी में आते हैं, लेकिन रांची से जो परिचित हैं, उन्हें पता चल जाएगा कि कहानी कहां घटित होती है। दरअसल, रांची वैसे तो शिक्षा के लिए जाना जाता है। यहां ईसाई मिशनरियों ने एक बड़ा काम इस क्षेत्रा में किया। प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक। फिर बीआइटी जैसे संस्थान हैं। 2000 में बिहार से अलग हुए झारखंड में 2018 तक तो कई यूनिवर्सिटियां खुल गई हैं। लेकिन 2005 तक भी महत्वपूर्ण कॉलेज तो थे ही। इसलिए, झारखंड से इतर दूसरे प्रदेशों से भी लड़कियां और लड़कें यहां पढ़ने के लिए आते हैं। राज्य के दूसरे शहरों से तो आते ही हैं। बाहर से आई छात्राओं के लिए रहने के लिए कमरा चाहिए। हर कॉलेज और संस्थानों में पर्याप्त छात्रावास तो रहते नहीं। फिर उन्हें या तो पेइंग गेस्ट होकर रहना पड़ता है या कमरा किराया लेकर। यहां भी फिर बनारस की तरह अपने घर के कमरे किराये पर उठाने लगे। एक-एक कमरे में चार-चार चौकियां लगा दी और फिर प्रति चौकी कमाई करने लगे। जिनके घरों में अतिरिक्त कमरे थे, उन्हें अपने कमरे उठाने में तो कोई दिक्कत नहीं थीं, जिनके कम थे, वह भी एक-दो कमरे में खुद को समेट लिया और एकाध कमरा किराये पर लगा दिया। जिनके पास जगह-जगह ही थी, उन्होंने लॉज की शक्ल दे दी। और, जिनके पास कुछ नहीं था, वे दूसरों को देख कूढ़ने लगे। तरह-तरह की बातें बनाने लगे। इस तरह मोहल्लों की अलग पहचान बनने लगी और जब गलियां लड़कियों से गुलजार होने लगी तो फिर मंडराते हुए भंवरे भी आने लगे। फिर तरह-तरह की चर्चा भी आने लगी। जो गलियां सुनसान रहा करती थीं, गुलजार रहने लगीं, शाम में सन्नाटा पसर जाने वाली गलियों में भी देर शाम तक खुसूर-फुसूर शुरू हो गया। जिन बुजुर्गों के पास कोई काम नहीं था, उन्हें भी काम मिल गया, वे गलियों की ओर ताका करते थे। और, इसी कहानी में एक मजेदार पात्रा हैं सनातन बाबू। इनके पास कोई कमरा नहीं रहता है, लेकिन जब लड़कियां आकर पूछती हैं-अंकल कमरा है तो वे मना नहीं करते। बल्कि पूरी जांच-पड़ताल में जुट जाते हैं-कितने लोग हो, खाना कहां खाओगी, बनाओगी या मंगाओगी-बनाओगी तो गैस पर या स्टोव पर वगैरह-वगैरह। सनातन बाबू की हर जिज्ञासा और सवाल का जवाब देते जब लड़कियां थक जाती हैं-तब कहती हैं-तो अंकल अब हमारा कमरा दिखा दीजिए। अब सनातन बाबू का जवाब सुनिए-कमरा! कमरा कहां है? सनातन बाबू आश्चर्य से कहते हैं-हमारे घर पर कोई कमरा वमरा खाली नहीं है। नीचे हम मियां-बीवी और मंझले भाई का परिवार रहता है। उ$पर हमारे बड़े भाई का परिवार। हमारे यहां खाली कमरा होता तो अब तक दे नहीं देता? यहां इतनी देर धूप में खड़ा करके रखता क्या?
   इस तरह-तरह एक-एक दरवाजा खटखटाते हुए लड़कियों को कमरा मिल ही जाता है। गांव, कस्बे या दूसरे शहरों से आई लड़कियां यहां काफी अपने को उन्मुक्त और आजाद महसूस करती हैं। यह आजादी कपड़ों से भी झलकती है और देर शाम लौटते वक्त भी। जब कोई न कोई भंवरा छोड़ जाता है। या फिर देर रात जब घर से किसी प्रोजेक्ट पूरा करने का बहाना बना निकलती हैं।
हमारा मध्यवर्गीय समाज अपने घर में झांकने के बजाय दूसरों के घरों में ताका-ताकी में खूब रस लेता है। यह हमारे भीतर कहीं कंुठा भी है। मध्यवर्गीय परिवार परंपरा की भी चिंता करता है, समाज की भी, धर्म की भी। संस्कार तो पीछा करते रहते हैं, अंत तक। अंतिम तक। कुछ लोगों को लड़कियों का पहनावा पसंद नहीं। कुछ चाहते हैं, मोहल्ले से इन्हें बाहर किया जाए। तो कुछ अतिरिक्त कमाई से चुप हैं। अर्थ भी जरूरी है और इसके लिए थोड़ा-बहुत समझौता किया जा सकता है। पितृसत्तात्मक समाज की अपनी चिंता भी कम नहीं। दुश्वारियां यहां भी हैं। पर, यही लड़कियां तब ‘रोल मॉडल’ उन लोगों के लिए बन जाती हैं, जो लगातार इन्हें शक और संदेह की निगाह से देखते आ रहे थे। इसी तरह एक लड़की की, जो मकान मालिक की निगाह में उच्छृंखल मानी जाती थी, एक दिन मिठाई का डब्बा लेकर घर मालिक को खिलाती हुई यह सुखद सूचना देती है-अंकल मेरा जॉब लग गया है। पचास हजार महीना। अंकल का मुंह खुला का खुला रह जाता है। अंकल की सारी चेतना धराशायी हो जाती है। सुबह जब लड़की अपना सामान समेटकर जाने लगती है तब रतजगे अभिभावक अपनी बेटी का हाथ पकड़कर उस लड़की के पास आ धमकते हैं-हम भी अपनी लड़की को दिल्ली में कोचिंग कराना चाहते हैं। तुम रखोगी अपने पास तो ‘लायक’ बन जाएगी। उस परिवार के लिए वह लड़की रोल मॉडल बन जाती है। यहां भी पैसा प्रमुख कारण है। पैसा है तो सारी एैब छिप जाती हैं। पूंजी का बड़ा महत्व है। चाणक्य ने भी अपनी नीति पुस्तक का नाम ‘अर्थशास्त्रा’ रखा था और मार्क्स भी पूंजी के इर्द-गिर्द झूलते नजर आते हैं। पंूजी का बड़ा खेल है जीवन में। जिनके पास पूंजी है, उनके लिए परंपरा, संस्कार, संस्कृति कोई मायने नहीं रखती, लेकिन उसके वे सबसे बड़े प्रवक्ता और संरक्षक बना दिए जाते हैं। बहरहाल, यह कहानी एक दकियानूसी परिवार के विचार परिवर्तन की कहानी है। परिवार भी समाज की एक इकाई है। परिवार से ही समाज बनता है। एक परिवार के विचार बदले तो समाज का विचार भी बदल सकता है। जो दिखता है, वह पूरा सच नहीं होता। देखने का एक नजरिया यह भी है हम अपनी आंखों से जो देखते हैं, उसमें हमारी सोच और संस्कार भी शामिल होते हैं। दो आंखें वर्तमान को देखते हुए भी हजारों सालों को भी देखती हैं। इसलिए, जो दिखे, उस पर सहसा और तुरत विश्वास कर लेने की जरूरत नहीं है। महुआ की इस कहानी ने तब काफी चर्चा बटोरी थी। एक नया विषय था। महुआ अपने लिए नया-नया विषय तलाशती हैं। समाजशास्त्राी हैं, इसलिए किसी चीज को पैनी निगाह से देखती हैं। जब वे महिला आयोग की अध्यक्ष थीं, तब उनके पास परिवार की तरह-तरह की सच्ची कहानियां आईं। वे कहानियां भी किसी शक्ल में कागजों पर उतरेंगी, ऐसा विश्वास है। एक लेखक के लिए अनुभव भी जरूरी है और खोजी प्रवृत्ति भी। लगन तो चाहिए ही। महुआ में तीनों है। ये कहानियां रोज घटित होती हैं, लेकिन महुआ ने जिस रोचक ढंग से इसे प्रस्तुत किया है, वह प्रशंसनीय है। ये कहानियां विमर्श से हटकर लिखी गई हैं। इसलिए इनकी आयु लंबी होगी। जो विमर्श, राजनीति और किसी खांचे में निबद्ध होकर लिखी जाती हैं-वे अल्पायु होने के लिए अभिशप्त होती हैं। आंदोलन से उपजी कहानियां आंदोलन के साथ ही समाप्त हो जाती हैं।
लमही से साभार
                                                                        

‘जाग चेत कुछ करौ उपाई’: समय से गुजरते हुए

 मिथिलेश्वरजी का आत्मकथात्मक उपन्यास ‘जाग चेत कुछ करौ उपाई’ अभी-अभी वाणी प्रकाशन से छपकर आया है। पुस्तक की पीठ पर इसके बारे में सूचना दी गई है-‘...आत्मकथात्मक उपन्यासों का यह तीसरा और अंतिम उपन्यास है। लेकिन अब तक की उनकी कृतियों में बेजोड़, बेमिसाल और यादगार कृति है।’ इसके पहले उनकी आत्मकथा की दोनों पुस्तकें ‘पानी बीच प्यासी’ 2010 और ‘कहां तक कहें युगों की बात’ 2011 आ चुकी हैं। सूचना के मुताबिक, यह तीसरा और अंतिम है। मिथिलेश्वर जी 65 को छू रहे हैं। लेकिन अवकाश ग्रहण करने से पहले ही उन्होंने अपनी आत्मकथा अपने प्रिय पाठकों को सौंप दी। अपने जीवन-संघर्ष को अपने पाठकों से साझा किया है तो इसके पीछे एक दृष्टि और उद्देश्य भी है कि समय रहते अपने पाठकों को अपनी राम कहानी बता दें। ऐसा न हो कि आगे चलकर उम्र आधिक्य के कारण स्मृति लोप का शिकार होना पड़े और ‘आत्मकथा’ मन में ही रह जाए। एक सजग, सचेत और संवेदनशील रचनाकार के नाते उन्होंने अपनी आपबीती सुनाई और यह आपबीती, उनके निजी जीवन या गांव-घर की चौहद्दी तक सिमटी नहीं है। एक पूरा काल खंड और उस काल खंड में समय का पूरा इतिवृत्त अपने पूरेपन में समाया हुआ है। जिन लोगों ने उनकी पहले दोनों आत्मकथा नहीं पढ़ी है, वह इस अंतिम आत्मकथात्मक उपन्यास को पढ़कर दोनांे की कमी को पूरा कर सकते हैं। क्योंकि इसमें उन्होंने अपने अब तक के संपूर्ण जीवन के कालखंड को समेट दिया है।
  साहित्य की सामाजिकता में विश्वास करने वाले मिथिलेश्वरजी पिछले 45-50 साल से रच रहे हैं। उनका पहला कहानी संग्रह 1976 में ‘बाबूजी’ नाम से आया था। तब से उनकी रचना प्रक्रिया अनवरत-सोद्देश्य जारी है। बेशक, इन 44-45 सालों में देश-समाज-गांव, परिवार-परंपरा और संस्कार बदले हैं। प्रेमचंद के गांव बदले हैं। रेणु के गांव ने नई शक्ल धारण की है। आरा-बैसाडीह का गांव भी बदलाव से अछूता नहीं रह सका है। वह गांव भी बदला। गांव की पगडंडियां बदलीं। गांव की संस्कृति और संस्कार बदले। तालाबों की शक्लोसूरत बदली। खपरैल और झोपड़ियां बदलीं। खूटें बदले। आम, जामुन, कटहल के स्वाद बदले। संवेदनाएं बदलीं। घर बदले। आंगन बदले। चूल्हों की तासीर बदली। ये बदलाव कई स्तरों पर हुए। इन बदलावों को देखने, समझने और महसूस करने के लिए मिथिलेश्वरजी की रचनाएं सबसे अधिक विश्वसनीय, प्रमाणिक और तरतीब नजर आती हैं। पांच दशकों का उनका रचनात्मक संसार देश के बदलाव की यात्रा भी है और उनकी यह आत्मकथा ‘उपसंहार’।  
   जब हम ‘जाग चेत कुछ करौ उपाई’ से गुजरते हैं तो उनकी दोनों आत्मकथाओं की यादें ताजा हो जाती हैं और एक बार फिर हम उनके साथ उनके बचपन के गांव से यात्रा आरंभ कर देते हैं। बैसाडीह की यादें, खेत-खलिहान, चोरी-सीनाजोरी और फिर पिता का आकस्मिक निधन। मजबूरियों और विवशताओं के बीच आरा में ठिकाना। मां का संबल। भरा-पूरा परिवार। भाई-बहन की शादी-ब्याह की चिंताएं। फिर नौकरी के लिए संघर्ष। हारी-बीमारी। फिर बेटियों की शादी...वगैरह-वगैरह। जब इन चाहे-अनचाहे उनके जीवन की घटनाओं से गुजरते हैं, उनके जीवट संघर्ष और मजबूत मनोबल को देखते हैं तो यह फिर असाधारण लेखक की साधारण कहानी भर नहीं रह जाती। यह कहानी हमें कई स्तरों पर जोड़ती है, एकाकार करती है और हमारे मर्म को छूती हुई हमें संवेदित करती है। उनका जीवन, समाज का जीवन लगने लगता है। ऐेसे चरित्रा हमें अपने आस-पास दिखाई देने लगते हैं। यह कहानी राम कहानी बन जाती है। घर-घर की कहानी बन जाती है। इस आत्मकथात्मक उपन्यास ही यही विशेषता है कि यह सिर्फ उन तक ही सीमित नहीं रह जाता। उन्होंने अपने तक इसे केंद्रित भी नहीं किया है। धुरी वही हैं लेकिन परिधि का विस्तार अनंत-असीम है। 
  अपनी इस तीसरी रचना में पूववर्ती दोनों आत्मकथाओं का उल्लेख किया है, ‘‘पानी बीच मीन प्यासी’ नामक आत्मकथा का अंत गर्दिशों, परेशानियों और लंबी बेरोजगारी के बाद विश्वविद्यालय शिक्षक की नौकरी पाने के सुखद एहसास से किया था। मेरे जीवन में उस आत्मकथा के कालखंड की सबसे बड़ी घटना जीविकोपार्जन से जुड़ना था, इसलिए सुखद अनुभूतियों ने उस आत्मकथा को सुखांत बना दिया...। लेकिन इसके विपरीत ‘कहां तक कहें युगों की बात’ के कालखंड में मेेरे जीवन की सबसे बड़ी दुघर्टना या सबसे बड़ा हादसा मां का निधन रहा। इस स्थिति में न चाहते हुए भी मां के निधन के पूरे प्रसंग से इस आत्मकथा को समाप्त करना पड़ा। अगर ऐसा नहीं करता तो मां के निधन की असह्य पीड़ा को कम नहीं कर पाता। मां से संबंधित लंबे और कारुणिक प्रसंग ने ही इस आत्मकथा को दुखांत बना दिया।’’
   मृत्यु एक शाश्वत सत्य है, लेकिन असमय किसी का निधन हमें झकझोर देता है। इस रचना में भी हम मृत्यु की छाया देख सकते हैं। मिथिलेश्वरजी के पिता भी 43-44 साल की उम्र में चल बसे थे। इस उपन्यास का अथ और इति भी मृत्यु से ही होता है। शुरुआत उनकी नौकरानी रामरती के आकस्मिक निधन से होती है और अंत भी उनके मित्रा चंद्रकांत के अचानक के दुनिया छोड़ अनंत में विलीन हो जाने से होता है। दूसरे अध्याय में अपने कालेज के साथी रामनाथ मिश्र के निधन के बहाने उनके पूरे जीवन, कर्म और संघर्ष को याद करते हैं। एक होनहार, प्रतिभाशाली व्यक्ति कैसे व्यवस्था की चक्की में पीसकर असमय मौत को गले लगा लेता है। रामनाथ मिश्र एक वित्तरहित कालेज में पढ़ाते हैं जो सरकारी होने की बाट जोहता है, लेकिन प्रबंधन तंत्रा के अपने गुणा-लाभ के कारण वह सरकारी नहीं हो पाता और मिश्रजी को इतनी कम तनख्वाह मिलती है कि वे अपने बीमार बच्चे का ठीक से इलाज भी नहीं करा सकते और एक रात यही सोचते-सोचते दम तोड़ देते हैं। एक सज्जन, कर्मठ और ईमानदार आदमी का  यही हश्र होता है। मिश्र की पूरी कहानी अत्यंत संवेदना के साथ कही गई है। एक प्रतिभा का ऐसे काल-कवलित हो जाना हमें झकझोर देता है। सरकार और संस्थाओं के खोखले चरित्रा और उनके जानलेवा तंत्रा के वे अकेले शिकार नहीं है। सिर्फ आंख उठाकर अपने आस-पास देखने की जरूरत है। शिक्षा का संस्थानीकरण आगे चलकर बाजारीकरण में बदल जाता है। अपने देश में सबसे बुरा हाल शिक्षा और शिक्षण संस्थानों का है। सरकार ने निक्कमेपन की चादर ओढ़ ली है और शिक्षा को बाजार के हवाले कर दिया।
   तीसरे अध्याय में तीसरे मित्रा प्रो डीके तिवारी की कहानी है जो उनसे उम्र में बड़े थे और एक राजनीतिक दल में सक्रिय थे। इस दल के पास वैज्ञानिक विचारधारा थी। जिंदाबाद-मुर्दाबाद जैसे सुघड़-जीवंत नारे थे, वर्गहीन-जातिहीन समाज का सपना था, लेकिन यह पार्टी भी, जब टिकट देने का समय आता, जाति देखने लगती या जनाधार। इस तरह एक समर्पित और ईमानदार पार्टी कार्यकर्ता भी चुनाव लड़ने से वंचित हो जाता। डीके तिवारी भी अवकाश ग्रहण करने के बाद बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सके और वर्गहीन समाज का सपना भी उनके साथ ही चला गया। कथनी-करनी का अंतर व्यक्ति को भी कठघरे में खड़ा करता है और दल या पार्टी को भी। अपने को प्र्रगतिशील कहने या कहलाने वाली पार्टियां भी अपवाद नहीं रह सकीं और इसका खामियाजा तिवारी जैसे कर्मठ और समाज बदलने के धुन के पक्के कार्यकर्ताओं को निराशा या अवसाद में जाकर चुकानी पड़ती है। भारतीय राजनीति का चरित्रा-चेहरा, चाल और छल-छद्म दिखाई देने लगता है। बदलाव की बात या तो घोषणा पत्रों में होती या भाषणों में। यह तब भी सच था आज भी सच है। यह सचमुच भरोसा और विश्वसनीयता का संकट काल है। संक्रमण का दौर है।
     इस संक्रमण के दौर से गुजरते हैं तो बहुत कुछ दिखाई देता है। एक तो यही कि हमारे विश्वविद्यालय मूर्खों के अड्डों में तब्दील होते जा रहे हैं, जहां रचनात्मकता के लिए कोई स्पेस नहीं बचा है। देश में विश्वविद्यालयों की संख्या कम नहीं। हिंदी विभाग तो होंगे ही। अब उन पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे यहां सबसे अधिक जातिवाद है। नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद आगे हो जाता है और प्रतिभा मंुह ताकती रह जाती है। गुरु-शिष्य परंपरा भी कायम है। यहां रचनाकार नहीं, डिग्रीधारी अध्यापक चाहिए। जिसने चोरी से ही सही, डाक्टरेट किया हो, डी लिट्ट किया है। प्रोन्नति तो उसे ही मिल सकती है। यह महत्वहीन है कि आप रचनाकार हैं, दर्जनों संग्रह छप गए हों, देश की प्रतिष्ठित पत्रा-पत्रिकाओं में छपते रहे हों। इसलिए, हमारे देश के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में आपकांे रचनाकार कम, तथाकथित विद्वान और डिग्रीधारी खूब मिलेंगे। शोध की तो पूछिए ही मत। पैसा दीजिए शोधग्रंथ लीजिए। विद्या के मंदिर में यह खेल खूब है। और तो और, हिंदी के प्राध्यापक भी यूजीसी से शोध के नाम पर लाखों वसूलते हैं और शोध के नाम पर कूड़ा-करकट एकत्रित करते हैं। हमारे विश्वविद्यालयों का यही हाल है। अपवाद हो सकते हैं। उन्हें आप उंगलियों पर गिन सकते हैं लेकिन विश्वविद्यालों में प्रतिभा का प्रवेश जैसे वर्जित है। मिथिलेश्वर जी ने इस तरह के अपने कई अनुभव साझा किए हैं, जो सिर्फ उनका अनुभव नहीं रह जाता। मिथिलेश्वर जी को जब नौकरी मिली तो उनके कहानियों के कई संग्रह आ चुके थे। सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार उनकी झोली में था। इस बिना पर उनकी नियुक्ति हुई, लेकिन ये अपवाद ही हैं। फिर भी उन्हें कम परेशानी नहीं झेलनी पड़ी। प्रोन्नति के लिए पीएच डी करनी पड़ी। हिंदी के कथित-तथाकथित सेवकों के ताने अलग से। लिखने के लिए समय कैसे निकाल लेते हैं, इसकी चिढ़ साथी प्राध्यापकों को। जैसे ये कोई बड़ा अपराध कर रहे हों। ऐसे दुर्गंध देते विश्वविद्यालयों में रचनात्मक काम छोड़ हर काम होते हैं, जिससे उसका कोई वास्ता नहीं होना चाहिए। अच्छा, आप किताब कैसे लिख लेते हैं? कैसे समय निकाल लेेते हैं? जैसे पढ़ना-लिखना पाप हो। हम ऐसे ही समाज में रह और जी रहे हैं। एक ठस और बेदम। प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक यही स्थिति है। विश्वविद्यालय ही क्यों, बदबू देते सरकारी अस्पताल भी हैं, जहां इस लेखक को कई तरह के अनुभव से गुजरना पड़ता है। मिथिलेश्वरजी ने ठीक ही लिखा है कि ‘ जीवन की यात्रा किसी सरल रेखा की तरह नहीं होती, हमारे व्यक्तिगत जीवन में उतार-चढ़ाव के साथ-साथ हमारे अनुभव हमें बहुत कुछ समझाते-बताते तथा जमीनी सच्चाइयों से अवगत कराते हैं।’ यहां भी कई तरह के अनुभव और जमीनी सच्चाइयों से वे हमें रूबरू कराते हैं।     
  मिथिलेश्वरजी की यह आत्मकथा दर असल उनका ‘आत्म’ भर नहीं है, यह समाज की, व्यवस्था की, घटती संवेदना और निर्लज्ज राजनीति की भी कथा-व्यथा है, जिसमें हम जी रहे हैं। संास ले रहे हैं। इस कथा को पढ़ते हुए हम उनके ‘आत्म’ और उसके विस्तार को देख सकते हैं। उनकी सादगी, ईमानदारी और लेखन के प्रति उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता और उत्तरदायित्व को समझ सकते हैं, जहां किसी प्रकार के नारे का शोर नहीं है। यहां कोई वाद नहीं, न उसका दावा है। बहुत सादगी के साथ हम उनकी रचना प्रक्रिया को महसूस करते हैं। कहानियों और उसके पात्रों की स्थिति, परिस्थिति और मनःस्थिति को समझ सकते हैं। चरित्रों के बहुलतावादी संसार में विचरण कर सकते हैं, जिसके पास कहने और सुनाने को बहुत कुछ है। यहां गंवई मन के शहरी अनुभव भी हैं। क्योंकि यहां रमेसर बाबा जैसे चरित्रा हैं, जिनके पास लोककथाओं का अनमोल खजाना है। तीव्र वैज्ञानिक विकास के तहत तेजी से बदलती और ग्लोबल होती दुनिया में हमारी लोक कथाएं और लोकगीत बहुत तेजी से गायब हो रही हैं। कहने-सुनने की परंपरा भी खत्म हो रही है। गांवों में लगने वाले चौपाल पर चलने वाली किस्से-कहानियों की जगह राजनीति ने ली है। तब, इन्हें बचाना और भी जरूरी हो जाता है। मिथिलेश्वरजी ने इसके लिए कई खतरे उठाए। जान जोखिम में डाल गांव-गांव जाकर ऐसी लोककथाओं का संकलित किया। रमेसर बाबा हों या पोखरियां गांव का नानी या फिर रसिक बिहारी ओझा निर्भीक से मुलाकात। और इस यात्रा में लहूलुहान एक बूढ़ी माता, जिसे चाहते हुए भी एक संवेनशील रचनाकार नहीं भूल पाता। मिथिलेश्वरजी लिखते हैं, ‘आज मैं आकलन करता हूं तो पाता हूं कि भोजपुरी लोककथाओं की खोज-यात्रा ने मुझे अनेक नई जानकारियां दीं, नए अनुभव से संपन्न बनाया तथा नई रचनात्मकता प्रदान की। अपने परंपरित सृजन से अलग का रचनात्मक सुख मैंने पाया। लेकिन इस सबके बावजूद इस यात्रा ने मुझे एक स्थायी पीड़ा भी दी है। अपने बेटे की मार से अपने दोनों लहूलुहान पैर गुमटी से लटकाकर बैठी उस बूढ़ी माता को मैं चाहते हुए भी भूल नहीं पाता हूं...।’ इस पुस्तक में इस तरह के कई अनमोल और संवेदित करने वाले अनुभव हैं। सातवें अध्याय में इसकी विस्तार से कहानी कही गई और इस कहानी में एक पात्रा और है जो छाया की तरह उनके साथ हैं, वह हैं कृष्ण कुमार। 277 पेज के इस रचनात्मक यात्रा में वे अदृश्य नहीं है। सदेह यहां हाजिर हैं। पत्नी रेणु और बेटियां तो है हीं।
 16-17 सालों से मिथिलेश्वर जी को जान, समझ और पढ़ रहा हूं। उनकी सादगी, सज्जनता और सरलता उनकी भाषा में भी दिखाई देती है। उनकी रचनाओं में भी एक ताजगी मिलती है और उनकी आत्मकथाएं भी किसी रचना की तरह ही आस्वाद देती हैं। इस आत्मकथा का पढ़ते हुए यह नहीं लगता है कि हम किसी रचनाकार को पढ़ रहे हैं, बल्कि एहसास यह तारी होता है कि हम अपने समाज को देख-पढ़-सुन रहे हैं। हमारी आंखों के सामने एक आईना है, जिसमें हम खुद दिखाई दे रहे हैं और हमारा समाज भी। कहीं कोई रंग-रोगन नहीं; जैसा है वैसा ही। लथपथ भी, लहूलुहान भी, लौकिक भी, अलौकिक भी, भौतिक भी, अभौतिक भी, सुंदर भी-असंुदर भी। गंध भी दुर्गंध भी। आप बीती के साथ जग बीती भी।
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लमही से साभार
पुस्तक: ‘जाग चेत कुछ करौ उपाई’ आत्मकथात्मक उपन्यास
लेखक: मिथिलेश्वर
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
कीमत: 295 पेपरबैक। पेज: 277

अकेले पड़ते किसान की त्रासद गाथा

  भारतीय किसानों की व्यथा-कथा किसी से छिपी नहीं है। पिछले तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार को किसानों से जोड़ कर देखा जा रहा है। किसान चाहे उत्तर के हों, पश्चिम के हों, दक्षिण के हों, विदर्भ के हों, बुंदेलखंड के हों, सबकी समस्याएं एक सी हैं। इनके लिए सरकारी योजनाओं, फसल बीमा, सिंचाई के साधन, डोभा निर्माण सबका एक ही उद्देश्य है- नौकरशाही की जेब भरना। इनका किसानों की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं। राजधानियों मंे बैठकर नौकरशाह योजनाएं बनाते हैं। बनाते समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनकी जेब में माल कितना जाएगा! बड़ी-बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की पड़ताल करेंगे तो पता चल जाएगा। अपने झारखंड में तो यही हाल है। 1974 से चल रही योजनाएं आज तक पूरी नहीं हुईं। जो योजनाएं उस समय 43 करोड़ की थीं, अब वह एक हजार करोड़ से उ$पर जा पहंुची हैं, लेकिन वह भी पूरी हो जाएं, इसमें कतई संदेह है। आज किसान कई तरह की समस्याओं से घिरा है। इसमें सिंचाई के लिए पानी तो है ही। बीज भी है। बीज कंपनियां इतनी प्रभावी हैं कि सरकार चाहे जिसकी हो, चलती उनकी की है। इसलिए, पिसता किसान की है।
 
  सरकारों का किसानों की चिंता करना कोई नहीं बात नहीं है। हर सरकार इसका दिखावा करती आ रही है। आजादी से पहले भी किसानों के कई आंदोलन हो चुके हैं। अवध का किसान आंदोलन सबको याद है। पंजाब से लेकर अब के झारखंड का इतिहास पलट सकते हैं। नक्सलबाड़ी आंदोलन दरअसल, किसान विद्रोह ही था। अलग-अलग समस्याओं को लेकर किसान हमेशा से आंदोलनरत रहे हैं। इन आंदोलनों पर लिखा भी जाता रहा है। पर, आज अन्नदाता कई तरह के मकड़जाल के साथ विकास का दंश भी झेल रहा है। जमीन सिकुड़ती जा रही है। आबादी बढ़ती जा रही है और नई पीढ़ी किसानी करना नहीं चाहती। गांव शहर की ओर भाग रहा है। शहरों में गांव समा रहा है। मिथिलेश्वरजी का नया उपन्यास ‘तेरा संगी कोई नहीं’ इसी अंतर्द्वंद्व को सामने रखता है। किसानों का दुख, दर्द, संताप और अपनी जमीन के प्रति चाह और लगाव अब चिंता का सबब बनता जा रहा है। जिनका गांव से वास्ता रहा है, वे इसे पढ़ते हुए महसूस कर सकते हैं कि मिथिलेश्वर जी बलहारी गांव की कथा नहीं, उनके अपने गांव की कथा सुना रहे हैं। मिथिलेश्वरजी की लिखने की जो शैली है, वह सुनाने की है। वह सुनाने में सिद्धहस्त हैं। इसलिए, पाठक पढ़ता नहीं, सुनता है और सुनने में उसे समय का ध्यान नहीं रहता, उसमें डूबता चला जाता है। इस डूब में कई बार उसकी आंखें नम होती हैं और उसके सामने गांव का पूरा दृश्य सामने उपस्थित हो जाता है। गांव के टोले, लहलहाते खेत, बाग-बगीचे, सिवान, खलिहान, गांव से बाहर का मंदिर, मंदिर का पुजारी, उसकी लुच्चई, गांव की राजनीति, गांवों की आपसी प्रतिद्वंदिता...। कोई ऐसा पक्ष नहीं, जिसका वर्णन न किया हो, खेत की मेड़ से उठता लोकगीत...खेतवा घूमे रे किसनवा...झूमे खेतवा में धनवा कभी उत्साह जगाता है, कभी दर्द बनकर उभरता है।   यह कथा बलहारी गांव की नहीं है। ‘बत्तीस बिगहवा’ के मालिक बलेसर की नहीं, उनके तीन पुत्रों की भी नहीं, यह उन सबकी कथा है, जो गांव में रहना चाहते हैं, पूर्वजों की जमीन बेचना नहीं, हर हाल में बचाना चाहते हैं, लेकिन नई पीढ़ी चाहती है कि अब गांव में रहा ही क्या, खेती-किसानी में पहले जैसी बात नहीं रही। अब महंगा हो गया है। समस्याएं बढ़ गई हैं। अब बनिहार भी नहीं मिलते। तो फिर क्यों खेती-किसानी की जाए? 
  पिछले 70 सालों में हमने विकास का ऐसा मॉडल विकसित कर लिया है कि नई पीढ़ी अब खेती करना नहीं चाहती। जबकि अन्न सबको चाहिए। अन्न के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता। फिर हमारी सरकारों ने ऐसा वातावरण क्यों नहीं बनाया कि शहर का विकास भी हो, हम आधुनिक भी बनें, लेकिन किसानी भी ऐसा हो, कि नई पीढ़ी इससे दूर न भागे, दिल से अपनाएं। पर हमारी सरकारों और नौकरशाहों ने नकलची की तरह विदेशी मॉडल तो अपना लिया, यह सोचे-विचारे बिना कि यह अपने देश के अनुकूल है भी या नहीं। हम जब कहते हैं, भारत गांवों का देश है, जय-जवान-जय किसान का नारा बुलंद करते हैं तो उसमें किसानों के लिए कितनी सम्मानजनक जगह बची है? आज हमारी सरकारें किसानों की चिंता नहीं करतीं, चिंता करने का दिखावा करती हैं। इसलिए, हमारी पीढ़ी किसानी से भाग रही है। आइए, थोड़ा पीछे चलें। एक दो नहीं, चार शताब्दी पहले। देखें कि मुगल काल का एक सितारा अकबर किसानों के बारे में क्या सोचता था?
   अकबर के काल में ‘अमलगुजार’ होता था। यह एक प्रकार का विशेेष अधिकारी था। इसकी पोजीशन आजकल के कलेक्टर या डीसी के समान थी। राष्ट की रीढ़ उस समय किसान ही माने जाते थे। यद्यपि सम्मान का स्थान सबके लिए था। पर, भोजन-वस्त्रा के दाता तो कृषक ही हैं। यह बात अकबर को पता थी। इसलिए उसने किसानों के साथ बड़ी रियायतें की थीं और खेती की उन्नति के लिए सब प्रकार की सुविधाएं दी थीं, इतना ही नहीं, अमलगुजारों को ऐसी हिदायतें दी थीं, जो विशेषकर किसानों के लाभ की थीं। अमलगुजार के कर्तव्य तो बहुत थे, पर प्रमुख था वह यह है- ‘अमलगुजार को चाहिए कि वह कृषक मित्रा हो। सत्य भाषण और परिश्रमशीलता उसके आचरण के नियम हों। वह अपने को सर्वरक्षक सम्राट का प्रतिनिधि माने...वह ऐसी कोशिश करे कि हर जिंस की उत्तम पैदा हो और उसकी वृद्धि के लिए दस्तूर के अनुसार जमा यानी ‘कर’ ली जाती हो, उसमें कुछ कमी कर दे। यदि कृषक अपनी प्रतिज्ञा से कम खेती करे और उसका कारण बाह्यरूप से सत्य दिखे, तो भी उसे स्वीकार करे। किसी गांव में बंजर भूमि न पड़ी रहे। यदि कृषक में अधिक कृषि करने का बल हो तो, तो दूसरे गांव की भूमि उसमें बढ़ा दे।’ इस तरह अकबर ने अपनी एक कृषि नीति तय रखी थी जो किसानों के पक्ष में थी। अकबर को लगता रहा कि किसान खुश रहेंगे तो देश भी खुशहाल रहेगा और देश पर राज करने वाला राजा भी। यह अकबर को बोध था, लेकिन आज के हमारे ‘सम्राटों’ या हुक्मरानों को नहीं।
 
  आज किसान जीवन-मरण से जूझ रहा है। वह आत्महत्या कर रहा है, लेकिन हमारे शासकों के दिल तनिक भी नहीं पसीज रहे। दक्षिण से किसान चलकर दिल्ली राजपथ पर अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करते रहे। महिलाएं नदी जल में आंदोलन करती रहीं, पर हुआ क्या? गांधी ने चंपारण के किसानों की लड़ाई लड़ी, वह सफल रहे। हम पिछले साल चंपारण का शताब्दी वर्ष मनाएं। अभी गांधी की 150 वीं जयंती मना रहे हैं लेकिन गांधी के विचार, उनके 26 रचनात्मक कार्यक्रम पर कोई चर्चा नहीं। हम गांधी जयंती के नाम पर ढकोसला कर रहे हैं। गांधीवादी भी इसमें पीछे नहीं। सचमुच, आज गांधी होते तो वे अपने आंदोलन में असफल ही रहते। उन्हें बोध होता कि ये हमारे अपने जो शासक हैं, वह तो अंग्रेजों से ज्यादा क्रूर, अमानवीय, हिंसक और रक्तपिपासु हैं। इनकी चमड़ी इतनी मोटी हो चुकी है कि कुछ फर्क नहीं पड़ता। आज और कल में यही अंतर है। इसलिए, जब किसान आत्महत्या करता है, तो ये तनिक भी संवेदित नहीं होते। 
  यही कारण है कि ‘तेरा संगी कोई नहीं’ का किसान बलेसर भी क्रूर व्यवस्था, अंधविकास और विडंबना का शिकार अपने ही लहलहाते खेत में मृत पाया जाता है। किसान के लिए यह एक त्रासद स्थिति है। बलेसर के तीन बेटे, तीनों पढ़-लिखकर नौकरी पा जाते हैं। वे पिता पर दबाव बनाते हैं कि वह अपना खेत बेच दें और शहर में आकर बस जाएं। गांव में कुछ रहा नहीं। खेती पहले जैसी रही नहीं। पर, बलेसर अपने पूर्वजों की धाती को बेचना नहीं, बचाकर रखना चाहते हैं। यह ऐसी थाती, जो उनके पूर्वजों को पालती आई थी, उन्हें भी पाल रही थी, लेकिन बेटों को लग चुकी शहरी हवा, जिसके पर्याप्त कारण और उनके अपने तर्क थे और उनके तर्कों के आगे बलेसर बेजार नजर आ रहे थे। इन सबके बीच कई तरह की घटनाएं घटती हैं। बलेसर की पत्नी लकवा की शिकार होकर शहर में बेटों के पास चली जाती हैं, बेटे इलाज कराते हैं और पिता को समझाते हैं कि गांव में कुछ रखा नहीं। पिता, शहर से गांव आते हैं, लहलहाती फसल को कटवाने का समय भी हो गया था। घर में वे अकेले रात गुजारते हैं, लेकिन आंखों में नींद आते ही तरह-तरह के भयावह सपने घेर लेते हैं-‘सारे जीवन की कमाई का सौदा इस तरह चुटकियों में कैसे कर दें? बचपन से जिस खेती-किसानी के बीच जीते आये, उसे वार्धक्य में पहुंचकर अपने जीवन से कैसे निकाल दें?...बलेसर देखते हैं कि उनका खेत बिक गया, उनकी जमीन पर किसी दूसरे का टैक्टर चल रहा है....वे चिल्लाते हैं...रोको...रोको टैक्टर...। बलेसर की आंख खुल जाती है। वे घबड़ा उठते हैं। वे सहज नहीं हो पाते। अतीत की यादें सामने भयावह रूप में आकर खड़ी हो जाती हैं...देर तक वे असहज और असामान्य बने रहे। फिर कुछ देर बाद उनकी पलकें पुनः बंद होनी शुरू हुईं...। वे चेतन से कब अचेतन में चले गए, कुछ पता ही नहीं चला...। बलेसर का शहर में मकान बन गया। बेटों ने अपने-अपने हिस्से में रहने लगे और बलेसर और उनकी पत्नी एक कमरे में सिमट गए, न कोई बोलने वाला, न हाल-चाल लेने वाला...गांव की उन्हें बेतरह याद आती है। गांव में उनके बत्तीस बिगहवा में राइस मिल लग गया है, वे पागलों की तरह चिल्लाने लगते हैं, हटाओ इस राइस मिल को, खाली करो मेरी जमीन! बलेसर की आंख खुल गई और वे चिल्लाते हुए हांफते जा रहे थे। वर्तमान का बोध हुआ तो उन्होंने चिल्लाना बंद कर दिया। लेकिन हांफना-कांपना जारी रहा। अतीत की घटनाएं तो थी हीं, लग रहा था कि भविष्य भी घट रहा है। वे बिस्तरे से उतरे, आंगन में आए लेकिन बेचैनी कम नहीं हो रही थी। सांस लेने में भी कठिनाई हो रही थी। अंदर का दरवाजा खोला, वे तेजी से बाहर की ओर निकल भागे....सुबह....। यह हमारे देश के किसान का त्रासद सच है। वह चाहता है, अपने पूर्वजों की खेती बचाकर रखे, लेकिन हमारी व्यवस्था किसान को यह मौका नहीं देना चाहती। यह उपन्यास इसी तरह के सवालों को निरंकुश शासन के सामने रखती है कि आखिर, उस विकास का क्या मतलब कि हमारे गांव बेचिरागी हो जाएं? गांव बचे रहेंगे तो देश भी बचा रहेगा, क्योंकि भारत शहरों का देश नहीं, गांवों का देश है। श्रीअरविंद ने इसे समझा था। सरकार को अपने विकास के मॉडल पर चिंतन करना चाहिए। किसान प्रकृति की धुरी है। धरती का स्वामी है। सृष्टि तभी चलती रहेगी, जब किसान खुशहाल होगा और ब्रह्मांड में हमारी धरती की इतनी खूबसूरत है कि वह हर तरह के जीवों को पाल सकती है, इसलिए, हम धरती को मां कहते हैं और किसान को अन्नदाता। ऐसे विकास की हमें कतई जरूरत नहीं, जिसने हमारी धरती को बर्बाद कर दिया है। आज हमारी नदियां प्रदूषित को चुकी हैं। हवाओं में जहर भर गया है। यह ऐसा विकास है, जो बर्बादी और बीमारी दे रहा है। फिर भी हम ठहकर नहीं सोच पा रहे हैं। आखिर क्यों? इस त्रासद समय में किसानों का कोई साथी क्यों नहीं? 
  मिथिलेश्वरजी एक सार्थक और रचनात्मक हस्तक्षेप करते हुए वे किसानों के साथ खड़े होते हैं। उपन्यास के नायक का ‘अंत’ दरअसल, अंत नहीं आरंभ का संकेत देता है, संभलों, नहीं तो देर हो जाएगी। इस ‘अंत’ से ही ‘आरंभ’ करो। जिनके पास खेत-बघार रहा हो, या है, वे माटी के मोल को समझ सकते हैं। मिट्टी के साथ उनका संबंध क्या होता है, यह वही जान सकते हैं। पर, हम चाहते हैं कि आज की पीढ़ी अपनी जड़ों से उखड़ जाए। तब, हम जैसा चाहे, वैसा उन्हें बना सकते हैं। जड़ से उखड़े हुए लोग ‘बाजार’ के लिए काफी मुफीद होते हैं। बेशक, किसान का अंत दुखद है, लेकिन कहीं से तो आरंभ करनी होगी। गांव-किसान के दुख-दर्द को उपन्यासकार बहुत नजदीक से देखते आ रहा है। उनकी तीन खंड में आत्मकथा में भी गांव-जवार और खेत-खलिहान के प्रमाणिक चित्रा उभरे हैं। इसलिए किसानी समस्या की एक-एक बारीकी यहां उभर पाई है। वैसे तो रेणु की ‘परती परिकथा’ से लेकर संजीव की ‘फांस’ तक किसानों की कथा कही जाती रही है, लेकिन यह कथा दूसरे धरातल पर खड़ी है और कुछ जरूरी समस्याओं की ओर इंगित करती है। यहां अपनी धरती को बचाने की जद्दोजहद है। बाकी तो आप खुद पढ़िए और गुनिए। 

अनहद  में यह समीक्षा छप चुकी है। साभार
 


कृति-तेरा संगी कोई नहीं
लेखक-मिथिलेश्वर
लोक भारती प्रकाशन इलाहाबाद

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दुर्गाबाटी में दी जाती थी बलि, होती तांत्रिक विधि से पूजा

रांची में दुर्गापूजा की शुरुआत रातू राज घराने से हुई। कहा जाता कै कि 1870 में दुर्गा पूजा यहां प्रारंभ हुई। रांची का यह प्रथम दुर्गोत्सव था। रातू किले के मुख्य द्वार से थोड़ा हटकर यहां मां का मंदिर है। किले के भीतर बलि स्थान भी है। यह राजा का उत्सव था। राजा का मंदिर था। लेकिन आम जनों ने इसके 13 साल बाद श्री श्री हरिसभा और दुर्गाबाटी संस्था स्थापित हुई और 1883 में दुर्गापूजा प्रारंभ हुई। इसका आरंभ जिला स्कूल के संस्कृत शिक्षक पंडित गंगा चरण बागीश ने कुछ धर्म परायण व्यक्तियों के साथ मिलकर इसका आयोजन किया। आज जो दुर्गाबाटी का भव्य रूप दिखता है, पहले खपरैल का था और यहीं पूजा शुरू हुई। इस बाटी की कुछ खास परंपरा रहीं। जब से पूजा प्रारंभ हुई, तब से वीरभूम के मूर्तिकार ही एकचाला प्रतिमा बनाते हैं। पं बंगाल के वीरभूम जिले देवेंद्र नाथ सूत्रधार इसके पहले मूर्तिकार थे। आज भी उनके वंशज की प्रतिमा गढ़ते हैं। एक दूसरी खास बात यह है कि यहां प्रतिमा का निर्माण भी पूरे-विधान से शुरू होकर पूर्ण होता है। जन्माष्टमी के दिन प्रतिमा का निर्माण कार्य प्रारंभ होता है। रांची के इतिहास पर रोशनी डालने वाले डॉ रामरंजन सेन बताते हैं कि पहले यहां महिलाओं का प्रवेश केवल नवमी की रात आठ से नौ बजे तक होता था। सिर्फ एक घंटे ही मां का दर्शन कर सकती थीं और उस समय मंदिर से पुरुष बाहर निकल जाते थे। बाद में इसका भी विरोध शुरू हुआ। आखिर मातृशक्ति मां का दर्शन केवल एक घंटे ही क्यों करेगी? इसके बाद 1921 में महिलाओं का अबाध प्रवेश का द्वार खुल गया। अब मां का शृंगार भी महिलाएं ही करती हैं। सिंदूरखेला के साथ मां को विदा करती हैं।

बलि प्रथा का था प्रचलन
बंगाली परंपरा के अनुसार पूरे विधि-विधान के साथ यहां पूजा होती थी। प्रारंभ में यहां तांत्रिक विधि से पूजा होती थी। तंत्र विधान के अनुसार ही यहां बलि प्रदान किया जाता था। बलिदान के बाद बकरे के खून का टीका लगाकर कुछ भक्त नृत्य भी करते थे। बाद में कुछ लोगों ने इस प्रथा का विरोध किया और बंद कर दिया गया। डॉ पूर्ण चंद्र मित्र इस प्रथा के कट्टर विरोधी रहे। डॉ रामरंजन सेन बताते हैं कि ऐसी प्रथा को बंद करवाने के लिए उन्होंने लोगों को अपना अभिमत लिखकर दिया और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित किया कि वे इसका विरोध करें। इसके बाद 1927 में इस कुप्रथा को बंद कर दिया गया। इसी साल मंदिर का निर्माण भी किया गया। इसके बाद यहां एक प्रेक्षागृह भी बना।
 लगता था पांच दिनों का मेला
पहले दुर्गाबाटी के सामने, आज जहां शास्त्री मार्केट है, मेला लगता था। तब खाली मैदान हुआ करता था। 1926 में मेले में आए दुकानदारों से शुल्क भी लिया जाने लगा। पांच दिनों तक मेला चलता था। तरह-तरह के झूले, बाजार। मेले में लोगों की भीड़ उमड़ती थी। छोटा शहर था, लेकिन दुर्गोत्सव में लोग आस-पास के गांवों से भी आते थे। आज भी लोग दूर-दराज के गांवों से लोग आते हैं। बाद में भीड़ बढ़ी तो मेला बंद कर दिया और आगे चलकर यहां एक स्थायी मार्केट बन गया। जो अब शास्त्री मार्केट के नाम से जाना जाता है।
विजया सम्मेलन का आयोजन
सन् 1926 से दुर्गा पूजा के बाद यहां विजया सम्मेलन का भी आयोजन होने लगा।  पूजा के बाद किसी एक तारीख संध्या आयोजन होता है। बंग समाज मिलता है। सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन होता है। यहां महालया से ही से पूजा का माहौल शुरू हो जाता है। महालया पर महिषासुरमर्दिनी नाटक का मंचन किया जाता है। काफी संख्या में लोग इस आयोजन को देखने आते हैं। दुर्गाबाटी का पूरा प्रेक्षागृह दर्शकों से भर जाता है।

रांची की कुछ और दुर्गा पूजा समितियां
एजी आफिस के कर्मचारियों ने 1912 में डोरंडा दुर्गा पूजा की शुरुआत की। इसके अगले साल 1913 में हिनू दुर्गापूजा कमेटी का गठन किया गया। 1936 में लालपुर, बर्धमान कंपाउंड में कमेटी का गठन कर पूजा शुरू की गई। आजादी के बाद 1954 में देशप्रिय क्लब का गठन कर यहां भी दुर्गा पूजा शुरू की गई। आज रांची में सौ से ऊपर दुर्गा पूजा समितियां हैं, जो लाखों खर्च कर पंडाल का निर्माण करती हैं। लोग दूर-दूर से पंडालों को देखने आते हैं। लेकिन दुर्गाबाटी का महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। यहां मां की विदाई भी कंधे पर दी जाती है। सभी श्रद्धालु मां को कंधे पर लेकर लाइन टैंक तालाब में विसर्जित करते हैं। मां की विदाई दशमी को ही होती है।

फादर कामिल बुल्के: कुछ यादें कुछ बातें

डा. दिनेश्वर प्रसाद
यूं तो फादर कामिल बुल्के के साथ मिलते रहने के अनेक अवसर आए, लेकिन इनमें से कुछ मेरे स्मृति पटल पर विशेष रूप से अंकित हो गए हैं। मुझे उनसे मिलाने तत्कालीन उडिय़ा विभागाध्यक्ष और मेरे बंधु कृष्णचरण साहु आए थे। मैंने वहां एक शुक्रवार का जो दृश्य देखा वह एक विद्वान के जीवन का न होकर एक परोपकारी मानव सेवी का था। बाद में पता चला कि हर शुक्रवार को वहां यही देखने को मिलता है। शहर और बाहर के अनेकानेक लोग अपनी-अपनी पारिवारिक समस्याएं लेकर आते हैं और उनसे समाधान चाहते हैं। कई समस्याएं तो नितांत गोपनीय होती थीं। यही नहीं रविवार उनके साथ मिलने का सबसे मुक्त दिवस होता था। दोपहर के कुछ देर बाद दो-ढाई बजे के आस-पास उनके परिचित-अपरिचित उनसे मिलने आते थे और फादर बड़ी-बड़ी प्लेटों में मक्खन और पाव रोटी फिर काफी के प्याले उनके जलपान के लिए लाते थे। फादर अक्सर काफी खुद बनाते थे। काफी की मात्रा एक व्यक्ति की काफी पूरे बॉल में उसे दी जाती थी और वह बहुत रुचिपूर्वक उनके साथ बातचीत करते हुए उसका आनंद उठाता था। फादर से बातचीत करने के अनेक विषय होते थे। समान्यत: पारिवारिक, वैदुषिक और सामाजिक। लेकिन किसी-किसी दिन जब अतिथि शीघ्र चले जाते और सांझ होने लगती तो फादर संस्मरणशील हो जाते। उन्हें अपना अतीत याद होने लगता और वे कभी बचपन के दिनों की घटनाएं, माता की परोपकारिता, पिता का चारित्रिक दृढ़ता, मित्र बंधुओं के साथ उल्लासपूर्ण बातचीत आदि के प्रसंग सुनाते। एक-दो अवसर ऐसे भी आए जब वह मां के स्नेह के प्रसंग सुनाते-सुनाते रोने लगते थे।
किंतु सप्ताह शुक्रवार से ही नहीं बनता। रविवार के दिन और कभी-कभी शुक्रवार को काफी लेने के बाद वे अपनी साइकिल से भ्रमण के लिए निकल पड़ते ओर तीस-चालीस किमी की यात्रा कर अंधेरा होते-होते मनरेसा हाउस लौट जाते। एक समय था जब रविवार को उन्हें प्रार्थनालय में प्रवचन देने को कहा जाता। बाहरी तौर पर जो व्यक्ति प्रसन्न भाव और अनौपचारिक दिखाई देता था, वह कितना परिश्रमी और अनुशासनप्रिय है, इसका बोध भी मुझे कई बार हुआ। कई दिन उन्होंने मुझे कहा, आज अमुक कार्य पूरा करना है। हमलोग फिर मिलेंगे। बाद के दिनों में जब मैंने उनके सहयोगी के रूप में कई प्रकार के कार्य किए तो मैंने पाया कि वह कितना कठोर परिश्रम करते हैं। उनका योरोपीय मानस सुनिश्चितता से घटकर कुछ भी नहीं स्वीकार करता। बाइबिल के अनुवाद के रूप में सुनिश्चित अभिव्यक्ति, कोश निर्माण की अवधि में सुनिश्चित पर्याय के संधान की उनकी साधना उन सब लोगों के लिए अनुकरणीय है, जो वैदुषिक क्षेत्र में टिकने योग्य कुछ करना चाहते हैं।
फादर कामिल बुल्के के साथ जुड़े हुए ढेर सारे प्रसंग हैं। उनके स्वभाव की उदारता और विनोदप्रियता के ढेर सारे अवसर ...मैं यह जानता हूं कि जो यह कर रहा हूं वह अतीत-व्यतीत हो चुका है। आज भी मेरी आंखों की राह पर कभी-कभी वे चलते हुए दिखाई देते हैं। मैं देख रहा हूं-फादर साइकिल लेकर नगर के अपने मित्रों के यहां चल पड़े हैं। कहां चल पड़े हैं-क्या राधाकृष्ण जी के यहां? क्या अपने किसी शिष्य से मिलने, जो अचानक बीमार पड़ गया है?
-डा. प्रसाद फादर कामिल बुल्के के निकट सहयोगी रहे हैं। फादर के निधन के बाद उनके कई अधूरे कामों को पूरा किया। अब दिवंगत।

मंचीय कविता कभी खत्म नहीं होगी

सवाल: अशोक जी, बहुत से लोगों की शिकायत है कि साहित्य हाशिए पर जा रहा है। इस दूसरा पहलू यह भी देखने को मिल रहा है कि अखबारों के पाठक बढ़ रहे हैं। ऐसे में इन दोनों स्थितियों के बीच कविता के लिए कहां जगह बनती है?
जवाब :  कविता के लिए जगह अपने आप बनती है। इसे बनाया नहीं जाता है। साहित्य की अन्य विधाओं की जगह संकीर्ण हो सकती है, कविता के लिए नहीं। इस बात का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि कविता हर युुग में समाज का भला करती रही है। इसलिए ऐसी कविता आनी चाहिए, जिसकी सोच व्यापक हो, जिसके पास भविष्य का नक्शा हो। समय पर ठोस प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जाए तो लोग कायर समझने लगते हैं। अब परिदृश्य बदल चुका है। कविता निम्न वर्ग के लोगों के प्रति सहानुभूति खो रही है। यह कविता के लिए चिंता की बात है।
-इधर, हिंदी साहित्य में भूमंडलीकरण की चर्चा खूब चल रही है। कई लेखक इसे देश के लिए अच्छा नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि इससे अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ेगा। आप इससे कहां तक सहमत हैं?
अशोक : भाषा किसी सड़े तालाब का जल नहीं है। यह निरंतर बहती रहती है। जब हिंदी में उर्दू के शब्द मिश्रित हो गए तब आप इसे हिंदी उर्दू तो नहीं कहते। अंग्रेजी भी हमारे व्यवहारिक जीवन में आ रही है। यह रोजगार दिला रही है। भाषा से नफरत करना छोड़ देना चाहिए। अंग्रेजी से नफरत करने के दिन लद गए।
सवाल:  एक चर्चा चलती है कि साहित्य में मंचीय कविता ने हिंदी का स्तर गिराया आपका क्या विचार है?
जवाब:  कविता मंचीय और वाचिक होती है। यह पठनीय कम होती है। आप पढ़कर उसके  प्रतिबिंब पर मुग्ध भले हो सक ते हैं। तन्मय होकर झूमना और  झूमाना जो कविता का मूल धर्म है, उससे अलग हो जाते हैं। यही कारण है कि जब नई कविता आंदोलन हुआ तो शताब्दियों से चले आ रहे उन सिद्धांतों को खत्म कर दिया गया, जो कविता को श्रवणीय और मंचीय बनाते थे। बीसवीं शताब्दी में यह कविता लोगों से अलग होने लगी। कविता में आधुनिकता के नाम पर शिल्प की बंदिशें खत्म हो गईं। एक नई राहों के अन्वेषी कहकर अज्ञेय ने जो पथ चला दिया उससे मंचीय कविता का बड़ा नुकसान हुआ। बच्चन, गुप्त, निराला, अंचल, जिन्होंने कविता में जनतत्व के प्राण रखे, वही धारा अब मंच की धारा बन गई है। इन लोगों ने उसमें हास्य को जोड़ा जो जनता को अच्छा लगा। आज की तारीख में वहां निर्मल सहज हास्य के स्थान पर चुहलबाजी आ गई है। हास्य करो तो निर्मल हास्य करो, व्यंग्य करो तो करुणा से उत्पन्न व्यंग्य करो। मंच की कविता कुछ और उम्मीद करती है। आप गाकर सुना रहे हैं तो श्रेष्ठ गायन होना चाहिए। छंद का बेहतर प्रयोग होना चाहिए।
सवाल: नई पीढ़ी छंदबद्ध कविता से भाग रही है। इसके क्या कारण हो सकते  हैं?
जवाब : इसका कारण है कि उन्हें वास्तविक शिक्षा नहीं मिली। उन्हें मात्रा, छंद एवं अन्य चीजों का ज्ञान नहीं है। मंचीय कविता कभी भी खत्म नहीं होगी। यह मैं भविष्यवाणी कर रहा हूं। कविता संक्षेप में वही बात कहती है जो आम जन सोचते हैं। सामाजिक सोच में कहीं खोट हो तो कवि आगाह करता है। वह परिवर्तन चाहता है, इसीलिए उसे समाज का दर्पण या दीपक  भी कहा जाता है। इन दिनों कविता के दर्पण चटके हुए हैं और दीपक बुझे हुए।

आज की कविता और मंच की कविता के बारे में क्या कहना है?
चक्रधर : आज भी कविता लिखी जा रही है। ब्लाग, फेसबुक आदि पर भी कविताएं लिखी जा रही हैं। पत्र-पत्रिकाओं में भी कविताएं लिखी जा रही हैं। बदलते समय में कविता भी बदली है और उसकी भूमिका भी। मंच पर कविताएं कम, लतीफे ज्यादा सुनाए जा रहे हैं। पहले लतीफा संचालक सुनाया करता था। अब कवि सुनाने लगे हैं। इससे गंभीर व व्यंग्यपरक कविताओं के लिए मंच पर जगह कम हुई है।
सवाल: कौन सी किताबें आने वाली हैं?
चक्रधर : नारी के सवाल-अनाड़ी के जवाब आने वाला है। कपिल सिब्बल की कविताओं का हिंदी में अनुवाद पेंग्विन से आ रहा है। इसके अलावे भी एक और संग्रह जल्द ही पाठकों को मिलेगा।
कवि अशोक चक्रधर से संजय कृष्ण की एक पुरानी बातचीत

16 वीं शताब्दी का नवरतन गढ़ किला

 रांची से दक्षिण-पश्चिम में 40 मील दूर डोयसा नगर अब एक गांव की शक्ल ले चुका है। गुमला जिले के सिसई थाने का यह गांव कभी नागवंशियों की राजधानी थी। पर, आज उपेक्षा का दंश झेलते-झेलते खंडहर में तब्दील हो चुका है। यह सिर्फ नवरतन गढ़ किले की मार्मिक कहानी नहीं है। राज्य में फैले अनेक किले अपनी इस दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं। पलामू के चेरो राजाओं का किला हो या फिर कोई ऐतिहासिक मंदिर। राज्य न इनके रख-रखाव को लेकर गंभीर रहा है न इन स्थलों को पर्यटन स्थल विकसित करने को ले गंभीर। यह अलग बात है कि सैकड़ों सालों से ये प्रकृति के थपेड़ों को सहते आज भी अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
नवरतन गढ़ का किला भी इनमें से एक है। करीब एक सौ एकड़ में फैला यह किला नागवंशियों द्वारा मुगल स्थापत्य का पहला राजमहल माना जाता है। अपने अनूठे मौलिक सौंदर्य व स्थापत्य कला के कारण खास पहचान बनाने वाले इस राजमहल का निर्माण 16 वीं शताब्दी में नागवंशी राजा दुर्जन शाल ने कराया था। दुर्जन शाल ग्वालियर के किले में 12 साल तक बंद था। बंदी का कारण लगान नहीं देना था। इब्राहिम खान 1615 में बंदी बनाया था। बाद में हीरे का पारखी होने के कारण तत्कालीन इब्राहिम खान ने दुर्जन को 1627 में आजाद कर दिया। तब नागवंशी राजा की राजधानी खुखरा में थी। इब्राहिम खान ने दुर्जन के साथ एक ऐसे व्यक्ति को भी लगा दिया, जो आर्किटेक था। इसके पहले नागवंशी राजा अपनी प्रजा के साथ घुल-मिलकर रहते थे। प्रजा से थोड़ा बड़ा इनका आवास होता था। महलों की कल्पना झारखंड में नहीं थी। दुर्जन शाल को उस आर्टिटेक ने ही मुगल सम्राटों के महलों के जैसे एक महल निर्माण का सुझाव दिया। दुर्जन ग्वालियर में महलों की शानोशौकत देख चुके थे। सो, वह मान गए। महल निर्माण के लिए उन्होंने एक नए स्थान का चयन किया। डोयसा नामक गांव में किले की नींव रखी गई। इस तरह वहां नवरतन गढ़ नामक किले का निर्माण किया गया। सौ एकड़ से ऊपर फैले इस किले को झारखंड का हंपी कहा जाता है।
बदलती रही है राजधानी
नागवंशियों की राजधानी हमेशा बदलती रही है। नागवंशी देश का एकमात्र ऐसा राजवंश है, जिसकी पीढिय़ां आज भी जीवित हैं। इनका इतिहास प्रथम शताब्दी से शुरू होता है। इनके पहले राजा थे फणिमुकुट राय। चौथे राजा मदन राय तक राजधानी सुतियांबे में रही, किंतु पांचवें राजा प्रताप राय ने अपनी राजधानी सन् 307 में चुटिया ले गए। 29 वें राजा भीमकर्ण ने 1079 में खुखरा को राजधानी बनाया। 45 वें राजा दुर्जनशाल ने अपनी राजधानी डोयसागढ़ में बनाई। 1514 में यहां महाराज देवशाह, जो 48 वें राजा थे, ने एक गढ़ का निर्माण कराया, जिसे नवरतन गढ़ कहा गया। इसका निर्माण 1585 में हुआ। पुन: नवरतन गढ़ को छोड़कर 51 वें राजा यदुनाथ शाह को 1707 में पालकोट आना पड़ा। रातू उनकी अंतिम राजधानी है। यह गढ़ पांच मंजिला है। और प्रत्येक मंजिल पर नौ कमरे हैं। गढ़ के चारों ओर मंदिर थे। एक मंदिर में सुरंग थी जो गढ़ तक जाती थी। राज्य म्यूजियम के अध्यक्ष डा. सरफुद्दीन कहते हैं कि पांच मंजिल इस किले का एक मंजिल अंदर धंस गया है। इसलिए ऊपर चार मंजिल की दिखाई पड़ता है। किले के चारो ओर सुरक्षाकर्मियों के कोटर बने हुए हैं। रानी के रहने के लिए अलग किला है। उनके नहाने के लिए तालाब भी है। किले से तालाब तक एक सुरंग भी है। वे कहते हैं, इस किले को वल्र्ड हेरिटेज में शामिल करने के लिए प्रयास किया जा रहा है। वहीं रांची विवि के मानवविज्ञानी डा. बीएन सहाय गांव में इस किले को देख अचंभित हैं। कहते हैं, इसकी देखभाल ही नहीं, इसका पुनर्निर्माण किया जाना चाहिए। यह राज्य ही नहीं, देश की धरोहर है। चूना-सुर्खी और लाहौरी ईंटों से बना यह किला मुगल काल के स्थापत्य को भी दर्शाता है। 

सच से रूबरू कराती 'कैसा सचÓ

नारी मुक्ति का सवाल पिछले दो दशकों से साहित्य के केंद्र में है। स्त्री की अस्मिता और अस्तित्व को लेकर संघर्ष बहुत पुराना है। स्त्री की पराधीनता की बातें बहुत पहले से होती आई हैं। पहले जो दबी-दबी सी आवाज सुनाई देती थीं, उसने अब मुखरता हासिल कर ली है। कभी-कभी स्त्री मुक्ति की बातों के पीछे देह मुक्ति का सवाल छिपा रहता है। देह मुक्ति ही नारी मुक्ति का पर्याय भी बन जाता है। तमाम शोर-शराबे के बावजूद इस विज्ञापनी दुनियां में नारी मुक्ति के नाम पर वह और जकड़ती जा रही है। कुछ नारीवादी लेखिकाएं नारी मुक्ति के नाम पर शोर ज्यादा मचाती हैं तो कुछ अपने को स्थापित करने के लिए काफी अपने को खोलकर और खुलकर लिखने में विश्वास करती हैं। पर, आशा प्रभात का पहला कहानी संग्रह इस तरह के आग्रहों (दुराग्रहों) से सर्वथा मुक्त है। यहां नारी मुक्ति के सवाल तीखे ढंग से उठाए गए हैं, लेकिन कबीर की भाषा में नहीं, तुलसी की भाषा में। पढ़ते समय दिखाई तो चिंगारी की तरह पड़ता है पर मन के भीतर शोले का एहसास पैदा करता है। कुल नौ कहानियों के इस संग्रह में आखिरकार नारी ही केंद्र में है। उसके सपने और उसकी आकांक्षा है। मुक्ति की छटपटाहट है तो दहलीज के दलदल से निकल अपना रास्ता तलाशने का सुकून भी। बाढ़ की विभिषिका में भी स्त्री का संघर्ष बहुत सादगी और संजीदगी से एक सर्वथा नए दृष्टिकोण के साथ उभरता है।  
संग्रह की पहली कहानी 'एक्वैरियमÓ हमारे समाज की पतनशीलता पर टिप्पणी करती है, जहां पुरुष के लिए स्त्री महज देह होती है। लेखिका की मान्यता है कि 'महान से महान पुरुष पहले मात्र एक पुरुष होता है बाकी सब भ्रम?Ó आधुनिक समाज की आधुनिकता में पुरुष वहीं खड़ा हैं, जहां हजारों साल पहले था। उसके लिए रिश्ते बेमानी हो जाते हैं। कहानी की नायिका श्वेता अपने पिता के दोस्त के यहां छुट्टियां मनाने गई है, लेकिन एक दिन '...बिस्तर पर वे थे, पापा के विश्वास...मेरी आस्था और उनकी इमेज की धज्जियां उड़ रही थीं। लगा, इस पल वे मात्र पुरुष थे और उनके लिए मैं एक स्त्री...। देवदूत के चेहरे पर शैतान का चेहरा उग आया था।Ó
'पेट प्रलयÓ बागमती नदी के बाढ़ की विभीषिका के साथ हमारे विकास की अवधारणा पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। कहानी, रेणु के रिपोर्ताज कुत्ते की आवाज की याद दिलाती है। बिहार के कई इलाके बाढ़ के विनाश से हलकान होते रहे हैं। बागमती अपने साथ प्रलय लेकर आती है। एक ओर बाढ़ का भीषण बहाव तो दूसरी ओर भूख से आकुल पेट। भैरोकाका भूख को बर्दाश्त नहीं कर पाते और भरी जवानी में अपने बच्चों को छोड़ चले जाते हैं। किस्मत ऐसी कि उन्हें उस बाढ़ में उन्हीं की धोती में बांधकर प्रवाहित कर दिया जाता है। कफन, लकड़ी और चिता भी नसीब नहीं। अत्यंत कारुणिक दृश्य। निहारती हुई पत्नी की पथराई आंखें...बहुत कुछ कह जाती हैं।
'इसे भ्रम ही रहने दोÓ कहानी एक ही समय के दो चेहरे को रेखांकित करती है। दो रिक्शा दो चरित्र। एक का वसूल सही भाड़ा लेने में तो दूसरे का विश्वास अधिक से अधिक भाड़ा वसूल करने में। ऐसे चरित्र हम अपने आस-पास फैले समाज में देख सकते हैं। ऐसे लोगों पर प्राय: कहानियां नहीं लिखी जातीं। लेखिका ने इस उपेक्षित प्राणी पर कलम चलाकर अपनी संवेदना का विस्तार किया है।
'सलाखों के पीछेÓ में हम देखते हैं कि परिवर्तन और क्रांति बहुत आहिस्ता-आहिस्ता भी होते हंै। बिना किसी शोर-शराबे के। बदलाव की यह आहट सुनाई नहीं देती, लेकिन इसका चुप्पा शोर बहुत परेशान करता है। बारह वर्ष के दांपत्य, घर-गृहस्थी, समाज और संस्कारों में सिमटे, सांस लेते, व्यस्तताओं को चक्के की तरह पैरों में बांध घूमती रहने वाली पति की बेवफाई बर्दाश्त नहीं कर पाती। पति डा. महेश बत्रा का जब कामुकता और अपने पंद्रह साल छोटी लड़की के दैहिक आकर्षण में फंसते हैं तो वह बर्दाश्त कर लेती है। लेकिन जब वह मातृत्व पर भी डाका डालती है तो अचला बर्दाश्त नहीं कर पाती। तीन-तीन बच्चों की मां अचला अपने पति को उसी की भाषा में जवाब देती है। जब वह अपने पति से कहती है, बधाई हो, मैं मां बनने वाली हूं। डा. बत्रा का कर्ज वह ब्याज समेत लौटा देती है। सचमुच 'क्या इतना अपरिपक्व होता है मनुष्य, जो हमेशा अपने से छोटी, अपरिपक्व, कच्ची उम्र की औरत की कामना करता है।Ó प्रश्न फिर वही। क्या मनुष्य के लिए स्त्री मात्र देह है?  
हालांकि इन कहानियों में स्त्री मात्र देह नहीं है। उसका हर रूप यहां दर्ज है। 'हौसलाÓ कहानी भले ही एक बेरोजगार युवक की कहानी है, जो बाद में एक मंदिर के सामने पूजा-मिष्ठान की दुकान खोल लेता है। पर, कहानी में एक स्त्री की संवेदना को बखूबी उभारा गया है। प्रतियोगिता की तैयारी के समय एक परिवार से उसकी निकटता बढ़ती है। उसे नौकरी नहीं मिलती तो वह एक तीर्थ स्थल पर जाकर दुकान खोल लेता है। अचानक वह दंपति दर्शन करने जाता है तो उसकी मुलाकात वहां होती है। '...नाहक परेशान रहे आप लोग। मैं इतना बुजदिल हीं कि संघर्षों से हार कर खुदकुशी कर लेता।Ó
अत्यंत रोचक व नाटकीय कहानी है 'वह दिन।Ó छोटी है पर मजेदार। पटना पुस्तक मेले से शाम को लौटते हुए एक महिला को नाहक एक आदमी मिल जाता है। कि मैं सचिवालय में काम करता हूं, कि मैं आपको जानता हूं, कि आइए चाय पी लीजिए न कि मुझे भी उधर ही चलना है? कि रिक्शे पर साथ बैठ जाता है। किसी महिला को कोई अपरिचित आदमी मिल जाए तो क्या कर सकती है? नायिका उस दिन को वह नहीं भूल पाती। 
'आदम और हव्वाÓ। सिद्धार्थ और शिप्रा। प्रेम की चाहत। पर, सिद्धार्थ, जीनियस नहीं खोखला साबित होता है। प्रेम विश्वास की मांग करता है। सिद्धार्थ के पास यही नहीं था। इस कहानी में आज का सच व्यंजित है।
'अपने-पराएÓ की पहचान मुसीबत में होती है। यह कहानी घर-घर की है। मां को जब फाजिल मार देते है तो बेटी भागी-भागी अपनी मां को देखने पहुंचती है लेकिन बेटे और बहू के लिए बीमारी बोझ बन जाती है। ऐसे चरित्र हमारे समाज में अब बढ़ते जा रहे हैं। परिवार का मतलब पत्नी तक सीमित हो गया है। जहां मां-बाप के लिए वृद्धाश्रमों में ही जगह बचा है। जहां वे घर पर हैं, उनकी फिक्र किसे? पर, कहानी एकतरफा निर्णय नहीं सुनाती। यह विषय 'कैसा सचÓ में और विस्तार पाती है।
इस कहानी में भी लेखिका ने एक मां के संघर्ष को दिखाया है। पति की बीमारी में जमीन का बिकना। फिर, मृत्यु। जवान होती बेटी के ब्याह की चिंता अलग से। ऐसे में मां के सामने क्या विकल्प? कहां से लड़का ढूंढे? पेट की विकलता यह सोचने पर मजबूर करती कि, '...पैसा वाला, भले ही लड़का दुहाजू या दो तीन बच्चे का बाप की क्यों न हो?Ó क्या कोई मां इस स्तर पर जा सकती है कि वह अपने बेटी की ब्याह दो-तीन बच्चे के पिता से कर दे? गरीबी को वह बर्दाश्त नहीं कर पाती। ऐसे में तो और नहीं, जहां नवेली बहुओं को आधा पेट खाना दिया जाता हो, ताकि वह दिन में दिशा के लिए न जा सके। पर, एक रिश्ता आ जाता है और बेटी अपनी मां को मना ही लेती है। बेटी कहती है 'शहर के घर में पैखाना तो होता है मां!Ó शादी तो हो जाती है। दामाद दिल्ली में कमाता है। एक दिन सूचना मिलती है कि मां आ रही है। अब बेटी कैसे बताए कि शौचालच के लिए बाहर जाना पड़ता है। आखिर, यह कैसा सच था?
'परदादारीÓ कहानी में रेड लाइट एरिया के जरिए स्त्रियों के विभिन्न चरित्रों को संजोया गया है। एक ओर खाते-पीते घरों की महिलाएं एनजीओ के जरिए समाज सेवा का काम करती हैं। तो दूसरी ओर ऐसी भी स्त्रियां हैं जो भूख के लिए जिस्म का सौदा करती है। पर परदादारी वहां भी है।
अंतिम कहानी 'ठेसÓ में स्त्री के विद्रोही तेवर को सशक्त ढंग से उठाया गया है। शादी के एक माह बाद ही ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं कि सोमा तलाक लेने का मन बना लेती है क्योंकि उसका पति सैडिस्ट है, पर उत्पीड़क है, सेक्स के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। सोमा तलाक लेकर एक नई जिंदगी शुरू करती है।
इन कहानियों से गुजरते हुए यह अहसास होता है कि क्रांति आहिस्ते-आहिस्ते भी हो सकता है। शोर-शराबे के बिना। ये कहानियां ऐसी हैं, जैसे हम दूर से समुद्र का सपाटपन देखते हैं, पर नजदीक जाने पर उसकी लहरे दिखाई पड़ती हैं। आशा प्रभात ने ग्रामीण समाज की विसंगतियों, आत्महंता लोक परंपराओं के साथ आदमी की संवेदनहीनता को भी लक्षित किया है। कहीं कहीं गंवई भाषा के जरिए उस समाज से पाठक को जोडऩे की कोशिश करती हैं, पर अधिकांश कहानियां शहरी मध्यवर्ग से जुड़ी हैं। कहानियों की अधिकतर नायिकाएं कुंभ राशि की हैं। लेखिका को ज्योतिष का अच्छा ज्ञान है। यह ठेस कहानी से भी बोध होता है। 
हंस में प्रकाशित