बाबा बैजू के दरबार में भक्त भरते हैं जुर्माना

टॉवर चौक देवघर का हृदय स्थल है। यहां से तीन राहें फूटती हैं, लेकिन इसे चौक का नाम दिया गया है। यहीं से बाबा धाम की ओर एक रास्ता फूटता हैं। चौक से दस कदम पर बाएं एक पुराना मंदिर है। सड़क से दिखाई नहीं देता। सड़क किनारे दुकानें हैं और दुकान के पीछे ही यह मंदिर है। छोटा सा। सालों से इसकी पुताई नहीं हुई है। मंदिर के बाए हीं प्लास्टिक के हजारों लोटे पड़े हुए हैं। इन्हीं लोटों में भक्त जल लेकर आते हैं और बैजू बाबा को चढ़ाते हैं। हिंदू मंदिरों की दुर्दशा यहां देख सकते हैं। पसरी गंदगी कोई नई बात नहीं। यह उस मंदिर का हाल है, जिसके नाम पर कामना शिवलिंग का नाम बाबा बैजनाथ पड़ा और दुनिया इसी नाम से याद करती है।

खैर, सुबह-सुबह की बेला थी। सैकड़ों लोग बोल बम का नारा लगाते हुए उस मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। सड़क से तो यह कतई नहीं दिखाई देता। अंदर जाने पर ही पता चलता है। मंदिर के काली पड़ चुकी सफेद दीवार पर लाल रंग से लिखा है-पुराना बैजू मंदिर यही है। मंदिर की खास बात यह है कि यहां लोग जल तो चढ़ा ही रहे थे, भक्त कान पकड़कर उठक-बैठक भी कर रहे थे। ऐसी कोई परंपरा हमने किसी और मंदिर में नहीं देखी थी। इसमें पुरुष भी शामिल थे-महिलाएं भी। आखिरकार, एक भक्त से पूछ ही लिया-आप कान पकड़कर उठक-बैठक क्यों कर रहे हैं?

भक्त ने संक्षिप्त जवाब दिया-जुर्माना।
जुर्माना? मैं चौक गया? उससे पूछा, जुर्माना मतलब, किसलिए?
आखिर, यहां कौन सा जुर्माना दिया जा रहा है। यह तो कभी सुना नहीं। जाना नहीं। वह भी भगवान के दरबार में नहीं, भक्त के दरबार में।
उस भक्त ने साफ किया-जाने-अनजाने अपनी गलती के लिए।
यह अजीब और अद्भुत परंपरा थी। लोग सीतामढ़ी से आए थे। बाबा बैजनाथ को तिलक चढ़ाने। बसंत शुरू होने के साथ मिथिलांचल के लोग बाबा बैजनाथ का तिलक चढ़ाने आते हैं और बसंत पंचमी इसकी आखिरी तारीख होती है। भक्त बताते हैं, असल पूजा तो इसी समय होती है। सावन में कांवरियों का रेला-मेला तो पचास-साठ साल पहले शुरू हुआ।

हालांकि बाबा बैजनाथ का मंदिर भी अतिक्रमण की भेंट चढ़ गया है और बाबा बैजू को तो लोग जानते ही नहीं। इसकी परम भक्ति के कारण ही बाबा बैजनाथ अपने भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं।

आखिर, यह बैजू था कौन?

कहते हैं, बैजू एक चरवाहा था। रावण शिव के परम भक्त। परम ज्ञानी-प्रतापी रावण शिव को प्रसन्न करने के लिए हिमालय पर तप कर रहा था। पौराणिक कथा बताती है कि वह एक-एक करके अपने सिर काटकर शिवलिंग पर चढ़ा रहा था। नौ  सिर चढ़ाने के बाद जब वह अपना दसवां सिर चढ़ाने वाला था तो शिव प्रसन्न होकर दर्शन दिए और उससे वर मांगने के लिए कहा।
रावण यही चाहता था। उसने 'कामना लिंगÓ को लंका ले जाने का वर मांगा। शिव ने उसे वर दे दिया, लेकिन एक शर्त भी रख दी। कहा कि अगर तुमने शिवलिंग को रास्ते में कही भी रखा तो मैं फिर वहीं रह जाऊंगा और नहीं उठूंगा। ज्ञानी रावण ने शिव की यह शर्त मान ली। शिव के कैलाश छोडऩे की बात सुनकर देवता चिंतित हो गए। जब रावण आचमन करके शिवलिंग को लेकर श्रीलंका की ओर चला तो देवघर के पास उसे लघुशंका लगी। उसने एक ग्वाले को शिवलिंग देकर लघुशंका करने चला गया। कथा बताती है कि बैजू नाम के ग्वाले के रूप में स्वयं भगवान विष्णु थे। रावण कई घंटों तक लघुशंका करता रहा जो आज भी एक तालाब के रूप में देवघर में है। इधर बैजू ने शिवलिंग धरती पर रखकर को उसे स्थापित कर दिया। जब रावण लौट कर आया तो लाख कोशिश के बाद भी शिवलिंग उठ नहीं पाया। तब उसे भी भगवान की यह लीला समझ में आ गई।


रावण कैलाश पर्वत पर जाकर शिवजी की तपस्या कर रहा था। उसने हवन करना आरंभ किया। जब उससे भी शिव जी प्रसन्न नहीं हुए तब उन्होंने सोचा कि अब अपने शरीर को अग्नि में भेंट कर देना चाहिए। ऐसा सोच कर उसने दस मस्तकों में से एक-एक को काट कर अग्नि में हवन करने लगा। जब नौ मस्तक कट चुका और दसवें मस्तक को काटने के लिए तैयार हुए तो शिवजी प्रसन्न होकर उनके समक्ष प्रकट हुए। शिवजी ने उनके हाथ पकड़ लिए और वर मांगने को कहा। शिव की कृपा से उनके सभी मस्तक अपने अपने स्थान से जुड़ गए। हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हुए रावण ने वर मांगा-हे प्रभो! मैं अत्यंत पराक्रमी होना चाहता हूं। आप मेरे नगर में चल कर निवास करें। यह सुन कर शिवजी बोले- हे रावण! तुम हमारे लिंग को उठा कर ले जाओ और इसका पूजन किया करो परंतु यदि तुमने लिंग को मार्ग में कहीं रख दिया तो वह वहीं पर स्थित हो जाएगा।
रावण के कहने पर शिवजी दो रूपों में विभाजित हो गए और दो लिंग स्वरूप धारण किए। रावण उन दोनों शिवलिंगों को कांवर में रख कर चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद रावण को लघुशंका लगी। उसने लघुशंका निवारण के लिए किसी व्यक्ति की तलाश करने लगा जो कुछ देर तक कांवर को उठाए रखे। उसी समय वहां एक चरवाहा दिखाई दिया। रावण ने उससे प्रार्थना किया कि कुछ देर तक कांवर को अपने कंधों पर उठाए रखे जिससे मैं लघुशंका कर लूं। चरवाहे ने उत्तर दिया- हे रावण! मैं दो घड़ी इस कांवर को लिए रहूंगा। यदि इस समय के अन्दर तूने कांवर को न लिया तो मैं इसे जमीन पर रख दूंगा। इतना सुन कर रावण उसे कांवर देकर लघुशंका करने बैठ गया। रावण के अहंकार को नष्ट करने के लिए वरूण ने उसका मूत्र इतना अधिक बढ़ा दिया कि उस चरवाहे ने कांवर का भार सहन नहीं कर पाया और कांवर को जमीन पर रख दिया। पृथ्वी पर रखते ही शिवलिंग उसी स्थान पर दृढ़ता पूर्वक जम गए। लघुशंका से उठने के बाद रावण ने उन लिंगों को उठाने का अथक प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हो सका और अंत में निराश होकर घर लौट आया। रावण के चले जाने पर सभी देवताओं ने आकर वहां शिवलिंग की पूजा की। शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें अपना दर्शन दिया और वर मांगने को कहा। सभी देवताओं ने प्रार्थना करते हुए उनसे कहा- हे स्वामी! आप हमें अपनी भक्ति प्रदान करें और कृपा पूर्वक सदैव यहीं स्थित रहें। आप मनुष्यों को वैद्य के समान आनंद प्रदान करने वाले हैं अस्तु आपका नाम वैद्यनाथ हैं।

अब वह चरवाहा नित्यदिन लिंग की पूजा करने लगा। उसका नाम बैजू था। जब तक वह उस लिंग की पूजा नहीं कर लेता तब तक भोजन नहीं किया करता था। अनेक प्रकार के विघ्न आने पर भी उसने अपना नियम कभी नहीं छोड़ा अंतत: एक दिन उसकी दृढ़ भक्ति को देख कर वामांग में भगवती गिरिजा से सुशोभित शिवजी ने उन्हें दर्शन दिया और उसे वर मांगने को कहा। प्रेम की अधिकता में भर कर उस चरवाहे बैजू ने कहा-हे प्रभु! आपके चरणों में मेरा प्रेम बढ़ता रहे और मैं आपके भक्तों की सेवा किया करूं और आप मेरे नाम से प्रसिद्ध हों। शिव एवमस्तु कह कर उस लिंग में प्रवेश कर गए। तब से बाबा वैैद्यनाथ को संसार बाबा बैजनाथ के नाम से भी जाना जाने लगा। पर, दुख इस बात का है कि इस मंदिर का कायाकल्प नहीं हो सका। चारों तरफ गंदगी का साम्राज्य। न प्रशासन को चिंता न नगर पालिका को।

फिल्मकारों का पसंदीदा लोकेशन है पतरातू डैम

रांची से करीब 40 किमी दूर पतरातू डैम पहले प्रवासी पक्षियों को ही आकर्षित करता था, अब दुनिया को करेगा। सात समंदर पार से पक्षी हर साल यहां आते हैं, महीनों रहते हैं और फिर चले जाते हैं। अब दुनिया के लोग भी पतरातू डैम का आनंद उठा सकेंगे। यहां रह सकेंगे। अब इसकी पहचान भी 'पतरातू लेक रिजॉटÓ केरूप में होगी। गांधी जयंती के मौके पर आज संध्या चार बजे इसका भव्य उद्घाटन सूबे के मुखिया रघुवर दास करेंगे। यह सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट था। 134 करोड़ रुपए से इसे टूरिस्ट डिस्टिनेशन के रूप में विकसित किया जा रहा है। पहले चरण में 68 करोड़ का काम पूरा हो चुका है। अभी म्यूरल आर्ट से दीवारें सजाई गई हैं। आकर्षक मुख्य द्वार, पैदल पथ का निर्माण, छठ घाट, चिल्ड्रेन पार्क, दुकानें, पार्किंग एरिया, गेस्ट हाउस, डैम टापू सब कुछ सुंदर और आकर्षित करने के लिए तैयार है। यहां आइए और फिर पतरातू घाटी का भी आनंद लीजिए। 
वैसे, घाटी हो या डैम, फिल्मकारों को भी आकर्षित करता रहा है। 2015 से जो सिलसिला शुरू हुआ, वह अब तक जारी है। रांची में फिल्म पीआर का काम देखने वाले संजय पुजारी बताते हैं कि सबसे पहली फिल्म यहां 2015 में शूट हुई थी। वह भोजपुरी फिल्म थी-नाचे नागिन गली-गली। इसके बाद 2016 मेंब काशी अमरनाथ, 2017 में हर-हर महादेव, हिंदी फिल्म, चरखारी, बेगम जान, 2018 में नागपुरी फिल्म महुआ, देवा रिक्शावाला, पंजाबी फिल्म रुपिंदर गांधी, रांची डायरी, रवि किशन की हिंदी फिल्म हंच, अर्जुन रामपाल की फिल्म नास्तिक, भोजपुरी फिल्म संघर्ष, 2019 में अक्षय खन्ना की हिंदी फिल्म सब कुशल मंगल आदि की शूटिंग इस इलाके में हुई। इस क्षेत्र में आने के बाद निर्देशक को पहाड़ की खूबसूरती, डैम, घाटी सब कुछ एक साथ एक ही जगह पर मिल जाते हैं। फिल्मों की शूटिंग होने से हमारे झारखंड सरकार को फायदा हो रहा है और यहां के स्थानीय कलाकारों को। होटल व ट्रैवल के क्षेत्र में भी रोजगार की संभावना बढ़ी है तो पर्यटक भी अब यहां आ रहे हैं। अब रिजार्ट बन जाने से यहां ठहरने की भी व्यवस्था हो गई है।
क्या-क्या है खास
पतरातू लेक रिसॉर्ट शहर की भीड़-भाड़, कोलाहल से दूर एक ऐसा पर्यटक स्थल है जहाँ बच्चे, बुजुर्ग एवं युवा यानी की हर उम्र के लोग ख़ुशी का अनुभव कर सकते हैं। यहां वॉटर पार्क में विभिन्न प्रकार के वॉटर स्पोर्ट्स, जैसे जेट स्कीइंग, हाई स्पीड मोटरबोट, पड़ले बोट, कस्ती और पैरासेलिंग का अनुभव किया जा सकता है। इसके अलावा एम्यूजमेंट पार्क में वॉल क्लाइम्बिंग, बंजी जंपिंग, मल्टीलेयर्ड रोप कोर्स है। पतरातू में लगभग 21 एकड़ में फैला हुआ पतरातू लेक रिसॉर्ट में म्यूरल कलाकृति से सजा प्रवेश द्वार, दीवारें एवं स्तंभ, गोदना चित्रकला की याद दिलाते हैं। पतरातू लेक रिसॉर्ट को एक ओपन आर्ट गैलरी की तरह विकसित किया गया है, मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही यहा देश के अलग-अलग राज्यों के 52 नामचीन एवं कुछ युवा कलकारों द्वारा बनायी गई म्यूरल कलाकृतियां लगाई गई हैं। सूर्यास्त का मनोरम दृश्य देखने के लिए नाव के जरिए पतरातू आइलैंड के सनसेट पॉइंट पर पहुंचा जा सकता है। सूर्यास्त देखने के लिए मचान और कूंच बनाए गए हैं।  इसके अतिरिक्त पर्यटकों के लिए यहां पर हस्तकला और फैंसी वस्तुएं खरीदने के लिए दुकान एवं स्वादिष्ट खान-पान के लिए उत्तम रेस्टोरेंट की व्यवस्था की गई है। पतरातू लेक रिसॉर्ट में बॉन फायर का आनंद लेने के लिए आठ ब्लॉक का कैंपिंग प्लींथ एरिया बनाया गया है। सुबह का शैर एवं संध्या का विचरण के लिए डैम के ऊपर 3.5 किमी का प्रोमेनार्ड बनाया गया है, जहां सैैलानी घूमते हुए प्रकृति का आनंद उठा सकते हैं। पर्यटकों के ठहरने के लिए यहाँ सभी सुविधाओं से युक्त आधुनिक गेस्ट हाउस की व्यवस्था है। पर्यटक अपनी सुविधा अनुसार कमरे या डॉरमेट्री में प्रवेश कर सकते हैं।
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रांची से दूरी 40 किमी
रांची से कांके रोड होते हुए पतरातू डैम पहुंचा जा सकता है।

संताली साहित्य के सितारा पद्मश्री चित्त टुडू

पद्मश्री चित्त टुडू का जन्म एक दिसंबर 1929 को हुआ था। चित्त टुडू के पिताजी का नाम ढेना टुडू और मां का नाम तालो सोरेन था। टुडूजी का जन्म सहूपोखर गांव में हुआ था। यह गांव भागलपुर- दुमका रोड पर स्थित मंदार बैसि से 12 किलोमीटर दक्षिण और हंसडीहा से 15 किलोमीटर उत्तर में स्थित श्याम बाजार से पश्चिम लगभग एक किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। श्यामबाजार में गाय-बैल, भेड़-बकरियों का बाजार लगता है, इसलिए इलाके का प्रसिद्ध हटिया है। सावा या सहूपोखर गांव संथालों का है। लगभग 70 परिवार यहां  रहता है। चित्त टुडू के मां-बाप का बचपन में ही देहांत हो गया था। उनके चाचा फाते टुडू की देखरेख और उन्हीं के प्यार से टुडूजी बड़े हुए। टुडुजी को मां का ममत्व और प्यार अपनी दादी से मिला!
सन् 1948 में मैट्रिक पास करने के उपरांत घर की आर्थिक हालत ठीक न होने पर वह राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की सलाह पर बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में प्रचार संगठन कर्ता के रूप में काम करने लगे। इसी विभाग में रहते हुए टुडुजी 1956 से गीतिनाट्य शाखा में संताली भाषा के संगठनकर्ता के रूप में काम करने ंलगे। नौकरी के नियम और टुडूजी की योग्यता को देखते हुए सरकार पदोन्नति करते रहे। 1958 में जनसंपर्क पदाधिकारी बन गए। 1959 में वह जिला जनसंपर्क पदाधिकारी बन गए। 1977 में उपजनसंपर्क निदेशक और 1984 में वह संयुक्त जनसंपर्क निदेशक बने। 1948 में मैट्रिक करने के बाद इनका विवाह पोड़ैयाहाट प्रखंड अंतर्गत साकरी गांव निवासी रानी मुर्मू से हो गया।  एक दिसंबर 1987 को सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के संयुक्त निदेशक के पद से अवकाश ग्रहण किया।
टुडू जी संताली साहित्य के आसमान का एक सितारा हैं। संताली साहित्य के विकास में उनका बहुमूल्य योगदान है। वह लेखक, कवि गीतकार, गायक और अनुवादक भी थे। वह हिंदी और संताली में साहित्य रचते थे। उन्होंने कई पुस्तकें रचीं। इनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू की जीवनी, जावांय बाहू होरोक सेरेन्ज, सोना रेयाग सिकड़ी रूपा रेयाग माकड़ी, संताली लोक गीतों में मंदार पर्वत, मिलवा गाते पॉकेट पुथी (दोंग सेरेन्ज )आदि।
सन् 1976 से 1986 तक टुडुजी गणतंत्र दिवस के अवसर पर संताली नृत्यों का प्रदर्शन करवाते थे। इसके लिए उन्हें राष्ट्रपति और देश के प्रधानमत्री के हाथों सम्मान भी मिल चुका है। बिहार सरकार के प्रतिनिधि के रूप में वह पांच साल तक संगीत नाटक अकादेमी में सदस्य रहे। वह संताली सांस्कृतिक सोसाइटी के प्रथम उपाध्यक्ष भी रहे। सोसाइटी का जब सावा में शाखा विस्तार होता है तो वह वहां अध्यक्ष बनाया जाता है। वह आपने गांव में प्रथम से मैट्रिक तक की पढाई के लिए चंद्रशेखर आदिवासी उच्च विद्यालय, बांका बिहार का निर्माण करवाता है।.वह गरीब और निर्धनों की उन्नति के लिए लगातार काम करते थे। जिसके के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति सी.आर.वेंकटरमण ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। 1987 को बिहार सरकार की राजभाषा विभाग द्वारा पंडित जवाहरलाल नेहरू पुस्तक के लिए चार हजार रूपये से सम्मानित किया गया। टुडुजी एक कुशल प्रशासक, लेखक, कवि, अनुवादक के साथ-साथ गायक भी थे और मधुर आवाज में गाते भी थे। एक जुलाई 2016 को वे दुनिया छोड़ गए।
 -चंद्र मोहन किस्कू, संताली के युवा कवि

स्मृतिशेष : डॉ श्याम सुंदर घोष

डा. श्यामसुंदर घोष बीते छह अक्टूबर चले गए। यह वही दिन था, जिस दिन उनकी
अंतिम दो पुस्तकें 'चीनी समालोचकों की नजर में प्रेमंचदÓ व 'शिखर सेतु
समापनमÓ छपकर आईं। उसकी प्रति हाथ में ली, निहारा और ठीक 15 मिनट बाद
उनका शरीर अनंत की यात्रा पर निकल पड़ा। 20 नवंबर, 1934 को झारखंड के
गोड्डा जिले के सैदापुर गांव में उनका जन्म हुआ था। यहीं उनकी कर्मस्थली
भी रही 1994 में 37 सालों की सेवावधि के बाद हिंदी विभागाध्यक्ष पद से
गोड्डा कालेज से ही अवकाश ग्रहण किया। 'प्रेमचंद के उपन्यासों में
मध्यवर्गÓ पर भागलपुर विश्वविद्यालय से 1967 में पीएच डी की, लेकिन लेखन
की शुरुआत आजादी के बाद से ही शुरू हो गई थी और निरंतर जारी
है-मृत्युपर्यंत।
इनका लिखना इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि वे पिछले 20-22 सालों से स्नायुरोग
की गिरफ्त में थे। चलना मुश्किल से हो पाता था। जिन्होंने उन्हें देखा
होगा, वही महसूस कर सकते थे कि वह किस मिट्टी के बने थे। पूरा शरीर जवाब
दे गया था, पर मन-मस्तिष्क लाजवाब रूप से काम कर रहे थे और लेखन जारी था।
डॉ बालेंदुशेखर तिवारी ठीक ही कहते हैं कि लेखन से ही उन्हें ऊर्जा मिलती
थी।
डॉ घोष की एक बेटी रांची रहती हैं। वहीं पर 2008 में उनसे मुलाकात हुई
थी। बीमारी के बावजूद पूरे गर्मजोशी से मिले और अपनी किताबों के बारे में
बताया था। तब रांची मेरे लिए नई थी और डॉ घोष भी। महसूस हुआ कि लेखन का
उनका रेंज काफी बड़ा है। कविता, कहानी, हास्य-व्यंग्य से लेकर संस्मरण,
समाजशास्त्र, नाटक, भाषा चिंतन, बाल साहित्य तक। कई पत्रिकाओं का संपादन
भी किया और किताबों का भी। किताबों की संख्या की बात करें तो 70 तक
पहुंचती हैं।
सन्् 1951 में उनका पहला काव्य संग्रह 'मधुयामाÓ प्रकाशित हुआ था। तब
उन्होंने अपना उपनाम 'अशांतÓ रखा था। दूसरे संग्रह 'मसीहाÓ तक 'अशांतÓ
बने रहे। इसके बाद मूल नाम से ही कई संग्रह प्रकाशित हुए। कविता के अलावा
व्यंग्य भी प्रकाशित हुए और समीक्षात्मक पुस्तकें भी। उपन्यासकार
प्रेमचंद, नई कविता का स्वरूप विकास, नवलेखन : समस्याएं एवं संदर्भ,
प्रासंगिकता के बहाने, लोक साहित्य : विविध प्रसंग, रामकथा, कबीर-एक और
दृष्टि, बच्चन: व्यक्ति और रचनाकार...। संस्मरणों की भी कई पुस्तकें
प्रकाशित हैं। अनियतकालीन पत्रिका 'प्रतिमानÓ का भी कई अंकों तक संपादन
किया। किसी एक विधा में बंधकर वे कभी नहीं रहे। कुछ साल पहले 'नटराज शिवÓ
पुस्तक का संपादन किया था, जिसमें शिव पर लिखे  दुर्लभ लेखकों की रचनाओं
को शामिल किया था। अंतिम कृति 'चीनी समालोचकों की नजर में प्रेमंचदÓ कई
मायनों में इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें चीनी लेखकों का हवाला भी
दिया है कि किस चीनी लेखक ने प्रेमचंद की कौन सी कहानी का अनुवाद किया
है। यह अपने आप में एक बड़ा काम है। यह काम भी वे छोटे से शहर गोड्डा में
रहकर किया। फिर भी, अपने उस शहर की तरह हमेशा वे अल्पज्ञात ही रहे। यह हम
हिंदी वालों का दुर्भाग्य है, या उनका।

फादर कामिल बुल्के : लौटना 36 साल बाद

 यह लौटना कोई इत्तेफाक नहीं था। दिल्ली जैसे अजनबी शहर से पूरे 36 साल बाद अपनी कर्मभूमि रांची वापसी। उस शहर से, जिससे कोई नाता नहीं, कोई संबंध नहीं, कोई सरोकार नहीं। कोई लगाव और रचाव भी नहीं। नाता यही कि इसी अजनबी शहर में फादर कामिल बुल्के ने 17 अगस्त, 1982 को एम्स में अंतिम सांस ली। ईसाई धर्मबंधुओं ने बुल्के को दिल्ली में ही दफनाने का निर्णय लिया। उनके अंतिम दिनों के साथी फा. पास्कल तोपनो, ये.सं. लिखते हैं, 'एक महत्वपूर्ण निर्णय मुझको लेना था-फादर बुल्के को कहां दफनाया जाए, दिल्ली में या रांची में। रांची की जनता निश्चय ही बुल्के के अंतिम दिन दर्शन के लिए तरसेगी और अंतिम संस्कार में सम्मिलित होना चाहेगी-इसका अनुमान मुझे था। फिर भी मैंने हाल की घटनाओं ने मेरी यह धारणा पक्की कर दी थी कि फादर बुल्के के पार्थिव अवशेष को रांची तक सही सलामत पहुंचा पाना कोई सहज काम नहीं। लालफीताशाही से डरा हुआ था।Ó फादर के ये शब्द पीड़ा से उपजे थे। वह भी नहीं चाहते थे कि उन्हें दिल्ली में दफनाया जाए, लेकिन जिस व्यक्तिको पद्मविभूषण मिला हो, उसके इलाज के लिए भी सरकारी अस्पताल में परेशान होना हो तो आखिर उस अगस्त की गर्मी में वे क्या कर सकते थे? 
आखिरकार, फादर बुल्के को वहीं, उसी बेगाने दिल्ली के हवाले कर दिया गया, लेकिन फादर की आत्मा तो रांची आने के लिए बेचैन थी।
बेशक, 1982 का 17 अगस्त रांची के लिए बहुत भारी साबित हुआ होगा और तब तो और, जब उन्हें पता लगा होगा कि फादर का अंतिम दर्शन भी नहीं कर सकते!  
पर, रांची को एक लंबा इंतजार करना पड़ा। 36 साल। दिल्ली से रांची उनके पवित्र अवशेषों को ले आने में सोसाइटी ऑफ जीसस रांची प्रोविंस के प्रोविंशियल फादर जोसेफ  मरियानुस कुजूर की अहम भूमिका रही। दो सालों से इस अभियान में लगे थे। उनके कारण ही यह संभव हो पाया और फादर अपनी कर्मभूमि लौट पाए। इसी 13 मार्च को उनका अवशेष रांची ले आया गया और फिर 14 मार्च को उसी जेवियर कॉलेज के प्रांगण में उन्हें पूरे सम्मान व उत्सव के साथ दफनाया गया। यहीं वे पढ़ाते थे। इस आंगन के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे। ईंट की दीवारें, परिसर की मिट्टी, पेड़-पौधे, लता-द्रुम, हवा-पानी सचमुच इस दिन इन्हें भी एक भरपूर तृप्ति का एहसास हुआ होगा और उस लंबी प्रतीक्षा के पूर्ण होने पर एक ठंडी सांस भरी होगी।  
सचमुच, फादर की आत्मा को भी अब असीम शांति मिली होगी। जो उस समय दर्शन नहीं कर पाए थे, उन्होंने अब किया और पूरी श्रद्धा के साथ उन्हें याद किया। कॉलेज के युवा पीढ़ी के लिए यह किसी कौतूहल से कम नहीं था। हजारों छात्रा-छात्राएं और सैकड़ों गणमान्य और फादर को चाहने वाले उनके इस दुबारा अंतिम क्रिया में शामिल होने आए थे। नई पीढ़ी पहली बार जानी कि जिस शहर से कभी रांची की पहचान हुआ करती थी, वह कोई सामान्य आदमी नहीं था। उसका विराट व्यक्तित्व था और जो बाबा तुलसी के भक्तथे। ऐसी भक्ति अब दुर्लभ होती जा रही है!
 फादर ने तीन बड़े काम किए। एक रामकथा: उत्पत्ति और विकास। दूसरा काम उन्होंने बाइबल का हिंदी अनुवाद कर किया। और, तीसरा शब्दकोश। हिंदू और ईसाई आस्था का उनमें अपूर्व संगम था। बाइबल उनके अंतिम दिनों की कृति है। हालांकि बाइबल अनुवाद वे पूरा नहीं कर सके। 150 पृष्ठों का अनुवाद शेष रह गया था। 930 पृष्ठ का अनुवाद वे कर चुके थे। बाद में उनके अधूरे काम को उनके अनन्य सहयोगी डॉ दिनेश्वर प्रसाद ने पूरा किया। इसकी भी एक कहानी है। फादर ने अपने ईश्वर से महज चार सौ घंटे की मोहलत मांगी थी ताकि अधूरा काम पूरा हो सके। पटना के कुर्जी अस्पताल में जब वे भर्ती थे, वहां डॉ दिनेश्वर प्रसाद और डॉ श्रवण कुमार गोस्वामी मिलने पहुंचे। फादर बोले?'डॉक्टर कहते हैं, पैर काटना पड़ सकता है। पैर कट ही जाएगा तो क्या होगा? मैं काम तो कर ही सकूंगा। डॉक्टर का कहना है कि मैं ठीक तो हो जाऊंगा, पर कम से कम छह महीने तक मुझे विश्राम करना होगा। कोई बात नहीं। अब मैं जनवरी 1983 से फिर काम शुरू करूंगा। मैंने हिसाब लगा लिया? मुझको केवल चार सौ घंटे चाहिए। चार सौ घंटों में बाइबिल के अनुवाद का काम पूरा जाएगा।Ó ईश्वर उन्हें जल्दी अपने पास बुलाना चाहता था और इन्हें बाबा तुलसी से मिलने की आतुरता था। रांची के मांडर, पटना और फिर दिल्ली...स्थिति में कोई सुधार नहीं। पैर में गैंगरीन हो गया था। दोनों गुर्दे जवाब दे गए थे। बीमारी बढ़ती जा रही थी और फादर लड़ते-लड़ते थकते जा रहे थे कि अचानक छोड़कर चले गए...फादर की इच्छाएं अधूरी ही रह गईं...फादर कहते थे, 'मुझे अभी जीवित रहना है। बाइबल के हिंदी अनुवाद को पूरा करना है, तुलसी पर एक ग्रंथ लिखना है और शब्दकोश को और भी वैज्ञानिक बनाना हैै।Ó 
फादर के जाने के बाद रामकथा पर उनके अंग्रेजी निबंधों को संपादित कर डॉ दिनेश्वर प्रसाद ने छपवाई। यह पांडुलिपि भी प्रकाशक के यहां दस सालों तक धूल फांकती रही। तब, दिनेश्वर बाबू भी अपने अंतिम दिनों में चल रहे था। उनके साथ उठना-बैठना होता था तब वे इसकी चिंता करते थे। हालांकि फादर की कुछ और सामग्री भी उनके यहां थी, लेकिन अब क्या हुई पता नहीं। उनके जीवित रहते अंग्रेजी का वह निबंध संग्रह छप कर आ गया। उनकी आंखें तृप्त हो गईं। उस किताब को देखकर उनकी धुंधली आंखों में एक गजब सी चमक दिखी। अब दिनेश्वर बाबू भी नहीं रहे।
नई पीढ़ी को तो पता ही नहीं था कि फादर बुल्के की कब्र रांची में नहीं, दिल्ली में थी। उनके नाम से जरूर पुरुलिया रोड का नाम बदलकर फादर कामिल बुल्के पथ कर दिया गया। मनरेसा हाउस, जहां वे रहते थे, एक आदमकद उनकी प्रतिमा लगी हुई है। उनकी निजी किताबें, उनके नाम से बने पुस्तकालय में थीं। अब यह पुस्तकालय भी जेवियर कॉलेज का हिस्सा बन गया, जहां फादर संस्कृत विभाग के अध्यक्ष और यहीं से अवकाश ग्रहण लिया। अब उसी प्रांगण में उन्हें फिर से दफ ना दिया गया।
फादर पैदा तो बेलजियम के फ्लैंडर्स प्रांत के रम्सकपैले गांव में एक सितंबर, 1909 को हुए थे, लेकिन उन्हें तुलसी के प्रति ऐसी भक्ति जागी कि वे भारत चले आए और फिर सालों तुलसी को गुनते रहे। इसके लिए संस्कृत भी सीखी और हिंदी भी पढ़ी। इलाहाबाद विवि से धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में रामकथा पर काम किया। देश-दुनिया में प्रचलित रामकथा का अध्ययन आज तक हिंदीवाले भी नहीं कर पाए। हम तो राम के अस्तित्व पर ही सवाल उठाते रहे....। यह भी इत्तेफाक नहीं था कि उनके लिए अभिनंदन ग्रंथ तैयार हो रहा था, तब फादर ने कहा, इसे 75 साल पूरे होने पर समर्पित करना, लेकिन 75 साल आया नहीं और अभिनंदन ग्रंथ, स्मृति ग्रंथ के रूप में प्रकाशित करना पड़ा। बाइबल भी 1986 में पूरा होकर छप गई...। ऐसे तुलसी भक्त को शत-शत प्रणाम।





हिंदी की दुर्लभ पत्रिकाओं और पुस्तकों का है विपुल भंडार


अपर बाजार के भीड़-भाड़ इलाके में सौ साल से एक पुस्तकालय चुपचाप अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है।
गोविंद भवन के दूसरे तल्ले पर चल रहे इस पुस्तकालय में कभी रांची के साहित्यकारों का जमघट लगता था। यहीं से कहानी के प्लाट निकलते थे, विचारों की सरिता निकलती थी। पर, अब बेहद उदास, अपने पुराने समय को याद करता हुआ झपकी ले रहा है। आलमारियों की किताबें कब से न जाने सूरज की किरणों से अठखेलियां को तरस रही हैं। शीशे में बंद इतिहास के पन्ने सालों से हाथों के कोमल स्पर्श पाने को लालायित हो रहे हैं। धूल फांक रही ये किताबें, जो खूब बातें करना चाहती हैं, चहचहाना चाहती हैं, गुनगुनाना चाहती हैं, परियों के किस्से सुनाना चाहती हैं, रॉकेट का राज बताना चाहती हैं, गंगा की यात्रा कराना चाहती हैं और वेद-पुराण, उपनिषद, महाभारत का आंखों देखा हाल बताना चाहती हैं, लेकिन हम उसकी ओर पीठ के बल खड़े हैं।  
    
दमकता इतिहास स्वागत को बेताब
 ज्ञान की बह रही सरिता का स्पर्श करना भी हम नहीं चाहते। यहां जाएंगे तो एक दमकता इहिास आपका स्वागत करेगा। सालों पुरानी पत्रिकाएं, जिनके बल हिंदी जवां हुई, फैली, पसरी और लोगों के दिलों में जा बसी- यह सब कहानी, यहां आप सुन सकेंगे। देश के बनते इतिहास से लेकर हिंदी साहित्य के निर्माण की पूरी कहानी यहां दर्ज है। दर्ज है, एक गुमनाम अतीत। शीशे में बंद काठ पर उकेरी ओडिय़ा लिपि में प्राचीन साहित्य, जिसे अब दीमक पढऩे की कोशिश में लगे हैं।  

1918 में पड़ी थी नींव
तो, इस संतुलाल पुस्तकालय से पहले 1918 के आस-पास रामदेव मोदी व मामराज शर्मा के सहयोग से एक पुस्तकालय की स्थापना की गई थी। बाद में यह पुस्तकालय विलीन हो गया। मामराज शर्मा छोटानागपुर पत्रिका के संपादक थे। पत्र के माध्यम से वह इस पठार में दर्जनों बोलियों की बीच हिंदी की सेवा करते थे। उनकी मृत्यु के बाद पत्रिका बंद हो गई और हस्तलिखित रूप से निकाली जाती रही। इसके बाद 1924 में हिंद स्वाधीन पुस्तकालय की स्थापना की गई। स्थापना के दो साल बाद ही यह भी लड़खड़ाने लगी। तब समाजसेवी गंगा प्रसाद बुधिया ने इसे पकड़ लिया। गंगा प्रसाद ने अपने स्वर्गीय भ्राता संतुलाल के नाम पर इसका नामकरण कर दिया। 1933 में इसे अपना नया भवन मिला। इसके बाद तब से यहीं पर है। पुस्तकालय एक बड़े हाल में है। दीवारों में लगी हुई आलमारियों में पुस्तकें सजी हैं। दूसरे तल्ले का उद्घाटन 10 नवंबर, 1960 को हुआ था, जिसकी अध्यक्षता डा. राममनोहर लोहिया ने की थी।  

क्या-क्या है
हिंदी स्वाधीन पुस्तकालय से कुल 779 पुस्तकें मिली थीं। 1955 में पुस्तकों की संख्या 11 हजार पार कर कई। 1960 में चौदह हजार और आज यहां पचास हजार से कम पुस्तकें नहीं होंगी। यहां संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी की हजारों पुरानी किताबें हैं। रवींद्रनाथ टैगोर का हिंदी में साहित्य यहां कई खंडों में उपलब्ध है। उसके आरंभिक अनुवादकर्ताओं के बारे में भी आप जान सकते हैं। 1966 में यहां दस दैनिक समाचार पत्र, 14 साप्ताहिक पत्र, दो पाक्षिक 42 मासिक, 10 बालोपयोगी पत्रिकाएं आती थीं। आर्यावार्त, नवभारत टाइम्स, प्रदीप, विश्वमित्र, हिंदुस्तान, हिंदुस्तान स्टैंडर्ड, इंडियन नेशन, सर्च लाइट, टाइम्स आफ इंडिया, स्टेटसमैन जैसे दैनिक पत्र आते थे। अब तो बस रांची से निकलने वाले पत्र ही आते हैं, लेकिन इन पत्र-पत्रिकाओं की पुरानी फाइलें यहां देख सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में अमेरिकन रिपोर्टर, आदिवासी, आर्य मित्र, दिनमान, धर्मयुग, ब्लिट्ज, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे दर्जनों पत्रिकाएं आती थीं। मासिक पत्रों में ज्ञानोदय नेशनल माक्र्ससिस्ट, बिहान जैसे पत्र थे।

रेडियो के लिए जुटती थी भीड़
यहां रेडियो भी सुनने के लिए लोग जाते थे। कोलकाता के निवासी देवकीनंदन तोदी ने पुस्तकालय को एक रेडियो सेट दिया था। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की ओर से समय-समय पर फिल्म शो भी हुआ करता था। काफी लोगों की भीड़ यहां जुटती थी। 

अनमोल हैं पत्रिकाओं की पुरानी फाइलें 
पुस्तकालय में बीसवीं सदी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाएं हैं। हंस, बालक, सरस्वती के दुर्लभ अंक यहां देखे जा सकते हैं। इसके अलावा कई दुर्लभ पुस्तकें भी देख सकते हैं। जो यहां हैं, वह कहीं नहीं है। पर, इस पुस्तकालय के प्रति यहां के पढऩे-लिखने वालों ने भी अपना मुंह फेर लिया है। यहां रांची विवि है, शहर में आधा दर्जन कालेज है, लेकिन हिंदी का शोधार्थी शायद ही कभी जाता हो। हिंदी की रोटी खाने वालों को भी इस खजाने की चिंता नहीं है। होती को किताबों पर धूल की परतें न जमा होतीं। पुस्तकालय सहायक एनके मिश्रा क्या कर सकते हैं? वह तो समय से आते हैं, खोलते हैं। पाठक आते हैं, अखबार पढ़ते हैं। चले जाते हैं। हालांकि धर्म के नाम पर लाखों फूंकने वाला समाज साहित्य के प्रति इतना उदासीन क्यों है?

छह साल में रांची में सुहैल ने खोले 30 उर्दू स्कूल

मुसलमानों ही नहीं, आदिवासियों और ईसाइयों के बीच उर्दू के प्रचार-प्रसार को लेकर आजादी से पहले पटना के सुहैल अजीमाबादी ने रांची में कई स्कूल खोले। 1941 से 46 तक करीब तीस उर्दू स्कूल खुल चुके थे, लेकिन इसी बीच आजादी की सुगबुगाहट तेज हो गई। कई जगह दंगे भड़क गए और दंगों के कारण यह अभियान बंद कर देना पड़ा और सुहैल फिर वापस पटना चले गए। 
सुहैल अजीमाबादी के बारे में हम बहुत कम जानते हैं। उनमें देश की आजादी की भावना कूट-कूटकर भरी थी और इसके साथ उर्दू के प्रचार-प्रसार की भावना भी कम न थी। जुलाई, 1911 में उनकी पैदाइश पटना में हुई। अपने बारे में लिखा है, नाम मुजीब-उर-रहमान है, लेकिन सुहैल अजीमाबादी के नाम से प्रसिद्ध हूं। बिहार के एक जमींदार के यहां सन 1911 में पैदा हुआ, जन्मतिथि ज्ञात नहीं।
अपने मकान के बारे में लिखा है, बात यह है कि मेरा मकान जिला पटना में ही है, लेकिन मैं पैदा हुआ पटना शहर में। आज पटना यूनिवर्सिटी का जहां इकबाल हॉस्टल है, वही मकान था, जिसमें मेरा जन्म हुआ। 
सुहैल साहब का परिचय बाबा-ए-उर्दू मौलवी अब्दुल हक से हुआ तो उनके मुरीद ही हो गए। उनके निर्देशन पर उर्दू भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए छोटानागपुर जैसा आदिवासी क्षेत्र चुना। रांची में छोटानागपुर और उर्दू मरकज नाम से एक संस्था की स्थापना की। यह संस्था फरवरी, 1941 के बाद स्थापित हुई थी। उर्दू मरकज द्वारा सुहैल अजीमाबादी ने मुसलमानों में ही नहीं, आदिवासियों में उर्दू भाषा को लोकप्रिय बनाने और उसमें रुचि उत्पन्न कराने का काम किया। रांची में उन्हें मिस्टर उम नविल पटू जैसे उर्दू के अध्यापक का सहयोग मिला। उन्होंने रांची में एक हॉल किराये पर लेकर स्कूल स्थापित किया। यह काम आगे बढऩे लगा। बाबा-ए-उर्दू ने तीन सितंबर, 1941 को एक लंबा पत्र लिखा। उसमें यह भी लिखा, ईसाइयों में उर्दू खूब फैलाइए। यह बहुत बड़ा काम है, बल्कि बड़े पुण्य का काम है।
सुहैल उर्दू के प्रचार-प्रसार के लिए ईसाई और आदिवासियों के रीति-रिवाजों और उत्सवों में भाग लेने लगे थे ताकि मैत्री बढ़े। ईसाइयों में अपनी योजना को फैलाने के लिए अजीमाबादी को रेविरेंड स्मार्ट का सहयोग मिला था। इन सबके बावजूद वह अंजुमन से या मौलवी हक से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता लेने को तैयार नहीं थे। 
सुहैल ने रेवरेंड स्मार्ट को पचास रुपये मासिक पर ईसाइयों में उर्दू के प्रचार के लिए मना लिया था। उर्दू मरकज के लिए भूमि भेंट में ली। ईसाई बच्चों को उर्दू सीखने पर पुरस्कार देना शुरू किया। उर्दू स्कूलों की संख्या बढ़ाई गई। संताल में भी उर्दू के लिए मरकज स्थापित किए। 
1941 से 1946 तक खूब तेजी से उर्दू का प्रचार-प्रसार हुआ। स्कूल खुले। छोटानागपुर से लेकर संताल परगना तक। लेकिन 1947 में जब देश का विभाजन हुआ तो इसका असर इस संस्था पर भी पड़ा। सुहैल को अपना मिशन छोडऩा पड़ा। विभाजन से पहले सात सालों में करीब तीस स्कूल स्थापित हुए थे। लेकिन देश बंटवारे ने सब खत्म कर दिया। मौलवी साहब पाकिस्तान चले गए। मरकज को भी बंद कर देना पड़ा। सुहैल रांची से पटना लौट गए। 
रांची से सुहैल अजीमाबादी की वापसी देश विभाजन के दंगों के बाद हुई थी। उन सांप्रदायिक दंगों में उनके घर की बर्बादी भी हुई थी, जिससे प्रभावित होकर रामानंद सागर ने अपना उपन्यास 'और इंसान मर गयाÓ का समर्पण सुहैल अजीमाबादी के नाम किया था। सुहैल की बाद में 1955 में आकाशवाणी में नियुक्ति हो गई। श्रीनगर में सेवा-भार संभाला। फिर दिल्ली आए और पटना में 1970 में अवकाश ग्रहण किया। सुहैल एक अच्छे कहानीकार थे। इसके अलावा सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी खूब लिखा। तहजीब, पटना, मार्च 1953 के अंक में बिरसा भगवान, बिहार के आदिवासी आदि लेख लिखे। उनका निधन 29 नवंबर 1979 को इलाहाबाद में हुआ। वे दिल्ली गए थे एक कार्यक्रम में भाग लेने। वहां से 26 को इलाहाबाद आए और प्रेमचंद के पुत्र अमृत राय के घर पर ठहरे। यहीं पर दिल का दौरा पड़ा और 29 को अंतिम सांस ली।   
सुहैल साहब 20 साल की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। सन् 1932 में वे कलकत्ता के अखबार हमदर्द से जुड़ गए। उनके अंग्रेज विरोधी एक संपादकीय पर जब अखबार से जमानत मांगी गई तो हमदर्द बंद हो गया। इसके बाद वे मौलवी अब्दुल हक के मिशन में लग गए और रांची चले आए उर्दू के प्रचार-प्रसार के लिए। यहां उर्दू का प्रचार तो किया ही, कुछ लिखा भी। कहानी, नाटक, शायरी। हर विधा में उस्ताद थे। लेकिन आज रांची ही उन्हें भूला बैठा है।

गांधी ने संत पॉल स्कूल के मैदान में दिया था भाषण

चर्च रोड स्थित संत पॉल स्कूल के मैदान में महात्मा गांधी ने 17 सितंबर, 1925 को अपराह्न तीन बजे एक सभा को संबोधित किया था। सभा में रांची की जनता की ओर से उन्हें एक मानपत्र तथा देशबंधु स्मारक कोष के लिए एक हजार एक रुपये की थैली भी भेंट की गई थी।  
गांधीजी ने इस सभा में कहा था कि सिर्फ चरखा ही भारत के करोड़ों लोगों की भूख मिटा सकता है। बेशक खाली समय में करने को और भी धंधे हैं, परन्तु जिसे लाखों लोग अपना सकें, ऐसा उपयुक्त धंधा चरखे पर सूत कातने के अलावा और कोई नहीं है। मैं पूरे देश में घूमता रहा हूं, लेकिन अभी तक किसी ने कोई ऐसा धंधा नहीं सुझाया जो चरखे का स्थान ले सके। बिहार के पास एक लाख रुपये की खादी पड़ी है। यदि वह बिक जाए तो प्राप्त धन से दूनी खादी बन सकेगी है। अकेला रांची ही आसानी से इतनी खादी खरीद सकता है। लोग मिल के कपड़े को स्वदेशी मान लेते हैं, लेकिन दिल्ली और बंबई के बने बिस्कुट क्या घर की रोटी का स्थान ले सकते हैं? तब फिर आपको भी बंबई की मिलों में बने कपड़े के बजाय बिहार में बनी खादी क्यों नहीं पहननी चाहिए?
यदि आपको अपनी निर्वसना मां-बहनों का तन ढंकना हो तो आपको खादी ही खरीदनी चाहिए। खादी अपेक्षाकृत महंगी है तो क्या हुआ, उसके लिए दी गई हर पाई गांवों की गरीब स्त्रियों को मिलती है। बंबई के अंत्यजों की रक्षा इसी चरखे ने की है।
अस्पृश्यता को समस्या का उल्लेख करते हुए गांधीजी ने कहा कि हिंदू धर्म में अस्पृश्यता जैसी कोई चीज नहीं है। इसी अस्पृश्यता ने भारतीयों को सारे संसार में अस्पृश्य बना दिया है। आपको इन अस्पृश्य भारतीयों की दशा देखनी हो तो दक्षिण अफ्रिका जाइए, आपको मालूम होगा कि अस्पृश्तया क्या चीज है। स्वर्गीय गोखले इसे अच्छी तरह जानते थे और अब भारत भी जान गया है। तुलसीदास ने आपको दया-धर्म की शिक्षा दी है, लेकिन आज आप उसके विपरीत आचरण कर रहे हैं। आपको अस्पृश्यता की यह समस्या दूर करती ही है, अन्यथा स्वराज्य कभी नहीं मिल सकता।
प्रस्तुति : संजय कृष्ण।

आजादी की लड़ाई में पलामू के योद्धाओं ने लिखी इबारत

देश की आजादी में पलामू का भी योगदान रहा है। मुल्क को आजाद कराने में पलामू के युवकों ने हर स्तर पर कुर्बानी दी। इसमें स्वतंत्रता सेनानी केश्वर विश्वकर्मा, हरिनाराण वाजपेयी, महावीर प्रसाद, नीलकंठ सहाय, यदुवर सहाय समेत कई योद्धा शामिल थे। इनमें अब नीलकंठ सहाय को छोड़कर इस दुनियां में कोई नहीं रहा। हां स्वतंत्रता की लड़ाई में उनकी कुर्बानी की गाथा लोगों को याद है। जरूरत है नवयुवकों को अंग्रेजी शासनकाल में उनकी छीन ली गई शारीरिक,आर्थिक,सामाजिक व राजनीतिक आजादी की कहानी से रूबरू कराने की। प्रस्तुत है  पलामू जिला के विश्रामपुर प्रखंड के कंडा गांव निवासी स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय केश्वर विश्वकर्मा की कहानी।

केश्वर विश्वविश्वकर्मा
वर्ष 1918 में रामजतन विश्वकर्मा के घर पर केश्वर विश्वकर्मा का जन्म हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा कंडा गांव में हुई थी। वे समाज में मृदुभाषी व कोमल स्वभाव के व्यक्ति के रूप में पहचाने जाने लगे। केश्वर विश्वकर्मा होश संभालते ही अंग्रेजी हुकूमत का विरोध शुरू कर दिया। जवान होते ही भारतीयों के शोषण के खिलाफ वे आजाद भारत अभियान में कूद पड़े। उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा कि क्या खोया व पाया। भारत आजाद हुआ और अपने परिजनों के साथ आजाद भारत में 68 बसंत देखे। उन्होंने अपने 18 वर्ष की उम्र में कांग्रेस से प्रभावित होकर 1936 में कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की। वे अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में कूद पड़े। 1940 में रामगढ़ में हुए कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आसपास के दर्जनों पुल-पुलिया को काटकर सड़क अवरुद्ध कर दिया। इनकी देश भक्ति देख अंग्रेजी शासन आक्रोशित हो उठा। अंग्रेजो ने इन्हें पकडऩे के लिए स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अभियान चलाया। स्व.विश्वकर्मा अपने साथियों के साथ मिलकर सड़क काट रहे थे कि इसी बीच रास्ते से गुजर रही अंग्रेजी फौज की निगाह उन पर पड़ गई। अंग्रेज सिपाही उन्हें गिरफ्तार कर पटना के फुलवारी शरीफ स्थित कैंप जेल में डाल दिया। वहां 50 रुपये जुर्माना के साथ 18  माह तक की सजा काटी।

पुत्र के जेल जाते ही पिता चल बसे
जेल जाने की खबर को केश्वर विश्वकर्मा के पिता रामजतन विश्वकर्मा सहन नहीं कर सके। उनका हर्ट अटैक हो गया। इससे उनकी मौत हो गई। जेल से निकलने के 9 माह बाद 1943 मे राष्ट्र पिता महात्मा गांधी की भारत छोड़ो आंदोलन के शांत होते अन्य लोग भी जेल से बाहर आए। इसके बाद केश्वर फिर अपने साथियों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए।

इंदिरा गांधी व एपीजे अबुल कलाम ने किया था पुरस्कृत
स्वतंत्रता सेनानी स्व केश्वर विश्वकर्मा की मुलाकत देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद व प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से भी हुई। उनसे वे काफी प्रभावित होकर देश प्रेम व सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया। देश की प्रथम महिला प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से उनकी 1972 में मुलाकात हुई। उन्हें प्रधानमंत्री ने ताम्र पत्र से  नवाजा था। देश के तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अबुल कलाम ने 2003 में दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन बुलाकर उन्हें सम्मानित किया था।

 कंडा गांव में रखी गांधी आश्रम की नींव
केश्वर विश्वकर्मा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या को सहन नहीं कर सके। वे हर रोज रात में घर में बैठकर रोते रहते थे। घर वालों की ओर से पूछने पर वे सहज ही बताते थे कि जिसने देश को आजाद कराया उसे मौत की सजा मिली। स्व. विश्वकर्मा गांधी जी से इतने प्रभावित थे कि वे गांव में ही गांधी स्मारक भी बनाने का संकल्प लिया। वे कंडा गांव स्थित एनएच 98 के किनारे गांधी आश्राम की नींव गांधी जी के दशगात्र के दिन 1948 में रखी। यह आज भी कायम है।

10 वर्षो तक की सरकारी सेवा
भारत को आजाद होने के बाद स्थानीय जिला प्रशासन की पहल पर स्व. विश्वकर्मा ने नौकरी भी की। वे गांव स्थित कंडा के डाकघर में 10 वर्षो तक सेवा की। वे नौकरी में बंधे रहना नहीं चाहते थे। वे नौकरी को छोड़कर समाज सेवा में कूद पड़े। इससे उनकी लोकप्रियता क्षेत्र में दिन प्रतिदिन बढ़ती गई। वे जीवन के अंत तक समाज सेवा के क्षेत्र में जुटे रहे।

1857 के गदर का गवाह राजहरा का बरगद

 गुलाम भारत को आजाद कराने के लिए देश के कोने-कोने में अलग-अलग लड़ाई लड़ी गई। इसमें हजारों लोगों को फांसी दी गई। मां ने बेटे को, पत्नी ने पति को व बहनों ने अपने भाई को खोया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कई लोग इतिहास के पन्नों में अपनी गाथा अमर कर गए। इनका गर्व से देश में नाम लिया जाता है। सैकड़ों शहीद होने के बावजूद गुमनाम रह गए। गुमनाम रहने वाले शहीदों में पलामू जिला के नावाबाजार प्रखंड का राजहरा गांव भी हैं। आजादी के सात दशकों बाद भी यह अब तक गुमनाम है। इस क्षेत्र ने 1857 के गदर में अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। 1857 ई.में गदर का गवाह बना है राजहारा कोठी स्थित बरगद का विशाल बूढ़ा पेड़। यहां 200 से ज्यादा लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था। इसका उद्देश्य  था 1857 के गदर  में भाग लेने वाले लोगों को दबाना। इस बरगद के पेड़ के नीचे रह वर्ष नवंबर माह की 27 से 29  तारीख तक लोग श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

जुल्म के खिलाफ लोगों में था उबाल

खंडहर में तब्दील अंग्रेजों की कोठी 1857 की गदर में लोगों पर हुए जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने वाले शहीदों की याद दिलाता है। जानकारी के अनुसार 1857 के पूर्व राजहारा क्षेत्र में बंगाल कोल कंपनी का माईंस संचालित था। इस पर अंग्रेजों का अधिकार था। 1857 ई. में  देश में ढाए जा रहे जुल्म के प्रति मजदूरों में उबाल आया। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ राजहारा कोलियरी के मजदूरों ने आवाज बुलंद की। आस-पास के गांव के सैकड़ों लोग राजहरा कोठी स्थित अंग्रेजों के बंगला को घेर लिया। माइङ्क्षनग कार्य बंद कर आजादी की लड़ाई का बिगुल फूंक दिया। अंग्रेजों ने इन्हें फांसी पर लटका दिया।

27 से 29 नवंबर 1857 तक काला दिन

रजहरा में  प्रथम स्वंतत्रता की लड़ाई में शामिल लोगों को फांसी दिए जाने के साक्षी विशाल बरगद का पेड़ आज भी जीवित है। इसका वर्णन स्थानीय इतिहासकार  डॉ. बी.निरोत्तम ने किया है। लिखित पुस्तक झारखंड का इतिहास व संस्कृति में बताते हैं कि 27 से 29 नवंबर 1857 के  तीन दिन राजहारा के लिए काला दिन साबित हुआ। 27 नवंबर 1857 को पारंपरिक हथियार व बंदूकों से लैस कई हजार आंदोलनकारी का जत्था राजहारा पहुंचा। यहां बंगाल कोल कंपनी माइङ्क्षनग का काम कर रही थी। आजादी के दीवानों ने बंगाल कोल कंपनी को जला दिया। साथ ही मशीनों को बर्बाद किया। इसमें दर्जनों  बहुसंख्यक ब्राह्मण गांव के बसे ब्राह्मण सहित भोक्ता व खरवार मौजूद थे। सभी विश्रामपुर राजपरिवार के भवानी बक्सराय की देखरेख में आगे बढ़ रहे थे। इनमें से लगभग 200 राष्ट्रभक्तों को 27 नवंबर 1857 को गिरफ्तार कर लिया गया।  28 व 29 नवंबर को राजहरा कोठी स्थित बरगद के पेड़ में फांसी दे दी गई। लोगों की माने तो शहीद क्रांतिकारियों के परिजन को इसकी सूचना भी नहीं दी गई। आजादी की पहली लड़ाई में फांसी पर चढ़े वीर शहीदों के परिजनों व आश्रितों की खोज खबर भी नहीं ली गई। इस लिए आज ये सभी शहीद गुमनाम बनकर रह गए।

 लोगों की जुबानी गदरकी कहानी

राजहारा गांव निवासी रङ्क्षवद्र पांडेय ने बताया उनके पूर्वज बताते हैं कि कोल कंपनी  अंग्रेजों की देखरेख में  संचालित था। इस पर 1857 ईस्वी में  अधिकार भी था। विद्रोह के समय  स्थानीय  लोगों सहित  आसपास के दर्जनों गांव के लोगों ने अंग्रेजों की  वर्तमान गतिविधि के खिलाफ  आंदोलन किया। कंपनी को भारी नुकसान पहुंचाया।  अंग्रेजी हुकुमत ने इन्हें पकड़कर राजहारा कोठी स्थित बरगद के पेड़ पर लटका कर फांसी दी गई थी। संख्या स्पष्ट नहीं हो पाता है । रामाकांत पांडेय ने कहा कि 1857 में हुए विद्रोह की स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पाती है। हां यहां एक आंदोलन हुआ था। इसमें कई लोगों की जाने गई थी। वह कौन थे और कहां से आए थे इसकी जानकारी स्पष्ट नहीं हो पाती। राजहारा निवासी बंशीधर पांडेय ने बताया कि वे अपने दादा राम चरित्र पांडेय व पिता मुनी पांडेय से राजहारा कोठी स्थित शहीदों की कहानी सुनी है। राजहरा कोठी की घटना सही है। इसमें कितने लोगों को फांसी दी गई जानकारी नहीं। ऐसी जगह की पहचान विश्व पटल पर मिलनी चाहिए।