बाबा बैजू के दरबार में भक्त भरते हैं जुर्माना

टॉवर चौक देवघर का हृदय स्थल है। यहां से तीन राहें फूटती हैं, लेकिन इसे चौक का नाम दिया गया है। यहीं से बाबा धाम की ओर एक रास्ता फूटता हैं। चौक से दस कदम पर बाएं एक पुराना मंदिर है। सड़क से दिखाई नहीं देता। सड़क किनारे दुकानें हैं और दुकान के पीछे ही यह मंदिर है। छोटा सा। सालों से इसकी पुताई नहीं हुई है। मंदिर के बाए हीं प्लास्टिक के हजारों लोटे पड़े हुए हैं। इन्हीं लोटों में भक्त जल लेकर आते हैं और बैजू बाबा को चढ़ाते हैं। हिंदू मंदिरों की दुर्दशा यहां देख सकते हैं। पसरी गंदगी कोई नई बात नहीं। यह उस मंदिर का हाल है, जिसके नाम पर कामना शिवलिंग का नाम बाबा बैजनाथ पड़ा और दुनिया इसी नाम से याद करती है।

खैर, सुबह-सुबह की बेला थी। सैकड़ों लोग बोल बम का नारा लगाते हुए उस मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। सड़क से तो यह कतई नहीं दिखाई देता। अंदर जाने पर ही पता चलता है। मंदिर के काली पड़ चुकी सफेद दीवार पर लाल रंग से लिखा है-पुराना बैजू मंदिर यही है। मंदिर की खास बात यह है कि यहां लोग जल तो चढ़ा ही रहे थे, भक्त कान पकड़कर उठक-बैठक भी कर रहे थे। ऐसी कोई परंपरा हमने किसी और मंदिर में नहीं देखी थी। इसमें पुरुष भी शामिल थे-महिलाएं भी। आखिरकार, एक भक्त से पूछ ही लिया-आप कान पकड़कर उठक-बैठक क्यों कर रहे हैं?

भक्त ने संक्षिप्त जवाब दिया-जुर्माना।
जुर्माना? मैं चौक गया? उससे पूछा, जुर्माना मतलब, किसलिए?
आखिर, यहां कौन सा जुर्माना दिया जा रहा है। यह तो कभी सुना नहीं। जाना नहीं। वह भी भगवान के दरबार में नहीं, भक्त के दरबार में।
उस भक्त ने साफ किया-जाने-अनजाने अपनी गलती के लिए।
यह अजीब और अद्भुत परंपरा थी। लोग सीतामढ़ी से आए थे। बाबा बैजनाथ को तिलक चढ़ाने। बसंत शुरू होने के साथ मिथिलांचल के लोग बाबा बैजनाथ का तिलक चढ़ाने आते हैं और बसंत पंचमी इसकी आखिरी तारीख होती है। भक्त बताते हैं, असल पूजा तो इसी समय होती है। सावन में कांवरियों का रेला-मेला तो पचास-साठ साल पहले शुरू हुआ।

हालांकि बाबा बैजनाथ का मंदिर भी अतिक्रमण की भेंट चढ़ गया है और बाबा बैजू को तो लोग जानते ही नहीं। इसकी परम भक्ति के कारण ही बाबा बैजनाथ अपने भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं।

आखिर, यह बैजू था कौन?

कहते हैं, बैजू एक चरवाहा था। रावण शिव के परम भक्त। परम ज्ञानी-प्रतापी रावण शिव को प्रसन्न करने के लिए हिमालय पर तप कर रहा था। पौराणिक कथा बताती है कि वह एक-एक करके अपने सिर काटकर शिवलिंग पर चढ़ा रहा था। नौ  सिर चढ़ाने के बाद जब वह अपना दसवां सिर चढ़ाने वाला था तो शिव प्रसन्न होकर दर्शन दिए और उससे वर मांगने के लिए कहा।
रावण यही चाहता था। उसने 'कामना लिंगÓ को लंका ले जाने का वर मांगा। शिव ने उसे वर दे दिया, लेकिन एक शर्त भी रख दी। कहा कि अगर तुमने शिवलिंग को रास्ते में कही भी रखा तो मैं फिर वहीं रह जाऊंगा और नहीं उठूंगा। ज्ञानी रावण ने शिव की यह शर्त मान ली। शिव के कैलाश छोडऩे की बात सुनकर देवता चिंतित हो गए। जब रावण आचमन करके शिवलिंग को लेकर श्रीलंका की ओर चला तो देवघर के पास उसे लघुशंका लगी। उसने एक ग्वाले को शिवलिंग देकर लघुशंका करने चला गया। कथा बताती है कि बैजू नाम के ग्वाले के रूप में स्वयं भगवान विष्णु थे। रावण कई घंटों तक लघुशंका करता रहा जो आज भी एक तालाब के रूप में देवघर में है। इधर बैजू ने शिवलिंग धरती पर रखकर को उसे स्थापित कर दिया। जब रावण लौट कर आया तो लाख कोशिश के बाद भी शिवलिंग उठ नहीं पाया। तब उसे भी भगवान की यह लीला समझ में आ गई।


रावण कैलाश पर्वत पर जाकर शिवजी की तपस्या कर रहा था। उसने हवन करना आरंभ किया। जब उससे भी शिव जी प्रसन्न नहीं हुए तब उन्होंने सोचा कि अब अपने शरीर को अग्नि में भेंट कर देना चाहिए। ऐसा सोच कर उसने दस मस्तकों में से एक-एक को काट कर अग्नि में हवन करने लगा। जब नौ मस्तक कट चुका और दसवें मस्तक को काटने के लिए तैयार हुए तो शिवजी प्रसन्न होकर उनके समक्ष प्रकट हुए। शिवजी ने उनके हाथ पकड़ लिए और वर मांगने को कहा। शिव की कृपा से उनके सभी मस्तक अपने अपने स्थान से जुड़ गए। हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हुए रावण ने वर मांगा-हे प्रभो! मैं अत्यंत पराक्रमी होना चाहता हूं। आप मेरे नगर में चल कर निवास करें। यह सुन कर शिवजी बोले- हे रावण! तुम हमारे लिंग को उठा कर ले जाओ और इसका पूजन किया करो परंतु यदि तुमने लिंग को मार्ग में कहीं रख दिया तो वह वहीं पर स्थित हो जाएगा।
रावण के कहने पर शिवजी दो रूपों में विभाजित हो गए और दो लिंग स्वरूप धारण किए। रावण उन दोनों शिवलिंगों को कांवर में रख कर चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद रावण को लघुशंका लगी। उसने लघुशंका निवारण के लिए किसी व्यक्ति की तलाश करने लगा जो कुछ देर तक कांवर को उठाए रखे। उसी समय वहां एक चरवाहा दिखाई दिया। रावण ने उससे प्रार्थना किया कि कुछ देर तक कांवर को अपने कंधों पर उठाए रखे जिससे मैं लघुशंका कर लूं। चरवाहे ने उत्तर दिया- हे रावण! मैं दो घड़ी इस कांवर को लिए रहूंगा। यदि इस समय के अन्दर तूने कांवर को न लिया तो मैं इसे जमीन पर रख दूंगा। इतना सुन कर रावण उसे कांवर देकर लघुशंका करने बैठ गया। रावण के अहंकार को नष्ट करने के लिए वरूण ने उसका मूत्र इतना अधिक बढ़ा दिया कि उस चरवाहे ने कांवर का भार सहन नहीं कर पाया और कांवर को जमीन पर रख दिया। पृथ्वी पर रखते ही शिवलिंग उसी स्थान पर दृढ़ता पूर्वक जम गए। लघुशंका से उठने के बाद रावण ने उन लिंगों को उठाने का अथक प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हो सका और अंत में निराश होकर घर लौट आया। रावण के चले जाने पर सभी देवताओं ने आकर वहां शिवलिंग की पूजा की। शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें अपना दर्शन दिया और वर मांगने को कहा। सभी देवताओं ने प्रार्थना करते हुए उनसे कहा- हे स्वामी! आप हमें अपनी भक्ति प्रदान करें और कृपा पूर्वक सदैव यहीं स्थित रहें। आप मनुष्यों को वैद्य के समान आनंद प्रदान करने वाले हैं अस्तु आपका नाम वैद्यनाथ हैं।

अब वह चरवाहा नित्यदिन लिंग की पूजा करने लगा। उसका नाम बैजू था। जब तक वह उस लिंग की पूजा नहीं कर लेता तब तक भोजन नहीं किया करता था। अनेक प्रकार के विघ्न आने पर भी उसने अपना नियम कभी नहीं छोड़ा अंतत: एक दिन उसकी दृढ़ भक्ति को देख कर वामांग में भगवती गिरिजा से सुशोभित शिवजी ने उन्हें दर्शन दिया और उसे वर मांगने को कहा। प्रेम की अधिकता में भर कर उस चरवाहे बैजू ने कहा-हे प्रभु! आपके चरणों में मेरा प्रेम बढ़ता रहे और मैं आपके भक्तों की सेवा किया करूं और आप मेरे नाम से प्रसिद्ध हों। शिव एवमस्तु कह कर उस लिंग में प्रवेश कर गए। तब से बाबा वैैद्यनाथ को संसार बाबा बैजनाथ के नाम से भी जाना जाने लगा। पर, दुख इस बात का है कि इस मंदिर का कायाकल्प नहीं हो सका। चारों तरफ गंदगी का साम्राज्य। न प्रशासन को चिंता न नगर पालिका को।

फिल्मकारों का पसंदीदा लोकेशन है पतरातू डैम

रांची से करीब 40 किमी दूर पतरातू डैम पहले प्रवासी पक्षियों को ही आकर्षित करता था, अब दुनिया को करेगा। सात समंदर पार से पक्षी हर साल यहां आते हैं, महीनों रहते हैं और फिर चले जाते हैं। अब दुनिया के लोग भी पतरातू डैम का आनंद उठा सकेंगे। यहां रह सकेंगे। अब इसकी पहचान भी 'पतरातू लेक रिजॉटÓ केरूप में होगी। गांधी जयंती के मौके पर आज संध्या चार बजे इसका भव्य उद्घाटन सूबे के मुखिया रघुवर दास करेंगे। यह सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट था। 134 करोड़ रुपए से इसे टूरिस्ट डिस्टिनेशन के रूप में विकसित किया जा रहा है। पहले चरण में 68 करोड़ का काम पूरा हो चुका है। अभी म्यूरल आर्ट से दीवारें सजाई गई हैं। आकर्षक मुख्य द्वार, पैदल पथ का निर्माण, छठ घाट, चिल्ड्रेन पार्क, दुकानें, पार्किंग एरिया, गेस्ट हाउस, डैम टापू सब कुछ सुंदर और आकर्षित करने के लिए तैयार है। यहां आइए और फिर पतरातू घाटी का भी आनंद लीजिए। 
वैसे, घाटी हो या डैम, फिल्मकारों को भी आकर्षित करता रहा है। 2015 से जो सिलसिला शुरू हुआ, वह अब तक जारी है। रांची में फिल्म पीआर का काम देखने वाले संजय पुजारी बताते हैं कि सबसे पहली फिल्म यहां 2015 में शूट हुई थी। वह भोजपुरी फिल्म थी-नाचे नागिन गली-गली। इसके बाद 2016 मेंब काशी अमरनाथ, 2017 में हर-हर महादेव, हिंदी फिल्म, चरखारी, बेगम जान, 2018 में नागपुरी फिल्म महुआ, देवा रिक्शावाला, पंजाबी फिल्म रुपिंदर गांधी, रांची डायरी, रवि किशन की हिंदी फिल्म हंच, अर्जुन रामपाल की फिल्म नास्तिक, भोजपुरी फिल्म संघर्ष, 2019 में अक्षय खन्ना की हिंदी फिल्म सब कुशल मंगल आदि की शूटिंग इस इलाके में हुई। इस क्षेत्र में आने के बाद निर्देशक को पहाड़ की खूबसूरती, डैम, घाटी सब कुछ एक साथ एक ही जगह पर मिल जाते हैं। फिल्मों की शूटिंग होने से हमारे झारखंड सरकार को फायदा हो रहा है और यहां के स्थानीय कलाकारों को। होटल व ट्रैवल के क्षेत्र में भी रोजगार की संभावना बढ़ी है तो पर्यटक भी अब यहां आ रहे हैं। अब रिजार्ट बन जाने से यहां ठहरने की भी व्यवस्था हो गई है।
क्या-क्या है खास
पतरातू लेक रिसॉर्ट शहर की भीड़-भाड़, कोलाहल से दूर एक ऐसा पर्यटक स्थल है जहाँ बच्चे, बुजुर्ग एवं युवा यानी की हर उम्र के लोग ख़ुशी का अनुभव कर सकते हैं। यहां वॉटर पार्क में विभिन्न प्रकार के वॉटर स्पोर्ट्स, जैसे जेट स्कीइंग, हाई स्पीड मोटरबोट, पड़ले बोट, कस्ती और पैरासेलिंग का अनुभव किया जा सकता है। इसके अलावा एम्यूजमेंट पार्क में वॉल क्लाइम्बिंग, बंजी जंपिंग, मल्टीलेयर्ड रोप कोर्स है। पतरातू में लगभग 21 एकड़ में फैला हुआ पतरातू लेक रिसॉर्ट में म्यूरल कलाकृति से सजा प्रवेश द्वार, दीवारें एवं स्तंभ, गोदना चित्रकला की याद दिलाते हैं। पतरातू लेक रिसॉर्ट को एक ओपन आर्ट गैलरी की तरह विकसित किया गया है, मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही यहा देश के अलग-अलग राज्यों के 52 नामचीन एवं कुछ युवा कलकारों द्वारा बनायी गई म्यूरल कलाकृतियां लगाई गई हैं। सूर्यास्त का मनोरम दृश्य देखने के लिए नाव के जरिए पतरातू आइलैंड के सनसेट पॉइंट पर पहुंचा जा सकता है। सूर्यास्त देखने के लिए मचान और कूंच बनाए गए हैं।  इसके अतिरिक्त पर्यटकों के लिए यहां पर हस्तकला और फैंसी वस्तुएं खरीदने के लिए दुकान एवं स्वादिष्ट खान-पान के लिए उत्तम रेस्टोरेंट की व्यवस्था की गई है। पतरातू लेक रिसॉर्ट में बॉन फायर का आनंद लेने के लिए आठ ब्लॉक का कैंपिंग प्लींथ एरिया बनाया गया है। सुबह का शैर एवं संध्या का विचरण के लिए डैम के ऊपर 3.5 किमी का प्रोमेनार्ड बनाया गया है, जहां सैैलानी घूमते हुए प्रकृति का आनंद उठा सकते हैं। पर्यटकों के ठहरने के लिए यहाँ सभी सुविधाओं से युक्त आधुनिक गेस्ट हाउस की व्यवस्था है। पर्यटक अपनी सुविधा अनुसार कमरे या डॉरमेट्री में प्रवेश कर सकते हैं।
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रांची से दूरी 40 किमी
रांची से कांके रोड होते हुए पतरातू डैम पहुंचा जा सकता है।

संताली साहित्य के सितारा पद्मश्री चित्त टुडू

पद्मश्री चित्त टुडू का जन्म एक दिसंबर 1929 को हुआ था। चित्त टुडू के पिताजी का नाम ढेना टुडू और मां का नाम तालो सोरेन था। टुडूजी का जन्म सहूपोखर गांव में हुआ था। यह गांव भागलपुर- दुमका रोड पर स्थित मंदार बैसि से 12 किलोमीटर दक्षिण और हंसडीहा से 15 किलोमीटर उत्तर में स्थित श्याम बाजार से पश्चिम लगभग एक किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। श्यामबाजार में गाय-बैल, भेड़-बकरियों का बाजार लगता है, इसलिए इलाके का प्रसिद्ध हटिया है। सावा या सहूपोखर गांव संथालों का है। लगभग 70 परिवार यहां  रहता है। चित्त टुडू के मां-बाप का बचपन में ही देहांत हो गया था। उनके चाचा फाते टुडू की देखरेख और उन्हीं के प्यार से टुडूजी बड़े हुए। टुडुजी को मां का ममत्व और प्यार अपनी दादी से मिला!
सन् 1948 में मैट्रिक पास करने के उपरांत घर की आर्थिक हालत ठीक न होने पर वह राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की सलाह पर बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में प्रचार संगठन कर्ता के रूप में काम करने लगे। इसी विभाग में रहते हुए टुडुजी 1956 से गीतिनाट्य शाखा में संताली भाषा के संगठनकर्ता के रूप में काम करने ंलगे। नौकरी के नियम और टुडूजी की योग्यता को देखते हुए सरकार पदोन्नति करते रहे। 1958 में जनसंपर्क पदाधिकारी बन गए। 1959 में वह जिला जनसंपर्क पदाधिकारी बन गए। 1977 में उपजनसंपर्क निदेशक और 1984 में वह संयुक्त जनसंपर्क निदेशक बने। 1948 में मैट्रिक करने के बाद इनका विवाह पोड़ैयाहाट प्रखंड अंतर्गत साकरी गांव निवासी रानी मुर्मू से हो गया।  एक दिसंबर 1987 को सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के संयुक्त निदेशक के पद से अवकाश ग्रहण किया।
टुडू जी संताली साहित्य के आसमान का एक सितारा हैं। संताली साहित्य के विकास में उनका बहुमूल्य योगदान है। वह लेखक, कवि गीतकार, गायक और अनुवादक भी थे। वह हिंदी और संताली में साहित्य रचते थे। उन्होंने कई पुस्तकें रचीं। इनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू की जीवनी, जावांय बाहू होरोक सेरेन्ज, सोना रेयाग सिकड़ी रूपा रेयाग माकड़ी, संताली लोक गीतों में मंदार पर्वत, मिलवा गाते पॉकेट पुथी (दोंग सेरेन्ज )आदि।
सन् 1976 से 1986 तक टुडुजी गणतंत्र दिवस के अवसर पर संताली नृत्यों का प्रदर्शन करवाते थे। इसके लिए उन्हें राष्ट्रपति और देश के प्रधानमत्री के हाथों सम्मान भी मिल चुका है। बिहार सरकार के प्रतिनिधि के रूप में वह पांच साल तक संगीत नाटक अकादेमी में सदस्य रहे। वह संताली सांस्कृतिक सोसाइटी के प्रथम उपाध्यक्ष भी रहे। सोसाइटी का जब सावा में शाखा विस्तार होता है तो वह वहां अध्यक्ष बनाया जाता है। वह आपने गांव में प्रथम से मैट्रिक तक की पढाई के लिए चंद्रशेखर आदिवासी उच्च विद्यालय, बांका बिहार का निर्माण करवाता है।.वह गरीब और निर्धनों की उन्नति के लिए लगातार काम करते थे। जिसके के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति सी.आर.वेंकटरमण ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। 1987 को बिहार सरकार की राजभाषा विभाग द्वारा पंडित जवाहरलाल नेहरू पुस्तक के लिए चार हजार रूपये से सम्मानित किया गया। टुडुजी एक कुशल प्रशासक, लेखक, कवि, अनुवादक के साथ-साथ गायक भी थे और मधुर आवाज में गाते भी थे। एक जुलाई 2016 को वे दुनिया छोड़ गए।
 -चंद्र मोहन किस्कू, संताली के युवा कवि

स्मृतिशेष : डॉ श्याम सुंदर घोष

डा. श्यामसुंदर घोष बीते छह अक्टूबर चले गए। यह वही दिन था, जिस दिन उनकी
अंतिम दो पुस्तकें 'चीनी समालोचकों की नजर में प्रेमंचदÓ व 'शिखर सेतु
समापनमÓ छपकर आईं। उसकी प्रति हाथ में ली, निहारा और ठीक 15 मिनट बाद
उनका शरीर अनंत की यात्रा पर निकल पड़ा। 20 नवंबर, 1934 को झारखंड के
गोड्डा जिले के सैदापुर गांव में उनका जन्म हुआ था। यहीं उनकी कर्मस्थली
भी रही 1994 में 37 सालों की सेवावधि के बाद हिंदी विभागाध्यक्ष पद से
गोड्डा कालेज से ही अवकाश ग्रहण किया। 'प्रेमचंद के उपन्यासों में
मध्यवर्गÓ पर भागलपुर विश्वविद्यालय से 1967 में पीएच डी की, लेकिन लेखन
की शुरुआत आजादी के बाद से ही शुरू हो गई थी और निरंतर जारी
है-मृत्युपर्यंत।
इनका लिखना इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि वे पिछले 20-22 सालों से स्नायुरोग
की गिरफ्त में थे। चलना मुश्किल से हो पाता था। जिन्होंने उन्हें देखा
होगा, वही महसूस कर सकते थे कि वह किस मिट्टी के बने थे। पूरा शरीर जवाब
दे गया था, पर मन-मस्तिष्क लाजवाब रूप से काम कर रहे थे और लेखन जारी था।
डॉ बालेंदुशेखर तिवारी ठीक ही कहते हैं कि लेखन से ही उन्हें ऊर्जा मिलती
थी।
डॉ घोष की एक बेटी रांची रहती हैं। वहीं पर 2008 में उनसे मुलाकात हुई
थी। बीमारी के बावजूद पूरे गर्मजोशी से मिले और अपनी किताबों के बारे में
बताया था। तब रांची मेरे लिए नई थी और डॉ घोष भी। महसूस हुआ कि लेखन का
उनका रेंज काफी बड़ा है। कविता, कहानी, हास्य-व्यंग्य से लेकर संस्मरण,
समाजशास्त्र, नाटक, भाषा चिंतन, बाल साहित्य तक। कई पत्रिकाओं का संपादन
भी किया और किताबों का भी। किताबों की संख्या की बात करें तो 70 तक
पहुंचती हैं।
सन्् 1951 में उनका पहला काव्य संग्रह 'मधुयामाÓ प्रकाशित हुआ था। तब
उन्होंने अपना उपनाम 'अशांतÓ रखा था। दूसरे संग्रह 'मसीहाÓ तक 'अशांतÓ
बने रहे। इसके बाद मूल नाम से ही कई संग्रह प्रकाशित हुए। कविता के अलावा
व्यंग्य भी प्रकाशित हुए और समीक्षात्मक पुस्तकें भी। उपन्यासकार
प्रेमचंद, नई कविता का स्वरूप विकास, नवलेखन : समस्याएं एवं संदर्भ,
प्रासंगिकता के बहाने, लोक साहित्य : विविध प्रसंग, रामकथा, कबीर-एक और
दृष्टि, बच्चन: व्यक्ति और रचनाकार...। संस्मरणों की भी कई पुस्तकें
प्रकाशित हैं। अनियतकालीन पत्रिका 'प्रतिमानÓ का भी कई अंकों तक संपादन
किया। किसी एक विधा में बंधकर वे कभी नहीं रहे। कुछ साल पहले 'नटराज शिवÓ
पुस्तक का संपादन किया था, जिसमें शिव पर लिखे  दुर्लभ लेखकों की रचनाओं
को शामिल किया था। अंतिम कृति 'चीनी समालोचकों की नजर में प्रेमंचदÓ कई
मायनों में इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें चीनी लेखकों का हवाला भी
दिया है कि किस चीनी लेखक ने प्रेमचंद की कौन सी कहानी का अनुवाद किया
है। यह अपने आप में एक बड़ा काम है। यह काम भी वे छोटे से शहर गोड्डा में
रहकर किया। फिर भी, अपने उस शहर की तरह हमेशा वे अल्पज्ञात ही रहे। यह हम
हिंदी वालों का दुर्भाग्य है, या उनका।

फादर कामिल बुल्के : लौटना 36 साल बाद

 यह लौटना कोई इत्तेफाक नहीं था। दिल्ली जैसे अजनबी शहर से पूरे 36 साल बाद अपनी कर्मभूमि रांची वापसी। उस शहर से, जिससे कोई नाता नहीं, कोई संबंध नहीं, कोई सरोकार नहीं। कोई लगाव और रचाव भी नहीं। नाता यही कि इसी अजनबी शहर में फादर कामिल बुल्के ने 17 अगस्त, 1982 को एम्स में अंतिम सांस ली। ईसाई धर्मबंधुओं ने बुल्के को दिल्ली में ही दफनाने का निर्णय लिया। उनके अंतिम दिनों के साथी फा. पास्कल तोपनो, ये.सं. लिखते हैं, 'एक महत्वपूर्ण निर्णय मुझको लेना था-फादर बुल्के को कहां दफनाया जाए, दिल्ली में या रांची में। रांची की जनता निश्चय ही बुल्के के अंतिम दिन दर्शन के लिए तरसेगी और अंतिम संस्कार में सम्मिलित होना चाहेगी-इसका अनुमान मुझे था। फिर भी मैंने हाल की घटनाओं ने मेरी यह धारणा पक्की कर दी थी कि फादर बुल्के के पार्थिव अवशेष को रांची तक सही सलामत पहुंचा पाना कोई सहज काम नहीं। लालफीताशाही से डरा हुआ था।Ó फादर के ये शब्द पीड़ा से उपजे थे। वह भी नहीं चाहते थे कि उन्हें दिल्ली में दफनाया जाए, लेकिन जिस व्यक्तिको पद्मविभूषण मिला हो, उसके इलाज के लिए भी सरकारी अस्पताल में परेशान होना हो तो आखिर उस अगस्त की गर्मी में वे क्या कर सकते थे? 
आखिरकार, फादर बुल्के को वहीं, उसी बेगाने दिल्ली के हवाले कर दिया गया, लेकिन फादर की आत्मा तो रांची आने के लिए बेचैन थी।
बेशक, 1982 का 17 अगस्त रांची के लिए बहुत भारी साबित हुआ होगा और तब तो और, जब उन्हें पता लगा होगा कि फादर का अंतिम दर्शन भी नहीं कर सकते!  
पर, रांची को एक लंबा इंतजार करना पड़ा। 36 साल। दिल्ली से रांची उनके पवित्र अवशेषों को ले आने में सोसाइटी ऑफ जीसस रांची प्रोविंस के प्रोविंशियल फादर जोसेफ  मरियानुस कुजूर की अहम भूमिका रही। दो सालों से इस अभियान में लगे थे। उनके कारण ही यह संभव हो पाया और फादर अपनी कर्मभूमि लौट पाए। इसी 13 मार्च को उनका अवशेष रांची ले आया गया और फिर 14 मार्च को उसी जेवियर कॉलेज के प्रांगण में उन्हें पूरे सम्मान व उत्सव के साथ दफनाया गया। यहीं वे पढ़ाते थे। इस आंगन के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे। ईंट की दीवारें, परिसर की मिट्टी, पेड़-पौधे, लता-द्रुम, हवा-पानी सचमुच इस दिन इन्हें भी एक भरपूर तृप्ति का एहसास हुआ होगा और उस लंबी प्रतीक्षा के पूर्ण होने पर एक ठंडी सांस भरी होगी।  
सचमुच, फादर की आत्मा को भी अब असीम शांति मिली होगी। जो उस समय दर्शन नहीं कर पाए थे, उन्होंने अब किया और पूरी श्रद्धा के साथ उन्हें याद किया। कॉलेज के युवा पीढ़ी के लिए यह किसी कौतूहल से कम नहीं था। हजारों छात्रा-छात्राएं और सैकड़ों गणमान्य और फादर को चाहने वाले उनके इस दुबारा अंतिम क्रिया में शामिल होने आए थे। नई पीढ़ी पहली बार जानी कि जिस शहर से कभी रांची की पहचान हुआ करती थी, वह कोई सामान्य आदमी नहीं था। उसका विराट व्यक्तित्व था और जो बाबा तुलसी के भक्तथे। ऐसी भक्ति अब दुर्लभ होती जा रही है!
 फादर ने तीन बड़े काम किए। एक रामकथा: उत्पत्ति और विकास। दूसरा काम उन्होंने बाइबल का हिंदी अनुवाद कर किया। और, तीसरा शब्दकोश। हिंदू और ईसाई आस्था का उनमें अपूर्व संगम था। बाइबल उनके अंतिम दिनों की कृति है। हालांकि बाइबल अनुवाद वे पूरा नहीं कर सके। 150 पृष्ठों का अनुवाद शेष रह गया था। 930 पृष्ठ का अनुवाद वे कर चुके थे। बाद में उनके अधूरे काम को उनके अनन्य सहयोगी डॉ दिनेश्वर प्रसाद ने पूरा किया। इसकी भी एक कहानी है। फादर ने अपने ईश्वर से महज चार सौ घंटे की मोहलत मांगी थी ताकि अधूरा काम पूरा हो सके। पटना के कुर्जी अस्पताल में जब वे भर्ती थे, वहां डॉ दिनेश्वर प्रसाद और डॉ श्रवण कुमार गोस्वामी मिलने पहुंचे। फादर बोले?'डॉक्टर कहते हैं, पैर काटना पड़ सकता है। पैर कट ही जाएगा तो क्या होगा? मैं काम तो कर ही सकूंगा। डॉक्टर का कहना है कि मैं ठीक तो हो जाऊंगा, पर कम से कम छह महीने तक मुझे विश्राम करना होगा। कोई बात नहीं। अब मैं जनवरी 1983 से फिर काम शुरू करूंगा। मैंने हिसाब लगा लिया? मुझको केवल चार सौ घंटे चाहिए। चार सौ घंटों में बाइबिल के अनुवाद का काम पूरा जाएगा।Ó ईश्वर उन्हें जल्दी अपने पास बुलाना चाहता था और इन्हें बाबा तुलसी से मिलने की आतुरता था। रांची के मांडर, पटना और फिर दिल्ली...स्थिति में कोई सुधार नहीं। पैर में गैंगरीन हो गया था। दोनों गुर्दे जवाब दे गए थे। बीमारी बढ़ती जा रही थी और फादर लड़ते-लड़ते थकते जा रहे थे कि अचानक छोड़कर चले गए...फादर की इच्छाएं अधूरी ही रह गईं...फादर कहते थे, 'मुझे अभी जीवित रहना है। बाइबल के हिंदी अनुवाद को पूरा करना है, तुलसी पर एक ग्रंथ लिखना है और शब्दकोश को और भी वैज्ञानिक बनाना हैै।Ó 
फादर के जाने के बाद रामकथा पर उनके अंग्रेजी निबंधों को संपादित कर डॉ दिनेश्वर प्रसाद ने छपवाई। यह पांडुलिपि भी प्रकाशक के यहां दस सालों तक धूल फांकती रही। तब, दिनेश्वर बाबू भी अपने अंतिम दिनों में चल रहे था। उनके साथ उठना-बैठना होता था तब वे इसकी चिंता करते थे। हालांकि फादर की कुछ और सामग्री भी उनके यहां थी, लेकिन अब क्या हुई पता नहीं। उनके जीवित रहते अंग्रेजी का वह निबंध संग्रह छप कर आ गया। उनकी आंखें तृप्त हो गईं। उस किताब को देखकर उनकी धुंधली आंखों में एक गजब सी चमक दिखी। अब दिनेश्वर बाबू भी नहीं रहे।
नई पीढ़ी को तो पता ही नहीं था कि फादर बुल्के की कब्र रांची में नहीं, दिल्ली में थी। उनके नाम से जरूर पुरुलिया रोड का नाम बदलकर फादर कामिल बुल्के पथ कर दिया गया। मनरेसा हाउस, जहां वे रहते थे, एक आदमकद उनकी प्रतिमा लगी हुई है। उनकी निजी किताबें, उनके नाम से बने पुस्तकालय में थीं। अब यह पुस्तकालय भी जेवियर कॉलेज का हिस्सा बन गया, जहां फादर संस्कृत विभाग के अध्यक्ष और यहीं से अवकाश ग्रहण लिया। अब उसी प्रांगण में उन्हें फिर से दफ ना दिया गया।
फादर पैदा तो बेलजियम के फ्लैंडर्स प्रांत के रम्सकपैले गांव में एक सितंबर, 1909 को हुए थे, लेकिन उन्हें तुलसी के प्रति ऐसी भक्ति जागी कि वे भारत चले आए और फिर सालों तुलसी को गुनते रहे। इसके लिए संस्कृत भी सीखी और हिंदी भी पढ़ी। इलाहाबाद विवि से धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में रामकथा पर काम किया। देश-दुनिया में प्रचलित रामकथा का अध्ययन आज तक हिंदीवाले भी नहीं कर पाए। हम तो राम के अस्तित्व पर ही सवाल उठाते रहे....। यह भी इत्तेफाक नहीं था कि उनके लिए अभिनंदन ग्रंथ तैयार हो रहा था, तब फादर ने कहा, इसे 75 साल पूरे होने पर समर्पित करना, लेकिन 75 साल आया नहीं और अभिनंदन ग्रंथ, स्मृति ग्रंथ के रूप में प्रकाशित करना पड़ा। बाइबल भी 1986 में पूरा होकर छप गई...। ऐसे तुलसी भक्त को शत-शत प्रणाम।





हिंदी की दुर्लभ पत्रिकाओं और पुस्तकों का है विपुल भंडार


अपर बाजार के भीड़-भाड़ इलाके में सौ साल से एक पुस्तकालय चुपचाप अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है।
गोविंद भवन के दूसरे तल्ले पर चल रहे इस पुस्तकालय में कभी रांची के साहित्यकारों का जमघट लगता था। यहीं से कहानी के प्लाट निकलते थे, विचारों की सरिता निकलती थी। पर, अब बेहद उदास, अपने पुराने समय को याद करता हुआ झपकी ले रहा है। आलमारियों की किताबें कब से न जाने सूरज की किरणों से अठखेलियां को तरस रही हैं। शीशे में बंद इतिहास के पन्ने सालों से हाथों के कोमल स्पर्श पाने को लालायित हो रहे हैं। धूल फांक रही ये किताबें, जो खूब बातें करना चाहती हैं, चहचहाना चाहती हैं, गुनगुनाना चाहती हैं, परियों के किस्से सुनाना चाहती हैं, रॉकेट का राज बताना चाहती हैं, गंगा की यात्रा कराना चाहती हैं और वेद-पुराण, उपनिषद, महाभारत का आंखों देखा हाल बताना चाहती हैं, लेकिन हम उसकी ओर पीठ के बल खड़े हैं।  
    
दमकता इतिहास स्वागत को बेताब
 ज्ञान की बह रही सरिता का स्पर्श करना भी हम नहीं चाहते। यहां जाएंगे तो एक दमकता इहिास आपका स्वागत करेगा। सालों पुरानी पत्रिकाएं, जिनके बल हिंदी जवां हुई, फैली, पसरी और लोगों के दिलों में जा बसी- यह सब कहानी, यहां आप सुन सकेंगे। देश के बनते इतिहास से लेकर हिंदी साहित्य के निर्माण की पूरी कहानी यहां दर्ज है। दर्ज है, एक गुमनाम अतीत। शीशे में बंद काठ पर उकेरी ओडिय़ा लिपि में प्राचीन साहित्य, जिसे अब दीमक पढऩे की कोशिश में लगे हैं।  

1918 में पड़ी थी नींव
तो, इस संतुलाल पुस्तकालय से पहले 1918 के आस-पास रामदेव मोदी व मामराज शर्मा के सहयोग से एक पुस्तकालय की स्थापना की गई थी। बाद में यह पुस्तकालय विलीन हो गया। मामराज शर्मा छोटानागपुर पत्रिका के संपादक थे। पत्र के माध्यम से वह इस पठार में दर्जनों बोलियों की बीच हिंदी की सेवा करते थे। उनकी मृत्यु के बाद पत्रिका बंद हो गई और हस्तलिखित रूप से निकाली जाती रही। इसके बाद 1924 में हिंद स्वाधीन पुस्तकालय की स्थापना की गई। स्थापना के दो साल बाद ही यह भी लड़खड़ाने लगी। तब समाजसेवी गंगा प्रसाद बुधिया ने इसे पकड़ लिया। गंगा प्रसाद ने अपने स्वर्गीय भ्राता संतुलाल के नाम पर इसका नामकरण कर दिया। 1933 में इसे अपना नया भवन मिला। इसके बाद तब से यहीं पर है। पुस्तकालय एक बड़े हाल में है। दीवारों में लगी हुई आलमारियों में पुस्तकें सजी हैं। दूसरे तल्ले का उद्घाटन 10 नवंबर, 1960 को हुआ था, जिसकी अध्यक्षता डा. राममनोहर लोहिया ने की थी।  

क्या-क्या है
हिंदी स्वाधीन पुस्तकालय से कुल 779 पुस्तकें मिली थीं। 1955 में पुस्तकों की संख्या 11 हजार पार कर कई। 1960 में चौदह हजार और आज यहां पचास हजार से कम पुस्तकें नहीं होंगी। यहां संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी की हजारों पुरानी किताबें हैं। रवींद्रनाथ टैगोर का हिंदी में साहित्य यहां कई खंडों में उपलब्ध है। उसके आरंभिक अनुवादकर्ताओं के बारे में भी आप जान सकते हैं। 1966 में यहां दस दैनिक समाचार पत्र, 14 साप्ताहिक पत्र, दो पाक्षिक 42 मासिक, 10 बालोपयोगी पत्रिकाएं आती थीं। आर्यावार्त, नवभारत टाइम्स, प्रदीप, विश्वमित्र, हिंदुस्तान, हिंदुस्तान स्टैंडर्ड, इंडियन नेशन, सर्च लाइट, टाइम्स आफ इंडिया, स्टेटसमैन जैसे दैनिक पत्र आते थे। अब तो बस रांची से निकलने वाले पत्र ही आते हैं, लेकिन इन पत्र-पत्रिकाओं की पुरानी फाइलें यहां देख सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में अमेरिकन रिपोर्टर, आदिवासी, आर्य मित्र, दिनमान, धर्मयुग, ब्लिट्ज, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे दर्जनों पत्रिकाएं आती थीं। मासिक पत्रों में ज्ञानोदय नेशनल माक्र्ससिस्ट, बिहान जैसे पत्र थे।

रेडियो के लिए जुटती थी भीड़
यहां रेडियो भी सुनने के लिए लोग जाते थे। कोलकाता के निवासी देवकीनंदन तोदी ने पुस्तकालय को एक रेडियो सेट दिया था। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की ओर से समय-समय पर फिल्म शो भी हुआ करता था। काफी लोगों की भीड़ यहां जुटती थी। 

अनमोल हैं पत्रिकाओं की पुरानी फाइलें 
पुस्तकालय में बीसवीं सदी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाएं हैं। हंस, बालक, सरस्वती के दुर्लभ अंक यहां देखे जा सकते हैं। इसके अलावा कई दुर्लभ पुस्तकें भी देख सकते हैं। जो यहां हैं, वह कहीं नहीं है। पर, इस पुस्तकालय के प्रति यहां के पढऩे-लिखने वालों ने भी अपना मुंह फेर लिया है। यहां रांची विवि है, शहर में आधा दर्जन कालेज है, लेकिन हिंदी का शोधार्थी शायद ही कभी जाता हो। हिंदी की रोटी खाने वालों को भी इस खजाने की चिंता नहीं है। होती को किताबों पर धूल की परतें न जमा होतीं। पुस्तकालय सहायक एनके मिश्रा क्या कर सकते हैं? वह तो समय से आते हैं, खोलते हैं। पाठक आते हैं, अखबार पढ़ते हैं। चले जाते हैं। हालांकि धर्म के नाम पर लाखों फूंकने वाला समाज साहित्य के प्रति इतना उदासीन क्यों है?

छह साल में रांची में सुहैल ने खोले 30 उर्दू स्कूल

मुसलमानों ही नहीं, आदिवासियों और ईसाइयों के बीच उर्दू के प्रचार-प्रसार को लेकर आजादी से पहले पटना के सुहैल अजीमाबादी ने रांची में कई स्कूल खोले। 1941 से 46 तक करीब तीस उर्दू स्कूल खुल चुके थे, लेकिन इसी बीच आजादी की सुगबुगाहट तेज हो गई। कई जगह दंगे भड़क गए और दंगों के कारण यह अभियान बंद कर देना पड़ा और सुहैल फिर वापस पटना चले गए। 
सुहैल अजीमाबादी के बारे में हम बहुत कम जानते हैं। उनमें देश की आजादी की भावना कूट-कूटकर भरी थी और इसके साथ उर्दू के प्रचार-प्रसार की भावना भी कम न थी। जुलाई, 1911 में उनकी पैदाइश पटना में हुई। अपने बारे में लिखा है, नाम मुजीब-उर-रहमान है, लेकिन सुहैल अजीमाबादी के नाम से प्रसिद्ध हूं। बिहार के एक जमींदार के यहां सन 1911 में पैदा हुआ, जन्मतिथि ज्ञात नहीं।
अपने मकान के बारे में लिखा है, बात यह है कि मेरा मकान जिला पटना में ही है, लेकिन मैं पैदा हुआ पटना शहर में। आज पटना यूनिवर्सिटी का जहां इकबाल हॉस्टल है, वही मकान था, जिसमें मेरा जन्म हुआ। 
सुहैल साहब का परिचय बाबा-ए-उर्दू मौलवी अब्दुल हक से हुआ तो उनके मुरीद ही हो गए। उनके निर्देशन पर उर्दू भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए छोटानागपुर जैसा आदिवासी क्षेत्र चुना। रांची में छोटानागपुर और उर्दू मरकज नाम से एक संस्था की स्थापना की। यह संस्था फरवरी, 1941 के बाद स्थापित हुई थी। उर्दू मरकज द्वारा सुहैल अजीमाबादी ने मुसलमानों में ही नहीं, आदिवासियों में उर्दू भाषा को लोकप्रिय बनाने और उसमें रुचि उत्पन्न कराने का काम किया। रांची में उन्हें मिस्टर उम नविल पटू जैसे उर्दू के अध्यापक का सहयोग मिला। उन्होंने रांची में एक हॉल किराये पर लेकर स्कूल स्थापित किया। यह काम आगे बढऩे लगा। बाबा-ए-उर्दू ने तीन सितंबर, 1941 को एक लंबा पत्र लिखा। उसमें यह भी लिखा, ईसाइयों में उर्दू खूब फैलाइए। यह बहुत बड़ा काम है, बल्कि बड़े पुण्य का काम है।
सुहैल उर्दू के प्रचार-प्रसार के लिए ईसाई और आदिवासियों के रीति-रिवाजों और उत्सवों में भाग लेने लगे थे ताकि मैत्री बढ़े। ईसाइयों में अपनी योजना को फैलाने के लिए अजीमाबादी को रेविरेंड स्मार्ट का सहयोग मिला था। इन सबके बावजूद वह अंजुमन से या मौलवी हक से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता लेने को तैयार नहीं थे। 
सुहैल ने रेवरेंड स्मार्ट को पचास रुपये मासिक पर ईसाइयों में उर्दू के प्रचार के लिए मना लिया था। उर्दू मरकज के लिए भूमि भेंट में ली। ईसाई बच्चों को उर्दू सीखने पर पुरस्कार देना शुरू किया। उर्दू स्कूलों की संख्या बढ़ाई गई। संताल में भी उर्दू के लिए मरकज स्थापित किए। 
1941 से 1946 तक खूब तेजी से उर्दू का प्रचार-प्रसार हुआ। स्कूल खुले। छोटानागपुर से लेकर संताल परगना तक। लेकिन 1947 में जब देश का विभाजन हुआ तो इसका असर इस संस्था पर भी पड़ा। सुहैल को अपना मिशन छोडऩा पड़ा। विभाजन से पहले सात सालों में करीब तीस स्कूल स्थापित हुए थे। लेकिन देश बंटवारे ने सब खत्म कर दिया। मौलवी साहब पाकिस्तान चले गए। मरकज को भी बंद कर देना पड़ा। सुहैल रांची से पटना लौट गए। 
रांची से सुहैल अजीमाबादी की वापसी देश विभाजन के दंगों के बाद हुई थी। उन सांप्रदायिक दंगों में उनके घर की बर्बादी भी हुई थी, जिससे प्रभावित होकर रामानंद सागर ने अपना उपन्यास 'और इंसान मर गयाÓ का समर्पण सुहैल अजीमाबादी के नाम किया था। सुहैल की बाद में 1955 में आकाशवाणी में नियुक्ति हो गई। श्रीनगर में सेवा-भार संभाला। फिर दिल्ली आए और पटना में 1970 में अवकाश ग्रहण किया। सुहैल एक अच्छे कहानीकार थे। इसके अलावा सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर भी खूब लिखा। तहजीब, पटना, मार्च 1953 के अंक में बिरसा भगवान, बिहार के आदिवासी आदि लेख लिखे। उनका निधन 29 नवंबर 1979 को इलाहाबाद में हुआ। वे दिल्ली गए थे एक कार्यक्रम में भाग लेने। वहां से 26 को इलाहाबाद आए और प्रेमचंद के पुत्र अमृत राय के घर पर ठहरे। यहीं पर दिल का दौरा पड़ा और 29 को अंतिम सांस ली।   
सुहैल साहब 20 साल की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। सन् 1932 में वे कलकत्ता के अखबार हमदर्द से जुड़ गए। उनके अंग्रेज विरोधी एक संपादकीय पर जब अखबार से जमानत मांगी गई तो हमदर्द बंद हो गया। इसके बाद वे मौलवी अब्दुल हक के मिशन में लग गए और रांची चले आए उर्दू के प्रचार-प्रसार के लिए। यहां उर्दू का प्रचार तो किया ही, कुछ लिखा भी। कहानी, नाटक, शायरी। हर विधा में उस्ताद थे। लेकिन आज रांची ही उन्हें भूला बैठा है।

गांधी ने संत पॉल स्कूल के मैदान में दिया था भाषण

चर्च रोड स्थित संत पॉल स्कूल के मैदान में महात्मा गांधी ने 17 सितंबर, 1925 को अपराह्न तीन बजे एक सभा को संबोधित किया था। सभा में रांची की जनता की ओर से उन्हें एक मानपत्र तथा देशबंधु स्मारक कोष के लिए एक हजार एक रुपये की थैली भी भेंट की गई थी।  
गांधीजी ने इस सभा में कहा था कि सिर्फ चरखा ही भारत के करोड़ों लोगों की भूख मिटा सकता है। बेशक खाली समय में करने को और भी धंधे हैं, परन्तु जिसे लाखों लोग अपना सकें, ऐसा उपयुक्त धंधा चरखे पर सूत कातने के अलावा और कोई नहीं है। मैं पूरे देश में घूमता रहा हूं, लेकिन अभी तक किसी ने कोई ऐसा धंधा नहीं सुझाया जो चरखे का स्थान ले सके। बिहार के पास एक लाख रुपये की खादी पड़ी है। यदि वह बिक जाए तो प्राप्त धन से दूनी खादी बन सकेगी है। अकेला रांची ही आसानी से इतनी खादी खरीद सकता है। लोग मिल के कपड़े को स्वदेशी मान लेते हैं, लेकिन दिल्ली और बंबई के बने बिस्कुट क्या घर की रोटी का स्थान ले सकते हैं? तब फिर आपको भी बंबई की मिलों में बने कपड़े के बजाय बिहार में बनी खादी क्यों नहीं पहननी चाहिए?
यदि आपको अपनी निर्वसना मां-बहनों का तन ढंकना हो तो आपको खादी ही खरीदनी चाहिए। खादी अपेक्षाकृत महंगी है तो क्या हुआ, उसके लिए दी गई हर पाई गांवों की गरीब स्त्रियों को मिलती है। बंबई के अंत्यजों की रक्षा इसी चरखे ने की है।
अस्पृश्यता को समस्या का उल्लेख करते हुए गांधीजी ने कहा कि हिंदू धर्म में अस्पृश्यता जैसी कोई चीज नहीं है। इसी अस्पृश्यता ने भारतीयों को सारे संसार में अस्पृश्य बना दिया है। आपको इन अस्पृश्य भारतीयों की दशा देखनी हो तो दक्षिण अफ्रिका जाइए, आपको मालूम होगा कि अस्पृश्तया क्या चीज है। स्वर्गीय गोखले इसे अच्छी तरह जानते थे और अब भारत भी जान गया है। तुलसीदास ने आपको दया-धर्म की शिक्षा दी है, लेकिन आज आप उसके विपरीत आचरण कर रहे हैं। आपको अस्पृश्यता की यह समस्या दूर करती ही है, अन्यथा स्वराज्य कभी नहीं मिल सकता।
प्रस्तुति : संजय कृष्ण।

आजादी की लड़ाई में पलामू के योद्धाओं ने लिखी इबारत

देश की आजादी में पलामू का भी योगदान रहा है। मुल्क को आजाद कराने में पलामू के युवकों ने हर स्तर पर कुर्बानी दी। इसमें स्वतंत्रता सेनानी केश्वर विश्वकर्मा, हरिनाराण वाजपेयी, महावीर प्रसाद, नीलकंठ सहाय, यदुवर सहाय समेत कई योद्धा शामिल थे। इनमें अब नीलकंठ सहाय को छोड़कर इस दुनियां में कोई नहीं रहा। हां स्वतंत्रता की लड़ाई में उनकी कुर्बानी की गाथा लोगों को याद है। जरूरत है नवयुवकों को अंग्रेजी शासनकाल में उनकी छीन ली गई शारीरिक,आर्थिक,सामाजिक व राजनीतिक आजादी की कहानी से रूबरू कराने की। प्रस्तुत है  पलामू जिला के विश्रामपुर प्रखंड के कंडा गांव निवासी स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय केश्वर विश्वकर्मा की कहानी।

केश्वर विश्वविश्वकर्मा
वर्ष 1918 में रामजतन विश्वकर्मा के घर पर केश्वर विश्वकर्मा का जन्म हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा कंडा गांव में हुई थी। वे समाज में मृदुभाषी व कोमल स्वभाव के व्यक्ति के रूप में पहचाने जाने लगे। केश्वर विश्वकर्मा होश संभालते ही अंग्रेजी हुकूमत का विरोध शुरू कर दिया। जवान होते ही भारतीयों के शोषण के खिलाफ वे आजाद भारत अभियान में कूद पड़े। उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा कि क्या खोया व पाया। भारत आजाद हुआ और अपने परिजनों के साथ आजाद भारत में 68 बसंत देखे। उन्होंने अपने 18 वर्ष की उम्र में कांग्रेस से प्रभावित होकर 1936 में कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की। वे अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में कूद पड़े। 1940 में रामगढ़ में हुए कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आसपास के दर्जनों पुल-पुलिया को काटकर सड़क अवरुद्ध कर दिया। इनकी देश भक्ति देख अंग्रेजी शासन आक्रोशित हो उठा। अंग्रेजो ने इन्हें पकडऩे के लिए स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अभियान चलाया। स्व.विश्वकर्मा अपने साथियों के साथ मिलकर सड़क काट रहे थे कि इसी बीच रास्ते से गुजर रही अंग्रेजी फौज की निगाह उन पर पड़ गई। अंग्रेज सिपाही उन्हें गिरफ्तार कर पटना के फुलवारी शरीफ स्थित कैंप जेल में डाल दिया। वहां 50 रुपये जुर्माना के साथ 18  माह तक की सजा काटी।

पुत्र के जेल जाते ही पिता चल बसे
जेल जाने की खबर को केश्वर विश्वकर्मा के पिता रामजतन विश्वकर्मा सहन नहीं कर सके। उनका हर्ट अटैक हो गया। इससे उनकी मौत हो गई। जेल से निकलने के 9 माह बाद 1943 मे राष्ट्र पिता महात्मा गांधी की भारत छोड़ो आंदोलन के शांत होते अन्य लोग भी जेल से बाहर आए। इसके बाद केश्वर फिर अपने साथियों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए।

इंदिरा गांधी व एपीजे अबुल कलाम ने किया था पुरस्कृत
स्वतंत्रता सेनानी स्व केश्वर विश्वकर्मा की मुलाकत देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद व प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से भी हुई। उनसे वे काफी प्रभावित होकर देश प्रेम व सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया। देश की प्रथम महिला प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी से उनकी 1972 में मुलाकात हुई। उन्हें प्रधानमंत्री ने ताम्र पत्र से  नवाजा था। देश के तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अबुल कलाम ने 2003 में दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन बुलाकर उन्हें सम्मानित किया था।

 कंडा गांव में रखी गांधी आश्रम की नींव
केश्वर विश्वकर्मा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या को सहन नहीं कर सके। वे हर रोज रात में घर में बैठकर रोते रहते थे। घर वालों की ओर से पूछने पर वे सहज ही बताते थे कि जिसने देश को आजाद कराया उसे मौत की सजा मिली। स्व. विश्वकर्मा गांधी जी से इतने प्रभावित थे कि वे गांव में ही गांधी स्मारक भी बनाने का संकल्प लिया। वे कंडा गांव स्थित एनएच 98 के किनारे गांधी आश्राम की नींव गांधी जी के दशगात्र के दिन 1948 में रखी। यह आज भी कायम है।

10 वर्षो तक की सरकारी सेवा
भारत को आजाद होने के बाद स्थानीय जिला प्रशासन की पहल पर स्व. विश्वकर्मा ने नौकरी भी की। वे गांव स्थित कंडा के डाकघर में 10 वर्षो तक सेवा की। वे नौकरी में बंधे रहना नहीं चाहते थे। वे नौकरी को छोड़कर समाज सेवा में कूद पड़े। इससे उनकी लोकप्रियता क्षेत्र में दिन प्रतिदिन बढ़ती गई। वे जीवन के अंत तक समाज सेवा के क्षेत्र में जुटे रहे।

1857 के गदर का गवाह राजहरा का बरगद

 गुलाम भारत को आजाद कराने के लिए देश के कोने-कोने में अलग-अलग लड़ाई लड़ी गई। इसमें हजारों लोगों को फांसी दी गई। मां ने बेटे को, पत्नी ने पति को व बहनों ने अपने भाई को खोया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कई लोग इतिहास के पन्नों में अपनी गाथा अमर कर गए। इनका गर्व से देश में नाम लिया जाता है। सैकड़ों शहीद होने के बावजूद गुमनाम रह गए। गुमनाम रहने वाले शहीदों में पलामू जिला के नावाबाजार प्रखंड का राजहरा गांव भी हैं। आजादी के सात दशकों बाद भी यह अब तक गुमनाम है। इस क्षेत्र ने 1857 के गदर में अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। 1857 ई.में गदर का गवाह बना है राजहारा कोठी स्थित बरगद का विशाल बूढ़ा पेड़। यहां 200 से ज्यादा लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था। इसका उद्देश्य  था 1857 के गदर  में भाग लेने वाले लोगों को दबाना। इस बरगद के पेड़ के नीचे रह वर्ष नवंबर माह की 27 से 29  तारीख तक लोग श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

जुल्म के खिलाफ लोगों में था उबाल

खंडहर में तब्दील अंग्रेजों की कोठी 1857 की गदर में लोगों पर हुए जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने वाले शहीदों की याद दिलाता है। जानकारी के अनुसार 1857 के पूर्व राजहारा क्षेत्र में बंगाल कोल कंपनी का माईंस संचालित था। इस पर अंग्रेजों का अधिकार था। 1857 ई. में  देश में ढाए जा रहे जुल्म के प्रति मजदूरों में उबाल आया। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ राजहारा कोलियरी के मजदूरों ने आवाज बुलंद की। आस-पास के गांव के सैकड़ों लोग राजहरा कोठी स्थित अंग्रेजों के बंगला को घेर लिया। माइङ्क्षनग कार्य बंद कर आजादी की लड़ाई का बिगुल फूंक दिया। अंग्रेजों ने इन्हें फांसी पर लटका दिया।

27 से 29 नवंबर 1857 तक काला दिन

रजहरा में  प्रथम स्वंतत्रता की लड़ाई में शामिल लोगों को फांसी दिए जाने के साक्षी विशाल बरगद का पेड़ आज भी जीवित है। इसका वर्णन स्थानीय इतिहासकार  डॉ. बी.निरोत्तम ने किया है। लिखित पुस्तक झारखंड का इतिहास व संस्कृति में बताते हैं कि 27 से 29 नवंबर 1857 के  तीन दिन राजहारा के लिए काला दिन साबित हुआ। 27 नवंबर 1857 को पारंपरिक हथियार व बंदूकों से लैस कई हजार आंदोलनकारी का जत्था राजहारा पहुंचा। यहां बंगाल कोल कंपनी माइङ्क्षनग का काम कर रही थी। आजादी के दीवानों ने बंगाल कोल कंपनी को जला दिया। साथ ही मशीनों को बर्बाद किया। इसमें दर्जनों  बहुसंख्यक ब्राह्मण गांव के बसे ब्राह्मण सहित भोक्ता व खरवार मौजूद थे। सभी विश्रामपुर राजपरिवार के भवानी बक्सराय की देखरेख में आगे बढ़ रहे थे। इनमें से लगभग 200 राष्ट्रभक्तों को 27 नवंबर 1857 को गिरफ्तार कर लिया गया।  28 व 29 नवंबर को राजहरा कोठी स्थित बरगद के पेड़ में फांसी दे दी गई। लोगों की माने तो शहीद क्रांतिकारियों के परिजन को इसकी सूचना भी नहीं दी गई। आजादी की पहली लड़ाई में फांसी पर चढ़े वीर शहीदों के परिजनों व आश्रितों की खोज खबर भी नहीं ली गई। इस लिए आज ये सभी शहीद गुमनाम बनकर रह गए।

 लोगों की जुबानी गदरकी कहानी

राजहारा गांव निवासी रङ्क्षवद्र पांडेय ने बताया उनके पूर्वज बताते हैं कि कोल कंपनी  अंग्रेजों की देखरेख में  संचालित था। इस पर 1857 ईस्वी में  अधिकार भी था। विद्रोह के समय  स्थानीय  लोगों सहित  आसपास के दर्जनों गांव के लोगों ने अंग्रेजों की  वर्तमान गतिविधि के खिलाफ  आंदोलन किया। कंपनी को भारी नुकसान पहुंचाया।  अंग्रेजी हुकुमत ने इन्हें पकड़कर राजहारा कोठी स्थित बरगद के पेड़ पर लटका कर फांसी दी गई थी। संख्या स्पष्ट नहीं हो पाता है । रामाकांत पांडेय ने कहा कि 1857 में हुए विद्रोह की स्पष्ट जानकारी नहीं मिल पाती है। हां यहां एक आंदोलन हुआ था। इसमें कई लोगों की जाने गई थी। वह कौन थे और कहां से आए थे इसकी जानकारी स्पष्ट नहीं हो पाती। राजहारा निवासी बंशीधर पांडेय ने बताया कि वे अपने दादा राम चरित्र पांडेय व पिता मुनी पांडेय से राजहारा कोठी स्थित शहीदों की कहानी सुनी है। राजहरा कोठी की घटना सही है। इसमें कितने लोगों को फांसी दी गई जानकारी नहीं। ऐसी जगह की पहचान विश्व पटल पर मिलनी चाहिए।

 

लोकसंस्कृति के अध्येता जगदीश त्रिगुणायत

लोक साहित्य के अध्येताओं के लिए जगदीश त्रिगुणायत का नाम अनजाना नहीं होना चाहिए। नाम से भी परिचित होंगे और असाधारण काम से भी। हिंदी-भोजपुरी समाज से वास्ता रखने वाले इस लोक साधक ने एक दूसरे गोत्र की भाषा-संस्कृति के अध्ययन-मनन में अपने जीवन को लगा दिया। उनकी साधना एकनिष्ठ थी। किसी प्राप्य की अपेक्षा नहीं थी। ऐसे साधक को जीते जी ही हमने भुला दिया और जब सात सितंबर, 2010 को अपने जनपद देवरिया (उत्तरप्रदेश) में रहते हुए 87 साल की उम्र में दुनिया से विदा हुए तो हिंदी समाज ने भी कोई नोटिस नहीं ली।
उनका जन्म देवरिया में ही एक मार्च 1923 को हुआ था। महज 18 साल की उम्र में वे झारखंड चले आए। झारखंड में रहते हुए उन्होंने एक बड़ा काम किया। यद्यपि वे आए थे दूसरे काम से। 1941 में महात्मा गांधी और डा. राजेंद्र प्रसाद की प्रेरणा से खादी ग्रामोद्योग के प्रचार-प्रसार के सिलसिले यहां भेजे गए थे। वे अकेले नहीं आए थे, बल्कि उनकी मंडली में पांच आदमी थे- मोती बीए, सदानंद ब्रह्मचारी, कवि शंभुनाथ सिंह और एक उपाध्यायजी और वे खुद। रांची के जगन्नाथपुर के पास तिरिल आश्रम इनका ठिकाना था। आश्रम भी 1929 में ही खुला था। इस ग्रामोद्योग का उद्देश्य आदिवासियों में आजादी के प्रति जागृति, उनका उत्थान, चरखा का प्रचार आदि शामिल था। ये लोग एक साल तक छोटानागपुर के गांवों को घूमते रहे। गांवों की संस्कृति-संस्कार, रहन-सहन, नृत्य-गीत, रीति-रिवाज को देखते-परखते रहे। देखते-परखते कुछ लोगों को झारखंड की आबोहवा भा गई तो वे यहीं के होकर रह गए। पर कुछ अपनी निजी जिम्मेदारियों या अन्य वजहों से यहां से चले गए। उन दिनों की प्रकृति को लेकर शंभुनाथ सिंह ने लिखा है, 'सुबह जब पहाड़ी पर निकलते थे, पूरा रास्ता फूलों की सुगंध से मादक हो जाता था। इतनी स्वच्छता थी कि कोई भी यहां के देहातों में रह सकता है। पेड़-पौधे, आकाश, वायु सभी स्वच्छता की आभा से दमक रहे हैं।Ó शंभुनाथ सिंह एक साल के बाद एमए करने के लिए इलाहाबाद चले गए। इसी तरह और लोग भी यहां से चले गए सिवाय सदानंद ब्रह्मचारी और जगदीश त्रिगुणायतजी के। सदानंद भी दूसरे कामों में लग गए। बच गए त्रिगुणायतजी। इनसे प्रकृति कुछ और काम कराना चाहती थी। आए थे प्रचार-प्रसार करने। यह काम चल रहा था कि इस बीच खूंटी हाई स्कूल बना तो त्रिगुणायतजी उसमें प्राध्यापक हो गए और वहीं छात्रावास में छात्रों के साथ रहने लगे। बहुत दिनों तक वहां अध्यापकी की। जब रांची के एक छोर धुर्वा में 1958 में एचईसी की स्थापना  हुई, त्रिगुणायतजी वहां जनसपंर्क अधिकारी के रूप में पदस्थापित हो गए और यहीं से सन् 1981 में अवकाश लिया। इसके बाद भी 1991 तक रांची में रहे। फिर अपने जनपद देवरिया लौट गए। वहीं हाल में ही सात सितंबर, 2010 को उनका निधन हुआ। त्रिगुणायतजी जब एचइसी में जनसंपर्क अधिकारी थे, तब हर साल कवि सम्मेलन का आयोजन कराते। उस समय के हिंदी के अनेक महत्वपूर्ण कवि भाग लेने रांची आते। इस तरह हिंदी साहित्य में भी एक रांची की पहचान बन रही थी। 
खूंटी में रहते हुए वे मुंडा संस्कृति के संपर्क में आए। यहीं पर मुंडारी गीतों को सुनते हुए उनके संकलन की बात सोची।  फादर हाफमैन यह काम पहले कर चुके थे। दो सौ मुंडारी गीतों का उन्होंने अंग्रेजी अनुवाद किया था। आर्चर ने भी कुछ काम किया। सब अंग्रेजी में। जगदीशजी ने यह काम हिंदी में किया। एक लंबा समय गीतों के अध्ययन में लगाया। मुंडा भाषा सीखा। सभी जानते हैं, मुंडा आस्ट्रिक-परिवार की भाषा है। फिर भी अपने अध्यवसाय से सीखा और मुंडारी गीतों की लय पकड़ी। इसके बाद पुस्तक तैयार हुई तो बिहार ग्रंथ अकादमी ने 'बांसरी बज रहीÓ नाम से इसे छापा। पहले संस्करण की भूमिका शिवपूजन सहाय ने लिखी। फिर कुमार विमल जब अकादमी के निदेशक थे, तब पुस्तक के बारे में एक गंभीर भूमिका लिखी। दूसरा संस्करण 1971 में आया था और पहला 1957 में। निराला और पंत ने अपनी अमूल्य सम्मतियां दी, जिसे दूसरे संस्करण में प्रकाशित किया गया। 527 पेज की पुस्तक में 63 पेज की भूमिका सिर्फ लोकगीत के इतिहास, नृतत्वशास्त्र, परंपरा, मुंडा संस्कृति के बारे में ही पड़ताल नहीं करती, मुंडा समाज के अध्येता रहे फादर हाफमैन और शरतचंद्र राय की लोकगीतों के अंग्रेजी अनुवाद की कमियों के बारे में भी सोदाहरण प्रकाश डालती है। इस तरह यह भूमिका एक मशाल की तरह काम करती है। उनकी यह भूमिका पढऩे के बाद ही कुछ और जानने की इच्छा हुई तो एक सुबह उनके शिष्य पद्मश्री डा. रामदयाल मुंडा से उनके आवास पर मिला। त्रिगुणायतजी के बारे में पूछा तो बड़े भावुक हो गए। कहने लगे, उनका रुझान शुरू से ही आदिवासी जीवन के प्रति रहा। यहां के लोक गीत, लोक नृत्य और लोक कथाओं के बारे में अधिकाधिक जानने का उत्सुक रहते। अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए कभी छात्रावास के बच्चों से पूछते, कभी आस-पास के पुराने लोगों सेे। कभी खुद गांवों में निकल पड़ते और रात उन्हीं लोगों के साथ गुजारते। सात्विक प्रवृत्ति के कारण कभी-कभी गंावों में माड़-भात पर ही गुजारा कर लेते और पुआल पर सोकर रात गुजार लेते। इस तरह खुद भी गीतों का संग्रह करते और छात्रावास के बच्चों को भी एक-एक  गीत लिखकर ले आने को प्रेरित करते। इसी प्रक्रिया के तहत उन्होंने मुंडारी गीतों को संग्रहित किया। अब मुंडाजी भी जीवित नहीं हैं। मुंडाजी ने ही त्रिगुणायतजी का मोबाइल नंबर दिया था। यह वाकया 2007-08 का है। फिर उनसे बातचीत हुई तो त्रिगुणायतजी बताने लगे, 'उनकी (आदिवासियों) सेवा करने का मौका नहीं मिलता तो उनकी संस्कृति को नहीं जान पाते। उनके गीतों के संग्रह के लिए पहले उनके दुख-सुख में शामिल हुआ। उनके जीवन संघर्षों को समझा। उनके साथ आत्मीयता कायम की। उनको समझने का प्रयत्न किया। उन्होंने भी मुझे समझा और मुझपर विश्वास किया। इस तरह उनके साथ एक रिश्ता बना जो विश्वास की डोर से बंधा था।Ó
त्रिगुणायतजी तो हिंदी-भोजपुरी भाषी थे, लेकिन काम किया मुंडा और उरांवों की भाषा पर। वह लिखते हैं, मुंडा भाषा की मौलिक शब्दावली में वन-पर्वत संबंधी वस्तुओं के शब्दों की भरमार है, पशु-पालन, ग्राम व्यवस्था तथा खेती बारी संबंधी मौलिक शब्द इस जाति की मूल संस्कृति पर प्रकाश डालते हैं। धातु के बर्तन, कपास के वस्त्र, वाणिज्य व्यवसाय, कर्ज, महाजन, आदि संबंधी शब्द मुंडा भाषा के अपने नहीं हैं। मुंडारी में इन बातों के लिए आर्य भाषाओं के शब्दों को देखकर पता चलता है कि मुंडाओं की मूल संस्कृति में ये बातें विद्यमान नहीं थीं, किंतु नृत्य, गान, वाद्य, बांसुरी आदि के उनके अपने शब्द हैं। (बांसरी बज रही- पृष्ठ तीन)।  त्रिगुणायत जी ने लिखा है, मुंडाओं की भाषा, छोटानागपुर पहाडिय़ों की संथाल, हो तथा अन्य जातियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के साथ भाषाओं के उस परिवार से संबंध रखती हैं जिसे आस्ट्रो-एशियाटिक कहते हैं और जिसमें मान-ख्मेर, वापालंग, निकोवारी, खासी, मलक्का की आदिवासी भाषाएं सम्मिलित हैं। त्रिगुणायतजी लिखते हैं, 'मुंडा छोटानागपुर कब आए, इसका तो पता नहीं, पर यहां आने पर उनकी दो शाखाएं हुईं, जिनमें एक शाखा 'संथालÓ, आधुकि संथाल परगना की ओर बढ़ी और दूसरी शाखा मुंडा रांची की पच्छिमी घाटियों में उतरी। कुछ दिन बाद, जब उरांव, कर्नाटक की ओर से, नर्वदा के तटों पर होते हुए, विन्ध्य की घाटियों से सोन की घाटी में आकर और कुछ दिन बाद रोहतासगढ़ में राज्यकर, किसी राजा द्वारा हटाए जाने पर, रांची के उसी भाग में आए, तब मुंडा पूरब-दक्षिण की ओर सरक गए। रांची के पच्छिमी भाग में, जो आज उरांवों का क्षेत्र बन चुका है, एक दिन मुंडा सभ्यता की खेती लहरा रही थी। उसके छूटे-छटके हुए बीज, वहां की धरती में मौजूद हैं जो पीले धान के खेत में, लाल बालियों की तरह सरलता से पहचान लिए जा सकते हैं।Ó
त्रिगुणायतजी की 'बांसरी बज रहीÓ हिंदी साहित्य के लिए तो और भी महत्वपूर्ण है। उनकी 'मुंडारी लोक कथाएंÓ की भी 94 पेज की भूमिका त्रिगुणायतजी के व्यक्तित्व को ही नहीं खोलती है, बल्कि भारत की आदिम राग-रागिनियां, संस्कृति-संस्कार, प्रवृत्ति-परंपरा, मिलन-बिछोह के न जाने कितने अनछुए कथा-प्रसंग भी खुलती है। त्रिगुणायतजी ने भाषा पर और भी काम किया था। इसके साथ ही वे बांग्ला के भी जानकार थे। शिवपूजन सहाय ने लिखा था कि 'आप (त्रिगुणायतजी)हिंदी के कवि भी हैं, तथा अंगरेजी और बांग्ला की कविताओं का हिंदी पद्यानुवाद भी किया है। 'अरुणोदयÓ और 'छायागानÓ नामक पुस्तकों में मौलिक और अनुदित कविताएं प्रकाशित हैं।Ó त्रिगुणायतजी ने रांची से ही प्रकाशित आदिवासी पत्रिका और देश की दूसरी पत्रिकाओं में भी लेख आदि लिखा करते थे जो आदिवासी और भारतीय संस्कृति से जुड़े होते थे। आज उन्हें खोजने-सहेजने की जरूरत है।


प्रतिभासम्पन्न साहित्यकार डॉ. श्यामसुन्दर घोष

झारखण्ड की धरती जितनी रत्नगर्भा है उतनी ही साहित्य प्रवण भी। यहाँ के साहित्यकारों/ रचानाकारों ने अपनी रचनाओं से हिन्दी साहित्य को अत्यन्त समृद्ध किया है। मूर्द्धन्य कहानीकार राधाकृष्ण उर्फ ‘लाल बाबू’, नाटककार एवं नाट्य विशेषज्ञ डॉ. सिद्धनाथ कुमार, प्रख्यात भाषाविद आचार्य दिनेश्वर प्रसाद को भला कौन नहीं जानता। इसी तरह डॉ. श्रवण कुमार गोस्वामी, प्रो0 अशोक प्रियदर्शी, डॉ. ऋता शुक्ल अत्यन्त समाहृत विद्वान एवं रचनाकार हैं। इसी क्रम में गोड्ा (झारखण्ड) निवासी, डॉ. श्याम सुन्दर घोष का योगदान भी कम उल्लेखनीय नहीं है।

डॉ. श्यामसुन्दर घोष जीवन और साहित्य के विश्लेषण में पारंगत थे। उनकी दृष्टि से मानव-जीवन और भाषा एवं साहित्य का कोई कोण नहीं छूटता था। वे एक सामान्य सी बात से शुरू करके अपनी तीक्ष्ण विवेचनात्मक दृष्टि से बड़ी बात कह जाते हैं और खूबी यह की उनकी बातें इतनी सटिक होती हैं कि कोई उसे झुठला नहीं सकता और वे ऐसे विरले लेखक थे जो आलोचना की भी आलोचना करने से नहीं चूकते। डॉ. घोष ने साहित्य की सभी विधाओं में लिखा है। वे एक सिद्धहस्त लेखक थे। उनके लिए लेखन एक व्यसन था, जो लग गया, सो लग गया। उनकी पैठ सभी प्रकार के लेखन में थी, चाहे वह लेखन किसी भी प्रकार का क्यों न हो। वे आलोचना लिखते थे तो कविता भी करते थे। व्यंग्य लिखते थे तो भाषा विषयक लेखन भी करते थे। उन्होंने अपने लेखन में जीवन की सभी प्रकार की संवेदना को स्वर दिया है।

डॉ. घोष निरन्तर लिख रहे थे। उनकी लगभग साठ पुस्तकें प्रकाशित हुई होंगी। वैसे तो उन्होंने गीत-प्रगीत और कविताएँ भी लिखी हैं। परन्तु, डॉ. हरिवंश राय बच्चन पर लिखी इनकी समीक्षा अत्यधिक चर्चित है। मुझे उनका भाषा विषयक लेखन अच्छा लगता है। अब यह भी नहीं की दूसरे विषयों पर उनके लेखन की मैं कद्र नहीं करती। सच तो यह है कि मैं उनकी कद्रदान हूँ। परन्तु, आज के समाज में भाषा के प्रति जो उदासी का व्यामोह व्याप्त है, इस पृष्ठभूमि में ’भाषाचिन्तननामा’ नामक, डॉ. घोष की पुस्तक ’रोशनी’ का काम करती है। इस पुस्तक का फलक बहुत व्यापक है। निस्संदेह ही यह पुस्तक व्यापक तौर पर भाषा और बोलियों के महत्त्व और उसकी उपयोगिता को समझने के लिए हमें बाध्य करती है। पुस्तक में एक ओर जहाँ लेखक ने ’भाषायी हीनता-भाव’ और ’भाषा की फजीहत’ पर विवेचन किया है तो दूसरी ओर उसने ’भाषा के विकास में जन और  अभिजन की भूमिका’ व भाषाओं और बोलियों की समीपता


का अर्थ-सन्दर्भ भी ढूढ़ने की भी चेष्टा की है। इतना ही नहीं विद्वान लेखक ने भाषा में शुद्धतावाद और भाषा में सेंधमारी की पड़ताल की है, तो, भाषाओं को सरकारी दर्ज़ा देने के सवाल और ’हिन्दी दिवस’ नहीं, भारतीय भाषा दिवस’ जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर भी विमर्श किया है। आखिर सवाल सिर्फ़ हिन्दी का नहीं अपितु व्यापक तौर पर सभी भारतीय भाषाओं और बोलियों की अस्मिता का प्रश्न भी है।

झारखंड के वाटरमैन सिमोन उरांव

सिमोन उरांव  फोटोसाभारआनंद बाजार
सिमोन उरांव ठेठ देशज आदमी हैं। गांव के। गांव के लोगों से जो सीखा, उसे समाज को दे दिया। केंद्र सरकार ने उन्हें 2016 में पद्मश्री से नवाजा। सिमोन की खासियत ही कुछ ऐसी है कि रांची जिले के बेड़ो प्रखंड के दर्जनों गांवों के लोग लोग उनके मुरीद हैं। जनता का अथाह प्यार उन्हें मिला और आज भी मिल रहा है। ग्रामीणों के सहयोग से तीन-तीन बांध, पांच तालाब और कुओं की लंबी शृंखला खड़ी कर दी। महज साक्षर भर होकर उन्होंने जल प्रबंधन के क्षेत्र में जो कर दिखाया है, वह न सिर्फ बेड़ो, बल्कि पूरे राज्य और राष्ट्र के लिए विकास के लिए सबक है। सिमोन ने लगभग चार किलोमीटर की परिधि में फैले वनक्षेत्र पर गांव के ही लोगों का पहरा बिठा दिया, ताकि माफिया से वन एवं पर्यावरण की रक्षा हो सके। अब से लगभग पांच दशक पूर्व जहां इस इलाके के सैकड़ों एकड़ भूमि डूब क्षेत्र थे, आज वहां फसलें लहलहा रही हैं। पलायन जिस क्षेत्र की मजबूरी थी, आज सभी हाथों में रोजगार है। 
सिमोन ने 1955 से 1970 के बीच बांध बनाने का अभियान जोरदार ढंग से चलाया। लोगों को बताया, समझाया।  इसके बाद लोग जुड़ते चले गए। जब उन्होंने यह काम शुरू किया तो 500 लोग भी उनसे जुड़कर जल संरक्षण की दिशा में काम करने लगे। पांच हजार फीट नहर काटकर, 42 फीट ऊंचा बांध बनाकर 50 एकड़ में सिंचाई की सुविधा की। उन्होंने भी यह महसूस किया कि बांध बनाने से बहुत मदद मिल रही है। वे आज भी जल संरक्षण, वन रक्षा और पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करते हैं। उन्होंने अनपढ़ होते हुए भी गांव में आठवीं क्लास तक पढ़ाई शुरू कराने में सफलता पाई। सिमोन जमीन पर गांव वालों का अधिकार मानते हैं। उन्होंने तीर-धनुष लेकर पेड़ों की कटाई का विरोध किया। पर्यावरण संरक्षण के मकसद को पूरा करने के लिए दो बाल जेल जा चुके हैं और दोनों बार अदालत ने उन्हें समाजिक कार्यकर्ता बताकर रिहा कर दिया।
पानी के बेतरतीब बहाव की वजह से जहां बरसात के दिनों में सैकड़ों एकड़ भूमि जलमग्न रहा करती थी, वहीं बरसात के बाद सुखाड़ का आलम। रोटी की जुगाड़ में पलायन बेड़ो प्रखंड के नरपत्रा, झरिया, खरवागढ़ा, जाम टोली, वैद्य टोली, खक्सी टोला समेत आसपास के दर्जनों गांवों की कहानी थी। गांव में जल प्रबंधन का अभाव इसकी मूल वजह थी। उस समय सिमोन की उम्र तकरीबन 12-15 वर्ष की थी। खेती-बारी ही आजीविका का इकलौता साधन था, परंतु तब दो जून की रोटी का जुगाड़ भी बड़ा सवाल था। 60 के दशक में कुदाल-फावड़े के साथ जो खेतों को समृद्ध करने उतरे, आज भी उसी काम में जुटे हैं। 
सिमोन ने पूर्वजों के मिले पारंपरिक ज्ञान को ग्रामीणों के बीच बांटा। फिर मेहनत की बदौलत गांव की तस्वीर बदलने की समेकित योजना तैयार की। काम मुश्किल था, परंतु ग्रामीणों के सहयोग से मंजिल मिलती गई। लगभग दशक भर की कड़ी मेहनत के बाद पहले गायघाट, फिर झरिया और फिर देशपल्ली बांध बनकर तैयार हो गया। इससे जहां सैकड़ों एकड़ भूमि डूब क्षेत्र से बाहर निकल गई, वहीं बांध बन जाने से पानी के भंडारण की समस्या दूर हो गई। ग्रामीणों के सहयोग से इस बांध के सहारे 5500 फीट लंबी नहर निकाली गई। फिर क्या फसलें लहलहा उठीं। ग्रामीणों में नई ऊर्जा का संचार हुआ। फिर वैसे क्षेत्र जहां बांध का पानी नहीं पहुंच सकता था, ग्रामीणों सहयोग से पांच तालाब और 10 कुएं खोद डाले गए। 
आजादी से पहले और आजादी के बाद बांध निर्माण की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से उत्पन्न विस्थापन की समस्या से सबक लेते हुए हमने बांध का निर्माण सुनियोजित तरीके से करने की कोशिश की। हमारे पास न ही कोई खास तकनीक थी और न ही फंड। सब कुछ ग्रामीणों की हिम्मत और उनकी मेहनत पर केंद्रित था। मिट्टी का क्षरण न हो, सो बांध के किनारे-किनारे पौधे लगाते चले गए। बांध बनाने, जलाशयों के निर्माण आदि में में जिन 30 किसान परिवारों की जमीन गई, पुनर्वास के तौर पर उन्हें मत्स्य पालन से जोड़ दिया। 
वह एक बात का जिक्र करते हैं। 'देखो, सीखो, करो, खाओ और खिलाओÓ। इस भावना के साथ अगर हम आगे बढ़े तो गांवों की तस्वीर बदल जाए। जब ग्रामीण समृद्ध होंगे। उनका आर्थिक और सामाजिक स्तर ऊंचा उठेगा। समाज में व्याप्त विसंगतियां स्वत: दूर होती चली जाएंगी। धरती सोना है। यह जमीन फसाद की जड़ भी है और विकास का साधन भी। यह तो हमारा नजरिया है कि हम इसे किस रूप में लेते हैं। यह स्थापित सत्य है कि 'अगर आदमी जमीन से लड़ेगा तो विकास होगा और आदमी आदमी से लड़ेगा तो विनाश होगा।Ó 
जीवन संघर्ष का मैदान है। अगर आप इस पथ पर चलेंगे तो कांटे भी मिलेंगे, परंतु अगर आप सही मार्ग पर हैं तो जीत आपकी ही होगी, आप पराजित कदापि नहीं हो सकते। जब ग्रामीणों के सहयोग से हम जंगल से होकर नहर निकाल रहे थे, सरकारी महकमे के विरोध का सामना करना पड़ा। हमपर मुकदमे भी हुए, परंतु मानव मूल्यों के संवद्र्धन के लिए हमारे काम की सराहना हुई और फिर उसी सरकार ने मुकदमा वापस भी लिया। चाहे वह गांव हो, राज्य हो या फिर देश। विकास के मामले में सबको एकजुट रहना होगा। 
सिमोन को पर्यावरण संरक्षण के लि
ए पहले भी कई पुरस्कार मिले हैं-
-उन्हें अमेरिकन मेडल ऑफ ऑनर लिमिटेड स्टा्राकिंग 2002 पुरस्कार के लिए चुना गया।
-विकास भारती विशुनपुर से जल मित्र का सम्मान मिला।
-झारखंड सरकार की तरफ से सम्मान

योगदा आश्रम शांति का परम धाम




रांची स्टेशन से थोड़ी दूर स्थित योगदा आश्रम शांति का परम धाम है। शहर के बीचोंबीच इस आश्रम में पहुंचने से शहर का सारा शोरगुल शांत हो जाता है। यहां आने पर लगता है, हम किसी दूसरी दुनिया में आ गए हैं, जहां सिर्फ  शांति ही शांति है। प्रांगण की हरियाली, विभिन्न प्रकार के फूल खिलखिलाते हुए हर आंगतुक का स्वागत करते हैं और उन्हें सुकून बख्शते हैं। यहां वैसे तो हमेशा कार्यक्रम होते रहते हैं, लेकिन 'शरद संगमÓ कार्यक्रम सबसे बड़ा आयोजन होता है। यह शरद ऋतु में होता है। आश्रम क्रिया योग की पाठशाला है। 
1917 में स्थापना
रांची में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया की स्थापना 1917 में परमहंस योगानंद ने की थी। सात मार्च, 1977 को उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी करते हुए भारत सरकार ने कहा था, 'उनका स्थान भारत के महानतम संतों में हैं। उनका कार्य लगातार बढ़ रहा है। उनकी कांति विश्व भर के सत्यान्वेषियों को ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर आकर्षित कर रही है।Ó युवकों की शिक्षा में परमहंस जी की गहन अभिरुचि थी। 
राजा ने दी दान में जमीन
सन् 1918 में कासिम बाजार के महाराज मणींद्र चंद्र नंदी ने रांची में अपने महल और पचीस एकड़ भूमि आश्रम एवं विद्यालय के लिए दान दे दी, जिसे योगदा सत्संग ब्रह्मचर्य विद्यालय कहा जाता था। अब यह योगदा सत्संग शाखा मठ बन गया, जो पत्राचार कार्यालय एवं योगदा सत्संग पाठमाला एवं योगदा सत्संग सोसाइटी के प्रकाशनों के वितरण केंद्र का काम करता है।
1920 में उन्हें उनके गुरु ने अमेरिका में हो रहे उदारवादियों के विश्व धर्म सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भेजा। उस समय पूरे अमेरिका का दौरा किया और व्याख्यान दिया। 1936 में परमहंसजी ने योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया (वाइएसएस) को एक असांप्रदायिक और धर्मार्थ संस्था के रूप में पंजीकृत हुआ। वाइएसएस का पंजीकृत मुख्य कार्यालय योगदा सत्संग मठ है, जो दक्षिणेश्वर, कोलकाता में गंगा किनारे स्थित है। 
कौन हैं योगानंद परमहंस
उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में परमहंस योगानंद जी का जन्म पांच जनवरी, 1893 को एक बंगाली परिवार में हुआ था। माता-पिता ने उनका नाम मुकुंद लाल घोष रखा। जन्म के कुछ समय बाद उनकी माता, उन्हें अपने गुरु लाहिड़ी महाशय के आशीर्वाद के लिए बनारस ले गईं। लाहिड़ी महाशय ने कहा, 'छोटी मां, तुम्हारा पुत्रा एक योगी होगा।Ó परम सत्य की खोज के क्रम में अपने गुरु स्वामी युक्तेश्वर गिरि जी के पास पहुंचे। सन् 1915 में दस वर्षों के आध्यात्मिक प्रशिक्षण के बाद योगानंद जी ने संन्यास का स्वामी पद ग्रहण किया। परमहंस ने मार्च 1952 में अपना शरीर त्यागा।  
क्रिया योग का पुनरुत्थान
2012 में आश्रम में क्रिया योग की 150 वीं वर्षगांठ मनाई गई। परमहंस जी ने अपनी योगी कथामृत में एक अध्याय क्रियायोग विज्ञान के लिए समर्पित किया है। स्वामी जी ने स्पष्ट किया कि यह वही विज्ञान है, जिसकी भगवान कृष्ण ने भागवतगीता में चर्चा की है और जिसका ज्ञान महर्षि पतंजलि को भी था। यह एक सरल मन:कायिक प्रणाली है, जिसके द्वारा मानव-रक्त कार्बन रहित तथा ऑक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है। इस अतिरिक्त ऑक्सीजन के अणु जीवन प्रवाह में रूपांतरित होकर मस्तिष्क और मेरुदंड के चक्रों को नव शक्ति से पुन: पूरित कर देते हैं। प्राकृतिक नियम या माया के अंतर्गत मनुष्य की प्राण शक्ति का प्रवाह बहिर्विश्व की ओर होता है, जिससे उस शक्ति का प्रवाह इंद्रियों के दुरुपयोग के कारण व्यर्थ ही खत्म हो जाता है। मानसिक प्रक्रिया प्राण शक्ति अंतर्जगत की ओर बहती है और मेरुदंड-स्थित सूक्ष्म शक्तियोंं के साथ पुन: मिल जाती हैं। इस प्रकार प्राण शक्ति के प्रबलीकरण द्वारा योगी के शरीर तथा मस्तिष्क के कोष आध्यात्मिक अमृत से पुनर्नवीन हो जाते हैं। परमहंस जी ने कहा था, क्रिया योग गणित की तरह काम करता है। इसके परिणाम सुनिश्चित हैं। 

झारखंड में भी पगड़ी बदल कर हीरा लूटा गया था

भारत में संधि के अन्तर्गत पगड़ी या मुकुट बदलने की परंपरा रही है। इसी परंपरा के अन्तर्गत कोहीनूर हीरा भारत से बाहर चला गया। जो आज इंग्लैड की महारानी के मुकुट पर लगा है।

पगड़ी बदल कर हीरा प्राप्त करने का वाक्या झारखंड में भी हुआ था जिसके बारे में कम लोगों को ही मालूम है। मजेदार बात है कि दोनों वाक्ये में और भी समानतायें हैं। पहले कोहीनूर की बात कर लेते हैं। नादिर शाह ने जब दिल्ली पर हमला किया तो उस समय तक मुगल शासन कमजोर पड़ चुका था। मुगल बादषाह मुहम्मद शाह को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। काफी हीरे जवाहरात लूट लिए गए। खून की नदी बह गई। अंत में मजबूरन मुहम्मद शाह ने संधि का प्रस्ताव रखा। संधि के शर्तो में यह बात भी थी कि अगर जरूरत पड़ी तो नादिर शाह, मराठा शक्तियों के खिलाफ मुहम्मद शाह को सहायता प्रदान करेगा। इस बीच नादिर शाह को पता चला कि सबसे कीमती कोहीनूर हीरा मुहम्मद शाह ने अपनी पगड़ी में छिपा रखा है। नादिर शाह ने पगड़ी बदलने की रस्म पर जोर डाला। पगड़िया बदली गई। इस तरह कोहीनूर हीरा नादिर के हाथ में पड़ गया जो अन्ततः कई हाथों से होते हुए इंग्लैड के महारानी के पास पहुँच गया।

अब झारखंड की बात पर आते हैं। 12 अगस्त 1765 ई॰ को मुगल बादषाह शाह आलम द्वितीय से ब्रिटिष ईस्ट इंडिया कम्पनी को बंगाल, बिहार व उ़ड़ीसा की दीवानी (राजस्व प्रसाशन) मिली। इसी के साथ अंग्रेजों को झारखण्ड में पांव जमाने का मौका मिला। तब तक पलामू, झारखंड का राजा करीब-करीब स्वतंत्र था।

28 जनवरी 1771 ई॰ में कैप्टन कैमक झारखंड प्रवेष करता है। पलामू के चेरो राजा चित्रजीत राय पलामू के नये किला को परित्याग कर पुराने किले में शरण लेते हैं। पुराने पलामू किला को अंग्रेज सेना घेर लेती है। भयंकर गोलाबारी होती है। चेरो राजा चित्रजीत राय पराजित होते हैं तथा अपने दीवान जयनाथ सिंह के साथ रामगढ़ भाग जाते हैं।

राजगद्दी का एक अन्य दावेदार गोपाल राय अंग्रेजों के साथ संधि कर लेता है। 1 जुलाई 1771 को गोपाल राय को पलामू का राजा घोषित किया जाता है। इसके बाद की घटना के बारे में ब्रैडले-बर्ट अपनी किताब “छोटानागपुर, ए लिटल नोन प्राविन्स आफ दी एमपायर ;(Chotanagpur, a little known Province of the empire) के 17वें पृष्ठ पर लिखते है” कैप्टन कैमक अपनी सेना के साथ पलामू के राजा से मिलते हैं। राजा अपने को अंग्रेज सरकार के अधीनस्थ मानते हुए मराठा शक्तियों के विरूद्ध अंग्रेजों का साथ देने के वचन के साथ तीन हजार (3000) रूपया नजराना देता है। कैमक कम्पनी के लिए अपना काम पूरा करने के बाद अपने लिए भी कुछ प्राप्त करना चाहता है। राजा के पगड़ी में जड़े हीरों को देखकर वह दोस्ती के प्रतीक के तौर पर पगड़ी बदलने की रस्म की बात करता है। राजा न कहने की स्थिति में नहीं था। अन्ततः ये हीरे कैप्टन कैमक के हस्तगत हो जाता है।”
असीत कुमार



चुआड़ विद्रोह के महानायक गंगा नारायण सिंह

मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को 12 अगस्त, 1765 को बिहार, बंगाल, उड़ीसा की दीवानी सौंप दी। दीवानी यानी राजस्व का अधिकार। इसी साल अंग्रेजों का प्रवेश झारखंड में हुआ था। झारखंड में उस समय कई छोटी-बड़ी रियासतें थीं। छोटानागपुर में नागवंशी, पलामू में चेरो, हजारीबाग-रामगढ़ भी राजवंश था। संताल परगना में भी रियासतें थीं। अंग्रेजों ने प्रवेश करने के साथ-साथ राजस्व का अधिकार मिलने के बाद लगान वसूलना शुरू किया। इसका विरोध रियासतों ने शुरू किया। इनमें असंतोष भी बढऩे लगा। जमींदार और स्थानीय आदिवासी समाज भी विरोध में उतर गया। चार साल बाद बड़ा भूम एवं घाटशिला में भूमिजों ने लगान  बढ़ाए जाने का विरोध किया। भूमिज भी मुंडा आदिवासी परिवार से ही आते हैं। लेकिन कालांतर में भूमिज हिंदू धर्म से भी प्रभावित हुए और उनके नामों में यह प्रभाव देख सकते हैं। भूमिज को चूंकि बंगाली चुआर या चुआड़ कहते थे, इसलिए, इसे चुआड़ विद्रोह भी कहा जाता है। भूमिजों के इस पहले विद्रोह को दबाने के लिए लेफ्निेंट नन को भेजा गया। इस बीच सिंहभूम में अन्य भूमिज भी इस विद्रोह में शामिल हो गए। उन विद्रोहियों ने घाटशिला पर आक्रमण कर दिया। कंपनी सरकार के सिपाहियों को भागकर नरसिंह गढ़ में शरण लेनी पड़ी। 
कैलापाल के जागीरदार सुबह सिंह,दामपाड़ा के सरदार जगन्नाथ पातर और धदका के सरदार श्याम गंजन भूमिज विद्रोह के प्रमुख थे। विद्रोह के कारण कंपनी सरकार को अपने कदम पीछे करने पड़े। इसके बाद शांति बनी रही। लेकिन कंपनी सरकार ने फिर जब उत्पात शुरू किया तो 1832-33 में धालभूम, बड़ा भूम व पाटकुम परगनों में गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में भूमिजों ने व्यापक विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह बड़ा भूम के राजा उसके पदाधिकारियों, विशेषकर उसका दीवान माधव सिंह व कंपनी सरकार के खिलाफ था। 20 अप्रैल, 1832 को गंगा नारायण सिंह ने अपने चचेरे भाई व दीवान माधव सिंह की हत्या कर दी। इस हत्या के साथ विद्रोह की शुरुआत हुई।
बड़ाभूम भी रियासत थी। यहां के राजा विवेक नारायण सिंह की दो रानियां थीं। दो रानियों के दो पुत्र थे। 18वीं शाताब्दी में राजा विवेक नारायण सिंह की मृत्यु के बाद दो पुत्रों रघुनाथ नारायण सिंह  व लक्ष्मण सिंह के बीच उत्तराधिकार का झगड़ा हुआ। अंग्रेजों ने रघुनाथ सिंह को राजा बना दिया। ये छोटी रानी के पुत्र थे। भूमिज परंपरा के अनुसार बड़ी रानी के बड़े पुत्र को ही उत्तराधिकार प्राप्त था। कंपनी सरकार की इस करतूत के कारण पारिवारिक विवाद शुरू हो गया। बड़ी रानी के पुत्र लक्ष्मण सिंह थे और स्थानीय भूमिज सरदार लक्षमण सिंह का समर्थन करते थे। परन्तु रघुनाथ को प्राप्त अंग्रेजों के समर्थन और सैनिक सहायता के सामने वे टिक नहीं सके। लक्ष्मण सिंह को राज्य बदर किया गया। जीवनाकुलित निर्वाह के लिए लक्ष्मण सिंह को बांधडीह गांव का जागीर दे दिया गया। यहां उनका काम सिर्फ बांधडीह घाट का देखभाल करना था।
लक्ष्मण सिंह की शादी ममता देवी से हुई। अंग्रेज के अत्याचार की वह कट्टर विरोधी थी। लक्ष्मण सिंह के तीन पुत्र हुए। गंगा नारायण सिंह, श्यामकिशोर सिंह और श्याम लाल सिंह। ममता देवी अपने दोनों पुत्र गंगा नारायण सिंह तथा श्याम लाल सिंह को अंग्रेजों के खिलाफ लडऩे के लिए सदैव प्रोत्साहित करती थीं। गंगा नारायण सिंह जंगल महल में गरीब किसानों पर शोषण, दमनकारी संबंधी कानून के विरूद्ध अंग्रेजों से बदला लेने के लिए कटिबद्ध हो गए। उन्होंने अंग्रेजों की हर नीति के बारे में जंगल महल के हर जाति को समझाया और लडऩे के लिए संगठित किया। इसके कारण सन् 1768 ईस्वी में असंतोष बढ़ा जो 1832 ईस्वी में गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में प्रबल संघर्ष का रूप ले लिया। इस संघर्ष को अंग्रेजों ने गंगा नारायण हंगामा कहकर पुकारा है और वहीं चुआड विद्रोह नाम से इतिहासकारों ने लिखा है। पुरुलिया गजेटियर में भी इसे हंगामा ही करार दिया है। कंपनी सरकार के खिलाफ उन्होंने गोरिल्ला वाहिनी का गठन किया, जिसे हर जाति का समर्थन प्राप्त था। धालभूम, पातकूम, शिखरभूम, सिंहभूम, पांचेत, झालदा, काशीपुर, वामनी, वागमुंडी, मानभूम, अम्बिका नगर, अमीयपुर, श्यामसुंदरपुर, फुलकुसमा, रानीपुर तथा काशीपुर के राजा-महाराजा तथा जमीनदारों ने गंगा नारायण सिंह को समर्थन दिया। गंगा नारायण सिंह ने बड़ाभूम के दीवान तथा अंग्रेज दलाल माधव सिंह को वनडीह में 2 अप्रैल, 1832 ईस्वी को आक्रमण कर मार दिया था। उसके बाद सरदार वाहिनी के साथ वराहबाजार मुफ्फसिल का कचहरी, नमक का दारोगा कार्यालय तथा थाना को आगे के हवाले कर दिया।
बांकुडा के कलेक्टर रसेल, गंगा नारायण सिंह को गिरफ्तार करने पहुंचा। परन्तु सरदार वाहिनी सेना ने उसे चारों ओर से घेर लिया। सभी अंग्रेजी सेना मारी गयी। किन्तु रसेल किसी तरह जान बचाकर बांकुड़ा भाग निकला। गंगा नारायण सिंह का यह आंदोलन तूफान का रूप ले लिया था, जो बंगाल के छातना, झालदा, आक्रो, आम्बिका नगर, श्यामसुन्दर, रायपुर, फुलकुसमा, शिलदा, कुईलापाल तथा विभिन्न स्थानों में अंग्रेज रेजीमेंट को रौंद डाला। उनके आंदोलन का प्रभाव बंगाल के पुरूलिया, बांकुडा के वर्धमान और मेदिनीपुर जिला, बिहार के सम्पूर्ण छोटानागपुर (अब झारखंड), उडीसा के मयूरभंज, क्योंकझर और सुंदरगढ आदि स्थानों में बहुत जोरों से चला। फलस्वरूप पूरा जंगल महल अंग्रेजों के काबू से बाहर हो गया। आखिरकार अंग्रेजों को बैरकपुर छावनी से सेना भेजना पड़ा जिसे लेफ्टिनेंट कर्नल कपूर के नेतृत्व में भेजा गया। सेना भी संघर्ष में परास्त हुआ। इसके बाद गंगा नारायण और उनके अनुयायियों ने अपनी कार्य योजना का दायरा बढ़ा दिया। बर्धमान के आयुक्त बैटन और छोटानागपुर के कमिशनर हन्ट को भी भेजा गया किन्तु वे भी सफल नहीं हो पाए और सरदार वाहिनी सेना के आगे हार का मुंह देखना पड़ा।
अंग्रेजों ने गंगा नारायण सिंह का दमन करने के लिए हर तरह से कोशिश की, लेकिन अंग्रेज टिक न सके। उस समय खरसावां के ठाकुर चेतन सिंह अंग्रेजों के साथ साठ-गांठ कर अपना शासन चला रहा था। गंगा नारायण सिंह ने ठाकुर चेतन सिंह के किले पर सात फरवरी, 1833 को हमला बोल दिया, परंतु इस लड़ाई में वे वीर गति को प्राप्त हुए। उनका सिर काटकर कप्टन थॉमस विलकिंसन के पास भेज दिया गया। कंपनी सरकार की ओर से गंगा नारायण सिंह पर पांच हजार रुपये का इनाम था। इस तरह चुआड़ विद्रोह, भूमिज विद्रोह के महानायक वीर गंगा नारायण सिंह अपना अमिट छाप छोड़कर अमर हो गए, लेकिन उनका बलिदान निरर्थक नहीं गया। अंग्रेजों को झुकना पड़ा। कई तरह की रियायतें देना स्वीकार किया।

किताबों में नहीं, जीवन में समाया है आदि दर्शन

महाराष्ट्र का गढचिरौली जिला नक्सली हिंसा के लिए जब-तब सुर्खियों में रहता है, लेकिन इसी जिले का एक गांव मेढ़ा लेखा सामुदायिकता की नई कहानी लिख रहा है। यहां पांच सौ की आबादी है, लेकिन किसी के नाम जमीन नहीं। जो जमीन है, वह ग्रामसभा के नाम है। सामुदायिकता ही यहां के जीवन का आधार है।
रांची में चल रहे आदि दर्शन पर अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में भाग लेने आए मोहन हीरभाई हीरालाल व देवजी नवलू तोफा ने जागरण से अपने अनुभव साझा किए। तोफा ने कहा, यह गांव आदि दर्शन को जीता है। यहां किताबों में नहीं, जीवन में दर्शन का समावेश है। हीरालाल कहते हैं कि यहां 1000 हेक्टेअर में जंगल है और सौ हेक्टेअर में खेती होती है। जंगल व खेती पर पांच सौ आबादी का अधिकार है। अधिकार को लेकर कई बार वन विभाग के साथ अङ्क्षहसक संघर्ष भी हुआ। संघर्ष जब लंबा चला तो तत्कालीन वन-पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश गांव में आए और फिर उन्होंने कानून के अनुसार वन का अधिकार ग्रामसभा को दिया। वनोपज पर भी जंगल का अधिकार है। यहां बांस की प्रचुर खेती होती है। इसे ग्रामसभा ही बेच सकती है। निजी कुछ भी नहीं। खेती भी सामूहिक होती है। जब गांव में नए बच्चे का जन्म होता है तो उसका भी हक हो जाता है। वे जोर देकर कहते हैं, हमारा बस एक ही नारा है-'केंद्र व राज्य में हमारी सरकारÓ, 'मेरे गांव में हम हीं सरकार।Ó इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि केंद्र व राज्य में हमारी सरकार है, यानी हमारे प्रतिनिधि वहां हैं, जिन्हें अपना वोट देकर भेजते हैं, लेकिन गांव में हमारी सरकार होगी यानी ग्रामसभा की। यहां सभा में हर परिवार से एक महिला-एक पुरुष का भाग लेना अनिवार्य है। यदि एक भी अनुपस्थित रहता है या एक भी व्यक्ति किसी योजना या विचार से सहमत नहीं होता है, उसे लागू नहीं किया जाता है। हमारे यहां सब काम सर्व सहमति से होता है। इसके तीन मूलाधार है-अध्ययन, अङ्क्षहसा व सर्वसहमति। अध्ययन यानी अपने हक-कानून को जानना। वे इस गांव में 1986 में अध्ययन के सिलसिले में आए थे फिर यह गांव-घर भी अपना ही हो गया।
तोफा जनजाति समुदाय हैं। इसे कोया कहते हैं। बाहरी लोग गोंड नाम से पुकारते हैं। तोफा कहते हैं, जो बाहरी लोग आदिवासियों के जीवन का अध्ययन करने आए, गोंडवाना लैंड पर जो आदिवासी आबादी रहती है, उसे गोंड नाम दे दिया जबकि हम सब कोया है यानी इंसान। जैसे झारखंड के हो। हो का मतलब आदमी होता है। तोफा आदि दर्शन के बारे में ईश्वर की अवधारणा जैसी हमारे यहां ऐसी कोई अवधारणा नहीं है। हां, कोया भाषा का एक शब्द है पेन। हम उसे ही पेन कहते हैं, जो हमारे समाज का ऐसा कोई आदमी जो समाज के लिए बड़ा काम किया हो। सीएए व एनआरसी के सवाल पर कहते हैं कि हमारे यहां इसकी कोई समस्या नहीं है। हमारी ग्रामसभा बहुत मजबूत है। जब जिसे 'आदिवासीÓ कहते हैं, उसे सरकार भी मान लेती है। हम कानून को मानने वाले हैं। हम अपनी आजादी के साथ दूसरों की आजादी की भी कद्र करते हैं। हां, चलते-चलते हीरालाल जरूर कहते हैं, यहां आदि दर्शन पर सेमिनार हो रहा है, लेकिन वनाधिकार पर कोई बात नहीं कर रहा, जबकि जंगल के बिना आदिवासी का अस्तित्व नहीं। यही उसके जीवन का दर्शन है।

धरती के हर प्राणी की चिंता करता है आदिवासी

हैदराबाद से आए डॉ सुरेश जगन्नाथम झारखंड के आदिवासी असुर-बिरजिया की मौखिक परंपरा पर काम कर चुके हैं। वे घुमंतू शोधार्थी हैं। केरल-कर्नाटक आदि प्रदेशों के आदिवासियों पर भी काम कर चुके हैं। खुद भी आदिवासी हैं। वे आदिवासी दर्शन के बाबत कहते हैं, आदिवासी केवल मनुष्य की चिंता नहीं करता। उसके चिंता के केंद्र में धरती का हर प्राणी और पूरा ब्रह्मांड है। वे कहते हैं, इस चिंता में हमारा पूरा मौखिक साहित्य भरा पड़ा है। वे नेतरहाट के असुरों के एक लोकगीत का जिक्र करते हैं। अभी आस्ट्रेलिया के जंगल में आग से लाखों जानवर मर गए। यहां सैकड़ों साल से यह गीत मौखिक परंपरा से चला आ रहा है-जंगल जल रहे हैं, जीव-जंतु भाग रहे हैं। शेर-भालू भाग रहे हैं, लेकिन जो छोटे-छोट जीव हैं, रेंगने वाले जीव हैं, वह कैसे भाग पाएंगे? इस गीत में छोटे जीव-जंतु के प्रति करुणा है, संवेदना है। दरअसल, यही आदि दर्शन है। 
वे कहते हैं, आदिवासी प्रकृति से अलग नहीं रह सकता है। तथाकथित सभ्य संस्कृति ने आदिवासियों से बहुत कुछ लिया, लेकिन आज वे पिछड़ा मानते हैं। सुरेश इसे एक उदाहरण से समझाते हैं। वे कहते हैं कि केरल में जब आप किसी के घर जाएंगे तो पानी जो मिलेगा, उसमें कुछ मिला हुआ होगा। वे जीरा को उसमें मिलाते हैं। यहां की जलवायु के लिए यह जरूरी है। लेकिन इसका मूल आदिवासी है। आदिवासियों में यह परंपरा मिलती है, जिसे लोगों ने अपनाया। अभी मकर संक्राति का पर्व बीता है। हम लोग भी मकर संक्राति मनाते हैं, लेकिन मकर संक्रांति के तीन तीन बाद। हम इसमें अपने पूर्वजों को याद करते हैं। हम पांच से सात पीढ़ी तक के पूर्वजों को उनके पसंद के व्यंजन परोसते हैं। पीढिय़ों से चले आ रहे इस विश्वास को अगली पीढ़ी को सौंपते हैं। इसमें किसी प्रकार का तर्क नहीं, यह हमारा विश्वास है। इसका मकसद यही है कि हम अपने पूर्वजों को कतई न भूलें।
वे इस बात पर चिंता व्यक्त करते हैं कि आज धरती को उपभोक्तावादी संस्कृति लील रही है। जल, जंगल, जमीन खत्म होते जा रहे हैं। जहां आदिवासी आबादी है, वहीं जंगल सुरक्षित है। चाहे अपने देश की बात हो या विदेश की। आदिवासी संस्कृति का मूल एक ही है, भले भाषा अलग-अलग हो। आज हमारी भाषा, संस्कृति के सामने भी कई चुनौतियां हैं। इनका सामना करना होगा। हवा, पानी की शुद्धता जंगल पर निर्भर है, लेकिन जंगलों को बेरहमी से काटा जा रहा है। इस विकास के मॉडल को बदलना होगा।

विवेकानंद ने सात बार की थी बाबा धाम की यात्रा

स्वामी विवेकानंद देवघर करीब सात बार आए। पहली बार 1887 की गर्मियों में, जब वे बीमार हो गए थे। गुरु भाइयों के अनुरोध पर जलवायु परिवर्तन के लिए वे वैद्यनाथ और सिमुलतला आए। गुरु भाइयों ने भिक्षा मांगकर स्वामी विवेकानंद को यहां भेजा था, लेकिन वे बहुत दिन रह नहीं पाए। दो साल बाद फिर वे यहां आए। यहां से तब कई पत्र लिखे। एक पत्र 24 दिसंबर, 1889 को स्वामीजी ने बलराम बसु को लिखा था...'मैं वैद्यनाथ में कुछ दिनों से पूर्ण बाबू के निवास-स्थान में ठहरा हंू। यहां उतनी ठंड नहीं है, और मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं है, शायद यहां के पानी में लोहा अधिक होने के कारण मुझे अपच की शिकायत हो रही है। मुझे तो अपने अनुकूल यहां कुछ भी नहीं मिला-न स्थान, न मौसम और न साथी ही।Ó यहां की जलवायु उनके स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं थी। इसलिए वे बहुत दिन तक यहां रह नहीं पाए। यह पत्र लंबा है। उन्होंने यहां गोविंद चौधरी का जिक्र करते हैं। उनके बारे में तरह-तरह की उड़ रही बातों का उल्लेख भी इस पत्र में किया है। दो दिन बाद उन्होंने 26 दिसंबर को यहां से प्रमदादास मित्र को पत्र लिखा। यह अपेक्षाकृत छोटा है। करीब दस पंक्तियों का। यहां एक सूचना दर्ज है-'मैं यहां कलकत्तानिवासी एक सज्जन के मकान पर दो चार दिन से हूं-किंतु वाराणसी के लिए चित्त अत्यंत व्याकुल है।Ó यहां से वे वाराणसी नहीं, सीधे इलाहाबाद जाते हैं।
एक साल बाद 1890 के अगस्त में वे भागलपुर आए थे। यहां से वे अखंडानंद जी के साथ लखीसराय और वहां से देवघर आए। अखंडानंदजी लिखते हैं, 'इसके पूर्व मेरा वैद्यनाथ दर्शन नहीं हुआ था। बाबा का दर्शन करने के लिए मैंने स्वामीजी से बड़ा आग्रह किया और हठपूर्वक उन्हें वैद्यनाथ ले आया। भागलपुर से देवघर की दूरी 126 किमी है। वहां पहुंचकर उन्होंने शिव का दर्शन-पूजन आदि किया और उसके बाद बंगाल के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता राजनारायण बोस से मिलने गए।Ó राजनारायण बोस समाज सुधारक व ब्रह्मसमाज के नेता थे। वे उन दिनों देवघर के ही 'पुराना दहÓ इलाके में रहते थे। यह मुलाकात काफी रोचक थी...। महेंद्रनाथ दत्त ने लिखा है कि, बोस महाशय के साथ नरेंद्रनाथ की पुरानी तथा आधुनिक काल की घटनाओं, ब्रह्मसमाज आदि विषयों पर कई तरह की चर्चा होने लगी। बातचीत के दौरान नरेंद्रनाथ ने पूछा-आपका स्वास्थ्य इतना बिगड़ कैसे गया? बसु महाशय ने सरल तथा निष्कपट भाव से बताया, मद्य, मद्य, मद्य। नया-नया अंग्रेजी भाव देश में प्रविष्ट होने पर, उसके साथ-साथ यह धारणा भी प्रविष्ट हुई कि मद्यपान किए बिना न पढ़ाई-लिखाई होगी और न ही देश का काम हो सकेगा। इसलिए हम लोगों ने मद्यपान शुरू किया।....इसी से स्वास्थ्य चौपट हो गया। कुछ समय बाद जब स्वामीजी का नाम विश्व में प्रसिद्ध हो गया तब राजनारायण बाबू को समझ में आया कि ये ही संन्यासी तो कई साल पूर्व उनसे मिलने आए थे, तब उस भेंट की घटना उनकी स्मृति पटल पर उभर आई। हालांकि यह भी कहा जाता है कि 1898 में भी वे देवघर आए थे और वृद्ध राजनारायण बाबू से मिलने गए थे। उन्होंने स्वामीजी से दोपहर को वहीं भोजन करने का अनुरोध किया और उस दिन स्वामीजी ने स्वयं ही भोजन पकाया था। हालांकि इस बार वे वैद्यनाथ धाम में राजनारायाण बाबू के यहां रात बिताने के बाद अगले दिन वाराणसी के लिए चल पड़े। हालांकि वे वाराणसी सीधे नहीं गए। 30 दिसंबर, 1889 को उन्होंने इलाहाबाद से पूज्य पाद बलराम बसु को पत्र लिखा था। इसके बाद वे 21, जनवरी 1890 को गाजीपुर पहुंचे। यहां वे अप्रैल के प्रथम सप्ताह तक रहे और प्रसिद्ध संत पवहारी बाबा का दर्शन किया। यहां भी वे अपने कमर दर्द व बुखार को लेकर परेशान थे। गाजीपुर में वे अपने बाल्यबंधु सतीशचंद्र मुखर्जी के आवास पर ठहरे थे। बाद में उन्होंने पवहारी बाबा नाम से एक छोटी सी पुस्तिका लिखी और इस तरह गाजीपुर के इस संत को उन्होंने विश्व में पहुंचाया। एक लंबे अंतराल के बाद विवेकानंद फिर देवघर आए। तीन जनवरी, 1898 को उन्होंने देवघर से एक बंगाली शिष्या को पत्र लिखा। 23 दिसंबर 1900 को भी उन्होंने देवघर से ही मृणालिनी बसु को पत्र लिखा था। यानी, उनकी देवघर आना-जाना लगा रहा। भले ही उनको यहां की जलवायु पसंद नहीं थी। विवेकानंद निरंतर यात्रा करते रहे और संतों से मिलते रहे। यह यात्रा अंदर की भी थी और बाहर की भी।    

ताड़ीघाट स्टेशन पर भूखे-प्यासे विवेकानंद


जब विवेकानंद गाजीपुर से गंगा के उस पार स्थित ताड़ीघाट स्टेशन पर उतरे, तब तक दोपहर बीत चुकी थी। स्टेशन के चौकीदार ने स्वामीजी को प्लेटफार्म के ऊपर बने शेड की छांव में नहीं बैठने दिया। विवश होकर वे विश्रामागार के बाहर ही जमीन पर अपना कंबल बिछाकर एक खंभे के सहारे बैठ गए। स्वामीजी ने सुबह से कुछ खाया नहीं था। उनके बिल्कुल सामने शेड के नीचे एक बनिया बड़े आराम से अपनी दरी पर बैठा था और थके-मांदे स्वामीजी को तरह-तरह से चिढ़ाने की चेष्टा कर रहा था। उसने कहा, 'अरे, देखो, पैसे में कितनी शक्ति है। तुम तो पैसा-कौड़ी रखते नहीं और उसका फल भी भोग रहे हो। परंतु मैं रुपये पैसे कमाता हूं और मेरी मौज मस्ती देख लो।Ó यह कहकर वह अपने साथ लाए खाद्य पदार्थों को खोलकर खाने लगा तथा स्वामीजी को वह सब दिखा-दिखाकर कहने लगा-'ये सारी पूडिय़ां, पेड़े, मिठाइयां क्या बिना पैसे के मिल सकती हैं?Ó
स्वामीजी सब कुछ चुपचाप सहे जा रहे थे। तभी अचानक वहां एक अन्य व्यक्ति आ पहुंच। उसके दाएं हाथ में एक गठरी तथा एक लोटा और बाएं हाथ में एक सुराही जल तथा एक दरी थी। प्लेटफार्म पर चारों ओर कई चक्कर लगाने के बाद वह स्वामीजी के पास आकर बोला-'बाबाजी, आप धूप में क्यों बैठे हैं? छांव में चलें। मैं आपके लिए कुछ भोजन-पानी लेकर आया हूं, कृपया ग्रहण करें।Ó
स्वामीजी सहसा विश्वास नहीं कर सके। आए हुए व्यक्ति द्वारा बारंबार भोजन के लिए अनुरोध करने पर स्वामीजी ने कहा-'भाई, मुझे ऐसा लगता है कि तुम भूल कर रहे हो। शायद किसी दूसरे को देने के लिए आए थे और गलती से मेरे पास चले आए हो।Ó इसके बाद भी उस व्यक्ति ने कहा, 'नहीं, नहीं, आप ही तो वे बाबाजी हैं, जिन्हें मैंने देखा था।Ó स्वामीजी ने उत्सकुतावश पूछा-'इसका मतलब? तुमने मुझे कब देखा?Ó
तब उसने सारा वाकया स्पष्ट करते हुए कहा-'देखिए, मैं एक हलवाई हूं। मेरी मिठाइयों आदि की दुकान है। दोपहर को भोजन के बाद मैं लेटकर विश्राम कर रहा था, उसी समय समने में देखा कि रामजी आकर मुझसे कह रहे हैं-मेरा एक साधु स्टेशन पर भूखा-प्यासा पड़ा हुआ दुख भोग रहा है। सुबह से ही उसने कुछ खाया-पीया नहीं है। तू तुरंत जाकर उसकी सेवा कर।Ó मैंने इसे अपने मन का भ्रम समझा और करवट बदलकर फिर सो गया। परंतु श्रीरामजी कृपा करके पुन: आए और मुझे धक्का देकर उठा दिया। फिर उन्होंने जैसा पहले कहा था, वही करने का आदेश दिया। तब मैं बिस्तर छोड़कर उठा और तंबाकू लेकर मैं यथाशीघ्र स्टेशन आ गया।
स्वामीजी ने फिर जानना चाहा, 'तुमने यह कैसे जाना कि वह साधु मैं ही हूं?Ó हलवाई बोला, 'पहले मुझे भी संदेह हुआ था, इसीलिए यहां आते ही मैंने एक बार चारों ओर घूमकर देख लिया, किंतु अन्य किसी साधु को न देखकर समझ गया कि वह साधु आपके सिवा कोई अन्य नहीं हो सकता।Ó इसके बाद उसने स्वामीजी को छाया में बैठाकर खाना खिलाया। भोजन के बाद हाथ पर पानी डालकर धुला दिया और धूम्रपान के लिए चिलम भर दी। स्वामीजी द्वारा धन्यवाद दिए जाने पर उसने कहा-'नहीं, नहीं, स्वामीजी, मुझे धन्यवाद मत दीजिए, यह बस रामजी की लीला है।Ó

अपने ही गांव घर में उपेक्षित हैं जयपाल सिंह

झारखंड को एक नई दिशा देने वाले जयपाल सिंह मुंडा अपने ही गांव में उपेक्षित हैं। गांव में उनका पुश्तैनी घर ढह रहा है। उनकी कब्र भी गांव में उदास पड़ी हुई है। हम अपने नायकों का इसी तरह सम्मान करते हैं। जबकि बिरसा मुंडा के बाद जयपाल मुंडा ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिनकी आवाज देश में नहीं नहीं, विदेशों में भी गूंजती थी। ऑक्सफोर्ड में उनकी पढ़ाई का यह नतीजा रहा कि वे आदिवासियों के हित के लिए संविधान सभा और उसके बाद संसद में अपनी आवाज पूरी तार्किकता से उठाई। संसद में तब उन्होंने कहा था-'आदिवासियों को लोकतंत्र का पाठ न पढ़ाया जाए।Ó
इस महानायक का जन्म खूंटी जिले का टकरा गांव में धरती आबा बिरसा मुंडा के शहीद होने के दो साल बाद 1903 में हुआ था। रांची से इसकी दूरी 11 मील है। उनके पिता अमरू परंपरागत रूप से मुंडा समाज के पाहन थे। पाहन यानी पुजारी। रांची से पढ़ाई की यात्रा शुरू हुई तो विदेश में जाकर रुकी। वहीं से हॉकी में अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाई। इसके बाद भारत लौटे से पढ़ाने का काम किया और फिर अलग राज्य के लिए झारखंड आंदोलन में सक्रिय हो गए।
जयपाल सिंह पर पुस्तक लिखे संतोष किडो कहते हैं कि झारखंड के सपूत शहीद जयपाल ङ्क्षसह मुंडा भले ही हॉकी चैंपियन के रूप में विश्वभर में अपनी एक अलग पहचान बनाई, लेकिन अपने गांव-घर और सूबे में उपेक्षित हैं। मुंडा का पैतृक घर लोग विदेशों से भी देखने आते हैं जो पूरी तरह से धंस चुका है। अब यहां सिर्फ खंडहर दिखता है। यहां हर साल बड़े-बड़े नेता उनकी पुण्यतिथि व जयंती पर ही आते हैं। उनके पैतृक घर के जीर्णोद्धार की बात किसी को नहीं सुझती। इतना तो उन्होंने काम कर ही दिया कि वहां एक भव्य स्मारक बन सके और एक पुस्तकालय, जहां उनसे जुड़ी पुस्तकें, उनके सामान प्रदर्शित हो सकें और जो बाहर से यहां देखने आएं, वे खुद को धन्य कर सकें। अब केंद्रीय मुत्री व खूंटी सांसद अर्जुन मुंडा ने उनके गांव को आदर्श गांव बनाने की घोषणा कर दी है, लेकिन यहां अन्य शहीदों के आदर्श गांव को देखें तो कोफ्त ही होती है। रांची शहर में बना उनके नाम का स्टेडियम अब नाम का रह गया है। कोई सड़क, उनके नाम से कहीं जाती हो, पता नहीं।
संविधान सभा से लेकर संसद व सड़क तक आदिवासियों की आवाज रहे जयपाल सिंह मुंडा ने झारखंड अलग राज्य के लिए अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया था, जिसका खामियाजा उन्हें व उनकी पार्टी को भुगतना पड़ा, क्योंकि कांग्रेस ने उन्हें धोखा दे दिया। संसद में नेहरू से इस पर सवाल भी किया। बाद में उन्हें विलय को लेकर पछतावा हुआ। 13 मार्च 1970 को रांची में आयोजित झारखंड पार्टी के सम्मेलन में पार्टी में लौटने की सार्वजनिक घोषणा की, लेकिन 20 मार्च को उनका निधन। बहुत कम लोग जानते हैं कि तत्कालीन बिहार सरकार में वे मात्र 29 दिन उपमुख्यमंत्री भी रहे।
जयपाल सिंह के भाषणों को पहली बार हिंदी में लाने वाले अश्विनी कुमार पंकज उनके राजनीतिक कॅरियर पर कहते हैं, दिसंबर 1938 की बात है जब वर्षों बाद जयपाल सिंह मुंडा बिहार-झारखंड आए। वे पहले पटना पहुंचे और फिर रांची। अपने गांव टकरा पाहनटोली भी गए। इंग्लैंड जाने के ठीक बीस साल बाद बिहार-रांची की यह उनकी पहली यात्रा थी जो उनके जीवन की वह महत्वपूर्ण घटना है, जिसने न सिर्फ उनके व्यक्तिगत जीवन को पूरी तरह से बदल डाला, बल्कि भारतीय राजनीति में एक ऐसे शख्सियत का उदय हुआ जिसने झारखंड आंदोलन को राजनीतिक मैदान में 'फुल बैकÓ तो बनाया ही, सदियों से देश के करोड़ों आदिवासियों की उपेक्षित आवाज को, उनके नैसर्गिक अधिकार के सवाल और आदिवासियत की पहचान को औपनिवेशिक एवं अंतर औपनिवेशिक भारत में अदम्य साहस के साथ स्थापित किया।
वे आगे बताते हैं, 'आदिवासी जनसभा को संबोधित करते हुए कहा, 'यह मेरे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण अवसरों में से एक है। मैं लगभग बीस साल से आप लोगों के बीच में नहीं था। अब आप हमारी आर्थिक और राजनैतिक आजादी के लिए, आगे आने वाले संघर्ष में मुझसे नेतृत्व करने के लिए कह रहे हैं। आप मुझे अपने एक ऐसे सेवक, जो आपकी सेवा करे, मुझे आमंत्रित कर सर्वोच्च सम्मान दे रहे हैं। ...मैं पूर्ण निष्ठा के साथ स्वयं को उस कार्य के लिए जो आप मुझे सौंप रहे हैं, उसके महती उत्तरदायित्व तथा महान कठिनाइयों को पूरी तरह समझते हुए समर्पित करता हूं।Ó अपने इस वचन को जयपाल सिंह मुंडा ने आजीवन निभाया। अपने अद्भुत सांगठनिक कौशल से उन्होंने आदिवासी सभा को 'अखिल भारतीय आदिवासी महासभाÓ में बदल दिया। स्वतंत्रता की ओर बढ़ते भारत के नए लोकतांत्रिक समाज में आदिवासियों की हक और भागीदारी के लिए राजनीतिक दल 'झारखंड पार्टीÓ बनायी। संविधान सभा में देश के आदिवासियों की इच्छा को बुलंद किया। आदिवासी भाषा, संस्कृति और पुरखा स्वशासन व्यवस्था का पारंपरिक हक संविधान में शामिल हो, इसकी पुरजोर वकालत की। अलग झारखंड राज्य की मांग को राजनीतिक रूप से स्थापित किया। संविधान सभा की बैठक में उन्होंने कहा था, 'आदिवासी दुनिया के सबसे प्रजातांत्रिक समुदाय हैं। नए बनते भारत और भारतीय समाज को आदिवासियों से लोकतंत्र सीखना होगा।Ó


उनके जीवन की कुछ महत्वपूर्ण तिथियां
1950 : एक जनवरी को जमशेदपुर में आयोजित आदिवासी महासभा में राजनीतिक पार्टी 'झारखंड पार्टीÓ की घोषणा।
1951 : मार्च में हुए प्रांतीय एवं केंद्रीय चुनाव में झारखंड पार्टी के 32 विधायक व चार सांसद पार्टी के चुनाव चिह्न मुर्गा पर जीते। रांची पश्चिम यानी खूंटी से जयपाल सिंह चुनाव जीतकर संसद पहुंचे।
1957 : चुनाव में झारखंड पार्टी के 34 विधायक व पांच सांसद चुनाव जीते। जयपाल सिंह खूंटी से पुन: जीत हासिल की।
1962 : झारखंड पार्टी के 22 विधायक व पांच सांसद जीते। खूंटी से तीसरी बार जीत हासिल की।
1963 : 20 जून को झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय।
3 सितंबर को राज्यपाल ने रांची में उपमुख्यमंत्री की शपथ दिलाई। पंचायत एवं सामुदायिक विकास विभाग का मिला प्रभार।
2 अक्टूबर को मंत्री पद से हटाए गए। मात्र 29 दिन मंत्री रहे।
1966 : कांग्रेस से खूंटी सीट पर लगातार चौथी बार जीत हासिल की।
1970 : 13 मार्च को रांची में आयोजित झारखंड पार्टी के सम्मेलन में पार्टी में लौटने की सार्वजनिक घोषणा की।
-20 मार्च को उनका निधन।
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धधकता-बदलता पलामू


पलामू का नाम आते ही जो सबसे पहले छवि बनती है, वह है अकाल, भूख और बंधुआ मजदूरी की। पलामू यानी मृत्यु उपत्यका। इस छवि के निर्माण में कुछ तो प्रकृति की भूमिका रही तो कुछ नव सामंतों और जमींदारों की। इस छवि से पलामू आज भी मुक्त नहीं है। अकाल आज भी एक दो बरस के अंतराल के बाद आ ही जाता है। इसके बाद भूख का नर्तन शुरू होता है। इस नर्तन को बड़े शौक से पलामू के अधिकारी और नेता देखते हैं, क्योंकि अकाल-सूखा इनकी झोली और तिजोरी को भरने का काम करता है। यह खेल आज से नहीं, 1967 से और उसके पहले से चला आ रहा है। तब कई योजनाएं बनीं खेतों तक पानी पहुंचाने के लिए। पर मजा देखिए, वे आज तक पूरी नहीं हुईं, आज तक चल रही हैं और लागत हर साल चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ रही है। सो, पलामू के चरित्र में आज भी कोई ठोस और उपलब्धिपरक बदलाव नहीं आया है। ऐसा भी नहीं कि रांची बहुत दूर है। कुल दूरी 160 किमी. है। झारखंड की राजनीति में पलामू के नेताओं की जबरदस्त दखल है। यह दखल इन्दिरा गांधी के समय भी रहा और सरकार में, पर, इन नेताओं ने पलामू के लिए कुछ विशेष किया हो, पता नहीं। कुछ ईमानदार नेता आज भी सिंचाई साधनों के लिए लड़ रहे हैं। कुछ मांग करते-करते चल बसे। पर, पलामू वहीं है। पलामू का एक चेहरा यह है। दूसरा चेहरा और भी बदसूरत है। तरह-तरह के नक्सली गुट यहां हावी हैं। जमींदारों के उत्पीडऩ से शुरू हुआ हक-हकूक की लड़ाई का आंदोलन आज कई ऐसे पड़ावों पर पहुंच बिखरा-बिखरा और भ्रष्ट नजर आता है। कुछ ऐसे जमींदरों के उत्पीडि़त लोग हैं, जो आज भी न्याय के लिए तरस रहे हैं। मलवरिया नरसंहार की याद से ही सिहरन पैदा हो जाती है। आज मलवरिया को लोग याद करना नहीं चाहते। पलामू की एक हकीकत यह भी है कि जो कभी यहां के राजा थे, वे आज रंक बन गए हैं। आज मजदूरी कर रहे हैं। पलामू का नंगा सच समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में आता रहता है। कई बड़े पत्रकारों ने यहां हफ्तों रहकर यहां की खाक छानी और रिपोर्टिंग की। मशहूर साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु ने यहां आकर अकाल पर कई उम्दा रिर्पोताज लिखे। रामशरण जोशी भी सत्तर के दशक में यहां आकर बंधुआ मजदूरों के दर्द को राष्ट्रीय स्तर पर ले गये। नब्बे के दशक में पी साइनाथ आए और कई रिपोर्टें लिखीं। महाश्वेता देवी ने पलामू को रामेश्वर की आंखों से देखा। वे कई बार यहां आईं। बंधुआ मजदूरों की मुक्ति आंदोलन से जुड़ीं। यहां की दशा, दर्द और दमन देखकर 'भूखÓ उपन्यास लिखा। पलामू के ही रहने वाले मनमोहन पाठक ने 'गगन घटा गहरानीÓ लिखकर स्तब्ध कर दिया। इस क्लैसिक रचना पर हिंदी में चर्चा नहीं होती। डाल्टनगंज के ही रहने वाले काशी में रह रहे कथाकार-पत्रकार श्याम बिहारी 'श्यामलÓ ने पलामू को केंद्र में रखकर 1998 में 'धपेलÓ उपन्यास लिखा, जिससे पहली बार व्यापक स्तर पर हिंदी समाज का ध्यान इस इलाके की ओर खिंचा! 'धपेलÓ पलामू के जनजीवन और वहाँ के चिरंतन संघर्ष की संपूर्णता में उजागर करने वाली पहली औपन्यासिक रचना के रूप में देश स्तर पर चर्चित हुआ, जिसकी सराहना ख्यात आलोचक नामवर सिंह तक ने की। 'श्यामलÓ का दूसरा उपन्यास 'अग्नि पुरुषÓ भी पलामू पर ही केन्द्रित है, जिसमें यहां के जनजीवन में मिथक के रूप में चर्चित 'सतुआ पाड़ेÓ की कथा के बहाने अपने समय-समाज की पड़ताल की गई है। युवा कथाकार राकेश कुमार सिंह ने भी अपने गांव-घर का ऋण लेखन से चुकाया। राकेश ने 'जहां खिले हैं रक्त पलाश', 'पठार पर कोहराÓ, 'साधो, यह मुर्दों का गांवÓ 'आपरेशन महिषासुरÓ के जरिए पलामू के नग्न, जटिल होते यथार्थ और इसके रक्तचरित्र को कई कोणों से देखने-समझने का प्रयत्न किया है। पलामू की यात्रा जारी है। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के बड़े भाई संजीबचंद्र चट्टोपाध्याय ने पलामू नाम से एक यात्रा वृत्तांत लिखा था-1888 में। यह शायद पलामू पर लिखी कोई पहली साहित्यिक कृति मानी जा सकती है। 

बदलता पलामू, सिकुड़ता पलामू
पलामू आज सिकुड़ गया है। पहले गढ़वा और लातेहार दोनों ही पलामू के अंग थे। एक अप्रैल, 1991 को गढ़वा अनुमंडल को जिला घोषित किया गया और लातेहार अनुमंडल को दस साल बाद, चार अप्रैल, 2001 को जिला बना दिया गया। पलामू पहले परगना था। 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी के मातहत हुआ। एक जनवरी, 1892 को यह जिला बना। सौ साल बाद 3 मई, 1993 को इसे प्रमंडल बनाया गया। पलामू, धरती का प्राचीनतम भूखंड माना जाता है। पलामू के नामकरण पर भी तरह-तरह के कयास लगाए जाते हैं। पहला तो यही कि यहां कभी खूब पाला पड़ता था, जिसके कारण फसलों, पशु-पक्षियों और जन की काफी हानि होती थी। इसलिए इसे पलामू कहा गया-यानी पाला का घर। एक दूसरा मत यह है कि इस क्षेत्र में पलायनवादियों या भागे हुए लोगों को शरण मिलती रही। सो, यह पलामू कहलाया। तीसरा मत यह है कि औरंगा नदी के किनारे स्थित किले के राजाओं की कुलदेवी 'पालामाÓ थीं, इसलिए पलामू कहा गया। पालामा यानी पालन करने वाली मां। पलामू के डिप्टी कमिश्नर रहे मैकफर्सन ने अनुमान लगाया कि पलामू द्रविड़ गोत्र का शब्द है। द्रविड़ भाषा में पाल का अर्थ दांत और आम का अर्थ पानी होता है। इसी से पलामू शब्द निकला। अनुमान कई हैं। हवलदारी रामगुप्त 'हलधरÓ ने अपनी पुस्तक 'इतिहास पलामू काÓ और रामेश्वरम ने अपने कई लेखों में पलामू शब्द पर विचार किया है। अंग्रेज जब आए तो वे पलामू को पालामऊ च्ंसंउंन लिखने लगे। कहानियाँ और भी हैं फिर भी एक बात साफ है, जब से इस अंचल को पुकारा जा रहा है, वह शब्द पलामू ही है। अब यह शब्द कहां से आया है, किसने इसे प्रचलित किया, यह आज तक अज्ञात है। एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि यहां कई जातियां आईं और बस गईं और बाद में आगे बढ़ती गईं। पर एक जाति कोल के बारे में कोई जानकारी नहीं है। कोल आदिम काल से ही यहां की उपत्यका में निवास करते आ रहे हैं और आज भी हैं। अब ये आदिम जनजाति की श्रेणी में हैं। संजीब ने इनका खूब जिक्र किया है। ये आर्यों और द्रविड़ों के आगमन से पहले से ही यहां रह रहे हैं। वे जब आए तो ये जंगलों की ओर खिसक गए और जंगल ही इनका आसरा हो गया। बहुत बाद में द्रविड़ गोत्र की मार्ह जाति आई। कहा जाता है कि यह कर्नाटक की ओर से आई। इन्होंने कई किलों का निर्माण किया, जिनके ध्वंसावशेष आज भी मौजूद हैं। फिर इसी गोत्र के मध्यकाल में उरांव आए। ये रोहतास होते हुए पलामू आए और यहां लंबे समय तक रहने के बाद रांची की ओर चले आए। रोहतासगढ़ का किला उरांवों का ही बनवाया हुआ बताया जाता है। मुगलों ने आक्रमण कर कब्जा कर लिया तो फिर वे वहां से पलायन कर गये। मुगल और उरांवों के संघर्ष की कथाएं आज भी लोकगीतों में सुरक्षित हैं। इसमें महिलाओं ने मोर्चा संभाला था। इस संघर्ष की याद में ही 'जनी शिकारÓ पर्व मनाया जाता है। पलामू के इतिहास में रकशेलों का भी बड़ा महत्व है। उनका यहां दो हजार साल पुराना इतिहास मिलता है।

पौराणिक आख्यानों में पलामू
पौराणिक आख्यानों पर विश्वास करें तो पुराने लोग कहते आ रहे हैं कि इस वन प्रांत को महाराज दशरथ ने रामजी के विवाहोत्सव के समय बाजा बजाने वालों को ईनाम में दिया था। महाभारत काल में यह वन खंड प्रतापी राजा बब्रुवाहन के राच्य में शामिल था। पांडवों ने यहां अज्ञातवास में कुछ समय भी बिताया थे। हुसैनाबाद में भीम चूल्हा को लोग उसी से जोड़कर देखते हैं। बौद्ध काल के भी कुछ अवशेष मिले हैं। हुुसैनाबाद के आस-पास प्राचीन इतिहास के कई सूत्र मौजूद हैं। प्रखंड के पंसा व सहराविरा गांव में दो स्तूप मिले हैं। स्तूप मिट्टी के बने हैं। दूसरा स्तूप सहारविरा गांव में मिला है। यह पंसा गांव से 5 किमी. दूर है। इस स्तूप की ऊंचाई तीन मीटर है और परिधि आठ मीटर। इसमें पकी ईंटों का भी इस्तेमाल हुआ है। स्तूप के बीच में पत्थर का स्तंभ है। स्तंभ के ऊपरी हिस्से पर बुद्ध की आकृति है। यह 6वीं-7वीं शताब्दी का है। पलामू में एक रॉक पेंटिंग मिली है। हुसैनाबाद अनुमंडल के महुदड़ पंचायत की लिखलाही पहाड़ी पर के इनसाइक्लोपीडिया रामेश्वरम मछली के जीवाश्म का भी जिक्र करते हैं, जो पलामू के रजडंडा, महुआडांड़ में मिला था। नेतरहाट की पहाड़ी में आठ लाख वर्ष पूर्व च्वालामुखी के विस्फोट से प्राकृतिक रंगशाला का निर्माण हुआ था, जो आज भी है।
स्पष्ट है कि पलामू का इतिहास ज्ञात इतिहास से कहीं अधिक प्राचीन है। जिले के शाहपुर, अमानत पुल, रंकाकलां, दुर्गावती पुल, बजना, वीरबंध, मैलापुल, चंदरपुर, झाबर, हाथीगारा एवं बालूगारा, नाकगढ़ पहाड़ी आदि स्थलों पर खुदाई में पूर्व, मध्य और उत्तर पाषाणकाल के साथ नव पाषाणकाल के पत्थर के औजार भी प्राप्त हुए। इनमें कुल्हाड़ी, स्क्रेपर, ब्लेड, बोरर और ब्यूरिम मुख्य हैं। भवनाथपुर के निकट प्रागैतिहासिक काल के दुर्लभ शैलचित्र भी मिले हैं। कई प्राकृतिक गुफाएं भी यहां हैं।

औरंगा नदी को निहारता पलामू किला
औरंगा नदी के तट पर पलामू किला है। 17वीं शताब्दी से चेरो वंश के राजा यहीं से राज करते थे। इस वंश के प्रथम शासक भागवत राय थे। उनका शासन 1613 ई. में शुरू हुआ था। इस वंश के सबसे प्रतापी राजा थे मेदिनी राय। गढ़वा से 16 किमी उत्तर-पूर्व में विश्रामपुर में एक गढ़ है। इसे पलामू के राजा जयकिशन राय के भाई नरपत राय ने बनवाया था। डालटनगंज के पास भी एक अधूरे किले के अवशेष हैं। इसे 18वीं शताब्दी में पलामू के ही राजा गोपाल राय ने बनवाना शुरू किया था लेकिन किला अधूरा रह गया। पलामू में पुराना किला और नया किला हैं। इतिहास की किताबों में दर्ज तथ्य के अनुसार पुराने किले से 12वीं शताब्दी की बुद्ध की भूमिस्पर्श मुद्रा में एक मूर्ति मिली थी।

च्यवन ऋषि की संतान चेरो
चेरों का काल पलामू के लिए स्वर्णकाल था। इनकी उत्पत्ति च्यवन ऋषि से बताई जाती है। इस जाति से सबसे पहले नेपाल की तराई में कुमाऊं प्रांत में अपना राच्य स्थापित किया। इसके बाद इस वंश ने विभिन्न क्षेत्रों में अपने राच्य कायम किए। कालांतर में इनके वंश के भगवंत राय और पूरनमल पलामू पहुंचे। जिस समय ये पलामू पहुंचे, उस समय पलामू किले पर राजा मानसिंह का अधिकार था। दोनों ने मानसिंह के दरबार में नौकरी कर ली। दोनों की सूझ-बूझ और बहादुरी से प्रसन्न होकर इन्हें सेना की कमान सौंप दी गई। लेकिन एक विश्वासघात से पलामू की तकदीर ही नहीं, इतिहास भी बदल गया। हुआ यह कि राजा मान सिंह के पुत्र का विवाह सरगुजा में तय हुआ। वे बारात लेकर सरगुजा चले गए और किले का भार अपने सरदार भगवंत राय पर छोड़ गए। मौका पाकर भगवंत राय ने मानसिंह के पूरे परिवार को मार डाला और खुद राजा बन बैठा। सेना लेकर वह आगे बढ़ा और बारात वापस लेकर लौट रहे मान सिंह का मुकाबला किया। मानसिंह हार गए और सरगुजा लौट गए। वहां मान सिंह ने वही किया जो भगवंत ने उनके परिवार के साथ किया। उन्होंने सरगुजा के राजा की हत्या कर राच्य अपने अधीन कर लिया और पूरनमल को अपना मंत्री बना लिया। यहीं से रकशेल राजा का अंत और चेरो राजवंश का उदय होता है। 

किले पर आक्रमण और मस्जिद का निर्माण
चेरो राज के संस्थापक भगवंत राय के पोते अनंत राय के शासन काल में औरंगजेब का तत्कालीन बिहार सूबेदार दाऊद खां ने पलामू पर कब्जा कर लिया। लेकिन उसके वापस लौटते ही चेरो राजा ने पुन: अधिकार कर लिया। इस बीच और घटनाएं हुईं। दाऊद खां ने पुन: 3 अप्रैल 1660 को उसे पराजित किया। इस बार उसने किले को ही नुकसान नहीं पहुंचाया बल्कि किले के अंदर मंदिरों को तोड़कर मस्जिद का निर्माण भी करवाया। उसी तरह किले के सिंहद्वार पर स्थित मंदिर को भी तोड़कर मस्जिद बनवाई। इसके ध्वंसावशेष आज भी किले के अंदर और बाहर मौजूद हैं। मुगलों के आगमन के साथ ही पलामू में उथल-पुथल तेज हो गई। अंग्रेजों के समय तो पूरा क्षेत्र धधक उठा। 1857 की आग यहां भी लगी और नीलांबर-पीतांबर ने इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया। 1857 के संग्राम के करीब 26 साल पहले ही झारखंड की जनजातियों ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। झारखंड की सांस्कृतिक पहचान का राजनीतिक अर्थ भी पहली बार 1831 के कोल विद्रोह से उजागर हुआ था। उसमें मुंडा, हो, उरांव, भुइयां आदि जनजातियां शामिल थीं। इस विद्रोह का केंद्र रांची, सिंहभूम और पलामू था। इसके बाद तो पलामू रह-रहकर धधकता रहा। और आज भी धधक रहा है। भले ही आज कारण दूसरे हों।